मृत्यु भोज क्यों नहीं करना चाहिए? - mrtyu bhoj kyon nahin karana chaahie?

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मृत्यु भोज क्यों नहीं करना चाहिए? - mrtyu bhoj kyon nahin karana chaahie?

मृत्युभोज क्यों नहीं खाना चाहिए? आप भी जानिए

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मृत्युभोज का सामान्य अर्थ परीवार में से किसी की भी सदस्य की मृत्यु होने पर प्रतिभोज करना पडता है, इसे ही मृत्युभोज कहते है!
आखिर क्यों नहीं खाना चाहिए मृत्युभोज
सभी धर्मों में अनेको कुरीतियाँ प्रचलित होती है और हिन्दू धर्म में भी ऐसी ही अनेकों कुरीतियाँ प्रचलित है जिनका कोई भी तर्क मौजूद नहीं है लेकिन फिर भी वे वर्तमान में भी अनवरत जारी है। मृत्युभोज भी एक ऐसी ही कुरीति है जिसे वर्तमान में बंद किये जाने की आवश्यकता है। मृत्युभोज खाने एवं खिलने की परम्परा हजारो सालो से कायम है लेकिन आज हम आपको बताएंगे की आखिर क्यों मृत्युभोज नहीं खाना चाह
हिन्दू धर्म में मुख्य 16 संस्कार बनाए गए है, जिसमें प्रथम संस्कार गर्भाधान एवं अन्तिम तथा 16वाँ संस्कार अन्त्येष्टि है।


मृत्यु भोज क्यों नहीं करना चाहिए? - mrtyu bhoj kyon nahin karana chaahie?

वास्तुशास्त्र एक ऐसा विज्ञान है, जो व्यक्ति के आसपास के वातावरण के अनुसार ही उसकी सफलता और असफलता निर्धारित करता है।

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वास्तुशास्त्र एक ऐसा विज्ञान है, जो व्यक्ति के आसपास के वातावरण के अनुसार ही उसकी सफलता और असफलता निर्धारित करता है। ये लाइफ के हर पहलू पर अपनी छाप छोड़ता है। इसका सबसे बड़ा इम्पैक्ट देखने को मिलता है भोजन पर। महाभारत के अनुशासन पर्व में आए एक प्रसंग के अनुसार, महाभारत युद्ध से पहले श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जाकर संधि करने को कहा। हर तरह से तर्क-वितर्क करने के बाद जब दुर्योधन टस से मस नहीं हुआ तो श्री कृष्ण वापिस जाने लगे। दुर्योधन ने उन्हें भोजन करने के लिए कहा तब श्रीकृष्ण ने कहा, ‘सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’ 

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अर्थात- हे दुर्योधन, जब खिलाने वाले और खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए लेकिन जब दोनों के दिल में दर्द और पीड़ा हो ऐसी स्थिती में कभी भी भोजन नहीं करना चाहिए।

महाभारत की इस कथा को बुद्धिजीवियों ने मृत्युभोज यानि तेरहवीं से जोड़ा है। जिसके अनुसार जब किसी सगे-संबंधी की मृत्यु हो जाती है। उस समय तेरहवीं पर आने वालों और जिनके घर में मौत हुई है, दोनों के मन में विरह का दर्द होता है। ऐसे में भोजन करवाने वाला और करने वाला दोनों ही दुखी होते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं, शोक में करवाया गया भोजन व्यक्ति की ऊर्जा का नाश करता है। अत: मृत्युभोज या तेरहवीं पर भोजन नहीं खाना चाहिए। 

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गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है ‘आत्मा अजर, अमर है, आत्मा का नाश नहीं हो सकता, आत्मा केवल युगों-युगों तक शरीर बदलती है।’

किसी भी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने के बाद हिंदू संस्कृति में बहुत सारे संस्कार किए जाने का विधान है। जिनमें से किसी की मृत्यु के तेरहवें दिन भोजन करवाए जाने का विधान है। दशकों पहले तो केवल ब्राह्मणों को भोजन करवाया जाता था लेकिन आज के बदलते दौर में मृत्युभोज आयोजित किया जाता है।

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क्या मृत्यु भोज खाना पाप है?

शास्त्रों में मृत्यु भोज वर्जित है। महाभारत में एक वाक्या मिलता है जिसमें कृष्ण कहते हैं कि कहीं भोजन करने तब भोजन कराने वाले और भोजन करवाने वालों का मन प्रसन्न हो । दु:ख के समय किसी को कहीं भोजन करने नहीं जाना चाहिये । कहीं कहीं तोमृत्यु वाले घर को सूतक लग मान कर लोग भोज में नहीं जाते ।

तेरहवीं का खाना क्यों नहीं खाना चाहिए?

श्रीकृष्ण कहते हैं, शोक में करवाया गया भोजन व्यक्ति की ऊर्जा का नाश करता है। अत: मृत्युभोज या तेरहवीं पर भोजन नहीं खाना चाहिए। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है 'आत्मा अजर, अमर है, आत्मा का नाश नहीं हो सकता, आत्मा केवल युगों-युगों तक शरीर बदलती है।

मृत्यु भोज क्यों बंद होना चाहिए?

निर्धनों पर आर्थिक बोझ है मृत्युभोज, यह बंद हो यह कुप्रथा शोक की ऐसी लहर है, जो निर्धन व्यक्ति पर आर्थिक बोझ बनकर उसे कर्ज की ओर ले जाती है। इसलिए यह सामाजिक कुप्रथा बंद होनी चाहिए क्योंकि यह एक 'रूढ़िवादी कुप्रथा' है। जिसका कहीं कोई उल्लेख अथवा प्रमाण मौजूद नहीं है।

मृत्यु के बाद तेरहवीं क्यों की जाती है?

आत्मा को मृत्युलोक से यमलोक पहुंचने में एक साल का समय लगता है. माना जाता है कि परिजनों द्वारा 13 दिनों में जो पिंडदान किया जाता है, वो एक वर्ष तक मृत आत्मा को भोजन के रूप में प्राप्त होता है. तेरहवीं के दिन कम-से-कम 13 ब्राह्मणों को भोजन कराने से आत्मा को प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है.