UP Board Solutions for Class 11 Economics Indian Economic Development Chapter 2 Indian Economy 1950-1990 (भारतीय अर्थव्यवस्था (1950-1990)) Show पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3.
प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6.
मध्यस्थों के उन्मूलन का परिणाम यह हुआ कि लगभग 2 करोड़ काश्तकारों को सरकार से सीधा संपर्क हो गया तथा वे जमींदारों द्वारा किए जा रहे शोषण से मुक्त हो गए। प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10.
प्रश्न 11.
प्रश्न 12.
प्रश्न
13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न
16.
प्रश्न 17.
प्रश्न
18. प्रश्न 19. परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर बदविकल्पीय प्रश्न प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. अतिलघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न
2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न
20. प्रश्न 21. प्रश्न 22. प्रश्न 23. प्रश्न 24. प्रश्न 25. प्रश्न 26. प्रश्न 27. प्रश्न 28. प्रश्न 29. प्रश्न 30. प्रश्न 31. प्रश्न 32. प्रश्न 33. प्रश्न 34. प्रश्न 35. प्रश्न 36. प्रश्न 37. प्रश्न 38. लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1.
प्रश्न
2.
प्रश्न 3.
प्रश्न 4.
प्रश्न
5. 2. कृषि सुधार में कठिनाइयाँ– छौटे तथा बिखरे हुए खेतों पर कोई सुधार कार्य नहीं हो ता। | सिंचाई, खाद तथा आधुनिक कृषि उपकरणों की सुविधा इन खेतों को नहीं मिल पाती, जिससे उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 3. भूमि का अपव्यय- छोटे तथा छिटके खेतों में भूमि को दो प्रकार से अपव्यय होता है। कुछ भूमि तो मेंड़ बनाने में नष्ट हो जाती है और शेष अपने लघु आकार के कारण पूर्णत: प्रयोग में नहीं | आ पाती। 4. सिंचाई में बाधा- छोटे-छोटे खेतों पर सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से भी उपयुक्त नहीं होता। डॉ० केप का अनुमान है कि 6 एकड़ तक के खेत पर सिंचाई करने से किसान को १ 55 प्रति एकड़ तक घाटा उठाना पड़ता है, जबकि 25 एकड़ के खेत पर यह घाटा कम होकर केवल १2 प्रति एकड़े रह जाता है। 5. देख- रेख में असुविधा-विखण्डन के कारण किसान को देख-रेख पर बहुत व्यय करना पड़ता है अन्यथा पशु-पक्षी खड़ी फसल को नष्ट कर देते हैं। 6. अन्य दोष- उपविभाजन एवं अपखण्डन के परिणामस्वरूप कुछ अन्य दोष भी उत्पन हो जाते हैं; जैसे-
प्रश्न 6. प्रश्न 7.
प्रश्न 8.
प्रश्न 9.
प्रश्न 10.
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. एजे० ब्राउन के अनुसार- आर्थिक प्रणाली वह व्यवस्था है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी आजीविको कमाता है और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।’ लॉक्स के अनुसार- “आर्थिक प्रणाली एक ऐसा संगठन है, जिसके द्वारा सुलभ उत्पादन साधनों का प्रयोग करके मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।” एम० गॉटलिब के अनुसार- “आर्थिक प्रणाली
जटिले मानव संबंधों, जो वस्तुओं तथा सेवाओं की विभिन्न निजी तथा सार्वजनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से सीमित साधनों के प्रयोग से सुंबंधित हैं, को प्रकट करने वाला एक मॉडल है।” आर्थिक प्रणाली के लक्षण आर्थिक प्रणाली के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं
प्रश्न 2. लूक्स तथा हूटस के अनुसार-“पूँजीवाद आर्थिक संगठन की ऐसी प्रणाली है, जिसमें प्राकृतिक तथा मनुष्य-निर्मित पूँजीगत साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व होता है और जिनका प्रयोग निजी लाभ के लिए किया जाता है।” प्रो० पीगू के अनुसार- “एक पूँजीवादी उद्योग वह है, जिसमें उत्पत्ति के भौतिक साधन निजी लोगों की सम्पत्ति होते हैं अथवा उनके द्वारा किराए पर लिए जाते हैं और उनका परिचालन इन लोगों के आदेश पर उनकी सहायता से उत्पन्न होने वाली वस्तुओं को लाभ पर बेचने के लिए किया जाता है। एक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अथवा पूँजीवादी प्रणाली वह है, जिसके उत्पादन के साधनों का मुख्य भाग पूँजीवादी उद्योग । में लगा होता है।” पूँजीवाद की विशेषताएँ पूँजीवादी प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं 1. मूल्य यन्त्र- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था मूल्य यंत्र के द्वारा नियंत्रित होती है। वस्तुओं के उत्पादन की मात्रा, उत्पादन के साधनों में बँटवारा, बचत एवं विनियोग तथा महत्त्वपूर्ण आर्थिक निर्णय कीमतों के आधार पर लिए जाते हैं। इसमें ‘मूल्य यंत्र’ स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करता है। समन्वय तथा नियंत्रण का कार्य मूल्य यंत्र द्वारा ही किया जाता है। 2.”केन्द्रीय योजना का अभाव– पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में किसी प्रकार की केन्द्रीय आर्थिक योजना नहीं होती। यह प्रणाली व्यक्ति की स्वतंत्र क्रियाओं पर आधारित होती है। सामान्य आर्थिक क्रियाओं में सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। 3. आर्थिक स्वतंत्रता- ये स्वतंत्रताएँ इस प्रकार हैं
4. लाभ उददेश्य- पूँजीवादी व्यवस्था में सभी उत्पादक इकाइयाँ लाभ के उद्देश्य से चलाई जाती हैं। प्रत्येक व्यवसायी का उद्देश्य अधिकाधिक लाभ कमाना होता है। अत: उत्पादक उत्पादन के साधनों का पूर्ण शोषण करते हैं। 5. प्रतियोगिता- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रतियोगिता पायी जाती है। यह आर्थिक स्वतंत्रता का आवश्यक परिणाम और स्वतंत्र बाजार की अर्थव्यवस्था का आधार होता है। 6. वर्ग-संघर्ष- पूँजीवादी समाज दो वर्गों में विभाजित होता है
7. आर्थिक असमानताएँ- पूँजीवादी व्यवस्था में आर्थिक असमानताएँ पायी जाती हैं, धन का केन्द्रीकरण हो जाता है और कुछ व्यक्ति अमीर तथा कुछ गरीब होते चले जाते हैं। 8. सरकार की भूमिका- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में सरकार लोगों की आर्थिक क्रियाओं में कोई प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं करती। सरकार को कार्य केवल आर्थिक संगठन पर बाहरी तत्त्वों के प्रभाव | को रोकना और आर्थिक क्रियाओं के हानिकारक प्रभावों को नियंत्रित करना होता है। 9. उपभोक्ता का प्रभुत्व– पूँजीवादी व्यवस्था में उपभोक्ता ही समस्त उत्पादन को नियंत्रित तथा नियमित करता है, इसीलिए इस व्यवस्था में उपभोक्ता को सम्राट कहा जाता है। प्रश्न 3. प्रो० शुम्पीटर के अनुसार- “समाजवाद एक ऐसी संस्थागत व्यवस्था को कहते हैं, जिसमें उत्पत्ति के साधनों तथा स्वयं उत्पादन पर नियंत्रण एक केन्द्रीय सत्ता के हाथ में होता है या जिसमें सैद्धान्तिक रूप से समाज की आर्थिक क्रियाएँ व्यक्तिगत क्षेत्र के अधिकार में न होकर सार्वजनिक क्षेत्र में होती हैं।” प्रो० डिकिन्सन के अनुसार- “समाजवाद समाज की एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था है, जिसमें उत्पत्ति के भौतिक साधन समाज के स्वामित्व में होते हैं और इनका संचालन एक सामान्य योजना के अनुसार ऐसी संस्थाओं के द्वारा किया जाता है, जो पूर्ण समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा पूर्ण समाज के प्रति उत्तरदायी होती हैं। समाज के सभी सदस्य सामान्य अधिकारों के आधार पर समाजीकृत तथा नियोजित उत्पादन के लाभों के अधिकारी होते हैं।” प्रो० लुक्स के अनुसार- समाजवाद वह आन्दोलन है, जिसका उद्देश्य सभी प्रकार की प्रकृति-प्रदत्त तथा मनुष्यकृत उत्पादित वस्तुओं का जो कि बड़े पैमाने के उत्पादन में प्रयोग की जाती हैं, स्वामित्व तथा प्रबंध व्यक्तियों के स्थान पर समस्त समाज में निहित करना होता है, जिससे बढ़ी हुई राष्ट्रीय आय का इस प्रकार समान वितरण हो सके कि व्यक्ति की आर्थिक प्रेरणा या व्यवसाय तथा उपभोग संबंधी चुनावों की स्वतंत्रता में कोई विशेष हानि न हो।’ समाजवाद की विशेषताएँ समाजवाद की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं 2. आर्थिक नियोजन- सामाजिक अर्थव्यवस्था आवश्यक रूप से नियोजित होती है। इस व्यवस्था के पूर्व-निश्चित उद्देश्य होते हैं और उन्हें पहले से निश्चित किए गए प्रयासों द्वारा ही प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता हैं। 3. एक केन्द्रीय सत्ता– समाजवादी व्यवस्था में एक केन्द्रीय सत्ता होती है, जो समाज में आर्थिक उद्देश्यों को निश्चित करती है और उन्हें प्राप्त करने के लिए उचित व्यवस्था एवं प्रबन्ध करती है। इस सत्ता द्वारा ही संपूर्ण अर्थव्यवस्था को निर्देशित किया जाता है। 4. सामाजिक कल्याण- उत्पादन का उद्देश्य लाभ की भावना नहीं, बल्कि सामाजिक कल्याण में वृद्धि करना होता है। कीमत नीति का निर्धारण भी सामाजिक कल्याण के आधार पर किया जाता 5. धन का समान वितरण– उत्पत्ति के भौतिक साधनों पर निजी अधिकार को समाप्त कर दिया जाता है और आर्थिक साधनों के वितरण में अधिक समानता लाने का प्रयास किया जाता है। 6. उपभोग तथा व्यवसाय के चुनाव की स्वतंत्रता- समाजवादी अर्थव्यवस्था में भी लोगों को अपनी इच्छानुसार उपभोग संबंधी वस्तुओं का चुनाव करने की स्वतंत्रता होती है।। 7. मूल्य यंत्र- समाजवादी अर्थव्यवस्था में साधनों का बँटवारा एक पूर्व-निश्चित योजना के अनुसार केन्द्रीय सत्ता द्वारा मूल्य यंत्र की सहायता से किया जाता है, यद्यपि मूल्य यंत्र स्वतंत्रतापूर्वक कार्य नहीं करता। 8. प्रतियोगिता का अभाव–उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व व्यक्तिगत न होकर सामूहिक होता है। | और उत्पादन की मात्रा, किस्म तथा कीमत का निर्धारण प्रतियोगिता द्वारा न होकर केन्द्रीय सत्ता द्वारा होता है। प्रश्न 4. मिश्रित अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ मिश्रित अर्थव्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं 2. समाजवाद व पूँजीवाद के तत्त्वों का सम्मिश्रण-
मिश्रित अर्थव्यवस्था में समाजवाद के निम्नलिखित अंश पाए जाते हैं।
3. आर्थिक नियोजन- मिश्रित अर्थव्यवस्था में सरकार द्वारा एक पूर्व- निश्चित योजना के अनुसार ही अर्थव्यवस्था का नियन्त्रण एवं नियमन किया जाता है। यह आर्थिक नियोजन द्वारा पूर्व-निश्चित आर्थिक एवं सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न करती है। 4. साधनों का बँटवारा– सार्वजनिक क्षेत्र में साधनों का बँटवारा सामाजिक कल्याण के उद्देश्य से | किया जाता है, जबकि निजी क्षेत्र में साधनों का बँटवारा कीमत प्रणाली द्वारा होता है। भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था भारतीय अर्थव्यवस्था एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है। इस व्यवस्था में निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र मिलकर आर्थिक विकास के लिए योजनाबद्ध तरीकों से कार्य कर रहे हैं। 6 अप्रैल, 1948 ई० को भारत सरकार ने औद्योगिक नीति की घोषणा की, जिसके अनुसार देश मिश्रित अर्थव्यवस्था का प्रारम्भ हुआ। स्वामित्व के आधार पर उद्योगों को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा गया-
इस नीति के अनुसार उद्योगों को चार भागों में बाँटा गया
सन् 1956 ई० में घोषित औद्योगिक नीति के अनुसार समस्त उद्योगों का वर्गीकरण निम्नलिखित तीन श्रेणियों में किया
गया है द्वितीय श्रेणी- इसमें 12 उद्योग आते हैं; जैसे-खनिज उद्योग, मशीन तथा यन्त्र, उर्वरक, रबड़ आदि। इस वर्ग में निजी एवं सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्र कार्य कर सकते हैं। तृतीय श्रेणी- अन्य उद्योग, जिनका विस्तार एवं विकास पूर्णतया निजी क्षेत्र पर छोड़ दिया गया है। 1991 ई० में घोषित नवीन औद्योगिक नीति के अन्तर्गत भी ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया है, हाँ, इसमें उद्योगों के नियमन व नियन्त्रण में कमी की गई है, सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार को सीमित किया गया है और निजी क्षेत्र को अधिक विस्तृत एवं उदार बनाने पर बल दिया गया है। इस प्रकार भारतवर्ष में मिश्रित अर्थव्यवस्था कार्य कर रही है। प्रश्न 5. एच०डी० डिकिन्सन के अनुसार- ‘आर्थिक नियोजन से अभिप्राय महत्त्वपूर्ण आर्थिक मामलों में विस्तृत तथा सन्तुलित निर्णय लेना है। दूसरे शब्दों में, क्या तथा कितना उत्पादित किया जाएगा तथा उसका वितरण किस प्रकार होगा, इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक निर्धारक सत्ता द्वारा समस्त अर्थव्यवस्था को एक ही राष्ट्रीय आर्थिक इकाई (व्यवस्था) मानते हुए तथा व्यापक सर्वेक्षण के आधार पर, सचेत तथा विवेकपूर्ण निर्णय के द्वारा, दिया जाता है।” डॉ० डाल्टन के अनुसार- “विस्तृत अर्थ में आर्थिक नियोजन से अभिप्राय कुछ व्यक्तियों द्वारा, जिनके अधिकार में विशेष प्रसाधन हों, निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आर्थिक क्रिया का संचालन करना है।” भारतीय नियोजन आयोग के अनुसार-“आर्थिक नियोजन निश्चित रूप से सामाजिक उद्देश्यों के हितार्थ उपलब्ध साधनों का संगठन तथा लाभकारी रूप से उपयोग करने का एकमात्र ढंग है। नियोजन के
इस विचार के दो प्रमुख तत्त्व हैं- राष्ट्रीय नियोजन समिति के अनुसार- “आर्थिक नियोजन उपभोग, उत्पादन, विनियोग, व्यापार तथा राष्ट्रीय लाभांश के वितरण से सम्बन्धित स्वार्थहित विशेषज्ञों का तकनीकी समन्वय है, जो राष्ट्र की प्रतिनिधि संस्थाओं द्वारा निर्धारित विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति हेतु प्राप्त किया जाए। संक्षेप में, आर्थिक नियोजन एक तकनीक है, यह वांछित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को पूरा करने का एक साधन है। ये लुक्ष्य केन्द्रीय नियोजन अधिकारी व केन्द्रीय शक्ति द्वारा पूर्व-निर्धारित तथा स्पष्टतः परिभाषित होने चाहिए। आर्थिक नियोजन की एक उचित परिभाषा निम्न प्रकार दी जा सकती है आर्थिक नियोजन से आशय पूर्व-निर्धारित और निश्चित सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अर्थव्यवस्था के सभी अंगों को एकीकृत और समन्वित करते हुए राष्ट्र के संसाधनों के सम्बन्ध में सोच-विचारकर रूपरेखा तैयार करने और केन्द्रीय नियन्त्रण से है।” आर्थिक नियोजन की विशेषताएँ (लक्षण) उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर आर्थिक नियोजन की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं
भारत के सन्दर्भ में आर्थिक नियोजन के उद्देश्य भारत में आर्थिक नियोजन की तकनीक को 1 अप्रैल, 1951 से अपनाया गया है। अब तक 11 पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं। बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) कार्यशील है। भारत में आर्थिक नियोजन के प्रमुख उद्देश्य अग्रलिखित हैं 1. राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि– जनसामान्य के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने की | दृष्टि से आर्थिक नियोजन का प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में तीव्र वृद्धि करना रहा है। 2. रोजगार में वृद्धि– भारत में आर्थिक नियोजन का दूसरा उद्देश्य रोजगार के अवसरों में वृद्धि | करना है; अतः कृषि, उद्योग, सेवाओं आदि का विस्तार किया गया है। 3. आत्म-निर्भरता की प्राप्ति- योजनाओं में प्रारम्भ से ही आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की बात कही गई है। तृतीय योजना में इस पर विशेष जोर दिया गया। पाँचवीं व छठी योजनाओं में तो विदेशी सहायता पर निर्भरता को न्यूनतम करने की बात कही गई थी। आठवीं योजना इसी दिशा में एक कदम है। 4. कल्याणकारी राज्य की स्थापना- भारतीय नियोजन का एक उद्देश्य देश में कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। आय एवं सम्पत्ति में वितरण की असमानता को दूर करने की बात प्रत्येक योजना में की गई। पाँचवीं योजना का मुख्य उद्देश्य ‘गरीबी दूर करना ही था। इसके लिए न्यूनतम आवश्यकताओं की व्यवस्था पर भी जोर दिया गया। 5. सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार- भारत में आर्थिक नियोजन का एक उद्देश्य सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार करना रहा है, ताकि उन उद्योगों की स्थापना की जा सके जिनमें उद्योगपति पूँजी विनियोग करने में असमर्थ रहते हैं। 6. समाजवादी समाज की स्थापना- इन योजनाओं में समाजवादी समाज की स्थापना पर विशेष जोर दिया गया है। इसके लिए आम जनता को सामाजिक न्याय दिलाने तथा आर्थिक असमानताओं को कम करने का प्रयास किया गया है। 7. अन्य उद्देश्य–
प्रश्न
6.
इनके आधार पर भारत में आर्थिक नियोजन की सफलताएँ निम्नवत् रही हैं
2. आधुनिकीकरण
3.
आत्मनिर्भरता 4. सामाजिक न्याय भारत में आर्थिक नियोजन की असफलताएँ भारत में आर्थिक नियोजन की मुख्य असफलताएँ निम्नलिखित रही हैं
उपर्युक्त कमियों के बावजूद योजना की उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता। वास्तव में, आर्थिक नियोजन के फलस्वरूप ही वर्षों से स्थिर अर्थव्यवस्था को गति प्राप्त हुई है। योजनाओं को सफल बनाने हेतु सुझाव योजनाओं को सफल बनाने हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं
ताकि आंशिक बेरोजगारी को दूर किया जा सके। शिक्षा प्रणाली को कार्यप्रधान बनाया जाए तथा तकनीकी संस्थाओं का आधुनिकीकरण किया जाए। अन्य सुझाव
प्रश्न 7. भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्व भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्त्व का अनुमान निम्नलिखित तथ्यों से लगाया जा सकता है- 2. आजीविका का प्रमुख स्रोत- भारत में कृषि आजीविका का प्रमुख स्रोत है। श्री वी० के० आर० वी० राव के अनुसार, 1991 ई० में सम्पूर्ण जनसंख्या का लगभग 66.3% भाग कृषि एवं सम्बद्ध व्यवसायों से अपनी आजीविका प्राप्त करता था, जबकि ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा आदि देशों में कृषि एवं सम्बद्ध व्यवसायों पर निर्भर रहने वाली जनसंख्या का अंश 20% से भी कम है। देश की कुल जनसंख्या का 77.3% भाग गाँवों में रहता है और गाँवों में मुख्य व्यवसाय कृषि है। 3. सर्वाधिक भूमि का उपयोग- कृषि में देश के भू-क्षेत्र का सर्वाधिक भाग प्रयोग किया जाता है। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार कुल भू-क्षेत्र के 49.8% भाग में खेती की जाती है। 4. खाद्यान्न की पूर्ति का साधन- कृषि देश की लगभग 121 करोड़ जनसंख्या को भोजन तथा लगभग 36 करोड़ पशुओं को चारा प्रदान करती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारतीयों के भोजन में कृषि उत्पादन ही प्रमुख होते हैं। यदि जनसंख्या वृद्धि एवं आर्थिक विकास के परिवेश में खाद्य-सामग्री की पूर्ति को नहीं बढ़ाया जाता है, तो देश के आर्थिक विकास का ढाँचा चरमरा जाता 5. औद्योगिक कच्चे माल की पूर्ति का साधन- देश के महत्त्वपूर्ण उद्योग कच्चे माल के लिए कृषि पर ही निर्भर हैं। सूती वस्त्र, चीनी, जूट, वनस्पति तेल, चाय व कॉफी इसके प्रमुख उदाहरण हैं। संसार के सभी देशों में उद्योगों का विकास कृषि के विकास के बाद ही सम्भव हुआ है। इस प्रकार, औद्योगिक विकास कृषि के विकास पर ही निर्भर है। 6. पशुपालन में सहायक- हमारे कृषक पशुपालन कार्य एक सहायक धन्धे के रूप में करते हैं। पशुपालन उद्योग से समस्त राष्ट्रीय आय का 7.8% भाग प्राप्त होता है। कृषि तथा पशुपालन उद्योग एक-दूसरे के पूरक तथा सहायक व्यवसाय हैं। कृषि पशुओं को चारा प्रद्मन करती है और पशु कृषि को बहुमूल्य खाद प्रदान करते हैं, जिससे कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है। 7. हमारे निर्यात व्यापार का मुख्य आधार- देश के निर्यात का अधिकांश भाग कृषि से ही प्राप्त होता है। अप्रैल, 2013-14 में प्रमुख वस्तुओं के निर्यात में बागान उत्पाद, कृषि एवं सहायक उत्पाद में 34% की वृद्धि दर्ज की गई है। कृषि उत्पादों में चाय, जूट, लाख, शक्कर, ऊन, रुई, मसाले, तिलहन आदि प्रमुख हैं। 8. केन्द्र तथा राज्य सरकारों की आय का साधन- यद्यपि कृषि क्षेत्र पर कर का भार अधिक नहीं होता है, तथापि कृषि राजस्व का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। लगान से लगभग 200 करोड़ वार्षिक आय का अनुमान लगाया गया है। इसके अतिरिक्त कृषि वस्तुओं के निर्यात-कर से भी आय प्राप्त होती है। केन्द्रीय सरकार के उत्पादन शुल्कों का एक बहुत बड़ा भाग चाय, तम्बाकू, तिलहन आदि फसलों से प्राप्त होता है। 9. आन्तरिक व्यापार का आधार- भारत में खाद्य-पदार्थों पर राष्ट्रीय आय का अधिकांश भाग व्यय होता है। अनुमान है कि शहरी क्षेत्रों में आय का 60.2% तथा ग्रामीण क्षेत्रों में आय का 69.07% भोजन पर व्यय किया जाता है। स्पष्ट है कि आन्तरिक व्यापार मुख्यत: कृषि पर आधारित होता है और कृषि क्षेत्र में होने वाले प्रत्येक परिवर्तन का प्रभाव आन्तरिक व्यापार पर पड़ता है। थोक तथा खुदरा व्यापार के अतिरिक्त बैंकिंग तथा बीमा व्यवसाय भी कृषि से अत्यधिक प्रभावित होते हैं। 10. यातायात के साधनों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण- कृषि उत्पादन यातायात के साधनों को पर्याप्त मात्रा में प्रभावित करता है। जिस वर्ष कृषि-उत्पादन कम होता है, रेल व सड़क-परिवहन आदि सभी साधनों की आय घट जाती है। इसके विपरीत, अच्छी फसल वाले वर्ष में इन साधनों की आय में पर्याप्त वृद्धि हो जाती है। प्रश्न 8. (अ) सामान्य कारण 1. भूमि पर जनसंख्या का भार- भारत में कृषि-भूमि पर जनसंख्या का भार निरन्तर बढ़ता जा रहा | है, परिणामतः प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि की उपलब्धि निरन्तर कम होती जा रही है। सन् 1901 ई० में जहाँ कृषि योग्य भूमि की उपलब्धि प्रति व्यक्ति 2.1 एकड़ थी, आज वह 0.7 एकड़ से भी कम रह गई है। 3. भूमि पर लगातार कृषि– अनेक वर्षों से हमारे यहाँ उसी भूमि पर खेती की जा रही है, फलतः | भूमि की उर्वरा-शक्ति निरन्तर कम होती जा रही है। उर्वरा-शक्ति पुनः प्राप्त करने के लिए सामान्यतः ने तो हेर-फेर की प्रणाली को ही प्रयोग किया जाता है और न रासायनिक खादों का प्रयोग होता है। (ब) संस्थागत कारण 1. खेतों का लघु आकार- उपविभाजन एवं अपखण्डन के परिणामस्वरूप देश में खेतों को आकार अत्यन्त छोटा हो गया है, परिणामतः आधुनिक उपकरणों का प्रयोग नहीं हो पाता। साथ-ही, श्रम | तथा पूँजी के साथ ही समय का भी अपव्यय होता है। 2. अल्प-मात्रा में भूमि सुधार- देश में भूमि सुधार की दिशा में अभी महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक प्रगति नहीं हुई है, जिसके फलस्वरूप कृषकों को न्याय प्राप्त नहीं होता। इसका उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 3. कृषि-सेवाओं का अभाव- भारत में कृषि-सेवाएँ प्रदान करने वाली संस्थाओं का अभाव पाया जाता है, जिससे उत्पादकता में वृद्धि नहीं हो पाती। (स) प्राविधिक कारण 1. परम्परागत विधियाँ- भारतीय किसान अपने परम्परावादी दृष्टिकोण एवं दरिद्रता के कारण पुरानी और अकुशल विधियों का ही प्रयोग करते हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि नहीं हो पाती। 2. उर्वरकों की कमी- उत्पादन में वृद्धि के लिए उर्वरकों का प्रयोग अत्यन्त आवश्यक है, परन्तु भारत में गोबर एवं आधुनिक रासायनिक खादों (उर्वरकों) दोनों का ही अभाव पाया जाता है। गत वर्षों में इस दिशा में कुछ प्रगति अवश्य हुई है। 3. आधुनिक कृषि- उपकरणों का अभाव-भारत के अधिकांश कृषक पुराने उपकरणों का प्रयोग किया करते हैं, जिससे उत्पादन में उचित वृद्धि नहीं हो पाती। ऐसा प्रतीत होता है कि परम्परागत भारतीय कृषि-उपकरणों में अवश्य कोई मौलिक दोष है। अतः कृषकों को आधुनिक उपकरणों को अपनाना चाहिए। 4. बीजों की उत्तम किस्मों का अभाव- कृषि के न्यून उत्पादन का एक कारण यह भी रहा है कि हमारे किसान बीजों की उत्तम किस्मों के प्रति उदासीन रहे हैं। इस स्थिति के मूलतः तीन कारण हैं-प्रथम, किसानों को उत्तम बीजों की उपयोगिता का पता न होना; द्वितीय, बीजों की समुचित आपूर्ति न होना तथा तृतीय, अच्छी किस्म के बीजों का महँगा होना और कृषकों की निर्धनता। 5. साख- सुविधाओं का अभाव-अभी तक कृषि विकास के लिए पर्याप्त साख-सुविधाएँ कृषकों को उपलब्ध नहीं थीं। इसके मूलतः दो कारण थे—प्रथम, कृषि वित्त संस्थाओं का अभाव व उनका सीमित कार्य-क्षेत्र; द्वितीय, उचित कृषि मूल्य नीति का अभाव। 6. पशुओं की हीन दशा- भारत में पशुओं का अभाव तो नहीं है, हाँ, उनकी अच्छी नस्ल अवश्य | अधिक नहीं पायी जाती। अन्य शब्दों में, पशु-धन की गुणात्मक स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। अत: पशु आर्थिक सहयोग प्रदान करने के स्थान पर कृषकों पर भार बन गए हैं। 7. सिंचाई के साधनों का अभाव- भारतीय कृषि की आधारशिला मानसून है क्योंकि आयोजन के | 63 वर्षों के उपरान्त भी कुल कृषि योग्य भूमि के लगभग 35% भाग को ही कृत्रिम सिंचाई की सुविधाएँ उपलब्ध हैं, शेष कृषि-योग्य क्षेत्र अनिश्चित मानसून की कृपा पर निर्भर रहता है। पर्याप्त सिंचाई सुविधाओं के अभाव में उर्वरकों आदि का भी समुचित प्रयोग नहीं हो पाता, जिससे उत्पादकता में विशेष वृद्धि नहीं होती है। उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त कृषि की निम्न उत्पादकता के लिए कुछ अन्य कारण भी उत्तरदायी हैं; जैसे-सामाजिक रूढ़ियाँ, कृषि अनुसन्धान का अभाव, प्राकृतिक प्रकोप, शिथिल प्रशासन आदि। भारत में कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के उपाय भारत में कृषि उत्पादकता में वृद्धि के लिए मुख्य सुझाव निम्नलिखित हैं-
प्रश्न 9. 1. परम्परागत अर्थ में- “भूमि सुधार का आशय छोटे कृषकों एवं कृषि-श्रमिकों के लाभार्थ भूमि-स्वामित्व के पुनर्वितरण से लगाया जाता है।” सामान्यतः भूमि-सुधार को अर्थ मध्यस्थों की समाप्ति, काश्तकारी पद्धति में सुधार तथा जातों के सीमा-निर्धारणं से लिया जाता है, परन्तु व्यापक अर्थ में भूमिहीन श्रमिकों की दशा में सुधार, चकबन्दी तथा भूमि की उन्नति एवं विकास और सहकारी कृषि के विस्तार को भी भूमि-सुधार के अन्तर्गत शामिल किया जाता है। इस प्रकार, भूमि-सुधारों में भू-धारण प्रणाली, जोतों के आकार, कृषि-पद्धति के वे समस्त परिवर्तन, जिनकी सहायता से उत्पादन वृद्धि एवं सामाजिक न्याय का वातावरण बनता है, शामिल होते हैं। भारत में भू-सुधार कार्यक्रम भारत में अपनाए गए प्रमुख भू-सुधार कार्यक्रम निम्नलिखित हैं I. मध्यस्थों की समाप्ति II. काश्तकारी सुधार 1. लगान नियमन- पहले काश्तकार तथा बटाईदार सामान्यतः उपज का आधे से अधिक भाग भूस्वामी को लगान के रूप में देते थे। इस सुधार के अन्तर्गत लगान की अधिकतम मात्रा 1/5 या 1/4 निर्धारित कर दी गई। 2. भू-स्वामित्व की सुरक्षा- इसका अर्थ है-काश्तकारों का भूमि पर स्थायी अधिकार होना। द्वितीय योजनाकाल में योजना आयोग ने सुझाव दिया कि ऐच्छिक परित्याग के मामलों का पंजीयन किया जाए तथा यह प्रतिबन्ध लगाया जाए कि ऐच्छिक परित्याग के बाद भी भू-स्वामी केवल काश्त की जाने वाली भूमि की मात्रा का ही स्वामी माना जाएगा। 3. स्वयं काश्त में भूमि का पुनर्ग्रहण- पुनर्ग्रहण नियमों की दृष्टि से समस्त राज्यों को चार भागों में बाँटा जा सकता है (क) पहले समूह में वे राज्य है, जहाँ काश्तकारों को पूर्ण सुरक्षा प्राप्त हो गई है। इन राज्यों में भू-स्वामियों को पुन: भूमि प्राप्त करने की आज्ञा नहीं मिली है। ये राज्य हैं-बंगाल, उत्तर प्रदेश एवं दिल्ली। (ख) दूसरे समूह में वे राज्य आते हैं, जहाँ भू-स्वामियों को निजी कृषि के लिए एक सीमिन्न क्षेत्र मिल सकता है, परन्तु साथ में यह शर्त है कि काश्तकार के पास एक न्यूनतम क्षेत्र अवश्य छोड़ना होगा। ये राज्य हैं-बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर तथा केरल। (ग) तीसरे समूह में पंजाब तथा असम राज्य आते हैं। इन राज्यों में काश्तकारों को अन्यत्र भूमि प्रदान की जाएगी, इसके पश्चात् पुनर्ग्रहण हो सकता है। भूमि ढूँढ़ने का उत्तरदायित्व राज्यों को सौंपा गया है। (घ) चौथे समूह में आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु की गिनती होती है, जहाँ भू-स्वामियों को पुनः भूमि प्राप्त करने का अधिकार इस शर्त पर दिया गया है कि वे निर्धारित सीमा से अधिक भूमि नहीं प्राप्त कर सकते, परन्तु काश्तकार के लिए किसी न्यूनतम क्षेत्र का निर्धारण नहीं किया गया। इस अवस्था से काश्तकारों को सम्पूर्ण कृषि योग्य क्षेत्र में 9% भाग में पूर्ण सुरक्षा, 59% भाग में आंशिक सुरक्षा तथा 19% भाग में अस्थायी सुरक्षा प्राप्त हुई है। 13% भाग अभी ऐसा है, जहाँ सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी है।। 4. काश्तकारों को मालिक होने का अधिकार–परिश्रमी काश्तकारों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से विभिन्न राज्यों ने भू-स्वामित्व के अधिकार सम्बन्धी अधिनियमों को लागू किया है। प्रारम्भ में भूस्वामित्व का अधिकार प्राप्त करना ऐच्छिक था, परन्तु तृतीय योजना में ऐच्छिकता को हटाने का सुझाव दिया गया क्योंकि ऐच्छिक होने पर इन अधिकारों को प्रयोग नहीं हो पाया था। विभिन्न राज्य सरकारों ने यह कार्य भिन्न-भिन्न रीतियों से किया है- (अ) गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व राजस्थान में काश्तकारों को मालिक कर दिया गया और पूर्व-मालिकों को उचित किस्तों में पैसा मिलता रहे, इस बात की व्यवस्था कर दी गई। (ब) दिल्ली में सरकार ने मुआवजा देकर स्वयं स्वामित्व प्राप्त कर लिया और काश्तकारों को | मालिक बना दिया। वहाँ सरकार ने व्यवस्था की है कि उसे उचित किस्तों पर काश्तकारों से मुआवजा मिल जाए। (स) उत्तर प्रदेश तथा केरल ऐसे राज्य हैं, जहाँ सरकार ने भू-स्वामित्व के अधिकार स्वयं प्राप्त कर लिए और काश्तकारों को छूट दे दी कि वे चाहें तो निर्धारित मुआवजा देकर मालिक बन जाएँ अथवा सामान्य लगान देकर खेती करते रहें। अनुमान है कि अब तक 30 लाख काश्तकारों तथा बटाईदारों को 70 लाख एकड़ भूमि का स्वामित्व प्राप्त हो चुका है। इस दिशा में प्रगति जारी है। III. जोतों का सीमा-निर्धारण 1. चकबन्दी- योजना आयोग प्रारम्भ से ही चकबन्दी कार्यक्रम को सर्वोच्च प्राथमिकता के पक्ष में | रहा है। सरल शब्दों में, कई छोटे-छोटे और बिखरे हुए खेतों को एक बड़े खेत में बदलना ही चकबन्दी (Consolidation) कहलाता है। भारत में चकबन्दी की प्रगति बड़ी मन्द रही है। अब तक लगभग 640.8 लाख हेक्टेयर भूमि की ही चकबन्दी की जा सकी है। चकबन्दी से भूमि के विखण्डन की समस्या सुलझी है तथा कृषि-उपज में भी वृद्धि हुई है। दु:ख का विषय है कि अनेक राज्यों ने चकबन्दी का कार्य बन्द कर दिया है। 2. भूमि के प्रबन्धन में सुधार- भूमि-सुधार के अन्तर्गत प्रथम व द्वितीय योजना में भूमि के कुशल प्रबन्ध पर बल दिया गया। इसके अन्तर्गत भूमि को समतल बनाना, कृषि-योग्य बंजर भूमि का विकास, बीजों की उन्नत किस्मों का प्रयोग, खाद व औजार आदि का प्रयोग व रोगों से रोकथाम आदि कार्य आते हैं। इस दिशा में अभी तक हुई प्रगति विशेष उत्साहवर्द्धक नहीं रही है। 3. सहकारी खेती– देश के कृषि ढाँचे का पुनर्गठन सहकारिता के आधार पर किया जा रहा है, अत: पंचवर्षीय योजनाओं में भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण में सहकारी खेती के महत्त्व पर विशेष जोर दिया गया। प्रथम पंचवर्षीय योजना के अन्त में देश में कुल 1,000 सहकारी कृषि समितियाँ थीं। सन् 1959 ई० के नागपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने संयुक्त सहकारी खेती को कृषि सुधार का अन्तिम लक्ष्य घोषित किया। फलतः सहकारी कृषि के विकास में गति आई। 4. भूमिहीनों को बसाना तथा भू-दान व ग्राम-दान आदि- भारत में भूमिहीन मजदूरों को बसाना एक जटिल समस्या
है। आज भी ग्रामीण जनसंख्या का लगभग 19% अंश ऐसा है, जिसे हम ‘भूमिहीन श्रमिक’ (Landless Labour) कहकर पुकारते हैं। यद्यपि प्रथम पंचवर्षीय योजना में ही भूमिहीन मजदूरों को नई भूमि पर बसाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया था तथापि अभी तक यह समस्या पूर्णतः सुलझी नहीं है। आलोचनात्मक मूल्यांकन
वस्तुत: सत्य तो यह है कि हमारे देश में जो भी भूमि-सुधार सम्बन्धी कार्य हुए हैं, वे मन और उत्साह से नहीं किए गए हैं। इनके कारण कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गईं, जो सामाजिक न्याय एवं प्रगति की विरोधी हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि भूमि-सुधारों से सम्बन्धित अनिश्चितता एवं बाधाओं को शीघ्रातिशीघ्र दूर किया जाए तथा इन सुधारों को निष्ठापूर्वक लागू किया जाए, जिससे एक न्यायपूर्ण, शोषणरहित एवं अधिक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सके। सुझाव
प्रश्न 10. हरित क्रान्ति का अर्थ साधारण शब्दों में, हरित क्रान्ति से आशय सिंचित और असिंचित कृषि क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाली किस्मों को आधुनिक कृषि पद्धति से उगाकर कृषि उपज में यथासम्भव अधिकाधिक वृद्धि करने से है। जार्ज हरार के अनुसार-“हरित क्रान्ति से हमारा आशय पिछले दशक में विभिन्न देशों में खाद्यान्नों के उत्पादन में होने वाली आश्चर्यजनक वृद्धि से है। हरित क्रान्ति को जन्म देने वाले घटक
भारत में हरित क्रान्ति की असफलताएँ/कठिनाइयाँ यद्यपि उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरक, आधुनिक विकसित तकनीक आदि के प्रयोग द्वारा कृषि उत्पादकता में काफी वृद्धि हुई, तथापि व्यापक दृष्टि से कृषि के विभिन्न स्तरों पर क्रान्ति लाने में यह असफल रही है। भारत में हरित क्रान्ति की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित रहे हैं
हरित क्रान्ति को सफल बनाने के उपाय हरित क्रान्ति को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं
प्रश्न 11. कृषि विपणन का अर्थ कृषि विपणन की समस्या कृषि विकास की आधारभूत समस्या है। यदि कृषक को उसे उत्पादन की उचित मूल्य नहीं मिलता तो उसकी आर्थिक स्थिति कभी सुधर नहीं सकती। कृषि विपणन एक व्यापक शब्द है। इसके अन्तर्गत बहुत-सी क्रियाएँ आती हैं; जैसे—कृषि पदार्थों का एकत्रीकरण, श्रेणी विभाजन विधायन, संग्रहण, परिवहन, विपणन के लिए वित्त, पदार्थों को अन्तिम उपभोक्ताओं तक पहुँचाना तथा इन सम्पूर्ण क्रियाओं में निहित जोखिम उठाना आदि। इस प्रकार विपणन के अन्तर्गत उन संमस्त क्रियाओं का समावेश किया जाता है, जिनको सम्बन्ध कृषि उत्पादन के कृषक के पास से अन्तिम उपभोक्ताओं तक पहुँचाने से होता है। भारत में कृषि पदार्थों के विपणन की वर्तमान व्यवस्था भारत में किसान अपनी उपज को निम्नलिखित ढंग से बेचता है- 1. गाँव में बिक्री–भारत में कृषि-उत्पादन का अधिकांश भाग प्रायः गाँव में ही बेच दिया जाता है। ग्रामीण साख सर्वेक्षण समिति इस निष्कर्ष पर पहुँची है कि कुल फसल का लगभग 65% भाग उत्पत्ति के स्थान पर ही बेच दिया जाता है। इसके अतिरिक्त 15% भाग गाँव के बाजार में,
14% भाग व्यापारियों व कमीशन एजेण्टों को तथा शेष 6% अन्य पद्धतियों से बेचे जाने का अनुमान है। ग्रामीण बाजार में फसल की बिक्री मुख्यत: तीन रूपों में होती है गाँव में ही बेच दें। गाँव में फसल की बिक्री के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं- 2. मण्डियों में बिक्री- भारत में अधिकांश किसान अपनी फसल गाँवों में नहीं बेचते, वे मण्डियों में अपनी फसल बेचा करते हैं। भारत में लगभग 6,700 मण्डियाँ हैं। भारत में दो प्रकार की मण्डियाँ पायी जाती हैं–नियमित तथा अनियमित। नियमित मण्डियाँ प्रायः निजी व्यक्तियों, संस्थाओं अथवा मण्डलों द्वारा संचालित होती हैं। अनयिमित मण्डियों में, जहाँ उनका प्रबन्ध निजी व्यक्तियों के हाथ में होता है, प्राय: सभी प्रकार की अनियमितताएँ होती हैं और मध्यस्थ फसल का अधिकांश भाग हड़प लेते हैं। नियमित मण्डियों में किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य मिल जाता है क्योंकि इनकी व्यवस्था राज्य सरकारों द्वारा की जाती है। केन्द्रीय विपणन निदेशालय इस सम्बन्ध में राज्यों का पथ-प्रदर्शन करता है। 3. सहकारी समितियों द्वारा बिक्री– देश में कृषि उपज की बिक्री की दृष्टि से सहकारी विपणन समितियों (Co-operative Marketing Societies) की स्थापना की गई है, जो अपने सदस्यों के कृषि उत्पादन को एकत्रित करके उसे बड़ी मण्डियों में बेचती हैं। 4. सरकार द्वारा क्रय- गत् कुछ वर्षों से सरकार भी कृषि पदार्थों का क्रय करने लगी है। सन् 1973 ई० में सरकार द्वारा गेहूँ के थोक-व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर लेने से कृषि-विपणन में सरकारी एजेन्सियों का महत्त्व बढ़ गया है। प्रश्न
12. 2. संगठन का अभाव- भारतीय कृषकों में संगठन का अभाव है, जबकि क्रेता पूर्ण रूप से संगठित होते हैं। अतः असंगठित कृषक अपनी उपज का उचित मूल्य प्राप्त नहीं कर पाते। 3. मध्यस्थों की अधिकतम संख्या– कृषि विपणन में बहुत अधिक मध्यस्थ हैं। उपभोक्ता तथा उत्पादक (कृषक) के बीच मध्यस्थों की एक लम्बी लाइन होती है, जो सभी अपनी-अपनी सेवा का कुछ-न-कुछ लेते हैं। राष्ट्रीय नियोजन समिति ने इन मध्यस्थों को कृषक की निर्धनता का एक महत्त्वपूर्ण कारण माना है। 4. श्रेणीकरण का अभाव- भारतीय कृषक अपनी उपज का श्रेणीकरण तथा प्रमापीकरण नहीं करते। समस्त पदार्थों को मिला-जुलाकर बेचते हैं, जिससे वस्तु को उचित मूल्य नहीं मिल पाता। 5. यातायात की असुविधा- ग्रामीण क्षेत्रों में अभी तक यातायात व परिवहन की सुविधाओं का आवश्यक विकास नहीं हुआ है, परिणामतः कृषक गाँवों में ही अपनी उपज बेचने के लिए बाध्य होता है। यातायात की सुविधाओं के अभाव में मध्यस्थों की संख्या में भी वृद्धि हो जाती है। 6. अपर्याप्त एवं अवैज्ञानिक गोदामों की व्यवस्था- भारत में किसानों की उपज के उचित संग्रह हेतु प्रायः कोई सुविधा प्राप्त नहीं होती। वे नमी, धूप, हवा तथा धूल आदि से उपज की रक्षा नहीं कर पाते। चूहे, दीमक आदि भी फसल को नष्ट करते रहते हैं, जिससे प्रतिवर्ष 20 लाख टन उत्पादन नष्ट हो जाता है। भण्डारों की सुविधा न होने के कारण किसानों को अपनी उपज तुरन्त बेच देनी पड़ती है। 7. बाजार में प्रचलित बुराइयाँ तथाअनुचित कटौतियाँ– अनियमित मण्डियों में और कभी-कभी नियमित मण्डियों में विविध प्रकार की कुचालें तथा बेईमानियाँ पायी जाती हैं। राष्ट्रीय नियोजन समिति ने ग्रामीण बिक्री तथा वित्त सम्बन्धी प्रतिवेदन में निम्नलिखित कार्यवाहियों का उल्लेख विशेष रूप से किया है|
8. कीमतों के बारे में सूचना का अभाव- यातायात, परिवहन तथा संचार सुविधाओं के अभाव व अशिक्षा के कारण किसानों को मण्डी में प्रचलित अथवा सम्भावित कीमतों की सूचना नहीं मिलती और व्यापारी तथा महाजन झूठी सूचनाएँ देकर उन्हें ठग लेते हैं। 9. अन्य दोष-
कृषि उपज की विपणन व्यवस्था को सुधारने के लिए सुझाव 1. कृषक को महाजन-साहूकार के चंगुल से निकालने के
लिए सस्ते ब्याज की दर पर वित्तीय | सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ। प्रश्न 13. उपदान के पक्ष में तर्क
अपदान के विपक्ष में तर्क 1. उपदान पर दी जाने वाली राशि में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। इसका सरकारी बजट पर भारी बोझ पड़ता है।
3. उपदान के वितरण में भारी विषमताएँ विद्यमान हैं। इससे आर्थिक विषमताएँ भी बढ़ने लगती हैं। प्रश्न 14. 2. देशी बैंकर- देशी बैंकर दो प्रकार के कार्य करते हैं-बैंकिंग कार्य तथा गैर-बैंकिंग कार्य। बैंकिंग कार्यों में निक्षेपों को स्वीकार करना, ऋण देना तथा हुण्डियों में व्यवसाय सम्मिलित होता है। ये , ऋणों पर-ऊँची ब्याज दर लेते हैं। 3. सरकार- कृषि-वित्त की आवश्यकताओं को देखते हुए सरकार ने अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन ऋण की व्यवस्था की है। ये ऋण ‘तकावी ऋण’ कहे जाते हैं। सरकार भू-सुधार ऋण अधिनियम, 1883 के अनतर्गत दीर्घकालीन ऋण तथा कृषक ऋण अधिनियम, 1884 के अधीन अल्पकालीन ऋण प्रदान करती है। दीर्घकालीन ऋण भूमि पर स्थायी सुधार के उद्देश्य से प्रदान किए जाते हैं, जबकि अल्पकालीन ऋण कृषि सम्बन्धी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति अथवा अकाल, बाढ़ या अन्य किसी कारण से फसल नष्ट होने पर दिए जाते हैं। सरकार इन ऋणों पर बहुत कम ब्याज लेती है। परन्तु फिर भी ये ऋण अधिक प्रभावशाली तथा लोकप्रिय नहीं हैं। 4. सहकारी समिति- इन समितियों का उद्देश्य कृषि विकास के लिए कम ब्याज की दर पर पर्याप्त साख सुविधाएँ प्रदान करना है। ये समितियाँ अल्पकालीन तथा मध्यकालीन ऋणों के अतिरिक्त अनुत्पादक ऋण भी प्रदान करती हैं। ऋण प्रदान करने के अतिरिक्त इन समितियों का । उद्देश्य किसानों में बचत आन्दोलन को प्रोत्साहित करना एवं उनका मानसिक व नैतिक उत्थान करना भी है। 5. व्यापारिक बैंक- राष्ट्रीयकरण के बाद कृषि साख के क्षेत्र में व्यापारिक बैंकों का योगदान निरन्तर बढ़ा है। ये बैंक कृषि विस्तार के लिए अल्पकालीन एवं मध्यकालीन ऋण प्रदान करते हैं। 6. भारतीय स्टेट बैंक- स्टेट बैंक तथा उसके सहायक बैंक सहकारी संस्थाओं के माध्यम से कृषि क्षेत्र को उदारता के साथ साख प्रदान कर रहे हैं। कृषि साख के क्षेत्र में स्टेट बैंक निम्नलिखित प्रकार से योगदान करता है
7. भूमि बन्धक अथवा भूमि विकास बैंक-ये बैंक भूमि की जमानत पर किसानों को दीर्घकालीन ऋण देते हैं। ये बैंक उत्पादक तथा अनुत्पादक दोनों प्रकार का ऋण प्रदान करते हैं। 8. भारतीय रिजर्व बैंक- यह बैंक किसानों को प्रत्यक्ष रूप से सात प्रदान न करके सहकारी बैंकों के माध्यम से साख प्रदान करता है। रिजर्व बैंक अल्पकालीन साख या तो पुनर्कटौती के रूप में अथवा अग्रिमों के रूप में प्रदान करता है। रिजर्व बैंक दीर्घकालीन ऋण भी प्रदान करता है। ये ऋण राज्य सरकारों को दिए जाते हैं, जिससे वे सहकारी साख संस्थाओं के शेयर क्रय कर सकें। इसके अतिरिक्त रिजर्व बैंक केन्द्रीय भूमि बन्धक बैंकों के ऋण-पत्र भी खरीद सकता है। 9. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक- ये बैंक ग्रामीण क्षेत्रों के छोटे किसानों, सामान्य कारीगरों तथा भूमिहीन श्रमिकों की साख सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। ये कृषकों को उपकरण, यन्त्र और पशु खरीदने तथा गोबर गैस संयन्त्र लगाने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं। 10. कृषि व ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक (NABARD)-12 जुलाई, 1982 ई० से कृषि एवं ग्रामीण विकास के लिए
राष्ट्रीय बैंक (NABARD) की स्थापना की गई, जो कृषि के लिए
प्रश्न 15. औद्योगीकरण का अर्थ औद्योगीकरण से आशय विज्ञान एवं तकनीक की सहायता से नवीन उपयोगिताओं या मूल्यों के निर्माण से लगाया जाता है। जब उद्योगों की श्रृंखला व्यापक रूप धारण कर लेती है, तो यह प्रक्रिया बन जाती है, जिसे ‘औद्योगीकरण’ कहते हैं। संकुचित अर्थ में, औद्योगीकरण से आशय निर्माण उद्योगों की स्थापना से है परन्तु व्यापक अर्थ में औद्योगीकरण की प्रक्रिया केवल निर्माण उद्योगों की स्थापना तक ही सीमित नहीं है, वरन् इसके द्वारा किसी भी राष्ट्र की सम्पूर्ण आर्थिक संरचना को परिवर्तित किया जा सकता है। उत्पादन के प्रकार के आधार पर बड़े पैमाने के उद्योगों का वर्गीकरण उत्पादन के प्रकार के आधार पर
बड़े पैमाने के उद्योगों को मोटे तौर पर चार प्रमुख श्रेणियों में वर्गीकृत । किया जा सकता है 2. पूँजी वस्तु उद्योग- पूँजी वस्तु उद्योग वे उद्योग होते हैं, जो सभी उद्योगों एवं कृषि के लिए मशीनरी व उपकरणों का उत्पादन करते हैं। इन उद्योगों में मशीनी औजार, ट्रैक्टर, बिजली के ट्रान्सफॉर्मर, मोटरवाहन आदि सम्मिलित हैं। 3. मध्यवर्ती वस्तु उद्योग- ये उद्योग उन वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, जो किन्हीं दूसरे उद्योगों की उत्पादन प्रक्रिया में प्रयोग की जाती हैं अथवा उद्योगों में पूँजी वस्तुओं के सहायक उपकरणों में प्रयोग की जाती हैं; जैसे-ऑटोमोबाइल, टायर्स और पेट्रोलियम-रिफाइनरी उत्पाद। । 4. उपभोक्त वस्तु उद्योग- ये उद्योग ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, जिनको प्रत्यक्ष रूप से उपभोग किया जाता है; जैसे-वस्त्र, चीनी, कागज, बाइसिकल आदि। उत्पादन के स्वामित्व के आधार पर बड़े पैमाने के उद्योगों का वर्गीकरण उत्पादन के स्वामित्व के आधार पर देश के बड़े पैमाने के उद्योगों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है
भारतीय उद्योगों के पिछड़ेपन के कारण या भारतीय उद्योगों में निम्न उत्पादकता के कारण स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में अपेक्षित औद्योगिक विकास नहीं हो सका था। इसका मुख्य कारण ब्रिटिश सरकार की भारत पर थोपी गई दोषपूर्ण आर्थिक नीति थी। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने इस ओर विशेष ध्यान दिया। सन् 1948 ई० में संसद में भारत सरकार की प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा की गई, जिसमें समय-समय पर संशोधन किए जाते रहे। द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में भारत में विशाल स्तरीय एवं आधारभूत उद्योगों की स्थापना पर विशेष बल दिया गया। 67 वर्षों से निरन्तर औद्योगिक विकास पर बल देते रहने के बावजूद हमारा देश आज भी औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है। इसके मुख्य कारण अग्रलिखित हैं 1. प्रौद्योगिकी सुधार के लिए प्रेरणाओं का अभाव- भारतीय उत्पादन तकनीक अभी भी पिछड़ी है। भारतीय उद्यमी नवीनतम तकनीक को अपनाने के लिए पर्याप्त रूप से प्रेरित नहीं हो पाते। इसका कारण अभी भी पर्याप्त नियन्त्रणों का पाया जाना है। 2. स्थापित क्षमता का पूर्ण उपयोग न होना- उद्योग अपनी स्थापित क्षमता के 75% भाग को भी | उपयोग नहीं कर पाते हैं, इससे अपव्यय बढ़ जाते हैं। 3. पूँजीगत व्ययों में वृद्धि- भारतीय उद्योगों में पूँजीगत व्यय अत्यधिक ऊँचे हैं, जिसके कारण इन उद्योगों की लाभदायकता का स्तर नीचे गिर गया है। 4. अनुसन्धान एवं विकास कार्यक्रमों का अभाव- उद्योगों का आकार छोटा होने तथा वित्तीय सुविधाओं की कमी के कारण इन उद्योगों में अनुसन्धान एवं विकास कार्यक्रम नहीं हो पाते हैं। 5. अनुत्पादक व्ययों की अधिकता- भारतीय उद्योगों में अनुत्पादक व्यय सामान्य से अधिक रहे हैं, जिसका प्रभाव लागत में वृद्धि व उत्पादकता की कमी के रूप में पड़ा है। 6. उपक्रमों के निर्माण में देरी– देश में उद्योगों की स्थापना में निर्धारित समय से अधिक समय लगता है। इन उद्योगों की कार्यकुशलता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और इनकी निर्माण लागत भी बढ़ जाती है। 7. वित्तीय सुविधाओं का अपर्याप्त होना– भारतं में औद्योगिक बैंकों की पर्याप्त संख्या में स्थापना नहीं हो पायी है, जिससे उद्योगों को समय पर वित्तीय सहायता उपलब्ध नहीं हो पाती। 8. अम-प्रबन्ध संघर्ष- भारत में औद्योगिक प्रबन्ध मधुर नहीं रहे हैं और आए दिन हड़ताल व तालाबन्दी होती रहती हैं। इनको औद्योगिक उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बड़े पैमाने के उद्योगों को प्रोत्साहन देने हेतु उठाए गए सरकारी कदम देश में औद्योगिक उत्पादकता को बढ़ाने, सभी को आधारभूत सुविधाएँ प्रदान करने और औद्योगिक वातावरण को सुदृढ़ करने के लिए बड़े पैमाने के उद्योगों की स्थापना की गई है। इन उद्योगों की स्थापना अधिकांशतः सार्वजनिक क्षेत्रों में की गई है, जिनमें बड़ी मात्रा में पूंजी निवेश किया गया है तथा बड़ी संख्या में श्रमिकों को रोज्गार दिया गया है। इन उद्योगों के विकास के लिए सरकार ने निम्नलिखित कदम उठाए हैं
प्रश्न 17. कुटीर उद्योग की परिभाषा राजकोषीय आयोग 1949-50 ने कुटीर उद्योगों को इस प्रकार परिभाषित किया है-“एक कुटीर उद्योग वह (उद्दा: । जो कि पूर्णतः अथवा अंशतः श्रमिक के परिवार की सहायता से पूर्णकालीन अथवा अल्पकालीन व्यबसाय के रूप में चलाया जाता है।” कुटीर उद्योगों में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं
लघु उद्योग की परिभाषा । जहाँ तक लघु उद्योग का प्रश्न है, लघु उद्योगों की परिभाषा विभिन्न दृष्टिकोणों से की गई है। राजकोषीय आयोग (Fiscal Commission), 1949-50 ने लघु उद्योगों को इस प्रकार परिभाषित किया है-“एक लघु उद्योग वह है, जो मुख्यत: किराए के श्रमिकों द्वारा, जिनकी संख्या 10 से 50 तक के मध्य होती है, चलाया जाता है।” लघु उद्योग मण्डल के अनुसार-“वे सभी उद्योग लघु उद्योग में शामिल किए जाते हैं, जिनमें यदि शक्ति का प्रयोग होता है, तब 50 श्रमिक और जब शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाता है, तब 100 श्रमिक तक मजदूरी पर रखे जाते हैं तथा जिनमें १ 3 लाख से कम की पूँजी लगी होती है।” उपर्युक्त परिभाषा में श्रमिकों की संख्या तथा पूँजी की मात्रा को परिभाषा का आधार बनाया गया था, परन्तु भारत सरकार ने केन्द्रीय लघु स्तरीय उद्योग बोर्ड (Central Small Scale Industries Board) के सुझावों को स्वीकार करके लघु उद्योगों की एक नवीन परिभाषा दी है, जिसमें श्रम तथा यन्त्रीकरण को आधार न मानकर मशीन तथा संयन्त्रों (Plant and Machinery) में किए गए विनियोग को ही आधार मना है। 1 मार्च, 1967 से उन सभी औद्योगिक इकाइयों को लघु इकाई माना गया है। जिनमें मशीनों तथा संयन्त्रों पर है 7.5 लाख से कम पूँजी लगाई गई हो। वर्ष 1999 में यह राशि १ 1 करोड़ और 2014 में यह राशि के 5 करोड़ है। इस परिभाषा में नियोजित श्रमिकों की संख्या पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर तथा लघु उद्योगों का महत्त्व इस तथ्य को आज भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि 67 वर्षों (स्वतन्त्रता के उपरान्त) से वृहत् स्तर के उद्योगों के विस्तार के बावजूद भारत अभी तक मुख्य रूप से लघु तथा कुटीर उद्योगों का देश है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर तथा लघु उद्योगों का विशिष्ट महत्त्व देखते हुए ही महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी, योजना आयोग तथा अन्य विभिन्न आयोगों ने एक स्वर से इनके
विकास पर बल दिया। गांधी जी के शब्दों में, भारत का मोक्ष उसके कुटीर उद्योगों में निहित है।” संक्षेप में, निम्नलिखित तथ्यों से कुटीर तथा लघु उद्योगों का महत्त्व स्वयमेव ही स्पष्ट हो जाता है 2. आय व सम्पत्ति के सम वितरण में सहायक– कुटीर तथा लघु उद्योग पूँजी-प्रधान नहीं होते, जिससे पूँजी के संकेन्द्रण, आर्थिक सत्ता के केन्द्रीकरण तथा आर्थिक शोषण की प्रवृत्तियाँ उभर नहीं पातीं। इसके विपरीत, देश में स्वतः ही आय और सम्पत्ति के समान वितरण को प्रोत्साहन मिलता है। 3. अल्प पूँजी उद्योग- कुटीर तथा लघु उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था में इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं कि ये उद्योग श्रम-प्रधान (Labour Intensive) उद्योग हैं, पूँजी-प्रधान नहीं। कम पूँजी से ही इन उद्योगों की स्थापना हो जाती है। 4. कृषि में सहायक- भारत में कृषि की अल्प उत्पादकता का एक मूल कारण कृषि-भूमि पर जनसंख्या का अत्यधिक दबाव है, जिसके कारण खेतों में उत्पादन अनार्थिक होता चला जा रहा है।अत: कृषि-विकास के लिए यह आवश्यक है कि वहाँ से अतिरिक्त मानव-श्रम को हटाया जाए। यह कार्य लघु तथा कुटीर उद्योगों द्वारा ही सम्भव है। अतः देश में उद्योगों का विकास होना आवश्यक है। 5. विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति- बड़े उद्योगों में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति पायी जाती है, जबकि इसके विपरीत, लघु तथा कुटीर उद्योग विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना करते हैं। आज के युग में विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का विशेष महत्त्व है। 6. कम सामाजिक लागत पर आर्थिक विकास– सामाजिक लागत से हमारा आशय उस व्यय से है, जो उत्पादन प्राप्त करने के लिए शेष समाज को करना पड़ता है। नगरों में सार्वजनिक स्वास्थ्य, जल, आवास तथा अन्य सुविधाओं पर किया जाने वाला व्यय इस मद के अन्तर्गत आता है। लघु तथा कुटीर उद्योग मुख्यत: गाँवों तथा छोटे नगरों में स्थापित किए जाते हैं। अत: इनकी सामाजिक लागत कम आती है। 7. अन्य लाभ-
प्रश्न 18. बाजार यन्त्र का अर्थ बाजारे यन्त्र एक स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित अवधारणा है। यह आर्थिक संगठन की एक ऐसी प्रणाली है जिसके अन्तर्गत प्रत्ये व्यक्ति-उपभोक्ता, उत्पादक और उत्पत्ति के साधनों के स्वामी के रूप में पूर्ण स्वतंत्रता के साथ आर्थिक क्रियाओं को सम्पन्न करता है। प्रत्येक उपभोक्ता अपने लिए उपभोक्ता वस्तुओं के चुनाव में, प्रत्येक उत्पादक उत्पादन क्षेत्र के चुनाव में तथा प्रत्येक व्यवसयी अपना व्यवसाय चुनने में पूर्णतः स्वतन्त्र रहता है और प्रत्येक उत्पादक परस्पर लाभ के आधार पर माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा निर्धारित कीमतों पर इच्छित मात्रा में क्रय-विक्रय कर सकता है, बजार यन्त्र का प्रमुख कार्य वस्तुओं व सेवाओं की माँग व पूर्ति में सन्तुलन स्थापित करते हुए उत्पादन क्षमता व प्रदा को अधिकतम करना है। बाजार यन्त्र की असफलता बाजार यन्त्र पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में ही स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करता है, तभी साधनों का विवेकपूर्ण आवंटन सम्भव होता है। उत्पादक वर्ग उपभोक्ताओं की प्राथमिकताओं एवं रुचियों को बाजार यन्त्र के माध्यम से ही जान पाता है और समाज में उसी के आधार पर उत्पादन की मात्रा और उसका स्वरूप निर्धारित करता है। इसी आधार पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में कीमतें प्रतियोगितात्मक होती हैं और बाजार यन्त्र स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करता है। ऐसी दशा में साधनों का बँटवारा विवेकपूर्ण होता है और इस प्रकार बाजार यन्त्र अर्थव्यवस्था के संचालक का कार्य करता है। किन्तु बाजार यन्त्र का कार्यकरणे पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजर में ही सम्भव है। पूर्ण प्रतियोगिता एक आदर्श बाजार स्थिति है जो व्यवहार में कहीं नहीं पायी जाती। वास्तविकता यह है कि प्रत्येक बाजार में अपूर्णताएँ पायी जाती हैं जिसके कारण बाजार व्यवस्था का संचालन दोषपूर्ण हो जाता है। बाजार व्यवस्था के असफल रहने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
राज्य की भूमिका बाजार के उपर्युक्त दोषों के कारण बाजार यन्त्र के स्वतन्त्र कार्यकरण में बाधा पड़ी है। अत: अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। आधुनिक युग में सरकार अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करने लगी
है; जैसे-आन्तरिक सुशासन, न्याय एवं व्यवस्था, बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा, सार्वजनिक निर्माण कार्य, खोज एवं अनुसन्धान, अनुदान एवं आर्थिक सहायता आदि। इस प्रकार आर्थिक क्षेत्र में सरकार की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण एवं व्यापक हो गई है।
योजनाकाल में सरकार भी बचतकर्ता के रूप में पूर्णतः असफल रही। राजकोषीय घाटा बढ़ता रहा और साथ ही लोक व्यय भी। लोक व्यय में अनुत्पादक व्यय की राशि अधिक रही। दूसरे, सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार होता रहा। इसके फलस्वरूप आन्तरिक ऋण में
वृद्धि हुई और अर्थव्यवस्था ऋण-जाल में फँस गई। अतः 1980 के दशक में सरकार की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन किया जाने लगा और सरकार की असफलताएँ उजागर होने लगीं। जो परिणाम सामने आए, वे थे–विकास की धीमी गति, बचत दर में गिरावट, मुद्रास्फीति की ऊँची दर ऋणों में तीव्र वृद्धि, निर्धनता एवं बेरोजगारी की व्यापकता आदि। अतः राजनीति बदलकर हस्तक्षेपवादी बन गई। इसमें आयात प्रतिस्थापन पर बल दिया गया, आयातों पर संरक्षण शुल्क लगाए गए, सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका बढ़ाई गई और निजी क्षेत्र को नियमित एवं नियन्त्रित किया
गया। प्रश्न 19.
2. कुटीर तथा लघु उद्योग- सरकार कुटीर उद्योगों के विकास के लिए हर सम्भव सहायता देगी। सहायता कार्यक्रमों में इनकी वित्तीय तथा प्राविधिक कठिनाइयों का निवारण, औद्योगिक बस्तियों का विस्तार, ग्रामीण क्षेत्र में कार्यशालाओं की स्थापना, विद्युत सुविधाओं का विस्तार, औद्योगिक सहकारी समितियों का गठन, प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता आदि को शामिल किया गया। 3. निजी क्षेत्र का दायित्व– निजी क्षेत्र योजना आयोग द्वारा निर्धारित आर्थिक नीतियों तथा कार्यक्रमों के अनुसार कार्य करेगा और सरकार निजी क्षेत्र को बिना किसी भेदभाव के सहायता प्रदान करेगी। अन्य प्रावधान
प्रश्न 20. (अ) नीतिगत विशेषताएँ 1. उदार औद्योगिक लाइसेन्सिग नीति– इस नीति के अन्तर्गत केवल 18 उद्योगों को छोड़कर अन्य सभी उद्योगों के लिए लाइसेन्सिग व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। इन उद्योगों में कोयला, पेट्रोलियम, चीनी, चमड़ा, मोटरकार, बसें, कागज तथा अखबारी कागज, रक्षा उपकरण, औषध तथा भेषज शामिल हैं। वर्तमान में इनकी संख्या 6 रह गई। 2. विदेशी विनियोग को प्रोत्साहन- अधिकाधिक पूँजी विनियोग और उच्चस्तरीय तकनीक की आवश्यकता वाले उच्च प्राथमिकता प्राप्त उद्योगों में विदेशी पूँजी विनियोग को प्रोत्साहित करने पर बल दिया गया। ऐसे 34 उद्योगों में बिना किसी रोक-टोक तथा लालफीताशाही के 51% तक विदेशी पूँजी के विनियोग की अनुमति दी जाएगी। 3. विदेशी तकनीक- कुछ निश्चित सीमाओं के अन्तर्गत उच्च प्राथमिकता वाले उद्योगों में तकनीकी समझौतों को स्वतः स्वीकृति प्रदान की जाएगी। यह व्यवस्था घरेलू बिक्री पर दिए जाने वाले 5%कमीशन और निर्यात पर दिए जाने वाले 8% कमीशन पर भी लागू होगी। 4. सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका- ऐसे सार्वजनिक उपक्रमों को अधिक सहायता प्रदान की जाएगी जो औद्योगिक अर्थव्यवस्था के संचालन के लिए आवश्यक हैं। वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या 3 है। (ब) प्रक्रियात्मक विशेषताएँ 1. विद्यमान पंजीकरण योजनाओं की समाप्ति– औद्योगिक इकाइयों के पंजीयन के सम्बन्ध में विद्यमान सभी योजनाएँ समाप्त कर दी गई हैं। 2. स्थानीकरण नीति- ऐसे उद्योगों को छोड़कर, जिनके लिए लाइसेन्स लेना अनिवार्य नहीं है, 10 लाख से कम जनसंख्या वाले नगरों में किसी भी उद्योग के लिए औद्योगिक अनुमति की आवश्यकता नहीं है। 3. विदेशों से पूँजीगत वस्तुओं का आयात– विदेशी पूँजी के विनियोग वाली इकाइयों पर पुर्जे, कच्चे माल सृथा तकनीकी ज्ञान के आयात के मामले में सामान्य नियम लागू होंगे, किन्तु रिजर्व बैंक विदेशों में भेज़े गए लाभांश पर दृष्टि रखेगा। 4. व्यापारिक कम्पनियों में विदेशी अंश पूँजी– अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता को बढ़ाने की दृष्टि से निर्यातक व्यापारिक कम्पनियों में भी 51% तक विदेशी पूँजी के विनियोग की अनुमति दी जाएगी। 5. सार्वजनिक उपक्रमों का कार्यकरण– निरन्तर वित्तीय संकट में रहने वाले सार्वजनिक उपक्रमों की जाँच औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड (BIFR) करेगा। छंटनी किए गए कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना बनाई जाएगी। 6. विद्यमान इकाइयों का विस्तार एवं विविधीकरण- विद्यमान औद्योगिक इकाइयों को नई विस्तृत पट्टी की सुविधा दी गई है। विद्यमान इकाइयों का विस्तार भी पंजीयन से मुक्त रहेगा। अन्य विशेषताएँ
We hope the UP Board Solutions for Class 11 Economics Indian Economic Development Chapter 2 Indian Economy 1950-1990 (भारतीय अर्थव्यवस्था (1950-1990)) help you. निजीकरण से आप क्या समझते हैं निजीकरण के पक्ष में तर्क दीजिए?सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के प्रकार एवं उनकी भूमिका तथा वैश्विक उद्यम के बारे में भी अध्ययन करेंगे। कर रहे हैं, फिर चाहे वे निजी, सार्वजनिक अथवा भूमंडलीय हों। जैसा कि आप पहले अध्याय में पढ़ चुके हैं, निजी क्षेत्र में व्यवसायों के स्वामी व्यक्ति होते हैं अथवा व्यक्तियों का समूह।
निजीकरण क्या है इसके क्या उद्देश्य है भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव की विवेचना कीजिए?निजीकरण के उद्देश्य
अर्थव्यवस्था की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के आवश्यक वित्तीय संसाधनों को जुटाना। प्रबंधकीय योग्यता और दक्षता प्रदान करना। राष्ट्रीय आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं के अनुरूप निजी क्षेत्र की उत्पादन-क्रियाओं को सार्वजनिक क्षेत्र के साथ समन्वित करना।
निजीकरण से आप क्या समझते हैं बताइए?निजीकरण व्यवसाय, उद्यम, एजेंसी या सार्वजनिक सेवा के स्वामित्व के सार्वजनिक क्षेत्र (राज्य या सरकार) से निजी क्षेत्र (निजी लाभ के लिए संचालित व्यवसाय) या निजी गैर-लाभ संगठनों के पास स्थानांतरित होने की घटना या प्रक्रिया है।
निजीकरण से क्या तात्पर्य है भारत में निजीकरण को प्रभावित करने वाले कारकों की व्याख्या कीजिए?हमारा विश्लेषण स्पष्ट रूप से दावे के साथ कहता है कि सीपीएसई की कार्यनीतिक बिक्री के माध्यम से विनिवेश इन उपक्रमों को निवल संपत्ति, लाभप्रदता, विक्रय वृद्धि, दक्षता और अपने हितधारकों को लाभ देने की शर्तों पर बेहतर निष्पादन द्वारा प्रदर्शित संपत्ति सृजन के सामर्थ्य के द्वार खोल देता है।
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