Gujarat Board GSEB Std 10 Hindi Textbook Solutions Kshitij Chapter 2 राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Textbook Exercise Important Questions and Answers, Notes Pdf. GSEB Class 10 Hindi Solutions राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Textbook Questions and
Answers प्रश्न-अभ्यास अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न
12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. सविस्तार उत्तर दीजिए प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. भाव स्पष्ट कीजिए प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न
3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. सविस्तार उत्तर दीजिए – प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. ऋषि द्वारा मना कर दिए जाने पर सहस्रबाहु ने बलपूर्वक कामधेनु का अपहरण किया। इस पर क्रोधित हो परशुराम ने सहस्रबाहु का वध कर दिया । ऋषि ने परशुराम के इस कार्य की निंदा की और उनसे प्रायश्चित करने को कहा। उधर सहस्रबाहु के पुत्रों ने क्रोध में आकर ऋषि जमदग्नि की हत्या कर डाली। इस पर पुन:क्रोधित होकर परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रियविहीन करने की प्रतिज्ञा की । क्षत्रियों को अनेक बार हटाकर पृथ्वी को अनेक बार ब्राह्मणों को दान में दिया । प्रश्न 4. प्रश्न 5. उनके काव्य में गेयता है जिससे वाचक इसे गाकर भाव-विभोर हो उठता है। शब्दों का नाद- .. सौंदर्य इतना सुखद है कि वह पाठक को मंत्रमुग्ध कर देता है। काव्य में लोक जीवन से जुड़ी हुई लोकोक्तियों, मुहावरों के प्रयोग से सजीवता आ गई है, जिससे पूरा काव्य प्रवाहमय हो गया है। तुलसी की कविता में अलंकार बिखरे पड़े हैं जो काव्य सौंदर्य में अभिवृद्धि करते हैं। रस की दृष्टि से यहाँ सर्वत्र वीर रस की अभिव्यक्ति हुई है। तुलसी ने इस अंश में दोहा-चौपाई जैसे सरल तथा बहुप्रचलित छंदों के उपयोग द्वारा काव्य को अधिक लोकभोग्य बनाया है। इसे आसानी से लयबद्ध गाया जा सकता है। भाषा भाव की अनुगामिनी बनकर आई है। बोलचाल के सरल शब्दों के साथ-साथ संस्कृत के तत्सम शब्दों का उपयोग उसकी छटा को द्विगुणित कर देता है। प्रश्न 6. ख. कोटि कुलिस सम बचन तुम्हारा । ग. तुम्ह तो कालु हांक जनु लावा । घ. लखन उतर आहुति सरसि भृगुबर कोषु कृसानु । ङ. अयमय खांड़ न ऊखमय अजहु न बूझ-अबूझ । प्रश्न 7. प्रश्न 8. क्रोध के पक्ष में दिए जा सकनेवाले तर्क :
क्रोध के विपक्ष में दिए जा सकनेवाले तर्क :
राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Summary in Hindiकवि-परिचय : तुलसीदास का जन्म उत्तरप्रदेश के बांदा जिले के राजापुर गाँव में संवत 1589 (सन् 1532) में हुआ था। कुछ विद्वान उनका जन्म स्थान सोरों (जिला – एटा, उ.प्र.) भी मानते हैं। कहा जाता है कि अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उन्हें बचपन में ही माता पिता के बिछोह को भोगना पड़ा। उनका बचपन अत्यंत संघर्षों में बीता। गुरु नरहरिदास के यहाँ उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। किंवदंती के अनुसार अपनी पत्नी रत्नावली की फटकार ने उन्हें ईश्वर भक्ति की ओर उन्मुख किया। मानवीय मूल्यों के उपासक इस समर्थ कवि को गुरुकृपा से रामभक्ति का मार्ग मिला। संवत् 1960 में काशी में अस्सी घाट पर गंगा के तट पर उनका निधन हुआ। कविता-परिचय : रामभक्ति परंपरा में तुलसीदास अनन्य हैं। रामचरितमानस कवि की अनन्य रामभक्ति तथा सृजन कौशल का अनुपम उदाहरण है। तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, मानवीय आदर्शों के प्रतीक हैं। उनके माध्यम से तुलसी ने मानवीय संबंधों के आदर्श रूपों का चित्रण किया है। तुलसी के राम दशरथसुत होने के साथ ही अवतारी ईश्वर भी हैं, जिनके माध्यम से तुलसी ने शील, स्नेह, विनय, त्याग, नीति जैसे उदात्त आदर्शों को प्रतिष्ठित किया । ईश्वर होने के साथ-साथ वे सामान्य मानवीय सुख-दुःख से प्रभावित होनेवाले आम इंसान भी हैं। ‘रामचरित मानस’ भारतीय जनमानस में अत्यधिक लोकप्रिय है। तुलसीदास ने ‘नाना पुराण निगमागम’ के सार को ‘रघुनाथ गाथा’ में प्रस्तुत किया है। रामचरित मानस के अलावा कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्ण गीतावली तथा विनय पत्रिका आदि इनके अन्य प्रमुख ग्रंथ है। तुलसीदास ने ब्रज तथा अवधी दोनों भाषाओं में साधिकार सृजन किया है। लोक बोली के साथ-साथ संस्कृत तत्सम पदावली का विनियोग इनकी विशिष्टता है। भाषा में मुहावरे तथा लोकोक्तियों का प्रयोग करके उसे जीवंत बनाया गया है। तुलसीदास व्याकरण तथा काव्यशास्त्र दोनों के मर्मज्ञ है। उन्होंने अपने समय में प्रचलित लगभग सभी छंदों का उपयोग किया है। इनमें दोहा-चौपाई, सोरठा, रोला, कवित्त, धनाक्षरी इत्यादि प्रमुख हैं। वे प्रबंध तथा मुक्तक दोनों शैलियों पर अधिकार रखते थे। ‘मानस’ में प्रबंध शैली दोहा-चौहाई छंदों में मुखर उठी है। शब्द की तीनों शक्तियों के सुंदर उदाहरण तथा विविध अलंकारों के अद्भुत उदाहरण उनके यहाँ उपलब्ध हैं। एक तरफ वे शास्त्रवादी हैं तो दूसरी तरफ लोकवादी । जीवन के आदर्शों को अपनी रचनाओं के माध्यम से सशक्त अभिव्यक्ति देनेवाला यह कवि हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। काव्य का सार राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद : अह अंश ‘रामचरित मानस’ के बालकांड से लिया गया है। सीता स्वयंवर के लिए धनुष को भंग करने की शर्त के संदर्भ में ‘राम द्वारा धनुष के तोड़े जाने से क्रोधित परशुरामजी और राम-लक्ष्मण के बीच हुए संवाद का वर्णन है। शिवजी के धनुष के टूटने का समाचार पाकर परशुरामजी स्वयंवर स्थल पर पहुंचते हैं और धनुष-भंग करनेवाले को ललकारने लगते हैं। परशुराम का क्रोध शांत करने के उद्देश्य से राम कहते हैं कि धनुष को तोड़नेवाला अवश्य कोई आपका सेवक ही होगा। यह सुनकर परशुराम सेवक-शत्रु को परिभाषित करते हुए राज समाज के सम्मुख चेतावनी देते हैं कि धनुष तोड़ने वाला अलग हो जाए अन्यथा उसके कारण समस्त राजागण भी मारे जाएगे। मुनि को धमकी की अवमानना करते हुए लक्ष्मण अपने व्यंग्य वचनों से उन्हें और उकसा देते हैं। यहाँ परशुराम अपना परिचय बाल ब्रह्मचारी, क्षत्रियों का नाश करनेवाले के रूप में देते हैं। अपनी परंपरा का हवाला देते हुए लक्ष्मण स्वयं परशुराम को न मारने का कारण बतलाते हैं। परशुराम लक्ष्मण को भयभीत करने के लिए बार-बार अपने फरसे की ओर इशारा करते हैं। परशुराम मुनि विश्वामित्र से लक्ष्मण की शिकायत करते हैं, तब विश्वामित्र परशुराम को समझाते हैं कि ऋषि-मुनि बच्चों के दोषों पर ध्यान नहीं देते। गुरुऋण चुकाने के संदर्भ में लक्ष्मण द्वारा कहे गए वचनों से क्रुद्ध हो परशुराम ने लक्ष्मण को मारने के लिए अपना फरसा उठा लिया, जिससे सभा में हाहाकार मच गया। यह देख श्रीराम मुनि परशुराम का क्रोधाग्नि को शांत करने के लिए शीतल जल के समान मधुर वचन बोलते हैं। संवाद के तीन पात्रों – परशुराम, लक्ष्मण तथा राम में मुख्य संवाद तो परशुराम-लक्ष्मण के बीच होता है जो कथा को गति देता है। संवाद के आरंभ में परशुराम के कथन का उत्तर राम अपनी धीर-गंभीर मुद्रा में देते हैं और अंत में भी क्रोध से जल रहे परशुराम को शांत करने के लिए शीतल वाणी बोलते हैं। लक्ष्मण कभी मुनि को तर्कसंगत उत्तर देकर तुष्ट करने का प्रयास करते प्रतीत होते हैं तो कभी अपने व्यंग्य वचनों से उन्हें और अधिक विचलित करते हुए। विश्वामित्र का संवाद में प्रवेश परशुराम द्वारा उनसे लक्ष्मण की शिकायत करने के साथ होकर वहीं पूर्ण ही हो गया है। कुल मिलाकर यह अंश संवाद शैली का एक उत्तम नमूना है। नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ॥ भावार्थ: धनुष-भंग के पश्चात् पधारे श्री पशुरामजी को क्रोधित देखकर श्रीराम उनसे विनयपूर्वक कहते हैं- “हे नाथ ! शिवजी के धनुष को तोड़नेवाला आपका ही कोई एक दास होगा। क्या आज्ञा है ? आप मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोधी परशुरामजी गुस्से में बोले – “सेवक वह है जो सेवा का काम करे । शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्त्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। वह समाज को छोड़कर अलग हो जाए, अन्यथा सभी राजागण मारे जाएंगे। मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले-हे गोसाई ! लड़कपन में हमने बहुत-सी धनुहिया तोड़ डाली, किंतु आपने कभी भी ऐसा क्रोध नहीं किया। इसी धनुष पर आपको इतनी ममता क्यों है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा के स्वरूप परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे- “अरे राजपुत्र ! काल (मृत्यु) के वश होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार भर में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?” लखन कहा हसि हमरे जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ॥ भावार्थ : लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- ‘हे देव ! सुनिए, मेरी समझ में तो सभी धनुष एक समान ही हैं। इस पुराने धनुष के तोड़ने में क्या लाभ या हानि । श्री रामचंद्रजी ने तो इसे नए के भ्रम से देखा था। फिर भी यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथ (श्रीराम)जी का कोई दोष नहीं है। हे मुनि। आप अकारण ही क्रोध किस लिए कर रहे है ?’ परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट । तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना है। मैं तुझे बालक जानकर नहीं मार रहा हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे मात्र निरा मुनि ही जानता है। मैं बाल ब्रह्मचारी और अत्यंत क्रोधी हूँ। मैं विश्व भर में क्षत्रिय वंश के शत्रु के रूप में विख्यात हूँ। अपनी भुजाओं की शक्ति से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार ब्राह्मणों को दे डाला, हे राजकुमार ! सहस्त्रबाहु की हजार भुजाओं को काटनेवाले मेरे इस फरसे को देख ! अरे राजा के किशोर ! तू अपने माता-पिता के सोच का कारण मत बन । मेरा फरसा बहुत भयानक है। यह गर्मों में स्थित शिशुओं का भी नाश करने वाला अत्यंत कठोर है। बिहसि लखनु बोले मृदु बानी । अहो मुनीसु महाभट मानी ॥ भावार्थ : लक्ष्मणजी हँसकर मृदुवाणी बोले- अहो, मुनीश्वर आप तो अपने को बहुत बड़ा योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखा रहे हैं। आप फूंक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं। यहां कोई कुम्हड़े की बतिया (नया छोटा-कच्चा फल) नहीं हैं, जो तर्जनी उँगली के संकेत मात्र से मर जाती है। आपके कुठार और धनुष बाण को देखकर ही मैंने कुछ अभिमान सहित कहा था। भृगुवंशी समझकर और यत्रोपवीत (जनेऊ) देखकर ही तो आप जो कुछ कह रहे हैं, उसे मैं क्रोध रोककर सह ले रहा हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गाय – इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती, क्योंकि इनको मारने से पाप लगता है और इनसे पराजित हो जाने पर अपकीर्ति होती है। इसलिए आप यदि मारें तो भी मुझे आपके पैर ही पड़ना चाहिए। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वजों के समान है। धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण किए हुए हैं। इन्हें (धनुष-बाण और कुठार) देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो तो हे धौर महामुनि ! उसे क्षमा कीजिए । यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी कोध के साथ गंभीर वाणी बोले – कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु । कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥ भावार्थ: (परशुरामजी विश्वामित्र से बोले) हे विश्वामित्र ! सुनो यह बालक बहुत दुर्बुद्धिवाला और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंशरूपी पूर्णचंद्र का कलंक है। यह एकदम उदंड, मूर्ख और बेखौफ है। अभी क्षणभर में ही यह काल का ग्रास (कौर) हो जाएगा। मैं पुकार कर कहे देता हूँ, बाद में मेरा दोष नहीं । यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारे प्रताप, क्रोध और बल के बारे में बतलाकर इसे रोक लो। लक्ष्मणजी ने कहा – हे मुनि ! आपके होते हुए (रहते) आपका सुयश दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आपने स्वयं स्वमुख से अपनी करनी का वर्णन अनेकों बार नाना रीतियों से किया है। इतने पर भी यदि संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। अपना क्रोध रोककर असहा दुःख मत सहन कीजिए। आप वीरता का व्रत धारण करनेवाले, धैर्यवान और क्षोभरहित हैं। गाली देते आप शोभा नहीं पाते। शूरवीर तो युद्ध में अपना वीर-कर्म करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते । रणभूमि में शत्रु को उपस्थित देखकर कायर ही अपने प्रताप का प्रलाप किया करते हैं। तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार बार मोहि लागि बोलावा ॥ भावार्थ : (लक्ष्मणजी आगे कहते हैं – आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिए बुला रहे हैं। “लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही” परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को ठीक करते हुए हाथ में ले लिया। (परशरामजी बोले- अब लोग मुझे दोष न दें। यह कटु वचन बोलनेवाला बालक मारे जाने के ही लायक है। इसे बालक मानकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह वास्तव में मरने को ही उतारु है। विश्वामित्र ने कहा – (हे मुनि !) अपराध क्षमा कीजिए । बालक गुण और दोष को साधुजन ध्यान में नहीं रखते । (परशुरामजी बोले – तीखी धारवाला कुठार, मैं दयाहीन और क्रोधी और यह गुरुद्रोही तथा अपराधी मेरे सामने उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा है. इसलिए हे विश्वामित्र । मात्र तुम्हारे शील से । अन्यथा तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही श्रम से गुरु के ऋण से मुक्ति पा जाता। विश्वामित्रजी ने हृदय में हँसकर कहा – मुनि को सर्वत्र हरा-ही-हरा लग रहा है (सर्वत्र विजयी होने के कारण श्रीराम – लक्ष्मण को ये सामान्य क्षत्रिय मान रहे हैं) किन्तु ये फौलाद से बनी खाड़ा-तलवारे हैं कोई ईख से बनी खाँड़ नहीं (जो मुंह में रखते गल जाएँ।) मुनि अब भी ना समझ बने हुए हैं; इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं। कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा । को नहि जान बिदित संसारा ॥ भावार्थ: लक्ष्मण ने कहा – हे मुनि ! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह तो संसार भर में प्रसिद्ध है। आप अपने माता-पिता से तो अच्छी तरह उत्रण हो ही गए, अब रहा गुरु का ऋण, जिसको लेकर आपके मन में बड़ी चिंता हैं। वह मानो हमारे ही मत्थै लिया था। बहुत दिन बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत चढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करनेवाले को बुला लाइए तो मैं तुरंत थैली खोलकर चुका हूँ। लक्ष्मणजी के व्यंग्यपूर्ण कठोर वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार संभाला। पूरी सभा हाय-तौबा करके पुकार उठी । (लक्ष्मणजी ने आगे कहाहे भृगुत्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु ! मैं आपको ब्राह्मण मानकर बचा रहा हूँ। आपको कभी रणधीर बलवान वीर नहीं मिले । हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बड़े हैं। यह सुनकर सब लोग ‘अनुचित है, अनुचित है’ कहकर पुकार उठे । तब श्री रघुनाथ ने आँख इशारे लक्ष्मणजी को रोक दिया। लक्ष्मणजी के उत्तर से आहुति समान बने परशुरामजी के क्रोधरूपी अग्नि को बढ़ते देखकर रघुवंश के सूर्य श्री रामचंद्राणी जल के समान शीतल (आग को ठंडा करनेवाले) वचन बोले। शब्दार्थ-टिप्पण :
लक्ष्मण ने परशुराम द्वारा धनुष वाण और कुठार धारण करना व्यर्थ क्यों बताया?Answer: धनुष-बाण और कुठार तो आपके लिए व्यर्थ हैं। व्याख्यात्मक हल: लक्ष्मण ने कहा कि देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गाय-इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती है। क्योंकि इन्हें मारने पर पाप लगता है और इनसे हारने पर अपयश होता है।
लक्ष्मण ने परशुराम को धनुष टूटने के कौन कौन से कारण बताए?उत्तर: परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कई तर्क दिए। उन्होंने कहा कि वह तो बड़ा ही पुराना धनुष था जो श्रीराम के छूने से ही टूट गया। उन्होंने कहा कि बचपन में खेल खेल में उन्होंने कई धनुष तोड़े थे इसलिए एक टूटे धनुष के लिए इतना क्रोध करना उचित नहीं है।
लक्ष्मण ने परशुराम से किस प्रकार क्षमा याचना की और क्यों?लक्ष्मण ने परशुराम से किस प्रकार क्षमा-याचना की और क्यों ? उत्तर: परशुराम को भृगुवंशी और ब्राह्मण जानकर क्षमा-याचना थी। आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिए। धनुष-बाण और कुठार तो आपके लिए व्यर्थ हैं।
लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन कौन से तर्क दिए?परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन-कौन से तर्क दिए? धनुष पुराना तथा अत्यंत जीर्ण था। राम ने इसे नया समझकर हाथ लगाया था, पर कमजोर होने के कारण यह छूते ही टूट गया। मेरी (लक्ष्मण की) दृष्टि में सभी धनुष एक समान हैं।
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