नील की खेती कहां होती है - neel kee khetee kahaan hotee hai

सफे़द कपड़ों के लिए एक ज़माने में बेहद ज़रूरी समझा जाने वाला नील यानि Indigo मॉर्डन युग में अपनी प्रासंगकिता खोता जा रहा है. कुछ सालों पहले तक सफ़ेद कुरते-पायजामे, धोती, शर्ट और रुमाल में इसका इस्तेमाल होता था.

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लोग नदी के किनारे की मिटटी जिसे रेह कहते थे, लाकर कपड़े धोते थे और नील डाल के चमका लेते थे. नील का प्रयोग चूने से होने वाली पुताई में भी होता है, जो कि एक साइकोलॉजिकल दृष्टि से भी मन को लुभाने वाले रंगों में से है.

कई तरह के केमिकल पेंट्स बाज़ार में उपलब्ध होने के बावजूद, आज भी कई लोग नील चूने की पुताई (Indigo paint) करवाते हैं. भारत जैसे गर्म देश के हिसाब से इन केमिकल पेंट्स को अच्छा नहीं माना जाता है.

1. जमींदारों का बंगला

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नील की खेती सबसे पहले बंगाल में 1777 में शुरू हुई थी. यूरोप में ब्लू डाई की अच्छी डिमांड होने की वजह से नील की खेती करना आर्थिक रुप से लाभदायक था. लेकिन इसके साथ समस्या ये थी कि ये ज़मीन को बंजर कर देता था और इसके अलावा किसी और चीज़ की खेती होना बेहद मुश्किल हो जाता था. शायद यही कारण था कि अंग्रेज़ अपना देश छोड़कर भारत में मनमाने तरीके से इसे उगाया करते थे.

2. लुग्गी जिससे ज़मीन के बंजरपन के बारे में पता लगाया जाता है

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नील उगाने वाले किसानों को लोन तो मिलता था, लेकिन ब्याज बेहद ज़्यादा होता था. यूरोपीय देश नील की खेती में अग्रणी थे. अंग्रेज़ और ज़मींदार, भारतीय किसानों पर सिर्फ़ नील की खेती करने और उसे कौड़ियों के भाव उनसे खरीदने के लिए बहुत ज़ुल्म ढाते थे. ये ज़मींदार बाज़ार के भाव का केवल 2.5 प्रतिशत हिस्सा ही किसानों को देते थे. पूरे भारत में यही हाल था. सरकार के कानूनों ने भी इन ज़मींदारों के हक में ही फ़ैसले दिए. 1833 में आए एक एक्ट ने किसानों की कमर तोड़ कर रख दी और उसके बाद ही नील क्रांति का जन्म हुआ था.

3. टुम्नी की प्रक्रिया में मशगूल किसानों का समूह

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सबसे पहले सन 1859-60 में बंगाल के किसानों ने इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाई. बंगाली लेखक दीनबन्धु मित्र ने नील दर्पण नाम से Indigo Revolution पर एक नाटक लिखा, जिस में उन्होंने Britishers की मनमानियों और शोषित किसानों का बड़ा ही मार्मिक दृश्य प्रस्तुत किया था. ये नाटक इतना प्रभावशाली था कि देखने वाली जनता, ज़ुल्म करते हुए अंग्रेज़ का रोल निभाने वाले कलाकार को पकड़ के मारने लगी.

4. ड्रिल से खेतों की बुवाई करते किसान

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5. नील के पौधे को काटता एक किसान

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6. नील की फैक्ट्री

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7. नील के पौधे से रंजक द्रव निकालने की कवायद

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8. इंडिगो फैक्ट्री 

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9. रंजक द्रव को हाथ से कूटते किसान

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10. मशीनों से होती कुटाई

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11. मशीनरी से नील कूटने वाले उपकरण

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12. Fecula टेबल

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13. प्रेस हाउस

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14. Fecula को भट्टी में पंप करते किसान

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15. Fecula पर बल डालते किसान

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16. यहां चीज़ों को सुखाने का काम होता है. 

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17. ये किसान नील को केक के आकार में काट रहे हैं

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18. सूखे के दौर का संघर्ष

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19. पर्सियन व्हील

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20. नील को कूटने वाले किसानों का एक समूह

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धीरे-धीरे ये आन्दोलन पूरे देश में फैला और 1866-68 में बिहार के चंपारण और दरभंगा के किसानों ने भी खुले तौर पर विरोध किया. बंगाल के किसानों द्वारा किया नील क्रांति आन्दोलन आज भी इतिहास में सबसे बड़े किसानी आन्दोलनों में से एक माना जाता है.

भारत में नील की खेती कैसे होती है?

भिन्न भिन्न स्थानों में नील की खेती भिन्न भिन्न ऋतुओं में और भिन्न भिन्न रीति से होती है। कहीं तो फसल तीन ही महीने तक खेत में रहते हैं और कहीं अठारह महीने तक। जहाँ पौधे बहुत दिनों तक खेत में रहते हैं वहाँ उनसे कई बार काटकर पत्तियाँ आदि ली जाती हैं। पर अब फसल को बहुत दिनों तक खेत में रखने की चाल उठती जाती है।

नील की खेती भारत में कब शुरू हुई?

नील की खेती सबसे पहले बंगाल में 1777 में शुरू हुई थी.

भारत में नील की मांग क्यों थी?

यूरोपीय बाजार में भारतीय नील की मांग का कारण बतावें। Solution : यूरोपीय बाजार में कपड़ा रंगने के लिए वोड नामक पौधे का इस्तेमाल किया जाता था जोकि फीका होता था। यूरोप के लोग भारतीय नील से रंगे कपड़े पहनना चाहते थे। इस कारण यूरोपीय बाजारों में भारतीय नील की माँग अधिक थी

नील का पौधा मुख्य रूप से कहाँ उगता?

नील (वानस्पतिक नाम : Indigofera tinctoria) एक पादप है। यही नील रंजक का मूल प्राकृतिक स्रोत था। यह एशिया और अफ्रीका के उष्ण तथा शीतोष्ण क्षेत्रों में पैदा होता है।