मंडल आयोग का गठन क्यों किया गया उसकी मुख्य सिफारिशें क्या थी? - mandal aayog ka gathan kyon kiya gaya usakee mukhy siphaarishen kya thee?

आजादी के बाद के सामाजिक न्याय का इतिहास : पी.एस. कृष्णन की जुबानी, भाग – 19

(भारत सरकार के नौकरशाहों में जिन चंद लोगों ने अपने को वंचित समाज के हितों के लिए समर्पित कर दिया, उसमें पी.एस. कृष्णन भी शामिल हैं। वे एक तरह से आजादी के बाद के सामाजिक न्याय के जीते-जागते उदाहरण हैं। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने सामाजिक न्याय संबंधी अपने अनुभवों को डॉ. वासंती देवी के साथ साझा किया। वासंती देवी मनोनमनियम सुन्दरनर विश्वविद्यालय, तमिलनाडु की कुलपति रही हैं। संवाद की इस प्रक्रिया में एक विस्तृत किताब सामने आई, जो वस्तुतः आजादी के बाद के सामाजिक न्याय का इतिहास है। फारवर्ड प्रेस की इस किताब का हिंदी अनुवाद प्रकाशित करने की योजना है। हम किताब प्रकाशित करने से पहले इसके कुछ हिस्सों को सिलसिलेवार वेब पाठकों को उपलब्ध करा रहे हैं। आज की कड़ी में हम प्रस्तुत कर रहे हैं मंडल कमीशन के गठन से लेकर लागू होने तक की कहानी खुद पी.एस. कृष्णन की जुबानी – संपादक)

(गतांक से आगे)


वासंती देवी : अब हम सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग की बात करें। मंडल आयोग की रपट को लागू करवाने में आपकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। क्या आप यह बताएंगे कि विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने क्यों और किस तरह मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया और इसमें आपकी क्या भूमिका थी? हम यह भी चाहेंगे कि आप इस निर्णय के कटु विरोध और उसके निहितार्थों पर अपनी बात रखें?

पी.एस. कृष्णन : संविधान के अनुच्छेद 340(1) व 15(4) के प्रावधानों के बावजूद, केन्द्र सरकार ने शैक्षणिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को वंचित वर्गों का दर्जा देने की मांग को लंबे समय तक नजरअंदाज किया। यह इस तथ्य के बावजूद कि तटीय प्रदेशों, विशेषकर दक्षिण भारतीय प्रदेशों, ने प्रांतीय/राजे-रजवाड़ों/राज्य सरकारों के शासन के दौरान स्वतंत्रता के पूर्व ही उन्हें यह मान्यता दे दी थी और उनके अंतर्गत सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानोें, व विशेषकर व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा प्रदान करने वाले उच्च शैक्षणिक संस्थानों में उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी। काका कालेलकर आयोग (1953-55) व मंडल आयोग (1970-80), जिसकी नियुक्ति का आदेश दिनांक 1 जनवरी 1979 को केन्द्रीय गृह मंत्रालय में अनुसूचित जाति व पिछड़ा वर्ग विकास व कल्याण के प्रभारी संयुक्त सचिव की हैसियत से मेरे हस्ताक्षर से जारी किया गया था, की अनुशंसाओं के बावजूद, केन्द्र सरकार ने सन् 1990 तक इस मामले में कोई कार्यवाही नहीं की।

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मंडल आयोग ने अपनी रपट दिनांक 31 दिसंबर 1980 को समर्पित कर दी थी। लगभग दस साल के अनुचित व अकारण विलंब के बाद, भारत सरकार ने अगस्त 1990 में मंडल आयोग की इस सिफारिश को मंजूर किया कि सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना चाहिए। वी.पी. सिंह सरकार में कल्याण मंत्रालय में सचिव बतौर मेरे दिनांक 1 मई 1990 के कैबिनेट नोट के आधार पर सरकार ने सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को मान्यता देने और उन्हें केन्द्र सरकार मेें सीधी भर्ती में 27 प्रतिशत आरक्षण देने का अहम व ऐतिहासिक निर्णय लिया। मंडल आयोग द्वारा 31 दिसंबर 1980 को अपनी रपट समर्पित कर देने के बाद के एक दशक में इस रपट के क्रियान्वयन से बचा जाता रहा। इसके लिए कई तरह के बहाने बनाए गए। मंत्रियों, सचिवों और मुख्यमंत्रियों की कई बैठकें आयोजित की गईं जिनका एकमात्र उद्धेश्य यह था कि ओबीसी को भारत सरकार में आरक्षण प्रदान करने से किसी भी प्रकार बचा जा सके। ऐसा करने के लिए कई आधारहीन आपत्तियां की गईं और बेहूदे प्रश्न उठाए गए। मंडल आयोग की रपट भुला दी गई थी। जब मैंने 2 जनवरी 1990 को कल्याण मंत्रालय में सचिव के रूप में कार्यभार संभाला तब मुझे लगा कि इसमें अभी भी कुछ जाना बाकी है। मैंने उसे पुनर्जीवित किया और संवैधानिक प्रावधानों व सामाजिक और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर पिछले दस साल में उठाई गई आपत्तियों का खंडन किया। दिनांक 6 अगस्त 1990 को देर रात इस विषय पर दो हिस्सों में श्री वी.पी. सिंह ने मंत्री श्री रामविलास पासवान और मेरे साथ लंबी चर्चा की और ओबीसी को आरक्षण देने का निर्णय किया। मैंने उनके उस जोशीले, मर्मस्पर्शी और गरिमापूर्ण भाषण को तैयार किया, जो उन्होंनेे 7 अगस्त 1990 को लोकसभा और 9 अगस्त 1990 को राज्यसभा में सरकार के निर्णय की घोषणा करते हुए दिया। उनके भाषण के दौरान विपक्ष द्वारा उठाए गए प्रश्नों और आपत्तियों का जवाब देने के लिए आवश्यक जानकारी मैंने अधिकारी दीर्घा से उन्हें उपलब्ध करवाई। ओबीसी को केन्द्र सरकार के अंतर्गत सेवाओं और केन्द्रीय संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने का औपचारिक आदेश ऑफिस मेमोरेंडम (ओएम) क्रमांक 36012/31/90-इस्टाबलिशमेंट (एससीटी) दिनांक 13 अगस्त 1990 को जारी किया गया (ओएम या आफिस मेमोरेंडम वही है, जिसे दक्षिण भारतीय राज्यों में जीओ या गवर्मेंट आर्डर कहा जाता है)।

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मेेरे दृढ़ निश्चय के कारण ओबीसी को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता और आरक्षण प्राप्त हो सका जो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। इस निर्णय का कटु विरोध हुआ और यहां तक कि कुछ शक्तिशाली नौकरशाहों ने मुझसे व्यक्तिगत शत्रुता पाल ली। श्री पीएस अप्पू, जो बिहार के मुख्य सचिव और लालबहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी (जो आईएएस व अन्य अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों को प्रारंभिक प्रशिक्षण प्रदान करती है) के महानिदेशक पद से सेवानिवृत्त थे, ने दिल्ली की अपनी यात्रा के दौरान मुझसे कहा कि ‘‘श्री कृष्णन, आप अब दिल्ली में पदस्थ ऐसे अधिकारी बन गए हैं जिन्हें सबसे ज्यादा गलत समझा जा रहा है।” यह शायद एक न्यूनोक्ति थी। मेरी सेवानिवृत्ति के पहले मुझे प्रताड़ित करने का प्रयास किया गया परंतु यह इसलिए सफल नहीं हो सका क्योंकि इसका कोई आधार या कारण नहीं था।

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भारत सरकार के इस आदेश के विरूद्ध अदालतों में रिट याचिकाओें की झड़ी लग गई। वी.पी. सिंह सरकार के गिरने के पहले की छोटी-सी अवधि में मैंने इन सभी रिट और जनहित याचिकाओं के जवाबी हलफनामे तैयार किए। इस कार्य में मुझे मेरे विभाग के अतिरिक्त सचिव श्री माता प्रसाद, जो उत्तरप्रदेश कैडर के एक कर्तव्यनिष्ठ दलित अधिकारी थे, का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ। इन सभी हलफनामों को तत्कालीन एटार्नी जनरल श्री सोली सोरबजी के जरिए उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया गया। मैंने श्री सोरबजी को ओबीसी के लिए आरक्षण प्रदान किए जाने के औचित्य के संबंध में पूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाई।

मेरे विचार से स्वतंत्र भारत के इतिहास में श्री वी.पी. सिंह के अतिरिक्त कोई अन्य ऐसा प्रधानमंत्री नहीं हुआ जो इस तरह का सकारात्मक और निर्णायक कदम उठा सकता था। उन्होंने तत्कालीन कैबिनेट सचिव, जो उनके विश्वासपात्र और कॉलेज के सहपाठी थे, के पूर्वाग्रहग्रस्त विचारों को नजरअंदाज किया। उस समय श्री रामविलास पासवान ने जो भूमिका अदा की वैसी भूमिका शायद ही कोई कल्याण/सामाजिक न्याय मंत्री निभा  सकता था और इस प्रक्रिया में मैंने जो योगदान दिया वह शायद कोई अन्य अधिकारी नहीं दे सकता था।

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तत्कालीन समाज कल्याण मंत्री रामविलास पासवान और प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह

मेरा एक महत्वपूर्ण सुझाव, जिसे मंत्री और प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया और जिसे ओबीसी को आरक्षण दिए जाने संबंधी आदेश में शामिल किया गया, वह यह था कि पहले चरण में ओबीसी सूची में वे जातियां या समुदाय शामिल होंगे, जो संबंधित राज्य की मंडल आयोग द्वारा तैयार सूची और उस राज्य की सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की सूची – दोनों में शामिल हाें। इससे कुछ ऐसी जातियों को आरक्षण की सूची से बाहर रखने में मदद मिली, जो स्पष्टतः सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी नहीं थीं। इसी कारण इस आरक्षण को न्यायपालिका द्वारा खारिज नहीं किया गया और वे रिट याचिकाएं निष्प्रभावी हो गईं जिनमें मंडल सूची में कुछ अगड़ी जातियों को शामिल किए जाने को चुनौती दी गई थी। मेरे इस सुझाव (जिसे सरकार के ऑफिस मेमोरेंडम में शामिल किया गया) के कारण हम अपने जवाबी हलफनामों में यह कह सके कि यद्यपि सरकार ने ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की मंडल आयोग की सिफारिश को मंजूर कर लिया है तथापि इस निर्णय के लाभार्थियों में मंडल आयोग की सूची में वही जातियां शामिल हैं, जो संबंधित राज्यों की सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी जातियों की सूची में हैं। राज्यों की सूची को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं को उच्चतम न्यायालय पहले ही खारिज कर चुका था। इनमें शामिल था सन् 1968 का तमिलनाडु का माईनर राजेन्द्रन प्रकरण।

उच्चतम न्यायालय द्वारा 16 नवंबर 1992 को सुनाए गए अपने ऐतिहासिक फैसले में ओबीसी को आरक्षण प्रदान करने के निर्णय की संवैधानिक वैधता को स्वीकार कर लेने के बाद मुझे पिछड़े वर्गों पर विशेषज्ञ समिति का सदस्य नियुक्त किया गया। मुख्यतः मेरे द्वारा प्रदत्त जानकारियों के आधार पर उच्चतम न्यायालय के निर्देश के अनुरूप, भारत सरकार ने पहले चरण की केन्द्रीय सूची तैयार की और इस तरह 8 सितंबर 1993 को उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने के बाद यह निर्णय लागू हो गया। यह इतिहास का एक महत्वपूर्ण चरण था।


 इसके बाद, भारत सरकार को शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को आरक्षण प्रदान करने का निर्णय लेने की हिम्मत और इच्छाशक्ति जुटाने में 14 साल लग गए। इसके लिए संविधान का 93वां संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया गया जिसके जरिए अनुच्छेद 15 में एक नया उपबंध 5 जोड़ा गया। इस अनुच्छेद में इसके पूर्व, 1951 में पेरियार के नेतृत्व वाले आंदोलन के चलते, प्रथम संवैधानिक संशोधन के जरिए उपबंध 4 जोड़ा गया था। यह तब हुआ जब उच्चतम न्यायालय ने चंपाकम दुराईराजन व वेंकटरमन मामलों में अपने निर्णय में मद्रास सरकार के 1921 के कम्युनल जीओ द्वारा ओबीसी को दिए गए आरक्षण के प्रावधान को संवैधानिक दृष्टि से अवैध घोषित कर निरस्त कर दिया गया था। चौथे उपबंध को इस स्थिति से निपटने के लिए जोड़ा गया था। इस उपबंध ने राज्य (अर्थात केन्द्र सरकार और राज्यों दोनों) को सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों और एससी-एसटी के हित में निर्णय लेने का अधिकार दिया। इस तरह, सामाजिक न्याय की स्थापना की राह प्रशस्त हुई। इस अधिकार में इन तीन वंचित सामाजिक वर्गों को आरक्षण प्रदान करने का अधिकार शामिल था। एससी-एसटी के मामले में पहले से ही स्पष्ट प्रावधान थे। प्रथम संवैधानिक संशोधन और अनुच्छेद 15 में उपबंध चार जोड़े जाने से इस प्रावधान को मजबूती मिली। सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के मामले में इस संशोधन से यह साफ हो गया कि राज्य को इन वर्गों की उन्नति के लिए हर संभव निर्णय लेने का अधिकार है और कर्तव्य भी।

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सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत योद्धा पी.एस. कृष्णन

संविधान में 93वें संशोधन का उद्देश्य था ओबीसी, एससी व एसटी को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करने वाली निजी संस्थाओं में आरक्षण देने की राह में बाधा को हटाना। यह बाधा सन् 2005 में उच्चतम न्यायालय के इनामदार प्रकरण में निर्णय के कारण उत्पन्न हुई थी। इस निर्णय में कहा गया था कि वर्तमान संवैधानिक प्रावधान, राज्य को निजी क्षेत्र की शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण प्रदान करने का अधिकार नहीं देते। इसके पहले, सन् 2002 में उच्चतम न्यायालय ने टीएमए पई प्रकरण में निर्णय के अनुच्छेद 68 में ऐसा करने को वैध ठहराया था। संविधान (93वां संशोधन) अधिनियम राजनैतिक स्तर पर तत्कालीन केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री श्री अर्जुन सिंह के अथक प्रयासों का नतीजा था।

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श्री अर्जुन सिंह और तत्कालीन मानव संसाधन विकास सचिव श्री सुदीप बनर्जी, सन् 1990 में ओबीसी को केन्द्रीय सेवाओं में आरक्षण उपलब्ध करवाने और इस निर्णय का उच्चतम न्यायालय में बचाव करने में मेरी महत्वपूर्ण भूमिका से परिचित थे। उनके अनुरोध पर मैंने सन् 2006 में मंत्रालय के सलाहकार पद पर कार्य करना स्वीकार किया। मेरी एक शर्त थी कि मुझे इसके लिए कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाएगा। मैंने 93वें संविधान संशोधन के बाद पारित केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थाएं (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम 2006 के बचाव के लिए जवाबी हलफनामा तैयार किया, जिसमें मैंने इसके औचित्य को सिद्ध करने के लिए सामाजिक, ऐतिहासिक और संवैधानिक तथ्यों का हवाला दिया। मैं इस हलफनामे को तैयार करने में इतना व्यस्त हो गया कि मुझे न भोजन करने का ख्याल रहता था और ना ही सोने का। मैं चाहता था कि यह हलफनामा उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित तिथि पर प्रस्तुत कर दिया जाए और इसके लिए न्यायालय से और समय मांगने की आवश्यकता न पड़े। केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के शास्त्री भवन स्थित कार्यालय में मैंने जिस दिन लगभग रात नौ बजे इस हलफनामे के अंतिम हिस्से को लिखवाया, उसके तुरंत बाद मैं अपनी सीट पर बेहोश होकर गिर गया। मुझे नजदीक स्थित डाॅ. राममनोहर लोहिया अस्पताल ले जाया गया जहां डाॅक्टरों ने कहा कि मुझे ट्रांजिएंट इस्केमिक अटैक आया है। जल्दी ही मैं अस्पताल से बाहर आ गया और मैंने अपना काम फिर शुरू कर दिया। मैंने तत्कालीन सॉलिसिटर जनरल श्री वाहनवती व अतिरिक्त सालिसिटर जनरल श्री गोपाल सुब्रमण्यम को वे सभी जानकारियां और तथ्य उपलब्ध करवाए, जिनकी सहायता से वे याचिकाकर्ताओं के वकीलों – जो कि जानेमाने विधिवेत्ता थे – के तर्कों का उपयुक्त जवाब दे सकें। मैंने कुछ राज्य सरकारों और पिछड़े वर्गों के संगठनाें – जो प्रकरण में उत्तरदाता थे – के वकीलों को भी जानकारियां उपलब्ध करवाईं और मार्गदर्शन दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि सन् 2008 में सर्वसम्मति से दिए गए अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थाओं में एससी, एसटी और ओबीसी को आरक्षण प्रदान करने के निर्णय को वैध घोषित कर दिया। यह निर्णय अशोक कुमार ठाकुर प्रकरण में सुनाया गया। उच्चतम न्यायालय में अपने तर्क प्रस्तुत करने के पश्चात श्री वाहनवती व श्री गोपाल सुब्रमण्यम ने कृपापूर्वक बेंच के सामने इस प्रकरण में सरकार का बचाव करने में मेरी भूमिका की चर्चा की और कहा कि वे इतने प्रभावकारी ढंग से अपने तर्क मुख्यतः मेरे द्वारा प्रदत्त इनपुटस के आधार पर प्रस्तुत कर सके।

रिट याचिकाकर्ताओं ने पिछड़े वर्गों को दिए गए आरक्षण को रद्द किए जाने के पक्ष में एक महत्वपूर्ण तर्क यह दिया था कि ओबीसी लिस्ट में कई ऐसी शक्तिशाली व वर्चस्वशाली जातियां शामिल हैं, जिन्हें उनके दबाव के कारण इस सूची में शामिल किया गया है और वे किसी भी तरह से शैक्षणिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी नहीं कहीं जा सकतीं। मैंने सरकारी वकीलों को बताया कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने शक्तिशाली, वर्चस्वशाली और गैर-पिछड़ी जातियों जैसे महाराष्ट्र के मराठाओं, कई राज्यों के जाटों, उड़ीसा के खंडायतों, कई राज्यों के कायस्थों, केरल के नायरों और कुछ राज्यों के ब्राम्हणों की पिछड़े समुदायों की सूची में उन्हें शामिल करने के आवेदन को खारिज किया था और इस सलाह के प्रकाश में सरकार ने इन आवेदनों को नकार दिया था। मैंने आयोग द्वारा शासन को दी गई इस आशय की अनुषंसाओं की प्रतियां भी हासिल कीं और हमारे वकीलोें ने उन्हें अदालत में प्रस्तुत किया।
(क्रमश: जारी)

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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आरएसएस और बहुजन चिंतन 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबीर

चिंतन के जन सरोकार

मंडल आयोग का गठन क्यों किया गया इसकी मुख्य सिफारिशें क्या थी?

मंडल आयोग का गठन वर्ष 1979 में "सामाजिक या शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान” के उद्देश्य से किया गया था। इस आयोग का नेतृत्व भारतीय सांसद बी.पी. मंडल द्वारा किया गया था। जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिये आरक्षण एवं कोटा निर्धारण की व्यवस्था की गई।

मंडल आयोग की सिफारिश कब लागू हुई?

2 दिसंबर 1989 में वीपी सिंह की सरकार में रिपोर्ट फिर चर्चा में आई. 1990 में वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला लिया. इसकी घोषणा के साथ ही देश में आरक्षण का विरोध शुरू हो गया.

मंडल आयोग की दो मुख्य सिफारिशें कौन सी थी?

मंडल आयोग की सिफारिशों को देखें तो इसके सिर्फ दो बिंदुओं पर कुछ हद तक काम हुआ है. वह है केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी को 27 परसेंट आरक्षण और दूसरा, केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों के एडमिशन में ओबीसी का 27 परसेंट आरक्षण. बाकी सिफारिशों पर तो काम भी शुरू नहीं हुआ है.

मंडल आयोग की सिफारिश क्या थी एक वाक्य में उत्तर?

मंडल आयोग की सिफारिशे भारत में अनुसूचित जाति-जनजाति को पहले से 22.5 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा था। इसी कारण इंदिरा गांधी की सरकार इस सिफारिश को लागू करने से बचती रही। मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करने का मतलब था 49.5 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर देना।