चेतावनी: इस टेक्स्ट में गलतियाँ हो सकती हैं। सॉफ्टवेर के द्वारा ऑडियो को टेक्स्ट में बदला गया है। ऑडियो सुन्ना चाहिये। Show सामाजिक परिवर्तन के सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारकों का समर्थन प्रसिद्ध समाजशास्त्री स्वरूप स्वरूप किसने किया है Romanized Version UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 14 Social Change (सामाजिक परिवर्तन) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 14 Social Change (सामाजिक परिवर्तन).
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक) प्रश्न 1 इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सभी तरह के परिवर्तनों को हम सामाजिक परिवर्तन नहीं कहते। किसी समुदाय के लोगों की वेशभूषा, खान-पान, मकानों की बनावट अथवा परिवहन के साधनों में होने वाले विकास को सामाजिक परिवर्तन नहीं कहा जाता। संक्षेप में, सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य लोगों के सामाजिक सम्बन्धों, समाज के ढाँचे अथवा सामाजिक मूल्यों में होने वाले परिवर्तन से है। इसका तात्पर्य यह है कि जब किसी समाज में लोगों की प्रस्थिति और भूमिका, विचार करने के ढंगों तथा जीवन की स्वीकृत विधियों में परिवर्तन होने लगता है, तब इसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। सामाजिक परिवर्तन का अर्थ
सर्वप्रथम, जब हमें यह कहते हैं कि परिवर्तन हो रहा है तो हमारा उद्देश्य यह स्पष्ट करना होता है कि परिवर्तन किस दशा, वस्तु अथवा तथ्य में हो रहा है। दूसरे, समय के दृष्टिकोण से परिवर्तन एक तुलनात्मक दशा है। किसी वस्तु या दशा में एक समय की तुलना में दूसरे समय पैदा होने वाली नयी विशेषताओं को ही हम परिवर्तन कहते हैं। तीसरे, परिवर्तन का तात्पर्य किसी दशा अथवा वस्तु के रूप में इस तरह भिन्नता उत्पन्न होना है जो उसे पहले की तुलना में एक नया आकार-प्रकार दे दे। स्पष्ट है कि यदि समय के अन्तराल के साथ लोगों की वेशभूषा बदल जाये, मकानों की निर्माण-शैली में भिन्नता आ जाये अथवा परिवहन के साधन अधिक विकसित हो जायें तो इन सभी दशाओं को हम ‘परिवर्तन’ के नाम से सम्बोधित करेंगे। ‘सामाजिक परिवर्तन’ की अवधारणा परिवर्तन से भिन्न है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि जब दो विशेष अवधियों के बीच व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक ढाँचे तथा सामाजिक मूल्यों में भिन्नता उत्पन्न होती है, तब इसी भिन्नता को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध समाज के मुख्यत: तीन पक्षों में होने वाले परिवर्तन से होता है। ये पक्ष हैं
कि जब व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों, उनकी प्रस्थिति और भूमिका तथा जीवन की स्वीकृत विधियों में परिवर्तन होने लगता है, तब इसी दशा को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। इस तथ्य को समाजशास्त्रियों द्वारा दी गयी कुछ प्रमुख परिभाषाओं के आधार पर सरलता से समझा जा सकता है। सामाजिक परिवर्तन की परिभाषाएँ सामाजिक परिवर्तन का सही अर्थ क्या है, यह जानने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं का अध्ययन करना होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सामाजिक परिवर्तन को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है
सामाजिक परिवर्तन के कारक 1. प्राकृतिक या भौगोलिक कारक – प्राकृतिक या भौगोलिक कारक सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्राकृतिक शक्तियाँ समाज के प्रतिमानों के रूपान्तरण में अधिक उत्तरदायी होती हैं। भौगोलिक कारकों में भूमि, आकाश, चाँद-तारे, पहाड़, नदी, समुद्र, जलवायु, प्राकृतिक घटनाएँ, वनस्पति आदि सम्मिलित हैं। प्राकृतिक कारकों के समग्र प्रभाव को ही प्राकृतिक पर्यावरण कहा जाता है। प्राकृतिक पर्यावरण का मानव-जीवन पर प्रत्यक्ष और गहरा प्रभाव पड़ता है। बाढ़, भूकम्प व घातक बीमारियाँ मानव सम्बन्धों को प्रभावित करते हैं। लोग घर-बार छोड़कर अन्यत्र प्रवास कर जाते हैं। नगर और गाँव वीरान हो जाते हैं। लोगों के सामाजिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न हो जाते हैं। जलवायु सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारक है। जलवायु सभ्यता के विकास और विनाश में प्रमुख भूमिका निभाती है। भौगोलिक कारक ही मनुष्य के आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का निर्धारण करते हैं। कहीं मनुष्य प्रकृति के समक्ष नतमस्तक होकर उसी के अनुरूप कार्य करता है और कहीं प्रकृति की उदारता का भरपूर लाभ उठाकर सांस्कृतिक उन्नति के साथ विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अग्रणी बन जाता है। 2. प्राणिशास्त्रीय कारक – प्राणिशास्त्रीय कारक भी सामाजिक परिवर्तन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी होते हैं। प्राणिशास्त्रीय कारकों को जैविकीय कारक भी कहा जाता है। प्राणिशास्त्रीय कारक जनसंख्या के गुणात्मक पक्ष को प्रदर्शित करते हैं। इनसे प्रजातीय सम्मिश्रण, मृत्यु एवं जन्म-दर, लिंग अनुपात और जीवन की प्रत्याशी का बोध होता है। प्रजातीय मिश्रण से व्यक्ति के व्यवहार, मूल्य, आदर्श और विचारों में परिवर्तन आता है। प्रजातीय मिश्रण से समाज की प्रथाएँ, रीति-रिवाज, रहन-सहन का ढंग और सामाजिक सम्बन्ध बदल जाने के कारण सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न होता है। जन्म-दर और मृत्यु-दर सदस्यों में सामाजिक अनुकूलन का भाव जगाते हैं। जन्म-दर और मृत्यु-दर में परिवर्तन होने से सामाजिक प्रवृत्तियाँ और मृत्यु-दर अधिक होने से समाज में व्यक्तियों की औसत आयु घट जाती है। समाज में क्रियाशील व्यक्तियों की संख्या घटने से नये आविष्कार बाधित होने लगते हैं। समाज में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक होने पर बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन हो जाता है, इसके विपरीत स्थिति में बहुपति प्रथा चलन में आ जाती है। नयी परम्पराएँ समाज की संरचना और मूल्यों में परिवर्तन उत्पन्न कर सामाजिक परिवर्तन का कारण बनती हैं। समाज में स्वास्थ्य सेवाओं में कमी आने से स्वास्थ्य में गिरावट होने लगती है। 3.
सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक – सामाजिक परिवर्तन के लिए आर्थिक कारक सबसे अधिक उत्तरदायी हैं। आर्थिक कारक सामाजिक संस्थाओं, परम्पराओं, सामाजिक मूल्यों और रीति-रिवाजों को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। औद्योगिक विकास ने भारतीय सामाजिक संरचना को आमूल-चूल परिवर्तित कर दिया है। 4. सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक – सांस्कृतिक कारक भी सामाजिक विघटन के महत्त्वपूर्ण कारक हैं। सोरोकिन का मत है कि सांस्कृतिक विशेषताओं में होने वाले परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन लाने में सक्षम हैं। संस्कृति मानव-जीवन की जीवन-पद्धति है। इसमें रीतिरिवाज, सामाजिक संगठन, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था, विज्ञान, कला, धर्म, विश्वास, परम्पराएँ, मशीनें तथा नैतिक आदर्श सम्मिलित हैं। इसमें समस्त भौतिक और अभौतिक पदार्थ सम्मिलित होते हैं। वास्तव में, संस्कृति वह सीखा हुआ व्यवहार है जो सामाजिक जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने की एक शैली है। जैसे ही समाज के सांस्कृतिक तत्त्वों में परिवर्तन आता है, वैसे ही सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। वर्तमान में विवाह एक धार्मिक संस्कार न रहकर, समझौता मात्र रह गया है, जिसे कभी भी तोड़ा जा सकता है। बढ़ते हुए विवाह-विच्छेदों के कारण समाज में परिवर्तन आना स्वाभाविक ही। है। समाज में सामाजिक मूल्यों, संस्थाओं और प्रथाओं में जैसे ही बदलाव आता है, वैसे ही सांस्कृतिक प्रतिमान बदल जाते हैं जो सामाजिक परिवर्तन को जन्म देते हैं। सामाजिक परिवर्तन में सांस्कृतिक कारकों की भूमिका को प्रभावशाली बनाने के लिए ऑगबर्न ने सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। भौतिक और अभौतिक दोनों ही संस्कृतियाँ मानव के जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। एक पहलू में परिवर्तन आने से दूसरा पहलू स्वतः बदल जाता है। 5. सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारक – जनसंख्या समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। एक-एक व्यक्ति मिलकर ही समाज बनता है। जनसंख्यात्मक कारक भी सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं; क्योंकि किसी समाज की रचना को जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। जनसंख्या की रचना, आकार, जन्म-दर, मृत्यु-दर, जनसंख्या की कमी एवं अधिकता, देशान्तरगमन, स्त्री-पुरुषों का अनुपात, बालकों, युवकों एवं वृद्धों की संख्या आदि सभी जनसंख्यात्मक कारक माने जाते हैं। 6. सामाजिक परिवर्तन के प्रौद्योगिकीय कारक – वर्तमान युग प्रौद्योगिकी का युग है। नये-नये आविष्कार, उत्पादन की विधियाँ अथवा यन्त्र सामाजिक परिवर्तन लाने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रौद्योगिकी अथवा तकनीकी भी सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। जैसे-जैसे किसी समाज की प्रौद्योगिकी में परिवर्तन होते रहते हैं, वैसे-वैसे समाज के विभिन्न पहलुओं तथा संस्थाओं में परिवर्तन होते रहते हैं। प्रौद्योगिकी एक सामान्य शब्द है, जिसके अन्तर्गत समस्त यान्त्रिक उपकरणों तथा इनसे वस्तुओं के निर्माण की प्रक्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। अन्य शब्दों में, यह मशीनों और औजारों तथा उनके प्रयोग से सम्बन्धितं है। वेबलन ने सामाजिक परिवर्तन लाने में प्रौद्योगिकी को प्रमुख स्थान दिया है। उन्होंने मनुष्यों को आदतों का दास माना है। आदतें स्थिर नहीं होतीं और प्रौद्योगिकी में परिवर्तन के साथ आदतें भी बदल जाती हैं। इससे सामाजिक परिवर्तन होता है। प्रौद्योगिकी विकास के साथ ही नगरीकरण और औद्योगीकरण की गति तीव्र होती है। बड़े-बड़े नगर तथा औद्योगिक केन्द्र विकसित होने से समाज में अनेक समस्याएँ जन्म लेने लगती हैं, जिससे समाज में परिवर्तन आ जाता है। भौतिकवादी प्रवृत्ति का उदय होने से धन व्यक्ति की प्रतिष्ठा का मापदण्ड बन जाता है। मनोरंजन के साधनों का व्यवसायीकरण होने तथा मानसिक संवेग तनाव और रोग को जन्म देकर सामाजिक परिवर्तन लाते हैं। प्रश्न 2 1. सामाजिक परिवर्तन सामुदायिक जीवन में होने वाला परिवर्तन है – यदि दो-चार व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों अथवा व्यवहार करने के ढंगों में परिवर्तन हो जाये तो इसे सामाजिक परिवर्तन नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत, जब किसी समुदाय के अधिकांश व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों, सामाजिक नियमों तथा विचार करने के तरीकों में परिवर्तन हो जाता है, तभी इसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। 2. सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती – कोई भी व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि किसी समाज में भविष्य में कौन-कौन से परिवर्तन होंगे और कब होंगे। हम अधिक-से-अधिक परिवर्तन की सम्भावना मात्र कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि आगामी कुछ वर्षों में औद्योगीकरण के कारण अपराधों की मात्रा में वृद्धि हो जायेगी अथवा किसी प्रकार के अपराध बढ़ सकते हैं, लेकिन हम निश्चित रूप से भविष्य में अपराधों की संख्या तथा स्वरूप के बारे में कुछ नहीं कह सकते। 3. सामाजिक परिवर्तन एक जटिल तथ्य है – सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति इस प्रकार की है कि इसकी निश्चित माप नहीं की जा सकती। मैकाइवर का कथन है कि सामाजिक परिवर्तन का अधिक सम्बन्ध गुणात्मक परिवर्तनों (Qualitative changes) से है और गुणात्मक तथ्यों की माप न हो सकने के कारण इसकी जटिलता बहुत अधिक बढ़ जाती है। भौतिक वस्तुओं में होने वाले परिवर्तन को सरलता से समझा जा सकता है, लेकिन सांस्कृतिक मूल्यों (Cultural values) और विचारों में होने वाला परिवर्तन इतना जटिल हो जाता है कि सरलता से उसको समझ सकना बहुत कठिन है। सामाजिक परिवर्तन में जितनी वृद्धि होती जाती है, इसकी जटिलता भी उतनी ही बढ़ जाती है। 4. सामाजिक परिवर्तन की गति तुलनात्मक है – किसी एक समाज में होने वाले परिवर्तन को दूसरे समाज से उसकी तुलना करने पर ही समझा जा सकता है। एक ही समाज के विभिन्न भागों में परिवर्तन की गति भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, अथवा विभिन्न समाजों में परिवर्तन की | मात्रा में अन्तर हो सकता है। सामान्य रूप से सरल और आदिवासी समाजों में परिवर्तन बहुत कम और धीरे-धीरे होता है, जब कि जटिल और सभ्य समाजों में हमेशा नये परिवर्तन होते रहते हैं। यही कारण है कि ग्रामों में परिवर्तन की गति धीमी और नगरों में बहुत तेज (rapid) होती है। 5. सामाजिक परिवर्तन का चक्रवत और रेखीय रूप – सामान्य रूप से सामाजिक परिवर्तन के दो स्वरूप होते हैं-चक्रवत और रेखीय। चक्रवत परिवर्तन का तात्पर्य है कि परिवर्तन कुछ विशेष दशाओं के बीच ही होता रहता है। लौट-बदलकर वही स्थिति फिर से आ जाती है जो कुछ समय पहले विद्यमान थी। फैशन या पहनावे के क्षेत्र में चक्रवत परिवर्तन सबसे अधिक देखने को मिलता है। रेखीय परिवर्तन हमेशा एक ही दिशा में आगे की ओर होता रहता है। ऐसे परिवर्तन अधिकतर प्रौद्योगिकी व शिक्षा के क्षेत्र में देखने को मिलते हैं। 6. सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य नियम है – सामाजिक परिवर्तन एक अनिवार्य और आवश्यक घटना है। परिवर्तन चाहे नियोजित रूप से किया गया हो अथवा स्वयं हुआ हो, यह अनिवार्य रूप से सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है। विभिन्न समाजों में परिवर्तन की मात्रा में अन्तर हो सकता है, लेकिन इसके न होने की सम्भावना नहीं की जा सकती। इसका कारण यह है कि समाज की आवश्यकताएँ हमेशा बदलती रहती हैं तथा व्यक्तियों की मनोवृत्तियों और रुचियों में भी परिवर्तन होता रहता है। 7. सामाजिक परिवर्तन सर्वव्यापी है – मानव-समाज के आरम्भिक इतिहास से लेकर आज तक परिवर्तन की प्रक्रिया सभी व्यक्तियों, समूहों और समाजों को प्रभावित करती रही है। बीरस्टीड का कथन है कि “परिवर्तन का प्रभाव इतना सर्वव्यापी रहा है कि कोई भी दो व्यक्ति एक समान नहीं हैं। उनके इतिहास और संस्कृति में इतनी भिन्नता पायी जाती है कि * किसी व्यक्ति को भी दूसरे का प्रतिरूप (Replica) नहीं कहा जा सकता।” इससे सामाजिक परिवर्तन की सर्वव्यापी प्रकृति स्पष्ट हो जाती है। प्रश्न 3 1. उपभोग की प्रकृति – किसी समाज में व्यक्ति किन वस्तुओं का उपभोग करते हैं तथा उपभोग का स्तर क्या है, यह तथ्य एक बड़ी सीमा तक सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है। किसी समाज में जब अधिकांश व्यक्तियों को एक न्यूनतम जीवन-स्तर बनाये रखने के लिए उपभोग की केवल सामान्य सुविधाएँ ही प्राप्त होती हैं तो वहाँ परिवर्तन की गति बहुत सामान्य होती है। इसके विपरीत, यदि अधिकांश व्यक्ति उपभोग की सामान्य सुविधाएँ पाने से भी वंचित रहते हैं तो धीरे-धीरे जनसामान्य का असन्तोष इतना बढ़ जाता है कि वे सम्पूर्ण सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने का प्रयत्न करने लगते हैं। व्यक्तियों का जीवन-स्तर यदि सामान्य से अधिक ऊँचा होता है तो अधिकांश व्यक्ति परम्परागत व्यवहार-प्रतिमानों, प्रथाओं और धार्मिक नियमों को अपने लिए आवश्यक नहीं समझते। इसके फलस्वरूप वहाँ परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत तेज हो जाती है। 2. उत्पादन की प्रणालियाँ – उत्पादन की प्रणाली का तात्पर्य मुख्य रूप से उत्पादन के साधनों, उत्पादन की मात्रा तथा उत्पादन के उद्देश्य से है। मार्क्स के अनुसार, उत्पादन की प्रणाली सामाजिक परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण है। उत्पादन के साधन अथवा उपकरण जब बहुत सरल और परम्परागत प्रकृति के थे, तब समाजों की प्रकृति भी सरल थी। अनेक प्रकार के शोषण और आर्थिक कठिनाइयों के बाद भी व्यक्ति अपनी दशाओं से सन्तुष्ट रहते थे। जैसे-जैसे परम्परागत प्रविधियों की जगह उन्नत ढंग की मशीनों के द्वारा उत्पादन किया जाने लगा, समाज के उच्च और निम्न वर्ग की आर्थिक असमानताएँ बढ़ने लगीं। ये आर्थिक असमानताएँ वर्ग-संघर्ष को जन्म देकर सामाजिक परिवर्तन का ही नहीं बल्कि क्रान्ति तक का कारण बन जाती हैं। 3. वितरण की व्यवस्था – प्रत्येक समाज में वितरण की एक ऐसी व्यवस्था अवश्य पायी जाती है जिसके द्वारा राज्य अथवा समूह अपने साधन विभिन्न व्यक्तियों को उपलब्ध करा सकें। वितरण की यह व्यवस्था या तो राज्य के नियन्त्रण में होती है अथवा व्यक्तियों को इस बात की स्वतन्त्रता होती है कि वे प्रतियोगिता के द्वारा अपनी कुशलता के अनुसार स्वयं ही विभिन्न , साधन प्राप्त कर लें। वितरण की इन दोनों में से किसी भी एक व्यस्था के रूप में होने वाला परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया पैदा करता है। रॉबर्ट बीरस्टीड का विचार है कि यदि हवा और पानी की तरह सभी व्यक्तियों को भोजन और वस्त्र भी बिना किसी बाधा के मिल जाएँ तो समाज में कोई समस्या न रहने के कारण सामाजिक परिवर्तन की दशा भी उत्पन्न नहीं होती। इसके विपरीत, व्यवहार में प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में अनेक आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसके फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न हो जाना भी बहुत स्वाभाविक है। उदाहरण के लिए, प्राचीन समय में वस्तु-विनिमय का प्रचलन था जिसके फलस्वरूप व्यक्तियों के बीच प्राथमिक सम्बन्ध थे तथा लोगों की आवश्यकताएँ बहुत कम थीं। 4. आर्थिक नीतियाँ – प्रत्येक राज्य कुछ ऐसी आर्थिक नीतियाँ बनाता है जिनके द्वारा उपभोग, उत्पादन तथा वितरण की व्यवस्था को सन्तुलित बनाया जा सके। आर्थिक नीतियाँ केवल आर्थिक सम्बन्धों को ही व्यवस्थित नहीं बनातीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन को रोकने अथवा उसमें वृद्धि करने में भी इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। उदाहरण के लिए, यदि राज्य स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण लगाकर श्रमिकों की मजदूरी, कार्य की दशाओं तथा कल्याण सुविधाओं के बारे में कानून बनाकर श्रमिकों को संरक्षण प्रदान करता है तो समाज । में स्तरीकरण की व्यवस्था बदलने लगती है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की जगह राज्य द्वारा यदि सार्वजनिक उद्योगों की स्थापना की जाने लगती है तो इससे भी आर्थिक संरचना में और फिर सामाजिक संरचना में परिवर्तन होने लगते हैं। 5. श्रम-विभाजन – श्रम-विभाजन एक विशेष आर्थिक कारक है, जिसका सामाजिक परिवर्तन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। समाज में जब किसी तरह का श्रम-विभाजन नहीं होता तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करता है। इसके फलस्वरूप लोगों का जीवन आत्मनिर्भर अवश्य बनता है लेकिन लोग अपने धर्म, जाति और समुदाय के बन्धनों से बाहर नहीं निकल पाते। श्रम-विभाजन एक ऐसी दशा है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति से एक विशेष कार्य के द्वारा। आजीविका उपार्जित करने की आशा की जाती है। इसका तात्पर्य है कि श्रम-विभाजन में सभी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हो जाते हैं। दुर्वीम — ‘ ने इस दशा को ‘सावयवी एकता’ कहा है। 6. आर्थिक प्रतिस्पर्दा – प्रतिस्पर्धा यद्यपि एक सामाजिक प्रक्रिया है लेकिन जब यह प्रक्रिया आर्थिक क्रियाओं से सम्बन्धित हो जाती है, तब इसी को हम आर्थिक प्रतिस्पर्धा कहते हैं। जॉनसन का कथन है कि आर्थिक प्रतिस्पर्धा व्यक्तियों में तनाव और संघर्ष की दशा उत्पन्न करके सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहन देती है। आर्थिक प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति दूसरे की तुलना में अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगता है। इसके फलस्वरूप व्यक्तियों की कार्यकुशलता अवश्य बढ़ती है, लेकिन पारस्परिक द्वेष और । विरोध में भी बहुत वृद्धि हो जाती है। 7. औद्योगीकरण – अनेक विद्वान् औद्योगीकरण को सामाजिक परिवर्तन का सबसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक कारक मानते हैं। औद्योगीकरण से छोटे-छोटे कस्बे बड़े औद्योगिक नगरों में परिवर्तित होने लगते हैं। उद्योगों में काम करने वाले लाखों श्रमिकों की मनोवृत्तियों, व्यवहारों और रहन-सहन के तरीकों में परिवर्तन होने लगता है। नये व्यवसायों में वृद्धि होने से सभी धर्मों, जातियों और वर्गों के लोमों द्वारा किये जाने वाले कार्य की प्रकृति में परिवर्तन होने लगता है। प्रश्न 4 जनसंख्यात्मक कारक भी सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, क्योंकि किसी समाज की रचना को जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। जनसंख्या की रचना, आकार, जन्म-दर, मृत्यु-दर, देशान्तरगमन, जनसंख्या की कमी एवं अधिकता, स्त्री-पुरुषों का – अनुपात, बालकों, युवकों एवं वृद्धों की संख्या आदि सभी जनसंख्यात्मक कारक माने जाते हैं। हम यहाँ सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारकों की भूमिका का उल्लेख करेंगे। 1. जनसंख्या के आकार को प्रभाव – जनसंख्या का आकार भी समाज को प्रभावित करता है। समाज का जीवन-स्तर, गरीबी, बेकारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य एवं अनेक अन्य सामाजिक समस्याओं का जनसंख्या के आकार से घनिष्ठ सम्बन्ध है। हमारे सामाजिक मूल्य, आदर्श, मनोवृत्तियाँ, जीवन-यापन का ढंग सभी कुछ जनसंख्या के आकार पर भी निर्भर हैं। राजनीतिक व सैनिक दृष्टि से भी जनसंख्या का आकार महत्त्वपूर्ण है। जिन देशों में जनसंख्या अधिक होती है, वे राष्ट्र शक्तिशाली माने जाते हैं; चीन इसका उदाहरण है। जिन देशों की जनसंख्या … कम होती है, वे राष्ट्र कमजोर समझे जाते हैं। इसी प्रकार जिन देशों की जनसंख्या कम है। वहाँ के लोगों का जीवन-स्तर अपेक्षाकृत ऊँचा होता है। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, कनाडा और अमेरिका के लोगों का जीवन-स्तर चीन व भारत के लोगों से काफी ऊँचा है, क्योंकि वहाँ की जनसंख्या कम है। ग्राम और नगर का भेद भी जनसंख्या के कारक पर ही निर्भर है। 2. जन्म तथा मृत्यु-दर – जन्म और मृत्यु-दर जनसंख्या के आकार को प्रभावित करते हैं। जब किसी देश में मृत्यु-दर की अपेक्षा जन्म-दर अधिक होती है तो जनसंख्या में वृद्धि होती। है। इसके विपरीत स्थिति में जनसंख्या घटती है। जब जन्म-दर और मृत्यु दर में कमी होती है या दोनों में सन्तुलन होता है तो उस देश की जनसंख्या में स्थिरता पायी जाती है। जिन देशों में जनाधिक्य होता है, वहाँ इस प्रकार की प्रथाएँ एवं रीति-रिवाज पाये जाते हैं जिनके द्वारा जन्म-दर को कम किया जा सके। उदाहरण के लिए, वहाँ गर्भपात की छूट होती है तथा – जन्मनिरोध एवं परिवार नियोजन पर अधिक जोर दिया जाता है। ऐसे देशों में छोटे परिवारों पर : बल दिया जाता है। उदाहरण के लिए, भारत में जनाधिक्य होने के कारण परिवार नियोजन है। कार्यक्रम को तीव्र गति से लागू किया गया है। इसके विपरीत, जिन देशों में जनसंख्या कम होती है वहाँ स्त्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठी-ऊँची होती है और जन्म-निरोध, परिवार नियोजन तथा गर्भपात के विपरीत धारणाएँ पायी जाती हैं। साथ ही वहाँ जन्म-दर को बढ़ाने के लिए समय-समय पर प्रोत्साहन दिया जाता है; जैसे-रूस में जनसंख्या को बढ़ाने के लिए कई प्रलोभन दिये जाते रहे हैं। 3. आप्रवास एवं उत्प्रवास – जनसंख्या की गतिशीलता भी सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है। जब किसी देश में विदेश से आकर बसने वालों की संख्या अधिक होती है। तो वहाँ जनसंख्या में वृद्धि होती है और यदि किसी देश के लोग अधिक संख्या में विदेशों में जाकर रहने लगते हैं तो उस देश की जनसंख्या घटने लगती है। विदेशों से अपने देश में जनसंख्या के आने को आप्रवास (Immigration) तथा अपने देश से विदेशों में जनसंख्या के निष्क्रमण को उत्प्रवास (Emigration) कहते हैं। आप्रवास एवं उत्प्रवास के कारण विभिन्न संस्कृतियों के व्यक्ति सम्पर्क में आते हैं। वे एक-दूसरे के विचारों, भाषा, प्रथाओं, रीतिरिवाजों, कला, ज्ञान, आविष्कार, खान-पान, पहनावा, रहन-सहन, धर्म आदि से परिचित होते हैं। सम्पर्क के कारण एक संस्कृति दूसरी संस्कृति को प्रभावित एवं परिवर्तित करती है। 4. आयु – यदि किसी देश में वृद्ध लोगों की तुलना में युवक और बच्चे अधिक हैं तो वहाँ परिवर्तन को शीघ्र स्वीकार किया जाएगा। इसका कारण यह है कि वृद्ध व्यक्ति सामान्यतः रूढ़िवादी एवं परिवर्तन-विरोधी होते हैं तथा प्रथाओं के कठोर पालन पर बल देते हैं। वृद्ध लोगों की अधिक संख्या होने पर सैनिक दृष्टि से वह समाज कमजोर होता है। युवा लोगों की अधिकता होने पर वह देश और समाज नवीन आविष्कार करने में सक्षम होता है। ऐसे समाज में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्रान्तियाँ आने के अवसर मौजूद रहते हैं, किन्तु दूसरी ओर जनसंख्या में युवा लोगों का अधिक अनुपात होने पर अनुभवहीन लोगों की संख्या भी बढ़ जाती है। 5. लिंग – समाज में स्त्री-पुरुषों का अनुपात भी सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करता है। जिन समाजों में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या अधिक होती है, उनमें स्त्रियों की सामाजिक स्थिति निम्न होती है और वहाँ बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन होता है। दूसरी ओर, जहाँ पर स्त्रियों की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक होती है वहाँ बहुपति प्रथा का प्रचलन होता है तथा कन्या-मूल्य की प्रथा पायी जाती है। प्रश्न 5 1. यन्त्रीकरण एवं सामाजिक परिवर्तन – विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के इस युग में आज आविष्कारों वे खोजों का विशेष महत्त्व है। वर्तमान में प्रेस, पहिया, भाप-इंजन, जहाज, मोटर-कार, वायुयान, ट्रैक्टर, टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन, बिजली, टाइपराइटर, कम्प्यूटर, गनपाउडर, अणुबम आदि के आविष्कार ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिये हैं। मैकाइवर का कहना है कि भाप के इंजन के आविष्कार ने मानव के सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन को इतना प्रभावित किया है जितना स्वयं उसके आविष्कारक ने भी कल्पना नहीं की होगी। ऑगबर्न ने रेडियो के आविष्कार के कारण उत्पन्न 150 परिवर्तनों को उल्लेख किया। स्पाइसर ने अनेक ऐसे अध्ययनों का उल्लेख किया है जिनसे यह पता चलता है कि छोटे यन्त्रों के प्रयोग से ही मानवीय सम्बन्धों में विस्तृत एवं अनपेक्षित परिवर्तन हुए हैं। कार में स्वचालित यन्त्र (Self-starter) के लग जाने से ही कई सामाजिक परिवर्तन हुए। हैं। इससे स्त्रियों की स्वतन्त्रता बढ़ी, अब उनके लिए कार चलाना आसान हो गया, वे क्लब जाने लगीं, उनकी गतिशीलता में वृद्धि हुई और इसका प्रभाव उनके पारिवारिक जीवन पर भी पड़ा। भारत में नये कारखानों के खुलने और मशीनों की सहायता से उत्पादन होने से लोगों को विभिन्न स्थानों पर काम करने हेतु जाना पड़ा, विभिन्न जातियों के लोगों को साथ-साथ काम करना पड़ा। इससे जाति-प्रथा एवं संयुक्त परिवार प्रणाली का विघटन हुआ, छुआछूत कम हुई, वर्ग-व्यवस्था पनपी तथा स्त्रियों की स्वतन्त्रता में वृद्धि हुई।। 2. यन्त्रीकरण तथा सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन – यन्त्रीकरण ने सामाजिक मूल्यों को परिवर्तित करने में योग दिया है। सामाजिक मूल्यों का हमारे जीवन में विशेष महत्व होता है और हम अपने व्यवहार को उन्हीं के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करते हैं। वर्तमान में व्यक्तिगत सम्पत्ति एवं शक्ति का महत्त्व बढ़ा है एवं सामूहिकता के मूल्य कमजोर पड़े हैं। अब धन और राजनीतिक शक्ति के बढ़ते हुए प्रभाव एवं महत्त्व के कारण उन लोगों को समाज में ज्यादा सम्मान या प्रतिष्ठा दी जाती है जो धनी हैं, बड़े व्यापारी या उद्योगपति हैं, राजनेता या प्रशासक हैं। यन्त्रीकरण ने प्रदत्त के बजाय अर्जित गुणों के महत्त्व को बढ़ाने में योगदान दिया है। 3. संचार के उन्नत साधन एवं सामाजिक परिवर्तन – संचार के नवीन उन्नत साधनों जो कि एक प्रभावशाली प्रौद्योगिकीय कारक हैं, ने विकास के अनेक जटिल सामाजिक फेरवर्तनों को जन्म दिया। संचार की अनेक प्रविधियाँ हैं, जिनमें तार, टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन आदि प्रमुख हैं। संचार ही तो सामाजिक सम्बन्धों का आधार है। सिनेमा यो चलचित्रों ने लोगों के विचारों, विश्वासों एवं मनोवृत्तियों को बदलने में काफी योग दिया है। साथ ही इसने पारिवारिक, सामाजिक एवं जातिगत सम्बन्धों को भी प्रभावित किया है। अब रेडियो की सहायता से कोई भी बात, सूचना एवं विचार कुछ ही क्षणों में लाखों-करोड़ों व्यक्तियों तक पहुँचाए जा सकते हैं। रेडियो मनोरंजन का स्वस्थ साधन भी है। रेडियो और टेलीविजन ने परिवार के सदस्यों को एक-साथ बैठकर अवकाश का समय बिताने को प्रेरित किया है। इससे सदस्यों को अपने मनोरंजन के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता और साथ ही उनके पारिवारिक सम्बन्धों में दृढ़ता आयी है। संचार के विभिन्न साधनों के माध्यम से भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक समूह के लोगों को एक-दूसरे को समझने का मौका मिला है, जिसके परिणामस्वरूप उनमें सांस्कृतिक दूरी कुछ कम हुई है तथा सात्मीकरण हुआ है। 4. कृषि क्षेत्र में नवीन प्रविधियाँ एवं सामाजिक परिवर्तन – कृषि क्षेत्र में नवीन प्रविधियों का प्रयोग एक ऐसा प्रौद्योगिक कारक है जिसने जीवन में अनेक परिवर्तन लाने में योग दिया है। पशुओं की नस्ल, उर्वरकों के प्रयोग, बीजों की किस्मे तथा श्रम बचाने वाली मशीनों सम्बन्धी मामलों में सुधार हो जाने से कृषि उत्पादन में मात्रा एवं गुण दोनों ही दृष्टि से वृद्धि हुई है। सिंचाई के उन्नत साधनों ने भी कृषि-उत्पादन बढ़ाने में काफी योग दिया है। इसका प्रभाव न केवल आर्थिक जीवन पर बल्कि सामाजिक जीवन पर भी पड़ा। पहले कृषि-कार्यों के ठीक से संचालन के लिए अन्य व्यक्तियों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती थी जिससे ग्रामों में सामूहिकता का महत्त्व बना हुआ था। अब श्रम की बचत करने वाली मशीनों के प्रयोग से व्यक्ति को कृषि-कार्यों में अन्य व्यक्तियों के सहयोग की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है। इससे सामूहिकता की बजाय व्यक्तिवादिता का महत्त्व बढ़ा है। साथ ही मशीनों के प्रयोग से कृषि-कार्यों में कम व्यक्तियों की आवश्यकता ने संयुक्त के बजाय नाभिक परिवारों के महत्त्व को बढ़ाया है। कृषि के क्षेत्र में प्रयोग में लायी जाने वाली नवीन प्रविधियों ने सामाजिक सम्बन्धों, लोगों के दृष्टिकोण और मनोवृत्तियों को काफी कुछ बदल दिया है। अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी सम्बन्धों में घनिष्ठता और आत्मीयता के बजाय औपचारिकता और कृत्रिमता बढ़ती जा रही है। 5. उत्पादन प्रणाली और सामाजिक परिवर्तन – उत्पादन प्रणाली भी एक प्रमुख प्रौद्योगिक कारक है, जिसने समय-समय पर सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक संरचना को काफी कुछ बदला है। पहले जब मशीनों का आविष्कार नहीं हुआ था तब लोग अपने हाथों से काम करते थे और परिवार ही उत्पादन की इकाई था। ऐसी स्थिति में परिवार के सभी सदस्यों के हित एवं रुचियाँ समान थीं. और सम्बन्धों में घनिष्ठता थी। उस समय छोटे पैमाने पर उत्पादन होने से औद्योगिक समस्याएँ और श्रम-समस्याएँ नहीं थीं। लोग अपने घरों पर उत्पादित वस्तुओं को अन्य व्यक्तियों को उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के बदले में देकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। इसी प्रकार वे अपनी सेवाओं का भी आदान-प्रदान करते थे। इससे ग्रामीण समुदायों में एकता और दृढ़ता बनी हुई थी, लेकिन अब उत्पादन प्रणाली बदल गयी है। वर्तमान में नगरीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर फैक्ट्रियों में मशीनों की सहायता से उत्पादन होने लगा है। अब हाथ से काम करने वालों का महत्त्व कम हुआ है और मशीनें चलाने वाले प्रशिक्षित व्यक्तियों का महत्त्व बढ़ा है। श्रम-विभाजन और विशेषीकरण अधिक हुआ है। उत्पादन की नवीन प्रणाली ने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और यहाँ तक कि सांस्कृतिक जीवन तक को भी बहुत कुछ बदल दिया है। इस नयी प्रणाली ने विभिन्न सामाजिक संस्थाओं, विवाह, परिवार, जाति आदि को अनेक रूपों में प्रभावित किया है और सामाजिक परिवर्तन की गति को तेज किया है। 6. अणु-शक्ति पर नियन्त्रण एवं सामाजिक परिवर्तन – अणु-शक्ति का प्रयोग रचनात्मक एवं विनाशक दोनों ही प्रकार के कार्यों के लिए किया जा सकता है। शान्ति के अभिकर्ता के रूप में अणु-शक्ति समृद्धि का अभूतपूर्व युगे ला सकती है। जहाँ इस शक्ति का प्रयोग मानव की सुख-समृद्धि को बढ़ाने और जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने में किया जा सकता है, वहीं इसका प्रयोग मानव और उसकी कृतियों को नष्ट करने के लिए भी किया जा सकता है। जैसे-जैसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अणु-शक्ति का प्रयोग बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे ही सामाजिक परिवर्तन की गति भी तीव्र होती जाएगी। प्रश्न 6 सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारकों की भूमिका (क) मैक्स वैबर (ख) स्पेंग्लर (ग) सोरोकिन सोरोकिने का मत है कि दोनों प्रकार की संस्कृतियों में से जब कोई भी संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है तो वह और आगे न बढ़कर पुनः पीछे की ओर लौटने लगती है। आज हम भौतिकवाद की चरम सीमा पर हैं किन्तु व्यक्ति बनाव-सिंगार से तंग आकर सरल जीवन तथा सादगी की ओर बढ़ता नजर आता है। आविष्कारों के भयंकर परिणामों से तंग आकर विश्व शान्ति के प्रयासों को तीव्र करने के लिए विविध प्रकार के संगठनों का निर्माण होने लगा है। इन सब बातों से यही निष्कर्ष निकलता है कि एक चरम सीमा के बिन्दु पर पहुँचकर कोई भी संस्कृति पीछे की ओर लौटती है। संस्कृति तथा सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध में उपर्युक्त विद्वानों के विचारों की विवेचना के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संस्कृति सामाजिक परिवर्तन की दिशा को निश्चित करती है। संस्कृति इस बात को निर्धारित करती है कि कौन-सा आविष्कार किस सीमा तक लोकप्रिय होगा। जो आविष्कार सांस्कृतिक तत्त्वों के अनुरूप नहीं होते है उनको समाज में सफलता नहीं मिलती है। प्रश्न 7 विलियम एफ० ऑगबर्न (w. F. Ogburn) ने संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए सर्वप्रथम 1922 ई० में अपनी पुस्तक ‘Social Change’ में सांस्कृतिक पिछड़’ अथवा ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। आपके अनुसार, संस्कृति का तात्पर्य मनुष्य द्वारा निर्मित सभी प्रकार के भौतिक और अभौतिक (Material and non-material) तत्त्वों से है। ‘lag’ का तात्पर्य ‘लँगड़ाना’ अथवा ‘पीछे रह जाना होता है। इस प्रकार संस्कृति के भौतिक पक्ष की तुलना में जब अभौतिक पक्ष पीछे रह जाता है, तब सम्पूर्ण संस्कृति में असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसी स्थिति को हम ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ अथवा ‘सांस्कृतिक पिछड़’ कहते हैं। यही स्थिति सामाजिक परिवर्तन का आधारभूत कारण है। ऑगबर्न ने स्वयं इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “…………………. आधुनिक संस्कृति के विभिन्न भाग समान गति से नहीं बदल रहे हैं, कुछ भागों में दूसरी की अपेक्षा अधिक तेजी से परिवर्तन हो रहा है और क्योंकि संस्कृति के सभी भाग एक-दूसरे पर निर्भर और एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं, इसलिए संस्कृति के एक भाग में होने वाले तीव्र परिवर्तन से दूसरे भागों में भी अभियोजन की आवश्यकता हो जाती है।” ऑगबर्न का तर्क है कि संस्कृति के विभिन्न भागों में होने वाले परिवर्तनों की असमान दर ही सांस्कृतिक पिछड़ का कारण है। हम किसी भी प्रगतिशील अथवा आदिम समाज का उदाहरण क्यों न ले लें, अधिकांश आधुनिक समाजों में हमें यह स्थिति देखने को मिलती है। एक ओर, हमारी भौतिक संस्कृति में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गये हैं। हम आधुनिक ढंगों से खेती करते हैं, मशीनों के द्वारा उत्पादन कार्य करते हैं, चिकित्सा विज्ञान की प्रगति से मृत्यु को भी कुछ समय तक रोकने में समर्थ हो गये हैं, परिवहन के साधनों से हजारों मील की दूरी कुछ घण्टों में ही तय करने लगे हैं और संचार के साधनों से हजारों मील दूर की आवाज को कुछ सेकण्डों में ही सुन सकते हैं; लेकिन दूसरी ओर, हमारे विश्वास और लोकाचार आज भी हजारों वर्ष पुराने हैं। व्यक्ति कितना ही प्रगतिशील और शिक्षित क्यों न हो गया हो, वह काली बिल्ली द्वारा रास्ता काटे जाने अथवा टूटे हुए शीशे को देखना अशुभ समझता है और पितृ-आत्माओं की तृप्ति के लिए कुछ व्यक्तियों को भोजन कराने में विश्वास करता है। इसी प्रकार हजारों विश्वास हमारे जीवन को आज भी अपनी सम्पूर्ण शक्ति से प्रभावित कर रहे हैं। तात्पर्य यह है कि संस्कृति का भौतिक पक्ष कहीं आगे बढ़ चुका है, जब कि अभौतिक पक्ष बहुत पीछे है। इसी स्थिति को हम ‘सांस्कृतिक पिछड़’ कहते हैं। सन् 1947 में अपनी एक अन्य पुस्तक ‘A Handbook of Sociology’ में ऑगबर्न ने ‘सांस्कृतिक पिछड़’ की परिभाषा में कुछ संशोधन करते हुए कहा है कि “सांस्कृतिक पिछड़ वह तनाव है जो तीव्र और असमान गति से परिवर्तन होने वाली संस्कृति के दो परस्पर सम्बन्धित भागों में विद्यमान होता है। इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि भौतिक संस्कृति की अपेक्षा अभौतिक संस्कृति में होने वाले कम परिवर्तन को ही हम सांस्कृतिक पिछड़ नहीं कहते, बल्कि संस्कृति के दोनों भागों में से किसी भी एक भाग के दूसरे से आगे निकल जाने की स्थिति को सांस्कृतिक पिछड़ कहा जाता है। उदाहरण के लिए, हम भारतीय समाज को ले सकते हैं, जहाँ नगरों और ग्रामीण समुदायों में यह स्थिति भिन्न-भिन्न रूपों में पायी जाती है। नगरों में भौतिक संस्कृति अभौतिक संस्कृति की अपेक्षा बहुत आगे है, जब कि ग्रामीण समुदाय में भौतिक संस्कृति की अपेक्षा अभौतिक संस्कृति का महत्त्व कहीं अधिक है। तात्पर्य यह है कि संस्कृति का कोई भी पक्ष दूसरे की अपेक्षा यदि अधिक परिवर्तित हो जाये तो यह स्थिति ‘सांस्कृतिक पिछड़’ की स्थिति उत्पन्न कर देती है। सांस्कृतिक विलम्बना के कारण तथा परिणाम
किसी समाज में जब सांस्कृतिक विलम्बना की दशा उत्पन्न होती है, तब इसके अनेक परिणाम स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। जब संस्कृति का एक पक्ष दूसरे से पिछड़ जाता है, तब
सिद्धान्त की समालोचना यद्यपि यह सच है कि संस्कृति के सभी भाग समान गति से नहीं बदलते, लेकिन जिस रूप में ऑगबर्न ने सांस्कृतिक पिछड़’ को सिद्धान्त प्रस्तुत किया है, उसमें बहुत-सी कमियाँ हैं
प्रश्न 8 सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्त सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन ऊपर की ओर उठती हुई एक सीधी रेखा के रूप में होता है। हरबर्ट स्पेन्सर ने भी सामाजिक परिवर्तन को समाज के उविकास की चार अवस्थाओं के रूप में स्पष्ट किया। इन्हें स्पेन्सर ने सरल समाज (Simple society), मिश्रित समाज (Compound society), दोहरे मिश्रित समाज (Double compound society) तथा अत्यधिक मिश्रित समाज (Terribly compound society) का नाम दिया। समाज की प्रकृति में होने वाले इन प्रारूपों के आधार पर स्पेन्सर ने बताया कि आरम्भिक समाज आकार में छोटे होते हैं, इसके सदस्यों में पारस्परिक सम्बद्धता कम होती है, यह समरूप होते हैं लेकिन लोगों की भूमिकाओं में कोई निश्चित विभाजन नहीं होता। इसके बाद आगे होने वाले प्रत्येक परिवर्तन के साथ समाज का आकार बढ़ने लगता है, सदस्यों में पारस्परिक निर्भरता बढ़ती जाती है, लोगों की प्रस्थिति और भूमिका में एक स्पष्ट अन्तर दिखायी देने लगता है तथा सामाजिक संरचना अधिक व्यवस्थित बनने लगती है। इस तरह समाज में होने वाला प्रत्येक परिवर्तन सरलता से जटिलता की ओर एक रेखीय क्रम में होता है। मॉर्गन ने मानव-सभ्यता के विकास को जंगली युग, बर्बरता का युग तथा सभ्यता का युग जैसे तीन भागों में विभाजित करके स्पष्ट किया। कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधार पर तथा वेबलन ने प्रौद्योगिक आधार पर सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त प्रस्तुत किये। स्पष्ट है कि जिन सिद्धान्तों के द्वारा सामाजिक परिवर्तन को अनेक स्तरों के माध्यम से विकास की दिशा में होने वाले परिवर्तन के रूप में स्पष्ट किया गया, उन्हें हम परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त कहते हैं। सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त तथा अनेक ऐसे सांस्कृतिक प्रतिमान विकसित होने लगते हैं जिनकी कुछ समय पहले तक कल्पना भी नहीं की गयी थी। इसका तात्पर्य है कि जिस तरह मनुष्य का जीवन जन्म, बचपन, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और मृत्यु के चक्र से गुजरता है, उसी तरह विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों में भी एक चक्र के रूप में उत्थान और फ्तन होता रहता है। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ऋतुओं अथवा मनुष्य के जीवन से सम्बन्धित परिवर्तन जिस तरह एक निश्चित चक्र के रूप में होते हैं, समाज में होने वाले परिवर्तन सदैव एक गोलाकार चक्र के रूप में नहीं होते। जिन सामाजिक प्रतिमानों, विचारों, विश्वासों तथा व्यवहार के तरीकों को हम एक बार छोड़ देते हैं, समय बीतने के साथ हम उनमें से बहुत-सी विशेषताओं को फिर ग्रहण कर सकते हैं, लेकिन उनमें कुछ संशोधन अवश्य हो जाता है। इस दृष्टिकोण से अधिकांश सामाजिक परिवर्तन घड़ी के पैण्डुलम की तरह होते हैं जो दो छोरों अथवा सीमाओं के बीच अपनी जगह निरन्तर बदलते रहते हैं। स्पेंग्लर, पैरेटो, सोरोकिन तथा टॉयनबी वे प्रमुख विचारक हैं जिन्होंने सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त प्रस्तुत किये। लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक) प्रश्न 1 प्रश्न 2 प्रश्न 3 कार्ल मार्क्स ने भी सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या रेखीय आधार पर की है। उसने समस्त सामाजिक परिवर्तन को आर्थिक या प्रौद्योगिक आधार पर स्पष्ट किया है। अतः उसके सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को निर्णयवादी (Deterministic Theory) भी कहा जाता है। उसके विचार से धर्म, राजनीति, भौगोलिक दशाएँ अथवा अन्य कारण सामाजिक परिवर्तन को जन्म नहीं देते हैं, केवल आर्थिक कारक ही सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को बदलता है। मार्क्स ने आर्थिक कारक को उत्पादन की प्रणाली अथवा प्रौद्योगिकी (Technology) के रूप में स्पष्ट किया है। किसी समाज में प्रचलित प्रौद्योगिकी या उत्पादन प्रणाली ही उस समाज की पारिवारिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के स्वरूप को निश्चित करती है। जब किसी समाज में प्रचलित उत्पादन की प्रणाली में परिवर्तन हो जाता है तो उसकी सामाजिक व्यवस्था के समस्त अंगों में भी परिवर्तन हो जाता है। माक्र्स ने आर्थिक व्यवस्था या प्रौद्योगिकी को अर्थात् उत्पादन की प्रणाली को समाज की रचना ‘अधिसंरचना’ (Substructure) तथा सामाजिक व्यवस्था को ‘अतिसंरचना (Superstructure) कहा है। प्रत्येक समाज की अतिसंरचना उसकी अधिसंरचना अर्थात् उत्पादन प्रणाली के अनुसार ही परिवर्तित होती रहती है। प्रश्न 4 द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की आलोचना 1. भौतिकता पर अत्यधिक बल – मार्क्स ने अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त में केवल भौतिकता को ही महत्त्व प्रदान किया है तथा आध्यात्मिकता की पूर्णतः उपेक्षा की है। मानव 2. संघर्ष की अनिवार्यता पर बल – मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में विकास की प्रक्रिया में संघर्ष की अनिवार्यता पर बल दिया गया है। उनका कहना है कि प्रत्येक उच्चतर अवस्था क्रान्ति के पश्चात् ही प्राप्त होती है। उनके इसी विचार के कारण आज के युवक साम्यवादी क्रान्ति की आराधना करते हैं। 3. पदार्थ को चेतनाहीन मानना उचित नहीं – मार्क्स का यह मत भी उचित नहीं जान पड़ता कि पदार्थ चेतनाहीन होता है और अपने निहित विरोधी तत्त्वों में संघर्ष के फलस्वरूप उसका विकास होता है। सत्य तो यह है कि किन्हीं बाह्य शक्तियों के कारण उसका विकास होता है। 4. स्पष्टता का अभाव – कुछ विद्वानों का कहना है कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या स्पष्ट रूप से नहीं की गयी है। वेबर महोदय का कहना है कि मार्क्स अपने द्वन्द्ववादी भौतिकवाद की व्याख्या अधिक स्पष्ट रूप में नहीं कर पाये; अतः इनकी धारणा अत्यन्त गूढ़ एवं अस्पष्ट है। प्रसिद्ध साम्यवादी अधिनायक लेनिन का भी यही कहना है कि हीगल के द्वन्द्ववाद को समझे बिना मार्क्स के द्वन्द्ववाद को नहीं समझा जा सकता। 5. विकास से सम्बन्धित अनुचित धारणा – द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सम्बन्ध में मार्क्स का कहना है कि पूँजीवाद (Capitalism) द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के नियम के अनुसार इतिहास की उपज है। वे कहते हैं कि जिस देश में पूंजीवाद अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाएगा, उस देश में उसका विरोधी तत्त्व ‘समाजवाद’ भी उसी के पेट से उत्पन्न होगा। परन्तु यदि इस बात को स्वीकार कर लिया जाये, तो इंग्लैण्ड में (जहाँ सबसे पहले पूँजीवाद अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा) सबसे पहले समाजवाद का उदय होना चाहिए था, जो कि नहीं हुआ। इसके विपरीत रूस और चीन में (जहाँ पूँजीवाद अपनी निम्नतर स्थिति में था) समाजवाद का सबसे अधिक विकास हुआ। उपर्युक्त आलोचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सत्य की खोज करने की एकमात्र विधि नहीं है, सत्य की खोज तो अन्य विधियों से भी की जा सकती है। प्रश्न 5 प्रश्न 6
प्रश्न 7
प्रश्न 8 सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन में
प्रश्न 9 गिलिन, डिटमर, कोलबर्ट एवं अन्य विद्वानों की मान्यता है कि सामाजिक परिवर्तन समाज में असामंजस्य की समस्या पैदा करके सामाजिक विघटन को जन्म देता है। सामाजिक परिवर्तन की विभिन्न प्रवृत्तियों में चार प्रवृत्तियाँ प्रमुख हैं, जो साधारणतः विघटन को बढ़ावा देती हैं। ये प्रवृत्तियाँ
उपर्युक्त
परिवर्तनों की तीव्र गति के कारण समाज में अनेक सामाजिक समस्याएँ तथा विघटनकारी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। सामाजिक विघटन का एक कारण संस्कृति के भौतिक एवं अभौतिक पक्षों में परिवर्तन की असमान दर है। आविष्कार एवं प्रसार के कारण भौतिक संस्कृति में तेजी से परिवर्तन आता है। इसके विपरीत, अभौतिक संस्कृति में बहुत धीमी गति से परिवर्तन होते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि भौतिक संस्कृति आगे बढ़ जाती है और अभौतिक संस्कृति पीछे छूट जाती है। ऐसा होने पर सामाजिक अव्यवस्था या असन्तुलन की स्थिति पैदा हो जाती है। इसी को ऑगबर्न ने सांस्कृतिक विलम्बना नाम दिया है जो सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी है। प्रश्न 10 दुर्बल एवं कमजोर शारीरिक एवं मानसिक क्षमता वाले लोग आविष्कार एवं निर्माण का कार्य नहीं कर पाएँगे। अतः आविष्कारों के कारण होने वाले परिवर्तन नहीं होंगे। इसकी तुलना में योग्य व्यक्ति नव-निर्माण एवं आविष्कार के द्वारा समाज में परिवर्तन लाने में सक्षम होंगे। किसी समाज में पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ अधिक होने पर बहुपत्नी-विवाह प्रथा एवं स्त्रियों की कमी होने पर बहुपति प्रथा तथा दोनों की समान संख्या होने पर एक-विवाह प्रथा का प्रचलन होगा। सामान्यतः यह माना जाता है कि अन्तर्जातीय एवं अन्तर्रजातीय विवाह से प्रतिभाशाली सन्तानें पैदा होती हैं, जो आविष्कारों द्वारा नवीन परिवर्तन लाने में सक्षम होती हैं। अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक) प्रश्न 1 प्रश्न 2 प्रश्न 3
प्रश्न 4
प्रश्न 5 प्रश्न 6 प्रश्न 7
प्रश्न 8 प्रश्न 9 प्रश्न 10 प्रश्न 11
प्रश्न 12
निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक) प्रश्न 1 प्रश्न 2 प्रश्न 3 प्रश्न 4 प्रश्न 5 प्रश्न 6 प्रश्न 7 प्रश्न 8 प्रश्न 9 प्रश्न 10 प्रश्न 11 प्रश्न12 प्रश्न 13 प्रश्न 14 प्रश्न 15 प्रश्न 16 प्रश्न 17 प्रश्न 18 प्रश्न 19 प्रश्न 20 प्रश्न 21 प्रश्न 22 प्रश्न 23 प्रश्न 24 प्रश्न 25 बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक) प्रश्न 1 प्रश्न 2 प्रश्न 3 प्रश्न 4 प्रश्न 5 प्रश्न 6 प्रश्न 7 प्रश्न 8 प्रश्न 9 प्रश्न 10 प्रश्न 11 प्रश्न 12 प्रश्न 13 प्रश्न 14 प्रश्न 15 प्रश्न 16 प्रश्न 17 प्रश्न 18 प्रश्न 19 उत्तर: We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 14 Social Change (सामाजिक परिवर्तन) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 14 Social Change (सामाजिक परिवर्तन), drop a comment below and we will get back to you at the earliest. सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारकों का समर्थक कौन है?सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारकों का समर्थक सोरोकिन है। सोरोकिन के मतानुसार सांस्कृतिक विशेषताओं में होने वाले परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन लाने में सक्षम होता है। संस्कृति मानव जीवन का अभिन्न अंग होती है।
मैकाइवर के अनुसार सामाजिक परिवर्तन के कितने प्रतिमान है?Answer. मैकाइवर और पेज ने सामाजिक परिवर्तन के जिन तीन प्रतिमानों का विवरण रेखीय प्रतिमान उनमें से एक है। यह सामाजिक परिवर्तन का वह स्वरूप है जो कि सिलसिले से क्रम विकास की ओर एक दिशा में निरन्तर बढ़ता जाता है।
सामाजिक परिवर्तन के कारक कौन कौन से हैं?सामाजिक परिवर्तन में अनेक कारक काम करते है जिनमें सांस्कृतिक, प्रौद्योगिक, जैविकीय आर्थिक, भौगोलिक परिवेश सम्बन्धी, मनोवैज्ञानिक तथा विचारधारात्मक कारक मुख्य कारक हैं । भारतवर्ष में सामाजिक परिवर्तन का सर्वेक्षण करने से इन सभी कारकों का प्रभाव स्पष्ट होगा ये सभी कारक परस्पर निर्भर हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं ।
सामाजिक परिवर्तन के दो प्रमुख सिद्धांत कौन से हैं?सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –. (1) रेखीय सिद्धांत (Lineal Theory). (2) चक्रिय सिद्धांत (Cyclical Theory). |