Gujarat Board GSEB Std 10 Hindi Textbook Solutions Kshitij Chapter 13 मानवीय करुणा की दिव्य चमक Textbook Exercise Important Questions and Answers, Notes Pdf. Show
GSEB Std 10 Hindi Textbook Solutions Kshitij Chapter 13 मानवीय करुणा की दिव्य चमकGSEB Class 10 Hindi Solutions मानवीय करुणा की दिव्य चमक Textbook Questions and Answers प्रश्न-अभ्यास प्रश्न 1. प्रश्न 2. उन्होंने प्रसिद्ध अंग्रेजी-हिन्दी शब्द कोश लिखा । हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के विषय में प्रयत्नशील रहते थे। इसके लिए वे अकाट्य तर्क देते थे। जो हिन्दी भाषी होकर भी हिन्दी भाषा की उपेक्षा करता तो वे बड़े दुःखी होते थे। ‘परिमल’ के सदस्यों के घर भारतीय उत्सवों और संस्कारों में भाग लेते थे। लेखक के पुत्र का अन्नप्रासन संस्कार उन्हीं के हाथों सम्पन्न हुआ। उपरोक्त बातों को देखते हुए कहा जा सकता है कि फादर बुल्के भारतीय संस्कृति के एक अभिन्न अंग हैं। प्रश्न 3.
प्रश्न 4. अपने प्रियजनों के प्रति आत्मीयता का भाव रखते थे। वे समाज में रहकर लोगों के पारिवारिक उत्सवों में शामिल होते, उन्हें आशीर्वाद देते । वे किसी को दुःखी नहीं देख सकते थे, कभी किसी पर क्रोध नहीं करते थे। सदा दूसरों के लिए करुणा और दया का भाव रहता। इस तरह से फादर बुल्के सच में मानवीय करुणा के अवतार थे। प्रश्न 5. अपने प्रियजनों से मिलने के लिए गर्मी, सर्दी, बरसात झेलकर भी मिलने चले आते थे। लोगों के दुःख में शरीक होकर सांत्वना देते । उनके सांत्वना के जादू भरे दो शब्द जीवन में एक नई रोशनी भर देती थी। लेखक की पत्नी और पुत्र की मृत्यु पर फादर द्वारा कहे गए शब्दों में असीम शांति भरी थी। इन सभी कारणों से लेखक ने फादर बुल्के को मानवीय करुणा की दिव्य चमक कहा है। प्रश्न 6. फादर बुल्के कर्मनिष्ठ संन्यासी थे। समाज के प्रति उनके मन में करुणा, वात्सल्य प्रेम की भावना थी। वे समाज में रहकर लोगों के पारिवारिक उत्सवों में शामिल होते, उन्हें आशीर्वाद देते । संकट के समय में उन्हें ढाढस देते । इस तरह से फादर बुल्के की छवि परम्परागत संन्यासी से अलग हटकर थी। प्रश्न 7. ख. फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है ? मन में निस्तब्धता छा जाती है। किसी उदास संगीत को सुनने से जैसी स्थिति उत्पन्न होती है वैसी ही स्थिति फादर बुल्के को याद करने से उत्पन्न होती है। अतः इसलिए लेखक ने कहा कि फादर बुल्के को याद करना एक उदास, शांत, संगीत सुनने जैसा है। रचना और अभिव्यक्ति प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. वो इसलिए कि प्राचीनकाल से ही भारत समृद्ध देश रहा था। जब विश्व के अन्य देशों का अस्तित्व ही नहीं था उस काल से भारत में वेद और उसकी ऋचाओं की रचना हुई थी। विश्व के देशों से छात्र भारत की प्राचीन गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने आते थे ये इस बात का परिचायक है कि भारत पहले से ही शान के क्षेत्र में अव्वल रहा है। प्राकृतिक व भौगोलिक रूप से भी भारत का बहुत महत्त्व है। प्रकृति ने इस पर अपनी अपार कोष लुटाया है। भारत का शिरमौर हिमालय है तो नीचे कन्याकुमारी के पास सागर पग पखारता है। कहीं घने जंगलों का डेरा है तो कहीं धूप में चमचमाती रेगिस्तानी सवेरा है। जयशंकर प्रसाद के शब्दों में कहा जाय तो – अरूण यह मधुमय देश हमारा भारत में अनेक धर्म और सम्प्रदाय के लोग रहते है, उन सबके अलग-अलग त्योहार है । सभी लोग एकदूसरे धर्म के त्योहारों को उत्सुकतापूर्वक, हर्ष, उल्लास से मनाते है। धर्म और भाषा चाहे हमारे अलग हों लेकिन भाव सबका एक रहा है। सब धर्मों के लोग मिलजल कर रहते हैं इसलिए मेरा देश साम्प्रदायिक एकता का प्रतीक है। यही नहीं मेरा देश अपने ज्ञान, विज्ञान, दर्शन और साहित्य के लिए भी विश्व में विख्यात है। यहाँ गंगा, जमुना, सरस्वती जैसी पवित्र नदियाँ बहती हैं, जो हिमालय से निकल कर देश के भूभागों को हरा-भरा करती हुई सागर से मिल जाती हैं। ऋषियों की तपोभूमि है भारत देश । वेदों की गरिमा, गीता का अमृततत्त्व, राम का पौरुष, नानक का परोपकार, शंकराचार्य का संदेश, गौतमबुद्ध का प्रेम, तुलसी व कबीर की वाणी, आचार्य चाणक्य की ललकार इस देश के कोने-कोने में गूंजती है। इस तरह मेरा भारत देश विश्व में सबसे निराला है। प्रश्न 11. नमस्ते। मैं यहाँ कुशलपूर्वक हूँ। तुम्हारी कुशलता के लिए ईश्वर से प्रतिदिन कामना करता हूँ। आशा है कि तुम और तुम्हारे माता-पिता स्वस्थ और आनंद से होंगे। मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। बार-बार साथ व्यतित किए हुए क्षण मेरी आँखों में कौंध उठते हैं। तुमसे मिलने की तीव्र चाह है। मैं चाहता हूँ कि इस बार की गर्मी की छुट्टियों में भारत आओ । यहाँ के रमणीय और मनोहारी पर्वतीय इलाकों को देखों । हिमालय पर्वत के रमणीय इलाकों की छटा तो बस देखते बनती है। बर्फआच्छादित पर्वतीय प्रदेशों की खूबसुरती तुम देखते रह जाओगे। मेरे माता-पिता भी इस यात्रा में हमारे साथ होंगे। हमने पूरी योजना बना ली है। बस तुम आ जाओ मेरे दोस्त । मेरे माता-पिता भी तुमसे मिलने को लालायित हैं। शेष बाते मिलने पर। तुम्हारा प्रिय मित्र, प्रश्न 12. Hindi Digest Std 10 GSEB मानवीय करुणा की दिव्य चमक Important Questions and Answers अतिरिक्त प्रश्नोत्तर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दो-तीन वाक्यों में लिखिए : प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तारपूर्वक लिखिए : प्रश्न 1. सन् 1950 में उन्होंने अपना शोधप्रबंध ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ पूरा किया। उन्होंने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लूबर्ड’ का हिन्दी अनुवाद ‘नीलपंछी’ नाम से किया। बाद में उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज में रहकर अपना प्रसिद्ध अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश तैयार किया। उन्होंने बाईबिल का हिन्दी में अनुवाद किया। इस प्रकार फादर कामिल बुल्के का साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है। प्रश्न 2. बड़े से बड़े दुःख में सांत्वना के दो शब्द सुनना, सामनेवाले व्यक्ति को एक नई आशा और रोशनी से भर देता था। वे अक्सर अपनी स्नेहमयी माँ को याद करते थे। उनकी कर्मभूमि भले भारत की धरती थी, वे अपनी जन्मभूमि से बेहद प्यार करते थे। उनके मन में अपने देश के लिए आदर और सम्मान के भाव थे। फादर ने भारत आकर अपना सारा जीवन हिन्दी समाज तथा भारत के विकास में समर्पित कर दिया । उन्होंने भारत के प्रति एक सच्चे देशभक्त तथा हिन्दी भाषा-प्रेमी के रूप में अपना धर्म निभाया। फादर बुल्के वास्तव में अविस्मरणीय व्यक्ति थे। प्रश्न 3. उनकी अंतिम यात्रा मैं जैनेन्द्र, विजयेन्द्र, स्नातक, अजित कुमार, डॉ. निर्मला, डॉ. सत्यप्रकाश, डॉ. रघुवंश जैसे विज्ञ जन उपस्थित थे। स्वयं फादर बुल्के ने भी नहीं सोचा होगा कि उनकी मृत्यु पर इतने लोग आंसू बहाएंगे। फादर बुल्के की अंतिम यात्रा पर उमड़नेवाली भीड़ उनके अपने स्नेहीजन थे जो उनसे बेहद प्रेम करते थे। वे सभी साहित्य प्रेमी थे। प्रश्न 4. हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा घोषित करने के लिए प्रयत्न करता है, और हम भारत के होकर अपनी संस्कृति अपनी पहचान को भूल रहे हैं, पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने में लगे हैं और पाश्चात्य संस्कृति में पला-बढ़ा व्यक्ति भारतीय संस्कृति को आत्मसात् कर अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। हम अपने कर्तव्यों से दूर होते जा रहे है। एक विदेशी व्यक्ति हिंदी के गौरव का गीत गाता है और हम भारतीय होकर भी हिन्दी की उपेक्षा करते हैं। लेखक यही संदेश देना चाहते हैं कि हमें अपने देश, अपनी धरती, अपनी मातृभाषा के विकास के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए । लोगों के साथ आत्मीयता व प्रेम तथा भाईचारे के साथ रहना चाहिए । दूसरों की सहायता करनी चाहिए। अर्थबोध संबंधी प्रश्न फादर को जहरबाद से नहीं मरना चाहिए था। जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त और कुछ नहीं था उसके लिए इस जहर का विधान क्यों हों ? यह सवाल किस ईश्वर से पूछे ? प्रभु की आस्था ही जिसका अस्तित्व था वह देह की इस यातना की परीक्षा उम्र की आखिरी देहरी पर क्यों दें? एक लंबी, पादरी के सफेद चोगे से ढकी आकृति सामने है – गोरा रंग, सफेद झाई मारती भूरी दाढी, नीली आंखें बाहें खोल गले लगाने को आतुर । इतनी ममता, इतना अपनत्व इस साधु में अपने हर एक प्रियजन के लिए उमड़ता रहता था। मैं पैंतीस साल से इसका साक्षी था। तब भी जब वह इलाहाबाद में थे और तब भी जब वह दिल्ली आते थे। आज उन बाँहों का दबाब मैं अपनी छाती पर महसूस करता हूँ। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. 2. फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है। उनको देखना करुणा के निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बात करना कर्म के संकल्प से भरना था। मुझे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं जब हम सब एक पारिवारिक रिश्ते में बंधे जैसे थे जिसके बड़े फादर बुल्के थे। हमारे हंसी-मजाक में वह निर्लिप्त शामिल रहते, हमारी गोष्ठियों में वह गंभीर बहस करते, हमारी रचनाओं पर बेबाक राय और सुझाव देते और हमारे घरों के किसी भी उत्सव और संस्कार में वह बड़े भाई और पुरोहित जैसे खड़े हो हमें अपने आशीषों से भर देते । मुझे अपना बच्चा और फादर का उसके मुख में पहली बार अन्न डालना याद आता है और नीली आंखों की चमक में तैरता वात्सल्य भी – जैसे किसी ऊंचाई पर देवदारु की छाया में खड़े हों। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. 3. “माँ की याद आती है – बहुत याद आती है।” – फिर अकसर माँ की स्मृति में डूब जाते देखा है। उनकी मां की चिट्ठियाँ अक्सर उनके पास आती थीं। अपने अभिन्न मित्र डॉ. रघुवंश को वह उन चिट्ठियों को दिखाते थे। पिता और भाइयों के लिए बहुत लगाव मन में नहीं था। पिता व्यवसायी थे। एक भाई वहीं पादरी हो गया। एक भाई काम करता है, उसका परिवार है। बहन सख्त और जिद्दी थी। बहुत देर से उसने शादी की। फादर को एकाध बार उसकी शादी की चिंता व्यक्त करते उन दिनों देखा था। भारत में बस जाने के बाद दो या तीन बार अपने परिवार से मिलने भारत से बेल्जियम गए थे। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. 4. “आप सब छोड़कर क्यों चले आए?” “प्रभु की इच्छा थी।” वह बालकों की सी सरलता से मुसकराकर कहते, “माँ ने बचपन में ही घोषित कर दिया था कि लड़का हाथ से गया । और सचमुच इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ फादर बुल्के संन्यासी होने जब धर्म गुरु के पास गए और कहा कि मैं संन्यास लेना चाहता हूँ तथा एक शर्त रखी (संन्यास लेते समय संन्यास चाहनेवाला शर्त रख सकता है) कि मैं भारत जाऊंगा।” “भारत जाने की बात क्यों उठी ?” “नहीं जानता, बस मन में यह था।” उनकी शर्त मान ली गई और वह भारत आ गए। पहले ‘जिसेट संघ’ में दो साल पादरियों के बीच धर्माचार की पढ़ाई की फिर 9-10 वर्ष दार्जिलिंग में पढ़ते रहे। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3.
5. फादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। कभी-कभी लगता है वह मन से संन्यासी नहीं थे। रिश्ता बनाते थे तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद मिलने के बाद भी उसकी गंध महसूस होती थी। वह जब भी दिल्ली आते जरूर मिलते-खोजकर, समय निकालकर, गर्मी, सर्दी, बरसात झेलकर मिलते, चाहे दो मिनट के लिए ही सही। यह कौन संन्यासी करता है ? उनकी चिंता हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। हर मंच से इसकी तकलीफ़ बयान करते, इसके लिए अकाट्य तर्क देते। बस इसी एक सवाल पर उन्हें झुंझलाते देखा है और हिंदीवालों द्वारा ही हिंदी की उपेक्षा पर दुःख करते उन्हें पाया है। घर-परिवार के बारे में, निजी दुःख-तकलीफ़ के बारे में पूछना उनका स्वभाव था और बड़े से बड़े दुःख में उनके मुख से सांत्वना के जादू भरे दो शब्द सुनना एक ऐसी रोशनी से भर देता था जो किसी गहरी तपस्या से जनमती है। हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह।’ मुझे अपनी पत्नी और पुत्र की मृत्यु याद आ रही है और फ़ादर के शब्दों से झरती विरल शांति भी। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. 6. आज वह नहीं है। दिल्ली में बीमार रहे और पता नहीं चला। बाहें खोलकर इस बार उन्होंने गले नहीं लगाया । जब देखा तब वे बाहें दोनों हाथों की सूजी उँगलियों को उलझाए ताबूत में जिस्म पर पड़ी थीं। जो शांति बरसती थी वह चेहरे पर थिर थी। तरलता जम गई थी। वह 18 अगस्त, 1982 की सुबह दस बजे का समय था । दिल्ली में कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक छोटी-सी नीली गाड़ी में से उतारा गया। कुछ पादरी, रघुवंशजी का बेटा और उनके परिजन राजेश्वरसिंह उसे उतार रहे थे। फिर उसे उठाकर एक लंबी संकरी, उदास पेड़ों की घनी छाहवाली सड़क से कन्नगाह के आखिरी छोर तक ले जाया गया जहाँ धरती की गोद में सुलाने के लिए कन्न अवाक् मुंह खोले लेटी थी। ऊपर करील की घनी छाह थी और चारों ओर करें और तेज धूप के वृत्त । जैनेंद्र कुमार, विजयेंद्र स्नातक, अजित कुमार, डॉ. निर्मला जैन और मसीही समुदाय के लोग, पादरीगण, उनके बीच में गैरिक वसन पहने इलहाबाद के प्रसिद्ध विज्ञान-शिक्षक डॉ. सत्यप्रकाश और डॉ. रघुवंश भी जो अकेले उस संकरी सड़क की ठंडी उदासी में बहुत पहले से खामोश दुःख की किन्हीं अपरिचित आहटों से दबे हुए थे, सिमट आए थे कब्र के चारों तरफ । प्रश्न 1. प्रश्न 2. 7. फादर की देह पहले कब्र के ऊपर लिटाई गई। मसीही विधि से अंतिम संस्कार शुरू हुआ। रांची के फादर पास्कल तोयना के द्वारा । उन्होंने हिंदी में मसीही विधि से प्रार्थना की फिर सेंट जेवियर्स के रेक्टर फादर पास्कल ने उनके जीवन और कर्म पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा ‘फादर बुल्के धरती में जा रहे है । इस धरती से ऐसे रत्ल और पैदा हों।’ डॉ. सत्यप्रकाश ने भी अपनी श्रद्धांजलि में उनके अनुकरणीय जीवन को नमन किया। फिर देह कब्र में उतार दी गई। मैं नहीं जानता इस संन्यासी ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा। लेकिन उस क्षण रोनेवालों की कमी नहीं थी। (नम प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. अति लघुत्तरी प्रश्न (विकल्प सहित) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर चुनकर लिखिए : प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. सविग्रह समास भेद बताइए :
संधि-विच्छेद कीजिए:
भाववाचक संज्ञा बनाइए :
विलोम शब्द लिखिए :
विशेषण बनाइए:
मानवीय करुणा की दिव्य चमक Summary in Hindiलेखक – परिचय : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में हुआ था। प्रयाग विश्वविद्यालय से एम.ए. करके इन्होंने अध्यापक के पद पर कार्य किया परन्तु कुछ दिन बाद आकाशवाणी दिल्ली के समाचार विभाग में कार्य करने लगे। उन्होंने बहुत समय तक ‘दिनमान’ साप्ताहिक के सम्पादकीय विभाग में भी कार्य किया। उनके काव्य में चिंतन, विचार और भावना की एकसूत्रता पाई जाती है। कवि के रूप में उनकी रचनायात्रा का एक सिरा नई कविता के आंदोलन से जुड़ा रहा तो दूसरा सिरा प्रगतिशील जनपक्षधर काव्यांदोलन से । सर्वेश्वर जी नई कविता के प्रमुख कवि है। ये मुख्य रूप से कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, निबंधकार और नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनकी कविताओं में आधुनिक जीवन की विडम्बना, विषम स्थिति में भी व्यक्ति की जिजीविषा का मार्मिक चित्रण मिलता है। उन्होंने लोकजीवन के सत्-असत् पक्षों का उद्घाटन बड़ी निर्ममता से किया है। सर्वेश्वर की प्रमुख कृतियाँ हैं – ‘काठ की घंटियाँ’, ‘कुआनो नदी’, ‘जंगल का दर्द’, ‘खूटियों पर टगे लोग (कविता-संग्रह)’, ‘पागल कुत्तों का मसीहा’, ‘सोया हुआ जय (उपन्यास)’, ‘लड़ाई (कहानी-संग्रह)’, ‘बकरी (नाटक)’, ‘भी-भी खौ खौं’, ‘बतूता का जूता’, ‘लाख को नाक (बाल साहित्य)’ ‘चरचे और चरखे’ उनके लेखों का संग्रह है। ‘खूटियों पर टगे लोग’ पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है। ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ वास्तव में एक संस्मरण है। जो फादर बुल्के के जीवन पर आधारित है। फादर कामिल बुल्के जन्मे तो बेल्जियम (यूरोप) में किन्तु इन्होंने भारत को अपना कर्मभूमि बनाया । फादर बुल्के एक संन्यासी थे परन्तु पारंपरिक अर्थ में नहीं । सर्वेश्वरजी का फादर बुल्के के साथ आत्मीय संबंध था जिसकी झलक हमें इस संस्मरण में दिखाई देती है। फादर बुल्के को हिन्दी भाषा व बोलियों से भी अगाध प्रेम था। फादर बल्के के विषय में यही कहा जा सकता है कि वे जन्म से तो नहीं किन्तु आत्मा से पूर्णत: भारतीय थे। पाठ का सार (भाव) : फादर बुल्के की मृत्यु पर लेखक का अफसोस : लेखक का कहना है कि फादर बुल्के को जहरबाद से नहीं मरना चाहिए था। जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के सिवा और कुछ नहीं था उसके लिए इस जहर का विधान नहीं होना चाहिए था। जिसने इतनी ममता, इतना अपनत्व इस साधु में अपने प्रियजन के प्रति था, ऐसे साधु के लिए इतनी यातनाभरी मौत क्यों? लेखक आज भी फादर की स्नेहमयी बाहों का दवाब अपनी छाती पर महसूस करते हैं। फादर बूल्के और लेखक के बीच आत्मीय संबंध : लेखक के लिए फादर बुल्के को याद करना शांत संगीत सुनने जैसा लगता था, उनको देखना निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बातें करना कर्म को संकल्प करने जैसा था। लेखक फादर बुल्के की स्मृतियों में डूब जाते हैं। लेखक के परिवार के साथ उनका आत्मीय संबंध था। वे उल्लेख के साथ हँसी-मजाक में शामिल रहते थे। गोष्ठियों में गंभीर बहस करते थे। लेखक की रचनाओं पर बेबाक राय और सुझाव देते थे, लेखक के घरों में किसी भी उत्सव और संस्कार में बड़े भाई की तरह खड़े रहते थे और पुरोहितों की तरह आशीष देते थे। लेखक ने उनमें कभी क्रोध नहीं देखा अपितु सदैव ममता और प्यार से लबालब छलकता महसूस किया। उन्हें देखकर लेखक के मन में यह जिज्ञासा सदैव बनी रही कि बेल्जियम में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में पहुंचकर उनके मन में संन्यासी बनने की इच्छा कैसे जाग गई। फादर बुल्के का अपना परिवार : लेखक ने फादर से बातचीत करते हुए पूछ कि उन्हें अपने देश की याद आती है तब फादर बुल्के ने जवाब देते हुए कहा कि अब तो भारत ही उनका देश है किन्तु उन्हें अपनी मां को बहुत याद आती है। पिता और भाई से उन्हें ज्यादा लगाव नहीं था। पिता व्यवसायी थे। एक भाई काम करता है, उसका परिवार है, एक भाई फादर है। बहन सख्त और जिद्दी स्वभाव की हैं। एकाध बार फादर को बहन की शादी कि चिंता व्यक्त करते हुए देखा गया था। भारत में बस जाने के बाद वे दो या तीन बार अपने देश गए थे। संन्यासी होना प्रभु की इच्छा : लेखक ने फादर बुल्के से प्रश्न किया कि आप सब छोड़कर यहाँ क्यों आए? तब उन्होंने कहा कि यह प्रभु की इच्छा थी। मां ने तो बचपन में ही कह दिया था कि यह लड़का हाथ से गया। सचमुच फादर बुल्के ने इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में अपनी इच्छा जाहिर की कि वे संन्यासी बनकर भारत जाना चाहते हैं। उनकी शर्त मान ली गई और वे संन्यासी बनकर भारत आ गए। ‘जिसेट संघ’ में दो साल पादरियों के बीच धर्माचार की पढ़ाई की। फिर 9-10 वर्ष दार्जिलिंग में पढ़ते रहे। कलकत्ता रो बी.ए. किया तथा इलाहाबाद से एम.ए, । प्रयाग विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में रहकर सन् 1950 ई.में ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ शोधप्रबंध पूरा किया। आजीविका एवं साहित्यिक रचनाएं : फादर बुल्के सेंट जेवियर्स कॉलेज, राँचौ में हिन्दी तथा संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष रहे और यहीं उन्होंने अंग्रेजी-हिंदी शब्द कोश तैयार किया और बाइबिल का अनुवाद किया। मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लू बर्ड’ का रूपान्तर ‘नीलपंछी’ के नाम से किया। फादर बुल्के वहीं बीमार पड़े, पटना से दिल्ली आए और हमेशा के लिए चले गए। वे 47 वर्ष देश में रहे और 73 वर्ष की जिंदगी जीकर चले गए। फादर बुल्के संकल्प से संन्यासी : फादर बुल्के कभी संकल्प से संन्यासी लगते थे तो कभी मन से। एक बार रिश्ता बनाकर तोड़ना उनके स्वभाव में नहीं थीं । दसों साल बाद मिलने पर भी वही पुराने अपनत्व की गंध आती थी। वे जब भी दिल्ली आते तो गर्मी, सर्दी, बरसात झेलकर और खोजकर मिलने जरूर आते थे। दो मिनट के लिए ही सही। उन्हें हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की चिंता थी, जिसके लिए हर मंच पर अपना दुःख प्रकट करते थे। हिन्दीवाले ही जब हिंदी की उपेक्षा करते तो वे इसके लिए दुःख प्रकट करते थे। आत्मीय स्वभाव के फादर बुल्के : फादर बुल्के जब भी लेखक से मिलते घर-परिवार के बारे में पूछते थे। निजी दुःख तकलीफ के विषय में पूछना उनका स्वभाव था। बड़े-से-बड़े दुःख में उनके मुख से सांत्वना के स्वर सुनकर राहत मिलती थी। लेखक को अपने पुत्र और पत्नी की मृत्यु पर फादर बुल्के के शब्दों में झरती हुई ध्वनि शांति प्रदान कर देती है। फादर बुल्के का निधन : दिल्ली में फादर बुल्के बीमार रहे, लेखक को इस बात का पता नहीं चला। वे चल बसे । इस बार बाहें खोलकर उन्होंने गले नहीं लगाया । उनका जिस्म एक ताबूत में पड़ा था। 18 अगस्त सन् 1982 की सुबह कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक छोटीसी नीली गाड़ी में से उतारा गया। उतारनेवालों में कुछ पादरी, रघुवंशजी का बेटा और उनके परिजन थे। इस यात्रा में कब्रगाह तक जानेवालों में शैक्षिक संस्थान से जुड़े बड़े-बड़े विद्वान थे । मसीही विधि से उनका अंतिम संस्कार किया गया। हिन्दी में मसीही विधि से प्रार्थना की गई। सेंट जेवियर्स के रेक्टर फादर पास्कल ने उनके जीवन और कर्म पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा – “फादर बुल्के धरती में जा रहे हैं, इस धरती से ऐसे रत्न और पैदा हों।” उनकी देह को कब्र में उतार दिया गया। फादर बुल्के की मृत्यु पर रोनेवालों की कमी नहीं थी। जो उनके निकट थे उन लोगों के हृदय पटल पर उनकी स्मृति आजीवन रहेगी । लेखक उस पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धानत हैं। फादर ने कौन सी संस्था स्थापित की थी?फादर बुल्के साहित्यिक संस्था 'परिमल' के सभी सदस्यों में सबसे बड़े तथा आदरणीय थे। वे मानवीय गुणों से लबालब थे। उनके हृदय में सबके लिए कल्याण की कामना । थी।
फादर संकल्प से संन्यासी थे मन से संन्यासी नहीं थे इस पंक्ति द्वारा लेखक क्या बताना चाहता है?फादर संकल्प से सन्यासी थे, मन से नहीं। इस पंक्ति के माध्यम से लेखक यह कहना चाहता है कि फादर बुल्के भारतीय सन्यासी प्रवृत्ति खरे नही उतरते थे। उन्होंने परंपरागत सन्यासी प्रवृत्ति से अलग एक नई परंपरा को स्थापित किया था। वह सन्यासियों जैसा प्रदर्शन नहीं करते थे, लेकिन अपने कर्मों से वह सन्यासी ही थे।
प्रभु की आस्था किसका अस्तित्व था?प्रभु की आस्था ही जिसका अस्तित्व था, वह देह की इस यातना की परीक्षा उम्र की आखिरी देहरी पर क्यों दे? एक लम्बी, पादरी के सफ़ेद चोगे से ढकी आकृति सामने है-गोरा रंग, सफेद झाँई मारती भूरी दाढ़ी, नीली आँखें-बाँहें खोल गले लगाने को आतुर। इतनी ममता, इतना अपनत्व इस साधु में अपने हर एक प्रियजन के लिए उमड़ता रहता था।
फादर बुल्के को सबसे बड़ी चिंता किस बात की थी और क्यों मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ के आलोक में स्पष्ट कीजिए?फादर को हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की सबसे बड़ी चिंता थी क्योंकि उनका हिंदी प्रेम जग जाहिर था। वह हिंदी को उचित सम्मान दिलाना चाहते थे।
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