पाठ्यक्रम क्या है पाठ्यक्रम के प्रमुख आधारों का वर्णन कीजिए? - paathyakram kya hai paathyakram ke pramukh aadhaaron ka varnan keejie?

Que : 25. पाठ्यचर्या निर्माण के प्रमुख आधारों तथा पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।

Answer:   पाठ्यचर्या (पाठ्यक्रम) निर्माण के आधार

किसी समाज की शिक्षा के स्वरूप को निश्चित करने में सबसे अधिक भूमिका उस समाज के जीवन दर्शन की होती है। इस सब की व्याख्या शिक्षा दर्शन में की जाती है। इसके साथ-साथ उस समाज विशेष की संरचना, उसकी सभ्यता एवं संस्कृति तथा धार्मिक स्थिति का भी प्रभाव पड़ता है। इस सबका अध्ययन शैक्षिक समाजशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है। समाज की राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति भी शिक्षा के स्वरूप को प्रभावित करती है। इनका अध्ययन क्रमशः राज्य और शिक्षा और शिक्षा के अर्थशास्त्र में किया जाता है। मानव की स्वयं की प्रकृति भी उसकी शिक्षा के स्वरूप को प्रभावित करती है। इसका अध्ययन शिक्षा मनोविज्ञान में किया जाता है। आज विज्ञान का युग है। युग के प्रभाव से शिक्षा कैसे अप्रभावित रह सकती है। मूल रूप से ये सब ही शिक्षा के स्वरूप अर्थात् उसके उद्देश्य एवं पाठ्यचर्या को किस प्रकार प्रभावित करते हैं, इस पर थोड़ा विचार करना आवश्यक है।

1. दार्शनिक आधार- हमारे जीवन अथवा शिक्षा के उद्देश्य मूलतः हमारे जीवन दर्शन पर आधारित होते हैं। तब शिक्षा की पाठ्यचर्या भी दर्शन से प्रभावित होनी चाहिए और होती भी हैं। उदाहरण के लिए अध्यात्मवादी मानव जाति के आध्यात्मिक अनुभवों को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व देते हैं इसलिए वे पाठ्यचर्या में भाषा, साहित्य, धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र को विशेष और अन्य विषयों एवं क्रियाओं को गौण स्थान देते हैं। इसके विपरीत भौतिकवादी भौतिक जगत् को ही सत्य मानते हैं और भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु पाठ्यचर्या में भौतिक विज्ञज्ञनों को प्रमुख और भाषा, साहित्य तथा कला को गौण स्थान देते हैं। धर्मशास्त्र और।नीतिशास्त्र को तो वे स्थान ही नहीं देते। प्रयोजनवादी न तो शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करते हैं और न पाठ्यचर्या। उनका स्पष्टीकरण है कि मनुष्य की परिस्थितियाँ सदैव बदलती रहती हैं इसलिए शिक्षा के द्वारा मनुष्य को इस योग्य बनाया जाना चाहिए कि वह बदलती हुई परिस्थितियों को समझ सके और उनमें समायोजन कर सके। इसलिए वे पाठ्यचर्या में सामाजिक विषयों एवं क्रियाओं को उनकी तत्कालीन उपयोगिता की दृष्टि से स्थान देते हैं। पाठ्यचर्या नियोजन के लिए उन्होंने चार सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है-उपयोगिता का सिद्धान्त, रुचि का सिद्धान्त, क्रिया एवं अनुभव का सिद्धान्त और एकीकरण सिद्धान्त। अब जो समाज जिस दर्शन से प्रभावित होता है, उसकी पाठ्यचर्या उससे ही प्रभावित होती है। इस प्रकार दर्शन पाठ्यचर्या निर्माण का मुख्य आधार होता है।

2. समाजशास्त्रीय आधार- शिक्षा की पाठ्यचर्या निश्चित करने में दर्शन के बाद समाज विशेष की संरचना, उसकी संस्कृति तथा धार्मिक, राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति का प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए जिस समाज में पुरुष और स्त्रियों का कार्यक्षेत्र भिन्न होता है, उसमें स्त्रियों की शिक्षा की पाठ्यचर्या पुरुषों की शिक्षा की पाठ्यचर्या से भिन्न होती है और जिन समाजों में पुरुष और स्त्रियों में इस प्रकार का कोई भेद नहीं होता उनमें दोनों के लिए समान पाठ्यचर्या होती है। समाज की संस्कृति तो उसकी शिक्षा का मूल आधार होती है। हर समाज की अपने रहन-सहन और खान-पान की विधियाँ होती हैं, रीति-रिवाज होते हैं, भाषा-साहित्य, कला-कौशल, संगीत- -नृत्य, धर्म-दर्शन, आदर्श-विश्वास और मूल्य होते हैं। इसी को समाज की संस्कृति कहते हैं। प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए शिक्षा का सहारा लेता है और अपनी शिक्षा की पाठ्यचर्या में अपनी सांस्कृतिक उपलब्धियों का समावेश करता है। समाज की धार्मिक स्थिति भी उसकी शिक्षा की पाठ्यचर्या को प्रभावित करती है।

3. राजनैतिक आधार- वर्तमान में किसी भी देश में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व माना जाता है, तब उसके उद्देश्य एवं पाठ्यचर्या का राज्य द्वारा प्रभावित होना स्वाभाविक है। उदाहरणार्थ साम्यवादी समाजों की शिक्षा की पाठ्यचर्या की अपेक्षा लोकतन्त्रीय समाजों की शिक्षा की पाठ्यचर्या अधिक विस्तृत और लचीली होती है।

4. आर्थिक आधार- समाज की अर्थव्यवस्था और आर्थिक स्थिति भी शिक्षा की पाठ्यचर्या को प्रभावित करती है। देश-विदेश की शिक्षा की पाठ्यचर्या पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न देशों की शिक्षा की पाठ्यचर्या विस्तृत होती है और उसमें तकनीकी और प्रशासनिक शिक्षा की विशेष व्यवस्था होती है जबकि आर्थिक दृष्टि से पिछड़े देशों की शिक्षा में ऐसी व्यवस्था करना सम्भव नहीं होता। धन के अभाव में वे सामान्य शिक्षा की व्यवस्था भी अनिवार्य रूप से नहीं कर पाते। समाज की आर्थिक नीतियाँ भी शिक्षा और शिक्षा की पाठ्यचर्या को प्रभावित करती हैं।

5. मनोवैज्ञानिक आधार- शिक्षा के किस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किन विषयों का ज्ञान और किन क्रियाओं का प्रशिक्षण आवश्यक है, यह तो दर्शनशास्त्री और समाजशास्त्री निश्चित कर सकते हैं लेकिन किस स्तर के बच्चे उसे किस सीमा तक ग्रहण कर सकेंगे यह मनोवैज्ञानिक ही बता सकते हैं। मनोविज्ञान में बच्चों के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास का अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन के अभाव में हम यह निश्चित नहीं कर सकते कि किस स्तर के बच्चों को क्या सिखाया जा सकता है। मनोवैज्ञानिकों ने यह भी बताया कि बच्चे वह सब शीघ्रता से सीखते हैं, जिसमें उनकी रुचि एवं रुझान होती हैं और जिसको सीखने की उनमें शारीरिक एवं मानसिक क्षमता होती है। वर्तमान में शिक्षा के किसी भी स्तर। की पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय उस स्तर के बच्चों की रुचि, रुझान और योग्यता का ध्यान रखा जाता है और इसके लिए मनोविज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है। बिना मनोविज्ञान के स्पष्ट ज्ञान के हम सैद्धान्तिक बात चाहे जितनी कर लें लेकिन उचित पाठ्यचर्या का निर्माण नहीं कर सकते। आज मनोविज्ञान शिक्षा की पाठ्यचर्या निर्माण का मुख्य आधार माना जाता है।

6. वैज्ञानिक आधार- आज विज्ञान का युग है। मनुष्य का पूरा जीवन विज्ञान से प्रभावित है; उसके हर कार्य में विज्ञान की दखल है। विज्ञान ने उसको कम श्रम से अधिक उत्पादन करने में समर्थ किया है। विज्ञान ने हमें निरीक्षण, परीक्षण और प्रयोग की विधियाँ दी हैं, आज हम बिना प्रयोग की कसौटी पर कसे किसी तथ्य को सत्य नहीं मानते। हमारी शिक्षा की पाठ्यचर्या भी आज इससे प्रभावित है। हम उसमें ऐसे तथ्यों को स्थान नहीं देते जिन्हें बिना अनुभव के स्वीकार करना पड़े। इस प्रकार आज विज्ञान भी पाठ्यचर्या निर्माण का आधार माना जाता है।

7. समय की माँग- हम जानते हैं कि समाज परिवर्तनशील है, उसके चिन्तन एवं स्वरूप में परिवर्तन होता रहता है, उसके शासनतन्त्र और अर्थतन्त्र में परिवर्तन होता रहता है और तदनुकूल उसकी माँगों में परिवर्तन होता रहता है। इतना ही नहीं अपितु किसी भी समाज के सामने सदैव नई-नई समस्याएं उपस्थित होती रहती हैं जिनका उसे समाधान करना होता है और इस सबके लिए उसे शिक्षा का सहारा लेना पड़ता है, उसके उद्देश्यों एवं पाठ्यचर्या में तदनुकूल परिवर्तन करने होते हैं। उदाहरण के लिए अपने भारतीय समाज को ही लीजिए। कल तक इसमें आध्यात्मिक चिन्तन प्रबल था आज भौतिक चिन्तन प्रबल है। कल तक यह वर्णव्यवस्था की जंजीरों में जकड़ा था आज वर्ण बन्धन ढीले पड़ गए हैं। कल तक यहाँ धर्म अन्धविश्वासों पर आधारित था अब वह विवेक पर आधारित होता जा रहा है। कल तक हम राष्ट्रीयता की बात करते थे आज राष्ट्रीयता के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध की भी बात करते हैं। जहाँ तक समस्याओं की बात है कल तक हमारे सामने खाद्यान्न की समस्या मुख्य थी आज जनसंख्या वृद्धि और पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएं मुख्य हैं। आदि-आदि। तब कहना न होगा कि किसी भी समाज की किसी भी स्तर की शिक्षा की पाठ्यचर्या के निर्माण का एक आधार समय की माँग होना चाहिए, वह ऐसी होनी चाहिए कि समय की माँगों की पूर्ति कर सके।


पाठ्यचर्या (पाठ्यक्रम) निर्माण के सिद्धान्त

किसी समाज की शिक्षा की पाठ्यचर्या निश्चित करने में दर्शन, समाज, राज्यतन्त्र, अर्थतन्त्र, मनोविज्ञान और विज्ञान की भूमिका का वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं। आज पाठ्यचर्या के निर्माण में इनके प्रभाव को सिद्धान्तों के रूप में बाँध दिया गया है। परन्तु शिक्षा के भिन्न-भिन्न स्तरों की पाठ्यचर्या के निर्माण के सिद्धान्त भिन्न-भिन्न हैं। वर्तमान में हमारे देश में 10 + 2 + 3 शिक्षा संरचना लागू है। इस संरचना में प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा सबके लिए समान है +2 पर उसे दो वर्गों में विभाजित किया गया है-सामान्य और व्यावसायिक और फिर इन्हें भी अनेक वर्गों में विभाजित किया गया है। +3 और उससे आगे की शिक्षा में विशिष्टीकरण है हम यहाँ केवल प्रथम 10 वर्षीय विद्यालयी शिक्षा की पाठ्यचर्या के निर्माण के सिद्धान्तों की व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं, प्रथमतः इसलिए कि यह शिक्षा सामान्य शिक्षा है, उससे आगे कीशिक्षा में वर्गीकरण है और द्वितीय इसलिए कि हमारा मुख्य उद्देश्य माध्यमिक शिक्षकों का मार्गदर्शन करना है।

1. उद्देश्यों की प्राप्ति का सिद्धान्त- पाठ्यचर्या उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन होती है अतः किसी भी स्तर की पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय हमें उस स्तर की शिक्षा के उद्देश्यों को सामने रखना चाहिए और पाठ्यचर्या में उन्हीं विषयों एवं क्रियाओं का समावेश करना चाहिए जिनके ज्ञान एवं अभ्यास से छात्र वैसे बनें जैसा हम उन्हें बनाना चाहते हैं। वर्तमान में हमारी प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के उद्देश्य हैं-बच्चों का शारीरिक, मानसिक, सांस्कृतिक एवं चारित्रिक विकास करना, उनकी सृजनात्मक शक्तियों को सचेष्ट करना, उन्हें लोकतन्त्रीय जीवन में प्रशिक्षित करना और राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर उन्मुख करना। उदाहरण के लिए प्रथम उद्देश्य-शारीरिक विकास को लीजिए। इस स्तर की पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय हमें सर्वप्रथम शारीरिक विकास से क्या तात्पर्य है, यह समझना चाहिए। इसके बाद यह विचार करना चाहिए कि शारीरिक विकास के लिए बच्चों को किन विषयों का ज्ञान एवं क्रियाओं का अभ्यास लाभप्रद हो सकता है। इसके लिए बच्चों को शरीर विज्ञान, गृह विज्ञान और स्वास्थ्य विज्ञान का सामान्य ज्ञान आवश्यक होता है और साथ ही दैनिक जीवन में स्वास्थ्यप्रद नियमों-प्रातः उठना, स्नान करना, शरीर के विभिन्न अंगों दाँत, आंख, कान व नाक की सफाई करना, व्यायाम करना, पौष्टिक भोजन करना और पूरी नींद सोना आदि का पालन करना आवश्यक होता है। अतः इन है सबके ज्ञान एवं अभ्यास को विद्यालयी पाठ्यचर्या का अंग बनाना चाहिए। इसी प्रकार अन्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक विषयों एवं क्रियाओं का चयन करना चाहिए और शिक्षा के विभिन्न स्तरों-प्राथमिक, उच्च प्राथमिक एवं माध्यमिक के लिए उनका स्वरूप एवं सीमा निश्चित करनी चाहिए।

2. उपयोगिता का सिद्धान्त- प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा का मूल उद्देश्य बच्चों को सामान्य जीवन के योग्य बनाना है। तब इस स्तर की पाठ्यचर्या में सामान्य जीवन के लिए उपयोगी समस्त ज्ञान एवं क्रियाओं का समावेश करना चाहिए। हम जानते हैं कि मनुष्य को सामान्य जीने के लिए स्वस्थ शरीर की आवश्यकता होती है, परस्पर संवाद के लिए भाषा की आवश्यकता होती है, सामाजिक जीवन के लिए सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानदण्डों का ज्ञान आवश्यक होता है और गणित के ज्ञान की आवश्यकता होती है। यह विज्ञान का युग है अतः विज्ञान का सामान्य ज्ञान भी आवश्यक होता है। अतः इस स्तर की पाठ्यचर्या में इन सबका समावेश होना चाहिए। इस सन्दर्भ में हम यह कहना चाहेंगे कि पाठ्यचर्या बच्चों के वास्तविक जीवन से सम्बन्धित होनी चाहिए और आदर्श जीवन की ओर ले जाने वाली होनी चाहिए।

3. वरीयता क्रम का सिद्धान्त- किसी भी स्तर की शिक्षा की पाठ्यचर्या में अनेक विषयों एवं क्रियाओं का समावेश किया जाता है। पाठ्यचर्या निर्माण करते समय यह देखना भी आवश्यक होता है कि कौनसा पाठ्य विषय अथवा क्रिया बच्चों के वर्तमान एवं भविष्य की दृष्टि से कितनी उपयोगी है। पाठ्यचर्या में उसे उतना ही महत्त्व देना चाहिए। उदाहरणार्थ-प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के विषयों में सर्वाधिक महत्त्व परस्पर संवाद के लिए आवश्यक मातृभाषा का और क्रियाओं में सर्वाधिक महत्त्व स्वास्थ्यप्रद क्रियाओं का होता है अतः इन्हें सर्वप्रथम वरीयता दी जानी चाहिए। वरीयता से यहाँ तात्पर्य उनके लिए समय निर्धारण करने से होता है। अतः इनके ज्ञान एवं कौशल के विकास के लिए सबसे अधिक समय निश्चित करना चाहिए।

4. अग्रदर्शिता का सिद्धान्त- शिक्षा द्वारा हम बच्चों को वर्तमान के साथ-साथ भविष्य के लिए भी तैयार करते हैं। अतः किसी भी स्तर की पाठ्यचर्या निश्चित करते समय भविष्य में होने वाले परिवर्तनों का अनुमान लगाना और उनके अनुसार शिक्षा की पाठ्यचर्या में तत्सम्बन्धी विषयों एवं क्रियाओं का समावेश करना आवश्यक होता है। उदाहरणार्थ कम्प्यूटर के प्रयोग को लीजिए। भविष्य में यह सामान्य जीवन का अंग होगा अतः अभी से इसे पाठ्यचर्या में स्थान मिलना चाहिए। हम जानते हैं कि प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के बाद मेधावी एवं परिश्रमी छात्रों को विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए तैयार किया जाना है तब इस स्तर पर मेधावी छात्रों की पहचान करना और उनके लिए आंतरिक पाठ्य विषयों के शिक्षण की व्यवस्था होना आवश्यक होता है।

5. रुचि, रुझान, योग्यता एवं क्षमता का सिद्धान्त- किसी भी स्तर की शिक्षा की पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय उस स्तर के बच्चों की रुचि, रुझान योग्यता एवं क्षमता को भी ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरणार्थ प्राथमिक शिक्षा स्तर पर पूर्व बाल्यावस्था के बालक पढ़ते हैं, उच्च प्राथमिक स्तर पर उत्तर बाल्यावस्था के बालक पढ़ते हैं और माध्यमिक स्तर पर किशोरावस्था के किशोर पढ़ते हैं और उनकी रुचियों एवं क्षमता में बड़ी भिन्नता होती है। क्षमता से यहाँ तात्पर्य उनकी शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार की क्षमताओं से होता है। हमें इन स्तर के बच्चों के लिए पाठ्यसामग्री एवं क्रियाओं का चयन करते समय उनकी रुचियों एवं क्षमता का विशेष ध्यान रखना चाहिए। उसी स्थिति में बच्चे उनमें रुचि लेंगे और उनसे लाभान्वित होंगे।

6. क्रिया एवं सृजनात्मक का सिद्धान्त- मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि शिशुकाल व्यक्तित्व निर्माण की आधारशिला का काल है, बाल्य एवं किशोर काल उसके दृढ़ीकरण के काल हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इस आयुवर्ग के बच्चे क्रियाशील होते हैं। उन्होंने यह भी। स्पष्ट किया कि क्रिया के स्वतन्त्र अवसर देने से बच्चों में सृजनात्मकता का विकास होता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि क्रिया द्वारा सीखा हुआ ज्ञान स्पष्ट एवं स्थायी होता है। अतः आज यह आवश्यक समझा जाता है कि प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा की पाठ्यचर्या में ऐसी पाठ्यसामग्री हो कि बच्चे उसे क्रिया द्वारा सीख सकें और विद्यालयों का ऐसा वातावरण हो, वहाँ ऐसी परिस्थितियाँ हों कि बच्चे स्वतन्त्र रूप से क्रियाएं करें।

7. स्तरानुकूल पाठ्यचर्या का सिद्धान्त- मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि पूर्व बाल्यकाल, उत्तर बाल्यकाल और किशोर काल के बच्चों के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक विकास में भिन्नता होती है। यही कारण है कि आज प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के लिए पाठ्य विषयों का विस्तार एवं क्रियाओं का चयन यथा स्तर के बच्चों के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक विकास के आधार पर करने पर बल दिया जाता है।

8. सुसम्बद्धता का सिद्धान्त- पाठ्यचर्या के सन्दर्भ में सुसम्बद्धता का अर्थ है कि शिक्षा के किसी भी स्तर की पाठ्यचर्या का सम्बन्ध उस स्तर के बच्चों के वास्तविक जीवन से होना चाहिए, उस स्तर पर जो भी विषय पढ़ाए जाएं, उनकी पाठ्य सामग्री में सम्बन्ध होना चाहिए और जो भी क्रियाएं कराई जाएं उनमें भी सुसम्बन्ध होना चाहिए। साथ ही विभिन्न स्तरों की पाठ्यचर्या में सुसम्बन्ध होना चाहिए। पाठ्य सामग्री एवं क्रियाओं में सुसम्बन्धता का अर्थ हैकि उन्हें एक इकाई के रूप में विकसित किया जा सके और विभिन्न स्तरों की पाठ्यचर्या में सुसम्बन्ध का अर्थ है- वे एक-दूसरे से जुड़ी हों। वर्तमान में हमारे यहाँ प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा को तीन स्तरों में बाँटा गया है-प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और माध्यमिक। ऊपर हमने इन तीनों स्तरों के लिए यथा स्तर के बच्चों के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक विकास के आधार पर भिन्न-भिन्न पाठ्यचर्या के निर्माण की बात कही है। पर ऐसा करते समय इस बात को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए कि किसी भी स्तर की पाठ्यचर्या उसमें पहले वाले स्तर की पाठ्यचर्या के आधार पर विकसित हो सके और उससे आगे आने वाले स्तर की पाठ्यचर्या के लिए आधार का कार्य करे। ये शैक्षिक स्तर शिक्षा की प्रक्रिया के भिन्न-भिन्न सोपान होते हैं, ये एक-दूसरे से इतने सम्बन्धित होने चाहिए जितने एक सीढ़ी के डण्डे। उसी स्थिति में हम निर्दिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल हो सकते हैं।

9. कौतुहल, पवित्रता एवं सामान्यीकरण का सिद्धान्त- विद्यालयी शिक्षा की पाठ्यचर्या के सन्दर्भ में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन व्हाइटहैड ने किया है। उनके अनुसार पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह बच्चों में कौतूहल जागृत करे जिससे बच्चे ज्ञान को ग्रहण करने और क्रियाओं में प्रशिक्षित होने की जिज्ञासा स्वयं प्रकट करें। पवित्रता से उनका तात्पर्य पाठ्यचर्या में उन्हीं विषयों एवं क्रियाओं के समावेश से है जो बच्चों को सद्मार्ग पर लगाती है। सीखे हुए ज्ञान अथवा क्रियाओं का प्रयोग सामान्यीकरण है। इस सिद्धान्त का मूल तात्पर्य यह है कि पाठ्यचर्या ऐसी होनी चाहिए जो बच्चों को यथा ज्ञान एवं क्रियाओं की ओर आकर्षित करे और जिसे पूरा करने के बाद बच्चे वास्तविक जीवन में सफल हो सकें।

पाठ्यक्रम के क्या आधार है?

केन्द्र की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माध्यमिक और उच्चतर स्तर पर विज्ञान, प्रौद्योगिकी और समाज गतिविधि पर आधारित एक आधारभुत पाठ्यक्रम का निर्माण करना है। यह मानव उत्तरजीविता, और नागरिकों को आधुनिक प्रौद्योगिकीय समाज की जटिल माँग की परछती का निर्माण करता है।

पाठ्यक्रम का क्या अर्थ है पाठ्यक्रम के प्रकारों का वर्णन करें?

पाठ्यक्रम (Curriculum) एक शिक्षा का आधार हैं जिसकी राह पर चलकर शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति की जाती हैं। पाठ्यक्रम के अनुसार ही छात्र अपना अधिगम कार्य करते हैं। पाठ्यक्रम द्वारा ही विषयों को क्रमबद्ध तरीके से किया जाता हैं। समाज की आवश्यकता को देखते हुए ही किसी भी पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना आवश्यक हैं।

पाठ्यक्रम की परिभाषा क्या है?

'करीक्यूलम' शब्द लैटिन भाषा से अंग्रेजी में लिया गया है तथा यह लैटिन शब्द 'कुर्रेर' से बना है। 'कुर्रेर' का अर्थ है 'दौड़ का मैदान'। दूसरे शब्दों में, 'करीक्यूलम' वह क्रम है जिसे किसी व्यक्ति को अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के लिए पार करना होता है।

पाठ्यक्रम से आप क्या समझते हैं इसके महत्व को समझाइए?

पाठ्यक्रम(curriculum) जीवन से जुड़ी हुई है जिसकी जरूरत बच्चों के विभिन्न आयु में अलग-अलग हैं बच्चों के सीखने और सिखाने के तरीकों को सम्मिलित करता है बच्चों के उन सारे अनुभव को सम्मिलित करता है जो उन्हें अपने विद्यालय से प्राप्त होता है तथा उन सारी चीजों का परिणाम जो उन्हें प्राप्त होता है पाठ्यक्रम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ...