सम्राट मिहिरभोज कौन हैं, जिन्हें लेकर आमने-सामने हैं राजपूत और गुर्जर?
- समीरात्मज मिश्र
- बीबीसी हिंदी के लिए
22 सितंबर 2021
अपडेटेड 26 सितंबर 2021
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सम्राट मिहिरभोज की प्रतिमा
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विवादों के बीच बुधवार को ग्रेटर नोएडा के दादरी में गुर्जर सम्राट मिहिरभोज की प्रतिमा का अनावरण किया.
इधर, उनके दौरे के पहले से ही सम्राट मिहिरभोज के वंशज होने का दावा करने वाले राजपूतों और गुर्जरों में बना गतिरोध उसके बाद भी जारी है.
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मुख्यमंत्री के मूर्ति अनावरण से ठीक पहले गुर्जर सम्राट मिहिरभोज की प्रतिमा के नीचे लगे शिलापट्ट पर किसी ने 'गुर्जर' शब्द पर कालिख पोत दी, जिसे तत्काल स्टिकर चिपकाकर ठीक किया गया.
करणी सेना और कुछ अन्य राजपूत संगठनों ने पिछले कई दिनों से दादरी कूच करने का एलान किया था लेकिन उनके तमाम नेताओं को एक दिन पहले ही नज़रबंद कर दिया गया था जिससे समारोह स्थल पर कोई प्रदर्शन नहीं होने पाया.
मगर कार्यक्रम के बाद प्रतिमा स्थल के आस-पास बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों को तैनात किया गया है.
सम्राट महाभोज को लेकर राजपूतों और गुर्जरों के दावे
गत आठ सितंबर को ग्वालियर में सम्राट मिहिरभोज की एक प्रतिमा का अनावरण हुआ था जिसमें उनके नाम के पहले गुर्जर लिखा गया था.
राजपूत समाज ने सम्राट मिहिरभोज को गुर्जर जाति का बताए जाने पर आपत्ति जताई है और कहा है कि वो गुर्जर नहीं बल्कि क्षत्रिय थे.
उत्तर प्रदेश के शामली ज़िले में भी मिहिरभोज की एक प्रतिमा का अनावरण हुआ और उसमें भी उन्हें गुर्जर बताया गया है.
इस प्रतिमा के अनावरण के दौरान ग़ाज़ियाबाद में लोनी से बीजेपी विधायक नंदकिशोर गुर्जर भी मौजूद थे. लेकिन दादरी में प्रतिमा अनावरण के लिए जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आने का कार्यक्रम तय हुआ तो विरोध बढ़ गया.
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सुरक्षाबलों की मौजूदगी
राजपूत करणी सेना के अध्यक्ष लोकेंद्र कालवी भी दो दिन पहले ग्रेटर नोएडा पहुंच गए थे और उन्होंने मिहिरभोज को गुर्जर बताए जाने पर सख़्त ऐतराज़ जताया.
लोकेंद्र कालवी का कहना था, "ऐतिहासिक तथ्यों से तोड़-मरोड़ हम बर्दाश्त नहीं करेंगे. हमने इस बारे में यूपी के मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन भी दे रखा है.''
''राजस्थान में प्रशासनिक और राजनीतिक रूप से यह तय हो गया कि मिहिरभोज क्षत्रिय थे. मध्य प्रदेश में भी ऐसा ही है. इतिहासकारों ने तय कर दिया है कि नवीं शताब्दी में गुर्जर थे ही नहीं. फिर यूपी में इस तरह की बात करने का क्या मतलब है?"
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'गुर्जर भी क्षत्रिय वर्ण के ही हैं'
वहीं, गुर्जर समाज के राष्ट्रीय मार्गदर्शक वीरेंद्र विक्रम कहते हैं कि गुर्जर भी क्षत्रिय वर्ण के ही हैं और इसे लेकर किसी तरह का विवाद नहीं होना चाहिए.
उनके मुताबिक़, "चालुक्य, चौहान, चंदेल, तोमर इत्यादि की तरह गुर्जर भी क्षत्रिय थे. राजपूत जाति तो तेरहवीं शताब्दी के बाद अस्तित्व में आई. उससे पहले तो राजपूत जाति थी ही नहीं.''
''क्षत्रिय वर्ण होता था और गुर्जर प्रतिहार भी क्षत्रिय थे. गुजरात गूजरों के नाम पर है, पाकिस्तान में गुजरांवाला गुर्जरों के नाम पर है."
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दरअसल, ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो प्रतिहार वंश की स्थापना आठवीं शताब्दी में नागभट्ट ने की थी और गुर्जरों की शाखा से संबंधित होने के कारण इतिहास में इन्हें गुर्जर प्रतिहार कहा जाता है.
केसी श्रीवास्तव अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति' में लिखते हैं, "इस वंश की प्राचीनता पांचवीं शती तक जाती है.''
''पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख में गुर्जर जाति का उल्लेख सर्वप्रथम हुआ है. बाण के हर्षचरित में भी गुर्जरों का उल्लेख हुआ है. चीनी यात्री हुएनसांग ने भी गुर्जर देश का उल्लेख किया है."
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इतिहासकारों के मुताबिक़, उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में क़रीब तीन शताब्दियों तक इस वंश का शासन रहा और सम्राट हर्षवर्धन के बाद प्रतिहार शासकों ने ही उत्तर भारत को राजनीतिक एकता प्रदान की.
मिहिरभोज के ग्वालियर अभिलेख के मुताबिक, "नागभट्ट ने अरबों को सिंध से आगे बढ़ने से रोक दिया लेकिन राष्ट्रकूट शासक दंतिदुर्ग से उसे पराजय का सामना करना पड़ा."
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योगी आदित्यनाथ ने अपनी पोस्ट में कहा कि महापुरुषों को कभी जातीय सीमाओं में कैद नहीं करना चाहिए.
'प्रतिहार वंश के सबसे शक्तिशाली शासक'
इतिहासकार प्रोफ़ेसर वीडी महाजन अपनी पुस्तक मध्यकालीन भारत में लिखते हैं कि मिहिरभोज प्रतिहार वंश के सबसे शक्तिशाली शासक थे जिन्होंने 836 ईस्वी से लेकर 885 ईस्वी तक शासन किया और कन्नौज पर अपना कब्ज़ा बरक़रार रखा.
यह वो समय था जब कन्नौज पर अधिकार के लिए बंगाल के पाल, उत्तर भारत के प्रतिहार और दक्षिण भारत के राष्ट्रकूट शासकों के बीच क़रीब सौ साल तक संघर्ष होता रहा जिसे इतिहास में "त्रिकोणात्मक संघर्ष" कहा जाता है.
गुर्जर शब्द को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है.
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि गुर्जर शब्द इनके नाम के साथ इसलिए जुड़ा है क्योंकि ये लोग हूणों के साथ भारत आए थे और जिस जगह से आए थे, उसे अपनी पहचान के तौर पर अपने नाम के साथ इस्तेमाल करते रहे.
हालांकि कई इतिहासकार इससे अलग मत भी रखते हैं.
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फ़ाइल फ़ोटो
इतिहासकारों की अलग-अलग राय
प्रोफ़ेसर वीडी महाजन लिखते हैं, "प्रतिहार शासक ख़ुद को श्रीराम के भ्राता लक्ष्मण को अपने वंश का संस्थापक मानते थे. कई विद्वानों का मत है कि वे गुर्जर जाति की संतान हैं."
जहां तक राजपूतों और गुर्जरों में प्रतिहार वंश के शासकों की विरासत से ख़ुद को जोड़ने का सवाल है तो गुर्जरों की तरह राजपूतों की उत्पत्ति का इतिहास भी विवादास्पद है.
भारतीय इतिहास में सातवीं शताब्दी में हर्षवर्धन के बाद से लेकर बारहवीं शताब्दी तक का काल राजपूत काल के नाम से जाना जाता है लेकिन राजपूतों की उत्पत्ति को लेकर कई तरह के मत हैं.
कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी पुस्तक "एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान" में लिखा है कि 'राजपूत विदेशी सीथियन जाति की संतान थे.'
टॉड के इस मत का आधार सीथियन और राजपूत जाति में कई तरह की सामाजिक समानताओं का होना है.
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सांकेतिक तस्वीर
राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति और विशुद्ध भारतीय होने के तर्क
आरजी भंडारकर जैसे भारतीय विद्वान भी राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति का समर्थन करते हैं.
वहीं, गौरीशंकर हीराचंद्र ओझा और सीवी वैद्य जैसे कई इतिहासकार राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति के मत को ख़ारिज करते हुए उन्हें विशुद्ध भारतीय बताते हैं.
पृथ्वीराज रासो में अग्निकुंड से चार राजपूत कुलों- परमार, प्रतिहार, चौहान और चालुक्य की उत्पत्ति की कहानी मिलती है.
इतिहासकार भंडारकर इन चारों राजपूत वंशों को गुर्जर कुल से उत्पन्न मानते हैं.
केसी श्रीवास्तव लिखते हैं कि राजपूत न तो पूरी तरह विदेशी थे और न ही पूरी तरह भारतीय.
वो लिखते हैं, "ये दोनों ही मत अतिवादी हैं. भारतीय वर्ण व्यवस्था में सदा ही विदेशी जातियों के लिए स्थान दिया गया है. कई विदेशियों ने भारतीय राजवंशों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए.''
''यह कहा जा सकता है कि यद्यपि राजपूत क्षत्रियों के वंशज थे हालाँकि उनमें विदेशी रक्त का मिश्रण अवश्य था. वैदिक क्षत्रियों में विदेशी जाति के वीरों के मिश्रण से जिस नवीन जाति का आविर्भाव हुआ, उसे ही राजपूत कहा गया."
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फ़ाइल फ़ोटो
'इतिहास कम, राजनीति ज़्यादा'
मिहिरभोज को गुर्जर या राजपूत बताए जाने को लेकर जानकारों का कहना है कि इसका इतिहास से मतलब कम, राजनीति से ज़्यादा है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में मध्यकालीन इतिहास के प्रोफ़ेसर रहे हरबंस मुखिया कहते हैं, "राजपूत थे या गुर्जर थे, इसमें बात ऐतिहासिकता की कम राजनीति की ही ज़्यादा होती है.''
''इतिहास तो यही कहता है कि आज के जो गूजर या गुज्जर हैं उनका संबंध कहीं न कहीं गुर्जर प्रतिहार वंश से ही रहा है. दूसरी बात, यह गुर्जर प्रतिहार वंश भी राजपूत वंश ही था. ऐसे में विवाद की बात होनी ही नहीं चाहिए लेकिन अब लोग कर रहे हैं तो क्या ही कहा जाए."
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