विश्व में सुख शांति और समृद्धि के लिए क्या आवश्यक है? - vishv mein sukh shaanti aur samrddhi ke lie kya aavashyak hai?

ब्रह्मा कुमारी आशा
अंग्रेजी में कहते हैं, ‘वर्क इज वरशिप’, अर्थात कर्म ही पूजा है। लेकिन हर कर्म पूजा नहीं है। आलस्य, मजबूरी, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, भय और घृणा से किया गया कर्म पूजा नहीं है। व्यर्थ या बुरी भावना से किए गए कर्म विकर्म या पापकर्म कहे जाते हैं। ऐसा कार्य वरशिप के बजाय वॉरशिप बन जाता है। अर्थात कर्मक्षेत्र, युद्धक्षेत्र में बदल जाता है। बुरे कर्म का फल दुख, अशांति, पीड़ा, रोग, शोक, कष्ट के रूप में भोगना पड़ता है।

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जीवन में सच्ची सुख-शांति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि की प्राप्ति के लिए कर्म, विकर्म, सुकर्म और श्रेष्ठ कर्म की परिभाषा जानना जरूरी है। हर कर्म के पीछे व्यक्ति की नीयत और भावना को समझना और उन्हें सकारात्मक बनाना आवश्यक है, ताकि हर कर्म का प्रभाव और परिणाम अपने लिए या दूसरों के लिए सुखदायी और हितकारी हो। किसी भी कार्य को हम अपने और अन्य के कल्याण या विकास के लिए करते हैं, तो वह कार्य हमारे लिए ईश्वर की पूजा जैसा है। किंतु अनिच्छा, मजबूरी, या अन्य के प्रति नकारात्मक सोच या बुरी नीयत से किया गया कर्म, असल में विकर्म या पापकर्म कहलाता है। जो हमारे और दूसरों के लिए दुख, संताप और अधोगति का कारण बन जाता है।

श्रेष्ठ कर्म या सुकर्म तो व्यक्ति और समाज में शुभ आशा, खुशी, प्रेरणा, उमंग, उत्साह, साहस, सद‌्भावना, आत्मबल, आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता को बढ़ाते हैं। इसके विपरीत, निकृष्ट या पाप कर्म से खुद की और अन्य की भी आंतरिक शांति, शक्ति, सुख और संतुष्टि नष्ट होती है। व्यक्ति के पाप कर्मों के प्रवाह को सुकर्म या श्रेष्ठ कर्म की धारा में बदलने का आधार है, उसकी सोच या विचारों में सकारात्मक परिवर्तन। उसकी व्यर्थ व नकारात्मक वृत्ति और भावनाओं को सद‌्भावना और शुभकामना में बदल देना। ऐसे बदलाव के लिए व्यक्ति को भौतिक और भोगवादी मानसिकता से ऊपर उठने की जरूरत है। उसे आत्मा-परमात्मा के आध्यात्मिक ज्ञान, गुण और शक्तियों को आत्मसात करने की आवश्यकता है।

श्रेष्ठ कर्मों की पूंजी जमा करना है तो मनुष्य को स्वार्थी और संकीर्ण सोच, विकारी व भोगवादी विचारों से दूर रहना उचित है। सकारात्मक गुण और दिव्य शक्तियों के स्रोत अंतरात्मा और परमात्मा के सुखद चिंतन में रहकर ही सांसारिक कर्तव्य करना आवश्यक है। इसे भगवद्गीता में, ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ कहा गया है। अर्थात कर्मक्षेत्र रूपी कुरुक्षेत्र में, नकारात्मक और सकारात्मक वृत्तियों के बीच हमारे चल रहे महायुद्ध में मनबुद्धि से परमात्मा के साथ योगयुक्त रहकर ही हमें सांसारिक कर्म में प्रवृत्त होना चाहिए।

पाप कर्म और उसके कष्टदायी फल से बचने के लिए, पुण्य कर्म में ही प्रवृत्त होना पड़ेगा। लेकिन, श्रेष्ठ कर्म में बाधक देहाभिमान व आत्मिक निर्बलता है। इसकी पुष्टि महाभारत के खलनायक दुर्योधन से होती है। वह जानता था धर्म, अधर्म, पाप और पुण्य क्या है। लेकिन अधर्म व पाप कर्म से निवृत या धर्म व पुण्य कार्य में प्रवृत्त होने की उसके पास न तो शक्ति थी, न ही इच्छा।

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आज लोग, पाप-पुण्य अथवा धर्म-अधर्म की परिभाषा जानते हैं। लेकिन सच्चे आत्मबोध या अध्यात्म शक्ति के अभाव से, सत्यधर्म व मानवीय मूल्यों को स्वयं में या समाज में पुनर्स्थापित करने में असमर्थ हैं। ऐसे में, आध्यात्मिक ज्ञान एवं ईश्वरीय ध्यान को अपनाना व बढ़ावा देना महतवपूर्ण है जिससे लोगों में सकारात्मक दृष्टिकोण, सद्गुण, दैवी संस्कार एवं आंतरिक शक्तियां विकसित हो सकें और मानव जीवन स्वस्थ, स्वच्छ, समृद्ध, संतुलित व बेहतर बन सके।

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सुख शांति समृद्धि के लिए क्या करें?

घर में सुख-समृद्धि के लिए इनमें से करें कोई भी एक उपाय, खुद देखें....
1/6. दिन की होती है अच्छी शुरुआत ... .
2/6. इस ओर मुख करके करें पूजा ... .
3/6. अवश्य लगाएं तुलसी का पौधा ... .
4/6. करें इस मंत्र का जप ... .
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5/6. इस दिशा में मुख करके खाएं खाना ... .
6/6. करें हनुमान चालीसा का पाठ.

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शांति के लिए क्या आवश्यक है?

शांति के लिए मनुष्य को अपने जीवन को महात्मा गांधी की तरह नियमित और अनुशासित करना पड़ता है। जो व्यक्ति नियम और अनुशासन से चलता है उसका मन कभी अशांत नहीं होगा, बल्कि वह स्वयं प्रफुल्लित रहेगा और अपने आसपास के लोगों को भी सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करेगा।

घर में सुख शांति के लिए कौन सा पाठ करना चाहिए?

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:।।. आप इस शांति मंत्र का जाप रोजाना कर सकते हैं. इस मंत्र का जाप आप पूजा या यज्ञ से पहले या बाद में कर सकते हैं. इससे घर का क्लेश दूर होता है.