नील की खेती के प्रति कंपनी की दिलचस्पी क्यों बड़ी? - neel kee khetee ke prati kampanee kee dilachaspee kyon badee?

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नील की खेती के प्रति कंपनी की दिलचस्पी क्यों बड़ी? - neel kee khetee ke prati kampanee kee dilachaspee kyon badee?

नील (Indigo) एक रंजक है। यह सूती कपड़ो में पीलेपन से निज़ात पाने के लिए प्रयुक्त एक उपादान है। यह चूर्ण (पाउडर) तथा तरल दोनो रूपों में प्रयुक्त होता है। यह पादपों से तैयार किया जाता है किन्तु इसे कृत्रिम रूप से भी तैयार किया जाता है।

भारत में नील की खेती बहुत प्राचीन काल से होती आई है। इसके अलावा नील रंजक का भी सबसे पहले से भारत में ही निर्माण एवं उपयोग किया गया।

परिचय[संपादित करें]

नील का पौधा दो-तीन हाथ ऊँचा होता है। पत्तियाँ चमेली की तरह टहनी के दोनों ओर पंक्ति में लगती हैं पर छोटी छोटी होती हैं। फूल मंजरियों में लगते हैं। लंबी लंबी बबूल की तरह फलियाँ लगती हैं।

नील के पौधे की ३०० के लगभग जातियाँ होती हैं। पर जिनसे यहाँ रंग निकाला जाता है वे पौधे भारतवर्ष कै हैं और अरब मिस्र तथा अमेरिकां में भी बोए जाते हैं। भारतवर्ष हो नील का आदिस्थान हे और यहीं सबसे पहले रंग निकाला जाता था। ८० ईसवी में सिंध के किनारे के एक नगर से नील का बाहर भेजा जाना एक प्राचीन यूनानी लेखक्र ने लिखा है। पीछे के बहुत से विदेशियों ने यहाँ नील के बोए जाने का उल्लेख किया है। ईसा की पद्रहवीं शताब्दी में जब यहाँ से नील योरप के देशों में जाने लगा तब से वहाँ के निवासियों का ध्यान नील की और गया। सबसे पहले हालैंडवालों ने नील का काम शुरू किया और कुछ दिनों तक वे नील की रंगाई के लिये योरप भर में निपुण समझे जाते थे। नील के कारण जब वहाँ कई वस्तुओं के वाणिज्य को धक्का पहुचने लगा तब फ्रांस, जर्मनी आदि कानून द्वारा नील की आमद बद करने पर विवश हुए। कुछ दिनो तक (सन् १६६० तक) इगलैंड में भी लोग नील को विष कहते रहे जिससे इसका वहाँ जाना बद रहा। पीछे बेलजियम से नील का रंग बनानेवाले बुलाए गए जिन्होंने नील का काम सिखाया। पहले पहल गुजरात और उसके आस पास के देशों में से नील योरप जाता था; बिहार, बंगाल आदि से नहीं। ईस्ट इंडिय कंपनी ने जब नील के काम की और ध्यान दिया तब बंगाल बिहार में नील की बहुत सी कोठियाँ खुल गईं और नील की खेती में बहुत उन्नति हुई।

खेती[संपादित करें]

भिन्न भिन्न स्थानों में नील की खेती भिन्न भिन्न ऋतुओं में और भिन्न भिन्न रीति से होती है। कहीं तो फसल तीन ही महीने तक खेत में रहते हैं और कहीं अठारह महीने तक। जहाँ पौधे बहुत दिनों तक खेत में रहते हैं वहाँ उनसे कई बार काटकर पत्तियाँ आदि ली जाती हैं। पर अब फसल को बहुत दिनों तक खेत में रखने की चाल उठती जाती है। बिहार में नील फागुन चैत के महीने में बोया जाता है। गरमी में तो फसल की बाढ़ रुकी रहती है पर पानी पड़ते ही जोर के साथ टहनियाँ और पत्तियाँ निकलती और बढ़ती है। अतः आषाढ़ में पहला कलम हो जाता है और टहनियाँ आदि कारखाने भेज दी जाती हैं। खेत में केवल खूँटियाँ ही रह जाती हैं। कलम के पीछे फिर खेत जोत दिया जाता है जिससे वह बरसात का पानी अच्छी तरह सोखता है और खूँटियाँ फिर बढ़कर पोधों के रूप में हो जाती हैं। दूसरी कटाई फिर कुवार में होती है।

रंग निकालना[संपादित करें]

नील से रंग दो प्रकार से निकाल जाता है—हरे पौधे से और सूखे पोधे से। कटे हुए हरे पौधों को गड़ी हुई नाँदों में दबाकर रख देते हैं और ऊपर से पानी भर देते हैं। बारह चौदह घंटे पानी में पड़े रहने से उसका रस पानी में उतर आता है और पानी का रंग धानी हो जाता है। इसके पीछे पानी दूसरी नाँद में जाता है जहाँ डेढ़ दो घंटे तक लकड़ी से हिलाया और मथा जाता है। मथने का यह काम मशीन के चक्कर से भी होता है। मथने के पीछे पानी थिराने के लिये छोड़ दिया जाता है जिससे कुछ देर में माल नीचे बैठ जाता है। फिर नीचे बैठा हुआ यह नील साफ पानी में मिलाकर उबाला जाता है। उबल जाने पर यह बाँस की फट्टियों के सहारे तानकर फैलाए हुए मोटे कपड़े (या कनवस) की चाँदनी पर ढाल दिया जाता है। यह चाँदनी छनने का काम करती है। पानी तो निथर कर बह जाता है और साफ नील लेई के रूप में लगा रह जाता है। यह गीला नील छोटे छोटे छिद्रों से युक्त एक संदूक में, जिसमें गीला कपड़ा मढ़ा रहता हे, रखकर खूब दबाया जाता है जिससे उसके सात आठ अंगुल मोटी तह जमकर हो जाती है। इसकै कतरे काटकर घोरे धीरे सूखने के लिये रख दिए जाते हैं। सूखने पर इन कतरों पर एक पपड़ी सी जम जाती है जिसे साफ कर देते हैं। ये ही कतरे नील के नाम से बिकते हैं।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • Plant Cultures: botany, history and uses of indigo
  • Pubchem page for indigotine
  • FD&C regulation on indigotine

3 नील की खेती के प्रति कंपनी की दिलचस्पी क्यों बढ़ी ?`?

चूंकि कानूनी रूप से नील का व्यवसाय करने वाले लोगों पर जमीन खरीदने की रोक थी, इसलिए उन्हें उत्पादन सुनिश्चित करने का एक ही रास्ता उपलब्ध था कि वे किसानों से उनकी जमीन भाड़े पर लें या किसान से ही उसकी जमीन पर नील की खेती करने का करार करें।

भारतीय नील की मांग अधिक क्यों थी?

Solution : यूरोपीय बाजार में कपड़ा रंगने के लिए वोड नामक पौधे का इस्तेमाल किया जाता था जोकि फीका होता था। यूरोप के लोग भारतीय नील से रंगे कपड़े पहनना चाहते थे। इस कारण यूरोपीय बाजारों में भारतीय नील की माँग अधिक थी

नील विद्रोह के क्या कारण थे?

नील की खेती की प्रणाली स्वाभाविक रूप से शोषणकारी थी। १८५९ में नदिया ज़िले में उभरने के बाद बिद्रोह १८६० के दशक में बंगाल के विभिन्न जिलों में फैल गया। किसानों ने भाले और तलवारों से नील कारख़ानों पर हमला किया।

नील की खेती क्या काम आती है?

नील (Indigo) एक रंजक है। यह सूती कपड़ो में पीलेपन से निज़ात पाने के लिए प्रयुक्त एक उपादान है। यह चूर्ण (पाउडर) तथा तरल दोनो रूपों में प्रयुक्त होता है। यह पादपों से तैयार किया जाता है किन्तु इसे कृत्रिम रूप से भी तैयार किया जाता है।