Table of Contents Show अध्याय 6हमारी आपराधिक न्याय प्रणालीजब हम किसी को अपराध करते हुए देखते हैं तो सबसे पहले पुलिस को खबर करते हैं। वास्तविक जीवन या फ़िल्मों में आपने देखा होगा कि पुलिस अफ़सर रिपोर्ट दर्ज करते हैं और अपराधियों को गिरफ़्तार करते हैं।
अपराधियों को गिरफ़्तार करने में पुलिस की जो भूमिका होती है उसके आधार पर कई बार एेसा लगता है मानो पुलिस ही तय करती है कि कोई अपराधी है या नहीं। लेकिन एेसा नहीं है। जब किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार किया जाता है तो अदालत ही तय करती है कि आरोपी वाकई दोषी है या नहीं। संविधान के अनुसार, अगर किसी भी व्यक्ति पर कोई आरोप लगाया जाता है तो उसे निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार होता है। क्या आप जानते हैं कि निष्पक्ष सुनवाई का मौका हासिल करने का क्या मतलब होता है? क्या आपने एफ.आई.आर. के बारे में सुना है? या क्या आप जानते हैं सरकारी वकील कौन होता है? इस अध्याय में हम चोरी की एक काल्पनिक घटना के ज़रिए यह समझने की चेष्टा करेंगे कि न्याय पाने की प्रक्रिया किस तरह चलती है और आपराधिक न्याय व्यवस्था में अलग-अलग लोगों की क्या भूमिका होती है। ध्यान रखें कि ज़्यादातर मामले उसी प्रक्रिया से गुजरते हैं जिसका हमने अपने काल्पनिक उदाहरण में ज़िक्र किया है। फलस्वरूप इन प्रक्रियाओं को समझना और आपराधिक न्याय व्यवस्था में अलग-अलग लोगों की भूमिकाओं को समझना महत्त्वपूर्ण होता है। अगर कभी एेसा मौका आता है तो यह जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित हो सकती है। सब-इंस्पेक्टर राव सुशील को भी दो दिन तक हवालात में रखता है। उसे सब-इंस्पेक्टर राव एवं कई कांस्टेबल पीटते हैं और गालियाँ देते हैं। वे उस पर दबाव डालते हैं कि वह इल्ज़ाम
कबूल कर ले। वे उसे यह मानने के लिए कहते हैं कि वह और उसकी बहन शांति घरेलू नौकरों का एक गिरोह चलाते हैं और वह गिरोह घरों से गहने चोरी करता है। शिंदे के पड़ोस से गहनों के गायब होने की कुछ और शिकायतें भी आ चुकी थीं। जब सुशील बार-बार यही कहता रहता है कि वह निर्दोष है और फ़ैक्टरी में मज़दूरी करता है तो दो दिन बाद पुलिस उसे छोड़ देती है। 23.08.06 अदालत ने एक महीने बाद शांति की जमानत की अर्जी मंज़ूर तो कर ली, लेकिन कोई भी 20,000 रुपए के लिए उसका ज़मानती बनने को तैयार नहीं था। नतीज़तन ज़मानत के बावजूद वह जेल में ही पड़ी रही। वह गहरे सदमे की हालत में है। वह डरी हुई है कि मुकदमे का क्या नतीज़ा निकलेगा। 14.09.06 पुलिस ने मजिस्ट्रेट की अदालत में आरोपपत्र दायर कर दिया है। अदालत की ओर से आरोपपत्र और गवाहों के बयानों की एक नकल शांति को दे दी जाती है। शांति अदालत को बताती है कि चोरी के इस झूठे इल्ज़ाम से बचने के लिए उसके पास कोई वकील नहीं है। मजिस्ट्रेट महोदय शांति की दलील सुनकर अधिवक्ता कमला रॉय को सरकारी खर्चे पर बचाव पक्ष का वकील बना देते हैं। संविधान के अनुच्छेद 22 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को एक वकील के ज़रिए अपना बचाव करने का मौलिक अधिकार प्राप्त है। संविधान के अनुच्छेद 39-ए में एेसे नागरिकों को वकील मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी राज्य के ऊपर सौंपी गई है जो गरीबी या किसी और वज़ह से वकील नहीं रख सकते। इस घटना के आधार पर आप देख सकते हैं कि पुलिस, सरकारी वकील, बचाव पक्ष का वकील और न्यायाधीश, ये चार अधिकारी आपराधिक न्याय व्यवस्था में मुख्य लोग होते हैं। इस मामले में आपने इन चारों की भूमिका को भी देख लिया है। आइए अब उनकी भूमिकाओं को और व्यापक स्तर पर देखें। अपराध की जाँच करने में पुलिस की क्या भूमिका होती है? पुलिस का एक महत्त्वपूर्ण काम होता है किसी अपराध के बारे में मिली शिकायत की जाँच करना। जाँच केलिए गवाहों केबयान दर्ज किए जाते हैं और सबूत इकट्ठा किए जाते हैं। इस जाँच के आधार पर पुलिस अपनी राय बनाती है। अगर पुलिस को एेसा लगता है कि सबूतों से आरोपी का दोष साबित होता दिखाई दे रहा है तो पुलिस अदालत में आरोपपत्र/ चार्जशीट दाखिल कर देती है। जैसा कि अध्याय की शुरुआत में ही कहा गया था कि यह तय कर देना पुलिस का काम नहीं है कि कोई व्यक्ति दोषी है या नहीं। यह न्यायाधीश को तय करना होता है। दूसरी इकाई में आपने कानून के शासन के बारे में पढ़ा था। इसका सीधा मतलब यह होता है कि हर व्यक्ति देश के कानून के अधीन है। पुलिस भी इसी कानून के तहत आती है। लिहाज़ा पुलिस को हमेशा कानून के मुताबिक और मानवाधिकारों का सम्मान करते हुए जाँच करनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने गिरफ़्तारी, हिरासत औरपूछताछ के बारे में पुलिस के लिए कुछ दिशानिर्देश तय किए हुए हैं। इन दिशानिर्देशों के अनुसार पुलिस को जाँच के दौरान किसी को भी सताने, पीटने या गोली मारने का अधिकार नहीं है। किसी छोटे से छोटे अपराध के लिए भी पुलिस किसी को कोई सज़ा नहीं दे सकती।
आपकोएेसा क्यों लगता है कि पुलिस हिरासत के दौरान अपनी गलती मानते हुए आरोपी द्वारा दिए गए बयानों को उसके खिलाफ़ सबूत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता? संविधान के अनुच्छेद 22 और फ़ौजदारी कानून में प्रत्येक गिरफ़्तार व्यक्ति को निम्नलिखित मौलिक अधिकार दिए गए हैं-
सर्वोच्च न्यायालय ने किसी भी व्यक्ति की गिरफ़्तारी, हिरासत और पूछताछ के बारे में पुलिस एवं अन्य संस्थाओं के लिए कुछ खास शर्त और प्रक्रियाएँ तय की हुई हैं। इन नियमों को डी.के. बसु दिशानिर्देश कहा जाता है। इनमें से कुछ दिशानिर्देश इस प्रकार हैं-
1.आइए अब शांति की कहानी पर वापस लौटते हैं और इन सवालों के जवाब खोजते हैं- (क)जब चोरी के इल्ज़ाम में शांति को गिरफ़्तार किया गया, उसी दौरान सब-इंस्पेक्टर राव ने उसके भाई सुशील को भी दो दिन तक पुलिस हिरासत में रखा। क्या उसको हिरासत में रखने की कार्रवाई कानूनन सही थी? क्या इससे डी.के. बसु दिशानिर्देशों का उल्लंघन हुआ है? (ख)क्या सब-इंस्पेक्टर राव ने शांति को गिरफ़्तार करने और उसके खिलाफ़ मुकदमा दायर करने से पहले गवाहों से पर्याप्त सवाल पूछे और ज़रूरी सबूत इकट्ठा किए थे? पुलिस की ज़िम्मेदारियों के हिसाब से आपकी राय में सब-इंस्पेक्टर राव को जाँच के लिहाज़ से और क्या-क्या करना चाहिए था? 2.आइए अब थोड़ी अलग स्थिति में मामले को देखते हैं। मान लीजिए कि शांति और उसका भाई सुशील थाने में जाकर यह शिकायत करते हैं कि शिंदे के 20 वर्षीय बेटे ने उनकी बचत के 15,000 हज़ार रुपए चुरा लिए हैं। क्या आपको लगता है कि थाने का प्रभारी अधिकारी फ़ौरन उनकी एफ.आई.आर. दर्ज कर लेगा? एेसे कारक लिखिए जो आपकी राय में एफ.आई.आर. लिखने या न लिखने के पुलिस के फ़ैसले को प्रभावित करते हैं। प्रथम सूचना रिपोर्ट/प्राथमिकी (एफ.आई.आर.) पुलिस एफ.आई.आर. दर्ज होने के बाद ही किसी अपराध की पड़ताल शुरू कर सकती है। कानून में कहा गया है कि किसी संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर थाने के प्रभारी अधिकारी को फौरन एफ.आई.आर. दर्ज करनी चाहिए। पुलिस को यह सूचना मौखिक या लिखित, किसी भी रूप में मिल सकती है। एफ.आई.आर. में आमतौर पर वारदात की तारीख, समय और स्थान का उल्लेख किया जाता है। उसमें वारदात के मूल तथ्यों और घटनाओं का विवरण भी लिखा जाता है। अगर अपराधियों का पता हो तो उनके नाम तथा गवाहों का भी उल्लेख किया जाता है। एफ.आई.आर. में शिकायत दर्ज कराने वाले का नाम और पता लिखा होता है। एफ.आई.आर. के लिए पुलिस के पास एक खास फॉर्म होता है। इस पर शिकायत करने वाले के दस्तखत कराए जाते हैं। शिकायत करने वाले को पुलिस से एफ.आई.आर. की एक नकल मुफ़्त पाने का कानूनी अधिकार होता है। सरकारी वकील की क्या भूमिका होती है? किसी आपराधिक उल्लंघन को जनता के विरुद्ध माना जाता है। इसका मतलब यह है कि वह अपराध केवल पीड़ित व्यक्ति को ही नुकसान नहीं पहुँचाता, बल्कि पूरे समाज के प्रति अपराध होता है। आपको पिछले अध्याय में दहेज के लिए सुधा की हत्या की घटना याद है? आरोपी लक्ष्मण और उसके परिवार के खिलाफ़ यह मुकदमा राज्य की ओर से दायर किया गया था। इसीलिए इस मुकदमे को ‘राज्य (दिल्ली प्रशासन) बनाम लक्ष्मण कुमार एवं अन्य’ का नाम दिया गया था। इसी तरह शांति वाले मुकदमे को भी ‘श्रीमती शिंदे बनाम शांति हेमब्राम’ की बजाय ‘राज्य बनाम शांति हेमब्राम’ के नाम से जाना जा सकता है। अदालत में सरकारी वकील राज्य का पक्ष प्रस्तुत करता है। सरकारी वकील की भूमिका तब शुरू होती है जब पुलिस जाँच पूरी करके अदालत में आरोपपत्र दाखिल कर देती है। सरकारी वकील की इस जाँच में कोई भूमिका नहीं होती। उसे राज्य की ओर से अभियोजन प्रस्तुत करना होता है। न्यायालय के पदाधिकारी के रूप में उसकी ज़िम्मेदारी है कि वह निष्पक्ष रूप से अपना काम करे और अदालत के सामने सारे ठोस तथ्य, गवाह और सबूत पेश करे। तभी अदालत सही फ़ैसला दे सकती है। न्यायाधीशकी क्या भूमिका होती है? न्यायाधीश की वही हैसियत होती है जो खेलों में अंपायर की होती है। वे निष्पक्ष भाव से और खुली अदालत में मुकदमे का संचालन करते हैं। न्यायाधीश सारे गवाहों के बयान
सुनते हैं और अभियोजन पक्ष तथा बचाव पक्ष की तरफ से पेश किए गए सबूतों की जाँच करते हैं। अपने सामने मौजूद बयानों व सबूतों के आधार पर कानून के अनुसार न्यायाधीश ही तय करते हैं कि आरोपी सचमुच दोषी है या नहीं। अगर आरोपी दोषी पाया जाता है तो न्यायाधीश उसे सज़ा सुनाते हैं। वह कानून में दिए गए प्रावधानों के हिसाब से दोषी व्यक्ति को जेल भेज सकते हैं या उस पर जुर्माना लगा सकते हैं या एक साथ दोनों तरह की सज़ा दे सकते हैं। सारेगवाहों के बयान सुनने के बाद न्यायाधीश ने शांति के मुकदमे में क्या कहा? निष्पक्षसुनवाई (fairtrial) क्या होती है? आइए थोड़ी देर के लिए कल्पना करें कि अगर न्यायाधीश महोदय शांति का मुकदमा किसी और तरह संचालित करते तो क्या हो सकता था? अगर अदालत ने शांति को आरोपपत्र और गवाहों के बयानों की नकल न दी होती तो क्या होता? अगर न्यायाधीश किसी एेसी जगह पर मुकदमा चलाते जहाँ शांति और सुशील, दोनों ही नहीं जा सकते तो क्या होता? अगर न्यायाधीश ने शांति की अधिवक्ता रॉय को अभियोजन की ओर से प्रस्तुत किए गए श्रीमती शिंदे आदि गवाहों से जिरह करने का पर्याप्त समय न दिया होता और पहले ही मान लेते कि शांति दोषी है तो क्या होता? अगर इस तरह की कोई भी बात होती तो इसे निष्पक्ष सुनवाई नहीं कहा जा सकता था। इसकी वज़ह यह है कि निष्पक्ष सुनवाई के लिए कई बातों का पालन करना ज़रूरी होता है। संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन के अधिकार का आश्वासन दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता को केवल एक तर्कसंगत और न्यायपूर्ण कानूनी प्रक्रिया के ज़रिए ही छीना जा सकता है। निष्पक्ष सुनवाई में यह सुनिश्चित किया जाता है कि संविधान के अनुच्छेद 21 का पूरी तरह पालन किया जाएगा। आइए अब चित्रकथा-पट्ट में दिए गए शांति के मुकदमे पर वापस लौटें और एक निष्पक्ष सुनवाई के मूलभूत तत्त्वों पर ध्यान दें- पहलीबात,शांति कोआरोपपत्रऔरउनसभीसाक्ष्यों कीएक-एकप्रतिदीगईथीजो अभियोजनपक्षनेउसकेखिलाफ़ अदालत में पेश किए थे। शांति पर चोरी का आरोप लगाया था जो कानूनन एक अपराध है। यह मुकदमा जनता के सामने खुली अदालत में चलाया गया। शांति का भाई सुशील अदालत की कार्रवाइयों में मौजूद था। मुकदमा आरोपी की उपस्थिति में चलाया गया। शांति का एक वकीलने बचाव किया। शांति की अधिवक्ता रॉय को अभियोजन पक्ष की ओर से पेश किए गए सारे गवाहों से ज़िरह करने का मौका दिया गया। अधिवक्ता रॉय को शांति की ओर से गवाह पेश करने का अधिकार दिया गया। हालाँकि पुलिस ने शांति के खिलाफ़ चोरी का मामला दर्ज किया था लेकिन न्यायाधीशने उसे निर्दोष मानते हुए मुकदमा चलाया। अब अभियोजन पक्ष को निर्णायक रूप से सिद्ध करना था कि शांति ही दोषी है। इस मुकदमे में अभियोजन पक्ष एेसा नहीं कर पाया। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि न्यायाधीश ने अदालत के सामने पेश किए गए साक्ष्यों के आधार पर ही मुकदमे का फ़ैसला सुनाया। न्यायाधीश ने शांति की कमज़ोर स्थिति के आधार पर बिना सोचे-समझे यह फ़ैसला नहीं ले लिया कि वह सचमुच चोर है। इसकी बजाय न्यायाधीश का आचरण लगातार निष्पक्ष रहा और चूँकि साक्ष्यों से यह सिद्ध हो गया कि शांति की बजाय कुछ युवकों ने चोरी की थी, इसलिए उन्होंने शांति को आज़ाद कर दिया। शांति को इसलिए न्याय मिला क्योंकि उसे निष्पक्ष सुनवाई का मौका दिया गया था। इस अध्याय में हमने जिन लोगों का ज़िक्र किया है संविधान और कानून, दोनों में यह कहा गया है कि उन लोगों को अपनी ज़िम्मेदारी सही ढंग से निभानी चाहिए। इसका मतलब है कि प्रत्येक नागरिक चाहे वह
विभिन्न वर्ग, जाति, धर्म और वैचारिक मान्यताओं के हों, उन्हें निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार दिया जाए। कानून का शासन कहता है कि कानून के सामने हर कोई बराबर है। अगर प्रत्येक नागरिक को संविधान के माध्यम से निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार न दिया जाए तो इस सिद्धांत का कोई खास मतलब नहीं रह जाएगा। पृष्ठ 74 पर मोटे अक्षरों में जो प्रक्रियाएँ लिखी गई हैं वे सभी निष्पक्ष सुनाई के लिए बहुत ज़रूरी हैं। शांति के मुकदमे के इस विवरण के आधार पर अपने शब्दों में लिखें कि निम्नलिखित प्रक्रियाओं
का आप क्या मतलब समझते हैं- 1. खुली अदालत- 2. सबूतों के आधार पर- 3. अभियोजन पक्ष के गवाहों से जिरह- अपनी कक्षा में चर्चा करें कि अगर शांति के मुकदमे में निम्नलिखित प्रक्रियाओं का पालन न किया जाता तो क्या हो सकता था? 1. अगर उसे अपने बचाव के लिए वकील न मिलता। 2. अगर अदालत उसे निर्दोष नहीं मानते हुए मुकदमा चलाती। अभ्यास पीसलैंड नामक शहर में फिएस्ता फुटबॉल टीम के समर्थकों को पता चलता है कि पास के एक शहर में जो वहाँ से लगभग 40 कि.मी. है, जुबली फुटबॉल टीम के समर्थकों ने खेल के मैदान को खोद दिया है। वहीं अगले दिन दोनों टीमों के बीच अंतिम मुकाबला होने वाला है। फिएस्ता के समर्थकों का एक झुंड घातक हथियारों से लैस होकर अपने शहर के जुबली समर्थकों पर धावा बोल देता है। इस हमले में दस लोग मारे जाते हैं, पाँच औरतें बुरी तरह जख्मी होती हैं, बहुत सारे घर नष्ट हो जाते हैं और पचास से ज़्यादा लोग घायल होते हैं। कल्पना कीजिए कि आप और आपके सहपाठी आपराधिक न्याय व्यवस्था के अंग हैं। अब अपनी कक्षा को इन चार समूहों में बाँट दीजिए- 1. पुलिस 2. सरकारी वकील 3. बचाव पक्ष का वकील 4. न्यायाधीश नीचे दी गई तालिका के दाएँ कॉलम में कुछ ज़िम्मेदारियाँ दी गई हैं। इन ज़िम्मेदारियों को बाईं ओर दिए गए अधिकारियों की भूमिका के साथ मिलाएँ। प्रत्येक टोली को अपने लिए उन कामों का चुनाव करने दीजिए जो फिएस्ता समर्थकों की हिंसा से पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने के लिए आवश्यक हैं। ये काम किस क्रम में किए जाएँगे? अब यही स्थिति लें औरकिसी एेसे विद्यार्थी को उपरोक्त सारे काम करने के लिए कहें जो फिएस्ता क्लब का समर्थक है। यदि आपराधिक न्याय व्यवस्था के सारे कामों को केवल एक ही व्यक्ति करने लगे तो क्या आपको लगता है कि पीड़ितों को न्याय मिल पाएगा? क्यों नहीं? आप एेसा क्यों मानते हैं कि आपराधिक न्याय व्यवस्था में विभिन्न लोगों को अपनी अलग-अलगभूमिका निभानी चाहिए? दो कारण बताएँ। शब्द संकलन आरोपी-इस अध्याय के संदर्भ में एेसे व्यक्ति को आरोपी कहा गया है जिस पर अदालत में किसी अपराध के लिए मुकदमा चल रहा है। संज्ञेय-इस अध्याय में उन अपराधों को संज्ञेय अपराध कहा गया है जिनके लिए पुलिस किसी व्यक्ति को अदालत की अनुमति केबिना भी गिरफ़्तार कर सकती है। ज़िरह-जब कोई गवाह अदालत में अपना बयान देता है तो दूसरे पक्ष का वकील भी उससे कुछ सवाल पूछता है जिससे उसके पिछले बयान को सही या गलत साबित किया जा सकें इसे ज़िरह कहते हैं। हिरासत (detention)-पुलिस द्वारा किसी को गैर कानूनी ढंग से अपने कब्ज़े में रखना। निष्पक्ष-इसका मतलब है स्पष्ट या न्यायसंगत व्यवहार करना और किसी एक पक्ष का समर्थन न करना। किसी अपराध का आरोप लगाना-जब न्यायाधीश आरोपी को लिखित रूप से सूचित करता हैकि उस पर किस अपराध के लिए मुकदमा चलाया जाएगा तो इसे अपराध का आरोप लगाना कहा जाता है। गवाह-जब किसी व्यक्ति को अदालत में यह बयान देने के लिए बुलाया जाता है कि उसने मामले के संबंध में क्या देखा, सुना या जाना है तो उसे गवाह कहा जाता है। हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रमुख भूमिका किसकी होती है?इस घटना के आधार पर आप देख सकते हैं कि पुलिस, सरकारी वकील, बचाव पक्ष का वकील और न्यायाधीश, ये चार अधिकारी आपराधिक न्याय व्यवस्था में मुख्य लोग होते हैं। इस मामले में आपने इन चारों की भूमिका को भी देख लिया है।
भारत में आपराधिक न्याय की मुख्य विशेषताएं क्या हैं?आपराधिक न्याय प्रणाली का तात्पर्य सरकार की उन एजेंसियों से है जो कानून लागू करने, आपराधिक मामलों पर निर्णय देने और आपराधिक आचरण में सुधार करने हेतु कार्यरत हैं। उद्देश्य : आपराधिक घटनाओं को रोकना। अपराधियों और दोषियों को दंडित करना।
हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली क्या है?हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में अपराधियों को गिरफ्तार करने में पुलिस की जो भूमिका होती है उसके आधार पर कई बार ऐसा लगता है मानो पुलिस ही तय करती है कि कोई अपराधी है या नहीं। जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो अदालत ही तय करती है कि आरोपी वाकई दोषी है या नहीं।
इसने भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली के विकास में कैसे योगदान दिया है व्याख्या करें?उल्लेखनीय है कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों को भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है। न्यायालय: न्यायालय की कार्रवाई न्यायाधीशों द्वारा नियंत्रित की जाती है। इनका मुख्य कार्य यह निर्धारित करना होता है कि किसी आरोपी ने अपराध किया है या नहीं और यदि किया है तो क्या सज़ा दी जानी चाहिये।
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