UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime (अपराध) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime (अपराध). Show UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime (अपराध)विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक) प्रश्न 1. अपराध की परिभाषा अपराध एक ऐसा कार्य है, जो लोक-कल्याण के लिए अहितकर समझा जाता है तथा जिसे राज्य के द्वारा पारित कानून द्वारा निषिद्ध कर दिया जाता है। इसके उल्लंघनकर्ता को दण्ड दिया जाता है। अपराध को विभिन्न समाजशास्त्रियों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है इलियट तथा मैरिल के अनुसार, “अपराध को एक ऐसे समाज-विरोधी व्यवहार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे समाज ‘अमान्य करता है और इसके लिए दण्ड की व्यवस्था करता है।’ लैण्डिस और लैण्डिस के अनुसार, “अपराध वह कार्य है जिसे राज्य ने समूह-कल्याण के लिए हानिकारक घोषित किया है और जिसके लिए राज्य पर दण्ड देने की शक्ति है।” थॉमस के अनुसार, “अपराध एक ऐसा कार्य है जो उस समूह के स्थायित्व का विरोधी है, जिसे व्यक्ति अपना समझता है।” गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “कानूनी दृष्टिकोण से देश के कानूनों के विरुद्ध व्यवहारों को अपराध कहा जाता है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपराध की परिभाषा दो प्रकार से दी गयी है। इसे समाजशास्त्री दृष्टि से, कानूनी दृष्टि से तथा सामाजिक-कानूनी दृष्टि से परिभाषित किया गया है। किसी भी अपराध के लिए दो बातें होनी आवश्यक हैं अपराध के कारण अपराध के लिए निम्नलिखित कारण उत्तर:दायी होते हैं
(ब) अपराध के मनोवैज्ञानिक कारण
(स) अपराध के सामाजिक कारण 1. परिवार-बच्चे के समाजीकरण तथा व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार का महत्त्वपूर्ण योगदान होती है। यदि परिवार का वातावरण ही अच्छा नहीं है तो बच्चों का व्यक्तित्व भी ठीक प्रकारे से विकसित नहीं होता है। सामान्यत: निम्नलिखित गारिवारिक दशाएँ अपराध में सहायक मानी जाती हैं
2. शिक्षा- शिक्षा का भी अपराध से सम्बन्ध स्थापित किया गया है। शिक्षित व्यक्ति अधिकतर नियोजित अपराध करते हैं, जब कि अशिक्षित क्रूर अपराध अधिक करते हैं और सरलता से पकड़े जाते हैं। (द) अपराध के आर्थिक कारण 2. व्यापारिक स्थिति-अपराध की दर तथा व्यापार-चक्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। व्यापार की गिरावट के कारण रोजगार की कमी हो जाती है, माल का निकास रुक जाता है, पैसे की कमी | पड़ जाती है, भ्रष्टाचार बढ़ जाता है तथा इन सबसे अपराध की सामान्य दर प्रभावित होती है। 3. बेरोजगारी-बेरोजगारी भी अपराध का कारण है। अध्ययनों से पता चलता है कि बेकारी, आवारागर्दी और सम्पत्ति के विरुद्ध अपराधों को बढ़ावा देती है। वेश्यावृत्ति तथा महिलाओं में अनैतिकता को कई विद्वानों ने उनकी आर्थिक स्थिति से जोड़ा है। बेरोजगारी मानसिक तनाव की स्थिति पैदा कर देती है, जिससे व्यक्ति आपराधिक कार्यों की ओर अधिक आकर्षित हो जाता है। (य) अपराध के भौगोलिक कारण क्वेटलेट का कथन है कि “अपराध का प्रमुख सम्बन्ध जलवायु से है। जलवायु तथा मौसम में परिवर्तन होने के साथ ही अपराध में भी परिवर्तन देखने को मिलता है।” उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपराध का कोई एक कारण नहीं है, अपितु हो सकता है कि एक ही अपराध के पीछे एक से अधिक कारण हों। आपराधिक कारणों में व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक कारणों का भरपूर सहयोग रहता है। प्रश्न 2 अपराध की परिभाषा अपराध एक ऐसा कार्य है, जो लोक-कल्याण के लिए अहितकर समझा जाता है तथा जिसे राज्य के द्वारा पारित कानून द्वारा निषिद्ध कर दिया जाता है। इसके उल्लंघनकर्ता को दण्ड दिया जाता है। अपराध को विभिन्न समाजशास्त्रियों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है इलियट तथा मैरिल के अनुसार, “अपराध को एक ऐसे समाज-विरोधी व्यवहार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे समाज ‘अमान्य करता है और इसके लिए दण्ड की व्यवस्था करता है।’ लैण्डिस और लैण्डिस के अनुसार, “अपराध वह कार्य है जिसे राज्य ने समूह-कल्याण के लिए हानिकारक घोषित किया है और जिसके लिए राज्य पर दण्ड देने की शक्ति है।” थॉमस के अनुसार, “अपराध एक ऐसा कार्य है जो उस समूह के स्थायित्व का विरोधी है, जिसे व्यक्ति अपना समझता है।” गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “कानूनी दृष्टिकोण से देश के कानूनों के विरुद्ध व्यवहारों को अपराध कहा जाता है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपराध की परिभाषा दो प्रकार से दी गयी है। इसे समाजशास्त्री दृष्टि से, कानूनी दृष्टि से तथा सामाजिक-कानूनी दृष्टि से परिभाषित किया गया है। किसी भी अपराध के लिए दो बातें होनी आवश्यक हैं
प्रश्न 3 सन् 1975 के पश्चात् यह माँग जोर पकड़ने लगी कि मन्त्रियों और बड़े-बड़े अधिकारियों के विरुद्ध जाँच करने वाले आयुक्तों की भी नियुक्ति की जानी चाहिए। इसके फलस्वरूप आज अनेक राज्यों में लोकपाल की नियुक्तियाँ की गयी हैं, जिन्हें बड़े-बड़े अधिकारियों तथा मन्त्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करने के अधिकार दिये गये हैं। अनेक राज्यों में भ्रष्ट अधिकारियों को 50 वर्ष की आयु में अनिवार्य रूप से सेवा-मुक्त कर देने का प्रावधान रखा गया है। इसका उद्देश्य भ्रष्टाचार के मामलों में कानूनी जटिलताओं से बचना तथा प्रभावी कार्यवाही करना है। उपर्युक्त प्रयासों के पश्चात् भी भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं हो सकी। इसका कारण एक ओर, भ्रष्टाचार की जड़ों का बहुत गहराई तक फैला होना है और दूसरी ओर, सरकार तथा प्रशासन की अक्षमता इसके लिए उत्तर:दायी है। केवल यह कहना कि राजनीतिज्ञों, अधिकारियों और जनसाधारण को ईमानदार बनाकर, नैतिक मूल्यों का प्रचार करके तथा राष्ट्रीयता की भावना को प्रोत्साहन देकर भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहिए, एक ख्याली पुलावे पकाना है। भ्रष्टाचार निवारण केवल तभी सम्भव है जब भ्रष्टाचार के मूल कारणों को देखते हुए एक व्यावहारिक योजना के द्वारा इस बुराई को दूर करने के प्रयत्न किये जाएँ। इस योजना के विभिन्न अंगों के रूप में निम्नलिखित सुझाव अधिक उपयोगी हो सकते हैं| 1. व्यापारिक वर्ग में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कर-संरचना में परिवर्तन करना आवश्यक है। व्यापारियों द्वारा सर्वाधिक भ्रष्टाचार करों की चोरी तथा नकली हिसाब-किताब के रूप में मिलता है। यदि प्रत्येक वस्तु के उत्पादन स्थान पर ही पूर्ण सतर्कता के साथ सम्पूर्ण कर (Taxes) ले लिये जाएँ तो सरकार को प्रशासनिक व्यय भी कम करना पड़ेगा और करों की चोरी की सम्भावना भी कम हो जायेगी। 2. छोटे कर्मचारियों में भ्रष्टाचार निवारण के लिए उनके वेतन-स्तर में सुधार आवश्यक है। प्रत्येक स्तर के कर्मचारी को इतना वेतन अवश्य मिलना चाहिए जिससे वह अपने परिवार की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा कर सके। 3. उच्च प्रशासनिक पदों, टेक्निकल कुशलता वाली सेवाओं तथा व्यवसायियों के लिए सेवा के स्थायीकरण (Confirmation of service) की परम्परा प्रजातान्त्रिक समाजों के लिए पूर्णतया गलत है। इन पदों पर एक विशेष अवधि के लिए नियुक्तियाँ की जानी चाहिए। ऐसा करने से प्रत्येक व्यक्ति अपनी कुशलता को बढ़ाने का प्रयत्न करेगा तथा अधिक-से-अधिक ईमानदारी से कार्य करके अपने जीवन को निष्कलंक बनाने के लिए प्रयत्नशील रहेगा। 4. सरकारी कार्यालयों में कामकाजी प्रक्रिया में सरलता लाने से भी रिश्वत और दूसरे प्रकार के भ्रष्टाचारों को दूर किया जा सकता है। प्रत्येक विभाग में कार्य की प्रक्रिया को सरल बनाने तथा प्रत्येक निर्णय के लिए अधिकतम समय सीमा का निर्धारण होना चाहिए। 5. जनसाधारण में प्रत्येक कार्यालय के नियमों तथा कार्यविधि का प्रचार करने से भी रिश्वतों को कम किया जा सकता है। ऐसे प्रचार से सरकारी दफ्तरों में आने वाले लोग वहाँ के बाबुओं पर निर्भर नहीं रहेंगे और न ही उन्हें बाबुओं द्वारा गुमराह किया जा सकेगा। 6. वर्तमान परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि महत्त्वपूर्ण निर्णयों का जनसाधारण में प्रकाशन किया जाये। देश को आज सबसे अधिक हानि ऐसे भ्रष्टाचार से होती है जिसमें मन्त्रियों अथवा अधिकारियों द्वारा लाखों और करोड़ों रुपयों की राशि का उपयोग गुप-चुप ढंग से कर लिया जाता है। लोक सम्पत्ति के उपयोग की पूरी जानकारी जनसाधारण को मिलने से भ्रष्टाचार में कमी हो सकती है। 7. राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण लगाने के लिए यह आवश्यक है कि सभी राजनीतिक दलों की वार्षिक आय और व्यय का हिसाब जनसाधारण के लिए प्रकाशित किया जाए। ऐसी सूची प्रकाशित होने से राजनीतिक दलों को चुनाव के समय तरह-तरह के भ्रष्ट व्यवहार करने से रोका जा सकेगा। 8. इन प्रयत्नों के साथ ही देश में एक भ्रष्टाचार विरोधी गुप्त सरकारी संगठन’ का होना आवश्यक है। इस संगठन में प्रशासनिक, तकनीकी तथा व्यावसायिक कुशलता से सम्पन्न अधिकारियों की नियुक्ति होनी चाहिए। यह आरोप लगाया जा सकता है कि कालान्तर में ऐसे गुप्त संगठनों के अधिकारी भी भ्रष्ट बन सकते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि दिल्ली में नियुक्त अधिकारियों का दस्ता यदि चेन्नई के किसी गाँव में जाकर निर्माणाधीन सरकारी इमारत में लगने वाली वस्तुओं की किस्म का निरीक्षण करे तो इससे भ्रष्टाचार उन्मूलन में सहायता ही मिलेगी। 9. अन्त में भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए दण्ड की प्रक्रिया को कठोर बनाना आवश्यक है। भ्रष्टाचार के अभियोग में पकड़े गये व्यक्तियों को जमानत की सुविधा नहीं मिलनी चाहिए। भ्रष्टाचार को कानून के द्वारा एक जघन्य अपराध घोषित किये बिना स्थिति में सुधार नहीं किया जा सकता। गुन्नार मिर्डल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘एशियन ड्रामा’ (Asian Drama) में एशिया और मुख्य रूप से भारत के लोक जीवन में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार को रोकने के लिए अनेक सुझाव दिये हैं-
उपर्युक्त सभी सुझाव इस मान्यता पर आधारित हैं कि एक प्रजातान्त्रिक समाज में भ्रष्टाचार की समस्या जब सभी वर्गों और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त हो जाती है, तो केवल अनुनय, विनम्रता, प्रचार और पुराने कानूनों के द्वारा ही इसका समाधान नहीं किया जा सकता। इस दशा में भ्रष्टाचार का उन्मूलन केवल कठोर अनुशासन और समय के अनुरूप कानूनों के द्वारा ही सम्भव है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन देशों को उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का चस्का लग चुका है वे पूँजीवादी स्वार्थों को लेकर अब उन प्रजातान्त्रिक देशों को भ्रष्ट बनाने का षड्यन्त्र कर रहे हैं, जो अपनी प्रगति स्वयं ही करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में हमारी जनतान्त्रिक स्वतन्त्रता पर भले ही अंकुश लग जाए, लेकिन सम्पूर्ण राष्ट्र की प्रगति और समृद्धि के लिए भ्रष्टाचार पर कठोरता से नियन्त्रण लगाना आज अंत्यधिक आवश्यक है। प्रश्न 4 अपराध राज्य के नियमों का उल्लंघन राज्य में व्यवस्था कायम रखने के लिए और उसका भली-भाँति संचालन करने के लिए कुछ कानून और नियम बनाये जाते हैं। राज्य के हर व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह कानूनों को माने। किन्तु कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जो कानूनों का पालन नहीं करते हैं। वे कानून को भंग करते हैं। भंग करने वालों में दो तरह के लोग होते हैं-एक तो वे लोग, जो अनजाने में कानून-विरोधी कार्य कर डालते हैं और दूसरे वे, जो जान-बूझकर कानून को तोड़ते हैं। कानून को भंग करने का कार्य जब जान-बूझकर किया जाता है, तो ऐसा कार्य कानूनी दृष्टि से ‘अपराध’ कहलाता है। इसलिए इस दृष्टि से उन बच्चों के गलत कार्यों को अपराध नहीं माना जाता, जो छः वर्ष से कम आयु के होते हैं। यदि कोई छोटा बच्चा कोई गलती करता है, तो उसकी अज्ञानता के कारण हम प्रारम्भ में उसे क्षमा कर देते हैं। नशे में चूर और पागल व्यक्ति यदि कोई गलत कार्य कर बैठता है, तो उसे भी ‘अपराध’ के अन्तर्गत नहीं रखा जाता। प्रत्येक राज्य में समुदाय की आवश्यकता के अनुसार सार्वजनिक कल्याण के आधार पर राज्य के नियम व कानून भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, इसलिए अपराध के अन्तर्गत आने वाले व्यवहारों की कोई ऐसी सूची नहीं बनायी जा सकती जो समाजों तथा समुदायों के लिए सार्वभौमिक हो। इसके उपरान्त भी कानूनी दृष्टिकोण से अपराध की धारणा चार विशेषताओं से सम्बन्धित है
परिभाषित किया है। डॉ० सेथना के अनुसार, “अपराध कोई भी वह कार्य अथवी त्रुटि है जो किसी विशेष समय पर राज्य द्वारा निर्धारित कानून के अनुसार दण्डनीय है, इसका सम्बन्ध चाहे ‘पाप’ से हो अथवा नहीं।” लगभग इसी प्रकार हाल्सबरी का कथन है कि, “अपराध एक अवैधानिक त्रुटि है जो जनता के विरुद्ध है और जिसके लिए अभियुक्त को कानूनी दण्ड दिया जाता है। विलियम ब्लेकस्टोन के अनुसार, “किसी भी सार्वजनिक कानून की अवज्ञा अथवा उल्लंघन से सम्बन्धित व्यवह्मर ही अपराध है।’ टैफ्ट ने अपराध की संक्षिप्त परिभाषा देते हुए लिखा है, “वैधानिक रूप से अपराध एक ऐसा कार्य है जो कानून के अनुसार दण्डनीय होता है। उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि कानून का एक बुरे इरादे से जान-बूझकर उल्लंघन करना तथा इस प्रकार सार्वजनिक हित को हानि पहुँचाना ही अपराध है। कानूनी दृष्टि से अपराधी व्यक्ति को राज्य द्वारा दण्ड मिलता है और असामाजिक कार्य करने पर स्वयं समाज व्यक्ति को बहिष्कृत करके, अपमानित करके या हुक्का-पानी बन्द करके दण्डित करता है। अपराध के प्रकार विभिन्न समाजशास्त्रियों ने अपराध को अपने-अपने ढंग से वर्गीकृत किया है। सामान्य रूप से अपराध निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-
(ख) अपराध के प्रयोजन के आधार पर वर्गीकरण-बोन्जर (Bonger) ने अपराधियों के प्रयोजन के आधार पर अपराध को अग्रलिखित चार श्रेणियों में विभाजित किया है
(ग) उद्देश्यों के आधार पर वर्गीकरण-हेज (Hayes) ने अपराधियों के उद्देश्यों तथा प्रेरणाओं को सामने रखकर अपराध को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया है।
लघु उत्तरीय प्रश्न (4अंक) प्रश्न 1
प्रश्न 2 इस सिद्धान्त को एकांगी होने के कारण स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह सही नहीं है कि हर समय व्यक्ति सुख-दु:ख से प्रेरित होकर ही कोई कार्य करता है। कई बार वह मजबूरी एवं दुःखों से मुक्ति के लिए भी अपराध करता है। अपराध के सामाजिक कारणों की भी इस सिद्धान्त में अवहेलना की गयी है। प्रश्न 3 लॉम्ब्रोसो इटली की सेना में डॉक्टर थे। अपने सेवाकाल के दौरान उन्होंने देखा कि कुछ सैनिक अनुशासन-प्रिय हैं, तो कुछ उद्दण्ड। अपराधी सैनिकों की शरीर-रचना और सामान्य सैनिकों की शरीर-रचना में उल्लेखनीय अन्तर था। उन्होंने इटली की जेलों का भी अध्ययन किया और पाया कि शरीर-रचना और मानसिक विशेषताओं में घनिष्ठ सम्बन्ध है। उन्होंने उस समय के एक प्रसिद्ध डाकू की खोपड़ी (Skull) और मस्तिष्क (Brain) का अध्ययन किया तो पाया कि उसमें अनेक विचित्रताएँ हैं, जो साधारण मनुष्यों में नहीं होतीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने 383 मृत अपराधियों की खोपड़ियों का भी अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अपराधियों की शारीरिक रचना आदिमानव और पशुओं से बहुत-कुछ मिलती-जुलती है। इसलिए ही उनमें जंगलीपन और पशुता के गुण हैं जो उन्हें अपराध के लिए प्रेरित करते हैं। ये शारीरिक विशेषताएँ वंशानुक्रमण में मिलती। हैं और अपराधियों को विशेष प्रारूप प्रदान करती हैं। इसलिए इस मत को प्रारूपवादी सम्प्रदाय भी कहते हैं। यही कारण है कि अपराधी जन्मजात होते हैं। उन्होंने लगभग 15 शारीरिक अनियमितताओं का उल्लेख किया और बतलाया कि जिसमें भी इनमें से 4 अनियमितताएँ होंगी, वह निश्चित रूप से अपराधी होगा। वे अपराधियों को दण्ड देने के साथ-साथ बाल-अपराधियों के सुधार के पक्ष में भी थे। इटैलियन सम्प्रदाय की अनेक विद्वानों ने आलोचना की है। उनमें डॉ० गोरिंग और थान सेलिन प्रमुख हैं। गोरिंग ने 12 वर्ष तक तीन हजार अपराधियों का अध्ययन करके बताया कि अपराधी और गैर-अपराधी की शरीर-रचना में कोई अन्तर नहीं होता। यदि अपराधी आदिमानव का प्रारूप है तो क्या सभी आदिमानव अपराधी थे? आज यह भी कोई नहीं मानता कि अपराधी जन्मजात होते हैं और शारीरिक एवं मानसिक लक्षण वंशानुक्रमण में मिलते हैं। प्रश्न 4 यहाँ जेलों की ऊँची-ऊंची दीवारों के स्थान पर काँटेदार तार लगाये गये। वह भी इसलिए कि अपराधी उस सीमारेखा का अतिक्रमण न करें। अपराधियों के लिए बने ये शिविर दीवारों से रहित थे। अतः इन्हें प्राचीर-विहीन बन्दीगृह कहा गया। बन्दीगृहों में रहने वाले अपराधियों से कार्य कराया जाता था। उसके बदले उन्हें पारिश्रमिक दिया जाता था। बन्दी अपनी आधी आमदनी अपने घर भेज सकते थे और उसका चौथाई अंश अपने पर व्यय कर सकते थे, जब कि चौथाई अंश कोष में जमा कराया जाता था। उनकी सजा की अवधि समाप्त होने पर उनकी बचत उन्हें सौंप दी जाती थी। सम्पूर्णानन्द शिविर बन्दियों में आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान जगाने के माध्यम थे। अपराधी स्वयं सुधरकर, आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होकर समाज में पहुँचता था। छूटने पर उसे व्यवसाय करने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती थी। सरकार भी कैदियों की सुरक्षा, रखवाली तथा भारी रख-रखाव के व्यय से बच जाती थी। प्रश्न 5
प्रश्न 6
इसका तात्पर्य है कि एक व्यक्ति कितनी कम आयु में अपराधी समूहों के सम्पर्क में आया (प्राथमिक), कितनी बार उसे ऐसे सम्पर्क का अवसर मिला (पुनरावृत्ति), कितने अधिक समय तक यह अपराधियों के सम्पर्क में रहा (अवधि) तथा यह सम्पर्क कितनी घनिष्ठता का रहा (तीव्रता) आदि कारक ही इस बात का निर्धारण करते हैं कि अपराधी व्यवहारों की सीख कितनी प्रभावपूर्ण होगी। सदरलैण्ड का कथन है कि अपराधी व्यवहारों की सीख एक व्यक्ति को केवल अपराध के तरीकों का ही प्रशिक्षण नहीं देती बल्कि उसकी मनोवृत्तियों तथा प्रेरणाओं को भी बदल देती है। व्यक्ति की मनोवृत्तियाँ जब इस तरह बदल जाती हैं कि वह नियमों के पालन की अपेक्षा नियमों के उल्लंघन को अपने व्यक्तित्व को अंग बना लेता है तो स्वाभाविक रूप में वह अपराध की ओर बढ़ने लगता है। सीख की यह मात्रा सभी अपराधियों में भिन्न-भिन्न होती है। यही कारण है कि सभी अपराधियों की विशेषताएँ भी एक-दूसरे से कुछ भिन्न होती हैं। इसी आधार पर सदरलैण्ड ने अपने सिद्धान्त को विभिन्नतायुक्त संगति सिद्धान्त’ (Theory of Differential Association) का नाम दिया है। इस सिद्धान्त द्वारा प्रस्तुत मुख्य निष्कर्ष इस प्रकार हैं-
प्रश्न 7 कुछ समाजशास्त्रियों का मत है कि अपराध को सम्बन्ध बुरी संगति अथवा दोषपूर्ण सामाजिक पर्यावरण से है। इस दृष्टिकोण से अपराध के लिए व्यक्ति की अपेक्षा समाज अधिक उत्तर:दायी है। वास्तव में अनेक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मानसिक और शैक्षणिक दशाएँ संयुक्त रूप से अपराधी व्यवहार को प्रोत्साहन देती हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि अपराधी जन्मजात नहीं होते हैं, बल्कि व्यक्ति जब एक से अधिक कारकों द्वारा प्रभावित होता है, केवल उसी समय उसमें अपराधी प्रवृत्ति जाग्रत होती है। अपराध के लिए दण्ड-विधान का औचित्य समझने के लिए अपराध के कारणों को समझने की आवश्यकता है। अपराध के लिए अपराधी की जगह व्यक्ति के दोषपूर्ण वंशानुक्रम, मानसिक अस्वस्थता एवं बीमारी, मानसिक अस्थिरता और संघर्ष, औद्योगीकरण और नगरीकरण, व्यापारिक उतार-चढ़ाव, निर्धनता तथा बेरोजगारी, सामाजिक कुरीतियाँ, टूटे परिवार, अशिक्षा आदि को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में किसी भी अपराधी को दण्ड देने की बजाय, सामाजिक दशाओं को बदलने के लिए गम्भीर प्रयास किये जाने चाहिए। हमें अपराधी से नहीं बल्कि उन सामाजिक परिस्थितियों से घृणा करनी चाहिए जो अपराधी को जन्म देती हैं। अतः मृत्युदण्ड को अपराध रोकने का निकृष्टतम साधन कहना सर्वथा उचित ही है। अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक) प्रश्न 1
प्रश्न 2
प्रश्न 3 किये जाते हैं। शराब पीने पर व्यक्ति का मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और उसमें उत्तेजना पैदा हो जाती है। परिणामस्वरूप वह अपराध कर बैठता है। शराबी व्यक्ति का अक्सर नैतिक पतन हो जाता है, वह उचित-अनुचित में भेद नहीं कर पाता और अपराध करने लगता है। ब्रुसेल्स ने अपने अध्ययन में यह पाया कि 70 प्रतिशत अपराधी शराब पीते थे। स्पष्ट है कि मद्यपान भी अपराध का एक प्रमुख कारण है। प्रश्न 4 प्रश्न 5 प्रश्न 6 प्रश्न 7 प्रश्न 8
प्रश्न 9 अपराध का अर्थ एवं परिभाषा समाज की व्यवस्था बनाये रखने के लिए नियमों, कानूनों, प्रथाओं और परम्पराओं के अनुपालन पर बल दिया गया है। कुछ समाज-विरोधी ऐसे भी व्यक्ति होते हैं, जो नियमों और कानूनों का उल्लंघन करते हैं। उनके द्वारा किए गये राज्य–विरोधी या कानून-विरोधी कार्य ही अपराध कहलाते हैं। अपराध एक ऐसा कार्य है, जो लोक-कल्याण के लिए अहितकर समझा जाता है तथा जिसे राज्य के द्वारा पारित कानून द्वारा निषिद्ध कर दिया जाता है। इसके उल्लंघनकर्ता को दण्ड दिया जाता है। अपराध को लैण्डिस तथा लैण्डिस ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक) प्रश्न 1 प्रश्न 2 प्रश्न 3 प्रश्न 4 प्रश्न 5 प्रश्न 6 प्रश्न 7 प्रश्न 8 प्रश्न 9 प्रश्न 10 प्रश्न 11 प्रश्न 12 प्रश्न 13 प्रश्न 14
प्रश्न 15 बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक) प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime (अपराध) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime (अपराध), drop a comment below and we will get back to you at the earliest. अपराध के शास्त्रीय सिद्धांत के प्रवर्तक कौन है?इस सिद्धांत के प्रणेताओं में मुख्य रूप से हीले, सिरिलबर्ट और अबराहन्सन का नाम लिया जा सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार कई उपादानों के संयुक्त प्रभाव के कारण ही किसी व्यक्ति में आपराधिक प्रवृत्ति पैदा होती है।
अपराध शास्त्र सिद्धांत के लेखक कौन है?Ans. इस सिद्धांत का प्रणेता फ्रेंक (1938) को माना जाता है तथा इस सिद्धांत में समाज के सदस्यों की प्रतिक्रिया के आधार पर अपराध को संभालने का विचार दिया गया था। Q.
अपराध के शास्त्रीय सिद्धांत क्या है?इन सिद्धांतों में अपराध के कारकों के आधार पर अपराध को समझने की कोशिश की गई है, जैसे शास्त्रीय सिद्धांत में सुखवादी दर्शन के आधार पर यह बताया गया है कि मुखदुख के कारण अपराध घटित होते हैं। भौगोलिक संप्रदाय का मानना है कि अपराध का संबंध संस्कृति और जनसंख्या की बनावट से हैं।
अपराध शास्त्र का पिता कौन है?शेजारे लोम्ब्रोजो (Cesare Lombroso; इतालवी उच्चारण:; 6 नवम्बर 1835 – 19 अक्टूबर 1909) इटली के अपराधशास्त्री एवं चिकित्सक थे। उन्होने 'इटली के सकारात्मक अपराधविज्ञान विद्यालय' (Italian School of Positivist Criminology) की स्थापना की। उन्हें प्रायः अपराधशास्त्र का जनक माना जात है। .
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