अमीर खुसरो को खड़ी बोली का पहला कवि क्यों कहा जाता है? - ameer khusaro ko khadee bolee ka pahala kavi kyon kaha jaata hai?

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खड़ी बोली हिंदी का उद्भव व विकासKhadi Boli Hindi ka Vikas

खड़ी बोली का अर्थ - आजकल जिसे हिंदी कहा  है ,वह खड़ी बोली का विकसित रूप है। खड़ी बोली का यह नाम क्यों पड़ा ,इस विषय में मतभेद हैं। मुख्यतया तीन मत हैं -१. यह खरी बोली हैं। खरी बोली से बिगड़कर इसका नाम खड़ी बोली पड़ गया। २. ब्रजभाषा की तुलना में कर्कश होने के कारण इसे खड़ी बोली कहा जाने लगा।  ३. मेरठ के आस पास की पड़ी बोली को खड़ी बनाकर लश्करों में प्रयोग किया गया ,इसीलिए इसे खड़ी बोली कहा गया।  यद्यपि इसके वर्तमान मानक स्वरुप का विकास उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ है , परन्तु इसका आरंभिक रूप दसवीं शताब्दी में ही दिखाई देने लगा था. १४ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में अमीर खुसरों ने खड़ी बोली में पहेलियाँ रचकर साहित्य लेखन का भी श्रीगणेश कर दिया था।१४वीं शताब्दी में सबसे  अमीर खुसरो ने खड़ी बोली का प्रयोग करना आरंभ किया और उसमें बहुत कुछ कविता की, जो सरल तथा सरस होने के कारण शीघ्र ही प्रचलित हो गई। अतः अमीर खुसरो खड़ी बोली के जन्मदाता माने जाते हैं।  

खड़ी बोली कहाँ बोली जाती है ?

उत्तर भारत की इस खड़ी बोली को मुसलमान शासक दक्षिण भारत में ले गए।  उन्होंने इसे अरबी -फ़ारसी में लिखा तथा दक्खिनी हिंदी- उर्दू नाम दिया। उत्तर भारत में यह बोली केवल बोलचाल तक सीमित रही।  मध्यकाल तक ब्रज ,मैथिली और अवधी भाषाएँ साहित्य में छायी रहीं और फ़ारसी राजदरबार में जड़ें जमाये रहीं। परिणामस्वरूप कड़ी बोली व्यापक जनभाषा होते हुए भी उपेक्षित सी रही।


हिंदी के विकास के कारण -

उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में ऐसे कारण उत्पन्न होने लगे जिसके कारण खड़ी बोली का विकास मार्ग स्वयं प्रशस्त हो गया।  यह जन -संपर्क की शसक्त भाषा तो थी ही ,ज्ञान विज्ञान को समेटने में भी इसे आगे आना पड़ा.ज्ञान विज्ञान के लिए गद्य भाषा की आवश्यकया थी ,जबकि ब्रज ,मैथिली और अवधी काव्य भाषाएँ थी। अतः ज्ञान का वाहन बनाने के लिए स्वाभाविक रूप से इसे चुना गया।


उन्ही दिनों भारत में छापेखाने का आगमन हुआ ,अंग्रेजी गद्य साहित्य का प्रसार हुआ ,राजनितिक चेतना का उदय हुआ ,पत्र पत्रिकाओं का उदभव और प्रसार हुआ , लोकतंतत्रामक भावनाओं का जन्म हुआ ,जान जागरण का वातावरण बना ,शिक्षा का उन्नत  विकास हुआ।परिणामस्वरूप खड़ी बोली देश में व्याप्त हो गयी।  यह राष्ट्रीय एकता का भी पर्याय बन गयी।

खड़ी बोली आन्दोलन - 

हिंदी को लोकप्रिय बनाने में जहाँ भारतेन्दु ,मैथिलीशरण गुप्त ,प्रेमचंद आदि साहित्यकारों ने महत्वपूर्ण योगदान दियता ,वहां महावीर प्रसाद द्विवेदी ,रामचंद्र शुक्ल जैसे विद्वानों ने उसे व्याकरण शुद्ध मानक रूप दिया। सौभाग्य से स्वामी विवेकानंद ,दयानद ,तिलक ,गाँधी ,सुभाष आदि महापुरषों ने भी हिंदी के माध्यम से स्वदेश जागरण किया। स्वतंत्र आंदोलन के दिनों में हिंदी ही राष्ट्र को एकसूत्र में बाँधने में अग्रणी रही।  अतः यही कारण १९४९ई।  में संविधान में इसे राजभाषा का गौरवशाली सम्मान प्रदान किया गया।

हिंदी प्रान्त HINDI PROVINCE - 

भारत में निन्मलिखित प्रान्त हिंदी भाषा -भाषी प्रान्त है -
उत्तर प्रदेश ,बिहार ,रजसजतन ,मध्य प्रदेश ,हिमाचल प्रदेश ,छत्तीसगढ़ ,झारखंड ,दिल्ली और उत्तराखंड। इसके अतिरिक्त निन्मलिखित प्रांतों में हिंदी संपर्क भाषा है - पंजाम ,महाराष्ट्र ,गुजरात और बंगाल।  इसके अलावा हिंदी पुरे भारत में समझी और बोली जाती है।


हिंदी भाषा यद्यपि खड़ी बोली से विकसित ही है ,किन्तु उस पर ब्रज ,अवधी आदि अनेक बोलियों का व्यापक प्रभाव रहा है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ब्रज ,अवधी ,मैथिली ,गढ़वाली ,भोजपुरी आदि बोलियों का साहित्य भी हिंदी की ही धरोहर है। यही कारण है कि सूर ,तुलसी ,विद्यापति आदि हिंदी के कवि कहलाते हैं।


हिंदी की उपभाषा - 

हिंदी की पांच उपभाषाएँ हैं -

१. पच्शिमी हिंदी

२. पूर्वी हिंदी

३. राजस्थानी

४. बिहारी

५. पहाड़ी।


हिंदी की कितनी बोलियां हैं ?

इन उपभाषाओँ की अनेक बोलियां आती है जो निम्न प्रकार है -


१. पच्शिमी हिंदी - ब्रज ,खड़ी बोली ,बांगरू ,बुंदेली ,कन्नौजी।

२. पूर्वी हिंदी - अवधी ,बघेली ,छत्तीसगढ़ी।

३. राजस्थानी - मेवाती ,मारवाड़ी ,मेवाड़ी।

४. बिहारी - भोजपुरी ,मगही ,मैथली।

५. पहाड़ी - हिमाचली ,गढ़वाली ,कुमाउँनी।

हिंदी राष्ट्रभाषा कब बनी ? 

भारत की संविधान सभा ने १४ सितम्बर ,१९४९ को भारत संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया। संविधान  के अनुच्छेद ३४३ के अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी है।

खुसरो ने हिंदी में रचनाएं जरूर की थीं, क्योंकि इसके अन्तस्साक्ष्य उनकी फारसी रचनाओं में मौजूद हैं। उनकी हिन्दी रचनाओं की संख्या कितनी है, इस बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं है। कुछ विद्वानों की राय है कि खुसरो ने फारसी से ज्यादा हिंदी में रचनाएं की थीं और कुछ का कहना है कि फारसी की तुलना में उनकी हिंदी रचनाएं बहुत कम थीं। ‘गुईत्तुल कमाल’ की भूमिका में खुसरो ने त्रिखा है कि “मैं हिंदुस्तानी तुर्क हूँ। मैं हिंदी जबान पानी की रवानगी की तरह बोल सकता हूँ। अरबी भाषा की वह मिठास मेरे पास नहीं है कि मैं उस भाषा में बात करूं। चूकि मैं हिंद की तूती हूँ इसलिए यदि मुझसे हिंदी में पूछा जाए तो मैं ज्यादा बेहतर जवाब दे सकूंगा। इसी मसनवी में उन्होंने अपनी हिंदी रचनाओं के बारे में यह महत्वपूर्ण सूचना दी थी कि ‘जुज्व-ए-चंद नज्म-ए हिंदवी, नीज न्र -ए दोस्तां कर्दा शुदा अस्त’ यानी कि मैने हिंदी की कुछ कविताएं और गदय रचनाएं अपने दोस्तों को भैंट कर दी हैं। इसके मद्देनजर डॉ. गोपीचन्द नारंग का अनुमान है कि खुसरो ने हिंदी में रचनाएं की थीं, लेकिन उन्होंने उसका व्यवस्थित संकलन और संपादन नहीं किया था। बावजूद इसके उनका हिंदी काव्य लोकप्रिय था। उत्तर भारत में खुसरो के हिंदी काव्य से हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं के इतिहास का आरंभ माना जाता है। लिपि उन्हें उर्दू से जोड़ती है, लेकिन भाषा हिंदवी (खड़ी, ब्रज और अवधी) से। खुसरो के हिंदी काव्य का आधार धर्म नहीं, बल्कि उत्तर भारत का व्यापक सामाजिक जीवन और सामासिक संस्कृति है। मुस्लिम राजदरबारों के उठ जाने के साथ उनका फारसी काव्य ऐतिहासिक धरोहर बन गया, लेकिन उनका हिंदी काव्य जनता के कंठों पर सवारी करता हुआ आज भी अमर है। 

खुसरो का हिंदी काव्य और उसकी सर्जनात्मकता

डॉ. भोत्रानाथ तिवारी ने खुसरो की हिंदी कविताओं को बारह वर्गों में रखा है, जो इस प्रकार हैं- (1) पहेलियां- (क) अंतर्लायिका (ख) वहिर्लायिका (2) मुकारियां (3) निस्वतें (4) दो सखुन- (क) हिंदी (ख) फारसी और हिंदी, (5) ढकोसले (6) गीत (7) कव्वाली (8) फारसी-हिंदी मिश्रित छंद (9) सूफी दोहे (10) गजल (11) फुटकल्न छंद, (2) खालिकबारी।

डॉ. गोपीचन्द नारंग ने खुसरो के (हिंदी काव्य” को ऐतिहासिक कालक्रम के मद्देनजर तीन खण्डों में रखा है। () हिंदी की वे पंक्तियां या मिसरे जो अमीर खुसरो की फारसी रचनाओं में फारसी भाषा के हमजोली के रूप में आये हैं। ये सबसे प्रामाणिक अंश हैं क्योंकि इनका संकलन स्वयं अमीर खुसरो ने किया था। उल्लेखनीय है कि “गुईन्तुल कमाल’ की भूमिका में उन्होंने ‘मारी मारी बिरह को मारी आरी’, ‘दुरदुर मुए’, ‘दही लेहो दही’, ‘है, है तीर मारा’ ‘नाही नाही’ आदि हिंदी वाक्यों और पदों का प्रयोग किया हैं। (2) खुसरो की वे हिंदी रचनाएं जो उनके परवर्ती साहित्यकारों और विद्वानों द्वारा उद्धृत हैं। मसलन दकन के प्रसिद्ध कवि ‘वजही’ ने अपने ‘सबरस’ में अमीर खुसरो की यह पहेली उद्धृत की है।

पंखा होकर मैं डुली साकी तेरा चाव।

मुंज जलती जनम गया तेरे लेखन बाव।

 इसी प्रकार उर्दू के प्रसिद्ध शायर मीर तकी ‘मीर’ ने अमीर खुसरो का ‘कत्आ’ उद्धृत किया है जिसमें ‘कुछ घडिए संवारिएं पुकारा’ ‘फिर कुछ न कुछ सँवारा’ हिंदी के टुकड़े जड़े हैं। ‘जि हाल-ए. मिस्की तगाफुल दुराय नैंना बनाय बतियाँ’ वाला मिश्रित छंद इसी प्रकार का है। (3) तीसरे में खुसरो की वे हिंदी रचनाएं हैं, जो लोकप्रियता के कारण पीढी-दर पीढ़ी अपना भाषाई चोला कुछ न कुछ बदलती रही हैं। इस सिलसिले में डॉ. नारंग की यह बात गौर करने लायक है कि “ अमीर खुसरो का हिदंवी काव्य अपनी त्रोकप्रियता के कारण पीढी-दर पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा है और इन सात शताब्दियों में वह हमारी लोक-परंपरा या लोक साहित्य का अंग बन गया है। लाखों – करोड़ों जबानों पर चढ़ने से उसमें संशोधन- परिवर्धन अवश्य हुआ होगा। संभव है कि अमीर खुसरो से संबद्ध काव्य के कुछ अंश मौलिक हों, किंतु कई अंश निश्चय ही ऐसे भी हैं जिन्हें काल्लांतर में बढ़ाया जाता रहा है। इसलिए ऐसे काव्य की समीक्षा करते समय ऐतिहासिक तथा भाषाई दोनों प्रकार के साक्ष्यों पर इृष्टिपात करना होगा।” इसी आधार पर हुक्के, चीलम, बदूंक वाली पहेलियां और मुकरियां खुसरो की नहीं मानी जाती हैं।

पहेलियां

खुसरो के नाम पर सैकड़ों की संख्या में पहेलियाँ प्रचलित हैं। वे दो रूपों में मिलती हैं। वे पहेलियां जिनके उत्तर श्लेष के रूप में उनकी रचना में छिपे होते हैं ‘अन्तर्लापिका’ कहलाती हैं। जिन पहेलियाँ के उत्तर रचना में दिये गये लक्षणों के आधार पर बाहर से ढूँढ़ना पड़ता है उन्हें ‘बहिर्लापिका’ कहा जाता है। दूसरे प्रकार की पहेलियों में श्रोता की कल्पना शक्ति, लोकव्यवहार- जान, प्रत्युत्पननमति, दिमागी कसरत की अधिक अपेक्षा की जाती है। इनमें कहीं- कहीं खुसरो के नाम की छाप है और कहीं नहीं है। खुसरो के नाम- छापवाली दो पहेलियां प्रस्तुत हैं- 

तरवर से इक तिरिया उतरी उनने बहुत रिझाया

बाप का उससे नाम जो पूछा, आधा नाम बताया

आधा नाम पिता पर प्यारा, बूझ पहेली गोरी

अमीर खुसरो यों कहें अपने नाम न बोली “निबोरी’।

एक अनोखा गिरह बनाया, ऊपर नींव नीचे घर छाया।

बॉस न बल्‍ली बंधन घने, कहो खुसरो घर कैसे बने।

लोकजीवन और जोकव्यहार की जमीन पर खुसरो ने सामान्यतः: अपनी पहेलियों की रचना की है। वे सापेक्ष वस्तुओं को पारिवारिक तथा, सामाजिक संबधों में छिपाकर पहेली की रचना करते हैं। वे अपने अलंकार शास्त्रज्ञान से पहेली के भीतर सामाजिक संबंधों के लोकमान्य अर्थ की रक्षा भी करते हैं। उत्तर भारत के शहर से लेकर गाँव का हर आदमी ‘नीम’ और उसके फल >निबौला’ के बारे में जानता है। दोनों के बीच जनक और जन्‍्या का संबंध है। पिता और बेटी के रिश्ते में इस पहेली को रचने का औचित्य यही है। दूसरी बात, भारतीय समाज पुरुष प्रधान रहा है जिसमें बेटा और बेटी के नाम के साथ माँ नाम नहीं, पिता का नाम चलता है। नीम- निबौला को बाप और बेटी के घरू आत्मीय रिश्ते में बाँध देने के कारण पहेली में कथात्मकता के साथ अपनापन और सरसता आ गयी है। अमीर खुसरो की पहेल्रियों की सर्जनात्मकता, संप्रेषणीयता, रमणीयता और सरसता का मुख्य कारण पारिवारिक सामाजिक संबंधों की जमीन पर उन्हें रचने की समझ और कलात्मकता है।

मुकरियां

मुकरी का अर्थ है मुकर जाना या इनकार कर देना। मुकरी भी एक प्रकार की पहेली होती है। लेकिन पहेली की तुलना में मुकरी का ढाँचा अधिक निश्चित है। पहेली दो पंक्तियों की हो सकती है और चार पंक्तियों की भी, लेकिन मुकरी के चार चरण एक दम निश्चित हैं। मुकरियों की सर्जनात्मकता और व्यंजकता का आधार पहेल्रियों के यमक- श्लेष अलंकार गर्भत्व से अलग ‘काकु’ वक्रोक्ति आधारित “ना’ उत्तर में है। दूसरी बात, मुकरी दो जवान सहेलियों के बीच मनोविनोद का बहुप्रचलित मौखिक काव्यरूप है। इसलिए मुकरी का श्रोता समुदाय पहेली की तुलना में काफी सीमित है। खुसरो की पहेलियों की तरह उनकी मुकरियों पर उनके समसामयिक लोकजीवन दैनिक ल्रोकव्यवहार का बड़ा असर है। मुकरी की रचना दो सहेलियों के सवाल्र-जवाब से होती है। पहली सहेली पहले किसी के संभावित लक्षण का बयान करते हुए सवाल पूछती है और दूसरी सहेली उन्ही संभावित लक्षणों को ध्यान में रखकर एक जवाब देती है, लेकिन पहली सहेली काकु से मुकर कर ‘ना’ ‘ना’ कहते हुए झट से अपना दूसरा उत्तर जड़ देती है।

उदाहरण देखिए-

वह आवे तब शादी होय। उस बिन दूजा और न कोय।

मीठे ल्रागे वाके बोल। ए सखि साजन, ना सखि ढोत्र।।

दुर-दुर करूं तो दौड़ा आये। छन आंगन छन बाहर जाये।

दीहल छोड़ कभू न सोता। ए सखि साजन, ना सखि कूत्ता।।

काकु निर्भरता के कारण मुकरी दुअर्थी होती है। जिससे मुकरी पूछी जाती है एक अर्थ वह खोलती है। दूसरा अर्थ ‘ना’ ‘ना’ करते हुए मुकरी पूछने वाली खोलती है। रोजमर्रा जीवन में घर-परिवार से संबंद छोटे-छोटे प्रसंगों, संदर्भो में पति-पत्नी के आत्मीय संबंध का तुक बिठा लेना मुकरियों की जान है। घर-परिवार की छोटी-छोटी चीजों से गहरा अपनापन महसूस करने वाला व्यक्ति ही पति-पत्नी के मधुर संबंधों की भावभूमि पर ऐसी ल्रोक मनोविनोद की मुकरियां रच सकता है। मुकरियों की यह भावभूमि पहेलियों के समान धर्म-सग्प्रदाय, वर्ण जाति के भेदभाव से परे है। दूल्हे-दुल्हन के बिना शादी कैसे संभव है? नये पति की हर बात नयी पत्नी की मिसरी घुली त्रगती है। इसल्रिए दूसरी सहेली को लगता है कि यह साजन के सिवा अल्रा और कौन हो सकता है? लेकिन सवाल्र पूछने वाली सहेली तो मनोविनोद में अपनी सहेली से दो कदम और आगे है। वह ‘काकु’ वक्रोक्ति से दूसरी सखी के मनभावन ‘साजन’ उत्तर से इनकार कर अपना उत्तर ‘ढोल’ उसके आगे धर देती है। कारण, उत्तरभारत में ढोल बजे बगैर शादी कब होती है? दूसरी बात, इस उत्तर से वह अपने को चतुर और अपनी सहेली को बुद्धू सिद्ध कर मजा लूटती है। आधुनिक हिंदी साहित्य के पहले चरण के पहले प्रतिनिधि साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने परंपरागत मुकरियों को घर-परिवार के सीमित दायरे से निकालकर राष्ट्रीय चिंताओं से जोड़ा। इसीलिए उन्होंने अपनी मुकरियों को “नये जमाने की मुकरियां’ नाम दिया है। इसके साथ उन्होंने मुकरियों की आंतरिक संरचना में कुछ बदलाव किया। उन्होंने खुसरो के तकिया कलाम संबोधन ‘ए सखि साजन’ की जगह प्रश्नवाचक संबोधन ‘क्यों सखि साजन’ कर दिया।

उदाहरण के लिए-

भीतर भीतर सब रस चूसे, बाहर से तन-मन-धन मूसे।

जाहिर बातन में अति तेज, क्‍यों सखि साजन, नंहि अंग्रेज।।

तुकबंदी, सुखन और निस्बत – तुकबंदी, सुखन और निस्बत भी खुसरों के नाम से जोड़ी जाती है। संबंध रहित भिन्‍न-भिन्‍न वस्तुओं को आशुकल्पना, प्रत्युत्पन्नमतित्व, वाक्‍्चातुर्य के बल पर उनके बीच संबंध जोड़ते हुए एक छंद में समायोजित करने की कल्ला तुकबंदी कहलाती है। तुकबंदी का प्रयोजन दित्र छूना नहीं है बल्कि दूर की कौड़ी को  सूझ-बूझ से जोड़कर श्रोता की बुद्धि को चमत्कृत करना है। कहा जाता है कि प्यासे खुसरो को पानी पिलाने के पहले पनिहारियों ने खीर, कुत्ता, ढोल, चरखा पर एक तुकबंदी बनाने की शर्त रखी थी और इस पर खुसरो को यह तुकबंदी सूझी थी कि-

खीर पकाई जतन से चरखा दिया चल्राय।

आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय।।

‘सुखन’ फारसी शब्द है जिसका अर्थ है ‘उक्ति’ या ‘कथन’ और “निस्बत’ अरबी का शब्द है जिसका अर्थ है ‘संबंध’। दोनों का आधार है रचने वाले की लोक-व्यवहार संबंधी सूझ-बूझ। दोनों प्राश्निक और श्रोता के लोक व्यवहार के ज्ञान की जाँच-पड़ताल और मनोविनोद के मौखिक काव्य रूप हैं। जैसे-

सुखन- पान सड़ा क्‍यों? घोड़ा अड़ा क्यों? उत्तर- फेरा न था।

निस्बत- आदमी और गेहूँ में क्या निस्बत है? उत्तर – बाल।

दोहे और गीत

पश्चिमोत्तर भारत की जनता में दोहे और गीत की माखिक काव्य परंपरा खुसरो से पुरानी है। शेख फरीद ने खुसरो से पहले दोहे और गीत लिखे और हेमचंद्र ने अपने अपभ्रंश व्याकरण में दोहों का संकलन किया। खुसरो ने अपने कुछ दोहों और गीतों में ईरानी सूफी परंपरा और भारतीय ल्रोककाव्य परंपरा को एक भावशभूमि पर ज्रा बिठाया। दोहों और गीतों का संरचनागत ढाँचा ज्यों का त्यों रहने दिया। उनके कुछ दोहे और गीत ठेठ लोक काव्य के रूप में रचे हैं। खुसरों के नाम पर दोहों और गीतों की संख्या पहेलियों, मुकरियों की तुलना में बहुत कम हैं। दोनों के उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं-

दोहे- .

 खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग।

तन मेरो मन पीठ को दोठ भए एक रंग॥।

खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिंदू जोय।

पूत पराये कारने जल-जल कोयला होय।॥।

गीत-           “दया री मोहे भिजोया री। शाह निजाम के रंगे में।’

काहे को बियाहे बिदेस रे, सुन बाबुल मोरे।

अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी, कि सावन आया।

कव्वाली और गजल – दोहों और गीतों की तरह भारतीय त्रोकगीतों की भावभूमि पर खुसरो ने सूफी रंगत की कुछ कव्वालियाँ और गज़लें भी कहीं। कव्वाली के जन्मदाता वही माने जाते हैं। जहाँ तक ग़जत्र का प्रश्न है तो खुसरो के पहले फारसी में गजल की समृद्ध परंपरा थी। स्वयं खुसरो ने फारसी में कुछ गज़लें लिखी हैं लेकिन वे मसनवी, कसीदा आदि से इसे कमतर और अनगढ़ मानते थे। उनके नाम पर हिंदी में एक गज़ल- ‘जब यार देखा नैन भर, दिल्न की गई चिंता उतर’ मानी जाती है। उर्दू के कुछ विद्वानों का मानता है कि यह दकन के किसी शायर की गज़ल है और इसका कारण उसकी भाषा है, लेकिन डॉ. गोपीचंद नारंग उस जमाने की देहलवी और दकनी में बुनियादी फासला न मानते हुए इसे खुसरो की ही रचना मानते हैं। खुसरो की सबसे प्रसिद्ध कव्वाली यह है-

छाप-तिलक तज दीन्‍ही तो से नैना मिला के।

प्रेमबटी का मदवा पिला के, मतवारी कर दीन्ही रे, मोसे नैना मिला के

खुसरो निजाम पै बलि-बलि जइए, मोहे सुहागन कीन्ही रे, मोसे नैना मिला के

प्रयोगशीलता 

खुसरो की प्रयोगशीलता का ताल्लुक छंद, शब्दकोश और संगीत क्षैत्र से है। उन्होंने फारसी और हिंदी मिल्राकर कुछ छंदों की रचना की जिसमें “जिहाल-मिस्की मकुन तगाफुल दुराय नैनां बनाय बतियां’ वाल्रा छंद बहुत प्रसिद्ध है। ‘खालकी बारी’ फारसी और हिंदी भाषा का पदयशब्दकोश है। इस संबंध में विदवान एक मत नहीं हैं। एहतेशाम हुसैन का मानना है कि आज जो ‘खालिकबारी’ उपलब्ध है उसमें बहुत कुछ बाद में जोड़ा गया है और खुसरो का लिखा हुआ उसी में लुप्त हो गया है। यह ग्रंथ दो भाषाओं और दो संस्कृतियों के मेलजोल का अच्छा उदाहरण है। इसके कुछ नमूने इस प्रकार हैं- ‘अर्ज धरती फारसी बाशद जमीं। कोहदर हिंदी पहाड़ आमद की।’ ‘आतिश आग आब है पानी। खाक धूल जो बाव उड़ानी।’ इसी प्रकार संगीत के क्षेत्र में ईरानी और हिंदुस्तानी के मेत्र से साजगिरी, मुवाफिक, बखारज, कव्वाली आदि राग-रागिनियाँ खुसरो ने बनायीं। सितार, तबला, ढोल आदि वादय उन्हीं के इजाद किये माने जाते हैं।

काव्यभाषा

खुसरो की हिंदी काव्य भाषा के तीन रूप मिलते हैं: खड़ी बोली, ब्रज और अवधी। पं. रामचंद्र शुक्ल खुसरो के हिंदी काव्य की दो प्रकार की भाषाएं मानते हैं। “ठेठ खड़ी बोलचाल पहेलियाँ, मुकरियों और दो सखुनों से मिलती है, यद्यपि उनमें कहीं-कहीं ब्रजभाषा की झलक है। पर गीतों या दोहों की भाषा ब्रज या मुख प्रचलित काव्य भाषा ही है।” हिंदी-उर्दू साहित्य के ज्यादातर विद्वान शुक्ल जी की इस बात से कमोबेश सहमत हैं। उर्दू साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक गोपीचंद नारंग शुक्ल जी की बात को अधिक तार्किक रूप में पेश करते हैं। वे तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में प्रचल्रित ब्रज और खड़ीबोली के मिले-जुले रूप को खुसरो की भाषा मानते हैं। यद्यपि उसमें ब्रजभाषा का तत्व प्रधान है। कारण कि खुसरो के समय में खड़ी बोली की अपेक्षा ब्रञभाषा का आषिक काव्यात्मक विकास प्राचीन है।’ डॉ. भोलानाथ तिवारी शुक्ल जी की पहली मान्यता से सहमत हैं, लेकिन वे खुसरो के ‘नूहसिपहर’ के मद्दे नजर उनके गीतों, कव्वालियों, की आषा का मूल आधार ‘अवधी या पूर्वी’ को मानते हैं। लेकिन उनकी यह बात तथ्यसंगत नहीं है। खुसरो दिल्‍ली के वासी थे, हाँ उनके गीतों और कव्वालियों पर पूर्वी प्रभाव का कारण पूरब में उनकी विशेष लोकप्रियता और प्रचार है। दूसरी बात, शुक्ल जी कबीर की तुलना में खुसरो की भाषा को बोलचाल के अधिक निकट मानते हैं, जो विचारणीय है।

निष्कर्ष

खुसरो की इस्लाम सत्तापरस्त इतिहासकार और राज्याश्रित कवि से भिन्‍न एक गैर सांप्रदायिक मेत्जोल की भाषा और संस्कृति के हामीदार जनता के कवि की तस्वीर उनके हिंदी काव्य से उभरकर सामने आती है। उनके हिंदी काव्य की वस्तु, भाषा, उसके काव्यरूप, छंद का आधार उत्तर भारत की सामान्य जनता का रोगमर्र का सामाजिक- सांस्कृतिक लोकजीवन है। उत्तर भारत की जनता की मौखिक काव्य परंपरा को साहित्यिक रूप देने का पहला प्रयास खुसरो ने किया। पं. रामचंद्र शुक्ल सही कहते हैं कि “जिस ढंग से दोहे, तुकबंदियाँ और पहेलियाँ साधारण जनता की बोलचाल में इन्हें प्रचल्लित मिली थीं उसी ढंग के पदय पहेलियां आदि कहने की उत्कंठा इन्हें भी हुई।” इसी आधार पर डॉ. रामविलास शर्मा ने हिंदी जाति के साहित्य के ‘लोकजागरण’ के पहले कवि के रूप में अमीर खुसरों की पहचान की है। इस बात की पुष्टि ‘जनता के बहुत निकट के कवि रूप’ में उर्दू साहित्य इतिहास के प्रसिद्ध आलोचक एहतेशाम हुसैन भी करते हैं। खुसरो की यह अमानत आज भी बहुत मूल्यवान है और उसे सहेजने की जरूरत है।

अमीर खुसरो को हिंदी का पहला कवि क्यों कहा जाता है?

अमीर खुसरो ने पहली बार अपनी कविता में खड़ी बोली के शब्दों का उपयोग किया है। इसलिए अमीर खुसरो को खड़ी बोली का पहला या आदि कवि कहा जाता है। अमीर खुसरो 99 ग्रंथों के रचयिता माने जाते हैं। ईश्वरी प्रसाद ने इन्हें कवियों में राजकुमार की संज्ञा दी है ।

अमीर खुसरो कौन थे * 1 Point फारसी भाषा के कवि हिंदी भाषा के कवि अरबी भाषा के कवि अंग्रेज़ी के कवि?

अमीर खुसरो प्रथम मुस्लिम कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया, हिंदी, हिन्दवी और फारसी में एक साथ लिखा। उन्होंने ही सबसे पहले अपनी भाषा के लिए हिन्दवी शब्द का उल्लेख किया था।

अमीर खुसरो का दरबारी कवि कौन था?

Solution : अमीर खुसरो (1253-1325) बलबन, जलालुद्दीन खिलजी और अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन थे। उन्होंने बलबन के भतीजे मलिक छज्जू और बाद में शासक बलबन के शासनकाल में दरबारी कवि के रूप में अपने जीवन की शुरुआत की। बाद में उन्होंने जलालुद्दीन खिलजी और अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल का इतिहास लिखा।

अमीर खुसरो ने इस समय की किस एक विशेष भाषा के बारे में बताया यह आम जनता की भाषा क्यों नहीं थी?

अवधी (पूर्वी उत्तर प्रदेश में) और हिंदवी (दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र में)।" अमीर खुसरो ने आगे बतलाया है कि इन भाषाओं के विपरीत एक भाषा संस्कृत भी है जो किसी विशेष क्षेत्र की भाषा नहीं है। यह एक प्राचीन भाषा है " जिसे केवल ब्राह्मण जानते हैं, आम जनता नहीं।"