हरिहर काका Show हरिहर काका पाठ सार लेखक कहता है कि वह हरिहर काका के साथ बहुत गहरे से जुड़ा था। लेखक का हरिहर काका के प्रति जो प्यार था वह लेखक का उनके व्यावहार के और उनके विचारों के कारण था और उसके दो कारण थे। पहला कारण था कि हरिहर काका लेखक के पड़ोसी थे और दूसरा कारण लेखक को उनकी माँ ने बताया था कि हरिहर काका लेखक को बचपन से ही बहुत ज्यादा प्यार करते थे। जब लेखक व्यस्क हुआ तो उसकी पहली दोस्ती भी हरिहर काका के साथ ही हुई थी। लेखक के गाँव की पूर्व दिशा में ठाकुर जी का विशाल मंदिर था, जिसे गाँव के लोग ठाकुरबारी यानि देवस्थान कहते थे। लोग ठाकुर जी से पुत्र की मन्नत मांगते, मुक़दमे में जीत, लड़की की शादी किसी अच्छे घर में हो जाए, लड़के को नौकरी मिल जाए आदि मन्नत माँगते थे। मन्नत पूरी होने पर लोग अपनी ख़ुशी से ठाकुरजी को रूपए, ज़ेवर, और अनाज चढ़ाया करते थे। जिसको बहुत अधिक ख़ुशी होती थी वह अपने खेत का छोटा-सा भाग ठाकुरजी के नाम कर देता था और यह एक तरह से प्रथा ही बन गई। लेखक कहता है कि उसका गाँव अब गाँव के नाम से नहीं बल्कि देव-स्थान की वजह से ही पहचाना जाता था। उसके गाँव का यह देव-स्थान उस इलाके का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध देवस्थान था। हरिहर काका ने अपनी परिस्थितिओं के कारण देव-स्थान में जाना बंद कर दिया था। मन बहलाने के लिए लेखक भी कभी-कभी देव-स्थान चला जाता था। लेकिन लेखक कहता है कि वहाँ के साधु-संत उसे बिलकुल भी पसंद नहीं थे। क्योंकि वे काम करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे। भगवान को भोग लगाने के नाम पर वे दिन के दोनों समय हलवा-पूड़ी बनवाते थे और आराम से पड़े रहते थे। सारा काम वहाँ आए लोगों से सेवा करने के नाम पर करवाते थे। वे खुद अगर कोई काम करते थे तो वो था बातें बनवाने का काम। लेखक हरिहर काका के बारे में बताता हुआ कहता है कि हरिहर काका और उनके तीन भाई हैं। सबकी शादी हो चुकी है। हरिहर काका के अतिरिक्त सभी तीन भाइयों के बाल-बच्चे हैं। कुछ समय तक तो हरिहर काका की सभी चीज़ों का अच्छे से ध्यान रखा गया, परन्तु फिर कुछ दिनों बाद हरिहर काका को कोई पूछने वाला नहीं था। लेखक कहता है कि अगर कभी हरिहर काका के शरीर की स्थिति ठीक नहीं होती तो हरिहर काका पर मुसीबतों का पहाड़ ही गिर जाता। क्योंकि इतने बड़े परिवार के रहते हुए भी हरिहर काका को कोई पानी भी नहीं पूछता था। बारामदे के कमरे में पड़े हुए हरिहर काका को अगर किसी चीज़ की जरुरत होती तो उन्हें खुद ही उठना पड़ता। एक दिन उनका भतीजा शहर से अपने एक दोस्त को घर ले आया । उन्हीं के आने की ख़ुशी में दो-तीन तरह की सब्ज़ियाँ, बजके, चटनी, रायता और भी बहुत कुछ बना था। सब लोगों ने खाना खा लिया और हरिहर काका को कोई पूछने तक नहीं आया। हरिहर काका गुस्से में बरामदे की ओर चल पड़े और जोर-जोर से बोल रहे थे कि उनके भाई की पत्नियाँ क्या यह सोचती हैं कि वे उन्हें मुफ्त में खाना खिला रही हैं। उनके खेत में उगने वाला अनाज भी इसी घर में आता है। हरिहर काका के गुस्से का महंत जी ने लाभ उठाने की सोची। महंत जी हरिहर काका को अपने साथ देव-स्थान ले आए और हरिहर काका को समझाने लगे की उनके भाई का परिवार केवल उनकी जमीन के कारण उनसे जुड़ा हुआ है, किसी दिन अगर हरिहर काका यह कह दें कि वे अपने खेत किसी और के नाम लिख रहे हैं, तो वे लोग तो उनसे बात करना भी बंद कर देंगें। खून के रिश्ते ख़त्म हो जायेंगे। महंत हरिहर काका से कहता है कि उनके हिस्से में जितने खेत हैं वे उनको भगवान के नाम लिख दें। ऐसा करने से उन्हें सीधे स्वर्ग की प्राप्ति होगी। सुबह होते ही हरिहर काका के तीनों भाई देव-स्थान पहुँच गए। तीनों हरिहर काका के पाँव में गिर कर रोने लगे और अपनी पत्नियों की गलती की माफ़ी माँगने लगे और कहने लगे की वे अपनी पत्नियों को उनके साथ किए गए इस तरह के व्यवहार की सज़ा देंगे। हरिहर काका के मन में दया का भाव जाग गया और वे फिर से घर वापिस लौट कर आ गए। जब अपने भाइयों के समझाने के बाद हरिहर काका घर वापिस आए तो घर में और घर वालों के व्यवहार में आए बदलाव को देख कर बहुत खुश हो गए। घर के सभी छोटे-बड़े सभी लोग हरिहर काका का आदर-सत्कार करने लगे। गाँव के लोग जब भी कहीं बैठते तो बातों का ऐसा सिलसिला चलता जिसका कोई अंत नहीं था। हर जगह बस उन्हीं की बातें होती थी। कुछ लोग कहते कि हरिहर काका को अपनी जमीन भगवान के नाम लिख देनी चाहिए। इससे उत्तम और अच्छा कुछ नहीं हो सकता। इससे हरिहर काका को कभी न ख़त्म होने वाली प्रसिद्धि प्राप्त होगी। इसके विपरीत कुछ लोगों की यह मानते थे कि भाई का परिवार भी तो अपना ही परिवार होता है। अपनी जायदाद उन्हें न देना उनके साथ अन्याय करना होगा। हरिहर काका के भाई उनसे प्रार्थना करने लगे कि वे अपने हिस्से की जमीन को उनके नाम लिखवा दें। इस विषय पर हरिहर काका ने बहुत सोचा और अंत में इस परिणाम पर पहुंचे कि अपने जीते-जी अपनी जायदाद का स्वामी किसी और को बनाना ठीक नहीं होगा। फिर चाहे वह अपना भाई हो या मंदिर का महंत। क्योंकि उन्हें अपने गाँव और इलाके के वे कुछ लोग याद आए, जिन्होंने अपनी जिंदगी में ही अपनी जायदाद को अपने रिश्तेदारों या किसी और के नाम लिखवा दिया था। उनका जीवन बाद में किसी कुत्ते की तरह हो गया था, उन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं था। हरिहर काका बिलकुल भी पढ़े-लिखे नहीं थे, परन्तु उन्हें अपने जीवन में एकदम हुए बदलाव को समझने में कोई गलती नहीं हुई और उन्होंने फैसला कर लिया कि वे जीते-जी किसी को भी अपनी जमीन नहीं लिखेंगे। लेखक कहता है कि जैसे-जैसे समय बीत रहा था महंत जी की परेशानियाँ बढ़ती जा रही थी। उन्हें लग रहा था कि उन्होंने हरिहर काका को फसाँने के लिए जो जाल फेंका था, हरिहर काका उससे बाहर निकल गए हैं, यह बात महंत जी को सहन नहीं हो रही थी। आधी रात के आस-पास देव-स्थान के साधु-संत और उनके कुछ साथी भाला, गंड़ासा और बंदूकों के साथ अचानक ही हरिहर काका के आँगन में आ गए। इससे पहले हरिहर काका के भाई कुछ सोचें और किसी को अपनी सहायता के लिए आवाज लगा कर बुलाएँ, तब तक बहुत देर हो गई थी। हमला करने वाले हरिहर काका को अपनी पीठ पर डाल कर कही गायब हो गए थे।वे हरिहर काका को देव-स्थान ले गए थे। एक ओर तो देव-स्थान के अंदर जबरदस्ती हरिहर काका के अँगूठे का निशान लेने और पकड़कर समझाने का काम चल रहा था, तो वहीं दूसरी ओर हरिहर काका के तीनों भाई सुबह होने से पहले ही पुलिस की जीप को लेकर देव-स्थान पर पहुँच गए थे। महंत और उनके साथियों ने हरिहर काका को कमरे में हाथ और पाँव बाँध कर रखा था और साथ ही साथ उनके मुँह में कपड़ा ठूँसा गया था ताकि वे आवाज़ न कर सकें। परन्तु हरिहर काका दरवाज़े तक लुढ़कते हुए आ गए थे और दरवाज़े पर अपने पैरों से धक्का लगा रहे थे ताकि बाहर खड़े उनके भाई और पुलिस उन्हें बचा सकें। दरवाज़ा खोल कर हरिहर काका को बंधन से मुक्त किया गया। हरिहर काका ने पुलिस को बताया कि वे लोग उन्हें उस कमरे में इस तरह बाँध कर कही गुप्त दरवाज़े से भाग गए हैं और उन्होंने कुछ खली और कुछ लिखे हुए कागजों पर हरिहर काका के अँगूठे के निशान जबरदस्ती लिए हैं। यह सब बीत जाने के बाद हरिहर काका फिर से अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लग गए थे। चौबीसों घंटे पहरे दिए जाने लगे थे। यहाँ तक कि अगर हरिहर काका को किसी काम के कारण गाँव में जाना पड़ता तो हथियारों के साथ चार-पाँच लोग हमेशा ही उनके साथ रहने लगे। लेखक कहता है कि हरिहर काका के साथ जो कुछ भी हुआ था उससे हरिहर काका एक सीधे-सादे और भोले किसान की तुलना में चालाक और बुद्धिमान हो गए थे। उन्हें अब सब कुछ समझ में आने लगा था कि उनके भाइयों का अचानक से उनके प्रति जो व्यवहार परिवर्तन हो गया था, उनके लिए जो आदर-सम्मान और सुरक्षा वे प्रदान कर रहे थे, वह उनका कोई सगे भाइयों का प्यार नहीं था बल्कि वे सब कुछ उनकी धन-दौलत के कारण कर रहे हैं, नहीं तो वे हरिहर काका को पूछते तक नहीं। जब से हरिहर काका देव-स्थान से वापिस घर आए थे, उसी दिन से ही हरिहर काका के भाई और उनके दूसरे नाते-रिश्तेदार सभी यही सोच रहे थे कि हरिहर काका को क़ानूनी तरीके से उनकी जायदाद को उनके भतीजों के नाम कर देना चाहिए। क्योंकि जब तक हरिहर काका ऐसा नहीं करेंगे तब तक महंत की तेज़ नज़र उन पर टिकी रहेगी। जब हरिहर काका के भाई हरिहर काका को समझाते-समझाते थक गए, तो उन्होंने हरिहर काका को डाँटना और उन पर दवाब डालना शुरू कर दिया। एक रात हरिहर काका के भाइयों ने भी उसी तरह का व्यवहार करना शुरू कर दिया जैसा महंत और उनके सहयोगियों ने किया था। उन्हें धमकाते हुए कह रहे थे कि ख़ुशी-ख़ुशी कागज़ पर जहाँ-जहाँ जरुरत है, वहाँ-वहाँ अँगूठे के निशान लगते जाओ, नहीं तो वे उन्हें मार कर वहीँ घर के अंदर ही गाड़ देंगे और गाँव के लोगो को इस बारे में कोई सूचना भी नहीं मिलेगी। हरिहर काका के साथ अब उनके भाइयों की मारपीट शुरू हो गई। जब हरिहर काका अपने भाइयों का मुकाबला नहीं कर पा रहे थे, तो उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर अपनी मदद के लिए गाँव वालों को आवाज लगाना शुरू कर दिया। तब उनके भाइयों को ध्यान आया कि उन्हें हरिहर काका का मुँह पहले ही बंद करना चाहिए था। उन्होंने उसी पल हरिहर काका को जमीन पर पटका और उनके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया। लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी, हरिहर काका की आवाजें बाहर गाँव में पहुँच गई थी। हरिहर काका के परिवार और रिश्ते-नाते के लोग जब तक गाँव वालों कोसमझाते की यह सब उनके परिवार का आपसी मामला है, वे सभी इससे दूर रहें, तब तक महंत जी बड़ी ही दक्षता और तेज़ी से वहाँ पुलिस की जीप के साथ आ गए। पुलिस ने पुरे घर की अच्छे से तलाशी लेना शुरू कर दिया। फिर घर के अंदर से हरिहर काका को इतनी बुरी हालत में हासिल किया गया जितनी बुरी हालत उनकी देव-स्थान में भी नहीं हुई थी। हरिहर काका ने बताया कि उनके भाइयों ने उनके साथ बहुत ही ज्यादा बुरा व्यवहार किया है, जबरदस्ती बहुत से कागजों पर उनके अँगूठे के निशान ले लिए है, उन्हें बहुत ज्यादा मारा-पीटा है। इस घटना के बाद हरिहर काका अपने परिवार से एकदम अलग रहने लगे थे। उन्हें उनकी सुरक्षा के लिए चार राइफलधारी पुलिस के जवान मिले थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि इसके लिए उनके भाइयों और महंत की ओर से काफ़ी प्रयास किए गए थे। असल में भाइयों को चिंता थी कि हरिहर काका अकेले रहने लगेंगे, तो देव-स्थान के महंत-पुजारी फिर से हरिहर काका को बहला-फुसला कर ले जायँगे और जमीन देव-स्थान के नाम करवा लेंगे। और यही चिंता महंत जी को भी थी कि हरिहर काका को अकेला और असुरक्षित पा उनके भाई फिर से उन्हें पकड़ कर मारेंगे और जमीन को अपने नाम करवा लेंगे। लेखक कहता है कि हरिहर काका से जुड़ी बहुत सी ख़बरें गाँव में फैल रही थी। जैसे-जैसे दिन बड़ रहे थे, वैसे-वैसे डर का मौहोल बन रहा था। सभी लोग सिर्फ यही सोच रहे थे कि हरिहर काका ने अमृत तो पिया हुआ है नहीं, तो मरना तो उनको एक दिन है ही। और जब वे मरेंगे तो पुरे गाँव में तूफ़ान आ जाएगा क्योंकि महंत और हरिहर काका के परिवार के बीच जमीन को ले कर लड़ाई हो जायगी। पुलिस के जवान हरिहर काका के खर्चे पर ही खूब मौज-मस्ती से रह रहे थे। जिसका धन वह रहे उपास, खाने वाले करें विलास अर्थात हरिहर काका के पास धन था लेकिन उनके लिए अब उसका कोई महत्त्व नहीं था और पुलिस वाले बिना किसी कारण से ही हरिहर काका के धन से मौज कर रहे थे। अब तक जो नहीं खाया था, दोनों वक्त उसका भोग लगा रहे थे। हरिहर काका पाठ की व्याख्या हरिहर काका के यहाँ से मैं अभी-अभी लौटा हूँ। कल भी उनके यहाँ गया था, लेकिन न तो वह कल ही कुछ कह सके और न आज ही। दोनों दिन उनके पास मैं देर तक बैठा रहा, लेकिन उन्होंने कोई बातचीत नहीं की। जब उनकी तबियत के बारे में पूछा तब उन्होंने सिर उठाकर एक बार मुझे देखा। फिर सिर झुकाया तो मेरी ओर नहीं देखा। हालाँकि उनकी एक ही नज़र बहुत कुछ कह गई। जिन यंत्रणाओं के बीच वह घिरे थे और जिस मनः स्थिति में जी रहे थे, उसमें आँखे ही बहुत कुछ कह देती हैं, मुँह खोलने की जरूरत नहीं पड़ती। तबियत – शरीर की स्थिति / मन की स्थिति लेखक कहता है कि वह अभी-अभी हरिहर काका के घर से लौटा है। वह पिछले कल भी उनके घर गया था, लेकिन हरिहर काका ने ना तो उससे पिछले कल बात की और ना ही उन्होंने आज कुछ बोला था। दोनों ही दिन लेखक हरिहर काका के पास बहुत समय तक बैठा रहा, लेकिन उन्होंने कोई बात नहीं की। जब लेखक ने उनसे उनके हालचाल के बारे में पूछा तो उन्होंने लेखक को एक बार सिर उठाकर देखा और फिर सिर झुका दिया और उसके बाद लेखक की ओर नहीं देखा। लेखक को उनकी एक नजर से ही सब कुछ समझ आ गया था। जिन कष्टों में वे थे और उनके मन की जो स्थिति थी, उनको अपने मुँह से कहने की भी कोई जरुरत नहीं थी क्योंकि उनकी आँखे ही सब कुछ कह रही थी। हरिहर काका की जिन्दगी से मैं बहुत गहरे में जुड़ा हूँ। अपने गाँव में जिन चंद लोगों को मैं सम्मान देता हूँ, उनमें हरिहर काका भी एक हैं। हरिहर काका के प्रति मेरी आसक्ति के अनेक व्यावहारिक और वैचारिक कारण हैं। उनमें प्रमुख कारण दो हैं। एक तो यह कि हरिहर काका मेरे पड़ोस में रहते हैं और दूसरा कारण यह की मेरी माँ बताती हैं, हरिहर काका बचपन में मुझे बहुत दुलार करते थे। अपने कंधे पर बैठा कर घुमाया करते थे। एक पिता अपने बच्चे को जितना प्यार करता है, उससे कहीं ज्यादा प्यार हरिहर काका मुझे करते थे। और जब मैं सयाना हुआ तब मेरी पहली दोस्ती हरिहर काका के साथ ही हुई। चंद – कुछ लेखक कहता है कि वह हरिहर काका के साथ बहुत गहरे से जुड़ा था। लेखक अपने गाँव के जिन कुछ लोगों का सम्मान करता था, हरिहर काका उनमें से एक थे। लेखक का हरिहर काका के प्रति जो प्यार था वह लेखक का उनके व्यावहार के और उनके विचारों के कारण था। लेखक का हरिहर काका के प्रति जो प्यार था उसके दो कारण थे। उनमें से पहला कारण था कि हरिहर काका लेखक के पड़ोसी थे और दूसरा कारण लेखक को उनकी माँ ने बताया था कि हरिहर काका लेखक को बचपन से ही बहुत ज्यादा प्यार करते थे। वे लेखक को अपने कंधे पर बैठा कर घुमाया करते थे। एक पिता का अपने बच्चों के लिए जितना प्यार होता है, लेखक के अनुसार हरिहर काका का उसके लिए प्यार उससे भी अधिक था। लेखक कहता है कि जब वह व्यस्क हुआ या थोड़ा समझदार हुआ तो उसकी पहली दोस्ती भी हरिहर काका के साथ ही हुई थी। हरिहर काका ने भी जैसे मुझसे दोस्ती के लिए ही इतनी उम्र तक प्रतीक्षा की थी। माँ बताती है कि मुझसे पहले गाँव में किसी अन्य से उनकी इतनी गहरी दोस्ती नहीं हुई थी। वह मुझसे कुछ भी नहीं छिपाते थे। खूब खुल कर बातें करते थे लेकिन फ़िलहाल मुझसे भी कुछ कहना उन्होंने बंद कर दिया है। उनकी इस स्थिति ने मुझे चिंतित कर दिया है। जैसे कोई नाव बीच मझधार में फँसी हो और उस पर सवार लोग चिल्लाकर भी अपनी रक्षा न कर सकते हों, क्योंकि उनकी चिल्लाहट दूर तक फैले सागर के बीच उठती-गिरती लहरों में विलीन हो जाने के अतिरिक्त कर ही क्या सकती है? मौन हो कर जल-समाधि लेने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहीं। लेकिन मन इसे मानने को कतई तैयार नहीं। जीने की लालसा की वजह से बैचेनी और छटपटाहट बढ़ गई हो, कुछ ऐसी ही स्थिति के बीच हरिहर काका घिर गए हैं। प्रतीक्षा – इंतज़ार लेखक कहता है कि जब उसके पहले दोस्त हरिहर काका बने तो उसे ऐसा लगा जैसे हरिहर काका ने भी लेखक से दोस्ती करने के लिए अपनी इतनी लम्बी उम्र तक इन्तजार किया हो। लेखक की माँ ने लेखक को बताया था कि उससे पहले हरिहर काका की गाँव में किसी से इतनी गहरी दोस्ती नहीं हुई थी। लेखक कहता है कि हरिहर काका उससे कभी भी कुछ नहीं छुपाते थे, वे उससे सबकुछ खुल कर कह देते थे लेकिन अभी इस समय उन्होंने लेखक से भी बात करना बंद कर दिया था। उनकी इस तरह की परिस्थिति को देख कर लेखक को उनकी चिंता हो रही थी। उनकी स्थिति लेखक को इस तरह लग रही थी जैसे कोई नाव जल प्रवाह या भवसागर के मध्य में फँस गई हो और उसमे बैठे लोग किसी को चिल्लाकर भी नहीं बुला सकते क्योंकि भवसागर के बीच में होने की वजह से उनकी आवाजें कहीं लहरों की आवाजों में मिल कर लुप्त हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में चुप-चाप वहीँ पानी में ही अंतिम साँस लेने के आलावा कोई और रास्ता नहीं रह जाता। लेखक कहता है कि उसे हरिहर काका की ऐसी स्थिति पर विश्वास नहीं हो रहा था। ऐसी स्थिति में जैसे जीने के लालच में बैचेनी और छटपटाहट बढ़ जाती है, कुछ ऐसी ही स्थिति केबीच में हरिहर काका फँसे हुए लग रहे थे। हरिहर काका के बारे में मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि वह यह समझ नहीं पा रहे हैं कि कहे तो क्या कहें? अब कोई ऐसी बात नहीं जिसे कहकर वह हल्का हो सकें। कोई ऐसी उक्ति नहीं जिसे कहकर वे मुक्ति पा सकें। हरिहर काका की स्थिति में मैं भी होता तो निश्चय ही इस गूँगेपन का शिकार हो जाता। हरिहर काका इस स्थिति में कैसे आ फँसे? यह कौन सी स्थिति है? इसके लिए कौन जिम्मेवार है? यह सब बताने से पहले अपने गाँव का और खासकर उस गाँव की ठाकुरबारी का संक्षिप्त परिचय मैं आपको दे देना उचित समझता हूँ क्योंकि उसके बिना तो यह कहानी तो अधूरी ही रह जाएगी। उक्ति – कथन / वाक्य लेखक कहता है कि हरिहर काका की इस स्थिति को देख कर उसे लग रहा था कि वे शायद समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें क्या कहना चाहिए? अब शायद कोई ऐसी बात ही नहीं थी जिसको बोल कर वे अपना मन हल्का कर सकें और न ही कोई ऐसा वाक्य या कथा है जो उनके मन को शांति प्रदान कर सके। लेखक कहता है कि हरिहर काका की जो स्थिति है उसमें अगर वह स्वयं भी होता तो वह भी शायद इसी तरह गूँगा हो जाता अर्थात किसी से बात नहीं करता। अब बात आती है कि हरिहर काका इस स्थिति में कैसे फँस गए। यह कौन सी स्थिति है जिसके बारे में लेखक बात कर रहा है। हरिहर काका को इस स्थिति में पहुँचाने के लिए कौन जिम्मेवार हैं। यह सब बताने से पहले लेखक अपने गाँव और खासकर उस गाँव में स्थित देवस्थान के बारे में संक्षेप में बताना चाहता है क्योंकि उसको जाने बिना कहानी को समझना नामुमकिन है और कहानी उसके बिना अधूरी है। मेरा गाँव कस्बाई शहर आरा से चालीस किलोमीटर की दुरी पर है। हसनबाजार बस स्टैंड के पास। गाँव की कुल आबादी ढाई-तीन हज़ार होगी। गाँव में तीन प्रमुख स्थान हैं। गाँव के पश्चिम किनारे का बड़ा-सा तालाब। गाँव के मध्य स्थित बरगद का पुराना वृक्ष और गाँव के पूरब में ठाकुर जी का विशाल मंदिर, जिसे गाँव के लोग ठाकुरबारी कहते हैं। मध्य – बीच में लेखक कहता है कि उसका गाँव कस्बाई शहर आरा से चालीस किलोमीटर की दुरी पर हसनबाजार बस स्टैंड के पास स्थित है। गाँव की कुल आबादी लगभग ढाई-तीन हज़ार होगी। गाँव में तीन प्रमुख स्थान हैं। पहला-गाँव के पश्चिम किनारे में एक बड़ा-सा तालाब स्थित है। गाँव के बीचोंबीच एक बरगद का पुराना वृक्ष स्थित है और गाँव की पूर्व दिशा में ठाकुर जी का विशाल मंदिर है, जिसे गाँव के लोग ठाकुरबारी यानि देवस्थान कहते हैं। गाँव में इस ठाकुरबारी की स्थापना कब हुई, इसकी ठीक-ठीक जानकारी किसी को नहीं। इस सम्बन्ध में गाँव में जो कहानी प्रचलित है वह यह कि वर्षों पहले जब यह गाँव पूरी तरह बसा भी नहीं था, कहीं से एक संत आकर इस स्थान पर झोंपड़ी बना रहने लगे थे। वह सुबह-शाम यहाँ ठाकुरजी की पूजा किया करते थे। लोगों से माँगकर खा लेते थे और पूजा- पाठ की भावना जाग्रत किया करते थे। बाद में लोगों ने चंदा करके यहाँ ठाकुरजी का एक छोटा-सा मंदिर बनवा दिया। फिर जैसे-जैसे गाँव बसता गया और आबादी बढ़ती गई, मंदिर के कलेवर में भी विस्तार होता गया। लोग ठाकुरजी को मनौती मनाते कि पुत्र हो, मुकदमे में विजय हो, लड़की की शादी अच्छे घर में तय हो, लड़के को नौकरी मिल जाए। फिर इसमें जिनको सफलता मिलती, वह ख़ुशी से ठाकुरजी पर रूपय, ज़ेवर, अनाज चढ़ाते। अधिक ख़ुशी होती तो ठाकुरजी के नाम अपने खेत का एक छोटा-सा टुकड़ा लिख देते। यह परंपरा आज तक ज़ारी है। प्रचलित – चलनसार लेखक उसके गाँव में स्थापित देव-स्थान की स्थापना के बारे में कहता है कि गाँव में वह देव-स्थान कब स्थापित किया गया इसके बारे में कोई भी सही-सही नहीं बता सकता। इसके बारे में गाँव में जो कहानी चली आ रही है उसके अनुसार, बहुत साल पहले जब गाँव सही ढंग से बसा भी नहीं था तब न जाने कहाँ से एक संत गाँव में आकर उस स्थान पर झोंपड़ी बना कर रहने लगा। वह संत सुबह-शाम ठाकुरजी की पूजा किया करता था और लोगो से माँगकर ही खाना खाता था। वह लोगो में पूजा-पाठ की भावना को जगाने का काम करता था। बाद में लोगों ने आपस में ही कुछ धन जमा करके उस झोंपड़ी के स्थान पर ठाकुरजी का एक छोटा-सा मंदिर बना दिया। फिर जैसे-जैसे गाँव बढ़ता गया, वहाँ की आबादी भी बढ़ती गई और साथ-ही-साथ मंदिर के आकार में भी बढ़ोतरी होती गई। लोग ठाकुर जी से पुत्र की मन्नत मांगते, मुक़दमे में जीत, लड़की की शादी किसी अच्छे घर में हो जाए, लड़के को नौकरी मिल जाए आदि मन्नत माँगते थे। मन्नत पूरी होने पर लोग अपनी ख़ुशी से ठाकुरजी को रूपए, ज़ेवर, और अनाज चढ़ाया करते थे। जिसको बहुत अधिक ख़ुशी होती थी वह अपने खेत का छोटा-सा भाग ठाकुरजी के नाम कर देता था और यह एक तरह से प्रथा ही बन गई जो आज तक चली आ रही है। अधिकांश लोगों को विश्वास है कि उन्हें अच्छी फसल होती है, तो ठाकुरजी की कृपा से। मुक़दमे में उनकी जीत हुई
तो ठाकुरजी के चलते। लड़की की शादी इसलिए जल्दी तय हो गई, क्योंकि ठाकुरजी को मनौती मनाई गई थी। लोगों के इस विश्वास का ही यह परिणाम है कि गाँव की अन्य चीज़ों की तुलना में ठाकुरबारी का विकास हज़ार गुना अधिक हुआ है। अब तो यह गाँव ठाकुरबारी से ही पहचाना जाता है। यह ठाकुरबारी न सिर्फ मेरे गाँव की एक बड़ी और विशाल ठाकुरबारी है बल्कि पुरे इलाके में इसकी जोड़ की दूसरी ठाकुरबारी नहीं। अधिकांश – ज्यादातर लेखक कहता है कि गाँव के ज्यादातर लोगों का विश्वास यह बन गया है कि अगर उनकी फसल अच्छी हो तो उसे वे अपनी मेहनत नहीं बल्कि ठाकुरजी की कृपा मानते हैं। किसी की मुक़दमे में जीत होती है तो उसका श्रेय भी ठाकुरजी को दिया जाता है। लड़की की अगर शादी जल्दी तय हो जाती है तो भी माना जाता है कि ठाकुरजी से मन्नत माँगने के कारण ऐसा हुआ है। लोगो के इस तरह के विश्वास का ही परिणाम है कि देव-स्थान का विकास गाँव की बाकि सभी चीज़ों से हज़ार गुना ज्यादा हुआ है। लेखक कहता है कि उसका गाँव अब गाँव के नाम से नहीं बल्कि देव-स्थान के वजह से ही पहचाना जाता है। उसके गाँव का यह देव-स्थान केवल उसके गाँव का ही सबसे बड़ा देव-स्थान नहीं है बल्कि यह देव-स्थान तो उस इलाके का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध देवस्थान है। लेखक कहता है कि देव-स्थान के नाम पर लगभग बीस बीघे जमीन है। देव-स्थान की देख-रेख और नियंत्रण के लिए एक धार्मिक लोगों की संस्था का निर्माण भी किया गया है, यह संस्था हर तीन साल में एक महंत और एक पुजारी को तैनात करती है जो देव-स्थान में पूजा-पाठ का ध्यान रखते है। ठाकुरबारी का काम लोगो के अंदर ठाकुर जी के प्रति भक्ति भावना पैदा करना तथा धर्म से विमुख हो रहे लोगो को रास्ते पर लाना है। ठाकुरबारी में भजन-कीर्तन की आवाज़ बराबर गूँजती रहती है। गाँव जब भी बाढ़ या सूखे की चपेट में आता है, ठाकुरबारी के अहाते में तंबू लग जाता है। .लोग और ठाकुरबारी के साधु -संत अखंड हरिकीर्तन शुरू कर देते हैं। इसके अतिरिक्त गाँव में किसी भी पर्व-त्योहार की शुरुआत ठाकुरबारी से ही होती है। होली का सबसे पहला गुलाल ठाकुरजी को ही चढ़ाया जाता है। दीवाली का पहला दीप ठाकुरबारी में ही जलता है। जन्म, शादी और जनेऊ के अवसर पर अन्न-वस्त्र की पहली भेंट ठाकुरजी के नाम की जाती है ठाकुरजी के ब्राह्मण-साधु व्रत-कथाओं के दिन घर-घर घूमकर कथावाचन करते हैं। लोगों के खलिहान में जब फसल की दवनी होकर अनाज की ‘ढेरी’ तैयार हो जाती है, तब ठाकुरजी के नाम ‘अगउम’ निकलकर ही लोग अनाज अपने घर ले जाते हैं। विमुख – प्रतिकूल लेखक देव-स्थान के काम के बारे में बताता हुआ कहता है कि देव-स्थान का काम लोगों के अंदर भगवान के प्रति आस्था और विश्वास पैदा करना और जो लोग धर्म के रास्ते से भटक गए हैं उन्हें सही रास्ता दिखाना है। देव-स्थान पर भगवान के भजन-कीर्तन की आवाजें गूँजती रहती हैं। जब कभी भी गाँव पर बाढ़ और सूखे का प्रहार होता है, तो देव-स्थान के चारों ओर से दीवारों से घिरे हुए मैदान में तंबू लग जाते हैं और वहाँ लोग और देव-स्थान के साधु-संत बिना किसी रोक-टोक वाले या बहुत लम्बे समय तक चलने वाले हरिकीर्तन शुरू कर देते हैं। इतना ही नहीं अगर गाँव में कभी भी-कोई भी पर्व-त्योहार होता है, तो उसकी शुरुआत भी देव-स्थान से ही होती है। जैसे-होली का पहला गुलाल भगवान को लगाया जाता है, दीवाली का पहला दीप भी देव-स्थान पर ही जलाया जाता है। जन्म, शादी और जनेऊ के अवसर पर भी पहली भेंट भगवान के ही नाम जाती है। भगवान के ब्राह्मण-साधु व्रत-कथाओं के दिन घर-घर घूमकर कथा का बखान करते हैं। लोगो के आँगन में जब गेंहूँ या धान निकालने की प्रक्रिया शुरू होती है और जब अनाज का ढेर तैयार हो जाता है, तो प्रयोग में लाने से पहले देवता के लिए अनाज का अंश निकाला जाता है, उसके बाद ही लोग अनाज को अपने घर ले जाते हैं। ठाकुरबारी के साथ अधिकांश लोगों का सम्बन्ध बहुत ही घनिष्ठ है-मन और तन दोनों स्तर पर। कृषि-कार्य से अपना बचा हुआ समय वे ठाकुरबारी में ही बिताते हैं। ठाकुरबारी में साधु-संतों के प्रवचन सुन और ठाकुर जी के दर्शन कर वे अपना यह जीवन सार्थक मानने लगते हैं। उन्हें यह महसूस होता है कि ठाकुरबारी में प्रवेश करते ही वे पवित्र हो जाते हैं। उनके पिछले सारे पाप अपने आप ख़त्म हो जाते हैं। घनिष्ठ – अत्यधिक निकटता लेखक कहता है कि गाँव के कुछ लोगों का देव-स्थान के साथ बहुत निकटता का रिश्ता बन गया है, वे तन-मन दोनों से ही देव-स्थान के प्रति आस्थावान हैं। वे अपने कृषि के काम को ख़त्म करके बचा हुआ समय देव-स्थान में ही बिताते हैं। देव-स्थान के साधु-संतो के द्वारा वेद, पुराण आदि का उपदेश सुनकर और भगवान के दर्शन कर लेने से वे अपने जीवन को उद्देश्य से भरपूर मानते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि जैसे ही वे देव-स्थान में प्रवेश करते हैं, वे पवित्र हो जाते हैं और उनके द्वारा किये गए सारे बुरे काम अपने आप ही ख़त्म हो जाते हैं। परिस्थितिवश इधर हरिहर काका ने ठाकुरबारी में जाना बंद कर दिया है। पहले वह अकसर ही ठाकुरबारी में जाते थे। मन बहलाने के लिए कभी-कभी मैं भी ठाकुरबारी में जाता हूँ। लेकिन वहाँ के साधु-संत मुझे फूटी आँखों नहीं सुहाते। काम-धाम करने में उनकी कोई रूचि नहीं। ठाकुरजी को भोग लगाने के नाम पर दोनों जून हलवा-पूड़ी खाते हैं और आराम से पड़े रहते हैं। उन्हें अगर कुछ आता है तो सिर्फ बात बनाना आता है। परिस्थितिवश
– परिस्थितियों के कारण लेखक कहता है कि हरिहर काका ने अपनी परिस्थितिओं के कारण देव-स्थान में जाना बंद कर दिया है। पहले वे लगभग हमेशा ही देव-स्थान जाया करते थे। मन बहलाने के लिए लेखक भी कभी-कभी देव-स्थान चला जाता था। लेकिन लेखक कहता है कि वहाँ के साधु-संत उसे बिलकुल भी पसंद नहीं थे। क्योंकि वे काम करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे। भगवान को भोग लगाने के नाम पर वे दिन के दोनों समय हलवा-पूड़ी बनवाते थे और आराम से पड़े रहते थे। सारा काम वहाँ आए लोगो से सेवा करने के नाम पर करवाते थे। वे खुद अगर कोई काम करते थे तो वो था बातें बनवाने का काम। हरिहर काका चार भाई हैं। सबकी शादी हो चुकी है। हरिहर काका के आलावा सबके बाल-बच्चे हैं। बड़े और छोटे भाई के लड़के काफी सयाने हो गए हैं। दो की शादियाँ हो गई हैं। उनमें से एक पढ़-लिखकर शहर के किसी दफ़्तर में क्लर्की करने लगा है। लेकिन हरिहर काका की अपनी देह से कोई औलाद नहीं। भाइयों में हरिहर काका का नंबर दूसरा है औलाद के लिए उन्होंने दो शादियाँ कीं। लंबे समय तक प्रतीक्षारत रहे। लेकिन बिना बच्चा जने उनकी दोनों पत्नियाँ स्वर्ग सिधार गईं। लोगों ने तीसरी शादी करने की सलाह दी लेकिन अपनी गिरती हुई उम्र और धार्मिक संस्कारों की वजह से हरिहर काका ने इंकार कर दिया वह इत्मीनान और प्रेम से अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लगे। आलावा – अतिरिक्त लेखक हरिहर काका के बारे में बताता हुआ कहता है कि हरिहर काका और उनके भाई, चार हैं। सबकी शादी हो चुकी है। हरिहर काका के अतिरिक्त सभी तीन भाइयों के बाल-बच्चे हैं। बड़े और छोटे भाई के बच्चे बहुत समझदार हो गए हैं। उनमें से दो की शादियाँ भी हो गई हैं। उनमें से एक पढ़-लिखकर शहर में कहीं लिपिक की नौकरी कर रहा है। लेकिन हरिहर काका की कोई अपनी औलाद नहीं है। भाइयों में हरिहर काका दूसरे नंबर के भाई हैं। औलाद की चाह में हरिहर काका ने दो शादियाँ की थी। बहुत लम्बे समय तक वे औलाद की प्रतीक्षा करते रहे, लेकिन औलाद को बिना जन्म दिए ही उनकी दोनों पत्नियाँ स्वर्ग सिधार गई। लोगों ने हरिहर काका को तीसरी शादी करने के लिए कहा, लेकिन अपनी बढ़ती उम्र और अपने धार्मिक संस्कारों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने तीसरी शादी करने से इंकार कर दिया। वे तसल्ली और प्यार के साथ अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लगे थे। हरिहर काका के परिवार के पास कुल साठ बीघे खेत हैं। प्रत्येक भाई के हिस्से पंद्रह बीघे पड़ेंगे। कृषि-कार्य पर ये लोग निर्भर हैं। शायद इसलिए अब तक संयुक्त परिवार के रूप में ही रहते आ रहे हैं। हरिहर काका के तीनों भाइयों ने अपनी पत्नियों को यह सीख दी थी कि हरिहर काका की अच्छी तरह सेवा करें। समय पर उन्हें नाश्ता-खाना दें। किसी तरह की तकलीफ़ न होने दें। कुछ दिनों तक वे हरिहर काका की खोज-खबर लेती रहीं। फिर उन्हें कौन पूछने वाला? ‘ठहर चौका’ लगाकर पंखा झलते हुए अपने मर्दों को अच्छे-अच्छे व्यंजन खिलातीं। हरिहर काक के आगे तो बची-खुची चीज़ें आती। कभी-कभी तो हरिहर काका को रूखा-सूखा खा कर ही संतोष करना पड़ता। व्यंजन – अच्छा खाना लेखक कहता है कि हरिहर काका के पूरे परिवार के पास लगभग साठ बीघे खेत हैं। अगर हर एक भाई को बराबर-बराबर बाँट दें तो हर एक के हिस्से में पंद्रह बीघे जमीन आएगी। ये सभी लोग अपना गुजारा खेती-बाड़ी कर के ही करते हैं। शायद यही कारण था कि अब तक ये पूरा परिवार एक साथ ही रहता था। हरिहर काका के तीनों भाइयों ने अपनी-अपनी पत्नियों को यह कह कर रखा था कि हरिहर काका की अच्छे से सेवा होनी चाहिए। समय पर उन्हें नाश्ता-खाना आदि मिलना चाहिए। उनको किसी भी तरह की परेशानी नहीं होनी चाहिए। कुछ दिनों तक तो वे हरिहर काका की सभी चीज़ों का अच्छे से ध्यान रखती रही, परन्तु फिर कुछ दिनों बाद हरिहर काका को कोई पूछने वाला नहीं था। खाने की मेज़ सजाकर पंखा हिलाते हुए अपने-अपने पत्तियों को अच्छा-अच्छा खाना खिलाती थी और हरिहर काका के सामने जो कुछ बच जाता था वही परोसा जाता था। कभी-कभी तो हरिहर काका को बिना तेल-घी के ही रूखा-सूखा खाना खा कर प्रसन्न रहना पड़ता था। आगे कभी हरिहर काका की तबीयत खराब हो जाती तो मुसीबत में पड़ जाते। इतने बड़े परिवार में रहते हुए भी कोई उन्हें पानी देने वाला तक नहीं। सभी अपने कामों में मशगूल। बच्चे या तो पढ़-लिख रहे होते या धमाचौकड़ी मचाते। मर्द खेतों में गए रहते। औरतें हाल पूछने भी नहीं आतीं। दालान के कमरे में अकेले पड़े हरिहर काका को स्वयं उठकर अपनी जरूरतों की पूर्ति करनी पड़ती। ऐसे वक्त अपनी पत्नियों को याद कर-करके हरिहर काका की आँखें भर आती। भाइयों के परिवार के प्रति मोहभंग की शुरुआत इन्हीं क्षणों में हुई थी। तबीयत –
शरीर की स्थिति / मन की स्थिति लेखक कहता है कि अगर कभी हरिहर काका के शरीर की स्थिति या मन की स्थिति ठीक नहीं होती तो समझिए हरिहर काका पर मुसीबतों का पहाड़ ही गिर जाता। क्योंकि इतने बड़े परिवार के रहते हुए भी हरिहर काका को कोई पानी भी नहीं पूछता था। सभी अपने-अपने कामों को करने में व्यस्त रहते थे। बच्चे या तो अपनी पढ़ाई कर रहे होते थे या उछल-कूद कर रहे होते थे। परिवार के सभी मर्द खेतों में गए होते थे। औरते तो हरिहर काका का हाल भी पूछने नहीं आती थी। बारामदे के कमरे में पड़े हुए हरिहर काका को अगर किसी चीज़ की जरुरत होती तो उन्हें खुद ही उठना पड़ता। ऐसे समय में हरिहर काका को अपनी दोनों पत्नियों की याद आ जाती और उनकी आँखें भर जाती। लेखक के अनुसार हरिहर काका का जो भाइयों के परिवार के लिए प्यार था उसके कम होने की शुरुआत उनके साथ होने वाले इस तरह के व्यवहार से ही हुई थी। और फिर, एक दिन तो विस्फोट ही गया। उस दिन हरिहर काका की सहन-शक्ति ज़वाब दे गई। उस दिन शहर में क्लर्की करने वाले भतीजे का एक दोस्त गाँव आया था उसी के आगमन के उपलक्ष्य में दो-तीन तरह की सब्ज़ी, बजके, चटनी, रायता आदि बने थे। बिमारी से उठे हरिहर काका का मन स्वादिष्ट भोजन के लिए बेचैन था। मन-ही-मन उन्होंने अपने भतीजे के दोस्त की सराहना की, जिसके बहाने उन्हें अच्छी चीज़ें खाने को मिलने वाली थीं। लेकिन बातें बिलकुल विपरीत हुईं। सबों ने खाना खा लिया, उनको कोई पूछने तक नहीं आया। उनके तीन भाई खाना खाकर खलियान में चले गए। दवनी हो रही थी। वे इस बात के प्रति निश्चिंत थे कि हरिहर काका को तो पहले ही खिला दिया गया होगा। विस्फोट – फूट कर बाहर निकलना लेखक कहता है कि हरिहर काका सब कुछ सहन कर रहे थे, परन्तु एक दिन सब कुछ फूट कर बाहर आ गया। उस दिन हरिहर काका की सहन-शक्ति टूट गई। उस दिन उनका जो भतीजा शहर में क्लर्की की नौकरी करता है, वह और उसका एक दोस्त गाँव आए हुए थे। उन्हीं के आने की ख़ुशी में दो-तीन तरह की सब्ज़ियाँ, बजके, चटनी, रायता और भी बहुत कुछ बना था। बिमारी से कुछ समय पहले ही ठीक हुए हरिहर काका का भी कुछ स्वादिष्ट खाना खाने का मन था। हरिहर काका मन-ही-मन भतीजे और उसके दोस्त की प्रशंसा करने लगे क्योंकि उनकी वजह से ही आज हरिहर काका को स्वादिष्ट खाना खाने को मिलने वाला था। लेकिन जैसा हरिहर काका ने सोचा था बात बिलकुल उसके उलटी हुई। सब लोगों ने खाना खा लिया और हरिहर काका को कोई पूछने तक नहीं आया। उनके तीनों भाई खाना खा कर खलियान में चले गए क्योंकि गेंहूँ और धान को अलग करने का काम चल रहा थे। वे इस बात से बैख़बर थे और सोच रहे थे कि हरिहर काका को तो पहले ही खाना दे दिया गया होगा। अंत में हरिहर काका ने स्वयं दालान के कमरे से निकल हवेली में प्रवेश किया। तब उनके छोटे भाई की पत्नी ने रुखा-सूखा खाना लाकर उनके सामने परोस दिया-भात, मा और अचार। बस, हरिहर काका के बदन में तो जैसे आग लग गई। उन्होंने थाली उठाकर बीच आँगन में फेंक दी। झन्न की तेज़ आवाज़ के साथ आँगन में थाली गिरी। भात बिखर गया। विभिन्न घरों में बैठी लड़कियाँ, बहुएँ सब एक साथ बाहे निकल आईं। हरिहर काका गरजते हुए हवेली से दालान की ओर चल पड़े-“समझ रही हो कि मुफ़्त में खिलाती हो, तो अपने मन से यह बात निकाल देना। मेरे हिस्से के खेत की पैदावार इसी घर में आती है। उसमें तो मैं दो-चार नौकर रख लूँ, आराम से खाऊँ, तब भी कमी नहीं होगी। मैं अनाथ और बेसहारा नहीं हूँ। मेरे धन पर तो तुन सब मौज कर रही हो। लेकिन अब मैं तुम सबों को बताऊँगा…. आदि।” लेखक कहता है कि जब हरिहर काका को किसी ने खाना खाने के लिए नहीं पूछा तो वे खुद ही बरामदे वाले कमरे से निकल कर हवेली के अंदर गए। तब हरिहर काका के छोटे भाई कि पत्नी ने रुखा-सूखा खाना लाकर उनके सामने परोस दिया। जिसमें भात, दाल और अचार ही था। बस फिर क्या था, ऐसा खाना देखकर हरिहर काका को गुस्सा आ गया और उन्होंने थाली को उठाकर बीच आँगन में फेंक दिया। थाली आँगन में झन्न की आवाज़ के साथ बहुत जोर से गिरी। भात गिर कर आँगन में बिखर गया। गाँव के अलग-अलग घरों में बैठी लड़कियाँ और बहुएँ आवाज को सुनकर एक साथ बाहर आ गईं। हरिहर काका गुस्से में बरामदे की ओर चल पड़े और जोर-जोर से बोल रहे थे कि उनके भाई की पत्नियाँ क्या यह सोचती हैं कि वे उन्हें मुफ्त में खाना खिला रही हैं। अगर वे ऐसा कुछ सोचती हैं तो वे अपने मन से ऐसी बातें निकाल दें। हरिहर काका कह रहे थे कि उनके खेत में उगने वाला अनाज भी इसी घर में आता है। और अगर वो अलग रहें तो वो दो-चार नौकर रख कर आराम से अपनी जिंदगी काट सकते हैं, उनको कोई कमी नहीं होगी। वे अनाथ और बेसहारा नहीं हैं क्योंकि जब तक उनके पास धन है वे किसी को भी अपना बना सकते हैं। हरिहर काका कह रहे थे कि उनके भाई का परिवार उनके पैसों पर ही तो मौज करता है। लेकिन अब हरिहर काका सबसे उनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार करने के लिए बदला लेने की बात कर रहे थे, और भी वे ना जाने क्या-क्या बोल रहे थे। हरिहर काका जिस वक्त यह सब बोल रहे थे, उस वक्त ठाकुरबारी के पुजारी जी उनके दालान पर ही विराजमान थे। वार्षिक हुमाध के लिए वह घी और शकील लेने आए थे। लौटकर उन्होंने महंत जी को विस्तार के साथ सारी बात बताई। उनके कान खड़े हो गए। वह दिन उन्हें बहुत शुभ महसूस हुआ। उस दिन को उन्होंने ऐसे ही गुज़र जाने देना उचित नहीं समझा। तत्क्षण टिका-तिलक लगा, कंधे पर रामनामी लिखी चादर डाल ठाकुरबारी से चल पड़े। संयोग अच्छा था। हरिहर के दालान तक नहीं जाना पड़ा। रास्ते में ही हरिहर मिल गए। गुस्से में घर से निकल वह खलियान की ओर जा रहे थे। लेकिन महंत जी ने उन्हें खलियान की ओर नहीं जाने दिया। अपने साथ ठाकुरबारी पर लेते आए। विराजमान – उपस्थित लेखक कहता है कि जिस समय हरिहर काका गुस्से में सबको बातें सूना रहे थे, उस समय देव-स्थान के पुजारी जी उनके बरामदे में ही उपस्थित थे। वे उनके घर साल में होने वाले हवन के लिए लगने वाली सामग्री के लिए घी और शकील लेने के लिए आए थे। पुजारी जी ने वहाँ से लौटकर महंत जी को सारी बातें बहुत ही विस्तार से सुनाई। महंत जी सावधान हो गए। उन्हें लग रहा था कि यह दिन बहुत ही ज्यादा अच्छा है। उस दिन का ऐसे ही बीत जाना उन्होंने सही नहीं समझा। उन्होंने तुंरत टिका-तिलक लगाया, अपने कंधे पर राम नाम लिखी चादर को डाला और देव-स्थान से निकल कर चल पड़े। उनकी किस्मत अच्छी थी। हरिहर काका के बरामदे तक नहीं जाना पड़ा। उन्हें हरिहर काका रास्ते में ही मिल गए थे। क्योंकि हरिहर काका गुस्से में घर से निकल कर खलियान की ओर जा रहे थे, लेकिन महंत जी ने उन्हें रास्ते में ही रोक दिया और खलियान की ओर नहीं जाने दिया। महंत जी हरिहर काका को अपने साथ देव-स्थान ले आए। फिर एकांत कमरे में उन्हें बैठा, खूब प्रेम से समझाने लगे-” हरिहर! यहाँ कोई किसी का नहीं है। सब माया का बंधन है। तू तो धार्मिक प्रवृति का आदमी है। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि तुम इस बंधन में कैसे फँस गए? ईश्वर में भक्ति लगाओ। उसके सिवाय कोई तुम्हारा अपना नहीं। पत्नी, बेटे, भाई-बंधु सब स्वार्थ के साथी हैं। जिस दिन उन्हें लगेगा कि तुमसे उनका स्वार्थ सधने वाला नहीं, उस दिन वे तुम्हें पूछेंगे तक नहीं। इसलिए ज्ञानी, संत, महात्मा ईश्वर के सिवाय किसी और में प्रेम नहीं लगाते।…..तुम्हारे हिस्से में पंद्रह बीघे खेत हैं। उसी के चलते तुम्हारे भाई के परिवार तुम्हें पकड़े हुए हैं। तुम एक दिन कह कर तो देख लो कि अपना खेत उन्हें ना देकर दूसरे को लिख दोगे, वह तुमसे बोलना बंद कर देंगे। खून का रिश्ता खत्म हो जायगा। तुम्हारे भले के लिए मैं बहुत दिनों से सोच रहा था लेकिन संकोचवश नहीं कह रहा था। एकांत – खाली लेखक कहता है कि महंत जी हरिहर काका को एक खाली कमरे में ले गए और बहुत ही प्यार से समझाने लगे कि इस दुनिया में कोई किसी का नहीं है। इस दुनिया में लालच और सम्पति का झूठा जाल है। महंत हरिहर काका को कहता है कि उसे वे धर्म से जुड़े हुए व्यक्ति लगते हैं। उसे समझ में नहीं आ रहा कि हरिहर काका इतने समझदार होते हुए भी ऐसे बंधन में कैसे फँस गए। महंत हरिहर काका को भगवान में आस्था लगाने को कहता है क्योंकि महंत के अनुसार भगवान के सिवाय इस दुनिया में कोई अपना नहीं है। पत्नी, बेटे, भाई-बंधु सब केवल अपने मतलब के लिए ही साथ में होते हैं। जिस दिन उन्हें लगेगा कि उनका मतलब पूरा नहीं हो रहा है तो वे बात तक नहीं करेंगें। इसीलिए तो बड़े-बड़े ज्ञानी, संत, महात्मा भगवान के अलावा किसी और से प्यार नहीं करते। महंत हरिहर काका से कहता है कि उनके हिस्से में तो पंद्रह बीघे खेत हैं। जिसके कारण उनके भाइयों का परिवार उनसे जुड़ा हुआ है। किसी दिन अगर हरिहर काका यह कह दें कि वे अपने खेत किसी और के नाम लिख रहे हैं तो वे लोग तो उनसे बात करना भी बंद कर देंगें। खून के रिश्ते ख़त्म हो जायेंगे। महंत हरिहर काका से कहता है कि ये उनके भले की है और वह बहुत दिनों से उनसे कहना चाहता था लेकिन झिझक के कारण नहीं बोल पाया। आज कह देता हूँ, तुम अपने हिस्से का खेत ठाकुर जी के नाम लिख दो। सीधे बैकुंठ को प्राप्त करोगे। तीनो लोकों में तुम्हारी कीर्ति जगमगा उठेगी। जब तक चाँद-सूरज रहेंगे, तब तक लोग तुम्हें याद करेंगे। ठाकुरजी के नाम पर ज़मीन लिख देना, तुम्हारे जीवन का महादान होगा। साधु-संत तुम्हारे पाँव पखारेंगे। सभी तुम्हारा यशोगान करेंगे। तुम्हारा यह जीवन सार्थक हो जाएगा। अपनी शेष जिंदगी तुम इसी ठाकुरबारी में गुजारना, तुम्हें किसी चीज़ की कमी नहीं होगी। एक माँगोगे तो चार हाज़िर की जाएँगी हम तुम्हें सिर-आँखों पर उठाकर रखेंगे। ठाकुरजी के साथ-साथ तुम्हारी आरती भी लगाएँगे। भाई का परिवार तुम्हारे लिए कुछ नहीं करेगा। पता नहीं पूर्वजन्म में तुमने कौन सा पाप किया था कि तुम्हारी दोनों पत्नियाँ अकालमृत्यु को प्राप्त हुई। तुमने औलाद का मुँह तक नहीं देखा। अपना यह जन्म तुम अकारथ न जाने दो। ईश्वर को एक भर दोगे तो दस भर पाओगे। मैं अपने लिए तो तुमसे माँग नहीं रहा हूँ। तुम्हारा यह लोक और परलोक दोनों बन जाएँ, इसकी राह मैं तुम्हें बता रहा हूँ…..।” बैकुंठ – स्वर्ग महंत हरिहर काका से कहता है कि उनके हिस्से में जितने खेत हैं वे उनको भगवान के नाम लिख दें। ऐसा करने से उन्हें सीधे स्वर्ग की प्राप्ति होगी। तीनों लोकों में उनकी प्रसिद्धि का ही गुणगान होगा। जब तक इस दुनिया में चाँद-सूरज रहेंगे, तब तक लोग उन्हें याद किया करेंगे। भगवान के नाम पर अपनी सारी जमीन को लिख देना उनके जीवन का महादान कहलाया जायगा। साधु-संत भी उनके पाँव धोएंगें। सभी उनकी प्रशंसा और उनका गुणगान करेंगे। उनका जीवन सफल हो जाएगा। महंत हरिहर काका से कहता है कि वे अपनी बाकी की जिंदगी देव-स्थान पर गुजार सकते हैं। वहाँ पर उन्हें कभी भी किसी भी चीज़ की कोई कमी नहीं होगी। कोई एक चीज़ माँगने पर चार चीज़ें रख दी जाएगी। वहाँ पर उनका बहुत आदर-सत्कार किया जाएगा। भगवान की पूजा के साथ-साथ हरिहर काका की भी पूजा की जाएगी। महंत हरिहर काका से कहता है कि उनके भाई का परिवार उनके लिए कुछ भी नहीं करेगा। महंत यह भी कहता है कि पता नहीं हरिहर काका ने पिछले जन्म में कौन से ऐसे पाप किये थे जिसके कारण उनकी दोनों पत्नियाँ मृत्यु से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गई और ना ही वे औलाद का सुख हासिल कर पाए। महंत हरिहर काका को कहता है कि वे अपना जीवन अकारण ही ख़राब न करें। अगर वे भगवान को एक चीज़ देंगे तो भगवान उन्हें दस चीज़ें वापिस देंगे। महंत हरिहर काका से कहता है कि वह जमीन उसके अपने लिए तो नहीं माँग रहा, वह तो सिर्फ हरिहर काका को रास्ता दिखा रहा है ताकि हरिहर काका के लोक और परलोक दोनों सुख में बीते। हरिहर देर तक महंत जी की बातें सुनते रहे। महंत जी कि बातें उनके मन में बैठती जा रही थीं। ठीक ही तो कह रहे हैं महंत जी। कौन किसका है? पंद्रह बीघे खेत की फसल भाइयों के परिवार को देतें हैं, तब तो कोई पूछता नहीं, अगर कुछ न दें तब क्या हालत होगी? उनके जीवन में तो यह स्थिती है, मरने के बाद कौन उन्हें याद करेगा? सीधे-सीधे उनके खेत हड़प जाएँगे। ठाकुर जी के नाम लिख देंगे तो पुश्तों तक लोग उन्हें याद करेंगे। अब तक के जीवन में तो ईश्वर के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया। अंतिम समय तो यह बड़ा पुण्य कमा लें। लेकिन यह सोचते हुए भी हरिहर काका का मुँह खुल नहीं रहा था। भाई का परिवार तो अपना ही होता है। उनको न देकर ठाकुरबारी में दे देना उनके साथ धोखा और विश्वासघात होगा…..। हड़प लेना – बेईमानी से ले लेना लेखक कहता है कि जब महंत हरिहर काका को समझा रहे थे, तो हरिहर काका बहुत देर तक महंत की बातों को सुनते रहे। महंत की बातें हरिहर काका के मन में बैठती जा रही थी और वे सोच रहे थे कि महंत सही तो कह रहे हैं। इस दुनिया में कोई किसी का नहीं है। क्योंकि वे अपने हिस्से के पंद्रह बीघे खेत की फसल अपने भाइयों के परिवार को दे देते हैं, उसके बाद भी वहाँ उनका ध्यान नहीं रखा जाता। हरिहर काका सोचने लगे अगर वे कुछ भी न दें फिर उनका क्या होगा। उनके जीते जी ही उनका कोई महत्त्व नहीं रह गया है, तो मरने के बादकोई उन्हें याद नहीं करेगा । उनके खेतों पर बेईमानी से कब्ज़ा कर लिया जाएगा। हरिहर काका सोचने लगे कि अगर वे अपनी जमीन भगवान के नाम लिख दें तो पीढ़ियों तक उनको याद रखा जायेगा। अब तक के जीवन में उन्होंने भगवान के लिए कुछ भी नहीं किया। अपने अंतिम समय में वे कुछ अच्छा तो कर ही सकते हैं। लेखक कहता है कि हरिहर काका ये सब सोच तो रहे थे परन्तु वे कुछ बोल नहीं पा रहे थे। वे दूसरी ओर यह भी सोच रहे थे कि भाई का परिवार भी तो अपना ही परिवार होता है। अपनी जमीन उनको न देकर देव-स्थान के नाम लिख देना, उनके साथ भी तो धोखा और विश्वासघात होगा। अपनी बात समाप्त पर महंत जी प्रतिक्रिया जानने के लिए हरिहर की ओर देखने लगे। उन्होंने मुँह से तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके चेहरे के परिवर्तित भाव महंत जी की अनुभवी आँखों से छिपे न रह सके। अपनी सफलता पर महंत जी को बहुत ख़ुशी हुई। उन्होंने सही जगह वार किया है। इसके बाद उसी वक्त ठाकुरबारी के दो सेवकों को बुलाकर आदेश दिया कि एक साफ़-सुथरे कमरे में पलंग पर बिस्तरा लगाकर उनके आराम का इंतज़ाम करें। फिर तो महंत जी के कहने में जितना समय लगा था, उससे कम समय में ही, सेवकों ने हरिहर काका के मना करने के बावज़ूद उन्हें एक सुन्दर कमरे में पलंग पर जा लिटाया। और महंत जी! उन्होंने पुजारी जी को यह समझा दिया कि हरिहर के लिए विशेष रूप से भोजन की व्यवस्था करें। हरिहर काका को महंत जी एक विशेष उद्देश्य से ले गए थे, इसलिए ठाकुरबारी में चहल-पहल शुरू हो गई। प्रतिक्रिया – प्रतिकार / बदला / क्रिया के विरोध में होनेवाली घटना जब महंत जी हरिहर काका को समझा कर रुके तो वे हरिहर काका की ओर देखने लगे क्योंकि वे जानना चाहते थे कि उनके समझाने का हरिहर काका पर क्या प्रभाव पड़ा है। हरिहर काका ने अपने मुँह से तो कोई उत्तर नहीं दिया परन्तु हरिहर काका के चेहरे की बदलती हुई भावनाओं को महंत जी आसानी से पहचान गए। महंत जी जो चाहते थे वह हो रहा था इसलिए वह बहुत खुश थे। वे जानते थे कि उन्होंने सही जगह और सही समय पर वार किया है। फिर महंत जी ने उसी समय दो सेवकों को बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि एक साफ़-सुथरे कमरे में पलंग पर बिस्तरा लगाकर हरिहर काका के आराम का प्रबंध करें। महंत जी के कहने में जितना समय लगा था सेवकों ने उससे भी कम समय में ही काम कर दिया और हरिहर काका के मना करने के बाद भी उन्हें एक सुन्दर कमरे में पलंग पर लेटाया गया। और महंत जी ने पुजारी को यह समझा दिया था कि हरिहर काका के लिए विशेष रूप से भोजन की व्यवस्था करवाए क्योंकि हरिहर काका को महंत जी एक विशेष उद्देश्य से देव- स्थान में ले कर आए थे, इसलिए देव-स्थान में चहल-पहल शुरू हो गई। इधर शाम को हरिहर काका के भाई जब खलियान से लौटे तब उन्हें इस दुर्घटना का पता चला पहले तो अपनी पत्नियों पर वे खूब बरसे, फिर एक जगह बैठकर चिंतामग्न हो गए। हालाँकि गाँव के किसी व्यक्ति ने भी उनसे कुछ नहीं कहा था। महंत जी ने हरिहर काका को क्या-क्या समझाया है, इसकी भी जानकारी उन्हें नहीं थी। लेकिन इसके बाबजूद उनका मन शंकालु और
बेचैन हो गया। दरअसल, बहुत सारी बातें ऐसी होती हैं, जिनकी जानकारी बिना बताए ही लोगो को मिल जाती है। चिंतामग्न – सोच में पड़ना हरिहर काका के भाई जब शाम को काम करके खलियान से लौटे तब उन्हें सारी बात का पता चला की उनके पीछे घर में क्या-क्या हुआ है। सब कुछ जान कर पहले तो उन्होंने अपनी पत्नियों को बहुत डाँटा, फिर एक स्थान पर बैठकर सोच में पड़ गए। वैसे अभी तक गाँव के किसी व्यक्ति ने उनसे कुछ नहीं कहा था और न ही उन्हें अभी तक इस बात का पता था की महंत जी ने हरिहर काका को क्या-क्या समझाया है। लेकिन इन सब के बाद भी उनका मन संदेह में पड़ गया और व्याकुल हो गया। क्योंकि उनको इस बात का पता था की बहुत सी बातों की जानकारी लोगों को बिना बताए ही हो जाती है। शाम के ज्यादा गहरे होते-होते हरिहर काका के तीनो भाई हरिहर काका को घर वापिस लेने के लिए देव-स्थान पहुँच गए। उन्होंने हरिहर काका को घर चलने के लिए कहा और इससे पहले हरिहर काका कुछ बोलते महंत जी बीच में ही बोल पड़े कि आज हरिहर काका को देव-स्थान में ही रहने दिया जाए क्योंकि हरिहर काका अभी कुछ दिल पहले ही बिमारी से ठीक हुए हैं और उनका मन भी शांत नहीं है। अगर हरिहर काका भगवान के पास कुछ समय बिताएँगे तो उन्हें अच्छा लगेगा। लेकिन उनके भाई उन्हें घर ले चलने के लिए ज़िद करने लगे। इस पर ठाकुरबारी के साधू-संत उन्हें समझने लगे। वहाँ उपस्थित गाँव के लोगों ने भी कहा कि एक रात ठाकुरबारी में रह जाएँगे तो क्या हो जाएगा? अंततः भाइयों को निराश हो वहाँ से लौटना पड़ा। मिष्टान्न – मिठाई महंत के ये कहने पर भी कि आज हरिहर काका को देव-स्थान में ही रहने दो, उनके भाई उन्हें घर ले चलने की ज़िद करने लगे। इस पर देव-स्थान के सभी साधु-संत हरिहर काका के भाइयों को समझाने लग गए। वहाँ पर उपस्थित गाँव के लोग भी उन्हें कहने लगे कि अगर एक रात हरिहर काका देव-स्थान पर रहेंगे तो कुछ नहीं होगा । इसके कारण हरिहर काका के भाइयों को निराश हो कर वापिस अपने घर जाना पड़ा। देव-स्थान में रात के खाने के लिए हरिहर काका को जो खाना दिया गया, वैसी मिठाई और तरह-तरह का भोजन उन्होंने कभी नहीं खाए थे । घी टपकते मालपुए, रस बुनिया, लड्डू, छेने की तरकारी, दही, खीर और भी न जाने क्या-क्या। पुजारी जी ने स्वयं अपने हाथों से हरिहर काका को खाना परोसा था। पास में बैठे महंत जी धर्म चर्चा करते हुए हरिहर काका के मन में शांति पहुँचा रहे थे। एक ही रात में हरिहर काका ने देव-स्थान में जो सुख-शांति और संतोष पा लिया था, वह उन्होंने अपने अब तक के पुरे जीवन में हासिल नहीं किया था। इधर तीनों भाई रात-भर सो नहीं सके। भावी आशंका उनके मन को मथती रही। पंद्रह बीघे खेत! इस गाँव की उपजाऊ ज़मीन! दो लाख से अधिक की सम्पति! अगर हाथ से निकल गई तो फिर वह कहीं के न रहेंगे।
भावी आशंका – भविष्य की चिंता जब हरिहर काका देव-स्थान में ही रुक गए तो रात-भर उनके तीनों भाइयों को नींद नहीं आई। उनके भविष्य की चिंता उनके मन में बार-बार आती रही। वे सोचते रहे कि पंद्रह बीघे खेत, जिसकी जमीन गाँव की सबसे अधिक उपजाऊ जमीन है और लगभग दो लाख से ज्यादा की संपत्ति अगर उनके हाथ से निकाल गई तो वे क्या करेंगे। सुबह होते ही हरिहर काका के तीनों भाई फिर से देव-स्थान पहुँच गए। तीनों हरिहर काका के पाँव में गिर कर रोने लगे और अपनी पत्नियों की गलती की माफ़ी माँगने लगे और कहने लगे की वे अपनी पत्नियों को उनके साथ किए गए इस तरह के व्यवहार की सज़ा देंगे। वे हरिहर काका के सामने खून के रिश्ते की बात करने लगे। हरिहर काका के मन में दया का भाव जाग गया और वे फिर से घर वापिस लौट कर आ गए। लेकिन यह क्या? इस बार अपने घर पर जो बदलाव उन्होंने लक्ष्य किया,उसने उन्हें सुखद आश्चर्य में डाल दिया। घर के छोटे-बड़े सब उन्हें सिर-आँखों पर उठाने को तैयार। भाइयों की पत्नियों ने उनके पैर पर माथा रख गलती के लिए क्षमा-याचना की। फिर उनकी आवभगत और जो खातिर शुरू हुई, वैसी खातिर किसी के यहाँ मेहमान आने पर भी नहीं होती होगी। उनकी रूचि और इच्छा के मुताबिक दोनों जून खाना-नाश्ता तैयार। पाँच महिलाएँ उनकी सेवा में मुस्तैद- तीन भाइयों की पत्नियाँ और दो उनकी बहुएँ। हरिहर काका आराम से दालान में पड़े रहते। जिस किसी चीज़ की इच्छा होती, आवाज़ लगाते ही हाज़िर। वे समझ गए थे कि यह सब महंत जी के चलते ही हो रहा है, इसलिए महंत जी के प्रति उनके मन में आदर और श्रद्धा के भाव निरंतर बढ़ते ही जा रहे थे। याचना – माँगना जब अपने भाइयों के समझाने के बाद हरिहर काका घर वापिस आए तो घर में और घर वालों के व्यवहार में आए बदलाव को देख कर उन्हें बहुत ही सुख देने वाली भावना महसूस हुई। घर के सभी छोटे-बड़े लोग हरिहर काका का आदर-सत्कार करने लगे। तीनों भाइयों की पत्नियों ने हरिहर काका के पैरों में अपना माथा रख कर अपने व्यवहार के लिए माफ़ी माँगी। फिर तो जो सत्कार और खातिरदारी हरिहर काका की होने लगी, वैसी तो बहुतों के घर में मेहमानों की भी नहीं होती। जो भी हरिहर काका को पसंद होता, दोनों समय वही खाना बनाया जाता। तीन भाइयों की पत्नियाँ और उनकी दो बहुएँ- सभी पाँचों महिलाएँ हरिहर काका की सेवा में कमर कस कर हमेशा तैयार रहती थी। हरिहर काका आराम से बरामदे में पड़े रहते थे। उन्हें जिस किसी चीज़ की जरुरत होती वे सिर्फ आवाज देते सब कुछ उनके सामने लाया जाता। वे यह समझ गए थे कि ये सब महंत जी के कारण ही हो रहा है, इसीलिए महंत जी के लिए उनके मन में आदर पूर्ण आस्था और विश्वास लगातार बढ़ता ही जा रहा था। बहुत बार ऐसा होता है कि बिना किसी के कुछ बताए गाँव के लोग असली तथ्य से स्वयं वाकिफ हो जाते हैं। हरिहार काका की इस घटना के साथ ऐसा ही हुआ। दरअसल लोगो की ज़ुबान से घटनाओं की जुबान ज्यादा पैनी और असरदार होती है। घटनाएँ स्वयं ही बहुत कुछ कह देती हैं, लोगों के कहने की जरुरत नहीं रहती। न तो गाँव के लोगों से महंत जी ने ही कुछ कहा था और न ही हरिहर काका के भाइयों ने ही। इसके बावजूद गाँव के लोग सच्चाई से अवगत हो गए थे। फिर तो गाँव की बैठकों में बातों का जो सिलसिला चल निकला उसका कहीं कोई अंत नहीं। हर जगह उन्हीं का प्रसंग शुरू। कुछ लोग कहते कि हरिहर को अपनी जमीन ठाकुर जी के नाम लिख देनी चाहिए। इससे उत्तम और कुछ नहीं। इससे कीर्ति भी अचल बनी रहती है। इसके विपरीत कुछ लोगों की मान्यता यह थी कि भाई का परिवार तो अपना ही होता है। अपनी जायदाद उन्हें न देना उनके साथ अन्याय करना होगा। खून के रिश्ते के बीच दीवार बनानी होगी। तथ्य – वास्तविक घटना लेखक कहता है कि बहुत बार ऐसा देखने में आता है कि बिना किसी के कुछ भी बताए, गाँव के लोगों को वास्तविक घटना का पता चल ही जाता है। हरिहर काका की घटना में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। बात यह है कि लोगों की जुबान किसी भी घटना को और ज्यादा असरदार और महत्वपूर्ण बना देती है। कोई भी घटना खुद भी अपने बारे में बहुत कुछ बता देती है, लोगों के कहने की कोई जरुरत ही नहीं पड़ती। गाँव के लोगों को न तो महंत जी ने कुछ बताया था और ना ही हरिहर काका के भाइयों ने कुछ बताया था। उसके बाद भी गाँव के लोग सच्चाई से खुद ही परिचित हो गए थे। फिर तो गाँव के लोग जब भी कहीं बैठते तो बातों का ऐसा सिलसिला चलता जिसका कोई अंत नहीं था। हर जगह बस उन्हीं की बातें होती थी। कुछ लोग कहते कि हरिहर काका को अपनी जमीन भगवान के नाम लिख देनी चाहिए। इससे उत्तम और अच्छा कुछ नहीं हो सकता। इससे हरिहर काका को कभी न ख़त्म होने वाली प्रसिद्धि प्राप्त होगी। इसके विपरीत कुछ लोग यह मानते थे कि भाई का परिवार भी तो अपना ही परिवार होता है। अपनी जायदाद उन्हें न देना उनके साथ अन्याय करना होगा। खून के रिश्ते के बीच दीवार बन सकती है। जितने मुँह उतनी बातें। ऐसा जबरदस्त मसला पहले कभी नहीं मिला था, इसलिए लोग मौन होना नहीं चाहते थे। अपने-अपने तरीके से समाधान ढूँढ रहे थे और प्रतीक्षा कर रहे थे कि कुछ घटित हो। हालाँकि ऐसी क्रम में बातें गर्माहट-भरी भी होने लगी थीं। लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में दो वर्गों में बँटने लगे थे। कई बैठकों में दोनों वर्गों के बीच आपस में तू-तू, मैं-मैं भी होने लगी। एक वर्ग के लोग चाहते थे कि हरिहर अपने हिस्से की जमीन ठाकुर जी के नाम लिख दें। तब यह ठाकुरबारी न सिर्फ इलाके की ही सबसे बड़ी ठाकुरबारी होगी, बल्कि पूरे राज्य में इसका मुकाबला कोई दूसरी ठाकुरबारी नहीं कर सकेगी। इस वर्ग के लोग धार्मिक संस्कारों के लोग हैं। साथ ही किसी-न-किसी रूप में ठाकुरबारी से जुड़े हैं। असल में जब सुबह-शाम ठाकुरजी को भोग लगाया जाता है, तब साधु-संतों के साथ गाँव के कुछ पेटू और चटोर किस्म के लोग प्रसाद पाने के लिए वहाँ जुट जाते हैं। ये लोग इसी वर्ग के हिमायती हैं। दूसरे वर्ग में गाँव के प्रगतिशील विचारों वाले लोग तथा वैसे किसान हैं, जिनके यहाँ हरिहर जैसे औरत-मर्द पल रहे होते हैं। गाँव का वातावरण तनावपूर्ण हो गया था और लोग कुछ घटित होने की प्रतीक्षा करने लगे थे। समाधान – उपाय लेखक कहता है कि गाँव में जितने मुँह थे उतनी रंग की बातें हो रही थी। बातें करने के लिए ऐसा वाक्य कभी नहीं मिला था, इसलिए लोग चुप होने का नाम नहीं ले रहे थे। हर कोई अपनी-अपनी समझ के आधार पर समस्या के लिए उपाय खोज रहा था और ये इन्तजार कर रहे थे कि कब कुछ घटना घटित हो। इसी के कारण बातें इतनी अधिक बढ़ गई थी कि लोग सामने और बिना सामने आए हुए भी दो भागों में बँट गए थे। कई बार तो हालात ये हो जाते कि दोनों भागों के लोगों के बीच झगड़े की नौबत आ जाती। एक वर्ग के लोग ये चाहते थे कि हरिहर अपने हिस्से की जमीन भगवान के नाम लिख दें। क्योंकि वे सोचते थे कि ऐसा करने पर उनका देव-स्थान न सिर्फ इलाके की ही सबसे बड़ा देव-स्थान होगा, बल्कि पूरे राज्य में इसका मुकाबला कोई दूसरा देव-स्थान नहीं कर पाएगा। जो लोग यह सोचते थे, वे धार्मिक प्रवृत्ति के लोग थे और वे किसी न किसी तरह देव-स्थान से जुड़े हुए थे। असल में वे ऐसे लोग थे, जो सुबह-शाम जब भगवान को भोग लगाया जाता, तब साधु-संतों के साथ प्रसाद पाने के लिए वहाँ जुट जाते थे। ये लोग सिर्फ साधु-संतों और महंतों की तरफदारी करने वाले थे। दूसरे वर्ग के लोग गाँव के विकास के बारे में सोचने वाले लोग थे और वे लोग थे जिनके घर में हरिहर काका की तरह कोई न कोई औरत या मर्द था। गाँव का वातावरण बहुत ही तनाव भरा हो गया था और लोग इंतज़ार कर रहे थे कि कुछ न कुछ घटित हो। इधर भावी आशंकाओं के मद्देनज़र रखते हुए हरिहर काका के भाई उनसे यह निवेदन करने लगे कि अपनी जमीन वे उन्हें लिख दें। उनके सिवाय उनका और अपना है नहीं कौन? इस विषय पर हरिहर काका ने एकांत में मुझसे काफ़ी देर तक बात की। अंततः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जीते-जी अपनी जायदाद का स्वामी किसी और को बनाना ठीक नहीं होगा। चाहे वह अपना भाई या मंदिर का महंत ही क्यों न हो? हमें अपने गाँव और इलाके के वे कुछ लोग याद आए, जिन्होंने अपनी जिंदगी में ही अपनी जायदाद अपने उत्तराधिकारियों या किसी अन्य को लिख दी थी, लेकिन उसके बाद उनका जीवन कुत्ते का जीवन हो गया। कोई उन्हें पूछने वाला नहीं रहा। हरिहर काका बिलकुल अनपढ़ व्यक्ति हैं, फिर भी इस बदलाव को उन्होंने समझ लिया और यह निश्चय किया कि जीते-जी किसी को जमीन नहीं लिखेंगे। अपने भाइयों को समझा दिया मर जाऊँगा तो अपने आप मेरी जमीन तुम्हें मिल जायगी। जमीन ले कर तो जाऊँगा नहीं। इसलिए लिखवाने की क्या जरुरत? सिवाय
– अलावा लेखक कहता है कि अपने भविष्य की चिंता को ध्यान में रख कर हरिहर काका के भाई उनसे प्रार्थना करने लगे कि वे अपने हिस्से की जमीन को उनके नाम लिखवा दें। उनके अलावा हरिहर काका की जायदाद पर हक़ जताने वाला कोई नहीं था । इस विषय पर हरिहर काका ने लेखक से बहुत समय तक बात की और लेखक और हरिहर काका अंत में इस परिणाम पर पहुंचे कि अपने जीते-जी अपनी जायदाद का स्वामी किसी और को बनाना ठीक नहीं होगा। फिर चाहे वह अपना भाई हो या मंदिर का महंत। क्योंकि लेखक और हरिहर काका को अपने गाँव और इलाके के वे कुछ लोग याद आए, जिन्होंने अपनी जिंदगी में ही अपनी जायदाद को अपने रिश्तेदारों या किसी और के नाम लिखवा दिया था। उनका जीवन बाद में किसी कुत्ते के जीवन की तरह हो गया था, उन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं था। हरिहर काका बिलकुल भी पढ़े-लिखे नहीं थे, परन्तु उन्हें अपने जीवन में एकदम हुए बदलाव को समझने में कोई गलती नहीं हुई और उन्होंने फैसला कर लिया कि वे जीते-जी किसी को भी अपनी जमीन नहीं लिखेंगे। हरिहर काका ने अपने भाइयों को भी समझा दिया था कि जब वे मर जाएँगे तो अपने आप उनकी सारी जमीन उनके भाइयों की हो जायगी। वे जमीन ले कर तो मरेंगे नहीं इसलिए लिखवाने की कोई जरुरत नहीं है। उधर महंत जी भी हरिहर काका की टोह में रहने लगे। जहाँ कहीं एकांत पाते, कह उठते -“विलम्ब न करो हरिहर। शुभ काम में देर नहीं करते। चल कर ठाकुरजी के नाम जमीन बय कर दो। फिर पूरी जिंदगी ठाकुरबारी में राज करो। मरोगे तो तुम्हारी आत्मा को ले जाने के लिए स्वर्ग से विमान आएगा। देवलोक को प्राप्त करोगे …।” लेकिन हरिहर काका न ‘हाँ’ कहते और न ‘ना’। ‘ना’ कहकर वे महंत जी को दुखी करना नहीं चाहते थे। क्योंकि भाई के परिवार से जो सुख-सुविधाएँ उन्हें मिल रही थी, वे महंत जी की कृपा से ही। और ‘हाँ’ तो उन्हें कहना नहीं है, क्योंकि अपनी जिंदगी में अपनी जमीन उन्हें किसी को नहीं लिखनी। इस मुद्दे पर वे जागरूक हो गए थे। टोह – खोज लेखक कहता है कि जब हरिहर काका अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लगे तो महंत जी हरिहर काका की खोज में रहने लगे थे। उन्हें जब भी हरिहर काका अकेले मिलते, तो वे अपनी बात रखने से पीछे नहीं हटते, वे हमेशा हरिहर काका को अपनी जमीन भगवान के नाम करने के लिए मनाते रहते थे। वे हमेशा हरिहर काका से कहते थे कि उन्हें देर नहीं करनी चाहिए। क्योंकि अच्छे काम में कभी भी देर नहीं करनी चाहिए। उन्हें जल्दी ही अपनी जमीन को भगवान के नाम कर देना चाहिए। और अपनी पूरी जिंदगी वे आराम से देव-स्थान में गुजार सकते हैं। वे हरिहर काका से कहते थे कि अगर वे ऐसा करेंगे तो उनके मरने पर उनकी आत्मा को ले जाने के लिए स्वर्ग से विमान आएगा। और वे भगवन के पास जाएँगे और स्वर्ग में ही रहेंगे। लेकिन हरिहर काका उनकी किसी भी बात का जवाब सही से नहीं देते थे, वे ना तो उत्तर ‘हाँ’ में देते थे और न ही ‘ना’ कहते थे। ‘ना’ कहकर वे महंत जी को नाराज नहीं करना चाहते थे। क्योंकि हरिहर काका के अनुसार भाई के परिवार से जो सुख-सुविधाएँ उन्हें मिल रही थी, वे महंत जी की कारण ही संभव हुई थी। और ‘हाँ’ वे किसी को भी नहीं कहना चाहते क्योंकि उन्होंने इरादा बना दिया था कि वे अपने जीते जी अपनी जमीन को किसी के नाम भी नहीं लिखेंगे। इस विषय पर वे पूरी तरह से सावधान हो गए थे। पर बितते समय के अनुसार महंत जी की चिंताएँ बढ़ती जा रही थीं। जाल में फँसी चिड़िया पकड़ से बाहर हो गई थी, महंत जी इस बात को सह नहीं पा रहे थे। महंत जी को लग रहा था कि हरिहर धर्म-संकट में पड़ गया है। एक ओर वह चाहता है कि ठाकुर जी को लिख दूँ, किन्तु दूसरी ओर भाई के परिवार के माया-मोह में बांध जाता है। इस स्थिति में हरिहर का अपहरण कर जबरदस्ती उससे लिखवाने के अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प नहीं। बाद में हरिहर स्वयं राजी हो जाएगा। महंत जी लड़ाकू और दबंग प्रकृति के आदमी हैं। अपनी योजना को कार्य-रूप में परिणत करने के लिए वह जी-जान से जुट गए। हालाँकि यह सब गोपनीयता का निर्वाह करते हुए ही वह कर रहे थे। हरिहर काका के भाइयों को इसकी भनक तक नहीं थी। जबरदस्ती – बलपूर्वक लेखक कहता है कि जैसे-जैसे समय बीत रहा था महंत जी की परेशानियाँ बढ़ती जा रही थी। उन्हें लग रहा था कि उन्होंने हरिहर काका को फसाँने के लिए जो जाल फेंका था, हरिहर काका उससे बाहर निकल गए हैं, यह बात महंत जी को सहन नहीं हो रही थी। महंत जी को यह लग रहा था कि हरिहर काका धर्म-संकट में पड़ गए हैं, वे एक ओर तो अपनी जमीन भगवान के नाम लिखना चाहते हैं और वहीँ दूसरी ओर वे अपने भाइयों के परिवार से मिलने वाले आदर-सत्कार के कारण उनसे बाँध गए हैं। महंत जी बहुत जी लड़ने वाले और प्रभावशाली किस्म के व्यक्ति थे। अपनी योजना को, जो बिलकुल ही बदल गई थी, पूरा करने के लिए महंत जी अपनी पूरी ताकत से लग गए। महंत जी इस कार्य को कुछ ही लोगों को बताकर कर रहे थे। इस बात की जानकारी हरिहर काका के भाइयों को भी नहीं थी। बात अभी हाल की ही है। आधी रात के आस-पास ठाकुरबारी के साधु-संत और उनके पक्षधर भाला, गंड़ासा और बंदूक से लैस एकाएक हरिहर काका के दालान पर आ धमके। हरिहर काका के भाई इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नहीं थे। इससे पहले की वे जवाबी करवाई करें और गुहार लगाकर अपने लोगों को जुटाएँ, तब तक आक्रमणकारी उनको पीठ पर लादकर चंपत हो गए। गाँव में किसी ने ऐसी घटना नहीं देखी थी, न सुनी ही थी। सारा गाँव जाग गया। शुभचिंतक तो उनके यहाँ जुटने लगे लेकिन अन्य लोग अपने दालान और मकान की छतों पर जमा होकर आहाट लेने और बातचीत करने लगे। अप्रत्याशित – आकस्मिक / जिसकी आशा न रही हो गुहार – रक्षा के लिए गुहार लेखक कहता है की अभी कुछ समय पहले की ही बात है। आधी रात के आस-पास देव-स्थान के साधु-संत और उनके कुछ साथी भाला, गंड़ासा और बंदूकों के साथ अचानक ही हरिहर काका के आँगन में आ गए। हरिहर काका के भाई इस अचानक हुए हमले के लिए तैयार नहीं थे। इससे पहले हरिहर काका के भाई कुछ सोचें और किसी को अपनी सहायता के लिए आवाज लगा कर बुलाएँ, तब तक बहुत देर हो गई थी, हमला करने वाले हरिहर काका को अपनी पीठ पर डाल कर कही गायब हो गए थे। लेखक कहता है कि उसके गाँव में किसी ने भी ऐसी किसी भी घटना को न तो पहले कभी देखा था और न ही ऐसी किसी घटना के बारे में सुना था। सारा गाँव शोर के कारण जाग गया। हरिहर काका की भलाई चाहने वाले उनके घर में इकठ्ठे होने लगे और बाकि लोग अपने आँगनों और मकानों की छतों पर जमा हो कर किसी के भी आने-जाने और बात-चीत करने की आवाजों को सुन कर आपस में बातें करने लगे। हरिहर काका के भाई लोगों के साथ उन्हें ढूँढने निकले। उन्हें लगा कि यह महंत का काम है। वे मय दल-बल ठाकुरबारी जा पहुँचे। वहाँ खामोशी और शांति नजर आई। रोज की भाँति ठाकुरबारी का मुख्य फाटक बंद था। वातावरण में रात का सन्नाटा और सूनापन व्याप्त मिला। उन्हें लगा, यह काम महंत का नहीं, बाहर के डाकुओं का है। वे तो हरजाने कि मोटी रकम लेकर ही हरिहर काका को मुक्त करेंगे। खोज में निकले लोग किसी दूसरी दिशा की ओर प्रस्थान करते कि इसी समय ठाकुरबारी के अंदर से बातचीत करने की सम्मिलित, किन्तु धीमी आवाज सुनाई पड़ी। सबके कान खड़े हो गए। उन्हें यकीन हो गया कि हरिहर काका इसी में हैं। अब क्या सोचना? वे ठाकुरबारी का फाटक पीटने लगे। इसी समय ठाकुरबारी की छत से रोड़े पत्थर उनके ऊपर गिरने लगे। वे तितर-बितर होने लगे। अपने हथियार सँभाले। लेकिन हथियार सँभालने से पहले ही ठाकुरबारी के कमरों की खिड़कियों से फायरिंग शुरू हो गई। एक नौजवान के पैर में गोली लग गई। वह गिर गया। उसके गिरते ही हरिहर काका के भाइयों के पक्षधर भाग चले। सिर्फ वे तीन भाई बचे रह गए। अपने तीनो के बूते इस युद्ध को जितना उन्हें संभव नहीं जान पड़ा। इसलिए वे कस्बे के पुलिस थाने की और दौड़ पड़े। मय – युक्त / भरा हुआ लेखक कहता है कि हरिहर काका के अपहरण के बाद हरिहर काका के भाई लोगों के साथ हरिहर काका की तलाश में निकल गए। उन्हें लगा की ये सब महंत का किया काम है। इसलिए वे अपने सगे-साथियों से भरे एक समूह के साथ देव-स्थान जा पहुँचे। वहाँ पर पहुँच कर उन्हें सिर्फ चुप्पी और शांति ही नजर आई। हमेशा की तरह देव-स्थान का प्रमुख दरवाजा बंद ही था। वातावरण में रात की खामोशी और सूनापन फैला हुआ था। फिर सबको लगा कि यह काम महंत का नहीं है, यह काम बाहर के किसी डाकू के समूह का है और वे हरिहर काका के बदले में उनके परिवार से बहुत ज्यादा धन की माँग करेंगे और जब उनके घर वाले पूरा धन दे-देंगे तभी वे हरिहर काका को छोड़ेंगे। जब खोज में निकले लोगों को लगा की हरिहर काका देव-स्थान में नहीं है तो वे दूसरी दिशा में उन्हें खोजने के लिए जाने लगे, तभी उसी समय उन्हें देव-स्थान के अंदर से सामूहिक परन्तु बहुत धीमी आवाजें सुनाई पड़ी। सभी के कान खड़े हो गए अर्थात सभी ध्यान से सुनने लगे। अब सभी को पूरा भरोसा हो गया था कि हरिहर काका देव-स्थान में ही हैं। फिर तो बिना सोचे-समझे, बिना देर किए लोग देव-स्थान के प्रमुख दरवाजे को पीटने लगे। तभी देव-स्थान की छत से रोड़े-पत्थर बरसने शुरू हो गए, जिसके कारण वे अस्त-व्यस्त हो कर बिखरने लगे। सभी अपने-अपने हथियारों को सँभालने लगे। परन्तु जब तक वे अपने हथियार सँभालते उससे पहले ही देव-स्थान की खिड़कियों से फायरिंग शुरू हो गई। एक नौजवान के पैर पर गोली लग गई और वह गिर गया। उसके गिरते ही हरिहर काका के भाइयों के साथ आए साथी भाग गए। अब सिर्फ हरिहर काका के तीनों भाई ही वहां रह गए थे। हरिहर काका के भाइयों को उनके अकेले के दम पर सबका मुकाबला करना कठिन लगा तो वे भी शहर के पुलिस थाने की ओर सहायता के लिए भागे। उधर ठाकुरबारी के भीतर महंत और उनके कुछ चंद विश्वासी साधु सादे और लिखे कागजों पर अनपढ़ हरिहर काका के अँगूठे के निशान जबरन ले रहे थे। हरिहर काका तो महंत के इस व्यवहार से जैसे आसमान से जमीन में आ गए थे। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि महंत जी इस रूप में भी आएँगे। जिस महंत को वे आदरणीय और श्रद्धेय समझते थे, वह महंत अब उन्हें घृणित, दुराचारी और पापी नजर आने लगा था। अब वह उस महंत की सूरत भी देखना नहीं चाहते थे। अब अपने भाइयों का परिवार महंत की तुलना में उन्हें ज्यादा पवित्र, नेक और अच्छा लगने लगा था। हरिहर काका ठाकुरबारी से अपने घर पहुँचने के लिए बेचैन थे। लेकिन लोग उन्हें पकडे हुए थे। और महंत जी उन्हें समझा रहे थे -“तुम्हारे भले के लिए ही यह सब किया गया हरिहर। अभी तुम्हें लगेगा कि हम लोगों ने तुम्हारे साथ ज़ोर-जबरदस्ती की, लेकिन बाद में तुम समझ जाओगे कि जिस धर्म-संकट में तुम पड़े थे, उससे उबारने के लिए यही एकमात्र रास्ता था….। जबरन – जबरदस्ती लेखक कहता है कि एक ओर तो हरिहर काका को बचाने आए सभी लोग भाग गए थे और दूसरी ओर देव-स्थान के अंदर महंत और उनके कुछ साथी कुछ लिखे हुए कागजों पर ज़बरदस्ती अनपढ़ हरिहर काका के अँगूठे के निशान लेना चाह रहे थे। हरिहर काका तो महंत के इस तरह के व्यवहार से जैसे आसमान से जमीन पर गिर गए थे क्योंकि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि महंत जी का ऐसा भी कोई रूप सामने आएगा। जिस महंत को वे आदर और सम्मान तथा श्रद्धा के समान समझते थे, वे असल में इतने घिनौने, दुष्ट और पापी प्रकृति के निकलेंगे। अब हरिहर काका के मन में महंत के लिए नफरत पैदा हो गई थी, वे महंत की सूरत भी नहीं देखना चाहते थे। हरिहर काका को अब अपने भाइयों का परिवार महंत की तुलना में बहुत ही पवित्र, नेक और अच्छा लगने लगा था। हरिहर काका अपने घर जाने के लिए बहुत ज्यादा व्याकुल हो रहे थे। लेकिन महंत के साथियों ने उन्हें पकड़ रखा था। महंत जी हरिहर काका को समझा रहे थे कि यह सब जो उन्होंने किया है वह हरिहर काका के भले के लिए ही किया है। इस समय हरिहर काका को लग सकता है कि महंत उनके साथ जोर-जबरदस्ती कर रहा है, परन्तु महंत कहता है कि जिस धर्म-संकट में हरिहर काका फँस गए थे उससे बाहर निकालने के लिए यही एक रास्ता था। एक ओर ठाकुरबारी के भीतर जबरन अँगूठे का निशान लेने और पकड़कर समझाने का कार्य चल रहा था तो दूसरी ओर हरिहर काका के तीनों भाई सुबह होने से पहले ही पुलिस की जीप के साथ ठाकुरबारी पहुँचे। जीप से तीनों भाई, एक दरोगा और पुलिस के आठ जवान उतरे। पुलिस इंचार्ज ने ठाकुरबारी के फाटक पर आवाज लगाई। दस्तक दी। लेकिन अंदर से कोई जवाब नहीं। अब पुलिस के जवानों ने ठाकुरबारी के चारों तरफ घेरा डालना शुरू किया। ठाकुरबारी अगर छोटी रहती तो पुलिस के जवान आसानी से उसे घेर लेते, लेकिन विशालकाय ठाकुरबारी को पुलिस के सिमित जवान घेर सकने में असमर्थ साबित हो रहे थे। फिर भी जितना संभव हो सका, उस रूप में उन्होंने घेरा डाल दिया और अपना-अपना मोर्चा सँभाल सुबह की प्रतीक्षा करने लगे। दरोगा – इंस्पेक्टर लेखक कहता है कि एक ओर तो देव-स्थान के अंदर जबरदस्ती हरिहर काका के अँगूठे का निशान लेने और पकड़कर समझने का काम चल रहा था, तो वहीं दूसरी ओर हरिहर काका के तीनों भाई सुबह होने से भी पहले ही पुलिस की जीप को लेकर देव-स्थान पर पहुँच गए थे। जीप से तीनो भाई, एक सब-इंस्पेक्टर और आठ जवान उतरे। पुलिस की ओर से पुलिस प्रभारी ने देव-स्थान का प्रमुख दरवाजा खटखटाया और आवाज भी दी। लेकिन देव-स्थान के अंदर से कोई आवाज बाहर नहीं आई। जब किसी ने देव-स्थान का दरवाजा नहीं खोला और न ही कोई उत्तर दिया तो पुलिस ने देव-स्थान को चारों ओर से घेरना शुरू कर दिया। देव-स्थान अगर छोटा होता तो पुलिस आसानी से उसे घेर लेती, लेकिन देव-स्थान इतना विशाल था कि पुलिस के उन थोड़े से सिपाहियों के लिए ये आसान नहीं था। फिर भी जितना हो सकता था उन्होंने देव-स्थान को चारों ओर से घेर लिया और अपने-अपने स्थान पर पहरा देते हुए सुबह का इंतज़ार करने लगे। हरिहर काका के भाइयों ने सोचा था कि जब वे पुलिस के साथ ठाकुरबारी पहुँचेंगे तो ठाकुरबारी के भीतर से हमले होंगें और साधु-संत रँगे हाथों पकड़ लिए जायँगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। ठाकुरबारी के अंदर से एक रोड़ा भी बाहर नहीं आया। शायद पुलिस को आते हुए उन्होंने देख लिया था। सुबह होने में अभी कुछ देर थी। इसलिए पुलिस इंचार्ज रह-रहकर ठाकुरबारी का फाटक खोलने और साधु-संतों को आत्मसमर्पण करने के लिए आवाज लगा रहे थे। साथ ही पुलिस वर्ग की ओर से हवाई फायर भी किए जा रहे थे, लेकिन ठाकुरबारी की ओर से कोई जवाब नहीं आ रहा था। रँगे हाथों पकड़ना – जुर्म करते हुए पकड़े जाना जब हरिहर काका के भाई पुलिस को ले कर देव-स्थान आए तो उन्हें लगा था कि पुलिस पर भी देव-स्थान के अंदर से उसी तरह से रोडों और पत्थर से हमला होगा जिस तरह उन पर हुआ था और साधु-संत जुर्म करते हुए पकड़े जायँगे। लेकिन जैसा उन्होंने सोचा था वैसा कुछ भी नहीं हुआ। देव-स्थान के अंदर से एक छोटा-सा पत्थर भी नहीं आया। ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने पुलिस को आते हुए देख लिया था। सुबह तड़के एक वृद्ध साधु ने ठाकुरबारी का फाटक खोल दिया। उस साधु की उम्र अस्सी वर्ष की अधिक की होगी। वह लाठी के सहारे काँपते हुए खड़ा था। पुलिस इंचार्ज ने उस वृद्ध साधु के पास पहुँच हरिहर काका और ठाकुरबारी के महंत, पुजारी और अन्य साधुओं के बारे में पूछा। लेकिन उसने कुछ भी बताने से इंकार कर दिया। पुलिस इंचार्ज ने कई बार उससे पूछा। डाँट लगाई, धमकियाँ दीं, लेकिन हर बार एक ही वाक्य कहता, “मुझे कुछ मालूम नहीं” ऐसे वक्त पुलिस के लोग मार-पीट का सहारा लेकर भी बात उगलवाते हैं; लेकिन उस साधु की वय देखकर पुलिस इंचार्ज को महटिया जाना पड़ा। वय – उम्र लेखक कहता है कि जब सुबह हुई तो एक बहुत ही वृद्ध साधु ने देव-स्थान का प्रमुख दरवाजा खोल दिया। देखने से लग रहा था कि उस साधु की उम्र अस्सी वर्ष से भी अधिक की होगी। वह लाठी ले कर खड़ा था और काँप रहा था। पुलिस प्रभारी उस वृद्ध साधु के पास गया और उससे हरिहर काका और देव-स्थान के महंत, पुजारी और दूसरे साधुओं के बारे में पूछा। लेकिन उस वृद्ध ने कुछ भी बताने से इंकार कर दिया। पुलिस प्रभारी ने उससे बहुत बार एक ही बात पूछी, उसे बहुत बार डाँटा भी और साथ-ही-साथ धमकियाँ भी दी, परन्तु वह वृद्ध साधु हर बार एक ही उत्तर दे रहा था कि उसे कुछ भी नहीं पता। ऐसे वक्त में अगर पुलिस के सामने उस वृद्ध साधु की जगह कोई और होता तो पुलिस उससे मार-पीट कर सब बातें उगलवा देती, परन्तु उस साधु की उम्र के कारण पुलिस प्रभारी को सब कुछ नजरअंदाज करना पड़ा। पुलिस इंचार्ज के नेतृत्व में पुलिस के जवान ठाकुरबारी की तलाशी लेने लगे। लेकिन न तो ठाकुरबारी के नीचे के कमरों में ही कोई पाया गया और न ही छत के कमरों में ही। पुलिस के जवानों ने खूब छन-बीन की, उस वृद्ध साधू के अलावा कोई दूसरा ठाकुरबारी में नहीं मिला। हरिहर काका के भाई चिंता, परेशानी और दुखद आश्चर्य से घिर गए। ठाकुरबारी के महंत और साधु-संत हरिहर काका को ले कर कहाँ भाग गए? अब क्या होगा? काफ़ी पैसे खर्च कर पुलिस को लाए थे। पुलिस के साथ आने के बाद वह अंदर ही अंदर गर्व महसूस कर रहे थे। उन्हें लग रहा था कि अब भाई को वे आसानी से घर ले जाएँगे तथा साधु-संतों को जेल भिजवा देंगे। लेकिन दोनों में से एक भी नहीं हुआ। लेखक कहता है कि पुलिस प्रभारी के नेतृत्व में सभी पुलिस के जवान देव-स्थान की अच्छे से तलाशी लेने लगे। लेकिन न तो पुलिस को देव-स्थान के नीचे वाले कमरों में कुछ मिला और न ही देव-स्थान के छत के कमरों में कोई मिला। पुलिस के जवानों ने देव-स्थान की बहुत अच्छे से छान-बीन की, परन्तु उन्हें उस वृद्ध साधु अलावा उस देव-स्थान पर और कोई भी नहीं मिला। हरिहर काका के भाई अब चिंता, परेशानी और दुःख के बादलों में घिर गए थे। वे बस यही सोच रहे थे कि देव-स्थान के महंत और साधु-संत हरिहर काका को कहाँ लेकर गए होंगें। अब वे क्या करेंगें, क्योंकि उन्हें हरिहर काका नहीं मिल रहे थे। उन्होंने बहुत सारे पैसे दे कर पुलिस को देव-स्थान तक लाया था। जब वे पुलिस को अपने साथ ले कर आए थे तो उनको अपने ऊपर गर्व हो रहा था क्योंकि उन्हें लग रहा था कि अब वे आसानी से अपने भाई अर्थात हरिहर काका को अपने साथ घर ले कर जाएँगे और उन जुर्म करने वाले साधु-संतों को वे जेल भिजवा देंगें। परन्तु उनकी एक भी इच्छा पूरी नहीं हुई। ठाकुरबारी के जो कमरे खुले थे, उनकी तलाशी पहले ली गई थी। बाद में जिन कमरों की चिटकिनी बंद थी, उन्हें भी खोलकर देखा गया था। एक कमरे के बाहर बड़ा-सा ताला लटक रहा था। पुलिस और हरिहर काका के भाई सब वहीं एकत्र हो गए। उस कमरे की कुंजी की माँग वृद्ध साधु से की गई तो उसने साफ़ कह दिया, “मेरे पास नहीं।” जब उससे पूछा गया, “इस कमरे में क्या है?” तब उसने जवाब दिया, “अनाज है।” पुलिस इंचार्ज अभी सोच ही रहे थे कि इस कमरे का ताला तोड़ कर देखा जाए या छोड़ दिया जाए कि अचानक उस कमरे के दरवाजे को भीतर से किसी ने धक्का देना शुरू किया। पुलिस के जवान सावधान हो गए। एकत्र – इकठ्ठे लेखक कहता है कि देव-स्थान के जितने भी कमरे खुले हुए थे, पहले उन कमरों की तलाशी ली गई। उसके बाद जो कमरे कुंडी लगाकर बंद किए गए थे, उन्हें खोल कर देखा गया था। कहीं कुछ नहीं मिला। फिर एक कमरा जिसके बाहर बड़ा-सा ताला लटक रहा था, उस के सामने पुलिस और हरिहर काका के भाई सब इकठ्ठे हो गए। उस कमरे की ताली जब उस वृद्ध साधु से माँगी गई तो उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि उसके पास नहीं है। जब पुलिस ने वृद्ध साधु से पूछा कि उस कमरे न क्या रखा है, तो उसने जवाब दिया कि उस कमरे में अनाज रखा गया है। पुलिस के प्रभारी अभी सोच ही रहे थे कि उस कमरे का ताला तोडना है या उस कमरे की तलाशी नहीं लेनी है, तभी उस कमरे को किसी ने अंदर की ओर से धक्का देना शुरू कर दिया। यह देख कर पुलिस के जवान सावधान हो गए। ताला तोड़कर कमरे का दरवाजा खोला गया। कमरे के अंदर हरिहर काका जिस स्थिति में मिले, उसे देख कर उनके भाइयों का खून खौल उठा। उस वक्त अगर महंत, पुजारी या अन्य नौजवान साधु उन्हें नजर आ जाते तो वे जीते-जी उन्हें नहीं छोड़ते। हरिहर काका के हाथ और पाँव तो बाँध ही दिए गए थे, उनके मुँह में कपड़ा ठूँसकर बाँध दिया गया था। हरिहर काका जमीन पर लुढ़कते हुए दरवाजे तक आ गए थे और पैर से दरवाज़े पर धक्का लगाया था। काका को बंधनमुक्त किया गया, मुँह से कपड़े निकाले गए। हरिहर काका ने ठाकुरबारी के महंत,पुजारी और साधुओं की काली करतूतों का परदाफ़ाश करना शुरू किया कि वह साधु नहीं, डाकू, हत्यारे और कसाई हैं, कि उन्हें इस रूप में कमरे में बंद कर गुप्त दरवाज़े से भाग गए, कि उन्होंने के सादे और लिखे हुए कागज़ों पर जबरन उनके अँगूठे के निशान लिए… आदि। खून खौल उठना – बहुत क्रोध आना लेखक कहता है कि जब कमरे को किसी ने अंदर की ओर से धक्का देना शुरू कर दिया तो पुलिस ने कमरे का ताला तोड़ दिया और कमरे को खोल दिया। उस कमरे के अंदर हरिहर काका उन्हें जिस स्थिति में मिले उसे देखकर उनके भाइयों को इतना अधिक गुस्सा आ गया था कि अगर उस समय देव-स्थान के महंत, पुजारी या अन्य नौजवान साधु उन्हें नजर आ जाते तो वे उन्हें मार ही डालते। कमरे में हरिहर काका को हाथ और पाँव बाँध कर रखा गया था और साथ ही साथ उनके मुँह में कपड़ा ठूँसा गया था ताकि वे आवाज़ न कर सकें। परन्तु हरिहर काका दरवाज़े तक लुढ़कते हुए आ गए थे और दरवाज़े पर अपने पैरों से धक्का लगा रहे थे ताकि बाहर खड़े उनके भाई और पुलिस उन्हें बचा सकें। दरवाज़ा खोल कर हरिहर काका को बंधन से मुक्त किया गया। उनके मुँह से कपड़ा निकाला गया। हरिहर काका ने देव-स्थान के महंत, पुजारी और साधुओं के सभी गुनाहों का भेद खोलना शुरू किया कि वह लोग साधु नहीं, डाकू, हत्यारे और कसाई हैं, वे लोग काका को उस कमरे में इस तरह बाँध कर कही छिपे हुए दरवाज़े से भाग गए हैं और उन्होंने कुछ खाली और कुछ लिखे हुए कागजों पर हरिहर काका के अँगूठे के निशान जबरदस्ती लिए हैं और भी हरिहर काका उनके भेद खोलते ही जा रहे थे। हरिहर काका ने देर तक अपना बयान दर्ज कराए। उनके शब्द-शब्द से साधुओं के प्रति नफ़रत और घृणा व्यक्त हो रही थी। जिंदगी ने कभी किसी के खिलाफ़ उन्होंने इतना नहीं कहा होगा जितना ठाकुरबारी के महंत, पुजारी और साधुओं के बारे में कहा। हरिहर काका पुनः अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लगे थे इस बार उन्हें दालान पर नहीं, घर के अंदर रखा गया था -किसी बहुमूल्य वस्तु की तरह सँजोकर, छिपाकर। उनकी सुरक्षा के लिए रिश्ते-नाते के जितने ‘सुरमा’ थे, सबको बुला लिया गया था। हथियार जुटा लिए गए थे। चौबीसों घंटे पहरे दिए जाने लगे थे। अगर किसी आवश्यक कार्यवश काका घर से गाँव में निकलते तो चार-पाँच की संख्या में हथियारों से लैस लोग उनके आगे-पीछे चलते रहते। रात में चारों तरफ से घेरकर सोते। भाइयों ने ड्यूटी बाँट ली थी। आधे लोग सोते तो आधे लोग जागकर पहरा देते रहते। बयान – हाल / वृतांत लेखक कहता है कि हरिहर काका काफी समय तक पुलिस को अपना हाल या वृतांत बताते रहे। उनके प्रयोग में लाए गए एक-एक शब्द में साधुओं के प्रति नफ़रत और घिन का एहसास हो रहा था। हरिहर काका ने अपनी पूरी जिंदगी में कभी भी किसी के ख़िलाफ़ इतना सब कुछ नहीं बोला था जितना उन्होंने देव-स्थान के महंत, पुजारी और साधुओं के बारे में कह दिया था। यह सब बीत जाने के बाद हरिहर काका फिर से अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लग गए थे। परन्तु इस बार हरिहर काका को बरामदे में नहीं बल्कि घर के अंदर रखा गया था, वह भी किसी बहुत ही कीमती चीज़ की तरह सँभाल कर और सभी से छुपाकर। हरिहर काका की सुरक्षा के लिए रिश्ते-नाते में जितने भी योद्धा और बहादुर लोग थे सभी को बुलाया गया था। हथियारों का भी पूरा प्रबंध किया गया था। चौबीसों घंटे पहरे दिए जाने लगे थे। यहाँ तक कि अगर हरिहर काका को किसी काम के कारण गाँव में जाना पड़ता तो हथियारों के साथ चार-पाँच लोग हमेशा ही उनके साथ रहने लगे। रात को भी हरिहर काका को चारों और से सुरक्षा दी जाती। हरिहर काका के भाइयों ने अपने काम बाँट लिए थे। जब आधे लोग सो रहे होते थे तब बाकि के आधे लोग हरिहर काका की सुरक्षा में तैनात रहते थे। इधर ठाकुरबारी का दृश्य भी बदल गया था। एक से एक खूँखार लोग ठाकुरबारी में आ गए थे। उन्हें देख कर ही डर लगता था। गाँव के बच्चों ने तो ठाकुरबारी की और जाना ही बंद कर दिया। हरिहर काका को लेकर गाँव प्रारम्भ से ही दो वर्गों में बाँट गया था इस नई घटना को लेकर दोनों तरफ से प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की जाने लगी थी। खूँखार – अत्यधिक क्रूर
/ निर्दयी लेखक कहता है कि इतना सब कुछ हो जाने के बाद देव-स्थान का दृश्य ही बदल गया था। वहाँ पर पुजारी और महंत के स्थान पर बहुत सारे एक से बढ़कर एक अत्यधिक क्रूर और निर्दयी लोग आ गए थे। उन्हें देखने मात्र से ही किसी को भी डर लग सकता था। उनके डर से गाँव के बच्चों ने तो देव-स्थान जाना ही छोड़ दिया था। हरिहर काका के विषय को लेकर पहले ही गाँव के लोग दो भागों में बाँट गए थे, अब हरिहर काका के अपहरण और उनको छुड़ाने की घटना के बारे में बातें होने लगी थी। लोग अपनी-अपनी राय देने लगे थे। और अब हरिहर काका एक सीधे-सादे और भोले किसान की अपेक्षा चतुर और ज्ञानी हो चले थे। वह महसूस करने लगे थे कि उनके भाई अचानक उनको जो आदर-सम्मान और सुरक्षा प्रदान करने लगे हैं, उसकी वजह उन लोगों के साथ उनका सगे भाई का सम्बन्ध नहीं, बल्कि उनकी जायदाद है, अन्यथा वे उनको पूछते तक नहीं। इस गाँव में जायदादहीन भाई को कौन पूछता है? हरिहर काका को अब सब नज़र आने लगा था! महंत की चिकनी-चुपड़ी बातों के भीतर की सच्चाई भी अब वह जान गए थे। ठाकुरजी के नाम पर वह अपना और अपने जैसे साधुओं का पेट पालता है। उसे धर्म और परमार्थ से कोई मतलब नहीं। निजी स्वार्थ के लिए साधू होने और पूजा-पाठ करने का ढोंग रचाया है। अपेक्षा – तुलना लेखक कहता है कि हरिहर काका के साथ जो कुछ भी हुआ था उससे हरिहर काका एक सीधे-सादे और भोले किसान की तुलना में चालाक और बुद्धिमान हो गए थे। उन्हें अब सब कुछ समझ में आने लगा था कि उनके भाइयों का अचानक से उनके प्रति जो व्यवहार परिवर्तन हो गया था, उनके लिए जो आदर-सम्मान और सुरक्षा वे प्रदान कर रहे थे, वह उनका कोई सगे भाइयों का प्यार नहीं था बल्कि वे सब कुछ उनकी धन-दौलत के कारण कर रहे हैं, नहीं तो वे हरिहर काका को पूछते तक नहीं। लेखक कहता है कि उसके गाँव में धन-दौलत के बिना कोई अपने भाई को पूछता भी नहीं है। हरिहर काका सब कुछ बहुत अच्छी तरह से समझ गए थे। महंत की खुशामद भरी बातों के अंदर छुपी सच्चाई को भी वह जान गए थे। हरिहर काका जान गए थे कि महंत भगवान के नाम पर अपना और अपने साथ काम करने वाले साधु-संतों का पेट पालता है। उसे धर्म और परमार्थ से कोई मतलब नहीं है बल्कि वह तो अपने स्वार्थ के लिए साधु होने और भगवान की पूजा-अर्चना करने का नाटक करता है। साधु के बाने में महंत, पुजारी और उनके अन्य सहयोगी लोभी-लालची और कुकर्मी हैं। छल, बल, कल, किसी भी तरह धन अर्जित कर बिना परिश्रम किए आराम से रहना चाहते हैं। अपने घृणित इरादों को छिपाने के लिए ठाकुरबारी को इन्होने माध्यम बनाया है। एक ऐसा माध्यम जिस पर अविश्वास न किया जा सके। इसीलिए हरिहर काका ने मन ही मन तय कर लिया कि अब महंत को वे अपने पास भटकने तक नहीं देंगे। साथ ही अपनी ज़िन्दगी में अपनी जायदाद भाइयों को भी नहीं लिखेंगे, अन्यथा फिर वह दूध की मक्खी हो जाएँगे। लोग निकाल कर फैंक देंगे। कोई उन्हें पूछेगा तक नहीं। बुढ़ापे का दुख बिताए नहीं बीतेगा! बाने – वेश में लेखक कहता है कि हरिहर काका यह अच्छी तरह से समझ गए थे कि महंत, पुजारी और उनके अन्य सहयोगी साधु नहीं हैं बल्कि वे तो साधु के वेश में बहुत ही लालची और बुरे काम करने वाले लोग हैं। वह अपनी योजनाओं और बुद्धि के सहारे बहुत सारा धन इकठ्ठा करना चाहते हैं ताकि वे बिना मेहनत के ही आराम से अपना जीवन व्यतीत कर सकें। अपने इस तरह के बुरे कामों को छुपाने के लिए उन्होंने देव-स्थान को ही सहारा बना लिया था। क्योंकि देव-स्थान एक ऐसा स्थान होता है जिस पर सभी आँखें बंद कर के विश्वास करते हैं। इसीलिए हरिहर काका ने अपने मन-ही-मन में यह ठान लिया था कि अब वे महंत को अपने आस-पास भी नहीं आने देंगे और उसकी किसी भी बात पर ध्यान नहीं देंगे। इसके साथ ही हरिहर काका ने यह भी तय कर लिया था कि वे अपने जीते-जी अपनी धन-दौलत अपने भाइयों को भी नहीं देंगे क्योंकि वे जानते थे कि अगर उन्होंने ऐसा कुछ किया तो सब उनको बेकार समझ कर कहीं फैंक देंगे। उनका कोई ध्यान नहीं रखेगा। उनके लिए बुढ़ापा बहुत ही ज्यादा कष्टों वाला हो जाएगा। लेकिन हरिहर काका सोच कुछ और रहे थे और वातावरण कुछ दूसरा ही तैयार हो रहा था। ठाकुरबारी से जिस दिन उन्हें वापिस लाया गया था, उसी दिन से उनके भाई और रिश्ते-नाते के लोग समझने लगे थे कि विधिवत अपनी जायदाद वे अपने भतीजों के नाम लिख दें। वह जब तक ऐसा नहीं करेंगे तब तक महंत की गिद्ध-दृष्टि उन पर लगी रहेगी। सिर पर मँडरा रहे तूफ़ान से मुक्ति पाने के लिए उनके समक्ष अब यही एकमात्र रास्ता है….। सुबह, दोपहर, शाम, रात गए तक यही चर्चा। लेकिन हरिहर काका साफ़ नकार जाते। कहते-“मेरे बाद तो मेरी जायदाद इस परिवार को स्वतः मिल जायगी इसलिए लिखने का कोई अर्थ नहीं। महंत ने अँगूठे के जो जबरन निशान लिए हैं, उसके खिलाफ़ मुकदमा हमने किया ही है….। गिद्ध-दृष्टि – तेज़ नज़र लेखक कहता है कि हरिहर काका जो सोच रहे थे हालात बिलकुल उसके उलटे हो रहे थे। जब से हरिहर काका देव-स्थान से वापिस घर आए थे, उसी दिन से ही हरिहर काका के भाई और उनके दूसरे नाते-रिश्तेदार सभी यही सोच रहे थे कि हरिहर काका को क़ानूनी तरीके से उनकी जायदाद को उनके भतीजों के नाम कर देना चाहिए। क्योंकि जब तक हरिहर काका ऐसा नहीं करेंगे तब तक महंत की तेज़ नज़र उन पर टिकी रहेगी। सभी चाहते थे कि हरिहर काका उनके ऊपर घूमते हुए खतरे को उनकी जायदाद उनके भतीजों के नाम करके हटा दें क्योंकि उनके पास यही एक रास्ता बच गया है, जिससे वे अपनी जान बचा सकते हैं। सुबह, दोपहर, शाम यहाँ तक की रात में भी इसी के बारे में बात होती थी। लेकिन हरिहर काका इस बात को मानने से बिलकुल ही मना कर देते थे और कहते थे कि उनके मर जाने के बाद तो उनकी जायदाद खुद ही उनके परिवार को मिल जाएगी तो लिखने से या ना लिखने से क्या फर्क पड़ेगा। महंत ने जो जबरदस्ती उनके अँगूठे के निशान लिए हैं उसके लिए तो उन्होंने मुकदमा किया हुआ है, तो घबराने की कोई बात नहीं। भाई जब समझाते-समझाते हार गए तब उन्होंने डाँटना और दबाव देना शुरू किया। लेकिन काका इस रास्ते भी राज़ी नहीं हुए। स्पष्ट कह दिया कि अपनी जिंदगी में वह नहीं लिखेंगे। बस एक रात उनके भाइयों ने वही रूप धारण कर लिया, जो रूप महंत और उनके सहयोगियों ने धारण किया था। हरिहर काका को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। उनके वही अपने सगे भाई, जो उनकी सेवा और सुरक्षा में तैयार रहते थे, उन्हें अपना अभिन्न समझते थे, जो उनकी नींद ही सोते और जागते थे, हथियार लेकर उनके सामने खड़े थे। कह रहे थे-“सीधे मन से कागजों पर जहाँ-जहाँ जरुरत है, अँगूठे के निशान बनाते चलो अन्यथा मार कर यहीं घर के अंदर गाड़ देंगे। गाँव के लोगों को कोई सूचना तक नहीं मिलने पाएगी।” लेखक कहता है कि जब हरिहर काका के भाई हरिहर काका को समझाते-समझाते थक गए, तो उन्होंने हरिहर काका को डाँटना और उन पर दवाब डालना शुरू कर दिया। लेकिन हरिहर काका इस तरह भी नहीं मानें। उन्होंने स्पष्ट और साफ़-साफ़ कह दिया था कि वे अपने जीते-जी ऐसा नहीं करेंगे। लेखक कहता है कि एक रात हरिहर काका के भाइयों ने भी उसी तरह का व्यवहार करना शुरू कर दिया जैसा महंत और उनके सहयोगियों ने किया था। हरिहर काका को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ क्योंकि उनके वही सगे भाई जो उनकी सेवा और सुरक्षा के लिए दिन-रात तैयार रहते थे, उन्हें कभी अपने से अलग नहीं मानते थे, उनके साथ ही जागते और सोते थे, वही भाई आज हरिहर काका के सामने हथियार ले कर खड़े थे और उन्हें धमकाते हुए कह रहे थे कि ख़ुशी-ख़ुशी कागज़ पर जहाँ-जहाँ जरुरत है, वहाँ-वहाँ अँगूठे के निशान लगते जाओ, नहीं तो वे उन्हें मार कर वहीँ घर के अंदर ही गाड़ देंगे और गाँव के लोगो को इस बारे में कोई सूचना भी नहीं मिलेगी। अगर पहले वाली बात होती तो हरिहर काका डर जाते। अज्ञान की स्थिति में ही मनुष्य मृत्यु से डरते हैं। ज्ञान होने के बाद तो आदमी आवश्यकता पड़ने पर मृत्यु को वरन करने के लिए तैयार हो जाता है। हरिहर काका ने सोच लिया कि ये सब एक ही बार उन्हें मार दें, वह ठीक होगा; लेकिन अपनी जमीन लिख कर रमेसर की विधवा की तरह शेष जिंदगी वे घुट-घुट कर मरें, यह ठीक नहीं होगा। रमेसर की विधवा को बहला-फुसलाकर उसके हिस्से की ज़मीन रमेसर के भाइयों ने लिखवा ली। शुरू में तो उसका खूब आदर-मान किया, लेकिन बुढ़ापे में उसे दोनों जून खाना देते उन्हें अखरने लगा। अंत उसकी वह दुर्गति हुई कि गाँव के लोग देखकर सिहर जाते। हरिहर काका को लगता है कि अगर रमेसर की विधवा ने अपनी जमीन नहीं लिखी होती तो अंत समय तक लोग उसके पाँव पखारते होते। वरन – सामना लेखक कहता है कि जब हरिहर काका के भाई हरिहर काका को धमका रहे थे तो वे बिलकुल नहीं डरे, अगर वे हरिहर काका के अपहरण से पहले उन्हें डराते तो शायद वे डर जाते। क्योंकि जब मनुष्य को ज्ञान नहीं होता तभी वह मृत्यु से डरता है। परन्तु जब मनुष्य को ज्ञान हो जाता है तब वह जरूरत पड़ने पर मृत्यु का सामना करने के लिए भी तैयार हो जाता है। हरिहर काका ने सोच लिया था कि उनके भाई उन्हें एक बार ही मार दें तो सही है, लेकिन वे जमीन उनके नाम लिख कर रमेसर की विधवा की तरह अपनी पूरी जिंदगी घुट-घुट कर नहीं मरना चाहते, यह उन्हें ठीक नहीं लग रहा था। रमेसर की विधवा को अपनी बातों में लाकर रमेसर के भाइयों ने उसकी जमीन अपने नाम लिखवा दी थी। पहले-पहले तो रमेसर की विधवा का बहुत आदर-सम्मान होता था, परन्तु बुढ़ापे में रमेसर के परिवार वालों को उसे दो वक्त का खाना देना भी बुरा लगने लगा था। अंत में तो बेचारी की हालत इतनी ख़राब हुई कि गाँव के लोग भी उस पर तरस करने लगे थे। हरिहर काका अपनी इस तरह की हालत से अच्छा एक बार ही मर जाना सही समझते थे। उन्हें लगता था कि अगर रमेसर की विधवा अपनी जमीन रमेसर के परिवार को नहीं लिखती तो अंत तक सभी उसके पाँव धोते अर्थात उसकी सेवा करते। हरिहर काका गुस्से में खड़े हो गए और गरजते हुए कहा,”मैं अकेला हूँ… तुम सब इतने हो! ठीक है, मुझे मार दो.. मैं मर जाऊँगा, लेकिन जीते-जी एक धूर जमीन भी तुम्हें नहीं लिखूँगा…..तुम सब ठाकुरबारी के महंत-पुजारी से तनिक भी कम नहीं…!” “देखते हैं, कैसे नहीं लिखोगे? लिखना तो तुम्हें है ही, चाहे हँस के लिखो या रो के….।” हरिहर काका के साथ उनके भाइयों की हाथापाई शुरू हो गई। हरिहर काका अब उस घर से निकलकर बाहर गाँव में भाग जाना चाहते थे, लेकिन उनके भाइयों ने उन्हें मजबूती से पकड़ लिया था। प्रतिकार करने पर अब वे प्रहार भी करने लगे थे।
तनिक
– थोड़े भी जब हरिहर काका के भाई हरिहर काका को धमका रहे थे, तब हरिहर काका गुस्से में खड़े होकर बोले कि वे अकेले ही हैं और उनके भाई इतने सारे हैं। अगर वे उन्हें मारना चाहते हैं तो मार दें। हरिहर काका ने साफ़ कह दिया कि वे मर जायँगे परन्तु जीते-जी वे अपनी जमीन का एक टुकड़ा भी उनके नाम नहीं लिखेंगे, क्योंकि अब हरिहर काका को अपने भाई, देव-स्थान के महंत और पुजारी से थोड़े भी काम नहीं लग रहे थे। हरिहर काका के भाई हरिहर काका को धमका रहे थे कि उन्हें अपनी जमीन भाइयों के नाम लिखनी ही पड़ेगी फिर चाहे वे हँस कर लिखे या रो कर। हरिहर काका के साथ अब उनके भाइयों की मारपीट शुरू हो गई। हरिहर काका अब उस घर में नहीं रहना चाहते थे, वे उस घर से बाहर गाँव में भागना चाहते थे परन्तु उनके भाइयों ने उन्हें बहुत मजबूती से पकड़ कर रखा था। अगर हरिहर काका उनका विरोध करते तो वे हरिहर काका पर हमला भी करने लग गए थे। अकेले हरिहर कई लोगो से जूझ सकने में असमर्थ थे, फलस्वरूप उन्होंने अपनी रक्षा के लिए खूब ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। अब भाइयों को चेत आया कि मुँह तो उन्हें पहले ही बंद कर देना चाहिए था। उन्होंने तत्क्षण उन्हें पटक उनके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया। लेकिन ऐसा करने से पहले ही काका की आवाज़ गाँव में पहुँच गई थी। टोला-पड़ोस के लोग दालान में जुटने लगे थे। ठाकुरबारी के पक्षधरों के माध्यम से तत्काल यह खबर महंत जी तक भी चली गई थी। लेकिन वहाँ उपस्थित हरिहर काका के परिवार और रिश्ते-नाते के लोग, गाँव के लोगों को समझा देते कि अपने परिवार का निजी मामला है, इससे दूसरों को क्या मतलब? लेकिन महंत जी ने वह तत्परता और फुरती दिखाई जो काका के भाइयों ने भी नहीं दिखाई थी। वह पुलिस की जीप के साथ आ धमके। चेत – ध्यान लेखक कहता है कि जब हरिहर काका अपने भाइयों का मुकाबला नहीं कर पा रहे थे, तो उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर अपनी मदद के लिए गाँव वालों को आवाज लगाना शुरू कर दिया। तब उनके भाइयों को ध्यान आया कि उन्होंने तो हरिहर काका का मुँह बंद ही नहीं किया जो उन्हें सबसे पहले करना चाहिए था। उन्होंने उसी पल हरिहर काका को जमीन पर पटका और उनके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया। लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी, हरिहर काका की आवाजें बाहर गाँव में पहुँच गई थी। आस-पड़ोस के लोग हरिहर काका के बरामदे में इकठ्ठे होने लग गए थे। देव-स्थान के समर्थकों ने उसी समय वह बात महंत जी के कानों तक पहुँचा दी। लेकिन वहाँ उपस्थित हरिहर काका के परिवार और रिश्ते-नाते के लोग जब तक गाँव वालों को समझाते की यह सब उनके परिवार का आपसी मामला है, वे सभी इससे दूर रहें, तब तक महंत जी बड़ी ही दक्षता और तेज़ी से वहाँ पुलिस की जीप के साथ वहाँ आ गए। वे वहाँ इतनी जल्दी पहुंचे थे जितनी जल्दी हरिहर काका के भाई, हरिहर काका के अपहरण के दौरान भी नहीं पहुंचे थे। पुलिस आने के बाद निजी मामले का सवाल ख़त्म हो गया। घर-तलाशी शुरू हुई। फिर हरिहर काका को उससे भी बदतर हालत में बरामद किया गया जिस हालत में ठाकुरबारी से उन्हें बरामद किया गया था। बंधनमुक्त होने और पुलिस की सुरक्षा पाने के बाद उन्होंने बताया कि उनके भाइयों ने उनके साथ बहुत ज़ुल्म-अत्याचार किया है, कि जबरन अनेक कागजों पर उनके अँगूठे के निशान लिए हैं, कि उन्हें खूब मारा-पीटा है, कि उनकी कोई भी दुर्गति बाकी नहीं छोड़ी है, कि अगर और थोड़ी देर तक पुलिस नहीं आती तो वह उन्हें जान से मार देते….। हरिहर काका के पीठ, माथे और पाँवों पर कई जगह ज़ख्म के निशान उभर आए थे। वह बहुत घबराए हुए-से लग रहे थे। काँप रहे थे। अचानक गिर कर बेहोश हो गए। मुँह पर पानी छींटकर उन्हें होश में लाया गया। भाई और भतीजे तो पुलिस आते ही चंपत हो गए थे। पुलिस की पकड़ में रिश्ते के दो व्यक्ति आए। रिश्ते के शेष लोग भी फ़रार हो गए थे….। बदतर – अत्यधिक बुरा लेखक कहता है कि हरिहर काका के परिवार वाले लोगो को ये कह कर भगा रहे थे कि यह उनके घर का आपसी मामला है, परन्तु जब महंत पुलिस को ले कर आया तो वह कोई आपसी मामला नहीं रह गया था। पुलिस ने पुरे घर की अच्छे से तलाशी लेना शुरू कर दिया। फिर घर के अंदर से हरिहर काका को इतनी बुरी हालत में हासिल किया गया जितनी बुरी हालत उनकी देव-स्थान में भी नहीं हुई थी। जब हरिहर काका को बंधन से खोला गया और उन्हें लगा कि अब वे पुलिस के साथ सुरक्षित हैं, तब उन्होंने बोलना शुरू किया कि उनके भाइयों ने उनके साथ बहुत ही ज्यादा बुरा व्यवहार किया है, जबरदस्ती बहुत से कागजों पर उनके अँगूठे के निशान ले लिए है, उन्हें बहुत ज्यादा मारा-पीटा है, अब ऐसा कोई भी बुरा व्यवहार बाकी नहीं रहा है जो उनके साथ न हुआ हो, हरिहर काका कहते कि अगर पुलिस समय पर नहीं आती तो शायद उनके भाई उन्हें मार ही डालते। लेखक कहता है कि हरिहर काका की पीठ, माथे और पाँवों पर कई जगह ज़ख्म के निशान आसानी से देखे जा सकते थे। हरिहर काका बहुत ही घबराए हुए लग रहे थे। वे काँप रहे थे और बोलते-बोलते अचानक वे बेहोश हो गए। उनके मुँह पर पानी की छींटे डालकर उन्हें होश में लाया गया। पुलिस के आते ही हरिहर काका के भाई और भतीजे सभी भाग गए थे। पुलिस ने हरिहर काका के दो रिश्तेदारों को पकड़ा था। बाकी के रिश्तेदार भी भाग गए थे। हरिहर काका के साथ घटी घटनाओं में यह अब तक की सबसे अंतिम घटना है। इस घटना के बाद काका अपने परिवार से एकदम अलग रहने लगे हैं। उनकी सुरक्षा के लिए राइफलधारी पुलिस के चार जवान मिले हैं। हालाँकि इसके लिए उनके भाइयों और महंत की ओर से काफ़ी प्रयास किए गए हैं। असल में भाइयों को चिंता थी कि हरिहर काका अकेले रहने लगेंगे, तब ठाकुरबारी के महंत अपने लोगों के साथ आकर पुनः उन्हें ले भागेंगे। और यही चिंता महंत जी को भी थी कि हरिहर को अकेला और असुरक्षित पा उनके भाई पुनः उन्हें धर दबोचेंगे। इसीलिए जब हरिहर काका ने अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस की माँग की तब नेपथ्य में रहकर ही उनके भाइयों और महंत जी ने पैरवी लगा और पैसे खर्च कर उन्हें पूरी सहायता पहुँचाई। यह उनकी सहायता का ही परिणाम है कि एक व्यक्ति की सुरक्षा के लिए गाँव में पुलिस के चार जवान तैनात कर दिए गए हैं। पुनः – फिर से लेखक कहता है कि हरिहर काका के साथ अब तक जितनी भी घटनाऐं घटी ये घटना उनमें से अब तक की सबसे अंतिम घटना थी। इस घटना के बाद हरिहर काका अपने परिवार से एकदम अलग रहने लगे थे। उन्हें उनकी सुरक्षा के लिए चार राइफलधारी पुलिस के जवान मिले थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि इसके लिए उनके भाइयों और महंत की ओर से काफ़ी प्रयास किए गए थे। असल में भाइयों को चिंता थी कि हरिहर काका अकेले रहने लगेंगे, तो देव-स्थान के महंत-पुजारी फिर से हरिहर काका को बहला-फुसला कर ले जायँगे और जमीन देव-स्थान के नाम करवा लेंगे। और यही चिंता महंत जी को भी थी कि हरिहर काका को अकेला और असुरक्षित पा, उनके भाई फिर से उन्हें पकड़ कर मारेंगे और जमीन को अपने नाम करवा लेंगे। इसीलिए जब हरिहर काका ने अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस की माँग की तब सामने ना आकर हरिहर काका के भाई और महंत दोनों ने पीछे ही रह कर बहुत खुशामद और पैसा खर्च कर के हरिहर काका की सुरक्षा के लिए सहायता की थी। यह उनकी सहायता का ही परिणाम था कि एक व्यक्ति की सुरक्षा के लिए गाँव में पुलिस के चार जवान तैनात कर दिए गए थे। जहाँ तक मैं समझता हूँ, फ़िलहाल हरिहर काका पुलिस की सुरक्षा में रह जरूर रहे हैं, लेकिन वास्तविक सुरक्षा ठाकुरबारी और अपने भाइयों की ओर से ही मिल रही है। ठाकुरबारी के साधु-संत और काका के भाई इस बात के प्रति पूरी तरह सतर्क हैं, कि उनमें से कोई या गाँव का कोई अन्य हरिहर काका के साथ ज़ोर-जबरदस्ती न करने पाए। साथ ही अपना सदभाव और मधुर व्यवहार प्रकट कर पुनः उनका ध्यान अपनी और खींच लेने के लिए दोनों दाल प्रयत्नशील हैं। वास्तविक – असल में लेखक कहता है कि उसे लगता है हरिहर काका भले ही पुलिस की सुरक्षा में रह रहे हों, परन्तु असल में जो सुरक्षा हरिहर काका को मिल रही है वह देव-स्थान और उनके भाइयों की ही मिल रही है। देव-स्थान के साधु-संत और हरिहर काका के भाई इस बात का बहुत अच्छे से ध्यान रख रहे हैं कि उनमें से कोई या गाँव का भी, कोई भी व्यक्ति हरिहर काका को कोई भी नुक्सान ना पहुँचा पाए। इसके साथ ही दोनों पक्ष, हरिहर काका के भाई और देव-स्थान के साधु-संत अपना बनावटी व्यवहार और अच्छा होने का ढोंग हरिहर काका के सामने लगातार करके उन्हें अपनी-अपनी ओर लेने का पूरा प्रयास कर रहे थे। गाँव में एक नेता जी हैं, वह न तो कोई नौकरी करते हैं और न खेती-गृहस्थी, फिर भी बारहों महीने मौज़ उड़ाते रहते हैं। राजनीति की जादुई छड़ी उनके पास है। उनका ध्यान हरिहर काका की ओर जाता है। वह तात्काल गाँव के कुछ वशिष्ट लोगों के साथ उनके पास पहुँचते हैं और यह प्रस्ताव रखते हैं कि उनकी जमीन में ‘हरिहर उच्च विद्यालय’ नाम से एक हाई स्कूल खोला जाए। इससे उनका नाम अमर हो जाएगा। उनकी जमीन का सही उपयोग होगा और गाँव के विकास के लिए एक स्कूल मिल जाएगा। लेकिन हरिहर काका के ऊपर तो अब कोई भी दूसरा रंग चढ़ने वाला नहीं था। नेता जी भी निराश हो कर लौट आते हैं। वशिष्ट – ख़ास लेखक कहता है कि उसके गाँव में एक नेता जी थे, जो न तो कोई नौकरी करते थे और न ही उनकी कोई खेती-गृहस्थी थी, उसके बाद भी वे साल के बारहों महीने मौज करते थे। इसका कारण था कि उनके पास राजनीति की जादुई छड़ी थी। नेता जी का ध्यान हरिहर काका की ओर गया। वे बिना समय गवाए कुछ ख़ास लोगो को अपने साथ ले कर हरिहर काका के पास पहुँच गए और उन्हें एक योजना बताई कि वे अपनी जमीन पर ‘हरिहर उच्च विद्यालय’ नाम से एक हाई स्कूल खुलवा दें। इससे उनका नाम अमर हो जाएगा, सदियों तक सभी उनको स्कूल के नाम से याद रखेंगे। इससे उनकी जमीन का सही उपयोग भी हो जाएगा और गाँव के विकास के लिए एक स्कूल भी मिल जाएगा। लेकिन हरिहर काका के ऊपर तो अब कोई भी दूसरा रंग चढ़ने वाला नहीं था। नेता जी को भी निराश हो कर लौट जाना पड़ा। इन दिनों गाँव की चर्चाओं के केन्द्र हैं हरिहर काका। आँगन, खेत, खलियान, अलाव, बगीचे, बरगद हर जगह उनकी ही चर्चा। उनकी घटना की तरह विचारणीय और चर्चनीय कोई दूसरी घटना नहीं। गाँव में आए दिन छोटी-बड़ी घटनाएँ घटती रहती हैं, लेकिन काका के प्रसंग के सामने उनका को अस्तित्व नहीं। गाँव में जहाँ कहीं और जिन लोगों के बीच हरिहर काका की चर्चा छिड़ती है तो फिर उसका कोई अंत नहीं। लोग तरह-तरह की सम्भावनाएँ व्यक्त करते हैं-“राम जाने क्या होगा? दोनों ओर के लोगों ने अँगूठे के निशान ले लिए हैं। लेकिन हरिहर ने अपना ब्यान दर्ज कराया है कि वे दोनों लोगों में से किसी को भी अपना उत्तराधिकारी नहीं मानते हैं। दोनों ओर के लोगों ने जबरन उनके अँगूठे के निशान लिए हैं। इस स्थिति में उनके बाद उनकी जायदाद का हकदार कौन होगा?” विचारणीय – विचार करने योग्य लेखक कहता है कि अब गाँव में हरिहर काका के ऊपर ही सारी बातें होने लगी थी। आँगन, खेत, खलियान, अलाव, बगीचे, बरगद – हर जगह उनकी ही बातें होती थी। उनकी घटना की तरह कोई और घटना नहीं थी जिस पर विचार और बातें की जा सकें। गाँव में हर दिन कुछ-न-कुछ घटता ही रहता था, लेकिन हरिहर काका की घटना के सामने कोई भी घटना टिक नहीं पाती थी, लोग बस हरिहर काका की घटना के बारे में ही बात करते नज़र आते थे। गाँव में जहाँ कहीं भी लोगों के बीच हरिहर काका के बारे में बात शुरू होती थी, तो फिर उसका कोई अंत नहीं होता था। लोग तरह-तरह की हो सकने वाली बातों पर चर्चा करते रहते थे जैसे – राम जाने क्या होगा। दोनों ओर के लोगों ने अँगूठे के निशान ले लिए हैं। लेकिन हरिहर काका ने अपना ब्यान दर्ज कराया है कि वे दोनों लोगों में से किसी को भी अपना उत्तराधिकारी नहीं मानते हैं। वे दोनों को ही अपनी जमीन नहीं देना चाहते। दोनों ओर के लोगों ने जबरदस्ती उनके अँगूठे के निशान लिए हैं। अब इस तरह की स्थिति में उनके बाद उनकी जायदाद का हकदार कौन होगा। इस तरह की बातें हमेशा ही सुनने को मिलती थी। लोगों के बीच बहस छिड़ जाती है। उत्तराधिकारी के कानून पर जो जितना जानता है, उससे दस गुना अधिक उगल देता है। फिर भी कोई समाधान नहीं निकलता। रहस्य ख़त्म नहीं होता, आशंकाएँ बनी ही रहती हैं। लेकिन लोग आशंकाओं को नजरअंदाज कर अपनी पक्षधारता शुरू कर देते हैं कि उत्तराधिकार ठाकुरबारी को मिलता तो ठीक रहता। दूसरी ओर के लोग कहते कि हरिहर के भाइयों को मिलता तो ज्यादा अच्छा रहता। ठाकुरबारी के साधु-संत और काका के भाइयों ने कब क्या कहा, यह खबर बिजली की तरह एक ही बार समूचे गाँव में फैल जाती है। खबर झूठी है कि सच्ची, इस पर कोई ध्यान नहीं देता। जिसे खबर हाथ लगती है, वह नमक-मिर्च मिला उसे चटका कर आगे बड़ा देता है। उगल – बोलना लेखक कहता है कि हरिहर काका के विषय में बात करते-करते लोगों के बीच बहस छिड़ जाती थी। उत्तराधिकारी के कानून पर जो जितना जानता था, उससे दस गुना ज्यादा ही बोलता था। उसके बाद भी किसी के पास कोई हल नहीं निकलता था। बात कभी ख़त्म नहीं होती थी, लोगो का संदेह वैसा ही बना रहता था। लेकिन लोग अपने संदेह को एक ओर रख कर अपना-अपना पक्ष लेना शुरू कर देते थे। कोई कहता की उत्तराधिकार ठाकुरबारी को मिलेगा तो सभी का भला होगा। कोई कहता उत्तराधिकार हरिहर काका के भाइयों को मिलना चाहिए क्योंकि यह उनका हक़ है। देव-स्थान वालों ने कब क्या कहा, हरिहर काका के भाइयों ने कब क्या कहा, यह खबर बिजली की तरह एक ही बार में पुरे गाँव में फैल जाती थी। खबर कितनी झूठी है-कितनी सच्ची है इस बात पर कोई ध्यान नहीं देता था। जिसको जो भी बात पाता चलती थी वह बिना सोचे समझे बात को बड़ा-चढ़ा कर आगे पहुँचा देता था। एक खबर आती है कि महंत जी और हरिहर काका के भाई इस बात के लिए अफ़सोस कर रहे हैं कि अँगूठे के निशान लेने के बाद उन्होंने हरिहर को ख़त्म क्यों नहीं कर दिया। बात ही आगे नहीं बढ़ती। एक दूसरी खबर आती है कि हरिहर मरेंगे तो उन्हें अग्नि प्रदान करने के लिए ठाकुरबारी के साधु-संतो और काका के भाइयों के बीच काफ़ी लड़ाई होगी। दोनों ओर से अग्नि प्रदान करने का निश्चय हो चुका है। इस सन्दर्भ में उनकी लाश हस्तगत करने के लिए खून की नदी बहेगी। एक तीसरी खबर आती है कि हरिहर काका की मृत्यु के बाद उनकी जमीन पर कब्ज़ा करने के लिए उनके भाई अभी से तैयारी कर रहे हैं। इलाके के मशहूर डाकू बुटन सिंह से उन लोगों ने बातचीत पक्की कर ली है। हरिहर के पंद्रह बीघे खेत में से पाँच बीघे बुटन लेगा और दखल करा देगा। इससे पहले भी इस तरह के दो-तीन मामले बुटन ने निपटाए हैं। पुरे इलाके में उसके नाम की तूती बोलती है। एक चौथी खबर आती है की महंत जी ने निर्णय ले लिया है, हरिहर की मृत्यु के बाद देश के कोने-कोने से साधुओं और नागाओं को वह बुलाएँगे। अफ़सोस – दुःख लेखक कहता है कि हरिहर काका से जुड़ी बहुत सी ख़बरें गाँव में फैल रही थी। एक खबर थी कि महंत जी और हरिहर काका के भाई इस बात के लिए दुःख मना रहे हैं कि उन्होंने अगर हरिहर काका के अँगूठे के निशान लेने के बाद उन्हें ख़त्म कर दिया होता तो बात इतने आगे नहीं बढ़ती। दूसरी खबर यह आ रही थी कि जब हरिहर काका मरेंगे तो उनके अंतिम संस्कार को ले कर भी ठाकुरबारी के साधु-संतो और काका के भाइयों के बीच काफ़ी लड़ाई होगी। दोनों ओर के लोगों ने अंतिम संस्कार अपनी-अपनी ओर से करने का फैसला कर लिया है। इस बारे में कि लाश किसके पास रहेगी और अंतिम संस्कार कौन करेगा इसमें बहुत खून-खराबा हो सकता है। एक तीसरी खबर यह भी आ रही थी कि हरिहर काका के भाई अभी से ही हरिहर काका की जमीन को हड़पने की पूरी तैयारियाँ कर ली है। उन्होंने इलाके के मशहूर डाकू बुटन सिंह को मना लिया है और उससे बात भी कर रखी है। हरिहर काका के पंद्रह बीघे खेत में से पाँच बीघे खेत बुटन लेगा और मामले को संभाल लेगा। इससे पहले भी इस तरह के दो-तीन मामले बुटन ने निपटाए हैं। पुरे इलाके में बुटन सिंह के नाम का खौफ था। एक चौथी खबर यह भी फैल रही थी कि महंत जी ने यह फैसला कर लिया है कि जब हरिहर काका की मौत होगी तो वह देश के कोने-कोने से साधुओं और नागाओं को बुलायँगे ताकि हरिहर काका की आत्मा को शांति मिले। रहस्यात्मक और भयावनी ख़बरों से गाँव का आकाश आच्छादित हो गया है। दिन-प्रतिदिन आतंक का मौहोल गहराता जा रहा है। सबके मन में यह बात है कि हरिहर कोई अमृत पीकर तो आए हैं नहीं। एक न एक दिन उन्हें मरना ही है। फिर एक भयंकर तूफ़ान की चपेट में यह गाँव आ जायगा। उस वक्त क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। यह कोई छोटी लड़ाई नहीं, एक बड़ी लड़ाई है। जाने-अनजाने पूरा गाँव इसकी चपेट में आएगा ही…। इसीलिए लोगों के अंदर भय भी है और प्रतीक्षा भी। एक ऐसी प्रतीक्षा जिसे झुठलाकर भी उसके आगमन को टाला नहीं जा सकता। और हरिहर काका वह तो बिलकुल मौन हो अपनी जिंदगी के शेष दिन काट रहे हैं। एक नौकर रख दिया है लिया है वही उन्हें बनाता-खिलाता है। उनके हिस्से की जमीन में जितनी फसल होती है उससे अगर वह चाहते तो मौज की जिंदगी बिता सकते थे। लेकिन वह तो गूँगेपन का शिकार हो गए हैं। कोई बात कहो, कुछ पूछो, कोई जवाब नहीं। खुली आँखों से बराबर आकाश को निहारा करते हैं। सारे गाँव के लोग उनके बारे में बहुत कुछ कहते-सुनते हैं, लेखिन उनके पास अब कहने के लिए कोई बात नहीं। रहस्यात्मक – राज से भरी हुई लेखक कहता है कि ऐसा लग रहा था मानो राज़ से भरी हुई और डरावनी बातें गाँव के पुरे आसमान में फैली हुई हैं। जैसे-जैसे दिन बड़ रहे थे, वैसे-वैसे डर का माहौल बन रहा था। सभी लोग सिर्फ यही सोच रहे थे कि हरिहर काका ने अमृत तो पिया हुआ है नहीं तो मरना तो उनको एक दिन है ही। और जब वे मरेंगे तो पुरे गाँव में तूफ़ान आ जाएगा क्योंकि महंत और हरिहर काका के परिवार के बीच जमीन को ले कर लड़ाई हो जायगी। सभी जानते थे कि उसका असर पुरे गाँव पर भी पड़ेगा। उस समय सही में क्या होने वाला है कोई सही से नहीं बता सकता था। लोगों का कहना था कि यह कोई छोटी लड़ाई नहीं है बहुत बड़ी लड़ाई है। इसीलिए गाँव के लोगो के अंदर डर तो था ही लेकिन वे उस समय का इंतज़ार भी कर रहे थे। एक ऐसे समय का इंतज़ार जिसको आना ही था उसे रोका नहीं जा सकता था। लेखक कहता है कि हरिहर काका इन सब चीजों से दूर चुप-चाप अपनी बाकी की जिंदगी काट रहे थे। हरिहर काका ने एक नौकर रख लिया था वही उन्हें खाना बना कर खिलाता था। उनके हिस्से की जमीन में जितनी फसल होती थी उससे अगर हरिहर काका चाहते तो मौज की जिंदगी बिता सकते थे। लेकिन वह तो गूँगेपन का शिकार हो गए थे। कोई बात कहो, कुछ पूछो, वे किसी का कोई जवाब नहीं देते थे। खुली आँखों से बराबर आकाश को देखते रहते थे। सारे गाँव के लोग उनके बारे में बहुत कुछ बातें करते थे, लेकिन उनके पास अब कहने के लिए कोई बात नहीं बची थी। पुलिस के जवान हरिहर काका के खर्चे पर ही खूब मौज-मस्ती से रह रहे थे। जिसका धन वह रहे उपास, खाने वाले करें विलास अर्थात हरिहर काका के पास धन था लेकिन उनके लिए अब उसका कोई महत्त्व नहीं था और पुलिस वाले बिना किसी कारण से ही हरिहर काका के धन से मौज कर रहे थे। अब तक जो नहीं खाया था, दोनों वक्त उसका भोग लगा रहे थे। मिथिलेश्वर का जीवन परिचय मिथिलेश्वर का जन्म 31 दिसम्बर 1950 को बिहार के भोजपुर जिले के बैसाडीह नामक गाँव में हुआ। इनके पिता स्व० प्रो० वंशरोपन लाल थे। इन्होने हिंदी में एम०ए० और पी-एच०डी० करने के उपरांत व्यवसाय के रूप में अध्यापन कार्य को चुना। दिसंबर 1981 से जून 1984 तक राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में रहे और फिर यूजीसी के टीचर फेलोशिप अवार्ड के तहत एच०डी० जैन कॉलेज, आरा आ गये। बाद में वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय आरा (बिहार) के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में वरिष्ठ उपाचार्य (रीडर) रहे। मिथिलेश्वर के पिता (प्रो० वंशरोपन लाल) भी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे; परन्तु उनकी असाध्य बीमारी ने मिथिलेश्वर के जीवन में आरंभ से ही कठिन संघर्ष के बीज बो दिये थे। भाइयों की शिक्षा-दीक्षा में होने वाले खर्च के अतिरिक्त अनेक बहनों की शादी में होने वाले खर्च ने मिथिलेश्वर को काफी परेशान किया। परिस्थितिवश स्वयं के वयस्क होते ही शादी की विवशता और फिर कई पुत्रियों का पिता हो जाना उनके संघर्षमय जीवन को और अधिक कठिन बनाने में योगदान ही देता रहा। इसके अतिरिक्त माँ की बीमारी और आरा शहर में नया घर बनाने की आवश्यकता ने मिथिलेश्वर को परेशान तो बहुत किया परंतु उन्होंने हार नहीं मानी। मिथिलेश्वर के व्यक्तित्व निर्धारण में उनकी अनवरत संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा की अहम भूमिका है। सपनों के-से दिन सपनों के-से दिन पाठ सार लेखक कहता है कि उसके बचपन में उसके साथ खेलने वाले बच्चों का हाल भी उसी की तरह होता था। सभी के पाँव नंगे, फटी-मैली सी कच्छी और कई जगह से फटे कुर्ते , जिनके बटन टूटे हुए होते थे और सभी के बाल बिखरे हुए होते थे। जब सभी खेल कर, धूल से लिपटे हुए, कई जगह से पाँव में छाले लिए, घुटने और टखने के बीच का टाँग के पीछे माँस वाले भाग पर खून के ऊपर जमी हुई रेत-मिट्टी से लथपथ पिंडलियाँ ले कर अपने-अपने घर जाते तो सभी की माँ-बहनें उन पर तरस नहीं खाती बल्कि उल्टा और ज्यादा पीट देतीं। कई बच्चों के पिता तो इतने गुस्से वाले होते कि जब बच्चे को पीटना शुरू करते तो यह भी ध्यान नहीं रखते कि छोटे बच्चे के नाक-मुँह से लहू बहने लगा है और ये भी नहीं पूछते कि उसे चोट कहाँ लगी है। परन्तु इतनी बुरी पिटाई होने पर भी दूसरे दिन सभी बच्चे फिर से खेलने के लिए चले आते। लेखक कहता है कि यह बात लेखक को तब समझ आई जब लेखक स्कूल अध्यापक बनने के लिए प्रशिक्षण ले रहा था। वहाँ लेखक ने बच्चों के मन के विज्ञान का विषय पढ़ा था। लेखक कहता है कि कुछ परिवार के बच्चे तो स्कूल ही नहीं जाते थे और जो कभी गए भी, पढाई में रूचि न होने के कारण किसी दिन बस्ता तालाब में फेंक आए और उनके माँ-बाप ने भी उनको स्कूल भेजने के लिए कोई जबरदस्ती नहीं की। यहाँ तक की राशन की दुकान वाला और जो किसानों की फसलों को खरीदते और बेचते हैं वे भी अपने बच्चों को स्कूल भेजना जरुरी नहीं समझते थे। वे कहते थे कि जब उनका बच्चा थोड़ा बड़ा हो जायगा तो पंडत घनश्याम दास से हिसाब-किताब लिखने की पंजाबी प्राचीन लिपि पढ़वाकर सीखा देंगे और दुकान पर खाता लिखवाने लगा देंगे। लेखक कहता है कि बचपन में किसी को भी स्कूल के उस कमरे में बैठ कर पढ़ाई करना किसी कैद से कम नहीं लगता था। बचपन में घास ज्यादा हरी और फूलों की सुगंध बहुत ज्यादा मन को लुभाने वाली लगती है। लेखक कहता है की उस समय स्कूल की छोटी क्यारियों में फूल भी कई तरह के उगाए जाते थे जिनमें गुलाब, गेंदा और मोतिया की दूध-सी सफ़ेद कलियाँ भी हुआ करतीं थीं। ये कलियाँ इतनी सूंदर और खुशबूदार होती थीं कि लेखक और उनके साथी चपरासी से छुप-छुपा कर कभी-कभी कुछ फूल तोड़ लिया करते थे। परन्तु लेखक को अब यह याद नहीं कि फिर उन फूलों का वे क्या करते थे। लेखक कहता है कि शायद वे उन फूलों को या तो जेब में डाल लेते होंगे और माँ उसे धोने के समय निकालकर बाहर फेंक देती होगी या लेखक और उनके साथी खुद ही, स्कूल से बाहर आते समय उन्हें बकरी के मेमनों की तरह खा या ‘चर’ जाया करते होगें। लेखक कहता है कि उसके समय में स्कूलों में, साल के शुरू में एक-डेढ़ महीना ही पढ़ाई हुआ करती थी, फिर डेढ़-दो महीने की छुटियाँ शुरू हो जाती थी। हर साल ही छुटियों में लेखक अपनी माँ के साथ अपनी नानी के घर चले जाता था। वहाँ नानी खूब दूध-दहीं, मक्खन खिलाती, बहुत ज्यादा प्यार करती थी। दोपहर तक तो लेखक और उनके साथी उस तालाब में नहाते फिर नानी से जो उनका जी करता वह माँगकर खाने लगते। लेखक कहता है कि जिस साल वह नानी के घर नहीं जा पाता था, उस साल लेखक अपने घर से दूर जो तालाब था वहाँ जाया करता था। लेखक और उसके साथी कपड़े उतार कर पानी में कूद जाते, फिर पानी से निकलकर भागते हुए एक रेतीले टीले पर जाकर रेत के ऊपर लोटने लगते फिर गीले शरीर को गर्म रेत से खूब लथपथ करके फिर उसी किसी ऊँची जगह जाकर वहाँ से तालाब में छलाँग लगा देते थे। लेखक कहता है कि उसे यह याद नहीं है कि वे इस तरह दौड़ना, रेत में लोटना और फिर दौड़ कर तालाब में कूद जाने का सिलसिला पाँच-दस बार करते थे या पंद्रह-बीस बार।
वे रात को खुले मैदान में तम्बू लगाकर लोगों को फ़ौज के सुख-आराम, बहादुरी के दृश्य दिखाकर फ़ौज में भर्ती होने के लिए आकर्षित किया करते थे। इन्हीं सारी बातों की वजह से कुछ नौजवान फ़ौज में भरती होने के लिए तैयार भी हो जाया करते थे।
सपनों के-से दिन पाठ की व्याख्या मेरे साथ खेलने वाले सभी बच्चों का हाल एक-सा होता। नंगे पाँव, फटी-मैली सी कच्छी और टूटे बटनों वाले कई जगह से फटे कुर्ते और बिखरे बाल। जब लकड़ी के ढेर पर चढ़कर खेलते नीचे को भागते तो गीरकर कई तो जाने कहाँ-कहाँ चोट खा लेते और पहले ही फाटे-पुराने कुर्ते तार-तार हो जाते। धूल भरे, कई जगह से छिले पाँव, पिंडलियाँ या लहू के ऊपर जमी रेत-मिट्टी से लथपथ घुटने ले कर जाते तो सभी की माँ-बहनें उन पर तरस खाने की जगह और पिटाई करतीं। कइयों के बाप बड़े गुस्सैल थे। पीटने लगते तो यह ध्यान भी नहीं रखते कि छोटे बच्चे के नाक-मुँह से लहू बहने लगा है या उसके कहाँ चोट लगी है। परन्तु इतनी बुरी पिटाई होने पर भी दूसरे दिन फिर खेलने चले आते। (यह बात तब ठीक से समझ आई जब स्कूल अध्यापक बनने के लिए एक ट्रेनिंग करने गया और वहाँ बाल-मनोविज्ञान का विषय पढ़ा। ऐसी बातों के बारे में तभी जान पाया कि बच्चों को खेलना क्यों इतना अच्छा लगता है कि बुरी तरह पिटाई होने पर भी फिर खेलने चले आते हैं।) पिंडलियाँ – घुटने और टखने के बीच का
पिछला मांसल भाग लेखक कहता है कि उसके बचपन में उसके साथ खेलने वाले बच्चों का हाल भी उसी की तरह होता था। लेखक के कहने का अभिप्राय है की सभी के पाँव नंगे होते थे, फटी-मैली सी कच्छी और कई जगह से फटे कुर्ते पहने हुए होते थे, जिनके बटन टूटे हुए होते थे और सभी के बाल बिखरे हुए होते थे। जब खेल-खेल में लकड़ी के ढेर से निचे उतरते हुए भागते, तो बहुत से बच्चे अपने-आपको चोट लगा देते थे और जो कुरता पहले से ही फटा-पुराना होता था, वह और ज्यादा फट जाता था। जब सभी बच्चे दिन भर धूल में खेल कर और कई जगह चोट खाए हुए खून के ऊपर जमी हुई रेत-मिट्टी से लथपथ पिंडलियाँ (घुटने और टखने के बीच का टाँग के पीछे माँस वाले भाग) ले कर अपने-अपने घर जाते तो सभी की माँ-बहनें उन पर तरस नहीं खाती बल्कि उल्टा और
ज्यादा पीट देतीं। कई बच्चों के पिता तो इतने गुस्से वाले होते कि जब बच्चे को पीटना शुरू करते तो यह भी ध्यान नहीं रखते कि छोटे बच्चे के नाक-मुँह से लहू बहने लगा है और ये भी नहीं पूछते कि उसे चोट कहाँ लगी है। परन्तु इतनी बुरी पिटाई होने पर भी दूसरे दिन सभी बच्चे फिर से खेलने के लिए चले आते। मेरे साथ खेलने वाले अधिकतर साथी हमारे जैसे ही परिवारों से हुआ करते थे। सारे मुहल्ले में बहुत परिवार तो, हमारी तरह आस-पास के गाँवों से ही आकर बसे थे। दो-तीन घर, साथ ही उजड़ी-सी गली में रहने वाले लोगों के थे। हमारी सभी की आदतें भी कुछ मिलती-जुलती थीं। उनमें से अधिक तो स्कूल जाते ही न थे, जो कभी गए भी, पढाई में रूचि न होने के कारण किसी दिन बस्ता तालाब में फेंक आए और फिर स्कूल गए ही नहीं, न ही माँ-बाप ने जबरदस्ती भेजा। यहाँ तक की परचूनिये, आढ़तिये भी अपने बच्चों को स्कूल भेजना जरुरी नहीं समझते। कभी किसी स्कूल अध्यापक से बात होती तो कहते-मास्टर जी हमने इसे क्या तहसीलदार लगवाना है। थोड़ा बड़ा हो जाए तो पंडत घनश्याम दास से लंडे पढ़वा कर दूकान पर बहियाँ लिखने लगा लेंगे। पंडत छह-आठ महीनें में लंडे और मुनीमी का सभी काम सीखा देगा। वहाँ तो अभी तक अलिफ़-बे जिम-च भी नहीं सीख पाया। परचूनिये – राशन की दुकान वाला लेखक कहता है कि बचपन में उसके साथ खेलने वाले उसके ज्यादातर साथी उसी के परिवार की तरह के थे। लेखक का परिवार आसपास के गाँव से आकर उस गाँव में बसा था और लेखक कहता है कि उसी के परिवार की तरह बहुत से परिवार दूसरे गाँव से आकर उस गाँव में बसे थे। साथ ही दो-तीन घर उजड़ी-सी गली में रहने वाले लोगों के थे। उन सभी की बहुत सी आदतें भी मिलती-जुलती थीं। उन परिवारों में से बहुत के बच्चे तो स्कूल ही नहीं जाते थे और जो कभी गए भी, पढाई में रूचि न होने के कारण किसी दिन बस्ता तालाब में फेंक आए और फिर स्कूल गए ही नहीं और उनके माँ-बाप ने भी उनको स्कूल भेजने के लिए कोई जबरदस्ती नहीं की। यहाँ तक की राशन की दुकान वाला और जो किसानों की फसलों को खरीदते और बेचते हैं वे भी अपने बच्चों को स्कूल भेजना जरुरी नहीं समझते थे। अगर कभी कोई स्कूल का अध्यापक उन्हें समझाने की कोशिश करता तो वे अध्यापक को यह कह कर चुप करवा देते कि उन्हें अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर कोई तहसीलदार तो बनाना नहीं है। जब उनका बच्चा थोड़ा बड़ा हो जायगा तो पंडत घनश्याम दास से हिसाब-किताब लिखने की पंजाबी प्राचीन लिपि पढ़वाकर सीखा देंगे और दूकान पर खाता लिखवाने लगा देंगे। हमारे आधे से अधिक साथी राजस्थान या हरियाणा से आकर मंडी में व्यापार या दुकानदारी करने आए परिवारों से थे। जब बहुत छोटे थे तो उनकी बोली कम समझ पाते। उनके कुछ शब्द सुनकर हँसी आने लगती। परन्तु खेलते ही सभी एक दूसरे की बात खूब अच्छी तरह समझ लेते। लोकोक्ति – लोगों के द्वारा कही गयी उक्ति/बात लेखक कहता है कि उसके बचपन के ज्यादातर साथी राजस्थान या हरियाणा से आकर मंडी में व्यापार या दुकानदारी करने आए परिवारों से थे। जब लेखक छोटा था तो उनकी बातों को बहुत कम समझ पाता था और उनके कुछ शब्दों को सुन कर तो लेखक को हँसी आ जाती थी। परन्तु
जब सभी खेलना शुरू करते तो सभी एक-दूसरे की बातों को बहुत अच्छे से समझ लेते थे। बचपन में घास अधिक हरी और फूलों की सुगंध अधिक मनमोहक लगती है। यह शब्द शायद आधी शती पहले किसी पुस्तक में पढ़े थे, परन्तु आज तक याद है। याद रहने का कारण यही है कि यह वाक्य बचपन की भावनाओं, सोच-समझ के अनुकूल होगा। परन्तु स्कूल के अंदर जाने से रास्ते के दोनों ओर जो अलियार के बड़े ढंग से कटे-छाँटे झाड़ उगे थे (जिन्हें हम डंडियाँ कहा करते) उनके नीम के पत्तों जैसे पत्तों की महक आज तक भी आँख मूँद कर महसूस कर सकता हूँ। उन दिनों स्कूल की छोटी क्यारियों में फूल भी कई तरह के उगाए जाते थे जिनमें गुलाब, गेंदा और मोतिया की दूध-सी सफ़ेद कलियाँ भी हुआ करतीं। ये कलियाँ इतनी सूंदर और खुशबूदार होती थीं कि हम चंदू चपड़ासी से आँख बचाकर कभी-कभार एक-दो तोड़ लिया करते। उनकी बहुत तेज़ सुगंध आज भी महसूस कर पता हूँ, परन्तु यह याद नहीं कि उन्हें तोड़कर, कुछ देर सूँघकर फिर क्या किया करते। (शायद जेब में डाल लेते, माँ उसे धोने के समय निकालकर बाहर फेंक देती या हम ही, स्कूल से बाहर आते उन्हें बकरी के मेमनों की भाँति ‘चर’ जाया करते। ) अलियार – गली की तरह का लंबा सीधा रास्ता लेखक कहता है कि बचपन में घास ज्यादा हरी और फूलों की सुगंध बहुत ज्यादा मन को लुभाने वाली लगती है। ये शब्द लेखक ने शायद आधी सदी पहले किसी किताब में पढ़े होंगे, परन्तु लेखक को आज भी ये पंक्ति याद है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि ये पंक्ति बचपन की भावनाओं और बच्चों की सोच-समझ के अनुकूल है। लेखक कहता है कि स्कूल के अंदर जाने वाले रास्ते के दोनों ओर गली की तरह के लम्बे सीधे रास्ते में बड़े ढंग से कटे-छाँटे झाड़ उगे थे जिन्हें लेखक और उनके साथी डंडियाँ कहा करते थे। उनसे नीम के पत्तों की तरह महक आती थी, जो आज भी लेखक अपनी आँखों को बंद करके महसूस कर सकता है। लेखक कहता है की उस समय स्कूल की छोटी क्यारियों में फूल भी कई तरह के उगाए जाते थे जिनमें गुलाब, गेंदा और मोतिया की दूध-सी सफ़ेद कलियाँ भी हुआ करतीं थीं। ये कलियाँ इतनी सूंदर और खुशबूदार होती थीं कि लेखक और उनके साथी चपरासी से छुप-छुपा कर कभी-कभी कुछ फूल तोड़ लिया करते थे। उनकी बहुत तेज़ सुगंध लेखक आज भी महसूस कर सकता है। परन्तु लेखक को अब यह याद नहीं कि उन फूलों को तोड़कर, कुछ देर सूँघकर फिर उन फूलों का वे क्या करते थे। लेखक कहता है कि शायद वे उन फूलों को या तो जेब में डाल लेते होंगे और माँ उसे धोने के समय निकालकर बाहर फेंक देती होगी या लेखक और उनके साथी खुद ही, स्कूल से बाहर आते समय उन्हें बकरी के मेमनों की तरह खा या ‘चर’ जाया करते होगें। जब अगली श्रेणी में दाखिल होते तो एक ओर तो बहुत बड़े, सयाने होने के एहसास से उत्साहित भी होते, परन्तु दूसरी ओर नयी, पुरानी कापियों-किताबों से जाने कैसी बास आती कि उन्हीं मास्टरों के डर से काँपने लगते जो पिछली श्रेणी में पढ़ा चुके होते। तब स्कूल में, शुरू साल में एक-डेढ़ महीना पढ़ाई हुआ करती, फिर डेढ़-दो महीने की छुटियाँ शुरू हो जाया करतीं। अब तक जो बात अच्छी तरह याद है वह छुटियों के पहले और आखरी दिनों का फर्क था। पहले दो तीन सप्ताह तो खूब खेल कूद हुआ करती। हर साल ही माँ के साथ ननिहाल चले जाते। वहाँ नानी खूब दूध-दहीं, मक्खन खिलाती, बहुत प्यार करती। छोटा सा पिछड़ा गाँव था परन्तु तालाब हमारी मंडी के तालाब जितना ही बड़ा था। दोपहर तक तो उस तालाब में नहाते फिर नानी से जो जी में आता माँगकर खाने लगते। नानी हमारे बोलने के ढंग या कम खाने के कारण बहुत खुश होती। अपने पोतों को हमारी तरह बोलने और खाने-पीने को कहती। श्रेणी – कक्षा लेखक कहता है कि जब वे एक कक्षा से दूसरी कक्षा में शामिल होते तो एक ओर तो लगता की वे बहुत बड़े और समझदार हो गए हैं, परन्तु वहीं दूसरी ओर नयी-पुरानी कापियों-किताबों से न जाने कैसी बास आती कि उन्हीं मास्टरों के डर से काँपने लगते जो पिछली कक्षा में पढ़ा चुके होते थे। लेखक कहता है कि उसके समय में स्कूलों में, साल के शुरू में एक-डेढ़ महीना ही पढ़ाई हुआ करती थी, फिर डेढ़-दो महीने की छुटियाँ शुरू हो जाती थी। लेखक को जो बातें अब तक अच्छी तरह से याद है, वह छुटियों के पहले और आखरी दिनों का फर्क है। लेखक कहता है कि पहले के दो तीन सप्ताह तो खूब खेल कूद में बीतते थे। हर साल ही छुटियों में लेखक अपनी माँ के साथ अपनी नानी के घर चले जाता था। वहाँ नानी खूब दूध-दहीं, मक्खन खिलाती, बहुत ज्यादा प्यार करती थी। लेखक की नानी का जहाँ घर था, वह छोटा सा गाँव था जो विकास की दृष्टि से काफ़ी पीछे रह गया था। परन्तु वहाँ पर भी उतना ही बड़ा तालाब था जितना बड़ा लेखक की मंडी में था। दोपहर तक तो लेखक और उनके साथी उस तालाब में नहाते फिर नानी से जो उनका जी करता वह माँगकर खाने लगते। लेखक की नानी लेखक के बोलने के ढंग या कम खाने के कारण बहुत खुश होती थी। अपने पोतों को लेखक की तरह बोलने और खाने-पीने को कहती। जिस साल ननिहाल न जा पाते, उस साल भी अपने घर से थोड़ा बाहर तालाब पर चले जाते। कपड़े उतार पानी में कूद जाते और कुछ समय बाद, भागते हुए एक रेतीले टीले पर जाकर, रेत के ऊपर लेटने लगते। गीले शरीर को गर्म रेत से खूब लथपथ के उसी तरह भागते, किसी ऊँची जगह से तालाब में छलाँग लगा देते। रेत को गंदले पानी से साफ़ कर फिर टीले की ओर भाग जाते। याद नहीं की ऐसा, पाँच-दस बार करते या पंद्रह-बीस बार। कई बार तालाब में कूदकर ऐसे हाथ-पाँव हिलाने लगते जैसे बहुत अच्छे तैराक हों। परन्तु एक-दो को छोड़, मेरे किसी साथी को तैरना नहीं आता था। कुछ तो हाथ-पाँव हिलाते हुए गहरे पानी में चले जाते तो दूसरे उन्हें बाहर आने के लिए किसी भैंस के सींग या दुम पकड़कर बाहर आने की सलाह देते। उन्हें ढाँढ़स बँधाते। कूदते समय मुँह में गंदला पानी भर जाता तो बुरी तरह खाँसते। कई बार ऐसा लगता कि साँस रुकने वाली है परन्तु हाय-हाय करते किसी न किसी तरह तालाब के किनारे पहुँच जाते। गंदले – गंदा, मटमैला लेखक कहता है कि जिस साल वह नानी के घर नहीं जा पाता था, उस साल लेखक अपने घर से दूर जो तालाब था, वहाँ जाया करता था। लेखक और उसके साथी कपड़े उतार कर पानी में कूद जाया करते थे, थोड़े समय बाद पानी से निकलकर भागते हुए एक रेतीले टीले पर जाकर रेत के ऊपर लोटने लगते थे। गीले शरीर को गर्म रेत से खूब लथपथ करके फिर उसी तरह भागते थे। किसी ऊँची जगह जाकर वहाँ से तालाब में छलाँग लगा देते थे। जैसे ही उनके शरीर से लिपटी रेत तालाब के उस गंदे पानी से साफ़ हो जाती, वे फिर से उसी टीले की ओर भागते। लेखक कहता है कि उसे यह याद नहीं है कि वे इस तरह दौड़ना, रेत में लोटना और फिर दौड़ कर तालाब में कूद जाने का सिलसिला पाँच-दस बार करते थे या पंद्रह-बीस बार। कई बार तालाब में कूदकर ऐसे हाथ-पाँव हिलाने लगते जैसे उन्हें बहुत अच्छे से तैरना आता हो। परन्तु एक-दो को छोड़, लेखक के किसी साथी को तैरना नहीं आता था। कुछ तो हाथ-पाँव हिलाते हुए गहरे पानी में चले जाते तो दूसरे उन्हें बाहर आने के लिए सलाह देते कि ऐसा मानो जैसे किसी भैंस के सींग या पूँछ पकड़ रखी हो। उनका हौसला बढ़ाते। कूदते समय मुँह में गंदला पानी भर जाता तो बुरी तरह खाँस कर उसे बाहर निकालने का प्रयास करते थे। कई बार ऐसा लगता कि साँस रुकने वाली है परन्तु हाय-हाय करके किसी न किसी तरह तालाब के किनारे तक पहुँच ही जाते थे। फिर छुटियाँ बितने लगतीं तो दिन गिनने लगते। प्रत्येक दिन डर बढ़ता चला जाता। खेल-कूद और तालाब में नहाना भी भूलने लगता। मास्टरों ने जो छुट्टियों में करने के लिए काम दिया होता उसका हिसाब लगाने लगते। जैसे हिसाब के मास्टर जी दो सौ से काम सवाल कभी न बताते। मन में हिसाब लगाते कि यदि दस सवाल रोज़ निकाले तो बीस दिन में पुरे हो जाएंगे। जब ऐसा सोचना शुरू करते तो छुट्टियों का एक महीना बाकी हुआ करता। एक-एक दिन गिनते दस दिन खेल-कूद में और बीत जाते। स्कूल की पिटाई का डर और बढ़ने लगता। परन्तु डर भुलाने के लिए सोचते कि दस की क्या बात, सवाल तो पंद्रह भी रोज़ आसानी से निकाले जा सकते हैं। जब ऐसा हिसाब लगाने लगते तो छुट्टियाँ कम होते-होते जैसे भागने लगतीं दिन बहुत छोटे लगने लगते। ऐसा मालूम होता जैसे सूरज भाग कर दोपहरी में ही छिप जाता हो। जैसे-जैसे दिन ‘छोटे’ होने लगते स्कूल का भय बढ़ने लगता। हमारे कितने ही सहपाठी ऐसे भी होते जो छुट्टियों का काम करने के बजाय मास्टरों की पिटाई अधिक ‘सस्ता सौदा’ समझते। हम जो पिटाई से बहुत डरा करते, उन ‘बहादुरों’ की भाँति ही सोचने लगते। ऐसे समय हमारा सबसे बड़ा ‘नेता’ ओमा हुआ करता। हिसाब के मास्टर जी – गणित के अध्यापक लेखक कहता है कि जैसे-जैसे उनकी छुट्टियों के दिन ख़त्म होने लगते तो वे लोग दिन गिनने शुरू कर देते थे। हर दिन के ख़त्म होते-होते उनका डर भी बढ़ने लगता था। डर के कारण लेखक और उसके साथी खेल-कूद के साथ-साथ तालाब में नहाना भी भूल जाते। अध्यापकों ने जो काम छुट्टियों में करने के लिए दिया होता था, उसको कैसे करना है – इस बारे में सोचने लगते। जैसे- गणित के अध्यापक हमेशा छुट्टियों में दो सौ से कम प्रश्न नहीं देते थे। मन में सोचने लगते कि अगर एक दिन में दस सवालों को भी करे तो भी उनका सारा काम ख़त्म हो जाएगा। जब लेखक और उसके साथी ऐसा सोचना शुरू करते तब तक छुट्टियों का सिर्फ एक ही महीना बचा होता। एक-एक दिन गिनते-गिनते खेलकूद में दस दिन और बीत जाते। काम न किया होने के कारण स्कूल में होने वाली पिटाई का डर अब और ज्यादा बढ़ने लगता। फिर वे सभी अपना डर भगाने के लिए सोचते कि दस क्या, पंद्रह सवाल भी आसानी से एक दिन में किए जा सकते हैं। जब ऐसा सोचने लगते तो ऐसा लगने लगता जैसे छुट्टियाँ कम होते-होते भाग रही हों। दिन बहुत छोटे लगने लगते थे। ऐसा लगता था जैसे सूरज भाग कर दिन में ही छिप जाता हो। जैसे-जैसे दिन ‘छोटे’ होने लगते अर्थात छुट्टियाँ ख़त्म होने लगती डर और ज्यादा बढ़ने लगता। लेखक बताता है कि उसके कितने ही सहपाठी ऐसे भी होते थे जो छुट्टियों का काम करने के बजाय अध्यापकों की पिटाई अधिक ‘सस्ता सौदा’ समझते। लेखक और उसके साथी जो पिटाई से बहुत डरा करते, उन ‘बहादुरों’ की भाँति ही सोचने लगते। ऐसे समय में लेखक और उसके साथी का सबसे बड़ा ‘नेता’ ओमा हुआ करता था। हम सभी उसके बारे में सोचते ही हमारे में उन जैसा कौन था। कभी भी उस जैसा दूसरा लड़का नहीं ढूँढ़ पाते थे। उसकी बातें, गालियाँ, मार पिटाई का ढंग अलग था ही, उसकी शक्ल-सूरत भी सबसे अलग थी। हाँड़ी जितना बड़ा सिर, उसके ठिगने चार बालिश्त के शरीर पर ऐसा लगता जैसे बिल्ली के बच्चे के माथे पर तरबूज रखा हो। इतने बड़े सिर में नारियल-की-सी आँखों वाला बंदरिया के बच्चे जैसा चेहरा और भी अजीब लगता। लड़ाई वह हाथ-पाँव नहीं, सिर से किया करता। जब साँड़ की भाँति फुँकारता, सिर झुका कर किसी के पेट या छाती में मार देता तो उससे दुगुने-तिगुने शरीर वाले लड़के भी पीड़ा से चिल्लाने लगते। हमें डर लगता कि किसी की छाती की पसली ही न तोड़ डाले। उसके सिर की टक्कर का नाम हमने ‘रेल-बम्बा’ रखा हुआ था-रेल के (कोयले से चलने वाले) इंजन की भाँति बड़ा और भयंकर ही तो था। हाँड़ी – मटका लेखक कहता है कि वह और उसके साथी ओमा के बारे में सोचते कि उसकी तरह उन सब के बीच और कौन था। लेखक और उसके साथी कभी उसकी तरह दूसरा लड़का नहीं ढूँढ पाए। ओमा की बातें, गालियाँ और उसकी मार-पिटाई का ढंग सभी से बहुत अलग था। वह देखने में भी सभी से बहुत अलग था। उसका मटके के जितना बड़ा सिर था, जो उसके चार बालिश्त (ढ़ाई फुट) के छोटे कद के शरीर पर ऐसा लगता था जैसे बिल्ली के बच्चे के माथे पर तरबूज रखा हो। बड़े सिर पर नारियल जैसी आँखों वाला उसका चेहरा बंदरिया के बच्चे जैसा और भी अजीब लगता था। जब भी लड़ाई होती थी तो वह अपने हाथ-पाँव का प्रयोग नहीं करता था, वह अपने सिर से ही लड़ाई किया करता था। जब वह किसी साँड़ की तरह गरजता और अपने सिर को झुका कर किसी के पेट या छाती में मार देता तो उससे दुगुने-तिगुने शारीरिक बल वाले लड़के भी दर्द से चिल्लाने लगते थे। लेखक और उसके साथी डर जाते थे कि कहीं वह किसी की छाती की पसली ही न तोड़ डाले। उसके सिर की टक्कर का नाम लेखक और उसके साथियों ने ‘रेल-बम्बा’ रखा हुआ था क्योंकि उसके सिर की वह टक्कर रेल के कोयले से चलने वाले इंजन की तरह ही भयानक होती थी। हमारा स्कूल बहुत छोटा था-केवल छोटे-छोटे नौ कमरे थे जो अंग्रेजी के अक्षर एच (H) की भाँति बने थे। दाईं ओर पहला कमरा हेडमास्टर श्री मदनमोहन शर्मा जी का था जिसके दरवाजे के आगे हमेशा चिक लटकी रहती। स्कूल की प्रेयर (प्रार्थना) के समय वह बाहर आते और सीधी कतारों में कद के अनुसार खड़े लड़कों को देख उनका गोरा चेहरा खिल उठता। सारे अध्यापक, लड़कों की तरह ही कतार बाँधकर उनके पीछे खड़े होते। केवल मास्टर प्रीतम चंद ‘पीटी’ लड़कों की कतारों के पीछे खड़े-खड़े यह देखते थे कि कौन सा लड़का कतार में ठीक नहीं खड़ा। उनकी घुड़की तथा ठुट्टों के भय से हम सभी कतार के पहले और आखरी लड़के का ध्यान रखते, सीधे कतार में बने रहने का प्रयत्न करते। सीधी कतार के साथ-साथ हमें यह भी ध्यान रखना पड़ता था कि आगे पीछे खड़े लड़कों के बीच की दुरी भी एक सी हो। सभी लड़के उस ‘पीटी’ से बहुत डरते थे क्योंकि उन जितना सख्त अध्यापक न कभी किसी ने देखा, न सुना था। यदि कोई लड़का अपना सिर भी इधर-उधर हिला लेता या पाँव से दूसरी पिंडली खुजलाने लगता तो वह उसकी और बाघ की तरह झपट पड़ते और ‘खाल खींचने’ के मुहावरे को प्रत्यक्ष करके दिखा देते। कतार – पंक्ति लेखक कहता है कि वह जिस स्कूल में पढता था वह स्कूल बहुत छोटा था। उसमें केवल छोटे-छोटे नौ कमरे थे, जो अंग्रेजी के अक्षर एच (H) की तरह बने हुए थे। दाईं ओर का पहला कमरा हेडमास्टर श्री मदनमोहन शर्मा जी का था जिसके दरवाजे के आगे हमेशा चिटकनी लटकी रहती थी। स्कूल की प्रेयर (प्रार्थना) के समय वह बाहर आते थे और सीधी पंक्तियों में कद के अनुसार खड़े लड़कों को देखकर उनके गोरा चेहरे पर ख़ुशी साफ़ ही दिखाई देती थी। सारे अध्यापक, लड़कों की तरह ही कतार बाँधकर उनके पीछे खड़े हो जाते थे। केवल मास्टर प्रीतम चंद जो स्कूल के ‘पीटी’ थे, वे लड़कों की पंक्तियों के पीछे खड़े-खड़े यह देखते रहते थे कि कौन सा लड़का पंक्ति में ठीक से नहीं खड़ा है। उनकी धमकी भरी डाँट तथा लात-घुस्से के डर से लेखक और लेखक के साथी पंक्ति के पहले और आखरी लड़के का ध्यान रखते, सीधी पंक्ति में बने रहने की पूरी कोशिश करते थे। सीधी पंक्ति के साथ-साथ लेखक और लेखक के साथियों को यह भी ध्यान रखना पड़ता था कि आगे पीछे खड़े लड़कों के बीच की दुरी भी एक समान होनी चाहिए। सभी लड़के उस ‘पीटी’ से बहुत डरते थे क्योंकि उन जितना सख्त अध्यापक न कभी किसी ने देखा था और न सुना था। यदि कोई लड़का अपना सिर भी इधर-उधर हिला लेता या पाँव से दूसरे पाँव की पिंडली (घुटने और टखने के बीच का टाँग के पीछे माँस वाले भाग को) खुजलाने लगता तो वह उसकी ओर बाघ की तरह झपट पड़ते और ‘खाल खींचने’ (कड़ा दंड देना, बहुत अधिक मारना-पीटना) के मुहावरे को सामने करके दिखा देते। परन्तु हेडमास्टर शर्मा जी उसके बिलकुल उलट स्वभाव के थे। वह पाँचवीं और आठवीं श्रेणी को अंग्रेजी स्वयं पढ़ाया करते थे। हमारे में से किसी को भी याद न था कि पाँचवी श्रेणी में कभी भी उन्हें, किसी गलती के कारण किसी की ‘चमड़ी उधेड़ते’ देखा या सूना हो। (चमड़ी उधेड़ना हमारे लिए बिलकुल ऐसा शब्द था जैसे हमारे ‘सरकारी मिडिल स्कूल’ का नाम) अधिक से अधिक वह गुस्से में बहुत जल्दी-जल्दी आँखें झपकाते, अपने लम्बे हाथ की उलटी अँगुलियों से एक ‘चपत’ मार देते और मेरे जैसे सबसे कमजोर शरीर वाले भी सिर झुकाकर मुँह नीचा किए हँस देते। वह चपत तो जैसे हमें भाई भीखे की नमकीन पापड़ी जैसी मजेदार लगती जो तब पैसे की शायद दो आ जाया करती। चपत – चाँटा लेखक कहता है कि मास्टर प्रीतम चंद जो स्कूल के ‘पीटी’ थे वे बहुत ही सख्त अध्यापक थे। परन्तु हेडमास्टर शर्मा जी उनके बिलकुल उलट स्वभाव के थे। वह पाँचवीं और आठवीं कक्षा को अंग्रेजी स्वयं पढ़ाया करते थे। लेखक और लेखक के साथियों में से किसी को भी याद नहीं था कि पाँचवी कक्षा में कभी भी उन्होंने हेडमास्टर शर्मा जी को किसी गलती के कारण किसी को मारते या डाँटते देखा या सूना हो। (चमड़ी उधेड़ना लेखक और लेखक के साथियों के लिए बिलकुल ऐसा शब्द था जैसे उनके ‘सरकारी मिडिल स्कूल’ का नाम) अधिक से अधिक हेडमास्टर शर्मा जी गुस्से में बहुत जल्दी-जल्दी आँखें झपकाते थे और अपने लम्बे हाथ की उलटी अँगुलियों से एक चाँटा मार देते थे और लेखक के जैसे सबसे कमजोर शरीर वाले भी सिर झुकाकर मुँह नीचा किए हँस देते थे। वह चाँटा तो जैसे लेखक और लेखक के साथियों को भाई भीखे की नमकीन पापड़ी जैसा मजेदार लगता था जो लेखक के बचपन के समय में एक पैसे की शायद दो आ जाती थी। परन्तु तब भी स्कूल हमारे लिए
ऐसी जगह न थी जहाँ ख़ुशी से भागे जाएँ। पहली कच्ची श्रेणी से लेकर चौथी श्रेणी तक, केवल पाँच-सात लड़कों को छोड़ हम सभी रोते चिल्लाते ही स्कूल जाया करते। दोरंगे – दो रंग के लेखक कहता है कि उसके बचपन में भी स्कूल सभी के लिए ऐसी जगह नहीं थी जहाँ ख़ुशी से भाग कर जाया जाए। पहली कच्ची कक्षा से लेकर चौथी कक्षा तक, केवल पाँच-सात लड़के ही थे जो ख़ुशी-ख़ुशी स्कूल जाते होंगे बाकि सभी रोते चिल्लाते ही स्कूल जाया करते थे। वह स्थितियाँ बनती थी जब स्कूल में स्काउटिंग का अभ्यास करवाते समय पीटी साहब सभी बच्चो के हाथों में नीली-पीली झंडियाँ पकड़ा कर वन टू थ्री कहते और बच्चे भी झंडियाँ ऊपर-निचे, दाएँ-बाएँ हिलाते जिससे झंडियाँ हवा में लहराती और फड़फड़ाती। झंडियों के साथ खाकी वर्दियों तथा गले में दो रंग के रुमाल लटकाए सभी बच्चे बहुत ख़ुशी से अभ्यास किया करते थे। हम कोई गलती न करते तो अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते कहते-शाबाश। वैल बिगिन अगेन-वन, टू, थ्री, थ्री, टू, वन! उनकी एक शाबाश ऐसे लगने लगती जैसे हमने किसी फ़ौज के सभी तमगे जीत लिए हों। कभी यही शाबाश, सभी मास्टरों की ओर से, हमारी सभी कापियों पर साल भर की लिखी ‘गुड्डों’ (गुड का बहुवचन) से अधिक मूल्यवान लगने लगती। कभी ऐसा भी लगता कि कई साल की सख्त मेहनत से प्राप्त की पढ़ाई से भी पीटी साहब के डिसीप्लिन में रह कर प्राप्त की ‘गुडविल’ बहुत बड़ी थी। परन्तु यह भी एहसास रहता कि जैसे गुरूद्वारे का भाई जी कथा करते समय बताया करता कि सतिगुर के भय से ही प्रेम जागता है, ऐसे यह ही पीटी साहब के प्रति हमारी प्रेम की भावना जग जाती। (यह ऐसा भी है कि आपको रोज फटकारने वाला कोई ‘अपना’ यदि साल भर के बाद एक बार ‘शाबाश’ कह दें तो यहचमत्कार-सा लगने लगता है-हमारी दशा भी कुछ ऐसी हुआ करती।) तमगा – पदक, मैडल लेखक कहता है कि यदि स्काउटिंग करते हुए कोई भी विद्यार्थी कोई गलती न करता तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। और वैल बिगिन अगेन अर्थात दुबारा करने के लिए कहते हुए-वन, टू, थ्री, थ्री, टू, वन! करते जाते और बच्चे भी ख़ुशी-ख़ुशी उनका कहना मानते। लेखक कहता है कि उनकी एक शाबाश लेखक और उसके साथियों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने किसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत लिए हों। दूसरे मास्टरों की ओर से जब कभी लेखक और उसके साथियों को कापियों पर साल भर की मेहनत के लिए ‘गुड्डों’ (गुड का बहुवचन) दिया जाता, उससे कहीं अधिक पीटी साहब का शाबाश मूल्यवान लगता था। कभी-कभी लेखक और उसके साथियों को ऐसा भी लगता था कि कई साल की सख्त मेहनत से जो पढ़ाई उन्होंने प्राप्त की थी, पीटी साहब के अनुशासन में रह कर प्राप्त की ‘गुडविल’ का रॉब या घमंड उससे बहुत बड़ा था। परन्तु लेखक और उसके साथियों को यह भी एहसास रहता था कि जैसे गुरूद्वारे का भाई जी कथा करते समय बताया करता है कि सतगुरु के भय से ही प्रेम जागता है, इसी तरह लेखक और उसके साथियों की पीटी साहब के प्रति प्रेम की भावना जग जाती थी। लेखक कहता है कि यह ऐसा भी है कि आपको रोज डाँटने वाला कोई ‘अपना’ यदि साल भर के बाद एक बार ‘शाबाश’ कह दें तो यह किसी चमत्कार-से कम नहीं लगता है-लेखक और उसके साथियों की दशा भी कुछ ऐसी हुआ करती थी। हर वर्ष अगली श्रेणी में प्रवेश करते समय मुझे पुरानी पुस्तकें मिला करतीं। हमारे हेडमास्टर शर्मा जी एक लड़के को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। वे धनाढ्य लोग थे। उनका लड़का मुझसे एक-दो साल बड़ा होने के कारण मेरे से एक श्रेणी आगे रहा। हर साल अप्रैल में जब पढ़ाई का नया साल आरम्भ होता तो शर्मा जी उसकी एक साल पुरानी पुस्तकें ले आते। हमारे घर में किसी को भी पढ़ाई में दिलचस्पी न थी। यदि नयी किताबें लानी पड़तीं (जो तब एक-दो रूपये में आ जाया करतीं) तो शायद इसी बहाने पढ़ाई तीसरी-चौथी श्रेणी में ही छूट जाती। कोई सात साल स्कूल में रहा तो एक कारण पुरानी किताबें मिल जाना भी था। कापियों, पैंसिलों, होल्डर या स्याही-दवात में भी मुश्किल से एक-दो रूपये साल भर में खर्च हुआ करते। परन्तु उस जमाने में एक रूपया भी बहुत बड़ी ‘रकम’ हुआ करती थी। एक रूपये में एक सेर घी आया करता और दो रूपये की एक मन (चालीस सेर) गंदम। इसी कारण, खाते-पीते घरों के लड़के ही स्कूल जाया करते। हमारे दो परिवारों में मैं अकेला लड़का था जो स्कूल जाने लगा था। धनाढ्य –
अधिक धन वाले लेखक कहता है कि हर साल जब वह अगली कक्षा में प्रवेश करता तो उसे पुरानी पुस्तकें मिला करतीं थी। उसके स्कूल के हेडमास्टर शर्मा जी एक लड़के को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। वे बहुत धनी लोग थे। उनका लड़का लेखक से एक-दो साल बड़ा होने के कारण लेखक से एक कक्षा आगे पढ़ता था। हर साल अप्रैल में जब पढ़ाई का नया साल आरम्भ होता था तो शर्मा जी उस लड़के की एक साल पुरानी पुस्तकें लेखक के लिए ले आते थे। लेखक के घर में किसी को भी पढ़ाई में कोई रूचि नहीं थी। यदि नयी किताबें लानी पड़तीं (जो लेखक के समय में केवल एक-दो रूपये में आ जाया करतीं थी) तो शायद इसी बहाने लेखक की पढ़ाई तीसरी-चौथी कक्षा में ही छूट जाती। लेखक लगभग सात साल स्कूल में रहा तो उसका एक कारण लेखक को पुरानी किताबें मिल जाना भी था। कापियों, पैंसिलों, होल्डर या स्याही-दवात में भी मुश्किल से साल भर में एक-दो रूपये ही खर्च हुआ करते थे। परन्तु उस जमाने में एक रूपया भी बहुत बड़ी सम्पति या दौलत हुआ करती थी। एक रूपये में एक सेर घी आया करता था और दो रूपये में तो एक मन यानि चालीस सेर गंदम आ जाते थे। यही कारण था की उस समय केवल खाते-पीते घरों के लड़के ही स्कूल जाया करते थे। लेखक के दोनों परिवारों में लेखक ही अकेला लड़का था जो स्कूल जाने लगा था। परन्तु किसी भी नयी श्रेणी में जाने का ऐसा चाव कभी भी महसूस नहीं हुआ जिसका ज़िक्र कुछ लड़के किया करते। अज़ीब बात थी कि मुझे नयी कापियों और पुरानी पुस्तकों में से ऐसी गंध आने लगती कि मन बहुत उदास होने लगता था। इसका ठीक-ठीक कारण तो कभी समझ में नहीं आया परन्तु जितनी भी मनोविज्ञान की जानकारी है, उस अरुचि का कारण यही समझ में आया कि आगे की श्रेणी की कुछ मुश्किल पढ़ाई और नए मास्टरों की मार-पीट का भय ही कहीं भीतर जमकर बैठ गया था। सभी तो नए न होते थे परन्तु दो-तीन हर साल ही वह होते जोकि छोटी श्रेणी में नहीं पढ़ाते थे। कुछ ऐसी भी भावना थी कि अधिक अध्यापक एक साल में ऐसी अपेक्षा करने लगते कि जैसे हम ‘हरफनमौला’ हो गए हों। यदि उनकी आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ तो जैसे ‘चमड़ी उधेड़ देने को तैयार रहते’ इन्ही कुछ कारणों से केवल किताबों-कापियों की गंध से ही नहीं, बाहर के बड़े गेट से दस-पंद्रह गज दूर स्कूल के कमरों तक रास्ते के दोनों ओर जो अलिआर के झाड़ उगे थे उनकी गंध भी मन उदास कर दिया करती। चाव – शौक, इच्छा लेखक कहता है कि उसे कभी भी किसी भी नयी कक्षा में जाने की ऐसी कोई इच्छा कभी भी महसूस नहीं हुई जिसकी चर्चा कुछ लड़के किया करते थे। अज़ीब बात लेखक को यह लगाती थी कि उसे नयी कापियों और पुरानी पुस्तकों में से ऐसी गंध आने लगती थी कि उसका मन बहुत उदास होने लगता था। इसका ठीक-ठीक कारण तो लेखक को कभी समझ में नहीं आया परन्तु लेखक को जितनी भी मनोविज्ञान की जानकारी है, उस अरुचि का कारण उसे यही समझ में आया कि आगे की कक्षा की कुछ मुश्किल पढ़ाई और नए मास्टरों की मार-पीट का डर ही लेखक के कहीं भीतर जमकर बैठ गया था। सभी अध्यापक तो नए नहीं होते थे परन्तु दो-तीन हर साल ही वह होते जोकि छोटी कक्षा में नहीं पढ़ाते थे। लेखक के मन में कुछ ऐसी भी भावना थी कि अधिक अध्यापक एक साल में ऐसी उम्मीद करने लगते थे कि जैसे लेखक और उसके साथी सर्वगुण सम्पन्न या हर क्षेत्र में आगे रहने वाले हो गए हों। यदि लेखक और उसके साथी उन अध्यापकों की आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ अध्यापक तो हमेशा ही विद्यार्थियों की ‘चमड़ी उधेड़ देने को तैयार रहते’ थे। इन्ही कुछ कारणों से केवल किताबों-कापियों की गंध से ही नहीं बल्कि बाहर के बड़े गेट से दस-पंद्रह गज दूर स्कूल के कमरों तक रास्ते के दोनों ओर जो बरामदे में झाड़ उगे थे, जिसकी गंध लेखक को बहुत अच्छी लगती थी परन्तु अब उनकी गंध भी लेखक का मन उदास कर दिया करती थी। परन्तु स्कूल एक-दो कारणों से अच्छा भी लगने लगा था। मास्टर प्रीतमचंद जब हम स्काउटों को परेड करवाते तो लेफ्ट-राइट की आवाज़ या मुँह में ली ह्विसल से मार्च कराया करते। फिर राइट टर्न या लेफ्ट टार्न या अबाऊट टर्न कहने पर छोटे-छोटे बूटों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर बूटों की ठक-ठक करते अकड़कर चलते तो लगता जैसे हम विद्यार्थी नहीं, बहुत महत्वपूर्ण ‘आदमी’ हों-फौज़ी जवान। ह्विसल – सीटी लेखक कहता है कि बचपन में स्कूल जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था परन्तु एक-दो कारणों के कारण कभी-कभी स्कूल जाना अच्छा भी लगने लगता था। मास्टर प्रीतमसिंह जो लेखक के स्कूल के पीटी थे, वे लेखक और उसके साथियों को परेड करवाते और मुँह में सीटी ले कर लेफ्ट-राइट की आवाज़ निकालते हुए मार्च करवाया करते थे। फिर जब वे राइट टर्न या लेफ्ट टार्न या अबाऊट टर्न कहते तो सभी विद्यार्थी अपने छोटे-छोटे जूतों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड के साथ चलते जैसे वे सभी विद्यार्थी न हो कर, बहुत महत्वपूर्ण ‘आदमी’ हों, जैसे किसी देश का फौज़ी जवान होता है, अर्थात लेखक कहना चाहता है कि सभी विद्यार्थी अपने-आप को फौजी समझते थे। दूसरे विश्व युद्ध का समय था, परन्तु हमारी नाभा रियासत का राजा अंग्रेजों ने 1923 में गिरफ़्तार कर लिया था और तमिलनाडु में कोडाएकेनाल में ही, जंग शुरू होने से पहले उसका देहांत हो गया था। उस राजा का बेटा, कहते थे अभी विलायत में पढ़ रहा था। इसलिए हमारे देसी रियासत में भी अंग्रेज की ही चलती थी फिर भी राजा के न रहते,
अंग्रेज हमारी रियासत के गाँवों से ‘जबरन’ भरती नहीं कर पाया था। लोगो को फ़ौज में भर्ती करने के लिए जब कुछ अफसर आते तो उनके साथ कुछ नौटंकी वाले भी हुआ करते। वे रात को खुले मैदान में शामियाने लगाकर लोगों को फ़ौज के सुख-आराम, बहादुरी के दृश्य दिखाकर आकर्षित किया करते। उनका एक गाना अभी भी याद है। कुछ मसखरे अज़ीब सी वर्दियाँ पहने और अच्छे, बड़े फ़ौजी बूट पहने गाया करते- विलायत – प्रदेश लेखक कहता है कि जब लेखक स्कूल में था तब दूसरे विश्व युद्ध का समय था, परन्तु नाभा रियासत के राजा को अंग्रेजों ने 1923 में गिरफ़्तार कर लिया था और तमिलनाडु में कोडाएकेनाल में ही, जंग शुरू होने से पहले उसका देहांत हो गया था। जब राजा का देहांत हुआ, उस समय सभी कहते थे कि उस राजा का बेटा उस समय
प्रदेश में पढ़ रहा था। इसलिए लेखक की देसी रियासत को भी अंग्रेजी सरकार ही चलाती थी फिर भी राजा के न रहते, अंग्रेजी सरकार लेखक की रियासत के गाँवों से ज़ोर-ज़बरदस्ती किसी को भी फ़ौज में भरती नहीं कर पायी थी। लोगो को फ़ौज में भर्ती करने के लिए जब कुछ अफसर गाँव में आते तो उनके साथ कुछ नौटंकी वाले भी आया करते थे। वे रात को खुले मैदान में तम्बू लगाकर लोगों को फ़ौज के सुख-आराम, बहादुरी के दृश्य दिखाकर फ़ौज में भर्ती होने के लिए आकर्षित किया करते थे। उनका एक गाना अभी भी लेखक को याद है। कुछ हँसी-मजाक करने
वाले व्यक्ति अज़ीब सी वर्दियाँ पहनकर और अच्छे, बड़े फ़ौजी बूट पहनकर गाना गाया करते थे-वे सेना या पुलिस आदि में नए लोगों को भरती करवाने के लिए कहते थे कि यहाँ पर उन्हें सिर्फ फटे-पुराने खस्ताहाल जूते ही मिलेंगे, वहाँ बहुत बढ़िया जूते मिलेंगे। ज्यादा सोच मत भरती हो जाओ। इन्हीं सारी बातों की वजह से कुछ नौजवान फ़ौज में भरती होने के लिए तैयार भी हो जाया करते थे। लेखक कहता है कि कभी-कभी उन्हें भी लगता कि वे सब भी फौजी जवानों से कम नहीं हैं। जब वे धोबी द्वारा धोई गई वर्दी और पालिश किए चमकते जूते और जुराबों को पहनकर स्काउटिंग की परेड करते तो लगता कि वे भी फौजी ही हैं। मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल के समय में कभी भी हमने मुस्कुराते या हँसते न देखा था। उनका ठिगना कद, दुबला-पतला परन्तु गठीला शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँखें, खाकी वर्दी, चमड़े के चौड़े पंजों वाले बूट-सभी कुछ ही भयभीत करने वाला हुआ करता। उनके बूटों की ऊँची एड़ियों के निचे भी खुरियाँ लगी रहतीं, जैसे ताँगे के घोड़े के पैरों में लगी रहती है। अगले हिस्से में, पंजों के निचे मोठे सिरों वाले कील ठुके होते। यदि वह सख्त जगह पर भी चलते तो खुरियों और किलों के निशान वहाँ भी दिखाई देते। हम ध्यान से देखते, इतने बड़े और भारी-भारी बूट पहनने के बावजूद उनके टखनों में कहीं मोच तक नहीं आती थी। (उनको देख कर हम यदि घरवालों से बूटों की माँग करते तो माँ-बाप यही कहते कि टखने टेढ़े हो जाएँगे, सारी उमर सीधे न चलने पाओगे।) ठिगना –
छोटा लेखक कहता हैं कि उन्होंने कभी भी मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल के समय में मुस्कुराते या हँसते नहीं देखा था। उनका छोटा कद, दुबला-पतला परन्तु पुष्ट शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा यानि चेचक के दागों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँखें, खाकी वर्दी, चमड़े के चौड़े पंजों वाले जूत-ये सभी चीज़े बच्चों की भयभीत करने वाली होती थी। उनके जूतों की ऊँचीएड़ियों के निचे भी उसी तरह की खुरियाँ लगी रहतीं थी, जैसे ताँगे के घोड़े के पैरों में लगी रहती है। अगले हिस्से में, पंजों के निचे मोठे सिरों वाले कील ठुके होते थे। यदि मास्टर प्रीतमचंद सख्त जगह पर भी चलते तो खुरियों और किलों के निशान वहाँ भी दिखाई देते थे। लेखक और उसके साथी उन निशानों को ध्यान से देखते और सोचते कि इतने बड़े और भारी-भारी जूते पहनने के बावजूद भी मास्टर प्रीतमचंद के टखनों (पिंडली एवं एड़ी के बीच की दोनों ओर उभरी हड्डी) में मोच कैसे नहीं आती थी। ये सब देख कर लेखक और उसके साथी यदि घरवालों से वैसे ही जूतों की माँग करते तो माँ-बाप यही कहते कि टखने टेढ़े हो जाएँगे और फिर सारी उमर सीधे नहीं चल पाओगे। मास्टर प्रीतमचंद से हमारा डरना तो स्वाभाविक था, परन्तु हम उनसे नफ़रत भी करते थे। कारण तो उसका मारपीट था। हम सभी को (जो मेरी उमर के हैं) वह दिन नहीं भूल पाया जिस दिन वह हमें चौथी श्रेणी में फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। हमें उर्दू का तो तीसरी श्रेणी तक अच्छा अभ्यास हो गया था परन्तु फ़ारसी तो अंग्रेजी से भी मुश्किल थी। अभी हमें पढ़ते एक सप्ताह भी न हुआ होगा कि प्रीतमचंद ने हमें एक शब्दरूप याद करने को कहा और आदेश दिया कि कल इसी घंटी में ज़बानी सुनेंगे। हम सभी घर लौटकर,
रात देर तक उसी शब्दरूप को बार-बार याद करते रहे परन्तु केवल दो-तीन ही लड़के थे जिन्हें आधी या कुछ अधिक शब्दरूप याद हो पाया। दूसरे दिन बारी-बारी सबको सुनाने के लिए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। तभी मास्टर जी गुर्राए-सभी कान पकड़ो। स्वाभाविक – प्राकृतिक लेखक कहता हैं कि मास्टर प्रीतमचंद से सभी बच्चों का डरना तो प्राकृतिक था, परन्तु सभी बच्चे उनसे नफ़रत भी करते थे। इसका कारण लेखक बताता है कि वे बच्चों को मारते-पीटते थे जिस कारण बच्चे उनसे नफरत करते थे। लेखक अपनी पूरी ज़िन्दगी में उस दिन को कभी नहीं भूल पाया जिस दिन मास्टर प्रीतमचंद लेखक की चौथी कक्षा को फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। लेखक कहता है कि उसकी कक्षा को उर्दू का तो तीसरी कक्षा तक अच्छा अभ्यास हो गया था परन्तु उन सभी को फ़ारसी तो अंग्रेजी से भी मुश्किल लगने लगी थी। अभी मास्टर प्रीतमचंद को लेखक की कक्षा को पढ़ते हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ होगा कि प्रीतमचंद ने उन्हें एक शब्दरूप याद करने को कहा और आज्ञा दी कि कल इसी घंटी में केवल जुबान के द्वारा ही सुनेंगे। सभी विद्यार्थी घर लौटकर, रात देर तक उसी शब्दरूप को बार-बार याद करते रहे परन्तु केवल दो-तीन ही लड़के थे, जिन्हें आधी या कुछ अधिक शब्दरूप याद हो पाया था। दूसरे दिन मास्टर प्रीतमचंद ने बारी-बारी सबको सुनाने के लिए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। मास्टर जी गुस्से में चिल्लाए कि सभी विद्यार्थी अपने-अपने कान पकड़ो। सभी ने झुककर टाँगों के पीछे से बाँहें निकालकर कान पकड़े तो वह फिर से गुस्से से चीखे कि सभी अपनी पीठ ऊँची रखें। पीठ ऊँची करके कान पकड़ने से, तीन-चार मिनट में ही टाँगों में जलन होने लगती थी। मेरे जैसे कमज़ोर तो टाँगों के थकने से कान पकडे हुए ही गिर पड़ते। जब तक मेरी और हरबंस की बारी आई तब तक हेडमास्टर शर्मा जी अपने दफ़्तर में आ चुके थे। जब हमें सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले शर्मा जी, स्कूल की पूरब की ओर बने सरकारी हस्पताल में डाक्टर कपलाश से मिलने गए थे। वह दफ़्तर के सामने की ओर चले आए। आते ही जो कुछ उन्होंने देखा वह सहन नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था कि वह पीटी प्रीतमचंद की उस बर्बरता को सहन नहीं कर पाए। वह उत्तेजित हो गए थे। दफ़्तर – कार्यालय, ऑफिस जब मास्टर जी ने सभी विद्यार्थियों को अपने-अपने कान पकड़ने और अपनी पीठ ऊँची रखने के लिए कहा तो लेखक कहता है कि पीठ ऊँची करके कान पकड़ने से, तीन-चार मिनट में ही टाँगों में जलन होने लगती थी। लेखक के जैसे कमज़ोर बच्चे तो टाँगों के थकने से कान पकडे हुए ही गिर पड़ते थे। लेखक कहता है कि जब तक उसकी और हरबंस की बारी आई तब तक हेडमास्टर शर्मा जी अपने कार्यालय में आ चुके थे। जब लेखक की कक्षा को सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले शर्मा जी स्कूल की पूरब की ओर बने सरकारी हस्पताल में डाक्टर कपलाश से मिलने गए थे। जब वे लौटे तो वह कार्यालय के सामने की ओर चले आए। आते ही जो कुछ उन्होंने देखा वह सहन नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था कि उन्होंने पीटी प्रीतमचंद की उस असभ्यता एवं जंगलीपन को देखा था। उन्होंने सहन नहीं किया और वह भड़क गए थे। ह्वाट आर यू डूईंग, इज इट दा वे टू पनिश दा स्टूडेंट्स ऑफ फोर्थ क्लास? स्टाप इट ऐट वन्स। मुअत्तल – निलंबित या निकाल देना लेखक कहता है कि पीटी प्रीतमचंद की उस असभ्यता एवं जंगलीपन को देख कर हेडमास्टरर शर्मा जी भड़क कर कहने लगे कि
ह्वाट आर यू डूईंग, इज इट दा वे टू पनिश दा स्टूडेंट्स ऑफ फोर्थ क्लास? स्टाप इट ऐट वन्स। लेखक कहता है कि उस समय उसकी कक्षा को समझ नहीं आया कि हेडमास्टर शर्मा जी क्या कह रहे हैं क्योंकि तब उन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी, क्योंकि उस समय पाँचवी श्रेणी से अंग्रेजी पढ़ानी शुरू की जाती थी। परन्तु लेखक के स्कूल के सातवीं-आठवीं श्रेणी के लड़कों ने बताया था कि शर्मा जी ने कहा था-क्या करते हैं? क्या चौथी श्रेणी को सजा देने का यह ढंग है? इसे फ़ौरन बंद करो। इतना कह कर शर्मा जी गुस्से से काँपते हुए बरामदे से ही
अपने कार्यालय में चले गए थे। उस दिन के बाद यह पता होते हुए भी कि पीटी प्रीतमचंद को जब तक नाभा से डायरेक्टर ‘बहाल’ नहीं करेंगें तब तक वह स्कूल में कदम नहीं रख सकते, जब भी फ़ारसी की घंटी बजती तो हमारी छाती धक्-धक् करती फटने को आती। परन्तु जब तक शर्मा जी स्वयं या मास्टर नौहरिया रामजी कमरे में फ़ारसी पढ़ाने न आ जाते, हमारे चेहरे मुरझाए रहते। बहाल – पूर्व स्थिति में प्राप्त लेखक कहता है कि जिस दिन से हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी प्रीतमचंद को निलंबित किया था उस दिन के बाद यह पता होते हुए भी कि पीटी प्रीतमचंद को जब तक नाभा से डायरेक्टर ‘बहाल’ नहीं करेंगें तब तक वह स्कूल में कदम नहीं रख सकते, फिर भी जब भी फ़ारसी की घंटी बजती तो लेखक की और उसकी कक्षा के सभी बच्चों की छाती धक्-धक् करने लगती और लगता जैसे छाती फटने वाली हो। परन्तु जब तक शर्मा जी स्वयं या मास्टर नौहरिया रामजी कमरे में फ़ारसी पढ़ाने न आ जाते, तब तक तो सभी बच्चों के चेहरे मुरझाए ही रहते थे। फिर कई सप्ताह तक पीटी मास्टर स्कूल नहीं आए। पता चला कि बाज़ार में एक दूकान के ऊपर उन्होंने जो छोटी-छोटी खिड़कियों वाला चौबारा किराए पर ले रखा था, वहीँ आराम से रह रहे थे। कुछ सातवीं-आठवीं के विद्यार्थी हमें बताया करते कि उन्हें मुअत्तल होने की रति भर भी चिंता नहीं थी। पहले की ही तरह आराम से पिंजरे में रखे दो तोतों को दिन में कई बार, भिगोकर रखे बादामों की गिरियों का छिलका उतारकर उन्हें खिलाते उनसे बातें करते रहते हैं। उनके वे तोते हमने भी कई बार देखें थे। (हम उन लड़कों के साथ उनके चौबारे में गए थे जो लड़के पीटी साहब के आदेश पर उनके घर में काम करने जाया करते) परन्तु हमारे लिए यह चमत्कार ही था कि जो प्रीतमचंद बिल्ला मार-मारकर हमारी चमड़ी तक उधेड़ देते वह अपने तोतों से मीठी-मीठी बातें कैसे कर लेते थे? क्या तोतों को उनकी दहकती, भूरी आँखों से भय नहीं लगता था।
चौबारा – वह कमरा जिसमें चारों और से खिड़कियाँ और दरवाजें हों लेखक कहता है कि कई सप्ताह तक पीटी मास्टर स्कूल नहीं आए। लेखक और उसके साथियों को पता चला कि बाज़ार में एक दूकान के ऊपर उन्होंने जो छोटी-छोटी खिड़कियों वाला चौबारा (वह कमरा जिसमें चारों और से खिड़कियाँ और दरवाजें हों) किराए पर ले रखा था, पीटी मास्टर वहीं आराम से रह रहे थे। कुछ सातवीं-आठवीं के विद्यार्थी लेखक और उसके साथियों को बताया करते थे कि उन्हें निष्कासित होने की थोड़ी सी भी चिंता नहीं थी। जिस तरह वह पहले आराम से पिंजरे में रखे दो तोतों को दिन में कई बार, भिगोकर रखे बादामों की गिरियों का छिलका उतारकर खिलाते थे, वे आज भी उसी तरह आराम से पिंजरे में रखे उन दो तोतों को दिन में कई बार, भिगोकर रखे बादामों की गिरियों का छिलका उतारकर खिलाते और उनसे बातें करते रहते हैं। उनके वे तोते लेखक और उसके साथियों ने भी कई बार देखें थे जब लेखक और उसके साथी उन लड़कों के साथ पीटी मास्टर के चौबारे में गए थे जो लड़के पीटी साहब के आदेश पर उनके घर में काम करने जाया करते थे ।परन्तु लेखक और उसके साथियों के लिए यह चमत्कार ही था कि जो प्रीतमचंद पट्टी या डंडे से मार-मारकर विद्यार्थियों की चमड़ी तक उधेड़ देते, वह अपने तोतों से मीठी-मीठी बातें कैसे कर लेते थे? लेखक स्वयं में सोच रहा था कि क्या तोतों को उनकी आग की तरह जलती, भूरी आँखों से डर नहीं लगता होगा? लेखक और उसके साथियों की समझ में ऐसी बातें तब नहीं आ पाती थीं, क्योंकि तब वे बहुत छोटे हुआ करते थे। वे तो बस पीटी मास्टर के इस रूप को एक तरह से अद्भुत ही मानते थे। गुरदयाल सिंह का जीवन परिचय श्री गुरदयाल सिंह का जन्म 10 जनवरी 1933 को उनके नानका गाँव भैनी फत्ता जिला बरनाला में हुआ।उनके पिता का नाम श्री जगत सिंह और माता का नाम निहाल कौर था।वो पंजाब के जैतो गाँव के रहने वाले थे।उनके तीन भाई और एक बहन थी।घरेलू कारणों की वजह के कारण उन्होंने बचपन में अपनी पढ़ाई छोड़ अपना पुश्तैनी बढई काम करना शुरू कर दिया।बाद में उन्होंने कड़ी मेहनत करके उच्च विद्या हासिल करके युनिवर्सटी में प्राध्यापक की पदवी प्राप्त की।उनका बलवंत कौर के साथ विवाह हुआ और उनके घर एक बेटा और एक बेटी हुई। ज्ञानपीठ पुरस्कारविजेता श्री गुरदयाल सिंह का 16 अगस्त 2016 को निधन हो गया टोपी शुक्ला टोपी शुक्ला पाठ सार प्रस्तुत पाठ में लेखक टोपी की कहानी पाठकों को सुनाना चाहते हैं। इसलिए लेखक कहता है कि वह इफ़्फ़न की कहानी पूरी नहीं सुनाएगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाएगा जितनी टोपी की कहानी के लिए उसे जरुरी लग रही है। इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बिना शायद टोपी की कहानी अधूरी है। ये दोनों लेखक की कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को सभी प्यार से टोपी कह कर पुकारते हैं और दूसरे को इफ़्फ़न। इफ़्फ़न की दादी पूरब की रहने वाली थी। नौ या दस साल की थी जब उनकी शादी हुई और वह लखनऊ आ गई, परन्तु जब तक ज़िंदा रही, वह पूरब की ही भाषा बोलती रही। लखनाऊ की उर्दू तो उनके लिए ससुराल की भाषा थी। उन्होंने तो मायके की भाषा को ही गले लगाए रखा था क्योंकि उनकी इस भाषा के सिवा उनके आसपास कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझ पाता। जब उनके बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल तड़पने लगा, परन्तु इस्लाम के आचार्यों के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था? बेचारी का दिल उदास हो गया। लेकिन इफ़्फ़न के जन्म के छठे दिन के स्नान/पूजन/उत्सव पर उन्होंने जी भरकर उत्सव मना लिया था। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी किसी इस्लामी आचार्य की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थी। दूध-घी खाती हुई बड़ी हुई थी परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गई थी। जब भी वह अपने मायके जाती तो जितना उसका मन होता, जी भर के खा लेती। क्योंकि लखनऊ वापिस आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। इफ़्फ़न को अपनी दादी से बहुत ज्यादा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अम्मी, बड़ी बहन और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह सबसे ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार इफ़्फ़न को डाँट देती थी और कभी-कभी तो मार भी दिया करती थी। बड़ी बहन भी अम्मी की ही तरह कभी-कभी डाँटती और मारती थी। अब्बू भी कभी-कभार घर को न्यायालय समझकर अपना फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब भी मौका मिलता वह उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थी। बस एक दादी ही थी जिन्होंने कभी भी किसी बात पर उसका दिल नहीं दुखाया था। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थी। इफ़्फ़न की दादी की बोली टोपी के दिल में उतर गई थी, उसे भी इफ़्फ़न की दादी की बोली बहुत अच्छी लगती थी। इफ़्फ़न की दादी टोपी को अपनी माँ की पार्टी की दिखाई दी कहने का अर्थ है टोपी की माँ और इफ़्फ़न की दादी की बोली एक जैसी थी। टोपी को अपनी दादी बिलकुल भी पसंद नहीं थी। उसे तो अपनी दादी से नफ़रत थी। वह पता नहीं कैसी भाषा बोलती थी। टोपी को अपनी दादी की भाषा और इफ़्फ़न के अब्बू की भाषा एक जैसी लगती थी। लेखक कहता है कि टोपी जब भी इफ़्फ़न के घर जाता था तो उसकी दादी के ही पास बैठने की कोशिश करता था। टोपी को इफ़्फ़न की दादी का हर एक शब्द शक़्कर की तरह मिठ्ठा लगता था। पके आम के रस को सूखाकर बनाई गई मोटी परत की तरह मज़ेदार लगता। तिल के बने व्यंजनों की तरह अच्छा लगता था। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी टोपी से हमेशा एक ही सवाल पूछ कर बात आगे बढ़ती थी कि उसकी अम्माँ क्या कर रही है। पहले-पहले तो टोपी को समझ में नहीं आया कि ये अम्माँ क्या होता है परन्तु बाद-बाद में उसे समझ में आ गया कि माता जी को ही अम्माँ कहा जाता है। जब टोपी ने अम्माँ शब्द सुना तो उसे यह शब्द बहुत अच्छा लगा। जिस तरह गुड़ की डाली को मुँह में रख कर उसके स्वाद का आनंद लिया जाता है उसी तरह वह इस शब्द को भी बार-बार बोलता रहा। “अम्माँ”। “अब्बू”। “बाजी”। उसे ये शब्द बहुत पसंद आए। एक दिन टोपी को बैंगन का भुरता ज़रा ज्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी (टोपी की माँ) खाना परोस रही थी। टोपी ने कह दिया कि अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता। अम्मी! यह शब्द सुनते ही मेज़ पर बैठे सभी लोग चौंक गए, उनके हाथ खाना खाते-खाते रुक गए। वे सभी लोग टोपी के चेहरे की ओर देखने लगे। टोपी की दादी सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गई थी और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा । एक ही बात बार-बार पूछ रही थी कि क्या अब वो इफ़्फ़न के घर जाएगा? इसके उत्तर में हर बार टोपी “हाँ” ही कहता था। मुन्नी बाबू और भैरव जो टोपी के भाई थे वे टोपी की पिटाई का तमाशा देखते रहे। लेखक कहता है कि जब टोपी की पिटाई हो रही थी, उसी समय मुन्नी बाबू एक और बात जोड़ कर बोले कि एक दिन, उन्होंने इसे रहीम कबाबची की दुकान पर कबाब खाते देखा था। सच्ची बात यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब खाते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी। ताकि टोपी घर पर उनकी शिकायत न कर दे। उस दिन तो टोपी की इतनी पिटाई हो गई थी कि उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। दूसरे दिन जब टोपी स्कूल गया और स्कूल में इफ़्फ़न से मिला तो उसने उसे पिछले दिन की सारी बातें बता दी। दोनों भूगोल शास्त्र की कक्षा को छोड़कर बाहर निकल गए। पंचम की दूकान से इफ़्फ़न ने केले ख़रीदे क्योंकि बात यह थी कि टोपी फल के अलावा बाहर की किसी भी चीज़ को हाथ नहीं लगाता था। टोपी बहुत ही भोलेपन से इफ़्फ़न से कहता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वे लोग दादी बदल ले? उसकी दादी इफ़्फ़न के घर और इफ़्फ़न की दादी उसके घर आ जाए। टोपी कहता है कि उसकी दादी की बोली तो इफ़्फ़न के परिवार की बोली की तरह ही है। टोपी की इस बात का जवाब देते हुए इफ़्फ़न कहता है कि टोपी की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती। उसके अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। क्योंकि उसकी दादी उसके अब्बू की अम्माँ भी तो हैं। जब टोपी और इफ़्फ़न बात कर रहे थे उसी समय इफ़्फ़न का नौकर आया और खबर दी कि इफ़्फ़न की दादी का देहांत हो गया है। शाम को जब वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ शांति थी। घर लोगों से भरा हुआ था। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए पूरा घर खली हो चूका था। जबकि टोपी को दादी का नाम भी मालूम नहीं था, परन्तु उसका इफ़्फ़न की दादी से बहुत गहरा सम्बन्ध बन गया था। दोनों अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे क्योंकि दोनों को ही उनके घर में कोई समझने वाला नहीं था। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन दूर कर दिया था। टोपी इफ़्फ़न को सहानुभूति देता हुआ कहता है कि इफ़्फ़न दादी की जगह उसकी दादी मर गई होती तो ठीक हुआ होता। लेखक कहता है कि टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी भी ऐसे लड़के से कभी भी दोस्ती नहीं करेगा जिसके पिता कोई ऐसी नौकरी करते हो जिसमें बदली होती रहती हो। दस अक्तूबर सन पैंतालीस का टोपी के जीवन के इतिहास में बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि इस तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। टोपी दादी के मरने के बाद तो अकेला महसूस कर ही रहा था और अब इफ़्फ़न के चले जाने पर वह और भी अकेला हो गया था क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त नहीं बन सका था। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परन्तु केवल अंग्रेजी बोलता था। अब न तो इफ़्फ़न था और न ही इफ़्फ़न की दादी जो उसे समझ सके। घर में ले-देकार एक बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह अब सीता के साथ ही समय गुजारने लगा। ठण्ड के दिन शुरू हो गए थे और मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया और भैरव के लिए भी नया कोट बना लेकिन टोपी को मुन्नी बाबू का पुराना कोट मिला। वैसे कोट बिलकुल नया ही था क्योंकि जब वह बनाया गया तब वह मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी गई कोई भी चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी ठण्ड ही खाएगा। इस पर दादी और टोपी के बीच बहस हो गई और दादी ने पूरा घर अपने सिर पर उठा लिया। जब टोपी को उसकी माँ ने दादी को उल्टा जवाब देने के लिए पीटा तो उनकी बूढ़ी नौकरानी सीता टोपी को समझाने लगी कि अब वह दसवीं कक्षा में पहुँच गया है। उसे दादी से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए । सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि टोपी दसवीं कक्षा में पहुँच गया है परन्तु टोपी के लिए दसवीं कक्षा में पहुँचना इतना भी आसान नहीं था। दसवीं कक्षा में पहुँचने के लिए टोपी को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी थी। दो साल तो टोपी फेल ही हुआ था। वह पढ़ाई में बहुत तेज़ था परन्तु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। जब भी टोपी पढ़ाई करने बैठता था तो कभी उसके बड़े भाई मुन्नी बाबू को कोई काम याद आ जाता था या उसकी माँ को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी, अगर ये सारी चीज़े न होती तो कभी उसका छोटा भाई भैरव उसकी कापियों के पन्नों को फाड़ कर उनके हवाई जहाज़ बना कर उड़ाने लग जाता। यह तो थी पहले साल की बात। दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया था। जिसके कारण वह पढ़ाई नहीं कर पाया और दूसरी साल भी फेल हो गया। तीसरे साल वह पास तो हो गया परन्तु थर्ड डिवीज़न में। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया। टोपी के सभी दोस्त दसवीं कक्षा में थे। इसलिए वह उन्हीं से मिलता और उन्हीं के साथ खेलता था। अपने साथ नवीं कक्षा में पढ़ने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती नहीं थी। वह जब भी कक्षा में बैठता, उसे अजीब लगता था। टोपी ने किसी न किसी तरह इस साल को झेल लिया। परन्तु जब सन इक्यावन में भी उसे नवीं कक्षा में ही बैठना पड़ा तो वह बिलकुल गीली मिट्टी का पिंड हो गया, क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। जो विद्यार्थी सन उनचास में आठवीं कक्षा में थे वे अब दसवीं कक्षा में थे। जो सन उनचास में सातवीं कक्षा में थे वे टोपी के साथ पहुँच गए थे। उन सभी के बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देने लगा था। वहीद जो कक्षा का सबसे तेज़ लड़का था, उसने टोपी से पूछा कि वह उन लोगों के साथ क्यों खेलता है। उसे तो आठवीं कक्षा वालों से दोस्ती करनी चाहिए। क्योंकि वे लोग तो आगे दसवीं कक्षा में चले जाएँगे और टोपी को तो आठवीं वालों के साथ ही रहना है तो उनसे दोस्ती करना टोपी के लिए अच्छा होगा। यह बात टोपी को बहुत बुरी लगी और ऐसा लगा जैसे यह बात उसके दिल के आर-पार हो गई हो। और उसने उसी समय कसम खाई कि इस साल उसे टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, वह पास होकर ही दिखाएगा। परन्तु साल के बीच में ही चुनाव आ गए। टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण, नीले तेल वाले, चुनाव लड़ने के लिए खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो, उस घर में कोई पढ़-लिख कैसे सकता है? वह तो जब टोपी के पिता चुनाव हार गए तब घर में थोड़ी शांति हुई और टोपी ने देखा कि उसकी परीक्षा को ज्यादा समय नहीं रहा है। वह पढ़ाई में जुट गया। परन्तु जैसा वातावरण टोपी के घर में बना हुआ था ऐसे वातावरण में कोई कैसे पढ़ सकता था? इसलिए टोपी का पास हो जाना ही बहुत था। टोपी के दो साल एक ही कक्षा में रहने के बाद जब वह पास हुआ तो उसकी दादी बोली कि वाह! टोपी को भगवान नजरे-बंद से बचाए। बहुत अच्छी रफ़्तार पकड़ी है। तीसरे साल पास हुआ वो भी तीसरी श्रेणी में, चलो पास तो हो गया। परन्तु लेखक कहता है कि सभी को उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह किस वजह से दो साल फेल हुआ और तीसरी साल में थर्ड डिवीज़न से पास हुआ। टोपी शुक्ला पाठ की व्याख्या इफ़्फ़न के बारे में कुछ जान लेना इसलिए ज़रूरी है कि इफ़्फ़न टोपी का पहला दोस्त था। इस इफ़्फ़न को टोपी ने सदा इफ्फन कहा। इफ़्फ़न ने इसका बुरा माना। परन्तु वह इफ्फन पुकारने पर बोलता रहा। इसी बोलते रहने में उसकी बड़ाई थी। यह नामों का चक्कर भी अजीब होता है। उर्दू और हिंदी एक ही भाषा, हिंदवी के दो नाम हैं। परन्तु आप खुद देख लीजिए कि नाम बदल जाने से कैसे-कैसे घपले हो रहे हैं। नाम कृष्ण हो तो उसे अवतार कहते हैं और मुहम्मद हो तो पैगम्बर। नामों के चक्कर में पड़कर लोग यह भूल गए कि दोनों ही दूध देने वाले जानवर चराया करते थे। दोनों ही पशुपति, गोवर्धन और ब्रजकुमार थे। इसलिए तो कहता हूँ कि टोपी के बिना इफ़्फ़न और इफ़्फ़न के बिना टोपी न केवल यह कि अधूरे हैं बल्कि बेमानी हैं। इसलिए इफ़्फ़न के घर चलना ज़रूरी है। यह देखना ज़रूरी है कि उसकी आत्मा के आँगन में कैसी हवाएँ चल रही है और परम्पराओं के पेड़ पर कैसे फल आ रहे हैं। घपला – गड़बड़ पैगम्बर – पैगाम देने वाला लेखक कहता है कि इफ़्फ़न के बारे में कुछ जान लेना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इफ़्फ़न टोपी का पहला दोस्त था। इस इफ़्फ़न को टोपी हमेशा ही इफ्फन कहकर पुकारता था। इफ़्फ़न को इस बात का बुरा लगता था। परन्तु जब भी टोपी उसे इफ्फन पुकारता है इफ़्फ़न उसे बोलता रहा की वह गलत बोल रहा है। वह हर समय टोपी को अपने नाम को सही बोलने के लिए कहता रहता था। लेखक कहता है कि यह नामों का जो चक्कर होता है वह बहुत ही अजीब होता है। हिंदवी एक भाषा है जिसके उर्दू और हिंदी दो अलग-अलग नाम हैं। परन्तु खुद देख लीजिए कि केवल नाम बदल जाने से कैसी-कैसी गड़बड़ हो जाती हैं। यदि नाम “कृष्ण” हो तो उसे अवतार कहते हैं और अगर नाम “मुहम्मद” हो तो पैगम्बर (अर्थात पैगाम देने वाला)। कहने का अर्थ है की एक को ईश्वर और दूसरे को ईश्वर का पैगाम देने वाला कहा जाता है। नामों के चक्कर में पड़कर लोग यह भूल जाते हैं कि दोनों ही दूध देने वाले जानवरों को चराया करते थे। दोनों ही पशुपति, गोवर्धन और ब्रज में रहने वाले कुमार थे। इसलिए लेखक कहता है कि टोपी के बिना इफ़्फ़न और इफ़्फ़न के बिना टोपी न केवल अधूरे हैं बल्कि यह बेमानी कही जायगी। इसलिए इफ़्फ़न के घर चलना ज़रूरी है। यह देखना ज़रूरी है कि उसकी आत्मा के आँगन में कैसी हवाएँ चल रही है और परम्पराओं के पेड़ पर कैसे फल आ रहे हैं। अर्थात इफ़्फ़न क्या सोच रहा है। इफ़्फ़न की कहानी भी बहुत लंबी है। परन्तु हम लोग टोपी की कहानी कह-सुन रहे हैं। इसलिए मैं इफ़्फ़न की पूरी कहानी नहीं सुनाऊँगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाऊँगा जितनी टोपी की कहानी के लिए जरुरी है। मैंने इसे ज़रूरी जाना कि इफ़्फ़न के बारे में आपको कुछ बता दूँ क्योंकि इफ़्फ़न आपको इस कहानी में जगह-जगह दिखाई देगा। न टोपी इफ़्फ़न की परछाई है और न इफ़्फ़न टोपी की। ये दोनों दो आज़ाद व्यक्ति हैं। इन दोनों व्यक्तियों का डेवलपमेंट एक-दूसरे से आज़ाद तौर पर हुआ। इन दोनों को दो तरह की घरेलू परम्पराएँ मिलीं। इन दोनों ने जीवन के बारे में अलग-अलग सोचा। फिर भी इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट हिस्सा है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट हिस्सा है। डेवलपमेंट – विकास लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की कहानी भी बहुत लंबी है। परन्तु प्रस्तुत पाठ में लेखक टोपी की कहानी पाठकों को सुनाना चाहते हैं। इसलिए लेखक कहता है कि वह इफ़्फ़न की कहानी पूरी नहीं सुनाएगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाएगा जितनी टोपी की कहानी के लिए उसे जरुरी लग रही है। लेखक कहता है कि उसे यह ज़रूरी लगा कि इफ़्फ़न के बारे में वह पाठकों को कुछ बता दे क्योंकि इफ़्फ़न इस कहानी में जगह-जगह दिखाई देने वाला है। वह कहानी में टोपी के साथ हर जगह है पर यह जान लेना चाहिए कि न तो टोपी इफ़्फ़न की परछाई है और न इफ़्फ़न टोपी की परछाई है। ये दोनों ही इस कहानी के दो आज़ाद व्यक्ति हैं। इन दोनों व्यक्तियों का विकास एक-दूसरे से आज़ाद तौर पर हुआ अर्थात इन दोनों के विकास में एक-दूसरे का कोई योगदान नहीं है। इन दोनों को दो तरह के घरेलू रीती रिवाज़ मिले। इन दोनों ने ही जीवन के बारे में हमेशा से अलग-अलग सोचा। फिर भी इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बिना शायद टोपी की कहानी अधूरी है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि इफ़्फ़न टोपी की कहानी का सबसे अहम हिस्सा है। मैं हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं यह बेवकूफ़ी क्यों करूँ! क्या मैं रोज अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता हूँ कि हम दोनों भाई-भाई हैं? यदि में नहीं कहता तो क्या आप कहते हैं? हिन्दू-मुस्लिम अगर भाई-भाई हैं तो कहने की जरुरत नहीं। यदि नहीं हैं तो कहने से क्या फ़र्क पड़ेगा। मुझे कोई चुनाव तो लड़ना नहीं है। मैं तो एक कथाकार हूँ और एक कथा सुना रहा हूँ। मैं टोपी और इफ़्फ़न की बात कर रहा हूँ। ये इस कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को टोपी कहा गया और दूसरे को इफ़्फ़न। कथाकार – कथा सुनाने वाला लेखक कहता है कि वह हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की बात नहीं कर रहा है। लेखक कहता है कि वह यह बेवकूफ़ी आखिर करे भी तो क्यों करे। क्या वह रोज अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता फिरता है कि वे दोनों भाई-भाई हैं? लेखक पाठकों से पूछता है कि यदि वह नहीं कहता तो क्या पाठकों में से कोई यह कहता हैं? हिन्दू-मुस्लिम अगर भाई-भाई हैं तो कहने की जरुरत ही नहीं है। और यदि नहीं है तो लेखक के कहने से क्या फ़र्क पड़ जाएगा क्योंकि लेखक कहता है कि उसे कोई चुनाव तो लड़ना नहीं है। चुनाव की बात लेखक ने इसलिए की है क्योंकि अक्सर चुनावों में नेता इस पंक्ति का प्रयोग करते हैं। लेखक कहता है कि वह तो एक कथा-सुनाने वाला है और एक कथा सुना रहा है। लेखक टोपी और इफ़्फ़न की कहानी की बात कर रहा है। ये दोनों लेखक की कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को सभी प्यार से टोपी कह कर पुकारते हैं और दूसरे को इफ़्फ़न। इफ़्फ़न के दादा और परदादा बहुत प्रसिद्ध मौलवी थे। काफ़िरों के देश में पैदा हुए। काफ़िरों के देश में मरे। परन्तु वसीयत करके मरे कि लाश करबला ले जाई जाए। उनकी आत्मा ने इस देश में एक साँस तक ना ली। उस खानदान में जो पहला हिन्दुस्तानी बच्चा पैदा हुआ वह बढ़कर इफ़्फ़न का बाप हुआ। जब इफ़्फ़न के पिता सय्यद मुरतुज़ा हुसैन मरे तो उन्होंने यह वसीयत नहीं की कि उनकी लाश करबला ले जाई जाए। वह एक हिन्दुस्तानी कब्रिस्तान में दफन किए गए। इफ़्फ़न की परदादी भी बड़ी नमाजी बीबी थीं। करबला, नजफ़, खुरासान, काज़मैन और जाने कहाँ की यात्रा कर आई थीं। परन्तु जब कोई घर से जाने लगता तो वह दरवाज़े पर पानी का एक घड़ा जरूर रखवातीं और माश का सदका भी जरूर उतरवातीं। मौलवी – इस्लाम धर्म का
आचार्य लेखक कहता है कि इफ़्फ़न के दादा और परदादा इस्लाम धर्म के बहुत प्रसिद्ध आचार्य थे। गैर मुस्लिम देश में पैदा हुए। और गैर मुस्लिम देश में ही मरे। परन्तु मरने से पहले ही उन्होंने लिखित रूप में कह रखा था कि मरने के बाद उनकी लाश करबला (इस्लाम का एक पवित्र स्थान) ले जाई जाए। उनकी आत्मा ने हिंदुस्तान में एक साँस तक नहीं ली। उस खानदान में जो पहला हिन्दुस्तानी बच्चा पैदा हुआ वह इफ़्फ़न के पिता थे।
इफ़्फ़न की परदादी नियमित रूप से नमाज पढ़ने वाली बीबी थीं। करबला, नजफ़, खुरासान, काज़मैन और न जाने कहाँ-कहाँ की यात्रा कर के आई थीं। परन्तु जब कोई घर से जाने लगता तो वह दरवाज़े पर पानी का एक घड़ा जरूर रखवातीं और माश का एक टोटका भी जरूर उतरवातीं। यह एक हिन्दू रीती-रिवाज़ के अंतर्गत आता है। इफ़्फ़न की दादी भी नमाज़-रोज़े की पाबंद थीं। परन्तु जब इकलौते बेटे को चेचक निकली तो वह चारपाई के पास एक टाँग पर खड़ी हुईं और बोलीं, “माता मोरे बच्चे को माफ़ करद्यो।” पूरब में रहने वाली थीं। नौ या दस बरस की थीं जब ब्याह कर लखनऊ आईं, परन्तु जब तक ज़िंदा रहीं पूरबी बोलती रहीं। लखनाऊ की उर्दू ससुराली थी। वह तो मायके की भाषा को गले लगाए रहीं क्योंकि इस भाषा के सिवा इधर-उधर कोई ऐसा नहीं था जो उसके दिल की बात समझता। जब बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल फड़का परन्तु मौलवी के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था! बेचारी दिल मसोसकर रह गईं। हाँ इफ़्फ़न की छठी… पर उन्होंने जी भरकर जश्न मना लिया। बात यह थी कि इफ़्फ़न अपने दादा के मरने के बाद पैदा हुआ था। मर्दों और औरतों के इस फ़र्क को ध्यान में रखना ज़रूरी है क्योंकि इस बात को ध्यान में रखे बगैर इफ़्फ़न की आत्मा का नाक-नक्शा समझ में नहीं आ सकता। पाबंद – नियम, वचन आदि का पालन करनेवाला लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी भी नमाज़-रोज़े का नियम के अनुसार पालन करने वाली थी। परन्तु जब इकलौते बेटे को चेचक के दाने निकले तो वह चारपाई के पास एक टाँग पर खड़ी हुई और
बोली कि माता मेरे बच्चे को माफ़ कर दो। ऐसा इसलिए कहा क्योंकि हिन्दू धर्म में चेचक को माता कहा जाता है। इस बात का ज़िक्र लेखक ने इसलिए किया है क्योंकि इफ़्फ़न की दादी मुस्लिम होते हुए भी हिन्दू धर्म का अनुसरण कर रही थी। इफ़्फ़न की दादी पूरब की रहने वाली थी। नौ या दस साल की थी जब उनकी शादी हुई और वह लखनऊ आ गई, परन्तु जब तक ज़िंदा रही, वह पूरब की ही भाषा बोलती रही। लखनाऊ की उर्दू तो उनके लिए ससुराल की भाषा थी। उन्होंने तो मायके की भाषा को ही गले लगाए रखा था क्योंकि उनकी इस भाषा के सिवा उनके आसपास
कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझ पाता। जब उनके बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल तड़पने लगा, परन्तु इस्लाम के आचार्यों के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था? बेचारी का दिल उदास हो गया। लेकिन इफ़्फ़न के जन्म के छठे दिन के स्नान/पूजन/उत्सव पर उन्होंने जी भरकर उत्सव मना लिया था। इफ़्फ़न की दादी किसी मौलवी की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थीं। दूध-घी खाती हुई आई थीं परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गईं जो घी पिलाई हुई काली हाँडियों में असामियों के यहाँ से आया करता था। बस मायके जातीं तो लपड़-शपड़ जी भर के खा लेतीं। लखनऊ आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। अपने मियाँ से उन्हें यही तो एक शिकायत थी कि वक्त देखे न मौका, बस मौलवी ही बने रहते हैं। ससुराल में उनकी आत्मा सदा बेचैन रही। जब मरने लगीं तो बेटे ने पूछा कि लाश करबला जाएगी या नज़फ, तो बिगड़ गईं। बोलीं, “ए बेटा जउन तूँ से हमरी लाश ना सँभाली जाए त हमरे घर भेज दिहो।” हाँडियाँ – मिट्टी का वह छोटा गोलाकार बरतन लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी किसी इस्लामी आचार्य की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थी। दूध-घी खाती हुई बड़ी हुई थी परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गई थी जो घी से भरी हुई काली मिट्टी के छोटे गोलाकार बरतन में असम के व्यापारी लाया करते थे। जब भी वह अपने मायके जाती तो लपड़-शपड़ अर्थात जितना उसका मन होता, जी भर के खा लेती। क्योंकि लखनऊ वापिस आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। अपने पति से उन्हें यही एक शिकायत थी कि वे हर वक्त जब भी देखो बस मौलवी ही बने रहते थे। इफ़्फ़न की दादी की आत्मा ससुराल में सदा बेचैन रही अर्थात वे ससुराल में बहुत खुश नहीं थी। जब मरने वाली थी तो उनके बेटे ने उनसे पूछा कि वे क्या चाहती है कि उनकी लाश करबला जानी चाहिए या नज़फ, तो वह बिगड़ गई और गुस्से में बोली कि बेटा अगर उससे उनकी लाश नहीं सँभाली जाती तो वह उनकी लाश को उनके घर भेज दें। मौत सिर पर थी इसलिए उन्हें यह याद नहीं रह गया कि अब घर कहाँ है। घरवाले कराची में हैं और घर कस्टोडियन का हो चुका है। मरते वक्त किसी को ऐसी छोटी-छोटी बातें भला कैसे याद रह सकती हैं। उस वक्त तो मनुष्य अपने सबसे ज्यादा खूबसूरत सपने देखता है (यह कथाकार का खयाल है, क्योंकि वह अब तक मरा नहीं है!) इफ़्फ़न की दादी को भी अपना घर याद आया। उस घर का नाम कच्ची हवेली था। कच्ची इसलिए कि वह मिट्टी से बनी थी। उन्हें दसहरी आम का वह बीजू पेड़ याद आया जो उन्होंने अपने हाथ से लगाया था और जो उन्हीं की तरह बूढ़ा हो चुका था। ऐसी ही छोटी-छोटी और मीठी-मीठी बेशुमार चीज़ें याद आई। वह इन चीज़ों को छोड़कर भला करबला या नज़फ कैसे जा सकती थीं! वह बनारस के ‘फातमैन’ में दफ़न की गईं क्योंकि मुरतुज़ा हुसैन की पोस्टिंग उन दिनों वहीं थी। इफ़्फ़न स्कूल गया हुआ था। नौकर ने आकर खबर दी कि बीबी का देहांत हो गया। इफ़्फ़न की दादी बीबी कही जाती थीं।
कस्टोडियन – जिस सम्पति पर किसी का मालिकाना हक़ न हो उसका सरक्षण करने वाला विभाग लेखक कहता है की इफ़्फ़न की दादी मौत के नजदीक थी इसलिए शायद उन्हें यह याद नहीं रहा कि अब उनका घर कहाँ है। उनके सभी मायके वाले अब कराची में हैं और उनके मायके के घर का सरक्षण हो चुका है। लेखक का मानना है कि मरते वक्त किसी को ऐसी छोटी-छोटी बातें भला कैसे याद रह सकती हैं क्योंकि उस वक्त तो मनुष्य अपने सबसे ज्यादा खूबसूरत सपने देखता है, ऐसा लेखक इसलिए सोचता है क्योंकि वह अब तक मरा नहीं है। इफ़्फ़न की दादी को भी अपना घर याद आया। उस घर का नाम कच्ची हवेली था। कच्ची इसलिए कि वह मिट्टी से बनी थी। उन्हें दसहरी आम का वह बीजू पेड़ जो उन्होंने खुद आम की गुठली की मदद से उगाया था, याद आया। वह उन्होंने अपने हाथ से लगाया था और वह पेड़ भी उन्हीं की तरह बूढ़ा हो चुका था। ऐसी ही छोटी-छोटी और मीठी-मीठी बहुत सारी चीज़ें उन्हें याद आई। वह इन चीज़ों को छोड़कर भला करबला या नज़फ कैसे जा सकती थी। वह बनारस के ‘फातमैन’ में दफ़न की गई क्योंकि मुरतुज़ा हुसैन यानी इफ़्फ़न के पिता की पोस्टिंग उन दिनों वहीं थी। जब इफ़्फ़न की दादी का देहांत हुआ उस समय इफ़्फ़न स्कूल गया हुआ था। नौकर ने स्कूल आकर खबर दी कि बीबी का देहांत हो गया। इफ़्फ़न की दादी को सभी बीबी कह कर पुकारते थे। उस समय इफ़्फ़न चौथी कक्षा में पढ़ता था और टोपी से उसकी मुलाकात हो चुकी थी। इफ़्फ़न को अपनी दादी से बड़ा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अपनी अम्मी, अपनी बाज़ी और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह ज़रा ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार डाँट मार दिया करती थीं। बाज़ी का भी यही हल था। अब्बू भी कभी-कभार घर को कचहरी समझकर फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब मौका मिलता उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थीं। बस एक दादी थी जिन्होंने कभी उसका दिल नहीं दुखाया। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थीं। बाज़ी
– बड़ी बहन लेखक कहता है कि इफ़्फ़न को अपनी दादी से बहुत ज्यादा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अम्मी, बड़ी बहन और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह सबसे ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार इफ़्फ़न को डाँट देती थी और कभी-कभी तो मार भी दिया करती थी। बड़ी बहन भी अम्मी की ही तरह कभी-कभी डाँटती और मारती थी। अब्बू भी कभी-कभार घर को न्यायालय समझकर अपना फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब भी मौका मिलता वह उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थी। बस एक दादी ही थी जिन्होंने कभी भी किसी बात पर उसका दिल नहीं दुखाया था। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थी। “सोता है संसार जागता है पाक परवरदिगार। आँखों से देखी नहीं कहती। कानों की सुनी कहती हूँ कि एक मुलुक में एक बादशाह रहा…..”
पाक – पवित्र लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी पूरब की भाषा में इफ़्फ़न को कहानी सुनाते हुए कहती थी कि जब सारा संसार सोता है तब परमेश्वर जागता है। दादी इफ़्फ़न से कहती, कि वह आँखों से देखी घटना नहीं सुनाती। वह कानों की सुनी हुई घटना को सुनाती है कि “एक देश में एक बादशाह रहता था…..” इफ़्फ़न की दादी की बोली टोपी के दिल में उतर गई थी, उसे भी इफ़्फ़न की दादी की बोली बहुत अच्छी लगती थी। टोपी की माँ और इफ़्फ़न की दादी की बोली एक जैसी थी। टोपी को अपनी दादी बिलकुल भी पसंद नहीं थी। उसे तो अपनी दादी से नफ़रत थी। वह पता नहीं कैसी भाषा बोलती थी। टोपी को अपनी दादी की भाषा और इफ़्फ़न के अब्बू की भाषा एक जैसी लगती थी। वह जब इफ़्फ़न के घर जाता तो उसकी दादी ही के पास बैठने की कोशिश करता। इफ़्फ़न की अम्मी और बाजी से वह बातचीत करने की कभी कोशिश ही न करता। वे दोनों अलबत्ता उसकी बोली पर हँसने के लिए उसे छेड़तीं परन्तु जब बात बढ़ने लगती तो दादी बीच-बचाव करवा देतीं-
अलबत्ता – बल्कि लेखक कहता है कि टोपी जब भी इफ़्फ़न के घर जाता था तो उसकी दादी के ही पास बैठने की कोशिश करता था। इफ़्फ़न की अम्मी और बड़ी बहन से तो वह बातचीत करने की कभी कोशिश नहीं करता था। क्योंकि वे दोनों ही टोपी की बोली पर हँसने के लिए उसे छेड़तीं थी परन्तु जब बात बढ़ने लगती थी तो दादी बीच-बचाव करवा देतीं थी और टोपी को डाँटते हुए कहती थी कि वो क्यों उन सब के पास जाता है उनके पास कोई काम नहीं होता उसे परेशान करने के आलावा। ये कह कर दादी टोपी को अपने पास बुला लेती । टोपी को इफ़्फ़न की दादी की डाँट का हर एक शब्द शक़्कर की तरह मीठा लगता था। पके आम के रस को सूखाकर बनाई गई मोटी परत की तरह मज़ेदार लगता। तिल के बने व्यंजनों की तरह अच्छा लगता और वह दादी की डाँट सुन कर चुपचाप उनके पास चला आता। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी टोपी से हमेशा एक ही सवाल पूछ कर बात आगे बढ़ाती थी कि उसकी अम्मा क्या कर रही है। पहले-पहले तो टोपी को समझ में नहीं आया कि ये अम्मा क्या होता है परन्तु बाद में उसे समझ में आ गया कि माता जी को ही अम्मा कहा जाता है। यह शब्द उसे अच्छा लगा। अम्माँ। वह इस शब्द को गुड़ की डाली की तरह चुभलाता रहा।
अम्माँ। अब्बू। बाजी। चुभलाना – मुँह में कोई खाद्य
पदार्थ रखकर उसे जीभ से बार-बार हिलाकर इधर-उधर करना लेखक कहता है कि जब टोपी ने अम्मा शब्द सुना तो उसे यह शब्द बहुत अच्छा लगा। जिस तरह गुड़ की डाली को मुँह में रख कर उसे जीभ से बार-बार हिलाकर इधर-उधर करके उसके स्वाद का आनंद लिया जाता है उसी तरह वह इस शब्द को भी बार-बार बोलता रहा। “अम्माँ”।
“अब्बू”। “बाजी”। उसे ये शब्द बहुत पसंद आए। डॉक्टर भृगु नारायण शुक्ला नीले तेल वाले (टोपी के पिता) के घर में भी बीसवीं सदी प्रवेश कर चुकी थी। कहने का अर्थ है कि अब टोपी के घर में भी खाना मेज़-कुरसी पर खाया जाता था। लगती तो थालियाँ ही थीं परन्तु जैसे पहले जमीन पर पालथी मार कर खाना खाया जाता था, उसकी जगह पर मेज़-कुरसी का प्रयोग किया जाने लगा था। उस दिन ऐसा हुआ कि टोपी को बैंगन का भुरता ज़रा ज्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी (टोपी की माँ) खाना परोस रही थी। टोपी ने कह दिया कि अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता। अम्मी! यह शब्द सुनते ही मेज़ पर बैठे सभी लोग चौंक गए, उनके हाथ खाना खाते-खाते रुक गए। वे सभी लोग टोपी के चेहरे की ओर देखने लगे। अम्मी! यह शब्द इस घर में कैसे आया। अम्मी! परम्पराओं की दीवार डोलने लगी। डोलने – हिलने लेखक कहता है कि सभी यह सोच रहे थे कि यह “अम्मी” शब्द इस घर में कैसे आया। ऐसा लग रहा था जैसे रीति-रिवाजों की दीवार हिलने लगी
हो। सुभद्रादेवी (टोपी की दादी) ने टोपी से सवाल किया कि ये लफ़्ज़ उसने कहाँ से सीखा? लफ़्ज़ सुनते ही टोपी ने अपनी आँखें घुमाई और अपनी माँ से लफ़्ज़ का अर्थ पूछने लगा। दादी फिर से गुस्से से पूछने लगी कि ये अम्मी कहना उसको किसने सिखाया है? इस पर टोपी ने उत्तर दिया कि यह उसने इफ़्फ़न से सीखा है। इफ़्फ़न सुनते ही दादी ने उसका पूरा नाम जानना चाहा परन्तु टोपी ने कहा कि उसे नहीं पता कि इफ़्फ़न का पूरा नाम क्या है? इतने में टोपी की माँ रामदुलारी बोल पड़ी कि “तैं कउनो मियाँ के लइका से दोस्ती कर लिहले बाय
का रे?” अर्थात कहीं किसी मियाँ यानि मुस्लिम के लड़के से तो दोस्ती नहीं कर ली है। रामदुलारी की इस बोली पर सुभद्रादेवी बरस पड़ीं और कहने लगी की उसने कितनी बार रामदुलारी से कहा है कि इस तरह उसके सामने गँवारों की यह ज़बान न बोला करे। लेखक कहता है कि अब ऐसा लग रहा था कि लड़ाई का विषय ही बदल गया हो। “तैं फिर जय्यबे ओकरा घरे?” परमिट – अनुमति जो सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर लिखित रूप में दी जाती है कुटाई – पिटाई लड़ाई का दूसरा दिन था इसलिए जब टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण नीले तेल वाले को यह पता चला कि टोपी ने कलेक्टर साहब के लड़के से पक्की दोस्ती कर ली है (कहने का अर्थ है कि इफ़्फ़न के पिता कलेक्टर थे) तो वह अपना गुस्सा पी गए और तीसरे ही दिन टोपी की दोस्ती का फायदा उठा कर उन्होंने इफ़्फ़न के पिता से कपड़े और शक्कर के परमिट (अनुमति जो सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर लिखित रूप में दी जाती है) ले लिए । ये बात तो दूसरे-तीसरे दिन की है परन्तु जिस दिन सभी को पता चला था कि टोपी ने एक मुस्लिम लड़के से दोस्ती कर रखी है, तो उस दिन टोपी की बड़ी बुरी दशा हुई थी। टोपी की दादी सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गई थी और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा था और एक ही बात बार-बार पूछ रही थी कि क्या अब वह इफ़्फ़न के घर जाएगा? इसके उत्तर में हर बार टोपी “हाँ” ही कहता था। रामदुलारी उसके हर बार “हाँ” कहने पर कहती थी कि वह उसकी हाँ को मिट्टी में मिला देगी। टोपी की माँ टोपी को मारते-मारते थक गई परन्तु टोपी ने यह नहीं कहा कि वह इफ़्फ़न के घर नहीं जाएगा। मुन्नी बाबू और भैरव जो टोपी के भाई थे, वे टोपी की पिटाई का तमाशा देखते रहे। “हम एक दिन एको रहीम कबाबची की दुकान पर कबाबो खाते देखा रहा।” मुन्नी बाबू ने टुकड़ा लगाया। घिन्न – नफ़रत लेखक कहता है कि जब टोपी की पिटाई हो रही थी, उसी समय मुन्नी बाबू एक और बात जोड़ कर बोले कि एक दिन टोपी को उन्होंने रहीम कबाबची की दुकान पर कबाब खाते देखा था। कबाब का नाम सुनते ही टोपी की माँ रामदुलारी नफ़रत के साथ दो कदम पीछे हट गई और “राम, राम, राम” कहने लगी। टोपी मुन्नी की तरफ़ देखने लगा क्योंकि सच्ची बात यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब खाते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी ताकि टोपी घर पर उनकी शिकायत न कर दे। टोपी को यह मालूम था परन्तु वह शिकायत करने वाला नहीं था। उसने अब तक मुन्नी बाबू की कोई बात इफ़्फ़न के सिवा किसी और को नहीं बताई थी। टोपी मुन्नी बाबू की ओर देख कर बोला क्या उसने टोपी को कबाब खाते देखा था? तो मुन्नी ने फिर से कहा क्यों उस दिन नहीं देखा था क्या? इस पर टोपी की दादी सुभद्रादेवी ने मुन्नी बाबू से सवाल किया कि उसने उसी दिन क्यों नहीं बताया? टोपी बस बोलता रह गया कि मुन्नी झूठ बोल रहा है। टोपी बहुत उदास रहा। वह अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि झूठ और सच के किस्से में पड़ता-और सच्ची बात तो यह है कि वह इतना बड़ा कभी नहीं हो सका। उस दिन तो वह इतना पिट गया था कि उसका सारा बदन दुख रहा था। वह बस लगातार एक ही बात सोचता रहा कि अगर एक
दिन के वास्ते वह मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाता तो समझ लेता उनसे। परन्तु मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाना उसके बस में तो था नहीं। वह मुन्नी बाबू से छोटा पैदा हुआ था और उनसे छोटा ही रहा। बदन – शरीर लेखक कहता है कि जिस दिन टोपी की पिटाई हुई थी, उस दिन टोपी बहुत उदास रहा। टोपी अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि वह झूठ और सच को साबित करने की कोशिश करता और सच्ची बात तो यह है कि वह इतना बड़ा कभी हो भी नहीं सका। उस दिन तो टोपी की इतनी पिटाई हो गई थी कि उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। वह बस लगातार एक ही बात सोचता रहा कि अगर एक दिन के लिए वह अपने बड़े भाई मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाता तो वह जरूर उन्हें सबक सिखाता। परन्तु मुन्नी बाबू से बड़ा होना उसके लिये बिलकुल नामुमकिन था। वह मुन्नी बाबू से छोटा पैदा हुआ था और हमेशा उनसे छोटा ही रहने वाला था।
“अय्यसा ना हो सकता का की हम लोग दादी बदल लें,” टोपी ने कहा।
“तोहरी दादी हमरे घर आ जाएँ अउर हमरी तोहरे घर चली जाएँ। हमरी दादी त बोलियो तूँहीं लोगन को बो-ल-थीं।” अय्यसा – ऐसा टोपी बहुत ही भोलेपन से इफ़्फ़न से कहता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वे लोग दादी बदल ले? उसकी दादी इफ़्फ़न के घर और इफ़्फ़न की दादी उसके घर आ जाए। टोपी कहता है कि उसकी दादी की बोली तो इफ़्फ़न के परिवार की बोली की तरह ही है। टोपी की इस बात का जवाब देते हुए इफ़्फ़न कहता है कि टोपी की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती। उसके अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। और अगर उसकी दादी टोपी के घर चली जायगी तो उसे कहानी कौन सुनाएगा? इफ़्फ़न टोपी से पूछता है कि क्या उसकी दादी को बारह बुर्ज की कहानी आती है? टोपी इफ़्फ़न के इस तरह के जवाब को सुनकर अंदर से टूट गया और इफ़्फ़न से कहने लगा कि क्या वह उसे एक दादी भी नहीं दे सकता है। फिर इफ़्फ़न टोपी को समझाते हुए कहता है कि जो उसकी दादी हैं वह उसके अब्बू की अम्माँ भी तो हैं। यह बात टोपी को समझ आ गई। फिर इफ़्फ़न टोपी से पूछता है कि टोपी की दादी भी तो उसकी दादी की तरह बूढ़ी होंगी। टोपी हामी भरता है। इफ़्फ़न टोपी को कहता है कि वह चिंता न करे क्योंकि उसकी दादी कहती हैं कि बूढ़े लोग मर जाते हैं। टोपी कहता है कि उसकी दादी नहीं मारेगी। इस पर इफ़्फ़न कहता है कि कैसे नहीं मारेगी? क्या उसकी दादी झूठ बोलती है?
इफ़्फ़न चला गया। टोपी अकेला रह गया। वह मुँह लटकाए हुए जिम्नेज़ियम में चला गया। बूढ़ा चपड़ासी एक तरफ बैठा बीड़ी पी रहा था। वह एक कोने में बैठकर रोने लगा। शाम को वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ सन्नाटा था। घर भरा हुआ था। रोज़ जितने लोग हुआ करते थे उससे ज्यादा ही लोग थे। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए घर खली हो चूका था। जबकि उसे दादी का नाम तक नहीं मालूम था। उसने दादी के हज़ार कहने के बाद भी उनके हाथ की कोई चीज़ नहीं खाई थी।
प्रेम इन बातों का पाबन्द नहीं होता। टोपी और दादी में एक ऐसा ही सम्बन्ध हो चूका था। इफ़्फ़न के दादा जीवित होते तो वह इस सम्बन्ध को बिलकुल उसी तरह न समझ पाते जैसे टोपी के घरवाले न समझ पाए थे। दोनों अलग-अलग अधूरे थे। एक ने दूसरे को पूरा कर दिया था। दोनों प्यासे थे। एक ने दूसरे की प्यास बुझा दी थी। दोनों अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन मिटा दिया था। एक बहत्तर बरस की थी और दूसरा आठ साल का। सन्नाटा – शांति लेखक कहता है कि जब नौकर ने आकर बताया कि इफ़्फ़न की दादी का देहांत हो गया है तो इफ़्फ़न स्कूल से घर चला गया। टोपी स्कूल में अकेला रह गया। वह मुँह लटकाए हुए जिम्नेज़ियम में चला गया। वहाँ बूढ़ा चपड़ासी एक तरफ बैठा बीड़ी पी रहा था। टोपी वहाँ एक कोने में बैठकर रोने लगा। शाम को जब वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ शांति थी। ऐसा नहीं है की घर में कोई नहीं था, घर लोगों से भरा हुआ था। जितने लोग रोज़ हुआ करते थे उससे ज्यादा ही लोग थे। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए पूरा घर खाली हो चूका था। जबकि टोपी को दादी का नाम भी मालूम नहीं था परन्तु उसका इफ़्फ़न की दादी से बहुत गहरा सम्बन्ध बन गया था। उसने दादी के हज़ार कहने के बाद भी उनके हाथ की कोई चीज़ नहीं खाई थी। प्रेम इन बातों को नहीं मानता। टोपी और दादी में एक ऐसा सम्बन्ध हो चूका था जिसे शायद अगर इफ़्फ़न के दादा जीवित होते तो वह भी बिलकुल उसी तरह न समझ पाते जैसे टोपी के घरवाले नहीं समझ पाए थे। दोनों अलग-अलग अधूरे थे। एक ने दूसरे को पूरा कर दिया था। दोनों ही प्यार के प्यासे थे और एक ने दूसरे की इस प्यास को बुझा दिया था। दोनों अपने-अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे क्योंकि दोनों को ही उनके घर में कोई समझने वाला नहीं था। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन दूर कर दिया था। एक बहत्तर बरस की थी और दूसरा आठ साल का। टोपी इफ़्फ़न को सहानुभूति देता हुआ कहता है कि इफ़्फ़न की दादी की जगह उसकी दादी मर गई होती तो ठीक हुआ होता। इफ़्फ़न ने टोपी की इस बात का कोई जवाब नहीं दिया, असल में इफ़्फ़न को टोपी की इस बात का जवाब आता ही नहीं था। फिर दोनों दोस्त चुपचाप रोने लगे। टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी ऐसे लड़के से दोस्ती नहीं करेगा जिसका बाप ऐसी नौकरी करता हो जिसमें बदली होती रहती है। आत्म-इतिहास – जीवन के इतिहास लेखक कहता है कि टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी भी ऐसे लड़के से कभी भी दोस्ती नहीं करेगा जिसके पिता कोई ऐसी नौकरी करते हो जिसमें बदली होती रहती हो। दस अक्तूबर सन पैंतालीस का ऐसे तो कोई महत्त्व नहीं है परन्तु टोपी के जीवन के इतिहास में इस तारीख का बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि इस तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। इफ़्फ़न की दादी के मरने के थोड़े दिनों बाद ही इफ़्फ़न के पिता की बदली हुई थी। टोपी दादी के मरने के बाद तो अकेला महसूस कर ही रहा था और अब इफ़्फ़न के चले जाने पर वह और भी अकेला हो गया था क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त नहीं बन सका था। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परन्तु केवल अंग्रेजी बोलता था। और उन तीनो को इसका एहसास था कि वे कलेक्टर के बेटे हैं इसलिए अकड़ कर रहते थे और किसी को अपने से ऊपर नहीं समझते थे। यही कारण था कि उनमें से किसी ने भी टोपी को मुँह नहीं लगाया अर्थात किसी ने भी टोपी के साथ दोस्ती नहीं की। माली और चपरासी टोपी को पहचानते थे। इसलिए वह बंगले में चला गया। बीलू, गुड्डू और डब्बू उस समय क्रिकेट खेल रहे थे। डब्बू ने हिट किया। गेंद सीधे टोपी मुँह पर आई। उसने घबराकर हाथ उठाया। गेंद उसके हाथों में आ गई। हेड माली अंपायर था। उसने उँगली उठा दी। वह बेचारा यह समझ सका कि जब ‘हाउज़ दैट’ का शोर हो तो उसे उँगली उठा देनी चाहिए “हू आर यू?” डब्बू ने सवाल किया। मसहूर – प्रसिद्ध लेखक कहता है कि माली और चपरासी टोपी को पहचानते थे। इसलिए टोपी इफ़्फ़न के जाने के बाद बंगले में गया। बीलू, गुड्डू और डब्बू उस समय क्रिकेट खेल रहे थे। डब्बू ने गेंद को बोन्ड्री की ओर मारा। गेंद सीधे टोपी के मुँह पर आई। उसने घबराकर जैसे ही हाथ उठाया, गेंद उसके हाथों में आ गई। जैसे ही गेंद टोपी के हाथों में आई, वैसे ही गेंद करने वाला गुड्डू चिल्लाया “हाउज़ दैट”। हेड माली अंपायर था। उसने उँगली उठा दी। उस बेचारे को अब तक सिर्फ यह समझ आ सका था कि जब ‘हाउज़ दैट’ का शोर हो तो उसे उँगली उठा देनी चाहिए। टोपी को देख कर डब्बू ने सवाल किया कि तुम कौन हो? डब्बू के इस सवाल के जवाब में टोपी ने अपना पूरा नाम बताया की वह बलभद्र नरायण है। फिर गुड्डू ने सवाल किया कि उसके पिता का क्या नाम है? टोपी ने बताया कि उसके पिता का नाम भृगु नरायण है। बीलू ने अंपायर बने हेड चपरासी को आवाज़ दी और उससे पूछा कि ये भृगु नरायण कौन है? क्या वो उनके चपरासियों में से एक है? अंपायर बने हेड चपरासी ने बीलू के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि भृगु नरायण उनका कोई चपरासी नहीं है, वह तो शहर का प्रसिद्ध दागदर है। डब्बू माली के दागदर शब्द को सही करता हुआ पूछता है कि क्या वह डॉक्टर कहना चाहता है। हेड माली हामी भरता है। उसे उनके साथ रहते हुए इतनी अंग्रेजी तो आ ही गई थी। बीलू टोपी को देख कर बोलता है कि वह भद्दा दिख रहा है। टोपी यह सुन कर घमंड के साथ बोलता है कि वह अपनी जुबान संभाल कर बात करे। अगर उसने उन्हें एक थप्पड़ मार दिया तो वे नाचने लगेंगे। इतना सुनते ही बीलू ने टोपी पर हाथ चला दिया और टोपी गिर गया। फिर टोपी उसे गालियाँ बकता हुआ उठा। परन्तु हेड माली उनकी लड़ाई को ख़त्म करने के लिए बीच में आया। इतने में डब्बू ने अपने अलसेशियन कुत्ते को आवाज दे कर टोपी के पीछे छोड़ दिया। पेट में सात सुइयाँ भुकीं तो टोपी के होश ठिकाने आए। और फिर उसने कलेक्टर साहब के बँगले की
और रुख नहीं किया। परन्तु अब प्रश्न यह खड़ा हो गया कि फिर आखिर वह करे क्या? घर में ले-देकार बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह उसी के पल्लू में चला गया और सीता की छाया में जाने के बाद उसकी आत्मा भी छोटी हो गई। सीता को घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। टोपी को भी घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। इसलिए दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे। भुकीं – चुभी लेखक कहता है कि जब डब्बू ने अपने अलसेशियन कुत्ते को आवाज दे कर टोपी के पीछे छोड़ दिया तो कुत्ते ने टोपी को काट लिया। फिर जब टोपी के पेट में सात सुइयाँ चुभाई गई तो टोपी के होश ठिकाने आए। और फिर उसने कलेक्टर साहब के बँगले की ओर चेहरा नहीं किया। परन्तु अब प्रश्न यह खड़ा हो गया कि फिर आखिर वह करे क्या? क्योंकि अब न तो इफ़्फ़न था और न ही इफ़्फ़न की दादी जो उसे समझ सके। घर में ले-देकार एक बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह अब सीता के साथ ही समय गुजारने लगा और सीता की छाया में जाने के बाद उसकी आत्मा भी छोटी हो गई। क्योंकि सीता को घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे और टोपी को भी घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। तो दोनों की स्थिति एक सी थी इसलिए दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे। एक रात जब मुन्नी बाबू और भैरव की बराबरी करने के कारण टोपी बहुत पीटा तो सीता ने उसे अपनी कोठरी में ले जा कर समझाना शुरू किया कि वह इस तरह किसी की बराबरी करने की कोशिश न किया करे। बात यह हुई कि जाड़ों के दिन थे। मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया। भैरव के लिए भी नया कोट बना। टोपी को मुन्नी बाबू का कोट मिला। कोट बिलकुल नया था। मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। फिर भी बना तो था उन्ही के लिए। था तो उतरन। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी जाने वाली चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी जाड़ा खाए। “हम जाड़ा-ओड़ा ना खाएँगे। भात खाएँगे।” टोपी ने कहा। जाड़ा – ठण्ड लेखक कहता है कि सीता टोपी को इसलिए समझा रही थी क्योंकि बात यह हुई कि ठण्ड के दिन थे और मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया और भैरव के लिए भी नया कोट बना लेकिन टोपी को मुन्नी बाबू का पुराना कोट मिला। वैसे कोट बिलकुल नया ही था क्योंकि जब वह बनाया गया तब वह मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। फिर भी बना तो उन्हीं के लिए था। भले ही वह उसे ना पहनते हो। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी गई कोई भी चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी ठण्ड ही खाएगा। टोपी छोटा था इसलिए ठण्ड खाने का अर्थ समझा नहीं और भोलेपन से बोला कि वह कोई ठण्ड नहीं खाएगा। वह तो भात खाएगा। इस पर टोपी की दादी सुभद्रादेवी बोली कि वह तो जूते खाएगा। टोपी उनकी इस बात पर झट से बोल पड़ा कि क्या उन्हें इतना भी नहीं पता कि जूता खाया नहीं जाता बल्कि पहना जाता है। टोपी के इस तरह बोलने पर मुन्नी बाबू गुस्से से टोपी को डाँटते हुए बोले कि वह दादी का अपमान क्यों कर रहा है? इस पर भी टोपी उल्टा जवाब देता हुआ बोला कि तो क्या वह उनकी पूजा करे? यह सुनते ही दादी ने बहुत अधिक शोर मचाना शुरू कर दिया और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को पीटना शुरू कर दिया। “तूँ दसवाँ में पहुँच गइल बाड़।” सीता ने कहा, “तूँ हें दादी से टर्राव के त ना न चाही। कीनों ऊ तोहार दादी बाड़िन।” तीसरे साल वह थर्ड डिवीज़न में पास
हो गया। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया। पापड़ बेलना – बहुत मेहनत करना जब टोपी को उसकी माँ ने दादी को उल्टा जवाब देने के लिए पीटा तो उनकी बूढ़ी नौकरानी सीता टोपी को समझाने लगी कि अब वह दसवीं कक्षा में पहुँच गया है। उसे दादी से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए आखिरकार वह उसकी दादी है। सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि टोपी दसवीं कक्षा में पहुँच गया है परन्तु टोपी के लिए दसवीं कक्षा में पहुँचना इतना भी आसान नहीं था। दसवीं कक्षा में पहुँचने के लिए टोपी को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी थी। दो साल तो टोपी फेल ही हुआ था। नवीं कक्षा में तो टोपी सन उनचास ही में पहुँच गया था, परन्तु दसवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते साल बावन हो चूका था। जब टोपी पहली बार फेल हुआ तो उसका बड़ा भाई मुन्नी बाबू माध्यमिक (10th) कक्षा में प्रथम आया और उसका छोटा भाई भैरव छठी कक्षा में प्रथम आया। सभी घरवाले हर समय टोपी की ही बात करने लगे। उस समय टोपी बहुत रोया था। ऐसी बात नहीं थी कि वह मुर्ख या मन्दबुद्धि था। वह पढ़ाई में बहुत तेज़ था परन्तु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। जब भी टोपी पढ़ाई करने बैठता था तो कभी उसके बड़े भाई मुन्नी बाबू को कोई काम याद आ जाता था या उसकी माँ को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी, अगर ये सारी चीज़े न होती तो कभी उसका छोटा भाई भैरव उसकी कापियों के पन्नों को फाड़ कर उनके हवाई जहाज़ बना कर उड़ाने लग जाता। यह तो थी पहले साल की बात। दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया था। जिसके कारण वह पढ़ाई नहीं कर पाया और दूसरी साल भी फेल हो गया। तीसरे साल वह पास तो हो गया परन्तु थर्ड डिवीज़न में। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया। परन्तु लेखक कहता है कि सभी को उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह किस वजह से दो साल में फेल हुआ और तीसरी साल में थर्ड डिवीज़न से पास हुआ। सन उनचास में वह अपने साथियों के साथ था। वह फेल हो गया। साथी आगे निकल गए। वह रह गया। सन पचास में उसे उसी दर्जे में उन लड़कों के साथ बैठना पड़ा जो
पिछले साल आठवें में थे। “क्या मतलब है साम अवतार (या मुहम्मद अली?) बलभद्र की तरह इसी दर्जे में टिके रहना चाहते हो क्या?” दर्जे – कक्षा मिसाल – उदाहरण लेखक कहता है कि सन उनचास में टोपी अपने साथियों के साथ था। जब वह फेल हो गया तो उसके सभी साथी आगे निकल गए और वह नवीं कक्षा में ही रह गया। सन पचास में उसे उसी कक्षा में उन लड़कों के साथ बैठना पड़ा जो पिछले साल आठवीं कक्षा में थे। पिछली कक्षा वालों के साथ एक ही कक्षा में बैठना कोई आसान काम नहीं होता। टोपी के सभी दोस्त दसवीं कक्षा में थे। इसलिए वह उन्हीं से मिलता और उन्हीं के साथ खेलता था। अपने साथ नवीं कक्षा में पढ़ने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती नहीं हो सकी थी। वह जब भी कक्षा में बैठता, उसे अपना उस कक्षा में बैठना अजीब लगता था। उस पर ज़ुल्म यह हुआ कि कक्षा के कमज़ोर लड़कों को जब मास्टर जी समझाते तो उस का उदाहरण देते हुए कहते कि साम अवतार (या मुहम्मद अली), बलभद्र की तरह इसी कक्षा में टिके रहना चाहते हो क्या? यह सुन कर सारी कक्षा हँसने लगती। हँसने वाले वे विद्यार्थी होते थे जो पिछले साल आठवीं कक्षा में थे। टोपी ने किसी न किसी तरह इस साल को झेल लिया। परन्तु जब सन इक्यावन में भी उसे नवीं कक्षा में ही बैठना पड़ा तो उसे बहुत अधिक शर्म महसूस होने लगी, क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। जो विद्यार्थी सन उनचास में आठवीं कक्षा में थे वे अब दसवीं कक्षा में थे। जो सन उनचास में सातवीं कक्षा में थे वे टोपी के साथ पहुँच गए थे। उन सभी के बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देने लगा था। वह अपने भरे-पूरे घर की ही तरह अपने स्कूल में भी अकेला हो गया था। मास्टरों ने उसका नोटिस लेना बिलकुल ही छोड़ दिया था कोई सवाल किया जाता और जवाब देने के लिए वह भी हाथ उठता तो कोई मास्टर उससे जवाब न पूछता। परन्तु जब उसका हाथ उठता ही रहा तो एक दिन अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब ने कहा –
बरस – साल लेखक कहता है कि जिस तरह टोपी अपने भरे-पूरे घर में भी अकेलापन महसूस करता था, उसी तरह अपने स्कूल में भी अकेला हो गया था। मास्टरों ने उसकी ओर ध्यान देना बिलकुल ही छोड़ दिया था, कोई सवाल किया जाता और जवाब देने के लिए जब टोपी भी हाथ उठाता, तो कोई मास्टर उससे जवाब नहीं पूछता था। परन्तु जब टोपी ने हार नहीं मानी और अपना हाथ उठाता ही रहा, तो एक दिन अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब ने कहा कि टोपी तो तीन साल से यही किताब पढ़ रहा है, उसे तो सारे जवाब ज़ुबानी याद हो गए होंगे, उसके साथ बैठे इन लड़कों को अगले साल हाई स्कूल की परीक्षा देनी है। उन्हें इस साल इन लड़कों से प्रश्न पूछने दो, टोपी से तो वे आने वाले साल में भी पूछ सकते हैं। अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब की इस बात को सुन कर टोपी इतना शर्माया कि उसका काला रंग भी लाल हो गया। और जब सभी बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े तो टोपी मानो बिलकुल मर ही गया हो। जब वह पहली बार नवीं कक्षा में आया था, तो वह भी इन्हीं बच्चों की तरह बिलकुल बच्चा ही था। और अब दो साल इसी कक्षा में होने के कारण वह बिलकुल बूढ़ा लगता था। फिर उसी दिन अबदुल वहीद ने रिसेज़ में वह तीर मारा कि टोपी बिलकुल बिलबिला उठा। रिसेज़ – लंच, स्कूल में दोपहर के भोजन का समय नजरे-बंद – जो किसी स्थान पर निगरानी के लिए रखा गया हो और जिसे निश्चित सीमा के बाहर जाने की आज्ञा न हो जब अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर ने टोपी को कक्षा में बेइज्जत किया था, उसी दिन अबदुल वहीद ने लंच में एक ऐसी बात कही कि टोपी बहुत अधिक गुस्से में आ गया। वहीद कक्षा का सबसे तेज़ लड़का था। कक्षा का मुखिया भी था। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वह लाल तेल वाले डॉक्टर शुरफ़ुद्दीन का बेटा था। अबदुल वहीद ने टोपी से कहा कि वह उन लोगों के साथ क्यों खेलता है। उसे तो आठवीं कक्षा वालों से दोस्ती करनी चाहिए क्योंकि वे लोग तो आगे दसवीं कक्षा में चले जाएँगे और टोपी को तो आठवीं वालों के साथ ही रहना है तो उनसे दोस्ती करना टोपी के लिए अच्छा होगा। यह बात टोपी को बहुत बुरी लगी और ऐसा लगा जैसे यह बात उसके दिल के आर-पार हो गई हो। और उसने उसी समय कसम खाई कि इस साल उसे टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, वह पास होकर ही दिखाएगा। परन्तु साल के बीच में ही चुनाव आ गए। टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण, नीले तेल वाले, चुनाव लड़ने के लिए खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो, उस घर में कोई पढ़-लिख कैसे सकता है? वह तो जब डॉक्टर साहब चुनाव हार गए तब घर में थोड़ी शांति हुई और टोपी ने देखा कि उसकी परीक्षा को ज्यादा समय नहीं रहा है। वह पढ़ाई में जुट गया। परन्तु जैसा वातावरण टोपी के घर में बना हुआ था ऐसे वातावरण में कोई कैसे पढ़ सकता था? इसलिए टोपी का पास हो जाना ही बहुत था। टोपी के दो साल एक ही कक्षा में रहने के बाद जब वह पास हुआ तो उसकी दादी बोली कि वाह! टोपी को भगवान नजरे-बंद से बचाए। बहुत अच्छी रफ़्तार पकड़ी है। तीसरे साल पास हुआ वो भी तीसरी श्रेणी में, चलो पास तो हो गया। राही मासूम रज़ा का जीवन परिचय राही मासूम रज़ा (१ सितंबर, १९२५-१५ मार्च १९९२)[1] का जन्म गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी। बचपन में पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से एमए करने के बाद उर्दू में `तिलिस्म-ए-होशरुबा' पर पीएच.डी. की। पीएच.डी. करने के बाद राही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे। अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे। टोपीशुक्ला टोपीशुक्लापाठसार प्रस्तुत पाठ में लेखक टोपी की कहानी पाठकों को सुनाना चाहते हैं। इसलिए लेखक कहता है कि वह इफ़्फ़न की कहानी पूरी नहीं सुनाएगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाएगा जितनी टोपी की कहानी के लिए उसे जरुरी लग रही है। इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बिना शायद टोपी की कहानी अधूरी है। ये दोनों लेखक की कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को सभी प्यार से टोपी कह कर पुकारते हैं और दूसरे को इफ़्फ़न। इफ़्फ़न की दादी पूरब की रहने वाली थी। नौ या दस साल की थी जब उनकी शादी हुई और वह लखनऊ आ गई, परन्तु जब तक ज़िंदा रही, वह पूरब की ही भाषा बोलती रही। लखनाऊ की उर्दू तो उनके लिए ससुराल की भाषा थी। उन्होंने तो मायके की भाषा को ही गले लगाए रखा था क्योंकि उनकी इस भाषा के सिवा उनके आसपास कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझ पाता। जब उनके बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल तड़पने लगा, परन्तु इस्लाम के आचार्यों के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था? बेचारी का दिल उदास हो गया। लेकिन इफ़्फ़न के जन्म के छठे दिन के स्नान/पूजन/उत्सव पर उन्होंने जी भरकर उत्सव मना लिया था। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी किसी इस्लामी आचार्य की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थी। दूध-घी खाती हुई बड़ी हुई थी परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गई थी। जब भी वह अपने मायके जाती तो जितना उसका मन होता, जी भर के खा लेती। क्योंकि लखनऊ वापिस आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। इफ़्फ़न को अपनी दादी से बहुत ज्यादा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अम्मी, बड़ी बहन और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह सबसे ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार इफ़्फ़न को डाँट देती थी और कभी-कभी तो मार भी दिया करती थी। बड़ी बहन भी अम्मी की ही तरह कभी-कभी डाँटती और मारती थी। अब्बू भी कभी-कभार घर को न्यायालय समझकर अपना फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब भी मौका मिलता वह उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थी। बस एक दादी ही थी जिन्होंने कभी भी किसी बात पर उसका दिल नहीं दुखाया था। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थी। इफ़्फ़न की दादी की बोली टोपी के दिल में उतर गई थी, उसे भी इफ़्फ़न की दादी की बोली बहुत अच्छी लगती थी। इफ़्फ़न की दादी टोपी को अपनी माँ की पार्टी की दिखाई दी कहने का अर्थ है टोपी की माँ और इफ़्फ़न की दादी की बोली एक जैसी थी। टोपी को अपनी दादी बिलकुल भी पसंद नहीं थी। उसे तो अपनी दादी से नफ़रत थी। वह पता नहीं कैसी भाषा बोलती थी। टोपी को अपनी दादी की भाषा और इफ़्फ़न के अब्बू की भाषा एक जैसी लगती थी। लेखक कहता है कि टोपी जब भी इफ़्फ़न के घर जाता था तो उसकी दादी के ही पास बैठने की कोशिश करता था। टोपी को इफ़्फ़न की दादी का हर एक शब्द शक़्कर की तरह मिठ्ठा लगता था। पके आम के रस को सूखाकर बनाई गई मोटी परत की तरह मज़ेदार लगता। तिल के बने व्यंजनों की तरह अच्छा लगता था। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी टोपी से हमेशा एक ही सवाल पूछ कर बात आगे बढ़ती थी कि उसकी अम्माँ क्या कर रही है। पहले-पहले तो टोपी को समझ में नहीं आया कि ये अम्माँ क्या होता है परन्तु बाद-बाद में उसे समझ में आ गया कि माता जी को ही अम्माँ कहा जाता है। जब टोपी ने अम्माँ शब्द सुना तो उसे यह शब्द बहुत अच्छा लगा। जिस तरह गुड़ की डाली को मुँह में रख कर उसके स्वाद का आनंद लिया जाता है उसी तरह वह इस शब्द को भी बार-बार बोलता रहा। “अम्माँ”। “अब्बू”। “बाजी”। उसे ये शब्द बहुत पसंद आए। एक दिन टोपी को बैंगन का भुरता ज़रा ज्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी (टोपी की माँ) खाना परोस रही थी। टोपी ने कह दिया कि अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता। अम्मी! यह शब्द सुनते ही मेज़ पर बैठे सभी लोग चौंक गए, उनके हाथ खाना खाते-खाते रुक गए। वे सभी लोग टोपी के चेहरे की ओर देखने लगे। टोपी की दादी सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गई थी और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा । एक ही बात बार-बार पूछ रही थी कि क्या अब वो इफ़्फ़न के घर जाएगा? इसके उत्तर में हर बार टोपी “हाँ” ही कहता था। मुन्नी बाबू और भैरव जो टोपी के भाई थे वे टोपी की पिटाई का तमाशा देखते रहे। लेखक कहता है कि जब टोपी की पिटाई हो रही थी, उसी समय मुन्नी बाबू एक और बात जोड़ कर बोले कि एक दिन, उन्होंने इसे रहीम कबाबची की दुकान पर कबाब खाते देखा था। सच्ची बात यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब खाते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी। ताकि टोपी घर पर उनकी शिकायत न कर दे। उस दिन तो टोपी की इतनी पिटाई हो गई थी कि उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। दूसरे दिन जब टोपी स्कूल गया और स्कूल में इफ़्फ़न से मिला तो उसने उसे पिछले दिन की सारी बातें बता दी। दोनों भूगोल शास्त्र की कक्षा को छोड़कर बाहर निकल गए। पंचम की दूकान से इफ़्फ़न ने केले ख़रीदे क्योंकि बात यह थी कि टोपी फल के अलावा बाहर की किसी भी चीज़ को हाथ नहीं लगाता था। टोपी बहुत ही भोलेपन से इफ़्फ़न से कहता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वे लोग दादी बदल ले? उसकी दादी इफ़्फ़न के घर और इफ़्फ़न की दादी उसके घर आ जाए। टोपी कहता है कि उसकी दादी की बोली तो इफ़्फ़न के परिवार की बोली की तरह ही है। टोपी की इस बात का जवाब देते हुए इफ़्फ़न कहता है कि टोपी की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती। उसके अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। क्योंकि उसकी दादी उसके अब्बू की अम्माँ भी तो हैं। जब टोपी और इफ़्फ़न बात कर रहे थे उसी समय इफ़्फ़न का नौकर आया और खबर दी कि इफ़्फ़न की दादी का देहांत हो गया है। शाम को जब वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ शांति थी। घर लोगों से भरा हुआ था। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए पूरा घर खली हो चूका था। जबकि टोपी को दादी का नाम भी मालूम नहीं था, परन्तु उसका इफ़्फ़न की दादी से बहुत गहरा सम्बन्ध बन गया था। दोनों अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे क्योंकि दोनों को ही उनके घर में कोई समझने वाला नहीं था। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन दूर कर दिया था। टोपी इफ़्फ़न को सहानुभूति देता हुआ कहता है कि इफ़्फ़न दादी की जगह उसकी दादी मर गई होती तो ठीक हुआ होता। लेखक कहता है कि टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी भी ऐसे लड़के से कभी भी दोस्ती नहीं करेगा जिसके पिता कोई ऐसी नौकरी करते हो जिसमें बदली होती रहती हो। दस अक्तूबर सन पैंतालीस का टोपी के जीवन के इतिहास में बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि इस तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। टोपी दादी के मरने के बाद तो अकेला महसूस कर ही रहा था और अब इफ़्फ़न के चले जाने पर वह और भी अकेला हो गया था क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त नहीं बन सका था। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परन्तु केवल अंग्रेजी बोलता था। अब न तो इफ़्फ़न था और न ही इफ़्फ़न की दादी जो उसे समझ सके। घर में ले-देकार एक बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह अब सीता के साथ ही समय गुजारने लगा। ठण्ड के दिन शुरू हो गए थे और मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया और भैरव के लिए भी नया कोट बना लेकिन टोपी को मुन्नी बाबू का पुराना कोट मिला। वैसे कोट बिलकुल नया ही था क्योंकि जब वह बनाया गया तब वह मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी गई कोई भी चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी ठण्ड ही खाएगा। इस पर दादी और टोपी के बीच बहस हो गई और दादी ने पूरा घर अपने सिर पर उठा लिया। जब टोपी को उसकी माँ ने दादी को उल्टा जवाब देने के लिए पीटा तो उनकी बूढ़ी नौकरानी सीता टोपी को समझाने लगी कि अब वह दसवीं कक्षा में पहुँच गया है। उसे दादी से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए । सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि टोपी दसवीं कक्षा में पहुँच गया है परन्तु टोपी के लिए दसवीं कक्षा में पहुँचना इतना भी आसान नहीं था। दसवीं कक्षा में पहुँचने के लिए टोपी को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी थी। दो साल तो टोपी फेल ही हुआ था। वह पढ़ाई में बहुत तेज़ था परन्तु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। जब भी टोपी पढ़ाई करने बैठता था तो कभी उसके बड़े भाई मुन्नी बाबू को कोई काम याद आ जाता था या उसकी माँ को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी, अगर ये सारी चीज़े न होती तो कभी उसका छोटा भाई भैरव उसकी कापियों के पन्नों को फाड़ कर उनके हवाई जहाज़ बना कर उड़ाने लग जाता। यह तो थी पहले साल की बात। दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया था। जिसके कारण वह पढ़ाई नहीं कर पाया और दूसरी साल भी फेल हो गया। तीसरे साल वह पास तो हो गया परन्तु थर्ड डिवीज़न में। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया। टोपी के सभी दोस्त दसवीं कक्षा में थे। इसलिए वह उन्हीं से मिलता और उन्हीं के साथ खेलता था। अपने साथ नवीं कक्षा में पढ़ने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती नहीं थी। वह जब भी कक्षा में बैठता, उसे अजीब लगता था। टोपी ने किसी न किसी तरह इस साल को झेल लिया। परन्तु जब सन इक्यावन में भी उसे नवीं कक्षा में ही बैठना पड़ा तो वह बिलकुल गीली मिट्टी का पिंड हो गया, क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। जो विद्यार्थी सन उनचास में आठवीं कक्षा में थे वे अब दसवीं कक्षा में थे। जो सन उनचास में सातवीं कक्षा में थे वे टोपी के साथ पहुँच गए थे। उन सभी के बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देने लगा था। वहीद जो कक्षा का सबसे तेज़ लड़का था, उसने टोपी से पूछा कि वह उन लोगों के साथ क्यों खेलता है। उसे तो आठवीं कक्षा वालों से दोस्ती करनी चाहिए। क्योंकि वे लोग तो आगे दसवीं कक्षा में चले जाएँगे और टोपी को तो आठवीं वालों के साथ ही रहना है तो उनसे दोस्ती करना टोपी के लिए अच्छा होगा। यह बात टोपी को बहुत बुरी लगी और ऐसा लगा जैसे यह बात उसके दिल के आर-पार हो गई हो। और उसने उसी समय कसम खाई कि इस साल उसे टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, वह पास होकर ही दिखाएगा। परन्तु साल के बीच में ही चुनाव आ गए। टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण, नीले तेल वाले, चुनाव लड़ने के लिए खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो, उस घर में कोई पढ़-लिख कैसे सकता है? वह तो जब टोपी के पिता चुनाव हार गए तब घर में थोड़ी शांति हुई और टोपी ने देखा कि उसकी परीक्षा को ज्यादा समय नहीं रहा है। वह पढ़ाई में जुट गया। परन्तु जैसा वातावरण टोपी के घर में बना हुआ था ऐसे वातावरण में कोई कैसे पढ़ सकता था? इसलिए टोपी का पास हो जाना ही बहुत था। टोपी के दो साल एक ही कक्षा में रहने के बाद जब वह पास हुआ तो उसकी दादी बोली कि वाह! टोपी को भगवान नजरे-बंद से बचाए। बहुत अच्छी रफ़्तार पकड़ी है। तीसरे साल पास हुआ वो भी तीसरी श्रेणी में, चलो पास तो हो गया। परन्तु लेखक कहता है कि सभी को उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह किस वजह से दो साल फेल हुआ और तीसरी साल में थर्ड डिवीज़न से पास हुआ। टोपीशुक्लापाठकी व्याख्या इफ़्फ़न के बारे में कुछ जान लेना इसलिए ज़रूरी है कि इफ़्फ़न टोपी का पहला दोस्त था। इस इफ़्फ़न को टोपी ने सदा इफ्फन कहा। इफ़्फ़न ने इसका बुरा माना। परन्तु वह इफ्फन पुकारने पर बोलता रहा। इसी बोलते रहने में उसकी बड़ाई थी। यह नामों का चक्कर भी अजीब होता है। उर्दू और हिंदी एक ही भाषा, हिंदवी के दो नाम हैं। परन्तु आप खुद देख लीजिए कि नाम बदल जाने से कैसे-कैसे घपले हो रहे हैं। नाम कृष्ण हो तो उसे अवतार कहते हैं और मुहम्मद हो तो पैगम्बर। नामों के चक्कर में पड़कर लोग यह भूल गए कि दोनों ही दूध देने वाले जानवर चराया करते थे। दोनों ही पशुपति, गोवर्धन और ब्रजकुमार थे। इसलिए तो कहता हूँ कि टोपी के बिना इफ़्फ़न और इफ़्फ़न के बिना टोपी न केवल यह कि अधूरे हैं बल्कि बेमानी हैं। इसलिए इफ़्फ़न के घर चलना ज़रूरी है। यह देखना ज़रूरी है कि उसकी आत्मा के आँगन में कैसी हवाएँ चल रही है और परम्पराओं के पेड़ पर कैसे फल आ रहे हैं। घपला – गड़बड़ पैगम्बर – पैगाम देने वाला लेखककहता हैकिइफ़्फ़नकेबारेमेंकुछ जानलेनाइसलिएज़रूरीहैक्योंकिइफ़्फ़न टोपीकापहलादोस्तथा।इसइफ़्फ़न कोटोपीहमेशाहीइफ्फनकहकरपुकारता था।इफ़्फ़नकोइसबातकाबुरा लगताथा।परन्तुजबभीटोपीउसे इफ्फनपुकारताहैइफ़्फ़नउसेबोलतारहा कीवहगलतबोलरहाहै।वहहर समयटोपीकोअपनेनामकोसही बोलनेकेलिएकहतारहताथा।लेखक कहताहैकियहनामोंकाजो चक्करहोताहैवहबहुतहीअजीब होताहै।हिंदवीएकभाषाहैजिसके उर्दूऔरहिंदीदोअलग-अलगनाम हैं।परन्तुखुददेखलीजिएकिकेवल नामबदलजानेसेकैसी-कैसीगड़बड़ होजातीहैं।यदिनाम “कृष्ण” हो तोउसेअवतारकहतेहैंऔरअगर नाम “मुहम्मद” होतोपैगम्बर (अर्थात पैगामदेनेवाला)। कहनेकाअर्थ हैकीएककोईश्वरऔरदूसरे कोईश्वरकापैगामदेनेवालाकहा जाताहै।नामोंकेचक्करमेंपड़कर लोगयहभूलजातेहैंकिदोनों हीदूधदेनेवालेजानवरोंकोचराया करतेथे।दोनोंहीपशुपति, गोवर्धनऔर ब्रजमेंरहनेवालेकुमारथे।इसलिए लेखककहताहैकिटोपीकेबिना इफ़्फ़नऔरइफ़्फ़नकेबिनाटोपीन केवलअधूरेहैंबल्कियहबेमानीकही जायगी।इसलिएइफ़्फ़नकेघरचलनाज़रूरी है।यहदेखनाज़रूरीहैकिउसकी आत्माकेआँगनमेंकैसीहवाएँचल रहीहैऔरपरम्पराओंकेपेड़पर कैसेफलआरहेहैं।अर्थातइफ़्फ़न क्यासोचरहाहै। इफ़्फ़न की कहानी भी बहुत लंबी है। परन्तु हम लोग टोपी की कहानी कह-सुन रहे हैं। इसलिए मैं इफ़्फ़न की पूरी कहानी नहीं सुनाऊँगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाऊँगा जितनी टोपी की कहानी के लिए जरुरी है। मैंने इसे ज़रूरी जाना कि इफ़्फ़न के बारे में आपको कुछ बता दूँ क्योंकि इफ़्फ़न आपको इस कहानी में जगह-जगह दिखाई देगा। न टोपी इफ़्फ़न की परछाई है और न इफ़्फ़न टोपी की। ये दोनों दो आज़ाद व्यक्ति हैं। इन दोनों व्यक्तियों का डेवलपमेंट एक-दूसरे से आज़ाद तौर पर हुआ। इन दोनों को दो तरह की घरेलू परम्पराएँ मिलीं। इन दोनों ने जीवन के बारे में अलग-अलग सोचा। फिर भी इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट हिस्सा है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट हिस्सा है। डेवलपमेंट – विकास लेखककहता हैकिइफ़्फ़नकीकहानीभीबहुत लंबीहै।परन्तुप्रस्तुतपाठमेंलेखक टोपीकीकहानीपाठकोंकोसुनानाचाहते हैं।इसलिएलेखककहताहैकिवह इफ़्फ़नकीकहानीपूरीनहींसुनाएगाबल्कि केवलउतनीहीसुनाएगाजितनीटोपीकी कहानीकेलिएउसेजरुरीलगरही है। लेखककहताहैकिउसेयह ज़रूरीलगाकिइफ़्फ़नकेबारेमें वहपाठकोंकोकुछबतादेक्योंकि इफ़्फ़नइसकहानीमेंजगह-जगहदिखाई देनेवालाहै।वहकहानीमेंटोपी केसाथहरजगहहैपरयहजान लेनाचाहिएकिनतोटोपीइफ़्फ़न कीपरछाईहैऔरनइफ़्फ़नटोपी कीपरछाईहै।येदोनोंहीइस कहानीकेदोआज़ादव्यक्तिहैं।इन दोनोंव्यक्तियोंकाविकासएक-दूसरेसे आज़ादतौरपरहुआअर्थातइनदोनों केविकासमेंएक-दूसरेकाकोई योगदाननहींहै।इनदोनोंकोदो तरहकेघरेलूरीतीरिवाज़मिले।इन दोनोंनेहीजीवनकेबारेमें हमेशासेअलग-अलगसोचा।फिरभी इफ़्फ़नटोपीकीकहानीकाएकऐसा हिस्साहैजिसकेबिनाशायदटोपीकी कहानीअधूरीहै।यहबातबहुतमहत्वपूर्ण हैकिइफ़्फ़नटोपीकीकहानीका सबसेअहमहिस्साहै। मैं हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं यह बेवकूफ़ी क्यों करूँ! क्या मैं रोज अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता हूँ कि हम दोनों भाई-भाई हैं? यदि में नहीं कहता तो क्या आप कहते हैं? हिन्दू-मुस्लिम अगर भाई-भाई हैं तो कहने की जरुरत नहीं। यदि नहीं हैं तो कहने से क्या फ़र्क पड़ेगा। मुझे कोई चुनाव तो लड़ना नहीं है। मैं तो एक कथाकार हूँ और एक कथा सुना रहा हूँ। मैं टोपी और इफ़्फ़न की बात कर रहा हूँ। ये इस कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को टोपी कहा गया और दूसरे को इफ़्फ़न। कथाकार – कथा सुनाने वाला लेखककहताहै किवहहिन्दू-मुस्लिमभाई-भाईकी बातनहींकररहाहै।लेखककहता हैकिवहयहबेवकूफ़ीआखिरकरे भीतोक्योंकरे।क्यावहरोज अपनेबड़ेयाछोटेभाईसेयह कहताफिरताहैकिवेदोनों भाई-भाईहैं? लेखकपाठकोंसे पूछताहैकियदिवहनहींकहता तोक्यापाठकोंमेंसेकोईयह कहताहैं? हिन्दू-मुस्लिमअगर भाई-भाईहैंतोकहनेकीजरुरत हीनहींहै।औरयदिनहींहै तोलेखककेकहनेसेक्याफ़र्क पड़जाएगाक्योंकिलेखककहताहैकि उसेकोईचुनावतोलड़नानहींहै। चुनावकीबातलेखकनेइसलिएकी हैक्योंकिअक्सरचुनावोंमेंनेताइस पंक्तिकाप्रयोगकरतेहैं। लेखककहता हैकिवहतोएककथा-सुनाने वालाहैऔरएककथासुनारहा है।लेखकटोपीऔरइफ़्फ़नकीकहानी कीबातकररहाहै।येदोनों लेखककीकहानीकेदोचरित्रहैं। एककानामबलभद्रनारायणशुक्लाहै औरदूसरेकानामसय्यदजरगाममुरतुज़ा। एककोसभीप्यारसेटोपीकह करपुकारतेहैंऔरदूसरेकोइफ़्फ़न। इफ़्फ़न के दादा और परदादा बहुत प्रसिद्ध मौलवी थे। काफ़िरों के देश में पैदा हुए। काफ़िरों के देश में मरे। परन्तु वसीयत करके मरे कि लाश करबला ले जाई जाए। उनकी आत्मा ने इस देश में एक साँस तक ना ली। उस खानदान में जो पहला हिन्दुस्तानी बच्चा पैदा हुआ वह बढ़कर इफ़्फ़न का बाप हुआ। जब इफ़्फ़न के पिता सय्यद मुरतुज़ा हुसैन मरे तो उन्होंने यह वसीयत नहीं की कि उनकी लाश करबला ले जाई जाए। वह एक हिन्दुस्तानी कब्रिस्तान में दफन किए गए। इफ़्फ़न की परदादी भी बड़ी नमाजी बीबी थीं। करबला, नजफ़, खुरासान, काज़मैन और जाने कहाँ की यात्रा कर आई थीं। परन्तु जब कोई घर से जाने लगता तो वह दरवाज़े पर पानी का एक घड़ा जरूर रखवातीं और माश का सदका भी जरूर उतरवातीं। मौलवी – इस्लाम धर्म का आचार्य लेखककहताहैकि इफ़्फ़नकेदादाऔरपरदादाइस्लामधर्म केबहुतप्रसिद्धआचार्यथे।गैरमुस्लिम देशमेंपैदाहुए।औरगैरमुस्लिम देशमेंहीमरे।परन्तुमरनेसे पहलेहीउन्होंनेलिखितरूपमेंकह रखाथाकिमरनेकेबादउनकी लाशकरबला (इस्लामकाएकपवित्रस्थान) लेजाईजाए।उनकीआत्मानेहिंदुस्तान मेंएकसाँसतकनहींली।उस खानदानमेंजोपहलाहिन्दुस्तानीबच्चापैदा हुआवहइफ़्फ़नकेपिताथे। जब इफ़्फ़नकेपितासय्यदमुरतुज़ाहुसैनमरे तोउन्होंनेऐसीकोईबातनहींलिखी जोइफ़्फ़नकेदादाऔरपरदादाने लिखीथी, किउनकीलाशकरबलाले जाईजाए।वहएकहिन्दुस्तानीकब्रिस्तानमें दफनकिएगए। इफ़्फ़नकीपरदादीनियमित रूपसेनमाजपढ़नेवालीबीबीथीं। करबला, नजफ़, खुरासान, काज़मैनऔरन जानेकहाँ-कहाँकीयात्राकरके आईथीं।परन्तुजबकोईघरसे जानेलगतातोवहदरवाज़ेपरपानी काएकघड़ाजरूररखवातींऔरमाश काएकटोटकाभीजरूरउतरवातीं।यह एकहिन्दूरीती-रिवाज़केअंतर्गतआता है। इफ़्फ़न की दादी भी नमाज़-रोज़े की पाबंद थीं। परन्तु जब इकलौते बेटे को चेचक निकली तो वह चारपाई के पास एक टाँग पर खड़ी हुईं और बोलीं, “माता मोरे बच्चे को माफ़ करद्यो।” पूरब में रहने वाली थीं। नौ या दस बरस की थीं जब ब्याह कर लखनऊ आईं, परन्तु जब तक ज़िंदा रहीं पूरबी बोलती रहीं। लखनाऊ की उर्दू ससुराली थी। वह तो मायके की भाषा को गले लगाए रहीं क्योंकि इस भाषा के सिवा इधर-उधर कोई ऐसा नहीं था जो उसके दिल की बात समझता। जब बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल फड़का परन्तु मौलवी के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था! बेचारी दिल मसोसकर रह गईं। हाँ इफ़्फ़न की छठी… पर उन्होंने जी भरकर जश्न मना लिया। बात यह थी कि इफ़्फ़न अपने दादा के मरने के बाद पैदा हुआ था। मर्दों और औरतों के इस फ़र्क को ध्यान में रखना ज़रूरी है क्योंकि इस बात को ध्यान में रखे बगैर इफ़्फ़न की आत्मा का नाक-नक्शा समझ में नहीं आ सकता। पाबंद
– नियम, वचन आदि का पालन करनेवाला लेखककहताहै
किइफ़्फ़नकीदादीभीनमाज़-रोज़े
कानियमकेअनुसारपालनकरनेवाली
थी।परन्तुजबइकलौतेबेटेकोचेचक
केदानेनिकलेतोवहचारपाईके
पासएकटाँगपरखड़ीहुईऔर
बोलीकिमातामेरेबच्चेकोमाफ़
करदो।ऐसाइसलिएकहाक्योंकिहिन्दू
धर्ममेंचेचककोमाताकहाजाता
है।इसबातकाज़िक्रलेखकने
इसलिएकियाहैक्योंकिइफ़्फ़नकीदादी
मुस्लिमहोतेहुएभीहिन्दूधर्मका
अनुसरणकररहीथी।इफ़्फ़नकीदादी
पूरबकीरहनेवालीथी।नौया
दससालकीथीजबउनकीशादी
हुईऔरवहलखनऊआगई, परन्तु
जबतकज़िंदारही, वहपूरबकी
हीभाषाबोलतीरही।लखनाऊकीउर्दू
तोउनकेलिएससुरालकीभाषाथी।
उन्होंनेतोमायकेकीभाषाकोही
गलेलगाएरखाथाक्योंकिउनकीइस
भाषाकेसिवाउनकेआसपासकोईऐसा
नहींथाजोउनकेदिलकीबात
समझपाता।जबउनकेबेटेकीशादी
केदिनआएतोगानेबाजानेके
लिएउनकादिलतड़पनेलगा, परन्तुइस्लाम
केआचार्योंकेघरगाना-बजानाभला
कैसेहोसकताथा? बेचारीकादिल
उदासहोगया।लेकिनइफ़्फ़नकेजन्म
केछठेदिनकेस्नान/पूजन/उत्सव
परउन्होंनेजीभरकरउत्सवमनालिया
था। इफ़्फ़न की दादी किसी मौलवी की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थीं। दूध-घी खाती हुई आई थीं परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गईं जो घी पिलाई हुई काली हाँडियों में असामियों के यहाँ से आया करता था। बस मायके जातीं तो लपड़-शपड़ जी भर के खा लेतीं। लखनऊ आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। अपने मियाँ से उन्हें यही तो एक शिकायत थी कि वक्त देखे न मौका, बस मौलवी ही बने रहते हैं। ससुराल में उनकी आत्मा सदा बेचैन रही। जब मरने लगीं तो बेटे ने पूछा कि लाश करबला जाएगी या नज़फ, तो बिगड़ गईं। बोलीं, “ए बेटा जउन तूँ से हमरी लाश ना सँभाली जाए त हमरे घर भेज दिहो।” हाँडियाँ – मिट्टी का वह
छोटा गोलाकार बरतन लेखक कहताहैकिइफ़्फ़नकीदादीकिसी इस्लामीआचार्यकीबेटीनहींथीबल्कि एकजमींदारकीबेटीथी।दूध-घी खातीहुईबड़ीहुईथीपरन्तुलखनऊ आकरवहउसदहीकेलिएतरस गईथीजोघीसेभरीहुईकाली मिट्टीकेछोटेगोलाकारबरतनमेंअसम केव्यापारीलायाकरतेथे।जबभी वहअपनेमायकेजातीतोलपड़-शपड़ अर्थातजितनाउसकामनहोता, जीभर केखालेती।क्योंकिलखनऊवापिसआते हीउन्हेंफिरमौलविनबनजानापड़ता। अपनेपतिसेउन्हेंयहीएकशिकायत थीकिवेहरवक्तजबभीदेखो बसमौलवीहीबनेरहतेथे। इफ़्फ़न कीदादीकीआत्माससुरालमेंसदा बेचैनरहीअर्थातवेससुरालमेंबहुत खुशनहींथी।जबमरनेवालीथी तोउनकेबेटेनेउनसेपूछाकि वेक्याचाहतीहैकिउनकीलाश करबलाजानीचाहिएयानज़फ, तोवह बिगड़गईऔरगुस्सेमेंबोलीकि बेटाअगरउससेउनकीलाशनहींसँभाली जातीतोवहउनकीलाशकोउनके घरभेजदें। मौत सिर पर थी इसलिए उन्हें यह याद नहीं रह गया कि अब घर कहाँ है। घरवाले कराची में हैं और घर कस्टोडियन का हो चुका है। मरते वक्त किसी को ऐसी छोटी-छोटी बातें भला कैसे याद रह सकती हैं। उस वक्त तो मनुष्य अपने सबसे ज्यादा खूबसूरत सपने देखता है (यह कथाकार का खयाल है, क्योंकि वह अब तक मरा नहीं है!) इफ़्फ़न की दादी को भी अपना घर याद आया। उस घर का नाम कच्ची हवेली था। कच्ची इसलिए कि वह मिट्टी से बनी थी। उन्हें दसहरी आम का वह बीजू पेड़ याद आया जो उन्होंने अपने हाथ से लगाया था और जो उन्हीं की तरह बूढ़ा हो चुका था। ऐसी ही छोटी-छोटी और मीठी-मीठी बेशुमार चीज़ें याद आई। वह इन चीज़ों को छोड़कर भला करबला या नज़फ कैसे जा सकती थीं! वह बनारस के ‘फातमैन’ में दफ़न की गईं क्योंकि मुरतुज़ा हुसैन की पोस्टिंग उन दिनों वहीं थी। इफ़्फ़न स्कूल गया हुआ था। नौकर ने आकर खबर दी कि बीबी का देहांत हो गया। इफ़्फ़न की दादी बीबी कही जाती थीं। इफ़्फ़न तब चौथी में पढ़ता था और टोपी से उसकी मुलाकात हो चुकी थी। कस्टोडियन – जिस सम्पति पर किसी का मालिकाना
हक़ न हो उसका सरक्षण करने वाला विभाग लेखककहता हैकीइफ़्फ़नकीदादीमौतके नजदीकथीइसलिएशायदउन्हेंयहयाद नहींरहाकिअबउनकाघरकहाँ है।उनकेसभीमायकेवालेअबकराची मेंहैंऔरउनकेमायकेकेघर कासरक्षणहोचुकाहै।लेखकका माननाहैकिमरतेवक्तकिसीको ऐसीछोटी-छोटीबातेंभलाकैसेयाद रहसकतीहैंक्योंकिउसवक्ततो मनुष्यअपनेसबसेज्यादाखूबसूरतसपनेदेखता है, ऐसालेखकइसलिएसोचताहैक्योंकि वहअबतकमरानहींहै।इफ़्फ़न कीदादीकोभीअपनाघरयाद आया।उसघरकानामकच्चीहवेली था।कच्चीइसलिएकिवहमिट्टीसे बनीथी।उन्हेंदसहरीआमकावह बीजूपेड़जोउन्होंनेखुदआमकी गुठलीकीमददसेउगायाथा, याद आया।वहउन्होंनेअपनेहाथसेलगाया थाऔरवहपेड़भीउन्हींकी तरहबूढ़ाहोचुकाथा।ऐसीही छोटी-छोटीऔरमीठी-मीठीबहुतसारी चीज़ेंउन्हेंयादआई।वहइनचीज़ों कोछोड़करभलाकरबलायानज़फकैसे जासकतीथी। वहबनारसके ‘फातमैन’ मेंदफ़नकीगईक्योंकिमुरतुज़ा हुसैनयानीइफ़्फ़नकेपिताकीपोस्टिंग उनदिनोंवहींथी।जबइफ़्फ़नकी दादीकादेहांतहुआउससमयइफ़्फ़न स्कूलगयाहुआथा।नौकरनेस्कूल आकरखबरदीकिबीबीकादेहांत होगया।इफ़्फ़नकीदादीकोसभी बीबीकहकरपुकारतेथे।उससमय इफ़्फ़नचौथीकक्षामेंपढ़ताथाऔर टोपीसेउसकीमुलाकातहोचुकीथी। इफ़्फ़न को अपनी दादी से बड़ा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अपनी अम्मी, अपनी बाज़ी और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह ज़रा ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार डाँट मार दिया करती थीं। बाज़ी का भी यही हल था। अब्बू भी कभी-कभार घर को कचहरी समझकर फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब मौका मिलता उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थीं। बस एक दादी थी जिन्होंने कभी उसका दिल नहीं दुखाया। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थीं। बाज़ी – बड़ीबहन लेखककहताहैकिइफ़्फ़नको अपनीदादीसेबहुतज्यादाप्यारथा। प्यारतोउसेअपनेअब्बू, अम्मी, बड़ीबहनऔरछोटीबहननुज़हतसे भीथापरन्तुदादीसेवहसबसे ज्यादाप्यारकियाकरताथा।अम्मीतो कभी-कभारइफ़्फ़नकोडाँटदेतीथी औरकभी-कभीतोमारभीदिया करतीथी।बड़ीबहनभीअम्मीकी हीतरहकभी-कभीडाँटतीऔरमारती थी।अब्बूभीकभी-कभारघरको न्यायालयसमझकरअपनाफैसलासुनानेलगतेथे। नुजहतकोजबभीमौकामिलतावह उसकीकापियोंपरतस्वीरेंबनानेलगतीथी। बसएकदादीहीथीजिन्होंनेकभी भीकिसीबातपरउसकादिलनहीं दुखायाथा।वहरातकोभीउसे बहरामडाकू, अनारपरी, बारहबुर्ज, अमीरहमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंचफुल्ला रानीकीकहानियाँसुनायाकरतीथी। “सोता है संसार जागता है पाक परवरदिगार। आँखों से देखी नहीं कहती। कानों की सुनी कहती हूँ कि एक मुलुक में एक बादशाह रहा…..” दादी की भाषा पर वह कभी नहीं मुस्कराया। उसे तो अच्छी-भली लगती थी। परन्तु अब्बू नहीं बोलने देते थे। और जब भी वह दादी से इसकी शिकायत करता तो वह हँस पड़तीं,” अ मोरा का है बेटा! अनपढ़ गँवारन की बोली तूँ काहे को बोले लग्यो। तूँ अपने अब्बा की ही बोली बोलौ।” बात ख़त्म हो जाती और कहानी शुरू हो जाती- “त ऊ बादशा का किहिस कि तुरंते ऐक ठो हिरन मार लियावा…. ” यह बोली टोपी के दिल में उतर गई थी। इफ़्फ़न की दादी उसे अपनी माँ की पार्टी की दिखाई दीं। अपनी दादी से तो उसे नफ़रत थी, नफ़रत। जाने कैसी भाषा बोलती थीं। इफ़्फ़न के अब्बू और उसकी भाषा एक थी। पाक – पवित्र लेखककहताहैकि
इफ़्फ़नकीदादीपूरबकीभाषामें
इफ़्फ़नकोकहानीसुनातेहुएकहतीथी
किजबसारासंसारसोताहैतब
परमेश्वरजागताहै।दादीइफ़्फ़नसेकहती,
किवहआँखोंसेदेखीघटनानहीं
सुनाती।वहकानोंकीसुनीहुईघटना
कोसुनातीहैकि “एकदेशमें
एकबादशाहरहताथा…..” इफ़्फ़नकीदादीकीबोली टोपीकेदिलमेंउतरगईथी, उसेभीइफ़्फ़नकीदादीकीबोली बहुतअच्छीलगतीथी।टोपीकीमाँ औरइफ़्फ़नकीदादीकीबोलीएक जैसीथी।टोपीकोअपनीदादीबिलकुल भीपसंदनहींथी।उसेतोअपनी दादीसेनफ़रतथी।वहपतानहीं कैसीभाषाबोलतीथी।टोपीकोअपनी दादीकीभाषाऔरइफ़्फ़नकेअब्बू कीभाषाएकजैसीलगतीथी। वह जब
इफ़्फ़न के घर जाता तो उसकी दादी ही के पास बैठने की कोशिश करता। इफ़्फ़न की
अम्मी और बाजी से वह बातचीत करने की कभी कोशिश ही न करता। वे दोनों अलबत्ता
उसकी बोली पर हँसने के लिए उसे छेड़तीं परन्तु जब बात बढ़ने लगती तो दादी
बीच-बचाव करवा देतीं- “तोरीअम्माँकाकररहीं…” दादीहमेशायहींसेबातशुरूकरतीं। पहलेतोवहचकराजाताकियह अम्माँक्याहोताहै।पीरवहसमझ गयामाताजीकोकहतेहैं। अलबत्ता –
बल्कि लेखककहताहै किटोपीजबभीइफ़्फ़नकेघर जाताथातोउसकीदादीकेही पासबैठनेकीकोशिशकरताथा।इफ़्फ़न कीअम्मीऔरबड़ीबहनसेतो वहबातचीतकरनेकीकभीकोशिशनहीं करताथा।क्योंकिवेदोनोंहीटोपी कीबोलीपरहँसनेकेलिएउसे छेड़तींथीपरन्तुजबबातबढ़नेलगती थीतोदादीबीच-बचावकरवादेतीं थीऔरटोपीकोडाँटतेहुएकहती थीकिवोक्योंउनसबकेपास जाताहैउनकेपासकोईकामनहीं होताउसेपरेशानकरनेकेआलावा।ये कहकरदादीटोपीकोअपनेपास बुलालेती।टोपीकोइफ़्फ़नकी दादीकीडाँटकाहरएकशब्द शक़्करकीतरहमीठालगताथा।पके आमकेरसकोसूखाकरबनाईगई मोटीपरतकीतरहमज़ेदारलगता।तिल केबनेव्यंजनोंकीतरहअच्छालगता औरवहदादीकीडाँटसुनकर चुपचापउनकेपासचलाआता।लेखककहता हैकिइफ़्फ़नकीदादीटोपीसे हमेशाएकहीसवालपूछकरबात आगेबढ़ातीथीकिउसकीअम्माक्या कररहीहै।पहले-पहलेतोटोपी कोसमझमेंनहींआयाकिये अम्माक्याहोताहैपरन्तुबादमें उसेसमझमेंआगयाकिमाता जीकोहीअम्माकहाजाताहै। यह
शब्दउसेअच्छालगा।अम्माँ।वहइस
शब्दकोगुड़कीडालीकीतरह
चुभलातारहा।अम्माँ।अब्बू।बाजी। चुभलाना – मुँह में कोई खाद्य पदार्थ रखकर उसे जीभ
से बार-बार हिलाकर इधर-उधर करना लेखककहताहै
किजबटोपीनेअम्माशब्दसुना
तोउसेयहशब्दबहुतअच्छालगा।
जिसतरहगुड़कीडालीकोमुँह
मेंरखकरउसेजीभसे
बार-बारहिलाकरइधर-उधरकरकेउसके
स्वादकाआनंदलियाजाताहैउसी
तरहवहइसशब्दकोभी
बार-बारबोलतारहा। “अम्माँ”।
“अब्बू”। “बाजी”।उसेये
शब्दबहुतपसंदआए। डॉक्टरभृगुनारायणशुक्लानीले तेलवाले (टोपीकेपिता) केघर मेंभीबीसवींसदीप्रवेशकरचुकी थी।कहनेकाअर्थहैकिअब टोपीकेघरमेंभीखाना मेज़-कुरसीपरखायाजाताथा।लगती तोथालियाँहीथींपरन्तुजैसेपहले जमीनपरपालथीमारकरखानाखाया जाताथा, उसकीजगहपरमेज़-कुरसी काप्रयोगकियाजानेलगाथा।उस दिनऐसाहुआकिटोपीकोबैंगन काभुरताज़राज्यादाअच्छालगा।रामदुलारी (टोपीकीमाँ) खानापरोसरहीथी। टोपीनेकहदियाकिअम्मी, ज़रा बैंगनकाभुरता।अम्मी! यहशब्दसुनते हीमेज़परबैठेसभीलोगचौंक गए, उनकेहाथखानाखाते-खातेरुक गए।वेसभीलोगटोपीकेचेहरे कीओरदेखनेलगे। अम्मी! यह शब्द इस घर में
कैसे आया। अम्मी! परम्पराओं की दीवार डोलने लगी। डोलने – हिलने लेखककहता
हैकिसभीयहसोचरहेथेकि
यह “अम्मी” शब्दइसघरमेंकैसे
आया।ऐसालगरहाथाजैसे
रीति-रिवाजोंकीदीवारहिलनेलगीहो।
सुभद्रादेवी (टोपीकीदादी) नेटोपी
सेसवालकियाकियेलफ़्ज़उसने
कहाँसेसीखा? लफ़्ज़सुनतेहीटोपी
नेअपनीआँखेंघुमाईऔरअपनीमाँ
सेलफ़्ज़काअर्थपूछनेलगा।दादी
फिरसेगुस्सेसेपूछनेलगीकि
येअम्मीकहनाउसकोकिसनेसिखायाहै?
इसपरटोपीनेउत्तरदियाकि
यहउसनेइफ़्फ़नसेसीखाहै।इफ़्फ़न
सुनतेहीदादीनेउसकापूरानाम
जाननाचाहापरन्तुटोपीनेकहाकि
उसेनहींपताकिइफ़्फ़नकापूरा
नामक्याहै? इतनेमेंटोपीकी
माँरामदुलारीबोलपड़ीकि “तैंकउनो
मियाँकेलइकासेदोस्तीकरलिहले
बायकारे?” अर्थातकहींकिसीमियाँ
यानिमुस्लिमकेलड़केसेतोदोस्ती
नहींकरलीहै।रामदुलारीकीइस
बोलीपरसुभद्रादेवीबरसपड़ींऔरकहने
लगीकीउसनेकितनीबाररामदुलारीसे
कहाहैकिइसतरहउसकेसामने
गँवारोंकीयहज़बाननबोलाकरे।
लेखककहताहैकिअबऐसालग
रहाथाकिलड़ाईकाविषयही
बदलगयाहो। “तैं फिर जय्यबे ओकरा घरे?” परमिट – अनुमति जो सरकार द्वारा
आधिकारिक तौर पर लिखित रूप में दी जाती है कुटाई – पिटाई लड़ाईकादूसरादिनथाइसलिए जबटोपीकेपिताडॉक्टरभृगुनारायण नीलेतेलवालेकोयहपताचला किटोपीनेकलेक्टरसाहबकेलड़के सेपक्कीदोस्तीकरलीहै (कहने काअर्थहैकिइफ़्फ़नकेपिता कलेक्टरथे) तोवहअपनागुस्सापी गएऔरतीसरेहीदिनटोपीकी दोस्तीकाफायदाउठाकरउन्होंनेइफ़्फ़न केपितासेकपड़ेऔरशक्करके परमिट (अनुमतिजोसरकारद्वाराआधिकारिकतौर परलिखितरूपमेंदीजातीहै) लेलिए। येबाततो दूसरे-तीसरेदिनकीहैपरन्तुजिस दिनसभीकोपताचलाथाकि टोपीनेएकमुस्लिमलड़केसेदोस्ती कररखीहै, तोउसदिनटोपी कीबड़ीबुरीदशाहुईथी।टोपी कीदादीसुभद्रादेवीतोउसीवक्तखाने कीमेज़सेउठगईथीऔरटोपी कीमाँरामदुलारीनेटोपीकोफिर बहुतमाराथाऔरएकहीबात बार-बारपूछरहीथीकिक्या अबवहइफ़्फ़नकेघरजाएगा? इसके उत्तरमेंहरबारटोपी “हाँ” ही कहताथा।रामदुलारीउसकेहरबार “हाँ” कहनेपरकहतीथीकिवहउसकी हाँकोमिट्टीमेंमिलादेगी।टोपी कीमाँटोपीकोमारते-मारतेथक गईपरन्तुटोपीनेयहनहींकहा किवहइफ़्फ़नकेघरनहींजाएगा। मुन्नीबाबूऔरभैरवजोटोपीके भाईथे, वेटोपीकीपिटाईका तमाशादेखतेरहे। “हम एक दिन एको रहीम कबाबची की
दुकान पर कबाबो खाते देखा रहा।” मुन्नी बाबू ने टुकड़ा लगाया। घिन्न
– नफ़रत लेखक कहताहैकिजबटोपीकीपिटाई होरहीथी, उसीसमयमुन्नीबाबू एकऔरबातजोड़करबोलेकि एकदिनटोपीकोउन्होंनेरहीमकबाबची कीदुकानपरकबाबखातेदेखाथा। कबाबकानामसुनतेहीटोपीकी माँरामदुलारीनफ़रतकेसाथदोकदम पीछेहटगईऔर “राम, राम, राम” कहनेलगी।टोपीमुन्नीकीतरफ़ देखनेलगाक्योंकिसच्चीबातयहथी किटोपीनेमुन्नीबाबूकोकबाब खातेदेखलियाथाऔरमुन्नीबाबू नेउसेएकइकन्नीरिश्वतकीदी थीताकिटोपीघरपरउनकीशिकायत नकरदे।टोपीकोयहमालूम थापरन्तुवहशिकायतकरनेवालानहीं था।उसनेअबतकमुन्नीबाबूकी कोईबातइफ़्फ़नकेसिवाकिसीऔर कोनहींबताईथी।टोपीमुन्नीबाबू कीओरदेखकरबोलाक्याउसने टोपीकोकबाबखातेदेखाथा? तो मुन्नीनेफिरसेकहाक्योंउस दिननहींदेखाथाक्या? इसपर टोपीकीदादीसुभद्रादेवीनेमुन्नीबाबू सेसवालकियाकिउसनेउसीदिन क्योंनहींबताया? टोपीबसबोलतारह गयाकिमुन्नीझूठबोलरहाहै। टोपी
बहुत उदास रहा। वह अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि झूठ और सच के किस्से
में पड़ता-और सच्ची बात तो यह है कि वह इतना बड़ा कभी नहीं हो
सका। उस दिन तो वह इतना पिट गया था कि उसका सारा बदन दुख रहा था।
वह बस लगातार एक ही बात सोचता रहा कि अगर एक दिन के वास्ते वह मुन्नी
बाबू से बड़ा हो जाता तो समझ लेता उनसे। परन्तु मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाना
उसके बस में तो था नहीं। वह मुन्नी बाबू से छोटा पैदा हुआ था और उनसे
छोटा ही रहा। बदन – शरीर लेखककहता हैकिजिसदिनटोपीकीपिटाई हुईथी, उसदिनटोपीबहुतउदास रहा।टोपीअभीइतनाबड़ानहींहुआ थाकिवहझूठऔरसचकोसाबित करनेकीकोशिशकरताऔरसच्चीबात तोयहहैकिवहइतनाबड़ा कभीहोभीनहींसका।उसदिन तोटोपीकीइतनीपिटाईहोगई थीकिउसकासाराशरीरदर्दकर रहाथा।वहबसलगातारएकही बातसोचतारहाकिअगरएकदिन केलिएवहअपनेबड़ेभाईमुन्नी बाबूसेबड़ाहोजातातोवह जरूरउन्हेंसबकसिखाता।परन्तुमुन्नीबाबू सेबड़ाहोनाउसकेलियेबिलकुलनामुमकिन था।वहमुन्नीबाबूसेछोटापैदा हुआथाऔरहमेशाउनसेछोटाही रहनेवालाथा।
“अय्यसा
ना हो सकता का की हम लोग दादी बदल लें,” टोपी ने कहा। “तोहरी
दादी हमरे घर आ जाएँ अउर हमरी तोहरे घर चली जाएँ। हमरी दादी त बोलियो तूँहीं
लोगन को बो-ल-थीं।” अय्यसा – ऐसा टोपीबहुतहीभोलेपनसे इफ़्फ़नसेकहताहैकिक्याऐसा नहींहोसकताकिवेलोगदादी बदलले? उसकीदादीइफ़्फ़नकेघर औरइफ़्फ़नकीदादीउसकेघरआ जाए।टोपीकहताहैकिउसकीदादी कीबोलीतोइफ़्फ़नकेपरिवारकी बोलीकीतरहहीहै।टोपीकी इसबातकाजवाबदेतेहुएइफ़्फ़न कहताहैकिटोपीकीयहइच्छा पूरीनहींहोसकती।उसकेअब्बूयह बातनहींमानेंगे।औरअगरउसकीदादी टोपीकेघरचलीजायगीतोउसे कहानीकौनसुनाएगा? इफ़्फ़नटोपीसेपूछता हैकिक्याउसकीदादीकोबारह बुर्जकीकहानीआतीहै? टोपीइफ़्फ़न केइसतरहकेजवाबकोसुनकर अंदरसेटूटगयाऔरइफ़्फ़नसे कहनेलगाकिक्यावहउसेएक दादीभीनहींदेसकताहै।फिर इफ़्फ़नटोपीकोसमझातेहुएकहताहै किजोउसकीदादीहैंवहउसके अब्बूकीअम्माँभीतोहैं।यह बातटोपीकोसमझआगई।फिर इफ़्फ़नटोपीसेपूछताहैकिटोपी कीदादीभीतोउसकीदादीकी तरहबूढ़ीहोंगी।टोपीहामीभरताहै। इफ़्फ़नटोपीकोकहताहैकिवह चिंतानकरेक्योंकिउसकीदादीकहती हैंकिबूढ़ेलोगमरजातेहैं। टोपीकहताहैकिउसकीदादीनहीं मारेगी।इसपरइफ़्फ़नकहताहैकि कैसेनहींमारेगी? क्याउसकीदादीझूठ बोलतीहै? जबटोपीऔरइफ़्फ़न बातकररहेथेउसीसमयइफ़्फ़न कानौकरआयाऔरखबरदीकि इफ़्फ़नकीदादीकादेहांतहोगया है। इफ़्फ़न चला गया। टोपी अकेला रह गया। वह मुँह लटकाए हुए जिम्नेज़ियम
में चला गया। बूढ़ा चपड़ासी एक तरफ बैठा बीड़ी पी रहा था। वह एक कोने में
बैठकर रोने लगा। शाम को वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ सन्नाटा था। घर भरा
हुआ था। रोज़ जितने लोग हुआ करते थे उससे ज्यादा ही लोग थे। परन्तु एक दादी
के न होने से टोपी के लिए घर खली हो चूका था। जबकि उसे दादी का
नाम तक नहीं मालूम था। उसने दादी के हज़ार कहने के बाद भी उनके हाथ की
कोई चीज़ नहीं खाई थी। प्रेम इन बातों का पाबन्द नहीं होता। टोपी और दादी में
एक ऐसा ही सम्बन्ध हो चूका था। इफ़्फ़न के दादा जीवित होते तो वह इस सम्बन्ध
को बिलकुल उसी तरह न समझ पाते जैसे टोपी के घरवाले न समझ पाए थे। दोनों
अलग-अलग अधूरे थे। एक ने दूसरे को पूरा कर दिया था। दोनों प्यासे थे।
एक ने दूसरे की प्यास बुझा दी थी। दोनों अपने घरों में अजनबी और भरे घर
में अकेले थे। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन मिटा दिया था। एक बहत्तर बरस की
थी और दूसरा आठ साल का। सन्नाटा
– शांति लेखककहताहैकि जबनौकरनेआकरबतायाकिइफ़्फ़न कीदादीकादेहांतहोगयाहै तोइफ़्फ़नस्कूलसेघरचलागया। टोपीस्कूलमेंअकेलारहगया।वह मुँहलटकाएहुएजिम्नेज़ियममेंचलागया। वहाँबूढ़ाचपड़ासीएकतरफबैठाबीड़ी पीरहाथा।टोपीवहाँएककोने मेंबैठकररोनेलगा।शामकोजब वहइफ़्फ़नकेघरगयातोवहाँ शांतिथी।ऐसानहींहैकीघर मेंकोईनहींथा, घरलोगोंसे भराहुआथा।जितनेलोगरोज़हुआ करतेथेउससेज्यादाहीलोगथे। परन्तुएकदादीकेनहोनेसे टोपीकेलिएपूराघरखालीहो चूकाथा।जबकिटोपीकोदादीका नामभीमालूमनहींथापरन्तुउसका इफ़्फ़नकीदादीसेबहुतगहरासम्बन्ध बनगयाथा।उसनेदादीकेहज़ार कहनेकेबादभीउनकेहाथकी कोईचीज़नहींखाईथी।प्रेमइन बातोंकोनहींमानता।टोपीऔरदादी मेंएकऐसासम्बन्धहोचूकाथा जिसेशायदअगरइफ़्फ़नकेदादाजीवित होतेतोवहभीबिलकुलउसीतरह नसमझपातेजैसेटोपीकेघरवाले नहींसमझपाएथे।दोनोंअलग-अलग अधूरेथे।एकनेदूसरेकोपूरा करदियाथा।दोनोंहीप्यारके प्यासेथेऔरएकनेदूसरेकी इसप्यासकोबुझादियाथा।दोनों अपने-अपनेघरोंमेंअजनबीऔरभरे घरमेंअकेलेथेक्योंकिदोनोंको हीउनकेघरमेंकोईसमझनेवाला नहींथा।दोनोंनेएकदूसरेका अकेलापनदूरकरदियाथा।एकबहत्तर बरसकीथीऔरदूसराआठसाल का।टोपीइफ़्फ़नकोसहानुभूतिदेताहुआ कहताहैकिइफ़्फ़नकीदादीकी जगहउसकीदादीमरगईहोतीतो ठीकहुआहोता।इफ़्फ़ननेटोपीकी इसबातकाकोईजवाबनहींदिया, असलमेंइफ़्फ़नकोटोपीकीइस बातकाजवाबआताहीनहींथा। फिरदोनोंदोस्तचुपचापरोनेलगे। टोपी ने
दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी ऐसे लड़के से दोस्ती नहीं
करेगा जिसका बाप ऐसी नौकरी करता हो जिसमें बदली होती रहती है। आत्म-इतिहास – जीवन के इतिहास लेखक कहता है कि टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी भी ऐसे लड़के से कभी भी दोस्ती नहीं करेगा जिसके पिता कोई ऐसी नौकरी करते हो जिसमें बदली होती रहती हो। दस अक्तूबर सन पैंतालीस का ऐसे तो कोई महत्त्व नहीं है परन्तु टोपी के जीवन के इतिहास में इस तारीख का बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि इस तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। इफ़्फ़न की दादी के मरने के थोड़े दिनों बाद ही इफ़्फ़न के पिता की बदली हुई थी। टोपी दादी के मरने के बाद तो अकेला महसूस कर ही रहा था और अब इफ़्फ़न के चले जाने पर वह और भी अकेला हो गया था क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त नहीं बन सका था। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परन्तु केवल अंग्रेजी बोलता था। और उन तीनो को इसका एहसास था कि वे कलेक्टर के बेटे हैं इसलिए अकड़ कर रहते थे और किसी को अपने से ऊपर नहीं समझते थे। यही कारण था कि उनमें से किसी ने भी टोपी को मुँह नहीं लगाया अर्थात किसी ने भी टोपी के साथ दोस्ती नहीं की। माली और चपरासी टोपी को पहचानते
थे। इसलिए वह बंगले में चला गया। बीलू, गुड्डू और डब्बू उस समय क्रिकेट खेल
रहे थे। डब्बू ने हिट किया। गेंद सीधे टोपी मुँह पर आई। उसने घबराकर हाथ उठाया।
गेंद उसके हाथों में आ गई। हेड माली अंपायर था। उसने उँगली उठा दी। वह बेचारा यह समझ सका कि जब ‘हाउज़ दैट’ का शोर हो तो उसे उँगली उठा देनी चाहिए “हू आर यू?” डब्बू ने
सवाल किया। मसहूर – प्रसिद्ध लेखक कहता है कि माली और चपरासी टोपी को पहचानते थे। इसलिए टोपी इफ़्फ़न के जाने के बाद बंगले में गया। बीलू, गुड्डू और डब्बू उस समय क्रिकेट खेल रहे थे। डब्बू ने गेंद को बोन्ड्री की ओर मारा। गेंद सीधे टोपी के मुँह पर आई। उसने घबराकर जैसे ही हाथ उठाया, गेंद उसके हाथों में आ गई। जैसे ही गेंद टोपी के हाथों में आई, वैसे ही गेंद करने वाला गुड्डू चिल्लाया “हाउज़ दैट”। हेड माली अंपायर था। उसने उँगली उठा दी। उस बेचारे को अब तक सिर्फ यह समझ आ सका था कि जब ‘हाउज़ दैट’ का शोर हो तो उसे उँगली उठा देनी चाहिए। टोपी को देख कर डब्बू ने सवाल किया कि तुम कौन हो? डब्बू के इस सवाल के जवाब में टोपी ने अपना पूरा नाम बताया की वह बलभद्र नरायण है। फिर गुड्डू ने सवाल किया कि उसके पिता का क्या नाम है? टोपी ने बताया कि उसके पिता का नाम भृगु नरायण है। बीलू ने अंपायर बने हेड चपरासी को आवाज़ दी और उससे पूछा कि ये भृगु नरायण कौन है? क्या वो उनके चपरासियों में से एक है? अंपायर बने हेड चपरासी ने बीलू के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि भृगु नरायण उनका कोई चपरासी नहीं है, वह तो शहर का प्रसिद्ध दागदर है। डब्बू माली के दागदर शब्द को सही करता हुआ पूछता है कि क्या वह डॉक्टर कहना चाहता है। हेड माली हामी भरता है। उसे उनके साथ रहते हुए इतनी अंग्रेजी तो आ ही गई थी। बीलू टोपी को देख कर बोलता है कि वह भद्दा दिख रहा है। टोपी यह सुन कर घमंड के साथ बोलता है कि वह अपनी जुबान संभाल कर बात करे। अगर उसने उन्हें एक थप्पड़ मार दिया तो वे नाचने लगेंगे। इतना सुनते ही बीलू ने टोपी पर हाथ चला दिया और टोपी गिर गया। फिर टोपी उसे गालियाँ बकता हुआ उठा। परन्तु हेड माली उनकी लड़ाई को ख़त्म करने के लिए बीच में आया। इतने में डब्बू ने अपने अलसेशियन कुत्ते को आवाज दे कर टोपी के पीछे छोड़ दिया। पेट में सात सुइयाँ भुकीं तो टोपी के होश ठिकाने आए। और फिर
उसने कलेक्टर साहब के बँगले की और रुख नहीं किया। परन्तु अब प्रश्न यह खड़ा हो
गया कि फिर आखिर वह करे क्या? घर में ले-देकार बूढ़ी नौकरानी सीता
थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह उसी के पल्लू में चला गया
और सीता की छाया में जाने के बाद उसकी आत्मा भी छोटी हो गई। सीता को
घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। टोपी को भी घर के सभी
छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। इसलिए दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे। भुकीं – चुभी लेखक कहता है कि जब डब्बू ने अपने अलसेशियन कुत्ते को आवाज दे कर टोपी के पीछे छोड़ दिया तो कुत्ते ने टोपी को काट लिया। फिर जब टोपी के पेट में सात सुइयाँ चुभाई गई तो टोपी के होश ठिकाने आए। और फिर उसने कलेक्टर साहब के बँगले की ओर चेहरा नहीं किया। परन्तु अब प्रश्न यह खड़ा हो गया कि फिर आखिर वह करे क्या? क्योंकि अब न तो इफ़्फ़न था और न ही इफ़्फ़न की दादी जो उसे समझ सके। घर में ले-देकार एक बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह अब सीता के साथ ही समय गुजारने लगा और सीता की छाया में जाने के बाद उसकी आत्मा भी छोटी हो गई। क्योंकि सीता को घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे और टोपी को भी घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। तो दोनों की स्थिति एक सी थी इसलिए दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे। एक रात जब मुन्नी बाबू और भैरव की बराबरी करने के कारण टोपी बहुत पीटा तो सीता ने उसे अपनी कोठरी में ले जा कर समझाना शुरू किया कि वह इस तरह किसी की बराबरी करने की कोशिश न किया करे। बात यह हुई कि जाड़ों के दिन थे। मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया। भैरव के लिए भी नया कोट बना। टोपी को मुन्नी बाबू का कोट मिला। कोट बिलकुल नया था। मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। फिर भी बना तो था उन्ही के लिए। था तो उतरन। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी जाने वाली चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी जाड़ा खाए। “हम जाड़ा-ओड़ा ना खाएँगे। भात खाएँगे।” टोपी
ने कहा। जाड़ा –
ठण्ड लेखक कहता है कि सीता टोपी को इसलिए समझा रही थी क्योंकि बात यह हुई कि ठण्ड के दिन थे और मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया और भैरव के लिए भी नया कोट बना लेकिन टोपी को मुन्नी बाबू का पुराना कोट मिला। वैसे कोट बिलकुल नया ही था क्योंकि जब वह बनाया गया तब वह मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। फिर भी बना तो उन्हीं के लिए था। भले ही वह उसे ना पहनते हो। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी गई कोई भी चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी ठण्ड ही खाएगा। टोपी छोटा था इसलिए ठण्ड खाने का अर्थ समझा नहीं और भोलेपन से बोला कि वह कोई ठण्ड नहीं खाएगा। वह तो भात खाएगा। इस पर टोपी की दादी सुभद्रादेवी बोली कि वह तो जूते खाएगा। टोपी उनकी इस बात पर झट से बोल पड़ा कि क्या उन्हें इतना भी नहीं पता कि जूता खाया नहीं जाता बल्कि पहना जाता है। टोपी के इस तरह बोलने पर मुन्नी बाबू गुस्से से टोपी को डाँटते हुए बोले कि वह दादी का अपमान क्यों कर रहा है? इस पर भी टोपी उल्टा जवाब देता हुआ बोला कि तो क्या वह उनकी पूजा करे? यह सुनते ही दादी ने बहुत अधिक शोर मचाना शुरू कर दिया और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को पीटना शुरू कर दिया। “तूँ दसवाँ में पहुँच गइल बाड़।”
सीता ने कहा, “तूँ हें दादी से टर्राव के त ना न चाही। कीनों ऊ
तोहार दादी बाड़िन।” तीसरे साल वह
थर्ड डिवीज़न में पास हो गया। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे
से चिपक गया। पापड़
बेलना – बहुत मेहनत करना जब टोपी को उसकी माँ ने दादी को उल्टा जवाब देने के लिए पीटा तो उनकी बूढ़ी नौकरानी सीता टोपी को समझाने लगी कि अब वह दसवीं कक्षा में पहुँच गया है। उसे दादी से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए आखिरकार वह उसकी दादी है। सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि टोपी दसवीं कक्षा में पहुँच गया है परन्तु टोपी के लिए दसवीं कक्षा में पहुँचना इतना भी आसान नहीं था। दसवीं कक्षा में पहुँचने के लिए टोपी को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी थी। दो साल तो टोपी फेल ही हुआ था। नवीं कक्षा में तो टोपी सन उनचास ही में पहुँच गया था, परन्तु दसवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते साल बावन हो चूका था। जब टोपी पहली बार फेल हुआ तो उसका बड़ा भाई मुन्नी बाबू माध्यमिक (10th) कक्षा में प्रथम आया और उसका छोटा भाई भैरव छठी कक्षा में प्रथम आया। सभी घरवाले हर समय टोपी की ही बात करने लगे। उस समय टोपी बहुत रोया था। ऐसी बात नहीं थी कि वह मुर्ख या मन्दबुद्धि था। वह पढ़ाई में बहुत तेज़ था परन्तु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। जब भी टोपी पढ़ाई करने बैठता था तो कभी उसके बड़े भाई मुन्नी बाबू को कोई काम याद आ जाता था या उसकी माँ को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी, अगर ये सारी चीज़े न होती तो कभी उसका छोटा भाई भैरव उसकी कापियों के पन्नों को फाड़ कर उनके हवाई जहाज़ बना कर उड़ाने लग जाता। यह तो थी पहले साल की बात। दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया था। जिसके कारण वह पढ़ाई नहीं कर पाया और दूसरी साल भी फेल हो गया। तीसरे साल वह पास तो हो गया परन्तु थर्ड डिवीज़न में। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया। परन्तु लेखक कहता है कि सभी को उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह किस वजह से दो साल में फेल हुआ और तीसरी साल में थर्ड डिवीज़न से पास हुआ। सन उनचास
में वह अपने साथियों के साथ था। वह फेल हो गया। साथी आगे निकल गए। वह
रह गया। सन पचास में उसे उसी दर्जे में उन लड़कों के साथ बैठना पड़ा जो
पिछले साल आठवें में थे। “क्या मतलब
है साम अवतार (या मुहम्मद अली?) बलभद्र की तरह इसी दर्जे में टिके रहना
चाहते हो क्या?” दर्जे – कक्षा मिसाल – उदाहरण लेखक कहता है कि सन उनचास में टोपी अपने साथियों के साथ था। जब वह फेल हो गया तो उसके सभी साथी आगे निकल गए और वह नवीं कक्षा में ही रह गया। सन पचास में उसे उसी कक्षा में उन लड़कों के साथ बैठना पड़ा जो पिछले साल आठवीं कक्षा में थे। पिछली कक्षा वालों के साथ एक ही कक्षा में बैठना कोई आसान काम नहीं होता। टोपी के सभी दोस्त दसवीं कक्षा में थे। इसलिए वह उन्हीं से मिलता और उन्हीं के साथ खेलता था। अपने साथ नवीं कक्षा में पढ़ने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती नहीं हो सकी थी। वह जब भी कक्षा में बैठता, उसे अपना उस कक्षा में बैठना अजीब लगता था। उस पर ज़ुल्म यह हुआ कि कक्षा के कमज़ोर लड़कों को जब मास्टर जी समझाते तो उस का उदाहरण देते हुए कहते कि साम अवतार (या मुहम्मद अली), बलभद्र की तरह इसी कक्षा में टिके रहना चाहते हो क्या? यह सुन कर सारी कक्षा हँसने लगती। हँसने वाले वे विद्यार्थी होते थे जो पिछले साल आठवीं कक्षा में थे। टोपी ने किसी न किसी तरह इस साल को झेल लिया। परन्तु जब सन इक्यावन में भी उसे नवीं कक्षा में ही बैठना पड़ा तो उसे बहुत अधिक शर्म महसूस होने लगी, क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। जो विद्यार्थी सन उनचास में आठवीं कक्षा में थे वे अब दसवीं कक्षा में थे। जो सन उनचास में सातवीं कक्षा में थे वे टोपी के साथ पहुँच गए थे। उन सभी के बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देने लगा था। वह अपने भरे-पूरे घर की ही तरह अपने स्कूल में भी अकेला हो गया था। मास्टरों ने उसका नोटिस लेना बिलकुल ही छोड़ दिया था कोई सवाल किया जाता और जवाब देने के लिए वह भी हाथ उठता तो कोई मास्टर उससे जवाब न पूछता। परन्तु जब उसका हाथ उठता ही रहा तो एक दिन अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब ने कहा – “तीन बरस
से यही किताब पढ़ रहे हो, तुम्हें तो सारे जवाब ज़ुबानी याद हो गए होंगे!
इन लड़कों को अगले साल हाई स्कूल का इम्तिहान देना है। तुमसे पारसाल पूछ
लूँगा।” बरस – साल लेखक कहता है कि जिस तरह टोपी अपने भरे-पूरे घर में भी अकेलापन महसूस करता था, उसी तरह अपने स्कूल में भी अकेला हो गया था। मास्टरों ने उसकी ओर ध्यान देना बिलकुल ही छोड़ दिया था, कोई सवाल किया जाता और जवाब देने के लिए जब टोपी भी हाथ उठाता, तो कोई मास्टर उससे जवाब नहीं पूछता था। परन्तु जब टोपी ने हार नहीं मानी और अपना हाथ उठाता ही रहा, तो एक दिन अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब ने कहा कि टोपी तो तीन साल से यही किताब पढ़ रहा है, उसे तो सारे जवाब ज़ुबानी याद हो गए होंगे, उसके साथ बैठे इन लड़कों को अगले साल हाई स्कूल की परीक्षा देनी है। उन्हें इस साल इन लड़कों से प्रश्न पूछने दो, टोपी से तो वे आने वाले साल में भी पूछ सकते हैं। अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब की इस बात को सुन कर टोपी इतना शर्माया कि उसका काला रंग भी लाल हो गया। और जब सभी बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े तो टोपी मानो बिलकुल मर ही गया हो। जब वह पहली बार नवीं कक्षा में आया था, तो वह भी इन्हीं बच्चों की तरह बिलकुल बच्चा ही था। और अब दो साल इसी कक्षा में होने के कारण वह बिलकुल बूढ़ा लगता था। फिर उसी
दिन अबदुल वहीद ने रिसेज़ में वह तीर मारा कि टोपी बिलकुल बिलबिला उठा। रिसेज़ – लंच, स्कूल में दोपहर के भोजन का समय नजरे-बंद – जो किसी स्थान पर निगरानी के लिए रखा गया हो और जिसे निश्चित सीमा के बाहर जाने की आज्ञा न हो जब अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर ने टोपी को कक्षा में बेइज्जत किया था, उसी दिन अबदुल वहीद ने लंच में एक ऐसी बात कही कि टोपी बहुत अधिक गुस्से में आ गया। वहीद कक्षा का सबसे तेज़ लड़का था। कक्षा का मुखिया भी था। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वह लाल तेल वाले डॉक्टर शुरफ़ुद्दीन का बेटा था। अबदुल वहीद ने टोपी से कहा कि वह उन लोगों के साथ क्यों खेलता है। उसे तो आठवीं कक्षा वालों से दोस्ती करनी चाहिए क्योंकि वे लोग तो आगे दसवीं कक्षा में चले जाएँगे और टोपी को तो आठवीं वालों के साथ ही रहना है तो उनसे दोस्ती करना टोपी के लिए अच्छा होगा। यह बात टोपी को बहुत बुरी लगी और ऐसा लगा जैसे यह बात उसके दिल के आर-पार हो गई हो। और उसने उसी समय कसम खाई कि इस साल उसे टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, वह पास होकर ही दिखाएगा। परन्तु साल के बीच में ही चुनाव आ गए। टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण, नीले तेल वाले, चुनाव लड़ने के लिए खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो, उस घर में कोई पढ़-लिख कैसे सकता है? वह तो जब डॉक्टर साहब चुनाव हार गए तब घर में थोड़ी शांति हुई और टोपी ने देखा कि उसकी परीक्षा को ज्यादा समय नहीं रहा है। वह पढ़ाई में जुट गया। परन्तु जैसा वातावरण टोपी के घर में बना हुआ था ऐसे वातावरण में कोई कैसे पढ़ सकता था? इसलिए टोपी का पास हो जाना ही बहुत था। टोपी के दो साल एक ही कक्षा में रहने के बाद जब वह पास हुआ तो उसकी दादी बोली कि वाह! टोपी को भगवान नजरे-बंद से बचाए। बहुत अच्छी रफ़्तार पकड़ी है। तीसरे साल पास हुआ वो भी तीसरी श्रेणी में, चलो पास तो हो गया। राही मासूमरज़ाकाजीवनपरिचय राही मासूम रज़ा (१ सितंबर, १९२५-१५ मार्च १९९२) का जन्म गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी। बचपन में पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से एमए करने के बाद उर्दू में `तिलिस्म-ए-होशरुबा' पर पीएच.डी. की। पीएच.डी. करने के बाद राही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे। अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे। नयी श्रेणी में लेखक का मन उदास होने का क्या कारण था?उत्तर:- नयी श्रेणी में जाने और नयी कापियों और पुरानी किताबों से आती विशेष गंध से लेखक का बालमन उदास हो उठता था क्योंकि उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण उन्हें हेडमास्टर साहब द्वारा प्रबंध की गयी पुरानी किताबें ही मिलती थी।
नई श्रेणी में जाने पर लेखक क्या महसूस करते हैं और क्यों?नयी श्रेणी में जाने पर लेखक को हैडमास्टर जी एक अमीर घर के बच्चे की पुरानी किताबें लाकर देते थे। परन्तु इन नयी कापियों और पुरानी किताबों आती विशेष गंध से लेखक का बालमन उदास कर जाती थीं क्योंकि नयी श्रेणी का मतलब और कठिन पढाई और नए मास्टरों से पिटाई का भय होता था। पुराने मास्टरों की भी अपेक्षाएं बढ़ जाती थी।
नयी श्रेणी में जाने और नयी कापियों और पुरानी किताबों से आती विशेष गंध से लेखक का बालमन क्यों उदास हो उठता?Solution : लेखक के परिवार की अर्थिक स्तिथि ठीक नहीं थी इसलिए वह नई कापियों और किताबों की जगह हेडमास्टर द्वारा प्रबंध की गयी पुरानी किताबें ही लेते थे। बच्चे होने के कारण उनका भी मन अन्य बच्चों की तरह नई पुस्तकें लेने का करता था परंतु ना मिलने के कारण उनका मन उदास हो जाता था।
लेखक बचपन में पुरानी किताबों को देख कर क्यों उदास हो जाते थे?Solution : लेखक का मन पुरानी किताबों में से आती विशेष गन्ध से उदास हो जाता था क्योंकि उसे वह बिल्कुल पसन्द नहीं थी। लेखक अन्य विद्यार्थियों की तरह नई किताबों से पढ़ना चाहता था, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर थी जिस कारण वह नई किताबें नहीं खरीद पाता और उसे पुरानी किताबों से पढ़ना पड़ता।
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