परम्परागत खेती (traditional farming in hindi) भारत में हरित क्रांति से पूर्व से की जाने वाली खेती है । Show
वर्तमान में भी असिंचित क्षेत्रों में अधिकांशतः परम्परागत खेती (traditional farming in hindi) खेती ही की जाती है । भारत में अभी भी विभिन्न कृषि पारिस्थितिक दशाओं में प्राचीन परम्परागत कृषि पद्धति के कुछ अवशेष विद्यमान हैं जिन्हें पुनर्जीवित, संशोधित व सम्वर्धित करके पोषणीय कृषि के आधार को सशक्त किया जा सकता है । वास्तव में, परम्परागत कृषि पद्धति में स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती की सम्भावनाएँ छिपी हुई हैं । परम्परागत खेती क्या है? | traditional farming in hindiपरम्परागत खेती (traditional farming in hindi) मुख्यतः प्रकृति पर निर्भर खेती है, जिसमें वर्षा जल, देसी/स्थानीय बीजों, गोबर की सड़ी गली खाद एवं परंपरागत कृषि यंत्रों जैसे - हल-बैल, खुरपी फावड़ा आदि का प्रयोग किया जाता है । वर्तमान कृषि, अर्थात् अधिक उपज देने वाले बीजों, सिंचाई, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशी दवाओं के संयोग पर आधारित कृषि, भारत के सीमान्त एवं लघु कृषकों की दरिद्रता दूर करने में सक्षम नहीं रही है । कृषि (agriculture in hindi) की उत्पादकता में किंचित वृद्धि भारी आर्थिक एवं विनाशकारी पारिस्थितिक लागत पर हुई है । स्वतन्त्रता के पश्चात् के दशकों में विकास का जो र अंधाधुन्ध सिलसिला चला तो उसकी चपेट में हमारी हजारों साल पुरानी कृषि (परम्परागत कृषि) भी आ गयी । परम्परागत खेती की परिभाषा | defination of traditional farming in hindiभारतीय पारम्परिक खेती को छोड़कर हम पाश्चात्य आयातित ज्ञान से सम्मोहित होकर छद्म विकास की अंधी दौड़ में आयातित तकनीकों, तथाकथित उच्च उत्पादक प्रजातियों, संकर बीजों, कृषि रसायनों के प्रयोग व बृहद सिंचाई परियोजनाओं जैसी गतिविधियों से पारम्परिक खेती (traditional farming in hindi) नष्टप्राय हो गयी । परम्परागत खेती की परिभाषा - "परम्परागत खेती में एक ओर खेत आवश्यकताओं की पूर्ति किसान स्थानीय स्तर पर करता है तो दूसरी ओर अधिकांश फसलें भी अपनी विविध आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लेता है ।" परम्परागत खेती किसे कहते है इसकी विशेषताएं एवं महत्व लिखिए?कृषि के अभिनव पारस्परिक निर्भर अंग जैसे खेत, पशुधन, बाग - बगीचे व भारतीय समाज आदि छिन्न - भिन्न होकर अलग - थलग पड़ रहे हैं । प्रकृति और पर्यावरण के बुनियादी तत्त्वों में सामंजस्य समाप्तप्राय हो गया है । खेती में बढ़ती लागत व घटता लाभ, मृदा अपरदन , घटती पोषकता, प्रदूषण, ग्रामीण सामाजिक वैमनस्यता, मृदा की
उर्वरा शक्ति में हास, भूमि का दलदली और ऊसर होना, भूगर्भ जल सन्तुलन का अव्यवस्थित होना, वातावरण का ह्रास होना, उच्च कृषि लागत, ऊर्जा की बढ़ती कीमतें, बीज विविधता का क्षरण, कीटनाशी एवं कीट निरोधी दवाओं से पर्यावरण का विषाक्त होना, खेती और पशुपालन का कमजोर साहचर्य आदि अनगिनत समस्याओं की जड़ आधुनिक/रासायनिक उत्पादक कृषि है । ये भी पढ़ें :-
यह स्थिति कृषि विकास की सार्थकता व सफलता के लिए भयावह है । स्पष्ट है कि हरित क्रान्ति की संदेहास्पद अथवा छदम् उपलब्धियों हेतु देश को सामाजिक, आर्थिक एवं पारिस्थितिक लागत के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ी है, जो देश की कृषि उत्पादकता एवं पोषणीयता दोनों ही दृष्टियों से अव्यावहारिक है । परम्परागत खेती की विशेषताएँ | characteristics of traditional farming in hindiटी० एस० मुकुन्दन (1990) के अनुसार भारत में कृषि कभी भी मात्र आय बढ़ाने का साधन नहीं रही, वरन यह जीवन का एक आवश्यक अंग थी । भारतीय परम्परागत खेती (traditional farming in hindi) की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि उसका ज्ञान, सिद्धान्त एवं नियम केवल कुछ विशेषज्ञों के लिए ही नहीं, वरन् सामान्य किसानों के लिए भी है । भारतीय किसानों को यह ज्ञान भलीभाँति था कि किस प्रकार मृदा की उत्पादकता को फसलों के हेर - फेर द्वारा संरक्षित किया जा सकता है 1960 ई ० के पूर्व किस जमीन पर कैसे क्या बोना है, यह गाँव की पंचायत सबकी सहभागिता से तय करती थी । खेती का मुख्य उद्देश्य होता था - कम लागत द्वारा पौष्टिक तथा अधिक पैदावार प्राप्त करना, साथ ही पौधे रोगमुक्त रहें और मिट्टी की उर्वरता भी बनी रहे । इस परम्परागत खेती (traditional farming in hindi) में किसान कृषि को समन्वित रूप में देखते थे, चाहे वह खत व प्रजातियों का चुनाव हो, मिश्रित खेती हो, फसल चक्र हो, बीजों का चुनाव हो या उनका रख - रखाव हो । पारम्परिक कृषि में किसान निम्न बातों का विशेष ध्यान रखते थे -
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परम्परागत खेती का महत्व | importance of traditional farming in hindiइस पद्धति में बीजों के रख - रखाव व बुवाई का अपना ही महत्त्व है । बहुत से ऐसे बीज होते हैं, जिनके ऊपर का छिलका बहुत ही कड़ा होता है, कृषक उनको तोड़कर, भिगोकर, अंकुरित होने के लिए प्रेरित करता है । प्राय: इन बीजों को राख या नीम की पत्ती के साथ अंकुरित करते है । इस प्रकार अंकुरित करने के कई लाभ हैं -
( अ ) सूर्य द्वारा उपचारित करना - सूर्य के प्रकाश से ही अनेक कीड़ों एवं बीमारियों की रोकथाम हो जाती है । खेती व पशुपालन में साहचर्य परम्परागत रूप से अटूट और सहअस्तित्व वाला रहा है । हमारी भारतीय परम्परा और संस्कृति में भी खेती व पशुपालन को एक ही सिक्के के दो पहलू के रूप में देखा गया है । पशुपालन एवं खेती का यह सामंजस्य कृषि स्थायित्व का आधार रहा है और कृषक परिवार की आर्थिक स्थिति को सुधारने में पशुओं का योगदान भी महत्त्वपूर्ण होता है । खेती - बाड़ी के साथ - साथ पशु सम्पन्नता का सूचक होते हैं । घरेलू खाद्य सुरक्षा सृदृढ़ करने में भी परम्परागत खेती (traditional farming in hindi) का योगदान महत्त्वपूर्ण परम्परागत खेती एवं स्थाई/टिकाऊ खेती में नाता | relation between traditional and sustainable farming in hindiपरम्परागत कृषि की अनेक पद्धतियाँ जैसे - मृदा में जैविक एवं हरी खाद का प्रयोग, मिश्रित खेती, समुचित फसल चक्र, फसल विविधता आदि पोषण संरचना में प्रमुख भूमिका निभाती हैं । जैविक तत्त्वों के पुनर्चक्रण से मृदा में सूक्ष्म पोषक तत्त्वों का संतुलन, स्थानीय जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल बीजों के प्रयोग द्वारा बीमारी प्रतिरोधक क्षमता एवं पूरे वर्ष वनस्पति आवरण रखने के फलस्वरूप फसलों में लगने वाले कीड़ों की रोकथाम के लिए कृषक - मित्र कीड़ों एवं अन्य कीड़े खोन वाले जीवों का विकास हुआ । यह परम्परागत खेती (traditional farming in hindi) वास्तव में अधिक संतुलित एवं पारिस्थितिक नियमों की पोषक थी । यह प्राकृतिक तत्त्वों के विकास एवं संरक्षण की भी पक्षधर थी । यह पद्धति वस्तुत: तीन प्रमुख तत्त्वों - जल, जमीन और जंगल से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है । इन तीनों प्राकृतिक तत्त्वों का अन्तर्सम्बन्ध ही उच्च कृषि उत्पादकता को बनाये रखने के लिए उत्तरदायी था । ये भी पढ़ें :-
दोनों में पर्यावरणीय अनुकूलता | environmental compatibility in bothपरम्परागत कृषि का विकास क्षेत्रीय पर्यावरणीय दशाओं के अनुरूप सदियों के सांस्कृतिक एवं जैविक विकास के फलस्वरूप हुआ । छोटे कृषकों ने बिना कृषि यंत्र, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के ऐसी जटिल कृषि विधियों को विकसित कर लिया है जिसने उनकी निर्वहन आवश्यकता को पूरा करने में सदियों से मदद की है, चाहे कितनी भी विपरीत पर्यावरणीय समस्याएँ क्यों न रही हों । इस प्रकार की कृषि वे हजारों वर्षों से निरन्तर करते आ रहे हैं । उसके लिए आवश्यक अथाह ज्ञान किसानों को एक दिन में नहीं मिला, न ही किसी वैज्ञानिक ने इन्हें दिया अपितु यह ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी संस्कारों और अनुभवों से अर्जित किया गया । अधिकांश छोटे किसानों द्वारा ऐसी विधियों का प्रयोग किया जाता है जिससे दीर्घ अवधि में सर्वोत्तम उत्पादन प्राप्त किया जा सके, न कि अल्प अवधि में ही उत्पादन सर्वाधिक किया जा सके । इसमें निवेश स्थानीय होते हैं एवं खेती कार्य स्थानीय स्रोतों से ऊर्जा प्राप्त लोगों या पशुओं द्वारा होता है । स्थानीय परिवेश में कार्य करते - करते छोटे कृषकों ने भूदृश्य एवं ऊर्जा की सीमाओं में स्थानीय उपलब्ध स्रोतों को पहचान लिया है । कृषि वैज्ञानिकों की सामान्य सोच के विपरीत परम्परागत कृषक अधिक खोजी होते हैं । आधुनिक कृषि की कमियों के उपाय खोजने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा अब परम्परागत खेती (traditional farming in hindi) में भी रुचि दिखाई जा रही है, विशेषकर, लघु स्तर वाली मिलवां कृषि पद्धतियों पर । इस ज्ञान का हस्तान्तरण शीघ्र होना चाहिए अन्यथा, यह व्यावहारिक ज्ञान की सम्पदा सदा के लिए समाप्त हो जायेगी । इस प्रकार भारतीय कृषकों को परम्परागत कृषि की सदियों पुरानी पद्धति को समझना और अपनाना पड़ेगा, जिसमें भविष्य को संकट में डाले बिना वर्तमान को पोषणीय बनाने की गुत्थी उलझी हुई है, क्योंकि वर्तमान गहन कृषि में प्राकृतिक संसाधन आधार को अपघटित करने की भारी क्षमता है । भूमि और वन की रक्षा के लिए उठे 'चिपको' जैसे आन्दोलन एक बार फिर बता रहे हैं कि इन समस्याओं का हल तकनीकी या बेहतर प्रबन्ध में नहीं, बल्कि अपनी परम्परा में हैं । अत: परम्परागत कृषि, पारस्परिक पोषणीयता की दृष्टि से अधिक सुदृढ़ है । वस्तुत: आज की आवश्यकता ऐसी कृषि पद्धति अपनाये जाने की है जो वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शाश्वत रूप से समर्थ बनी रहे । ऐसी कृषि पद्धति का विकास परम्परागत एवं आधुनिक कृषि की अच्छाइयों के समन्वय से ही सम्भव है । इसी कृषि पद्धति को ‘पोषणीय कृषि' कहा जाता है । आज की सामाजिक, आर्थिक एवं पारिस्थितिक परिस्थितियों में पोषणीय कृषि अनिवार्य रूप में प्रासंगिक एवं समीचीन है । परंपरागत खेती और आधुनिक खेती में कौन कौन से औजार इस्तेमाल होते है इसका सचित्र वर्णन करिए?1960 के दशक के मध्य तक खेती में पारंपरिक बीजों का प्रयोग किया जाता था, जिनकी उपज अपेक्षाकृत कम थी। परंपरागत बीजों को कम सिंचाई की आवश्यकता होती थी। किसान उर्वरकों के रूप में गाय के गोबर या दूसरी प्राकृतिक खाद का प्रयोग करते थे। यह सब किसानों के पास तत्काल ही उपलब्ध थे, उन्हें इनको खरीदना नहीं पड़ता था।
परंपरागत खेती और आधुनिक खेती में क्या अंतर है?खेती के आधुनिक एवं पारंपरिक तरीकों में कोई चार अंतर बताईए।
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सामाजिक विज्ञान. खेती के काम आने वाले औजार कौन कौन से हैं?ट्रैक्टर, पावर टिलर, कल्टीवेटर, रोटावेटर, तवेदार हैरो, पावर वीडर, खुरपी, हँसुआ, फरसा और कुदाल आदि.
किसान हमारे लिए क्या करते हैं?किसान उन्हें कहा जाता है, जो खेती का काम करते हैं। इन्हें 'कृषक' और 'खेतिहर' के नाम से भी जाना जाता है। ये बाकी सभी लोगों के लिए खाद्य सामग्री का उत्पादन करते हैंं। इसमें विभिन्न फसलें उगाना, बागों में पौधे लगाना, मुर्गियों या इस तरह के अन्य पशुओं की देखभाल कर उन्हें बढ़ाना भी शामिल है।
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