संप्रदायवाद में कौन सा तत्व नहीं है? - sampradaayavaad mein kaun sa tatv nahin hai?

ग्रेफाइटसिलिका सल्फ़रप्लास्टिक सल्फर

Solution : तत्व केवल एक प्रकार के ही परमाणु को रखते हैं। ग्रेफाइट तथा डायमण्ड दोनों केवल C (कार्बन) को रखते हैं, प्लास्टिक सल्फर केवल S को रखती है, किन्तु सिलिका `(SiO_(2))` दो भिन्न परमाणुओं अर्थात si तथा O को रखता है, अतः यह एक तत्व नहीं है।

      द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, खासतौर पर 1942 के बाद सांप्रदायिक शक्तियों को तेजी से बढ़ने का अवसर मिला। ऐसा मुख्य रूप से इसलिए भी हुआ कि राष्ट्रवादी नेता जेल में थे और राष्ट्रीयता आंदोलन निष्क्रिय था। 1946 तक मुस्लिम लीग बड़ी संख्या मुसलमानों का समर्थन पाने में सफल हुई तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उत्तरी भारत के एक बड़ी शक्ति बन गया। सांप्रदायिक शक्तियों पर अब भी रोक लगाई जा सकती थी किंतु यह इसलिए संभव न हो सका कि 1947 के दौरान और अगस्त 1947 के बाद में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे कराने में समर्थ  हुईं। ऐसा प्रतीत हुआ कि संपूर्ण देश सांप्रदायिकता की आग की लपटों में झुलस रहा है और देश के विभाजन का एक ही विकल्प हो सकता था और वह था लाखों की संख्या में मासूम लोगों की एक साथ हत्या। राष्ट्रीयतावादी नेतृत्व तथा भारतीय जन-समुदाय को पिछली अर्धशताब्दी के दौरान संप्रदायिकता के प्रादुर्भाव और विकास से सफलतापूर्वक निपटने में अपनी असफलताओं के अवश्यंभावी परिणामों का सामना करना पड़ा। इस तरह अगस्त, 1947  में दो स्वतंत्र राष्ट्र बनकर भारत तथा पाकिस्तान ने दो  जातियों (कौमों) की साझेदारी को गहरी ठेस पहुंचाई।

‘सांप्रदायिकता’ से तात्पर्य उस संकीर्ण मनोवृति से है, जो धर्म और संप्रदाय के नाम पर पूरे समाज तथा राष्ट्र के व्यापक हितों के विरुद्ध व्यक्ति को केवल अपने व्यक्तिगत धर्म व संप्रदाय के हितों को प्रोत्साहित करने और उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्व देती है। सांप्रदायिकता की भावना अपने धर्म के प्रति अंध-भक्ति तथा दूसरे धर्म और उसके अनुयायियों के प्रति विद्वेष की भावना उत्पन्न करती है।

मौलिक रूप में संप्रदायवाद इस विश्वास का नाम है कि चूंकि कुछ लोग किसी एक विशेष धर्म को मानते हैं, इसलिए उनके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हित भी समान होते हैं। संप्रदायवाद धार्मिक समूहों के मध्य तनावों से होते हुए अलगाववाद तक ले जाता है। एक ही देश में विभिन्न और प्रमुख संप्रदायों के बीच अलगाव और द्वेष की राजनीति को ‘सांप्रदायिक राजनीति’ (Communal Politics ) के नाम से पुकारा जाता है।

भारत में इस सांप्रदायिक राजनीति (Communal Politics ) के अंतर्गत पहले मुस्लिम सांप्रदायिकता (Muslim Communalism) का उदय हुआ और इसके बाद मुस्लिम सांप्रदायिकता की प्रतिक्रिया में हिंदू सांप्रदायिकता (Hindu Communalism) का उदय और विकास हुआ।

सांप्रदायिक विचारधारा के चरण (Stages of Communal Ideology)

भारत में सांप्रदायिक विचारधारा (Communal Ideology) के मुख्यतः तीन चरण परिलक्षित होते हैं और उनमें एक तारतम्य दिखाई देता है। पहले चरण की सांप्रदायिक विचारधारा (Communal Ideology) के अनुसार चूंकि कुछ लोग किसी एक विशेष धर्म को मानते हैं, इसलिए उनके सांसारिक अर्थात् सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हित भी समान होते हैं।

दूसरे शब्दों में, भारत में हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई अलग-अलग और विशिष्ट समुदाय हैं और इन धर्मों के माननेवालों के आध्यत्मिक हित ही नहीं, बल्कि सांसारिक हित भी समान हैं। संप्रदायवाद के दूसरे चरण में यह धारणा निहित होती है कि किसी धर्म के अनुयायियों के सांसारिक हित (सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक हित), किसी दूसरे धर्म के माननेवालों के हितों से भिन्न होते हैं। भारत जैसे बहुभाषी समाज में किसी एक धर्म के अनुयायियों के सांसारिक हित अन्य किसी भी धर्म के अनुयायियों के सांसारिक हितों से भिन्न होते हैं।

सांप्रदायिकता अपने तीसरे चरण की शुरूआत तब होती है जब यह मान लिया जाता है कि विभिन्न धर्मों/संप्रदायों के अनुयायियों/ समुदायों के हित एक-दूसरे के विरोधी हैं। इस तीसरे चरण में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के अनुयायियों या विभिन्न धार्मिक समुदायों के हितों को परस्पर-विरोधी और शत्रुतापूर्ण समझा जाने लगता है।

अपने पहले चरण में सांप्रदायिकता धार्मिक पहचान पर बहुत ज्यादा बल देती है और इसी से धर्म पर आधारित सामाजिक-राजनीतिक समुदायों की धारणा का जन्म होता है। सांप्रदायिकता के दूसरे चरण को उदार सांप्रदायिकता या नरमपंथी सांप्रदायिकता कहा गया है जिसमें संप्रदायवादी उदारवादी, लोकतांत्रिक, मानवतावादी और राष्ट्रीयतावादी मूल्यों में कुछ विश्वास भी करता है। तीसरे चरण में सांप्रदायिकता उग्र हो जाती है और यह फासीवादी तौर-तरीके अपना लेती है।

उग्रवादी सांप्रदायिकता के तीसरे चरण में यह दावा किया जाता है कि दो विभिन्न धार्मिक समूहों या समुदायों के हित कभी भी समान नहीं हो सकते और विभिन्न धर्मों के अनुयायियों या धार्मिक समुदायों के सांसारिक हितों में परस्पर टकराव निश्चित है। हालांकि भारत में सांप्रदायिकता के तीनों चरण अलग-अलग समय पर आये, लेकिन वे एक-दूसरे को प्रभावित करते रहे और उनमें एक तरह की निरंतरता भी बनी रही।

भारत में सांप्रदायिकता की ऐतिहासिकता (Historicity of Communalism in India)

किसी भी देश में अनेक धर्मों का होना सांप्रदायिकता के विकास का प्रमुख कारण नहीं होता है। किसी बहुधर्मी देश में सांप्रदायिकता का विकास होना अनिवार्य नहीं है। धर्म एक विश्वास-प्रणाली है और लोग व्यक्तिगत विश्वासों के एक अंग के रूप में इसका पालन करते हैं। संप्रदायवाद धर्म पर आधारित सामाजिक और राजनीतिक पहचान की विचारधारा का नाम है। धर्म संप्रदायवाद का कारण नहीं है और न ही धर्म से प्रेरित होता है। वस्तुतः संप्रदायवाद धर्म का राजनीतिक व्यापार है। धार्मिकता, सांप्रदायिकता को बहुत ज्यादा प्रोत्साहित करने का मूल कारण नहीं थी।

चूंकि भारत जैसे देश में शिक्षा का अभाव था तथा लोगों में बाह्य जगत-संबंधी चेतना न के बराबर थी, इसलिए धार्मिकता ने सांप्रदायिकता के लिए उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। भारत में आधुनिक राजनीतिक चेतना निम्न, मध्य वर्ग के हिंदुओं और पारसियों की अपेक्षा उसी वर्ग के मुसलमानों में देर से विकसित हुई।

सांप्रदायिकता प्राचीन या मध्यकालीन अवशेष नहीं है जैसा कि अकसर कहा जाता है। यद्यपि सांप्रदायिकता प्राचीन और मध्ययुगीन विचारधाराओं का प्रयोग करती थी और उन पर आधारित भी होती थी, किंतु मूलतः यह एक आधुनिक विचारधारा और राजनीतिक प्रवृत्ति थी, जो आधुनिक सामाजिक समूहों, वर्गों और ताकतों की सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करती थी और उनकी राजनीतिक जरूरतों को पूरा करती थी।

भारत में सांप्रदायिक चेतना का उदय आधुनिक राजनीति के उदय से जुड़ा हुआ है। सांप्रदायिकता की सामाजिक जड़ों तथा इसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों को भारतीय इतिहास के आधुनिक काल में खोजा जा सकता है।

ब्रिटिश शासन की स्थापना के पूर्व कई सदियों तक भारत पर मुसलमानों का आधिपत्य था। शताब्दियों तक एक-दूसरे के साथ रहने के कारण हिंदुओं-मुसलमानों, दोनों संप्रदायों के रहन-सहन, रीति-रिवाजों में काफी समानता आ गई थी और विभिन्न धर्मों के होते हुए भी सभी धर्मों में आश्चर्यजनक एकता स्थापित हो गई थी।

यद्यपि धर्म लोगों के जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग रहा है और धर्म को लेकर कभी-कभी हिंदुओं-मुसलमानों में झगड़े होते थे, किंतु 1870 के दशक के पहले तक भारत में शायद ही किसी सांप्रदायिक विचारधारा और सांप्रदायिक राजनीति का अस्तित्व रहा हो।

1857 के सिपाही विद्रोह में हिंदुओं-मुसलमानों, दोनों संप्रदायों के लोगों ने कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया था और सर्वसम्मति से अंतिम मुगल बहादुरशाह को अपना नेता स्वीकार किया था।

भारत में सांप्रदायिकता के कारण (Reasons for Communalism in India)

यद्यपि सांप्रदायिकता का संबंध धार्मिक आधार पर अलगाववाद और कट्टरता से है, किंतु भारत में सांप्रदायिक चेतना का जन्म औपनिवेशिक नीतियों (Colonial Policies) तथा उसके विरुद्ध संघर्ष करने की आवश्यकता से उत्पन्न परिवर्तनों के कारण हुआ।

भारत में सांप्रदायिकता का उदय जनता और उसकी भागीदारी पर आधारित एक नई, आधुनिक राजनीति का परिणाम है। आधुनिक राजनीति में जनता से व्यापक संबंध बनाने, उसकी आस्था जीतने और नई पहचान कायम करने की आवश्यकता के कारण सांप्रदायिकता उत्पन्न हुई। सांप्रदायिकता आधुनिक संप्रदायवादी राजनीति सामाजिक समूहों, वर्गों और ताकतों की सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करती थी और उनकी राजनीतिक जरूरतों की पूरा करती थी। समकालीन आर्थिक ढाँचे ने न केवल सांप्रदायिकता को उत्पन्न किया, अपितु उसके कारण इसका विकास और प्रसार हुआ।

सांप्रदायिकता का सामाजिक आधार उभरते हुए मध्य वर्ग पर अवलंबित था, जो तत्कालीन वातावरण में अपने धार्मिक हितों के साथ अपने आर्थिक हितों को भी ढूढ़ रहा था। जब नये विचारों को ग्रहण करने, नई पहचानों और विचारधाराओं का विकास करने तथा संघर्ष के दायरे को व्यापक बनाने के लिए लोगों ने पुरातन और पूर्व-आधुनिक तरीकों के प्रति आसक्ति प्रकट की, तो उससे सांप्रदायिकता की विचारधारा को सशक्त बनाने में मदद मिली। संकीर्ण सामाजिक प्रतिक्रियावादी तत्वों ने सांप्रदायिकता को पूर्ण समर्थन दिया।

भारत जैसे धार्मिक व सांस्कृतिक बहुलतावाले देश में सांप्रदायिकता का विकास कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, बल्कि यह अंग्रेजों द्वारा अपने साम्राज्यवादी एवं औपनिवेशिक हितों की पूर्ति के लिए ‘बांटो और राज करो की नीति के तहत उभारी गई एक क्रमिक प्रक्रिया थी।

दरअसल भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की स्थापना के बाद जैसे-जैसे लोगों में राजनीतिक व आर्थिक चेतना का उदय हुआ, वैसे-वैसे धार्मिक पहचान का जुड़ाव राजनीतिक और आर्थिक मामलों से होने लगा और एक धार्मिक समूह के लोग अपने राजनीतिक और आर्थिक स्थिति की तुलना अन्य धार्मिक समूहों के राजनीतिक और आर्थिक स्थिति से करने लगे।

इस तुलनात्मक प्रक्रिया में जब किसी धार्मिक समूह को लगा कि उसके धार्मिक समूह की राजनीतिक व आर्थिक साधनों तक पहुँच अन्य समूहों की अपेक्षा कम है, तो वहीं से धार्मिक अलगाववाद और सांप्रदायिकता की भावना ने जन्म लेना शुरू किया। भारत में सांप्रदायिकता के उदय का सबसे ज्यादा शिकार आम जनता हुई, जबकि इसका लाभ ज्यादातर दोनों समुदायों के आर्थिक-राजनीतिक संभ्रांतों ने उठाया। इस प्रकार ब्रिटिश भारत में सांप्रदायिकता का उदय आध्यात्मिक या धार्मिक न होकर राजनीतिक था, जिसका परिणाम देश के राजनीतिक विभाजन के रूप में सामने आया।

संप्रदायवाद में कौन कौन से तत्व होते हैं?

सम्प्रदायवाद की प्रमुख विशेषताएं - यह असहिष्णुता पर आधारित है। यहाँ असहिणुता का अर्थ अन्य जाति, धर्म और परंपरा से जुड़े व्यक्ति के विश्वासों, व्यवहार व प्रथा को मानने की अनिच्छा हैं। यह दूसरे धर्मो के प्रति दुष्प्रचार करता है। यह दूसरो के विरूद्ध हिंसा सहित अतिवादी तरीको को स्वीकार करता है।

सांप्रदायिकता से आप क्या समझते हैं इसके मुख्य तत्व बताएं?

सांप्रदायिकता से तात्पर्य उस संकीर्ण मनोवृत्ति से है, जो धर्म और संप्रदाय के नाम पर पूरे समाज तथा राष्ट्र के व्यापक हितों के विरुद्ध व्यक्ति को केवल अपने व्यक्तिगत धर्म के हितों को प्रोत्साहित करने तथा उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्त्व देती है।

संप्रदाय के मुख्य कारण क्या है?

Solution : साम्प्रदायिकता के चार प्रमुख कारण निम्न प्रकार हैं - (i) एक धर्म के अनुयायियों के लौकिक हित दूसरे धर्म के अनुयायियों के लौकिक हित बिल्कुल भिन्न तथा परस्पर विरोधी होना। (ii) एक-दूसरे के धार्मिक व सांस्कृतिक क्रियाकलापों में अंतर तथा विरोध का होना। (iii) अंग्रेजों की . फूट डालों व राज्य करो.

सांप्रदायिकता की विशेषता क्या है?

साम्प्रदायिकता एक प्रकार की विचारधारा के रूप में, वह है जो व्यक्तियों, समूहों या समुदायों के बीच एक पूर्वाग्रह पर अंतर की पहचान करती है जो पूरी तरह से धर्म, विश्वास, जातीयता आदि पर निर्भर है। एक शब्द के रूप में, सांप्रदायिकता को एक स्पष्ट संबंध के रूप में परिभाषित किया जा सकता है एक व्यक्ति और उनका समुदाय।