कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–10)

February 15, 2015, 4:20 am

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स्वस्थ राजनीति के प्रतीकपुरुष कृष्ण—(प्रवचन—दसवां)

 दिनांक 30 सितंबर, 1970;

प्रात:, मनाली (कुलू)

 “भगवान श्रीकृष्ण आध्यात्मिक पुरुष थे। साथ-ही-साथ उन्होंने राजनीति में भी भाग लिया। और राजनीतिज्ञ के रूप में जो उन्होंने महाभारत के युद्ध में किया वह यह: भीष्म के आगे शिखंडी को खड़ा करके उन्हें धोखे से मरवाया। द्रोण को, “अश्वत्थामा मारा गया’, ऐसा झूठ बुलवाकर मरवाया। कर्ण को, जब रथ का पहिया फंस गया, तब उस निहत्थे को मरवाया। दुर्योधन को उसकी जंघा पर गदा-प्रहार करवाकर मरवाया। तो क्या धार्मिक व्यक्ति राजनीति में आएगा? और अगर आएगा, तो राजनीति में यह चाल और यह छल-कपट खेलेगा? और क्या इससे जीवन में हम भी यही सीखें कि अपनी विजय के लिए इस प्रकार के कार्य, जो धोखे से भरे हुए हों, करें? महात्मा गांधी ने जो साध्य की शुद्धता के साथ-साथ साधन की शुद्धता पर भी बल दिया, वह निरर्थक था? क्या राजनीति में इसकी कोई आवश्यकता नहीं?’

धर्म और अध्यात्म का थोड़ा-सा भेद सबसे पहले समझना चाहिए। धर्म और अध्यात्म एक ही बात नहीं। धर्म जीवन की एक दिशा है। जैसे राजनीति एक दिशा है, कला एक दिशा है, विज्ञान एक दिशा है, ऐसे धर्म जीवन की एक दिशा है। अध्यात्म पूरा जीवन है। अध्यात्म जीवन की दिशा नहीं है, समग्र जीवन अध्यात्म है।

तो हो सकता है कि धार्मिक व्यक्ति राजनीति में जाने से डरे, आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं डरेगा। धार्मिक व्यक्ति के लिए राजनीति कठिन पड़े, क्योंकि धार्मिक व्यक्ति ने कुछ धारणाएं ग्रहण की हैं जो कि राजनीति में विपरीत हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति किसी तरह की धारणाएं ग्रहण नहीं करता, समग्र जीवन को स्वीकार करता है, जैसा है।

कृष्ण धार्मिक व्यक्ति नहीं, आध्यात्मिक व्यक्ति हैं। महावीर धार्मिक व्यक्ति हैं इस अर्थ में, बुद्ध धार्मिक व्यक्ति हैं इस अर्थ में कि उन्होंने जीवन की एक दिशा को चुना है। उस दिशा के लिए उन्होंने जीवन की अन्य सारी दिशाओं को कुर्बान कर दिया है। उन सबको उन्होंने काट कर अलग कर दिया है। कृष्ण आध्यात्मिक व्यक्ति हैं इस अर्थ में कि उन्होंने पूरे जीवन को चुना है। इसलिए कृष्ण को राजनीति डरा नहीं सकती। कृष्ण को राजनीति में खड़े होने में जरा भी संकोच नहीं है, कोई कारण नहीं है। राजनीति भी जीवन का हिस्सा है। और समझना जरूरी है कि जो लोग धर्म के नाम पर राजनीति को छोड़कर हट गए हैं, उन्होंने राजनीति को ज्यादा अधार्मिक बनाने में सहायता दी है, राजनीति को धार्मिक बनाने में सहायता नहीं दी।

इसलिए पहली बात तो यह समझनी है कि कृष्ण के लिए जीवन के सब फूल और सब कांटे एकसाथ स्वीकृत हैं। जीवन में उनका कोई चुनाव नहीं है, “च्वॉइसलेस’, जीवन को उन्होंने बिना चुनाव के स्वीकार कर लिया है, जीवन जैसा है। फूल को वह नहीं चुनते हैं, कांटे को भी गुलाब का यह जो फूल है, कांटा इसका दुश्मन है। दुश्मन नहीं है। गुलाब के फूल की रक्षा के लिए ही कांटा है। दोनों गहरे में जुड़े हैं। दोनों एक ही से संयुक्त हैं। दोनों की एक ही जड़ है और दोनों का एक ही प्रयोजन है। कांटे को काटकर गुलाब को बचा लेने की बहुत लोगों की इच्छा होगी, लेकिन कांटा गुलाब का हिस्सा है, यह उन्हें समझना होगा। तब फिर कांटा और गुलाब दोनों को साथ ही बचाना है।

तो कृष्ण राजनीति को सहज ही स्वीकार करते हैं। वे उसमें खड़े हो जाते हैं, उसकी उन्हें कोई कठिनाई नहीं है।

दूसरा जो सवाल उठाया है, वह और भी सोचने जैसा है। वह सोचने जैसा है कि कृष्ण ऐसे साधनों का उपयोग करते हैं, जो कि उचित नहीं कहे जा सकते। ऐसे साधनों का उपयोग करते हैं, जिनका औचित्य कोई भी सिद्ध नहीं कर सकेगा। झूठ का, छल का, कपट का उपयोग करते हैं। लेकिन एक बात इसमें समझेंगे तो बहुत आसानी हो जाएगी। जिंदगी में शुभ और अशुभ के बीच कभी भी चुनाव नहीं है, सिवाय सिद्धांतों को छोड़कर। जिंदगी में “गुड’ और “बैड’ के बीच कोई चुनाव नहीं है, सिवाय सिद्धांतों को छोड़कर। जिंदगी में सब चुनाव कम बुराई, ज्यादा बुराई के बीच हैं। जिंदगी के सब चुनाव “रिलेटिव’ हैं। सवाल यह नहीं है कि कृष्ण ने जो किया वह बुरा था, सवाल यह है कि अगर वह न करते तो क्या उससे भला घटित होता कि और भी बुरा घटित होता? चुनाव अच्छे और बुरे के बीच होते तब तो मामला बहुत आसान था। चुनाव अच्छे और बुरे के बीच नहीं है, चुनाव सदा “लेसर इविल’ और “ग्रेटर इविल’ के बीच है। पूरी जिंदगी ऐसी है।

मैंने सुनी है एक घटना। एक चर्च का पादरी एक रास्ते से गुजर रहा है। जोर से आवाज आती है कि बचाओ, बचाओ, मैं मर जाऊंगा। अंधेरा है, गलियारा है। वह पादरी भागा हुआ भीतर पहुंचता है। देखता है वहां कि एक बहुत कमजोर आदमी के ऊपर एक बहुत मजबूत आदमी छाती पर चढ़ा बैठा है। वह उसको चिल्लाकर कहता है कि हट, उस गरीब आदमी को क्यों दबा रहा है? लेकिन वह हटता नहीं, तो वह उस पर टूट पड़ता है पादरी, और उस मजबूत आदमी को नीचे गिरा देता है। वह जो नीचे आदमी है, वह ऊपर निकल आता है। भाग खड़ा होता है। तब वह ताकतवर आदमी उससे कहता है कि तुम आदमी कैसे हो? उस आदमी ने मेरा जेब काट लिया था और वह जेब काटकर भाग गया। वह पादरी कहता है, तूने यह पहले क्यों न कहा, मैं तो यह समझा कि तू ताकतवर है और कमजोर को दबाए हुए है; मैं समझा कि तू उसको मार रहा है! यह तो भूल हो गई। यह तो शुभ करते अशुभ हो गया। लेकिन वह आदमी तो उसकी जेब लेकर नदारद ही हो चुका था।

जिंदगी में जब हम शुभ करने जाते हैं, तब भी देखना जरूरी है कि अशुभ तो न हो जाएगा? इससे उल्टा भी देखना जरूरी है कि कुछ अशुभ करने से शुभ तो नहीं हो जाएगा? कृष्ण के सामने जो चुनाव है, वह बुरे और अच्छे के बीच नहीं है। कृष्ण के सामने जो चुनाव है वह कम बुरे और ज्यादा बुरे के बीच है। और कृष्ण ने जिन-जिन छल-कपट का उपयोग किया, उनसे बहुत ज्यादा छल-कपट का उपयोग सामने का पक्ष कर रहा था और कर सकता था। और उस सामने के पक्ष से लड़ने के लिए गांधीजी काम न पड़ते। वह सामने का पक्ष गांधीजी को मिट्टी में मिला देता। सामने का पक्ष साधारण बुरा नहीं था, असाधारण रूप से बुरा था। उस असाधारण रूप से बुरे के सामने भले की कोई जीत की संभावना न थी। गांधी जी को भी अगर हिंदुस्तान में हुकूमत हिटलर की मिलती तो पता चलता! हिंदुस्तान में हुकूमत हिटलर की नहीं थी, एक बहुत उदार कौम की थी। और उस कौम में भी अगर चर्चिल हुकूमत में रहता तो आजादी मिलनी बहुत मुश्किल बात थी। उसमें भी एटली का हुकूमत में आना बुनियादी फर्क पड़ गया।

गांधीजी जिस साधन-शुद्धि की बात करते हैं, वह थोड़ी समझने जैसी है। उचित ही है बात कि शुद्ध साधन के बिना शुद्ध साध्य कैसे पाया जा सकता है। लेकिन इस जगत में न तो कोई शुद्ध साध्य होता है, और न कोई शुद्ध साधन होते हैं। यहां कम अशुद्ध, ज्यादा अशुद्ध, ऐसी ही स्थितियां हैं। यहां पूर्ण स्वस्थ पूर्ण बीमार आदमी नहीं होते, कम बीमार और ज्यादा बीमार आदमी होते हैं। जिंदगी में सफेद और काला, ऐसा नहीं है, “ग्रे कलर’ है जिंदगी का। उसमें सफेद और काला सब मिश्रित है। इसलिए गांधी जैसे लोग कई अर्थों में “उटोपियन’ हैं। कृष्ण बहुत ही जीवन के सीधे-साफ निकट हैं। “उटोपिया’ कृष्ण के मन में नहीं है। जिंदगी जैसी है उसको वैसा स्वीकार करके काम करने की बात है। और फिर, जिन्हें गांधीजी शुद्ध साधन कहते हैं, वे भी शुद्ध कहां हैं? हो नहीं सकते। इस जगत में–हां, मोक्ष में कहीं हो सकते होंगे शुद्ध साधन और शुद्ध साध्य–इस जगत में सभी कुछ मिट्टी से मिला-जुला है। इस जगत में सोना भी है तो मिट्टी मिलनी हुई है। इस जगत में हीरा भी है तो वह पत्थर का ही हिस्सा है। गांधीजी जिसे शुद्ध साधन समझते हैं, वह भी शुद्ध है नहीं। जैसे गांधी जी कहते हैं कि अनशन। उसे वह शुद्ध साधन कहते हैं। मैं नहीं कह सकता। कृष्ण भी नहीं कहेंगे। क्योंकि दूसरे आदमी को मारने की धमकी देना अशुद्ध है, तो स्वयं के मर जाने की धमकी देना शुद्ध कैसे हो सकता है? मैं आपकी छाती पर छुरा रख दूं और कहूं कि मेरी बात नहीं मानेंगे तो मार डालूंगा, यह अशुद्ध है। और मैं अपनी छाती पर छुरा रख लूं और कहूं कि मेरी बात नहीं मानेंगे तो मैं मर जाऊंगा, यह शुद्ध हो जाएगा? छुरे की सिर्फ दिशा बदलने से शुद्धि हो जाती है? यह भी उतना ही अशुद्ध है। और एक अर्थ में पहले वाले मामले से यह ज्यादा नाजुक रूप से अशुद्ध है। क्योंकि पहली बात में आदमी कह सकता है कि ठीक है, मार डालो, नहीं मानेंगे। उसको एक मौका है। एक “मॉरल अपर्चूंनिटी’ है। वह मर तो सकता है न! लेकिन दूसरे मौके में आप उसे बहुत कमजोर कर जाते हैं। आपको मारने की जिम्मेदारी शायद वह न भी लेना चाहे।

अंबेदकर के खिलाफ गांधीजी ने अनशन किया। अंबेदकर झुके बाद में। इसलिए नहीं कि गांधीजी की बात सही थी, बल्कि इसलिए कि गांधीजी को मारना उतनी-सी बात के लिए उचित न था। इतनी हिंसा अंबेदकर लेने को राजी न हुआ। बाद में अंबेदकर ने कहा कि गांधी जी अगर समझते हों कि मेरा हृदय-परिवर्तन हो गया तो गलत समझते हैं, मेरी बात तो ठीक और गांधीजी की बात गलत है। और अब भी मैं अपनी बात पर टिका हूं। लेकिन इतनी-सी जिद्द के पीछे गांधीजी को मारने की हिंसा मैं अपने ऊपर न लेना चाहूंगा। अब सोचना जरूरी है कि शुद्ध साधन अंबेदकर का हुआ कि गांधी का हुआ! इसमें अहिंसक कौन है? मैं मानता हूं, अंबेदकर ने ज्यादा अहिंसा दिखलाई। गांधीजी ने पूरी हिंसा की। वह आखिरी दम तक लगे रहे जब तक अंबेदकर राजी नहीं होते, तब तक तो मैं मरने की तैयारी रखूंगा।

इस पृथ्वी पर या तो दूसरे को धमकी दो, या खुद को मारने की धमकी दो। जब हम दूसरे को मारने की धमकी देते हैं, तब हम कम-से-कम उसे एक मौका तो देते हैं कि वह शान के साथ मर जाए और कह दे तुम गलत हो और मैं मरने को राजी हूं। लेकिन अगर हम खुद को मारने की धमकी देते हैं तब हम उसे शान से मरने का मौका भी नहीं देते। वह दोनों हालत में दिक्कत में पड़ जाता है। या तो वह कहे कि गलत है और झुके, या वह कहे कि वह सही है और आपकी हत्या का बोझ ले। हम उसे हर हालत में अपराधी करार करवा देते हैं। गांधीजी के साधन शुद्ध नहीं हैं। दिखाई शुद्ध पड़ते हैं। और मैं कहता हूं कि कृष्ण ने जो भी किया वह शुद्ध है। तुलनात्मक अर्थों में, “रिलेटिव’ अर्थों में, सापेक्ष अर्थों में, जिनसे वे लड़ रहे थे उनके सामने जो कृष्ण ने किया, उसके अतिरिक्त और कुछ करने का उपाय न था।

“वे शस्त्रों से नहीं मार सकते थे उन्हें, स्वयं?’

शस्त्रों से ही मार रहे हैं। लेकिन युद्ध में छल और कपट शस्त्र हैं। और जब सामने वाला दुश्मन उनका पूरा उपयोग करने की तैयारी रखता हो, तो अपने को कटवा देना सिवाय नासमझी के और कुछ भी नहीं है। कृष्ण सामने किसी भले आदमी को धोखा नहीं दे रहे हैं। कृष्ण किसी महात्मा को धोखा नहीं दे रहे हैं। और जिनका गैर-महात्मापन हजार तरह से जांचा जा चुका है, उनके साथ ही वह यह व्यवहार कर रहे हैं। और कृष्ण ने सारे उपाय कर लिए थे युद्ध के पहले कि ये लोग राजी हो जाएं, यह युद्ध न हो। इस सब उपाय के बावजूद, कोई मार्ग न छूटने पर यह युद्ध हुआ है। और जिन्होंने सब तरह की बेईमानियां की हों, जिनकी पूरी-की-पूरी कथा बेईमानियों और धोखे और चालबाजी की हों, उनके साथ कृष्ण अगर भलेपन का उपयोग करें, तो मैं मानता हूं कि महाभारत के परिणाम दूसरे हुए होते। उसमें कौरव जीते होते और पांडव हारे होते। और मजे की तो बात यह है इससे बड़ी, कि हम कहते तो यही हैं कि “सत्यमेव जयते’, सत्य जीतता है, लेकिन इतिहास कुछ और कहता है। इतिहास तो जो जीत जाता है, उसी को सत्य कहने लगता है। अगर कौरव जीत गए होते, तो पंडित कौरवों की कथा लिखने के लिए राजी हो गए होते, और हमें पता भी नहीं चलता कि कभी पांडव भी थे और कभी कृष्ण भी थे! कथा बिलकुल और होती।

कृष्ण ने जो किया, वह मैं मानता हूं कि सामने जो था उसको देखते हुए जो किया जा सकता था, “एक्चुअलिटी’ के भीतर, वास्तविकता के भीतर जो किया जा सकता था, वही किया। साधन-शुद्धि की सारी बातें आकाश में संभव हैं। पृथ्वी पर कैसे भी साधन का उपयोग किया जाए, वह थोड़ा न बहुत अशुद्ध होगा। अगर साधन पूरे शुद्ध हो जाएं, तो साध्य बन जाएगा। साध्य तक जाने की जरूरत न रह जाएगी। अगर साधन पूरा शुद्ध है तो साध्य और साधन में फर्क ही नहीं रह जाएगा, वे एक ही हो जाएंगे। साधन और साध्य का फर्क ही इसलिए है कि साधन अशुद्ध है और साध्य शुद्ध है। और इसलिए अशुद्ध साधन से कभी शुद्ध साध्य पूरी तरह मिलता नहीं, यह भी सच है। साध्य मिलते ही कब हैं पृथ्वी पर! सिर्फ आकांक्षा होती है पाने की, मिलते तो कभी नहीं हैं। गांधीजी भी यह कहकर नहीं मर सकते हैं कि मैं पूरा अहिंसक होकर मर रहा हूं और गांधीजी यह भी नहीं कहकर मर सकते हैं कि मैं पूरे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होकर मर रहा हूं और न यह कह सकते हैं कि मैंने सत्य को पा लिया है और मर रहा हूं। सत्य के प्रयोग करते ही मरते हैं।

शुद्ध अगर साधन थे तो साध्य मिल क्यों नहीं गया? बाधा क्या रह गई है? अगर साधन शुद्ध है तो साध्य मिल ही जाना चाहिए, बाधा क्या है? नहीं, साधन शुद्ध हो नहीं सकते। स्थितियां करीब-करीब ऐसी हैं जैसे हम पानी में लकड़ी को डालें तो वह तिरछी हो जाए। अब पानी में लकड़ी को सीधा ही बनाए रखने का कोई उपाय नहीं है। लकड़ी तिरछी होती नहीं, तिरछी दिखाई पड़ने लगती है। वह पानी का जो “मीडियम’ है, वह लकड़ी को तिरछा कर जाता है। पानी के बाहर ही लकड़ी सीधी हो पाती है, पानी के भीतर डाली कि तिरछी हो जाती है।

इस विराट सापेक्ष के जगत में, “इन दिस रिलेटिव वर्ल्ड’, जहां सब चीजें तुलना में हैं, वहां सब चीजें तिरछी हो जाती हैं। इसलिए सवाल यह नहीं है कि हम सीधे हों, सवाल यह है कि कम-से-कम तिरछे हों। और कृष्ण मुझे मालूम पड़ता है, कम-से-कम तिरछे आदमी हों, सवाल यह है कि हम कम-से-कम तिरछे आदमी हैं। और यह बड़े मजे की बात है कि ऊपर से देखने पर हमें कुछ और दिखाई पड़ेगा। हमें गांधीजी बहुत सीधे आदमी दिखाई पड़ेंगे, गांधी जी मेरे हिसाब से बहुत तिरछे आदमी हैं। वे कई बार कान को बिलकुल सिर घुमाकर पकड़ते हैं, दूसरी तरफ से पकड़ते हैं, कृष्ण सीधा पकड़ लेते हैं। गांधीजी वही काम करेंगे दूसरे को दबाने का, अपने को दबा कर करेंगे। बड़ी लंबी यात्रा लेंगे। दबाएंगे दूसरे को ही, “कोयरेशन’ जारी रहेगा, लेकिन प्रयोग जो वे करेंगे, वह अपने को दबाकर उसको दबाएंगे। कृष्ण उसको सीधा दबा देंगे! ऐसा गांधी सीधे-साफ मालूम पड़ेंगे। मैं मानता हूं, बहुत तिरछा व्यक्तित्व है। बहुत जटिल, बहुत “कांप्लेक्स’ व्यक्तित्व है। लेकिन हमें आमतौर से खयाल में नहीं आता, क्योंकि चीजें हम जैसी पकड़ लेते हैं वैसे माने चले जाते हैं।

“भगवान श्री, कृष्ण के जमाने में एक पौंड्रक नामक राजा था, जो साक्षात कृष्ण को नकली कृष्ण जाहिर कर अपने को असली कृष्ण मानता था और बताता था। बुद्ध, महावीर आदि अवतारों के जीवन में, क्राइस्ट के चरित्र में ऐसी साम्य रखने वाली कुछ घटनाएं घटी हैं?’

हां, घटी है। महावीर के समय गोशालक नाम के व्यक्ति ने घोषणा की कि असली तीर्थंकर मैं हूं। महावीर असली तीर्थंकर नहीं हैं।

और क्राइस्ट के समय में भी घटी, क्योंकि यहूदियों ने सूली ही इसलिए दी कि यह बढ़ई का लड़का नाहक अपने को क्राइस्ट कह रहा है, यह असली क्राइस्ट नहीं है। अभी असली क्राइस्ट पैदा होने वाला है। यहूदी-परंपरा में ऐसा खयाल था कि क्राइस्ट नाम का एक पैगंबर पैदा होने वाला है। बहुत “प्रॉफेट्स’ ने उसकी घोषणा की थी। इजेकियल ने घोषणा की थी, ईसिया ने घोषणा की थी, उन सब पुराने पैगंबरों ने घोषणा की थी कि क्राइस्ट नाम का एक पैगंबर आने वाला है। फिर क्राइस्ट के ठीक जन्म लेने के पहले बपतिस्मा वाले जॉन ने गांव-गांव घूमकर घोषणा की थी कि क्राइस्ट आने वाला है। क्राइस्ट का मतलब, मसीहा। मसीहा आने वाला है, जो सबका उद्धार करेगा। और फिर एक दिन जीसस नाम के इस जवान ने घोषणा कर दी कि मैं वह मसीहा हूं। यहूदियों ने मानने से इनकार कर दिया, कि यह आदमी वह मसीहा नहीं है। इसलिए सूली दी गई। सूली दी गई कि तुम झूठी घोषणा कर रहे हो। तुम मसीहा नहीं हो।

दूसरे व्यक्ति ने ठीक जीसस के सामने दावा नहीं किया। लेकिन बहुत लोगों ने यह दावा किया कि तुम मसीहा नहीं हो, तुम क्राइस्ट नहीं हो। हम तुम्हें क्राइस्ट मानने से इनकार करते हैं। क्यों इनकार किया? क्योंकि वे कहते थे, कुछ लक्षण हैं, जो कि तुम पूरे करो। कुछ चमत्कार हैं, जो तुम दिखाओ। उनमें एक चमत्कार यह भी था कि जब हम तुम्हें सूली लगाएं, तो तुम जिंदा सूली से उतर आओ। तो जीसस के जो भक्त थे, वे मानते थे कि सूली लग जाने के बाद जीसस उतर आएंगे जीवित और चमत्कार घटित हो जाएगा, और फिर लोग मान लेंगे। अब बड़ी मुश्किल है तय करना यह बात, क्योंकि जीसस के भक्त अब भी कहते हैं कि तीन दिन बाद वे देखे गए। लेकिन जिन्होंने देखा वे दो औरतें थीं, दो स्त्रियां थीं, जो जीसस को बहुत प्रेम करती थीं, उन्होंने उन्हें देखा। विरोधी उनके वक्तव्य को मानने को तैयार नहीं हैं। विरोधियों का खयाल है कि वे इतनी प्रेम से भरी थीं कि जीसस उन्हें दिखाई पड़ सकते हैं, और जीसस न हों। लेकिन कोई यहूदी वक्तव्य ऐसा नहीं है कि जीसस उतर आए सूली से और प्रमाण उन्होंने दे दिया, वह प्रमाण नहीं दिया जा सका। इसलिए उस क्राइस्ट की प्रतीक्षा तो यहूदी अभी भी करते हैं, जिसकी घोषणा पैगंबरों ने की है।

लेकिन महावीर के वक्त में तो बहुत ही स्पष्ट गोशालक ने घोषणा की कि मैं असली तीर्थंकर हूं, महावीर असली तीर्थंकर नहीं हैं। गोशालक को भी मानने वाले लोग थे। थोड़ी संख्या न थी, काफी संख्या थी। और यह विवाद लंबा चला कि कौन असली तीर्थंकर है। क्योंकि जैन-परंपरा में घोषणा थी कि चौबीसवां तीर्थंकर आने वाला है। वह अंतिम तीर्थंकर होने को था, तेईस हो चुके थे, और अब एक ही आदमी तीर्थंकर हो सकता था। और न केवल गोशालक ने घोषणा की कि वह चौबीसवां तीर्थंकर है, एक बड़ा वर्ग था जो उसे चौबीसवां तीर्थंकर मानता था।

यह तो था ही, और भी पांच-छः लोग थे जिनको कुछ लोग मानते थे वही असली तीर्थंकर हैं, हालांकि उन्होंने कभी घोषणा नहीं की। मक्खली गोशालक तो स्वयं घोषणा करता था कि वह तीर्थंकर है। लेकिन संजय वेलट्ठीपुत्त, अजित केसकंबल, इनके भी भक्त थे; जो मानते थे कि ये असली तीर्थंकर हैं। ऐसा बुद्ध को जो मानते थे उनका भी खयाल था कि असली तीर्थंकर बुद्ध हैं। और बुद्ध के मानने वालों ने महावीर का बहुत मजाक उड़ाया।

इसकी बहुत संभावना है। सदा संभावना है कि कृष्ण जैसा व्यक्ति जब पैदा हो, या जब समाज ऐसे व्यक्ति की किन्हीं घोषणाओं के आधार पर प्रतीक्षा कर रहा हो, तो कोई और लोग भी दावेदार हो जाएं। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। लेकिन समय तय कर देता है कि दावेदार सही थे कि नहीं थे। सच तो यह है कि जब कोई दावा करता है, तभी वह कह देता है कि वह सही आदमी नहीं है। दावेदारी ही गलत आदमी करता है। कृष्ण को दावा करने की जरूरत नहीं है कि मैं, कृष्ण वह हैं। किसी को दावे की जरूरत पड़ती है, उसका मतलब यह है कि उसके होने से सिद्ध नहीं होता कि वह कृष्ण है, उसे दावा भी करना पड़ता है। उसे खुद ही शक है। असल में हमारी आत्महीनता ही दावा बनती है। अगर कोई आदमी दावा करता है कि मैं महात्मा हूं, तो उसका दावा ही कहता है कि वह महात्मा नहीं होगा। दावेदारी हमेशा उलटी खबर देती है।

लेकिन वह बिलकुल स्वाभाविक है, मानवीय है कि कोई दावा कर सके। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है।

“जीसस ने क्यों दावा किया?’

जीसस ने दावा नहीं किया। जीसस ने दावा नहीं किया कि मैं क्राइस्ट हूं। जीसस ने तो दावे बहुत दूसरे किए हैं। क्राइस्ट होने का दावा नहीं किया। जीसस के दावे वक्तव्यों में नहीं हैं, व्यक्तित्व में हैं। लोगों ने पहचाना कि यह आदमी क्राइस्ट है। दूसरे लोगों ने घोषणा की कि यह आदमी क्राइस्ट है। जिस आदमी का मैंने नाम लिया, जॉन दि बैपटिस्ट–जीसस के पहले बहुत अदभुत संत हुआ–उसने घोषणा कर रखी थी कि क्राइस्ट आने वाला है। और मैं सिर्फ अगुआ हूं जो पहले खबर देने आया हूं। जिस दिन क्राइस्ट आ जाएगा उस दिन मैं विदा हो जाऊंगा। वह नदी के किनारे, जोर्डन नदी के किनारे, नदी में लोगों को दीक्षा देता था। हजारों लोग उससे दीक्षा लेते थे। जीसस भी उससे दीक्षा लेने गए। जीसस ने संत जॉन से दीक्षा ली। जोर्डन नदी में वे खड़े हुए, गले डूबे पानी में जॉन ने दीक्षा दी और कहा कि अब तुम अपना काम सम्हालो, मैं जाता हूं। इस बात से सारे मुल्क में खबर फैल गई कि क्राइस्ट आ गया और जॉन उसी दिन से फिर नहीं देखा गया कि कहां चला गया। फिर उसका कोई पता नहीं चला। उस दिन से जॉन खो गया।

इससे खबर पूरे मुल्क में फैल गई कि वह जो जॉन चिल्ला-चिल्ला कर गांव-गांव में कहता था कि क्राइस्ट आने वाला है, जिस दिन आ जाएगा उस दिन मेरा काम खत्म हो जाएगा, मैं उसके आने तक रुका हूं, मैं सिर्फ आगे की सड़क साफ कर रहा हूं, “पायलट’ का काम कर रहा हूं, वह उसी दिन से नदारद हो गया। जॉन के खो जाने से सारे मुल्क में खबर फैल गई कि क्राइस्ट आ गया। अब लोग जीसस से पूछने लगे कि आप कौन हैं? दावा उन्होंने नहीं किया लेकिन झूठ भी कैसे बोला जा सकता है। दावा उन्होंने नहीं किया। लोग उनसे पूछने लगे कि तुम कौन हो? तो उन्होंने जो वक्तव्य दिए, उन वक्तव्यों में उन्होंने कहा कि मैं वही हूं, जो सदा से है। मैं वही हूं, जो पैगंबर नहीं हुए उसके पहले भी था। अब्राहम के पहले जो मौजूद था, मैं वही हूं। जब लोगों ने पूछा कि तुम कौन हो, तो उन्होंने कहा कि तुम जिसे खोजते हो, मैं वही हूं। मगर इसमें दावा नहीं था कोई। लोगों ने पूछा था, और उत्तर देना जरूरी था।

“हिंदू अवतार के क्रम में मत्स्यावतार से शुरू होकर राम आदि अंशावतार आते हैं। फिर पूर्णावतार कृष्ण के बाद भी बुद्धावतार होता है। कल्कि की आगाही भी समाविष्ट है। तो बुद्ध कालक्रम दृष्टि से पूर्णावतार क्यों नहीं माने गए? उत्क्रांति की दृष्टि से कृष्ण का बुद्ध के पूर्व का जाने का कोई राज हो तो बताएं। काल की गति को यहां वर्तुलाकार कहने में किस हद तक औचित्य है?’

अवतार आंशिक भी उतना ही अवतार है, जितना पूर्ण। अवतार होने में कोई फर्क नहीं है। अवतार से तो मतलब इतना ही है कि परमात्म-चेतना प्रगट हुई। वह कितने आयामों में प्रगट हुई, यह बात दूसरी है। तो कृष्ण का अवतार पूर्णावतार इस अर्थों में है कि जीवन के समस्त आयामों में, जीवन के सब “डायमेंसंस’ में उनका स्पर्श है। बुद्ध का अवतार फिर पूर्ण अवतार नहीं है। कल्कि अवतार भी पूर्ण अवतार होने वाला नहीं है। अवतरण तो पूरा होगा। अवतरण की जो प्रक्रिया है। कल्कि अवतार भी पूर्ण अवतार होने वाला नहीं है। अवतरण तो पूरा होगा। अवतरण की जो प्रक्रिया है, चेतना का जो उतरना है, वह तो पूरा होगा, लेकिन वह सब आयामों का स्पर्श नहीं करेगा।

इसके कारण हैं, बहुत कारण हैं। ऐसा नहीं कि जो धारा है, विकास का जो क्रम है–साधारणतः ऐसा ही होना चाहिए कि पूर्ण अवतार अंत में आए; विकास के क्रम में पूर्णता अंत में आनी चाहिए–लेकिन विकास का जो क्रम है, अवतार उस क्रम के बाहर से आता है। अवतार का अर्थ है–“पेनीट्रेशन फ्रॉम दॅ बियांड’। वह पार से उतरता है। वह हमारी विकास-प्रक्रिया का अंग नहीं है। वह हमारे विकास में विकसित हुआ नहीं है। वह हमारी विकास-धारा के पार से उतरता है। और जब भी कोई चेतना…जैसे एक ऐसा उदाहरण से समझें। हम सारे लोग यहां बैठे हैं, सूरज निकला है, हम सब आंखें बंद किए बैठे हैं, किसी ने थोड़ी-सी आंख खोली और थोड़ी-सी रोशनी दिखाई पड़ी। फिर किसी ने पूरी आंख खोली और पूरी रोशनी दिखाई पड़ी। फिर किसी ने थोड़ी-सी आंख खोली और थोड़ी रोशनी दिखाई पड़ी। इसमें कोई विकास-क्रम नहीं है। असल में आंख पूरी कभी भी खोली जा सकती है। और पूरी आंख खोलने के बाद भी पीछे वाला पूरी आंख खोले, इसकी कोई अनिवार्यता नहीं है।

कृष्ण का जो व्यक्तित्व है वह पूरा खुला है, इसलिए पूरे परमात्मा को समा सका है। बुद्ध का व्यक्तित्व आंशिक खुला है, इसलिए अंश-परमात्मा को समा सका है। अगर आज भी कोई पूरे व्यक्तित्व को खोलेगा, तो पूरा परमात्मा समा जाएगा। और अगर कल भी कोई व्यक्तित्व को बिलकुल बंद रखेगा, तो परमात्मा बिलकुल नहीं समाएगा। इसमें कोई “एवॅलूशनरी’ क्रम नहीं है। हो भी नहीं सकता।

विकास का जो क्रम है, उस क्रम को अगर हम ठीक से समझें तो सिर्फ “जनरल’, सामान्य अर्थों में पकड़ सकते हैं, व्यक्तिवादी अर्थों में नहीं पकड़ सकते। बुद्ध को हुए बहुत दिन हो गए। हम तो बुद्ध के ढाई हजार साल बाद हुए हैं, लेकिन इससे हम यह नहीं कह सकते कि बुद्ध से हम ज्यादा “इवाल्व्ड’ हैं। यह नहीं कह सकते हम। हां, इतना हम कह सकते हैं कि बुद्ध के समाज से हमारा समाज ज्यादा “इवाल्व्ड’ है। बुद्ध के समाज से हमारा समाज ज्यादा विकसित कहा जा सकता है। असल में विकास दोहरा चल रहा है–समूह का, व्यक्ति का। समूह के पहले भी व्यक्ति विकसित हो सकता है। हां, जो अपने को विकसित करने की कोई कोशिश नहीं करेंगे, वे समूह के साथ घसिटते हुए विकसित होते हैं। और सभी, समूह के सभी व्यक्ति एक-जैसे विकसित नहीं हो रहे हैं, प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग धारा में विकसित हो रहा है। हम यहां इतने लोग बैठे हैं, लेकिन सभी विकास की एक ही पायरी पर नहीं हैं। कोई विकास की पहली सीढ़ी पर खड़ा है, कोई विकास की दसवीं सीढ़ी पर खड़ा है, कोई विकास का अंतिम छोर भी छू सकता है। समूह के बाबत सामान्य नियम सत्य होते हैं। विकास का नियम समूह के बाबत है, इसे एक उदाहरण से समझें–

यह हम कह सकते हैं कि दिल्ली में पिछले दस वर्षों में प्रतिवर्ष कितने लोग सड़क पर “एक्सीडेंट’ से मरे। हर वर्ष अगर पचास आदमी मरते हैं, और उसके पहले वर्ष पैंतालीस मरे थे और उसके पहले चालीस मरे थे, तो हम कह सकते हैं कि अगले वर्ष पचपन आदमी सड़क पर कार “एक्सीडेंट’ से मरेंगे। और बहुत दूर तक यह सही हो जाएगा। लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि वे पचपन आदमी कौन से होंगे? हम खोजकर नहीं बता सकते कि ये पचपन आदमी मरेंगे। अगर दिल्ली की आबादी बीस लाख है, तो पचपन में हो सकता है, चौवन मरें, या हो सकता है छप्पन मर जाएं। लेकिन अगर आबादी बीस करोड़ है, तो पचपन का आंकड़ा और भी करीब आ जाएगा। और अगर आबादी अनंत है, तो पचपन का आंकड़ा बिलकुल “फिक्स्ड’ हो जाएगा। यानी हम बिलकुल कह सकते हैं कि पचपन मरेंगे, न साढ़े चौवन मरेंगे, न साढ़े पचपन मरेंगे। पचपन मरेंगे। जितनी बड़ी संख्या होती जाएगी, सामान्य “स्टेटिक्स’ उतने ही सत्य हो जाते हैं। जितना व्यक्ति को हम पकड़ते हैं, उतने ही “स्टेटिक्स’ गलत हो जाते हैं। विकास की जो धारा है, वह समूह की धारा है। इसमें व्यक्ति पहले भी हो जाते हैं। जैसे जब वसंत आता है तो किसी एक पक्षी की चहचहाहट से घोषणा हो जाती है वसंत के आने की, लेकिन सभी पक्षियों की चहचहाहट में वक्त लग जाता है। वसंत आता है तो एक फूल भी खिलकर खबर कर देता है कि वसंत आ रहा है, लेकिन सभी फूल के खिलने में वक्त लग जाता है। आता तो वसंत पूरा तभी है जब सब फूल खिलते हैं, लेकिन कुछ फूल पहले भी खिल जाते हैं। एक फूल के खिलने से हम यह नहीं कह सकते कि वसंत आ गया, लेकिन इतना कह सकते हैं, वसंत की पहली पगध्वनि आ गई है। व्यक्तिगत फूल तो पहले भी खिल सकते हैं, पीछे भी खिल सकते हैं, लेकिन सब फूल वसंत में खिल जाते हैं।

कृष्ण का बीच में पूर्ण हो जाना सिर्फ इस बात की सूचना है कि कृष्ण अपने व्यक्तित्व को पूरा खोल सके। बुद्ध अपने व्यक्तित्व को पूरा नहीं खोलते हैं। यह भी बुद्ध का अपना निर्णय है। अगर उन्हें कोई पूर्ण करने को कहे भी, अगर कोई उनसे कहे भी कि तुम्हारे कृष्ण होने की भी संभावना है, तो बुद्ध इनकार कर देंगे। वह बुद्ध का चुनाव नहीं है। इसमें बुद्ध कुछ पीछे पड़ जाते हैं कृष्ण से, ऐसा नहीं है। यह बुद्ध का अपना चुनाव है, कृष्ण का चुनाव है। और चुनाव के मामले में दोनों मालिक हैं। और उनका अपना “डिसीजन’ है। बुद्ध चाहते हैं जैसा, वैसे वे खिलते हैं। कृष्ण जैसा चाहते हैं वैसे वे खिलते हैं। कृष्ण का पूरा खिलने का स्वभाव है। बुद्ध को जैसा खिलना है, उसमें ही पूरा खिलने का स्वभाव है। इसमें कोई विकास की धारा नहीं है। व्यक्तियों पर विकास लागू नहीं होता, विकास सिर्फ समूहों पर लागू होता है।

“भगवान श्री, नौ सौ निन्यानबे गाली सहने वाले कृष्ण उससे आगे की एक भी गाली को न सुन सके और चक्र से शिशुपाल का वध कर बैठे। इससे क्या यह तय नहीं होता कि पहले दी गई गालियों को भी सिर्फ वे प्रकट रूप से ही सह रहे थे और अंतर में तो असहिष्णु ही थे?’

ऐसा सोचा जा सकता है, क्योंकि ऐसे हम सब हैं। अगर हम चौथी गाली पर बिगड़ उठते हैं, तो हम भलीभांति जानते हैं कि बिगड़ तो हम पहली ही गाली पर गए थे। लेकिन तीन दिन तक साहस रखा। तीन तक सहिष्णुता थी, फिर हम चूक गए, फिर हमारी सहिष्णुता और न सह सकी। तो चौथी गाली पर प्रगट हो गए। लेकिन इससे उलटा भी हो सकता है। और कृष्ण बड़े उलटे आदमी हैं। ठीक हमारे जैसे आदमी नहीं हैं। इसलिए उलटे होने की संभावना ही उन पर ज्यादा है।

ऐसा नहीं कि नौ सौ निन्यानबे गाली सहने तक उनकी सहिष्णुता थी। नौ सौ निन्यानबे गालियां काफी गालियां हैं। और जो नौ सौ निन्यानबे सह सकता होगा, वह हजारवीं नहीं सह सकता होगा, सोचना जरा मुश्किल है। बड़ा सवाल कृष्ण के लिए यह नहीं है कि उनकी सहिष्णुता चुक गई, बड़ा सवाल यह है कि अब सामने का जो आदमी है, अब उसकी सीमा आ गई। अब उसकी सीमा आ गई। अब इससे ज्यादा सहे जाना सहिष्णुता का सवाल नहीं है, इससे ज्यादा सहे जाना बुराई को बनाए रखने का सवाल है। इससे ज्यादा सहे जाना अब अधर्म को बचाना होगा। क्योंकि इतना तो बहुत ही साफ है कि नौ सौ निन्यानबे गालियां काफी हैं।

जीसस से कोई पूछता है एक शिष्य, कि कोई हमें एक बार चांटा मारे, तो हम क्या करें? तो जीसस कहते हैं, सहो। वह पूछता है कोई हमें सात बार चांटा मारे, तो हम क्या करें? तो जीसस कहते हैं, सात बार नहीं, सतहत्तर बार सहो। उस आदमी ने आगे पूछा नहीं, इसलिए हमें पता नहीं कि जीसस क्या कहते हैं। उसने आगे पूछा नहीं कि अठहत्तरवीं बार? लेकिन मैं मानता हूं कि जीसस कहते कि अठहत्तरवीं बार अब बिलकुल मत सहो। क्योंकि तुम्हारी सहिष्णुता ही काफी नहीं है, दूसरे आदमी का अधर्म भी विचारने योग्य है।

मैंने एक मजाक सुना है। मैंने सुना है कि जीसस को मानने वाला एक भक्त एक गांव से गुजरा है। और किसी ने एक चांटा उसके चेहरे पर मार दिया। तो जीसस का वचन है कि जब कोई तुम्हारे बायें गाल पर चांटा मारे तो दायां उसके सामने कर दो। उसने दायां गाल उसके सामने कर दिया। उस आदमी ने, जैसा कि उस बेचारे ने सोचा भी नहीं था, दायें पर भी चांटा और करारा मारा। तब वह बड़ी मुश्किल में पड़ा, क्योंकि इसके आगे जीसस का कोई वक्तव्य नहीं है, कि अब वह क्या करे? तो उसने उठाकर एक हाथ करारा उस दुश्मन को मारा। उस आदमी ने कहा कि अरे, तुम तो जीसस को मानते हो? और जीसस ने तो कहा कि जब कोई तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा सामने कर दो। उसने कहा, लेकिन तीसरा कोई गाल नहीं है। और अब मैं छुट्टी लेता हूं जीसस से। क्योंकि दो गाल तक जीसस के साथ चला, तीसरा कोई गाल नहीं है। अब तीसरा गाल तुम्हारे पास है। उस आदमी ने कहा, अब तीसरा गाल तुम्हारे पास है। मेरे दोनों गाल चुक गए, अब तुम्हारे गाल पर ही चांटा पड़ सकता है। एक वक्त है जब तीसरा गाल आ जाता है।

उसमें कृष्ण नहीं चुक जाते। हमें ऐसा ही लगेगा, क्योंकि हम चुक जाते हैं जल्दी। उसमें कृष्ण नहीं चुक जाते। लेकिन सब चीजों की सीमाएं हैं और सीमाओं के आगे चीजों को सहे जाना खतरनाक है, अधर्म है। सीमाओं के आगे चीजों को सहे जाना बुराई को प्रोत्साहन है। अगर मैं सहिष्णु हूं, तो इसीलिए तो हूं न कि असहिष्णुता बुरी है। और तो कोई कारण नहीं है। सहिष्णु होने का यही तो अर्थ है कि असहिष्णुता बुरी है। लेकिन मैं तो बुरा होने से बच जाऊं और दूसरे को बुरा होते ही जाने दूं, यह दूसरे पर दया न हुई। यह दूसरे से अति कठोरता हो गई। एक जगह दूसरे को भी बुरा होने से रोकना ही पड़ेगा। ऐसा मैं देखता हूं।

कृष्ण के पूरे व्यक्तित्व को देखकर ऐसा लगता है कि उनकी सहिष्णुता को चुकाना बहुत मुश्किल है। लेकिन ऐसा भी लगता है कि बुराई को प्रोत्साहन देना उनके लिए असंभव है। इन दोनों के बीच कहीं उन्हें “गोल्डन मीन’ खोजनी पड़ती है, कहीं उन्हें “स्वर्ण-नियम’ खोजना पड़ता है जहां से आगे चीजें बदल जाती हैं।

“कृष्ण को क्या आप अपहरण-भूषण नहीं कहेंगे? खुद ने तो रुक्मिणी का अपहरण किया ही था, अर्जुन को भी बहन सुभद्रा का अपहरण करने को लालायित करते हैं।’

असल में समाज की व्यवस्थायें जब बदल जाती हैं, तो बहुत-सी बेतुकी हो जाती हैं। एक युग था जब किसी स्त्री का अपहरण न किया जाए, तो उसका एक ही मतलब था कि उस स्त्री को किसी ने भी नहीं चाहा। एक युग था कि जब किसी स्त्री का अपहरण न किया जाए, तो उसका मतलब था कि उसकी कुरूपता सुनिश्चित है। एक युग था जब सौंदर्य का सम्मान अपहरण था। और अब वह युग नहीं है। लेकिन आज भी अगर यूनिवर्सिटी कैंपस में किसी लड़की को कोई भी धक्का नहीं मारता तो उसके दुख का कोई अंत नहीं है। कोई अंत नहीं है उसके दुख का। और जब कोई लड़की आकर दुख प्रगट करती है कि उसे बहुत धक्के मारे जा रहे हैं तब उसके चेहरे को गौर से देखें, उसके रस का कोई अंत नहीं है। स्त्री चाहती रही है कोई अपहरण करने वाला उसे मिले। कोई उसे इतना चाहे कि चुराना मजबूरी, जरूरी हो जाए। कोई उसे इतना चाहे कि मांगेंगे नहीं, चुराने को तैयार हो जाए।

तो कृष्ण जिस युग में थे उस युग को समझेंगे तब यह बात खयाल में आ सकती है। और मैं मानता हूं कि यह हिम्मतवर युग था। यह भी कोई बात कि पंचांग और पत्रा को दिखाकर कोई विवाह कर ले! लेकिन कृष्ण जब किसी को उत्प्रेरित भी कर रहे हैं अपहरण के लिए, तो इसीलिए कि वह कहते हैं कि प्रेम इतनी बड़ी चीज है कि अगर वह है, तो अपहरण भी किया जा सकता है, दांव लगाया जा सकता है। और प्रेम कोई नियम नहीं मानता। और युग था वह जो प्रेम का युग था। जिस दिन नियम शुरू हो जाते हैं, उसी दिन मानना चाहिए कि प्रेम की शक्ति शिथिल हो गई है। अब प्रेम बहुत चुनौतियां नहीं लेता, दांव नहीं लगाता। उस युग के पूरे-के-पूरे ढांचे को समझेंगे तो खयाल में आएगा। यह कृष्ण किसी विशेष युग में पैदा हुए हैं। उस युग की व्यवस्था का हमें खयाल नहीं है। हमारे युग की व्यवस्था को हम उन पर थोपने जाएंगे तो वह कई बार अनैतिक मालूम पड़ने लगेंगे। लेकिन मुझे भी लगता है कि शौर्य के युग, जब जिंदगी में तेज होता है और जब जिंदगी में शान होती है, तो चुनौती के और दांव के युग होते हैं। शिथिल और मरे हुए समाज, जब जिंदगी में सब चुनौती खो जाती है और सब ढीला-ढाला होता है, और तरह की नीतियां बनाते हैं जो मुर्दा नीतियां होती हैं। न, मैं तो कहूंगा कि कृष्ण अगर अपहरण करके न लाएं किसी स्त्री का और उसी स्त्री के बगैर खबर भेजें, उसके पिता के हाथ-पैर पड़ें और सब उपाय करें, तो उस स्त्री का अपमान होगा, उस युग में अपमान होगा। वह स्त्री इसे पसंद नहीं करती। वह कहती कि इतनी भी हिम्मत नहीं है मुझे चुरा सको, तो छोड़ो यह बात!

हमें खयाल नहीं है कि आज भी–युग तो बदल जाते हैं, लेकिन कुछ ढांचे चलते चले जाते हैं–आज भी जिसे हम बरात कहते हैं, किसी दिन वे प्रेमी के साथ गए हुए सैनिक थे। और जिसे आज हम दूल्हा को घोड़ा पर बिठाते हैं, दूल्हे को–दूल्हे को घोड़े पर बिठाना बिलकुल बेमानी है, कोई मतलब नहीं है–और एक छुरी भी लटका देते हैं उसके बगल में, वह कभी तलवार थी और कभी वह घोड़ा किसी को चुराने गया था और कुछ साथी थे उसके जो उसके साथ गए थे, वह बरात थी। और आज भी आपको पता होगा कि जब बरात आती है तो लड़की के घरवाली स्त्रियां गालियां देना शुरू करती हैं। कभी सोचा कि वे गालियां क्यों देती हैं? वह जिसके घर की लड़की चुराई जा रही होगी, उसकी दी गई गालियां होंगी। लेकिन अब काहे के लिए गालियां दे रही हैं, वह खुद ही इंतजाम किए हैं सब। आज की लड़की का पिता झुकता है, आज भी। अब कोई कारण नहीं है लड़की के पिता के झुकने का। कभी उसे झुकना पड़ा था। कभी जो उसे छीनकर ले जाता था, जो विजेता होता था, उसके सामने झुक जाना पड़ा था। वह कभी के नियम थे, जो अब भी सरकते हुए मुर्दा हालत में चलते चले जाते हैं।

“भगवान श्री, एक बार कृष्ण इंद्रप्रस्थ से द्वारका जाते थे तब कुंता मिली, कुंता ने कहा, “विपद संतु नश्वस तत्र जगत्गुरु’। यानी यह गूंजने वाली कुंता कृष्ण के पास कष्ट की याचना करती थी, ताकि कृष्ण कष्ट-दर्शन करा सकें। मगर आनंदवादी कृष्ण हंसते हैं, समझाते भी नहीं कि कष्ट-याचना ठीक नहीं। उसका क्या तात्पर्य है?’

भक्त का भगवान से कष्ट के लिए प्रार्थना करना बड़ा अर्थपूर्ण है। दोत्तीन कारणों से। एक तो भगवान से सुख की प्रार्थना करना कुछ स्वार्थपूर्ण मालूम पड़ता है। और जो भगवान से सुख की प्रार्थना करता है, वह भगवान से प्रार्थना नहीं करता, सुख के लिए ही प्रार्थना करता है। अगर भगवान के बिना उसे सुख मिल जाए तो भगवान को छोड़कर सुख की तरफ जाएगा। चूंकि भगवान से मिल सकता है, इसलिए भगवान के पास भी जाता है। लेकिन भगवान का उपयोग वह साधन की तरह करता है, साध्य तो सुख है। इसलिए भक्त का मन सुख की प्रार्थना नहीं करेगा। नहीं करेगा इसी कारण कि वह भगवान से ऊपर किसी चीज को रखना न चाहेगा।

और जब वह दुख की प्रार्थना करता है तो वह दोत्तीन बातों की घोषणाएं करता है। वह कहता है कि तुम्हारे द्वारा दिया गया दुख भी और कहीं से मिले सुख से बड़ा है। तुम्हारा दुख भी चुन लेंगे, और कोई सुख न चुनेंगे। अब इस आदमी का भगवान से जाने का कोई उपाय न रहा। क्योंकि आदमी वहीं से हटता है जहां सुख होता है। और वहां के लिए हटता है जहां सुख होता है। जिस भक्त ने सुख मांगा है वह भगवान से हट सकता है। लेकिन जिस भक्त ने दुख मांगा है, अब उसके हटने का उपाय क्या रहा? अब वह भगवान से हट नहीं सकता।

इसलिए बड़ी गहरी मांग है यह कि हमें दुख ही दे दो। हमें वही दे दो जिससे लोग हट जाते हैं। हम वही मांगने तुम्हारे पास आते हैं।

और दूसरी भी मजे की बात है कि भगवान से दुख मांगा जा सकता है, क्योंकि भगवान से दुख मिलता नहीं। उससे तो जो भी मिलता है, वह सुख ही है। जब उससे सुख ही मिलता है तो हम नाहक सुख के भिखारी क्यों बनें? जिससे सुख मिलने की संभावना न हो, उससे सुख मांगा जाना चाहिए। जिससे सुख ही मिलता हो, जिससे जो मिलता हो वह सुख ही होता हो, उससे हम दुख ही क्यों न मांग लें। इसमें भक्त बड़ी चालाकी कर रहा है। इसमें वह भगवान को भी एक धोखा दे रहा है। वह यह कह रहा है कि सुख हम न मांगेंगे, क्योंकि तुम जो देते हो वह सुख ही है। हम तुमसे दुख ही मांग लेते हैं। ऐसे वह भगवान को थोड़ी दिक्कत में भी डाल रहा है। और जहां प्रेम है, वहां थोड़ी दिक्कत में डालने का मन स्वाभाविक है। यानी वह कह रहा है, दो तो दुख दो, देखें कैसे समर्थ हो, देखें कैसे सर्वशक्तिमान हो! उसने एक जगह पकड़ ली है जहां वह तुमको सिद्ध कर देगा कि सर्वशक्तिमान तुम नहीं हो, क्योंकि दुख तुम नहीं दे सकते हो।

और भी कुछ कारण हैं, जो बहुत मनोवैज्ञानिक हैं। सुख क्षण भर का होता है। आता है, चला जाता है। दुख में लंबाई है। सुख में लंबाई नहीं होती। दुख में लंबाई होगी। आता है तो जाने का नाम लेता मालूम नहीं पड़ता। सुख आता है तो आ भी नहीं पाता और चला जाता है। सुख में गहराई भी नहीं होती। सुख बहुत उथला होता है। इसलिए जो लोग, जिन्हें हम साधारणतः सुखी कहते हैं, हमेशा “शैलो’ हो जाते हैं, उथले हो जाते हैं। उनकी जिंदगी में कुछ गहरा नहीं रह जाता, ऊपर-ऊपर हो जाता है। दुख बहुत गहराई रखता है, उसकी बड़ी “डेप्थ’ है। इसलिए दुख गहराई दे जाता है। इसलिए जो लोग दुख से गुजरते हैं, उनकी आंखों में, उनके चेहरों में, उनकी जिंदगी में एक गहराई होती है, जो साधारणतः सुखी आदमी की जिंदगी में नहीं होती। दुख दुख ही नहीं देता, मांजता भी है। दुख दुख ही नहीं देता, निखारता भी है। दुख दुख ही नहीं देता, गहरा भी कर जाता है। दुख में बड़ी गहराई है। सुख में बिलकुल गहराई नहीं है–न कोई लंबाई है, न कोई गहराई है। अगर भगवान से कुछ मांगना ही है, तो सुख नहीं मांगा जा सकता। ऐसी चीज जिसमें न कोई गहराई है और न कोई लंबाई है, जो यूकलिड के बिंदु की भांति है, सुख। यूकलिड कहता है, बिंदु की परिभाषा में, “प्वाइंट’ की परिभाषा में कि न कोई “लेंग्थ’, न कोई “ब्रेथ’, जिसमें न कोई लंबाई, न कोई चौड़ाई, ऐसी चीज बिंदु है। सुख यूकलिड का बिंदु है। यूकलिड का बिंदु भी कहीं होता नहीं। जब हम खींचते हैं कागज पर, तो उसमें लंबाई-चौड़ाई हो जाती है। सुख भी नहीं होता कहीं, जब हम खींचते हैं तब पता चलता है कि नहीं है। जब तक नहीं खिंचा, तब तक है। सुख यूकलिड का बिंदु है।

भक्त मांगता है, दुख दे दो; जिसमें गहराई हो, जिसमें लंबाई हो, वे दे दो। जो रहे, जो टिके, जो हो, जो मेरे भीतर चला जाए और फैल जाए, जो मेरे साथ रहे, वह दे दो। जो आए तो जाने का नाम न ले, वे दे दो। दुख मांगकर वह यह सब कह रहा है कि जो आए वह जाए न, वे दे दो। जो आए तो मेरे प्राणों की गहराई तक डूब जाए, वे दे दो। जो आए तो मैं उथला न रह जाऊं, लंबा और गहरा हो जाऊं, वह दे दो। इस दुख शब्द में वह यह सब कह रहा है।

और फिर, आखिरी बात, जिन्हें हम प्रेम करते हैं, उनके दुख का भी आनंद है। और जिन्हें हम प्रेम नहीं करते हैं, उनसे मिले सुख में भी कोई आनंद नहीं है। दुख का अपना आनंद है, यह कभी खयाल में आया आपको? पीड़ा का अपना सुख है, पीड़ा का अपना रस है, “मैसोचिस्ट’ नहीं। एक आदमी हुआ मैसोच, वह अपने को कोड़े मार कर सताता। तो ऐसे आदमी जो अपने को सताते हैं, “सेल्फ टार्चर’ में लगते हैं, ये “मैसोचिस्ट’ हैं। ये कहते हैं कि हमें अपने को सताने में सुख मिलता है। गांधी को “मैसोचिस्ट’ में गिना जा सकता है। यह जो भक्त कह रहा है कि दुख दे दो, यह किसी और दुख की बात कर रहा है, यह उस दुख की नहीं जो “सेल्फ टार्चर’ है, जो अपने को सताना है, उस दुख की नहीं। उस दुख की मांग कर रहा है जो प्रेम की पीड़ा जिसे हम कहें। प्रेम की बड़ी गहरी पीड़ा है। और इतना दुख भी नहीं सताता, जितना प्रेम की पीड़ा रोयें-रोयें और पोर-पोर में भर जाती है। सब तरफ से टूट जाता है। दुख तोड़ नहीं पाता, प्रेम तोड़ देता है। दुख मिटा नहीं पाता, प्रेम मिटा देता है। दुख में तो आप पीछे बच जाते हैं, प्रेम में आप बचते ही नहीं, खो जाते हैं और विदा हो जाते हैं। ऐसा दुख दे दो जिसमें भक्त मिट ही जाए, जिसमें वह बचे ही न। ऐसी मृत्यु दे दो जिसमें वह खो ही जाए, बचे ही न। इस अर्थ में। और इसीलिए कृष्ण समझाते नहीं, हंस कर रह जाते हैं। कुछ चीजें हैं जो हंसने से ही समझाई जा सकती हैं। जिनको समझाने से नासमझी पैदा हो जाती है। इसलिए हंसकर चुप रह जाते हैं, वे कुछ समझाने नहीं जाते। वे समझ जाते हैं राज को कि मांगने वाला बहुत तरकीब की बात कर रहा है। मांगने वाला बहुत चालाकी की बात कर रहा है। मांगने वाला उनको बहुत झंझट में डाल रहा है। इसलिए हंसकर चुप रह जाते हैं, उसमें समझाने को कुछ है नहीं।

“भगवान श्री, एक विरोध पैदा हो जाता है। जैसा आपने कृष्ण के संबंध में बंबई में भी कहा और यहां भी विषय-प्रवेश के मौके पर कहा कि कृष्ण का जीवन अलौकिक, चमत्कारिक, हंसता हुआ, खेलता हुआ, फूलों की तरफ खिलता हुआ जीवन रहा है। बाकी जितने भी दूसरे लोग हुए उनका जीवन दुखवादी जीवन रहा। जैसे, ईसा को कभी किसी ने जीवन में हंसते हुए नहीं देखा। तो भक्त अगर दुख मांगता है, उदास रहता है, कभी हंसता नहीं है, तो फिर कृष्ण के उस अलौकिक दर्शन की पूर्ति कैसे होती है, यह बात मैं आपसे जानना चाहूंगा।’

जो भक्त दुख मांगता है, वह दुखवादी नहीं है। क्योंकि दुखवादी तो इतने दुख पैदा कर लेता है कि किसी से मांगने की कोई जरूरत नहीं है। दुखवादी किसी से दुख मांगने जाता है? दुखवादी तो इतने दुख में रहता है कि अब आप उसको और ज्यादा दे नहीं सकते।

भक्त इसलिए दुख मांग लेता है कि सुख तो वह खूब पा रहा है, दुख को भी चखना चाहता है, जिसका परिवार अपरिचय है। भक्त कभी भी दुखी नहीं है और भक्त अगर रोता भी है तो उसके आंसू आनंद के ही आंसू हैं। भक्त रोता है बहुत, लेकिन उसके आंसू दुख के आंसू नहीं हैं। लेकिन हमें बहुत भूल हो जाती है, क्योंकि हम सिर्फ दुख में ही रोए हैं, हम कभी आनंद में नहीं रोए हैं। इसलिए आंसुओं के साथ हमने दुख की अनिवार्यता बांध ली है। लेकिन आंसुओं का कोई संबंध दुख से नहीं है। आंसुओं का संबंध “ओवरफ्लोइंग’ से है। मन का कोई भी भाव मन की सीमा के पार हो जाए तो आंसुओं में बहना शुरू हो जाता है, कोई भी भाव। दुख ज्यादा हो जाए तो आंसुओं में बहता है, सुख ज्यादा हो जाए तो आंसुओं में बहता है, प्रेम ज्यादा हो जाए तो आंसुओं में बहता है, क्रोध ज्यादा हो जाए तो आंसुओं में बहता है। लेकिन चूंकि हमने दुख के ही आंसू देखे हैं–वही ज्यादा हुआ है, आनंद कभी इतना ज्यादा हुआ नहीं कि आंसुओं में बह जाए, इसलिए हमने आंसुओं का “एसोसिएशन’ दुख से बना रखा है। दुख का आंसुओं से कोई संबंध नहीं है, आंसुओं का संबंध “ओवरफ्लोइंग’ से है। जो हमारे भीतर ज्यादा हो जाता है, वह आंसुओं से बह जाता है।

भक्त भी रोता है, प्रेमी भी रोता है, आनंद में ही रोता है। और यह जो आनंद की पीड़ा है, यह जो आनंद का दंश है, यह जो आनंद के कांटे की चुभन है, यह जो आनंद के आंसू हैं, इनका दुखवाद से कोई भी संबंध नहीं है।

“आपने भक्त और भगवान की बात कही, और कृष्ण को भगवान कहा, तो मुझे प्रश्न याद आया कि क्या कृष्ण भक्त थे? थे तो किसके भक्त थे? अगर नहीं थे तो फिर भक्ति की इतनी महिमा क्यों गाई?’

इस संबंध में थोड़ी-सी बात पीछे हुई है, लेकिन हमें समझ में नहीं आती है, इसलिए फिर दूसरी तरह से लौट आती है। मैंने प्रार्थना के संबंध में जो कहा, वह थोड़ा खयाल में लेंगे तो समझ में आ जाएगा। जैसा मैंने कहा कि “प्रेयर’ नहीं, “प्रेयरफुलनेस’। ऐसा भक्ति का मतलब किसी की भक्ति नहीं होती, भक्ति का मतलब है, “डिवोशनल एटिटयूड’। भक्ति का मतलब है, भक्त का भाव। उसके लिए भगवान होना जरूरी नहीं है। भक्ति भगवान के बिना हो सकती है। सच तो यह है कि भगवान कहीं भी नहीं है, भक्ति के कारण पैदा हुआ है। भगवान के कारण भक्ति है, ऐसा नहीं, भक्त के कारण भगवान दिखाई पड़ना शुरू हुआ है। जिन लोगों का हृदय भक्ति से भरा है, उन्हें यह जगत भगवान हो जाता है। जिनका हृदय भक्ति से नहीं भरा है, वे पूछते हैं भगवान कहां है? वे पूछेंगे। और उन्हें बताया नहीं जा सकता, क्योंकि वह भक्त के हृदय से देखा गया जगत है। वह भक्ति के मार्ग से देखा गया जगत है।

जगत भगवान नहीं है, भक्तिपूर्ण हृदय जगत को भगवान की तरह देख पाता है। जगत पत्थर भी नहीं है, पत्थर की तरह हृदय जगत को पत्थर की तरह देख पाता है। जगत में जो हम देख रहे हैं, वह “प्रोजेक्शन’ है, वह हमारे भीतर जो है उसका प्रतिफलन है। जगत में हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम हैं। अगर भीतर भक्ति का भाव गहरा हुआ, तो जगत भगवान हो जाता है। फिर ऐसा नहीं है कि भगवान कहीं बैठा होता है किसी मंदिर में, फिर जो होता है वह भगवान ही होता है।

कृष्ण भक्त हैं, और भगवान भी हैं। और जो भी भक्ति से प्रवेश करेगा, वह भक्त से शुरू होगा और भगवान पर पूरा हो जाएगा। एक दिन जब वह बाहर भगवान को देख लेगा, तो उसने खुद ऐसा क्या कसूर किया है कि उसे भीतर भगवान नहीं दिखाई पड़ेंगे। भक्त शुरू होता है भक्त की तरह, पूरा होता है भगवान की तरह। यात्रा शुरू करता है जगत को देखने की और देखता है उसे जो जगत में है, भक्तिपूर्ण हृदय से, “डिवोशनल माइंड’ से “प्रेयरफुल’, भक्तिपूर्ण, भावपूर्ण, प्रार्थनापूर्ण, मन से देखता है जगत को। फिर धीरे-धीरे अपने को भी उसी तरह देख पाता है, कोई उपाय नहीं रह जाता है। फिर ऐसा भी हो जाता है, जैसा रामकृष्ण को एक बार हुआ। बहुत मजे की घटना है।

रामकृष्ण को एक मंदिर में पुरोहित की तरह रखा गया था, दक्षिणेश्वर में। बहुत सस्ती नौकरी थी, शायद सोलह रुपये महीने की नौकरी थी। पुजारी की तरह रखा था उनको, लेकिन दस-पांच दिन में ही तकलीफ शुरू हो गई, क्योंकि ट्रस्टियों को खबर मिली कि यह आदमी तो ठीक नहीं मालूम होता। भगवान को जो भोग लगाता है, पहले खुद चख लेता है। और भगवान पर जो फूल चढ़ाता है, सूंघ लेता है। तो छिपकर ट्रस्टियों ने आकर देखा मंदिर में कि मामला क्या है? देखा कि बड़े भाव से रामकृष्ण नाचते हुए भीतर आए, भोग पहले खुद को लगाया, फिर भगवान को लगाया; फूल पहले सूंघे, फिर भगवान को सुंघाए, ट्रस्टियों ने उनको पकड़ लिया और कहा, यह क्या कर रहे हो? यह कोई ढंग है भक्ति का? रामकृष्ण ने कहा–भक्ति का ढंग होता है, यह कभी सुना नहीं। भक्त देखे हैं, भक्त सुने हैं, भक्ति का कोई ढंग होता है! कोई ढांचा, कोई “डिसिप्लिन’ होती है? उन्होंने कहा, निकाल बाहर करेंगे। कहीं सूंघा हुआ फूल भगवान को चढ़ाया जा सकता है? रामकृष्ण ने कहा, बिना सूंघे चढ़ा कैसे सकता हूं? पता नहीं सुगंध हो भी या न हो। ट्रस्टियों ने कहा, बिना भगवान को प्रसाद लगाए तुम खुद कैसे खा लेते हो? रामकृष्ण ने कहा, मेरी मां मुझे खिलाती थी तो पहले चख लेती थी। मैं बिना चखे नहीं चढ़ा सकता। नौकरी तुम सम्हालो। अन्यथा मुझे यहां रखना है, तो मैं चखूंगा, फिर चढ़ाऊंगा। पता नहीं खाने योग्य हो भी या न हो!

अब यह जो आदमी है, यह आदमी बाहरी भगवान को कैसे देख पाएगा? बहुत जल्दी वह वक्त आ जाएगा, यह कहेगा कि भीतर भी भगवान है। तो भक्त से तो शुरू होती है यात्रा, भगवान पर पूरी होती है। ऐसा नहीं है कि बाहर कहीं किसी भगवान पर पूरी होती है, अंततः सारी दुनिया की यात्रा करके हम अपने पर लौट आते हैं और पाते हैं: जिसे तुम खोजने गए थे वह घर में बैठा हुआ है।

कृष्ण दोनों हैं। तुम भी दोनों हो, सभी दोनों हैं। लेकिन भगवान से शुरू नहीं कर सकते हो तुम। भक्त से ही शुरू करना पड़ेगा। क्योंकि अगर तुमने यह कहा कि मैं भगवान हूं, तो खतरा है। ऐसे कई लोग खतरा पैदा करते हैं, जो भगवान से ही शुरू कर देते हैं, वे कहते हैं: मैं भगवान हूं। उनके भीतर भक्ति का तो कोई भाव होता नहीं, इसलिए भगवान की घोषणा तो कर देते हैं, तब ऐसे लोग अहंकेंद्रित होकर हैं; “इगोसेंट्रिक’ होकर दूसरों को भक्त बनाने की कोशिश में लग जाते हैं। क्योंकि उनके भगवान के लिए भक्तों की जरूरत है। पर वे दूसरे में भगवान नहीं देख पाते। अपने में भगवान देखते हैं, दूसरे में भक्त देखते हैं। ऐसे “गुरुडम’ के बहुत घेरे हैं सारी दुनिया में। यात्रा शुरू करनी पड़ेगी भक्ति से।

अब कृष्ण को भगवान माना जा सकता है, क्योंकि यह आदमी घोड़े तक की भक्ति कर सकता है। सांझ को जब घोड़े थक जाते हैं तो उन्हें ले जाता है नदी पर स्नान कराने। उनको नहलाता है, उनको खुर से साफ करता है। यह आदमी भगवान होने की हैसियत रखता है। क्योंकि घोड़े को भी भगवान की तरह स्नान करवा सकता है। इस आदमी में डर नहीं है, इससे खतरा नहीं है। यह अगर भगवान की अकड़ वाला आदमी होता तो सारथी की जगह बैठ नहीं सकता। अर्जुन से कहता, बैठो नीचे, बैठने दो ऊपर! रहा मैं भगवान, तुम हो भक्त! भगवान बैठेंगे रथ में, भक्त चलाएगा। जो अपने को भगवान घोषित करते हैं, जरा उन्हें तख्त के नीचे बिठालकर आप तख्त पर बैठकर देखिए, तब पता चलेगा!

भक्त से शुरू होगी यात्रा, भगवान पर पूरी होती है।

“हमारी कृष्ण-प्रेम की चरम सीमा की कसौटी क्या होगी?’

जैसा मैंने कहा, भक्ति का कोई ढंग नहीं होता, प्रेम की कोई कसौटी नहीं होती। प्रेम हो तो काफी है, कसौटी की क्यों फिकिर करते हैं। प्रेम नहीं होता तो आदमी कसौटी की फिकिर करता है। आप प्रेम की फिकिर करें। कसौटी की क्या जरूरत है? प्रेम नहीं है, इसलिए सोचते हैं कि कसौटी मिल जाए तो जांच कर लें। लेकिन नहीं है तो जांच करने की जरूरत क्या है? पता है कि नहीं है। प्रेम है, इसकी फिकिर करें। और जब प्रेम होता है तो सच्चा ही होता है, झूठा कोई प्रेम होता नहीं। झूठा प्रेम गलत शब्द है। या तो होता है, या नहीं होता है। इसलिए कसौटी की कोई जरूरत नहीं है। हां, सोने को जांचने के लिए कसौटी की जरूरत पड़ती है, क्योंकि गलत सोना होता है। प्रेम तो झूठा होता ही नहीं। होता है, या नहीं होता। और जब होता है तब आप उसी भांति जानते हैं जैसा पैर में कांटा गड़ा है तब जानते हैं। क्या कसौटी होगी? पैर में कांटा गड़ता है, पैर में दर्द हो रहा है, क्या कसौटी है कि दर्द हो रहा है कि नहीं हो रहा है? आपको तो पता ही होगा कि दर्द हो रहा है या नहीं हो रहा है। हां, अगर दूसरा कोई कहता हो कि क्या कसौटी है, तो उसके पैर में भी कांटा गड़ाने के सिवाय और क्या उपाय है? उसके पैर में भी एक कांटा गड़ा दें और कहें कि देखो हो रहा है कि नहीं हो रहा है? प्रेम जब घटित होता है तो हम जानते हैं उसी तरह, जैसे हम और सब जानते हैं। जब प्रेम घटित नहीं होता है तब भी हम जानते हैं कि पैर में कांटा नहीं है। अपने भीतर देखें, पहचानने में कठिनाई न आएगी। जान सकेंगे कि मेरी जिंदगी में प्रेम है या नहीं है। नहीं है, तो कसौटी का क्या करियेगा? है, तो कसौटी बेकार है। कसौटी का कोई संबंध नहीं है। प्रेम की फिक्र करें, है या नहीं।

लेकिन हम डरते हैं फिक्र करने से। भीतर झांकने से डरते हैं, क्योंकि हमें भलीभांति पता है कि प्रेम नहीं है। इसलिए हम भीतर देखते ही नहीं। इसलिए अक्सर दूसरे कि फिक्र करते हैं कि दूसरे का प्रेम मेरी तरफ है या नहीं? शायद ही कोई कभी पूछता हो कि मेरा प्रेम दूसरे की तरफ है या नहीं। इसलिए लड़ते हैं दिन-रात कि दूसरा कम प्रेम करता है, पति कम प्रेम करता है, पत्नी कम प्रेम करती है, बेटा कम प्रेम करता है, बाप कम प्रेम करता है, सब लड़ रहे दूसरे से कि दूसरा कम प्रेम करता है। और कोई भी यह नहीं पूछता कि मैंने प्रेम किया है? और जब हम जीवित चारों तरफ फैले हुए व्यक्तियों को भी प्रेम नहीं कर पाते हैं, जब हम दिखाई पड़ने वाले फूलों को नहीं प्रेम नहीं कर पाते, जब चारों ओर खड़े हुए पर्वतों को प्रेम नहीं कर पाते हैं, आकाश के चांदत्तारों को प्रेम नहीं कर पाते हैं, तो हम अदृश्य को कैसे प्रेम कर पाएंगे? इस दृश्य से शुरू करें।

और बड़े मजे की बात है कि जो आदमी दृश्य को प्रेम करता है, वह दृश्य के भीतर तत्काल अदृश्य को अनुभव करने लगता है। पत्थर को प्रेम करें और पत्थर परमात्मा हो जाता है। फूल को प्रेम करें और अदृश्य फूल की प्राण-ऊर्जा दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। व्यक्ति को प्रेम करें और तत्काल शरीर मिट जाता है और आत्मा शुरू हो जाती है। प्रेम कीमिया है अदृश्य को खोजने का। प्रेम रासायनिक विधि है, रासायनिक दृश्य है, रासायनिक झरोखा है अदृश्य को खोज लेने का। प्रेम की फिक्र करें, फिर कभी फिक्र नहीं करनी पड़ेगी किस कसौटी पर तौलें। और यह बात कभी मत पूछें कि प्रेम की चरम अवस्था क्या है? प्रेम जब भी होता है, चरम ही होता है। प्रेम की दूसरी कोई अवस्था होती ही नहीं। प्रेम की “डिग्रीज’ नहीं होतीं।

यह थोड़ा समझ लेना उचित होगा।

ऐसा नहीं होता कि मैं कहूं कि मुझे आपसे थोड़ा-थोड़ा प्रेम है। यह होता ही नहीं। थोड़ा-थोड़ा प्रेम का कोई मतलब होता है? मैं कहूं कि जरा अभी आपसे थोड़ा कम प्रेम है। ऐसा नहीं होता। जैसे कोई आदमी दो पैसे की चोरी करे और कोई आदमी दो लाख की चोरी करे, तो दो लाख की चोरी बड़ी चोरी है और दो पैसे की चोरी छोटी चोरी है, ऐसा कहिएगा? हां, जो लोग पैसे का हिसाब रखते हैं वे कहेंगे कि दो लाख की चोरी बड़ी चोरी होगी और दो पैसे की चोरी छोटी हुई। लेकिन चोरी छोटी और बड़ी हो सकती है! चोरी तो सिर्फ चोरी है। चोरी में कोई “डिग्रीज’ नहीं होतीं, कम और ज्यादा नहीं होतीं। दो पैसे चुराते वक्त आदमी उतना ही चोर होता है जितना दो लाख चुराते वक्त होता है।

प्रेम न दो पैसे का होता है, न दो लाख का होता है, बस होता है। चरम कोई अवस्था नहीं होती, प्रेम चरम ही होता है। प्रेम जो है वह “क्लाइमेक्स’ ही है। वह हमेशा सौ डिग्री पर ही होता है। जैसे कि पानी गरम होता है तो ऐसा नहीं होता है कि नब्बे डिग्री पर थोड़ा-सा भाप हो, फिर, और पंचान्नबे डिग्री पर थोड़ा ज्यादा भाप हो जाए। नहीं, सौ डिग्री पर ही भाप होता है। सौ डिग्री पर बस एकदम भाप होने लगता है। तो अगर कोई पूछे कि भाप बनने का चरम बिंदु क्या है? तो हम कहेंगे, जो प्रथम बिंदु है, वही चरम भी है। जो पहला बिंदु है, वही आखिरी भी। सौ डिग्री पहला है और सौ डिग्री आखिरी है। प्रेम भी प्रथम और अंतिम एक ही है, “द फर्स्ट एंड द लास्ट’। प्रेम में कोई अंतर नहीं है। प्रेम चरम ही है। उसका पहला कदम ही आखिरी कदम है। उसकी मंजिल की पहली सीढ़ी ही मंदिर की आखिरी सीढ़ी है। मगर हमें पता ही नहीं है, इसलिए हम अजीब सवाल पूछते हैं। अभी तक मैंने प्रेम के संबंध में ठीक सवाल किसी आदमी को पूछते नहीं देखा। मुझे खयाल आती है एक घटना।

एक बहुत बड़ा करोड़पति मार्गन अपने एक विरोधी करोड़पति के साथ बातचीत कर रहा था। तो उसने अपने विरोधी करोड़पति से, जो उसका प्रतियोगी था, उससे उसने कहा कि दुनिया में हजार ढंग हैं धन कमाने के, लेकिन ईमानदारी का ढंग एक ही है। उसके विरोधी ने कहा, वह कौन-सा ढंग है? मार्गन ने कहा, मैं जानता था कि तुम पूछोगे, क्योंकि तुमको उसका पता नहीं है। मैं जानता था कि तुम पूछोगे क्योंकि तुम्हें उसका पता नहीं है!

ऐसा ही मामला प्रेम का है। प्रेम के बाबत हम ऐसे सवाल पूछते हैं जो कि बनता ही नहीं, जो कि होते ही नहीं, “इर्रेलिवेंट’। क्योंकि मुझे पता है कि हम पूछेंगे, क्योंकि प्रेम भर एक चीज है जिसका हमें कोई पता नहीं है। उसके संबंध में हम गलत ही पूछ सकते हैं। और ध्यान रहे, जिसे उसका पता है वह ठीक नहीं पूछ सकता, क्योंकि पूछने का कोई सवाल नहीं है, वह जानता है।

“भगवान श्री, महाभारत संग्राम में कृष्ण अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करते हैं! मगर एक दफा, ऐसा सुना जाता है, कि कृष्ण अर्जुन से संग्राम करने गए थे। वह क्या बात थी?’

असल में कृष्ण जैसे व्यक्ति न तो किसी के मित्र हैं और न किसी के शत्रु हैं। कृष्ण की कोई निश्चित धारणा किसी के बाबत नहीं है। इसलिए शत्रु मित्र हो सकता है, मित्र शत्रु हो सकता है। स्थितियां तय करेंगी। “सिचुएशंस’ तय करेंगी। हम और तरह से जीते हैं। हम किसी के मित्र होते हैं, किसी के शत्रु होते हैं। फिर परिस्थितियां बदल जाती हैं तो बड़ी मुश्किल होती है। फिर भी हम मित्र और शत्रु को खींचने की कोशिश करते हैं। कृष्ण कुछ भी खींचते नहीं। जैसी स्थिति हो। अगर अर्जुन भी लड़ने को सामने पड़ जाए, तो कृष्ण-अर्जुन युद्ध हो जाएगा। इसमें कोई अड़चन नहीं आएगी। उसी मौज से अर्जुन से भी लड़ लेंगे। जिस मौज से अर्जुन के लिए लड़ते हैं, उसी मौज से अर्जुन से भी लड़ा जा सकता है।

असल में कृष्ण मित्रता और शत्रुता को “फिक्स्ड प्वाइंट’ नहीं बनाते। वे कोई सुनिश्चित चीजें नहीं हैं, वे तरलताएं हैं। और जिंदगी की तरलता में कहां तय किया जा सकता है, कौन मित्र है और कौन शत्रु है? जो आज मित्र है, वह कल शत्रु हो सकता है; जो आज शत्रु है, वह कल मित्र हो सकता है। इसलिए मित्र के साथ भी कल की शत्रुता को ध्यान में रखकर चलना उचित है और शत्रु के साथ भी कल की मित्रता को ध्यान में रखकर व्यवहार करना उचित है। क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं। क्षण का कोई भरोसा नहीं। क्षण बदला और सब बदल जाएगा। जिंदगी पूरे वक्त बदलता हुआ “पैटर्न’ है। जैसे धूप पड़ रही है अभी, छायायें पड़ रही हैं जमीन पर। कहीं छाया है, कहीं धूप है। घड़ी भर बाद धूप कहीं और होगी, छाया कहीं और होगी। सब बदलता रहेगा। सांझ तक बैठे देखते रहें इस बगिया को, सब बदलता रहेगा–धूप बदलेगी, छाया बदलेगी, बदलियां आएंगी-जाएंगी, दिन निकलेगा, सांझ होगी, रात होगी, प्रकाश होगा, अंधेरा हो जाएगा, यह सब होता रहेगा। पूरी जिंदगी भी इसी तरह बदलता हुआ “पैटर्न’ है। वहां कोई चीज शतरंज के खांचों की तरह तय नहीं है। वहां धूप-छाया की तरह सब बदलता हुआ है।

इसलिए हम कभी सोच भी नहीं सकते, हम कभी यह सोच नहीं सकते कि अर्जुन और कृष्ण कैसे आमने-सामने हो सकते हैं। कृष्ण मित्र के सामने भी हो सकते हैं, और ऐसे तो पूरा महाभारत ही बड़े मजे का है! उसमें सब मित्र आमने-सामने खड़े हैं! उसने, जिन द्रोण से सीखा है अर्जुन ने सब, उन्हीं पर तीर खींचे खड़ा है। जिन भीष्म से पाया है बहुत कुछ, उन्हीं को मारने के लिए तत्पर है। महाभारत ऐसे बड़ा अदभुत है। वह बता रहा है कि जिंदगी में कुछ तय नहीं है, सब बदलता हुआ है। जो कल भाई थे, आज शत्रु हैं। जो कल मित्र थे, आज सामने खड़े हैं। जो कल गुरु थे, आज उनसे लड़ना पड़ रहा है। लेकिन इससे भी, इससे दोनों बातें साफ हैं। दिन भर लड़ते भी हैं, सांझ उनकी कुशल-क्षेम भी पूछ आते हैं। दिन भर लड़ते भी हैं। सांझ जाकर पूछ भी आते हैं कि किसी को चोट तो नहीं लग गई? जिनको दिनभर चोट मारी, जिनसे दिनभर दिल खोलकर लड़े हैं–उस लड़ाई में कोई “डिसऑनेस्टी’ नहीं है, लड़ाई बिलकुल “ऑनेस्ट’ है, लड़ाई बिलकुल ईमानदारी से भरी हुई है, उस लड़ाई में जरा धोखा नहीं है, अगर भीष्म सामने पड़ेंगे तो गर्दन उतारने में देर न की जाएगी–लेकिन सांझ को दुख मनाने में भी कोई बाधा नहीं है कि भीष्म जैसा आदमी खो गया। यह बहुत अजीब है! इससे यह सूचना मिलती है कि एक युग था, जब हम मित्रतापूर्ण ढंग से लड़ भी सकते थे। आज युग बिलकुल उलटा है, आज तो हम शत्रुतापूर्ण ढंग से मित्र ही हो पाते हैं। मित्रतापूर्ण ढंग से युद्ध भी हो सकता था, आज तो मित्रता भी शत्रुतापूर्ण ढंग से ही चलती है। आज तो मित्र भी प्रतियोगी है। तब शत्रु भी साथी था।

और जिंदगी के बड़े अर्थों में सोचने जैसा है। यह सोचने जैसा है कि अगर मेरा कोई शत्रु है, तो शत्रु के मरने के साथ मेरे भीतर भी कुछ मर जाता है। शत्रु ही नहीं मरता, मैं भी कुछ मरता हूं। शत्रु के होने के साथ मेरा होना भी है। मित्र के मरने के साथ ही मेरे भीतर से कुछ खोता हो, ऐसा नहीं है, शत्रु के खोने के साथ भी मेरे भीतर से कुछ खो जाता है। तो शत्रु भी मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है। इसलिए शत्रु के प्रति भी बहुत शत्रुतापूर्ण होने का अर्थ नहीं है। शत्रु भी किसी गहरे अर्थों में मित्र है। और मित्र भी किसी गहरे अर्थों में शत्रु है। क्यों? क्योंकि असल में जैसा कि मैं निरंतर इन पिछले दिनों में आपसे कहा हूं, जिंदगी में जिनको हम “पोलेरिटीज’ में बांटते हैं, ध्रुव बना देते हैं, वे हमारे शब्दों और सिद्धांतों में ही सत्य हैं। जिंदगी के सीधे गहराई में कोई “पोलेरिटी’ सत्य नहीं है, सब “पोलेरिटीज’ जुड़ी हुई हैं। उत्तर और दक्षिण जुड़े हुए हैं। ऊपर और नीचे जुड़ा हुआ है।

ऐसा अगर हम देख पाएं, तो फिर कृष्ण का अर्जुन से युद्ध समझ में आ सकता है। ऐसे कृष्ण को समझाने वालों को नहीं समझ में आया है, बहुत मुश्किल पड़ी है, बहुत मुश्किल पड़ती रही है, क्योंकि जब भी हम समझाने जाते हैं तब हमारी धारणाएं बीच में खड़ी हो जाती हैं, और वे कहती हैं, यह भी क्या बात है, यह कैसी बात है, यह नहीं होनी चाहिए! हम मानते हैं कि मित्र को मित्र ही होना चाहिए, शत्रु को शत्रु ही होना चाहिए। हम जिंदगी को फांकों में बांटते हैं और उनको थिर कर देते हैं। जिंदगी नदी की भांति तरल है। जो लहर यहां थी, वह लहर अब बहुत दूर है। जो लहर कल सांझ थी, आज बहुत दूर हट गई है। और इस पूरे जिंदगी के रास्ते पर कौन हमारे साथ है, यह क्षणभर की बात है! क्षणभर बाद साथ होगा कि नहीं होगा, नहीं कहा जा सकता। कौन आज विरोध में खड़ा है, क्षणभर बाद विरोध में खड़ा होगा, नहीं खड़ा होगा, नहीं कहा जा सकता। जो इस जिंदगी को नदी की धार की तरह जीते हैं, वे न शत्रु बनाते, न मित्र बनाते। जो शत्रु बन जाता है, उसे शत्रु मान लेते हैं, जो मित्र बन जाता है, उसे मित्र मान लेते हैं, वे कुछ बनाते नहीं, जिंदगी में से गुजरते हैं; जो भी जैसा बन जाता है, उसे वैसा ही मान लेते हैं।

कृष्ण के लिए न कोई शत्रु है, न कोई मित्र है। समय, परिस्थिति, अवसर जिसको मित्रता के खेमे में ढकेल देता है, उसके मित्र हो जाते हैं; जिसको शत्रुता के खेमे में ढकेल देते हैं उसके शत्रु हो जाते हैं। फौजें कृष्ण की लड़ रही हैं कौरवों की तरफ से, कृष्ण लड़ रहे हैं पांडवों की तरफ से। विभाजन कर लिया है दोनों का, क्योंकि दोनों ही ऐसे कृष्ण को मित्र मानते थे। और दोनों ही साथ पहुंच गए थे। दोनों ही साथ पहुंच गए थे, और दोनों को खुली छूट दे दी थी–अब यह बड़े मजे की बात है–दोनों को छूट दे दी थी कि जो तुम्हें मांगना हो, क्योंकि दोनों ही साथ आ गए हो, दोनों ही अपने हो, तो एक तरफ से मैं लड़ लूंगा, एक तरफ से मेरी फौजें लड़ लेंगी।

“वह यह भी तो कह सकते थे कि दोनों मेरे मित्र हो, इसलिए मैं किसी की भी तरफ से नहीं लडूंगा?’

ऐसा वह इसलिए नहीं कह सकते थे कि वह जो महाभारत की घटना घटने वाली थी, वह इतनी विराट थी कि उसमें कृष्ण का होना एकदम जरूरी था–उनके बिना शायद वह घट भी नहीं सकती थी। और मित्र से अगर वे कहते कि मैं दोनों के बाहर रहा जाता हूं, अगर वह भारतीय विदेश नीति अख्तियार करते “न्यूट्रिलिटी’ की, तटस्थता की और वे कहते मैं दोनों तरफ नहीं हूं, तो वह बेईमानी होती, क्योंकि जिंदगी में तटस्थता होती ही नहीं। उसमें किसी तरफ हम होते ही हैं। जिंदगी में तटस्थता होती ही नहीं। तटस्थता सिर्फ आंतरिक भाव हो सकती है, जिंदगी में होती नहीं है, जिंदगी में हम किसी तरफ होते ही हैं। इस तरह या उस तरफ। दिखावा हो सकता है तटस्थता का। दिखावा वे कर सकते थे। लेकिन दिखावे का कोई मतलब न था। और दोनों ही मित्र सहायता मांगने आए थे, तटस्थता मांगने नहीं आए थे। यह कहने आए थे कि हमें साथ दो। उत्तर साथ के लिए देना था। दोनों का साथ न देने का मतलब यह न होता कि दोनों के मित्र हैं, दोनों का साथ न देने का मतलब होता कि दोनों से कोई मतलब नहीं है, दोनों के मित्र नहीं हैं। तटस्थता का तभी मतलब होता है। तटस्थता का मतलब है, हम उदास हैं। उदासीन, हमें मतलब नहीं है कौन जीतता है, कौन हारता है। कोई प्रयोजन नहीं तुमसे।

कृष्ण निष्प्रयोजन नहीं हैं। कृष्ण मित्र दोनों के हैं, लेकिन चाहते यही हैं कि पांडव जीतें। जीतें इसलिए कि उन्हें लगता है कि पांडव धर्म के पक्ष में हैं और कौरव अधर्म के पक्ष में हैं। लेकिन मित्र दोनों के हैं–वे जो अधर्मी हैं, वे भी उनके प्रति मित्रतापूर्ण हैं। कृष्ण से उनकी कोई शत्रुता नहीं है। कृष्ण के प्रति उनका सद्भाव है। कृष्ण को वे भी चाहते हैं। और उस जमाने में बहुत सीधे, साफ-सुथरे हिसाब होते थे। सभी बंट जाते थे। छोटी लड़ाई होती तो सभी बंट जाते थे। साफ निर्णय हो जाता था। ज्यादा देर खींचनेत्तानने की जरूरत नहीं होती थी। “पोलेरिटीज’ साफ हो जाती थीं तो जल्दी निर्णय हो जाता था और निर्णायक हो जाता था।

तो कृष्ण उपेक्षा से नहीं भरे हैं, अपेक्षा उनकी है। उदासीन वे नहीं हैं, इसलिए तटस्थ नहीं हो सकते। दोनों बराबर नहीं हैं उन्हें, फिर भी दोनों की तरफ से मित्रता है। इसलिए बंटने को वे तैयार हैं। और इतना भी वे जानते हैं कि बंटवारा बहुत कुछ निर्णय करेगा, इसलिए बंटवारे का जो नियम उन्होंने चुना वह अदभुत है, बहुत गणित का है। उन्होंने कहा यह कि एक तो मुझे चुन लो, मुझ अकेले को, और एक मेरी सारी फौजों को चुन लो। इस बंटवारे से कृष्ण को बहुत साफ हो गया कि धर्म का पक्ष किसका है। इससे बहुत साफ हो गया मामला। क्योंकि कृष्ण को अकेले को कौन चुनेगा? जो हारने की तैयारी रखते हैं, वही न! कृष्ण को अकेले को कौन चुनेगा? जिनका शक्ति पर भरोसा नहीं है, वही न! कृष्ण को अकेला कौन चुनेगा? जिसको पौद्गलिक शक्ति पर नहीं, आत्मिक शक्ति का भरोसा है, वह कृष्ण को चुन लेगा। कौरव तो बड़े प्रसन्न हुए। डर गए थे बहुत, क्योंकि पहला चुनाव पांडवों को दिया गया था। क्योंकि पांडव बैठ गए हैं नीचे, पांडवों का प्रतिनिधि बैठ गया है पैरों में, कौरवों का प्रतिनिधि बैठ गया है कृष्ण के सिर के पास–वह सोए हैं। दोनों गए हैं, तो जाग आएं तब तक प्रतीक्षा करनी है। पांडवों का प्रतिनिधि बैठा है पैरों के पास। वह भी सूचक था। कौरवों का प्रतिनिधि बैठा है सिर के पास। पैर के पास कौरव कैसे बैठ सकते हैं! पैर के पास तो वही बैठ सकता है जो विनम्र हो।

ये सब बहुत छोटी-छोटी बातें बड़ी सूचक बन जाती हैं। हम जिंदगी में वही करते हैं, जो हम हैं। यह आकस्मिक नहीं है। यह इतनी-सी घटना भी कि कौरवों का बैठना सिर के पास, पांडवों का बैठना पैर के पास “एक्सिडेंटल’ नहीं है। इसलिए आंख स्वभावतः जो पैर के पास बैठे हैं, उन पर पहले पड़ी। इसलिए चुनाव का पहला मौका उन्हें दिया गया। निश्चित ही जो विनम्र हैं, वे पहले जीतेंगे। पहला मौका उनका होगा। “ब्लेसेड आर द मीक, दे शैल इनहेरिट द अर्थ’, वह जो जीसस कहते हैं, धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि पृथ्वी का राज्य उन्हीं का होगा। तो वे जो विनम्र थे उनके जिए पहला मौका था कि तुम चुनाव कर लो। कौरव तो बहुत डरे और घबड़ाए कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गई, क्योंकि उन्होंने पक्का समझा कि कौन चुनेगा कृष्ण को! फौजें हैं विराट की, वे ही निर्णायक होंगी युद्ध में, वे बहुत घबड़ाए कि यह धोखा हो गया! यह गलती हो गई, यह हमसे भूल हो गई, हम पैर के पास ही क्यों न बैठ गए! यह पहला मौका पांडवों का दिया गया चुनाव का, इसमें पक्षपात हुआ जा रहा है! क्योंकि निश्चित ही पांडव फौजों को चुन लेंगे और कृष्ण को अकेले को कौन चुनेगा! और हम अकेले कृष्ण का क्या करेंगे? लेकिन वे बड़े प्रसन्न हुए जब उन्होंने देखा कि नासमझ पांडवों ने कृष्ण को चुन लिया और सारी फौजें कौरवों को छोड़ दीं। तब वे बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने माना कि इन नासमझों की हार निश्चित ही है। ये हर बार नासमझी का दांव लगाए चले जाते हैं, हर बार हारे चले जाते हैं। फिर मौका था जीतने का, वह भी चूक गए। अब जीत निश्चित है अपनी। लेकिन वहीं उनकी हार निश्चित हो गई थी। पांडवों के चुनाव ने कह दिया था कि चुनाव आत्मिक हो गया है, चुनाव गहरा हो गया है, धर्म का हो गया है और कृष्ण उनके साथ खड़े होकर निर्णायक हो गए हैं।

यह जो मैंने कहा कि पैर के पास बैठ जाना बड़ा महत्वपूर्ण हो गया, छोटी घटना मुझे याद आती है, उससे समझ में आ जाएगी।

विवेकानंद हिंदुस्तान से अमरीका जाते थे। तो उन्होंने शारदा मां को जाकर आशीर्वाद मांगा और कहा कि मैं अमरीका जाता हूं। तो रामकृष्ण की पत्नी शारदा मां ने कहा कि–रामकृष्ण नहीं रहे थे, शारदा ही रह गई थी, उससे ही पूछा जा सकता था–शारदा ने कहा कि क्या करोगे अमरीका जाकर? तो उन्होंने कहा कि मैं धर्म का संदेश ले जाऊंगा। तो शारदा चौके में अपना काम करती थी, उसने कहा, वह छुरी पड़ी है सब्जी काटने की, वह उठाकर मुझे दे दो। विवेकानंद ने वह छुरी उठाई और शारदा को दी। शारदा ने कहा, जाओ, मेरा आशीर्वाद है। लेकिन विवेकानंद ने कहा कि छुरी उठाने से इसका क्या संबंध? शारदा ने कहा, मैं देखती थी कि छुरी उठाकर तुम कैसे मुझे देते हो। हममें से किसी ने भी उठाकर दी होती तो डंडी खुद पकड़ी होती, फलक शारदा की तरफ किया होता। विवेकानंद ने फलक खुद पकड़ा और डंडी शारदा की तरफ की। तो शारदा ने कहा, मैं सोचती हूं कि तुमसे धर्म का संदेश जा सकता है। साधारणतः कोई भी शायद ही संभावना है इस बात की कि आप फलक पकड़ते। फलक कहीं पकड़ा जाता है छुरी का? पकड़ी तो डंडी ही जाती है, मूठ ही पकड़ी जाती है।

अब यह बिलकुल “एक्सिडेंटल’ नहीं है। यह विवेकानंद कोई सोच-समझकर “रेडीमेड’ उत्तर भी नहीं ला सकते। यह किसी किताब में लिखा नहीं कि जब तुम अमरीका जाओगे, तो शारदा तुमसे पूछेगी तो छुरी ऐसी पकड़ लेना। यह किसी शास्त्र में नहीं लिखा हुआ है। और यह शारदा जैसे व्यक्तित्व भरोसे के नहीं हैं। ये क्या, अब यह कोई बात थी! यह कोई पता लगाने का ढंग था! यह कोई धर्म की परीक्षा हो सकती थी! लेकिन शारदा ने कहा, रहा आशीर्वाद, जाओ। तुम्हारे मन में धर्म है।

ऐसा उस दिन कृष्ण के पैरों के नीचे बैठे पांडवों ने सूचना दे दी कि धर्म उनकी तरफ है, पैरों के पास बैठने की उनकी हिम्मत है। फिर कृष्ण को चुनकर उन्होंने घोषणा कर दी कि हम हारने को तैयार हैं, लेकिन धर्म छोड़ने को तैयार नहीं हैं। हम धर्म के साथ रह कर हार जाएंगे, लेकिन अधर्म के साथ रह कर जीतेंगे नहीं। और धर्म के साथ सिर्फ वही हो सकता है, जो हारने को तैयार है। जैसा मैंने कहा, परमात्मा के साथ सिर्फ वही हो सकता है, जो दुख की मांग करता है, जो दुख को चुन लेता है। धर्म के साथ वही हो सकता है, जो हारने को तैयार है। जो जीतने को आतुर है, हर हालत में वह अधर्म के साथ हो ही जाएगा। क्योंकि अधर्म सुझाव देता है, सरल, “इजी शार्टकट’ देता है कि यहां से जीत लोगे। धर्म का रास्ता लंबा पड़ जाता है। अधर्म “शार्टकट’ से खोजता है, हमेशा। धर्म का रास्ता लंबा है, श्रमसाध्य है, “आरडुअस’ है। धर्म के साथ हार भी हो सकती है। धर्म के साथ विनाश भी हो सकता है। लेकिन जो धर्म के साथ विनष्ट होने को तैयार है और हारने को तैयार है, उसकी हार कभी होती नहीं। लेकिन तैयारी वह रखनी होती है।

अधर्म कहता है, यह रही जीत। हाथ बढ़ाओ और मिल जाएगी। अधर्म का रस और आकर्षण उसके आश्वासन में है, उसकी “प्रॉमिस’ में है। वह कहता है यह कि हाथ बढ़ाया नहीं कि मिला, कहां धर्म का रास्ता पकड़ते हो! लंबा है रास्ता! पहाड़ है दुर्गम! पहुंचने का पक्का पता नहीं है, और कौन कब पहुंचा है! यह रहा अधर्म, यह रही पास की व्यवस्था। जरा करो और पहुंच जाते हो! अधर्म का आश्वासन सदा जीत का है। उस जीत के आकर्षण में आदमी अधर्म को पकड़ता है। अधर्म को पकड़कर कोई कभी जीतता नहीं। धर्म की चुनौती सदा हार की है। हार के डर को जानते हुए जो धर्म के साथ होता है, वह कभी हारता नहीं। लेकिन ये बड़ी उलटी बातें हैं, बड़ी “कांट्रडिक्ट्री’ बातें हैं। लेकिन ऐसा ही है।

“भगवान श्री, आपने कहा, “ब्लेसेड आर द मीक, फॉर देयर्स इज़ द किंग्डम ऑफ अर्थ।’ लेकिन, “ब्लेसेड आर द प्योर इन हॉर्ट, फॉर देयर्स इज़ द किंग्डम ऑफ हेवन’, इस संबंध में आप क्या कहते हैं?’

जीसस का दूसरा वचन भी है कि धन्य हैं वे जिनके हृदय पवित्र हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का होगा। इन दोनों वचनों में थोड़ा-सा फर्क है। धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, पृथ्वी का राज्य उनका होगा, “किंग्डम ऑफ द अर्थ’। धन्य हैं वे जो पवित्र हैं, स्वर्ग का राज्य उनका होगा, “किंग्डम ऑफ द हेवन’। असल में विनम्रता जो है, वह शुरुआत है, पवित्रता जो है, वह अंत है। “हयुमिलिटी’ प्रारंभ है, “प्यारिटी’ उपलब्धि है। जो विनम्र हैं, वे पहली सीढ़ी पर गए। उन्होंने पवित्र होने के लिए द्वार खोला। वे अभी पवित्र हो नहीं गए। जो विनम्र हैं, उन्होंने पवित्र होने का द्वार खोला। जो विनम्र नहीं हैं, वे तो कभी पवित्र नहीं हो सकते। क्योंकि अहंकार से बड़ी और कोई अपवित्रता नहीं है। जो अहंकार से भरे हैं, वे तो कभी पवित्र नहीं हो सकते, लेकिन जो विनम्र हुए, जिन्होंने अहंकार छोड़ा, जो झुके, समर्पित हुए, उन्होंने पवित्र होने का द्वार खोला। लेकिन झुक जाना ही पा लेना नहीं है। आप झुक जाने से सिर्फ द्वार बने।

एक आदमी नदी के किनारे खड़ा है, नदी में खड़ा है, पानी नीचे बह रहा है, वह आदमी प्यासा है। वह झुक जाए तो पानी अंजुली में भर सकता है, लेकिन झुकने को वह राजी नहीं। वह अकड़कर खड़ा है। वह प्यासा है, पानी पैर के पास से बहा जाता है, लेकिन झुकने को वह राजी नहीं। खड़ा रहे प्यासा, नदी नीचे बहती रहेगी। नदी का कोई कसूर नहीं उसकी प्यास में। उस आदमी की अकड़ ही उसको प्यासा किए हुए है। झुकने की उसकी तैयारी नहीं। वह झुक जाए तो अंजुली में पानी आ जाए। झुकने से शुरुआत होगी। अंजुली में पानी आने का द्वार खुलेगा।

ठीक ऐसे ही जो विनम्र हैं, वे द्वार खोलते हैं अपनी पवित्रता के लिए, और जब वे पवित्र हो जाते हैं–विनम्रता सब तरह से पवित्र हो जाएगी। क्योंकि विनम्रता उन सब चीजों को काट देगी जिनसे आदमी अपवित्र होता है। विनम्र आदमी अहंकारी न रह जाएगा। विनम्र आदमी आक्रामक न रह जाएगा। विनम्र आदमी क्रोधी न रह जाएगा। विनम्र आदमी लोभी न रह जाएगा। विनम्र आदमी कामी न रह जाएगा। असल में इन सबमें आक्रमण जरूरी है। तो विनम्रता इन सबके लिए रास्ता नहीं रह जाएगी। विनम्र आदमी क्रोध की जगह क्षमा को उपलब्ध होने लगेगा। विनम्र आदमी लोभ की जगह दान को उपलब्ध होने लगेगा। विनम्र आदमी आक्रमण की जगह हारने की तैयारी दिखाने लगेगा। विनम्र आदमी परिग्रह की जगह अपरिग्रही होने लगेगा। विनम्र आदमी अपनी घोषणा करने की जगह अंधेरे और छाया में हटने लगेगा, अदृश्य होने लगेगा। जिस दिन विनम्रता पूरी हो जाएगी, उस दिन पवित्रता पूरी हो जाएगी। इसलिए दूसरे वचन में जीसस कहते हैं, “ब्लेसेड आर द प्योर, दे शैल इनहेरिट द किंग्डम ऑफ गॉड’। वे परमात्मा के राज्य के मालिक हो जाएंगे, जो पवित्र हैं।

एक और वचन है जीसस का इसी तरह का–“ब्लेसेड आर द पुअर इन स्प्रिट’। वे, जो आत्मा से दरिद्र हैं। बड़ा अजीब वाक्य है–“पुअर इन स्प्रिट’। उसमें दोनों बातें सम्मिलित हो गई हैं। उसमें विनम्रता और पवित्रता दोनों ही उस वचन में आ गईं। इतने गरीब हैं हम भीतर–अपवित्र होने के लिए कुछ तो चाहिए? कुछ बचा ही नहीं। “वैक्यूम’ हो गए हैं। इतने गरीब हैं भीतर कि कुछ बचा ही नहीं। कुछ तो चाहिए? अविनम्र होने के लिए कुछ तो चाहिए? कुछ तो “पजेसन’ होना चाहिए? कोई मालकियत होनी चाहिए? धन होना चाहिए, पद होना चाहिए, पदवी होना चाहिए, नाम होना चाहिए, यश होना चाहिए, कुछ तो होना चाहिए? अपवित्र होने के लिए भी कुछ तो होना चाहिए–क्रोध होना चाहिए। अब यह बड़े मजे की बात है कि क्रोध कुछ है, अक्रोध सिर्फ अभाव है। अक्रोध कुछ है नहीं। लोभ कुछ है, अलोभ सिर्फ “एब्सेंस’ हैं, अभाव है। हिंसा कुछ है, अहिंसा सिर्फ अभाव है। इतना गरीब है आदमी भीतर कि न हिंसा है अब उसके पास, न क्रोध है उसके पास, न लोभ, न पद, न प्रतिष्ठा, न नाम, न धन, कुछ भी नहीं है, “पुअर इन स्प्रिट’। दीन-दरिद्र आत्मा से। लेकिन उसकी समृद्धि का कोई मुकाबला नहीं। इसलिए दूसरे वचन में वे कहते हैं कि सब कुछ का वह मालिक हो जाएगा। जो सबसे ज्यादा दीन हो गया है, भीतर वह सबका मालिक हो जाएगा, वह सब पा लेगा। सब जो पाने योग्य है, वह सब उसे मिल जाएगा।

जीसस का एक वचन है इसके संदर्भ में, जिसमें वह कहते हैं: “सीक यी फर्स्ट द किंग्डम ऑफ गॉड एंड आल एल्स शैल बी एडेड अनटू यू’। पहले तुम परमात्मा के राज्य को खोज लो और फिर सब तुम्हें मिल जाएगा। लेकिन जब उनसे कोई पूछता है, परमात्मा के राज्य को खोज लो और फिर सब तुम्हें मिल जाएगा। लेकिन जब उनसे कोई पूछता है, परमात्मा के राज्य को कैसे खोजें? तब वह कहते हैं, विनम्र हो जाओ, पवित्र हो जाओ, दरिद्र हो जाओ, तो परमात्मा का राज्य मिल जाएगा। और जब परमात्मा का राज्य मिल जाएगा, तो “आल एल्स शैल बी एडेड अनटू यू’, और फिर सब, जो भी है, सब तुम्हें मिल जाएगा। उसके पीछे सब चला जाएगा। अजीब शर्त है। सब खो दो, तो सब पा लोगे। कुछ भी बचाया, तो सब खो दोगे। जो अपने को खोने को राजी हैं, वे सब पाने के मालिक हो जाएंगे, जो अपने को बचाने की जिद्द करेंगे, वे सब खो देंगे।

संन्यासी का यही अर्थ है मेरे मन में। जो सब खोने को राजी है, वह सब पाने का अधिकारी हो जाता है।

“लेकिन वह खोने के बाद पाने की क्यों सोचे?’

हां, तुम्हारे सोचने की बात नहीं है। ऐसा होता है। तुम सोचोगी तब तो खो ही न सकोगी। अगर प्रभु का राज्य पाने के लिए विनम्र हुए, तब तो विनम्र हुए ही नहीं। वह जो है, आश्वासन नहीं है, “कांसीक्वेंस’ है। वह जो दूसरी बात है, वह परिणाम है। वह आपके लिए आश्वासन नहीं है। क्योंकि अगर कोई आदमी कहता है कि मैं सब पाने के लिए सब छोड़ने को राजी हूं, तो छोड़ेगा कैसे? वह तो सब पाने के लिए? कुछ नहीं छोड़ सकता। नहीं, वह जो दूसरा हिस्सा है, वह आश्वासन नहीं है, परिणाम है। ऐसा देखा गया है कि जिन्होंने सब छोड़ा, उन्होंने सब पाया है। लेकिन जिन्होंने सब पाना चाहा है, वे कुछ भी नहीं छोड़ सके हैं।

“उपरोक्त बातें तो लगता है कि स्थितप्रज्ञ-पुरुष में ही संभव हैं। और हमें आपके व्यक्तित्व में वह सब दिखता है। आप अति विनम्र हैं। मगर कभी-कभी अति कठोर आलोचक भी हो जाते हैं, तब हमारी दुविधा का पार नहीं रह जाता।’

हां, मैं दुविधा को मिटाऊंगा भी नहीं। क्योंकि जो विनम्रता ओढ़ी गई होती है, जो विनम्रता साधी गई होती है, जो विनम्रता लाई गई होती है, वह सदा विनम्र होती है। लेकिन जो विनम्रता सहज होगी, वह इतनी विनम्र होती है कि अविनम्र होने की भी हिम्मत कर सकती है। सिर्फ विनम्र आदमी ही निर्मम रूप से अविनम्र होने का साहस कर सकता है। सिर्फ प्रेमी ही कठोर हो सकता है।

तो ऐसा निरंतर लगेगा–वही जो मैं कृष्ण के लिए कह रहा हूं–निरंतर ऐसा लगेगा, मुझमें निरंतर उलटी बातें, बहुत तरह की उलटी बातें हैं। लेकिन मैं पूरी जिंदगी को ही स्वीकार करता हूं, वही मेरी विनम्रता है। अगर मेरे भीतर कभी मुझे कठोर होने जैसा होता है, तो मैं रोकता नहीं, क्योंकि रोके कौन? मैं कठोर हो जाता हूं। कभी मुझे विनम्र होने जैसा होता है, तो मैं क्या करूं, विनम्र हो जाता हूं। जो होता है, वह मैं होने देता हूं। अपनी तरफ से मेरी होने की कोई भी चेष्टा नहीं है। मेरा कोई प्रयास नहीं है। इसलिए मेरे साथ दुविधा जारी रहेगी। मेरे साथ दुविधा कभी मिटने वाली नहीं है। और जिनको हम स्थितप्रज्ञ कहते रहे हैं–कृष्ण को स्थितप्रज्ञ कहियेगा कि नहीं कहियेगा! लेकिन दुविधापूर्ण है मामला। कृष्ण बहुत बार प्रज्ञा को बिलकुल खोते हुए मालूम पड़ते हैं। सुदर्शन हाथ में उठाया होगा, तब हमें लगेगा कि प्रज्ञा खो दी, स्थिरता न रही।

यह जो स्थितप्रज्ञ की हमारी धारणा है कि जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गई है, इसका मतलब क्या होता है? इसका क्या यह मतलब होता है कि जो हम ठीक समझते हैं, वही वह करता है? यानी हमारे पक्ष में स्थिर हो गई है? स्थिर हो जाने का कुल मतलब इतना है–स्थिर हो जाने का मतलब जड़ हो जाना नहीं है–स्थिर हो जाने का मतलब कुल इतना है कि प्रज्ञा उपलब्ध हो गई है, और जब जो प्रज्ञा करवाती है वह करता है, अब अपनी तरफ से कुछ भी नहीं करता है। अब न दोष उसके हैं, न गुण उसके हैं। अब न आदर उसका है, न अनादर उसका है। अब न तो वह यह कहता है कि जो मैं कर रहा हूं ठीक कर रहा हूं, न वह यह कहता है कि जो मैं कर रहा हूं वह गैर-ठीक कर रहा हूं। अब न तो वह पछताता, अब न वह प्रायश्चित्त करता–अब वह पीछे लौट कर ही नहीं देखता, अब जो होता है, होता है; और वह उसको होने देता है। अब उसके पास कोई भी इस होने देने के ऊपर खड़ा हुआ नहीं है जो रोके और निर्णय करे कि यह करो और यह मत करो। वह निर्विकल्प हुआ, वह “च्वॉइसलेस’ हुआ।

इसलिए अगर कभी आप पाएं कि मैं बहुत गर्म मालूम पड़ता हूं, तो पा सकते हैं। कोई उपाय नहीं है। गर्मी आती है तो मैं गर्म होता हूं, ठंडी आती है तो मैं ठंडा हो जाता हूं। और मैंने अपनी तरफ से होना छोड़ दिया–मैंने जिद्द छोड़ दी कि मैं यह होऊं और यह न होऊं। इसको ही मैं कहता हूं कि प्रज्ञा की स्थिरता है।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?
कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?


कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–11)

February 15, 2015, 4:26 am

मानवीय पहलूयुक्त भगवत्ता के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 30 सितंबर, 1970;

संध्‍या, मनाली (कुलू)

“भगवान श्री, कृष्णा अर्थात द्रौपदी के चरित्र को लोग बड़ी गर्हित दृष्टि से देखते हैं, तथा कृष्ण का उससे वृहत अनुराग है। इस सब की चर्चा करें और आज के संदर्भ में द्रौपदी का चरित्र स्पष्ट करें।’

 पुरुषों के व्यक्तित्व में जैसे कृष्ण को समझना उलझन की बात है, वैसे ही स्त्रियों के व्यक्तित्व में द्रौपदी को समझना भी उलझन की बात है। और लोगों को जो गर्हित दिखाई पड़ता है, उनके दिखाई देने में वे अपने संबंध में ज्यादा खबर देते हैं, द्रौपदी के संबंध में कम। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह हमारे संबंध में खबर होती है। हम वही देख पाते हैं, जो हम हैं। हम अपने अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देख पाते हैं।

द्रौपदी का व्यक्तित्व हमें कठिन मालूम पड़ेगा। एक साथ पांच व्यक्तियों को प्रेम, एक साथ पांच की पत्नी होना बहुत मुश्किल है। समझना होगा। लेकिन इससे केवल हमारे संबंध में सूचना मिलती है और हमारी आकांक्षाओं, अपेक्षाओं की खबर मिलती है। प्रेम का व्यक्तियों से बहुत संबंध नहीं है। और अगर कोई प्रेम एक से ही किया जा सकता हो, तो वह प्रेम बहुत दीन-हीन हो जाता है। इसे थोड़ा समझना होगा।

हम सबका आग्रह तो यही होता है कि प्रेम एक से हो। हम सब तो यही चाहेंगे कि कोई फूल रास्ते पर खिले तो वह एक के लिए खिले। कोई गीत गाया जाये तो वह एक के लिये गाया जाये। कोई वर्षा हो तो वह एक खेत पर हो। कोई सूरज निकले तो एक आंगन में चमके। हम सबका मन यह होता है कि जो भी हो उस पर हमारी पूरी मालकियत और पूरा “पजेसन’ हो जाए। हम ही उसको पूरा घेर कर बैठ जाएं। अगर मुझे कोई प्रेम करता है तो वह सिर्फ मुझे ही प्रेम करे, उसका प्रेम किन्हीं और द्वारों और धाराओं से न बह जाए। कहीं बंट न जाए। क्योंकि हम चूंकि प्रेम को नहीं समझते हैं, इसलिए हम ऐसा भी समझते हैं कि अगर वह बंट जाएगा तो मेरे लिए कम हो जाएगा। प्रेम जितना फैलता है, उतना बढ़ता है। और प्रेम जितना बंटता है, उतना बढ़ता है। और जब हम प्रेम को एक ही धारा में बहाने की बहुत चेष्टा करते हैं, जो कि अनैसर्गिक है, अप्राकृतिक है, जोर-जबर्दस्ती है, तो अंतिम परिणाम सिर्फ इतना ही होता है कि और कहीं तो प्रेम नहीं बहता, जहां हम बहाना चाहते हैं वहां भी नहीं बहता है।

एक छोटी-सी कहानी मुझे याद आती है। एक भिक्षुणी थी–बौद्ध भिक्षुणी। उसके पास एक छोटी-सी बुद्ध की चंदन की प्रतिमा थी। वह अपने बुद्ध को सदा अपने साथ रखती थी। भिक्षुणी थी, मंदिरों में, विहारों में ठहरती थी, लेकिन पूजा अपने ही बुद्ध की करती थी। एक बार वह उस मंदिर में ठहरी जो हजार बुद्धों का मंदिर है, जहां हजार बुद्ध-प्रतिमाएं हैं, जहां मंदिर के कोने-कोने में प्रतिमाएं-ही-प्रतिमाएं हैं। वह सुबह अपने बुद्ध को रख कर पूजा करने बैठी, उसने धूप जलाई। अब धूप तो कोई आदमी के नियम मानती नहीं! उलटा ही हो गया। हवा के झोंके ऐसे थे कि उसके छोटे-से बुद्ध की नाक तक तो धूप की सुगंध न पहुंचे और पास जो बड़ी-बड़ी बुद्ध की प्रतिमाएं बैठी थीं, उन तक सुगंध पहुंचने लगी। वह तो बहुत चिंतित हुई। ऐसा नहीं चल सकता है। तो उसने एक छोटी-सी टीन की पोंगरी बनाई और अपने धूप पर ढांकी और अपने छोटे-से बुद्ध की नाक के पास चिमनी का द्वार खोल दिया, ताकि धूप की सुगंध अपने ही बुद्ध को मिले। सुगंध तो मिल गई अपने बुद्ध को, लेकिन बुद्ध का मुंह काला हो गया। वह बड़ी मुश्किल में पड़ी, चंदन की प्रतिमा थी, वह सब खराब हो गई। उसने जाकर मंदिर के पुजारी को कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं। मेरे बुद्ध की प्रतिमा खराब हो गई, कुरूप हो गई, अब मैं क्या करूं? तो उस पुजारी ने कहा कि जब भी कोई उन सत्यों को जो सब तरफ फैलते हैं, एक दिशा में बांधता है, तब ऐसी ही दुर्घटना और ऐसी ही कुरूपता हो जाती है।

प्रेम को मनुष्य-जाति ने अब तक संबंध की तरह सोचा है, “रिलेशनशिप’ की तरह। दो व्यक्तियों के बीच संबंध की तरह। प्रेम को हमने अब तक “स्टेट आफ माइंड’ की तरह नहीं समझा, कि एक व्यक्ति की भावदशा प्रेम की है। द्रौपदी को समझने में वही कठिनाई है।

यदि मैं प्रेमपूर्ण हूं, तो एक के प्रति ही प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता हूं। प्रेमपूर्ण होना मेरा स्वभाव हो जाएगा। मैं अनेक के प्रति प्रेमपूर्ण हो जाऊंगा–एक-अनेक का सवाल ही नहीं रह जाता, मैं प्रेमपूर्ण हो पाऊंगा। अगर मैं एक के प्रति ही प्रेमपूर्ण हूं और शेष के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हूं, तो मैं एक के प्रति भी प्रेमपूर्ण नहीं रह पाऊंगा। तेईस घंटे मुझे अप्रेम में जीना पड़ता है–दूसरों के साथ होता हूं, एक घंटा जिससे प्रेम करता हूं उसके साथ होता हूं। तेईस घंटे अप्रेम का अभ्यास चलता है, एक घंटे में टूटता नहीं फिर। फिर एक घंटे में, जिसे हम प्रेम कहते हैं वह भी प्रेम नहीं हो पाता, अप्रेम ही हो जाता है।

लेकिन समस्त जगत के प्रेमी, नासमझ ही कहना चाहिए, उन्हें प्रेम का कोई पता नहीं, प्रेम को बांध लेना चाहेंगे। और जैसे ही हम प्रेम को बांधते हैं, प्रेम हवाओं की तरह है, मुट्ठी जोर से बांधी तो हवा मुट्ठी में नहीं रह जाती, मुट्ठी खुली हो तो ही रहती है। जोर से बांधी तो हवा बाहर हो जाती है। खुली मुट्ठी में नहीं होती है। प्रेम को बांधने की चेष्टा में ही प्रेम मरता है और सड़ जाता है। और हम सबने अपने प्रेम को मार डाला है और सड़ा लिया है–उसे बांधने की चेष्टा में।

द्रौपदी को हमें समझना इसीलिए मुश्किल पड़ता है कि पांच व्यक्तियों को कैसे प्रेम कर सकी होगी! हमें ही नहीं पड़ता है मुश्किल, उन भाइयों को भी मुश्किल पड़ता था। हमें पड़े तब भी ठीक है। उन पांच भाइयों को भी मुश्किल पड़ता था और वे भी मन-मन में सोचे जाते थे कि जरूर इसका किसी एक से ज्यादा होगा। सबसे एक-सा कैसे हो सकता है? अर्जुन पर सबकीर् ईष्या थी। सबको डर था कि अर्जुन से इसका लगाव ज्यादा है। वे पांच भाई भी नहीं समझ पाए हैं द्रौपदी को। उन्होंने भी शर्तबंदी कर रखी थी, दिन बांट रखे थे। द्रौपदी जब एक को प्रेम करती है तो दूसरे से मिलती नहीं। और यह भी तय कर रखा था कि जब एक भाई द्रौपदी के पास हो, तो दूसरा भूलकर भी भीतर न झांके। वे पांच भाई भी द्रौपदी को नहीं समझ पाए हैं। उनकी भी कठिनाई वही है जो हमारी कठिनाई है। हम सोच ही नहीं सकते कि प्रेम एक धारा हो सकती है, जो व्यक्तियों की तरफ नहीं बहती, व्यक्ति से बहती है। हम यह सोच ही नहीं पा सकते, क्योंकि हमने तो कभी व्यक्ति को छोड़कर प्रेम को सोचा ही नहीं है। इसलिए द्रौपदी हमें उलझन बन जाएगी। और हमारे मन में हम कितना ही समझाने की कोशिश करें, ऐसा लगेगा कि द्रौपदी में कहीं-न-कहीं कुछ वेश्या छिपी है। क्योंकि हमारी सती की जो परिभाषा है, वही द्रौपदी को वेश्या बना देगी।

लेकिन कभी आपने खयाल किया है कि इस देश की परंपरा ने द्रौपदी को पांच कन्याओं में गिना है। पांच पवित्रतम स्त्रियों में गिना है। बड़े अजीब लोग रहे होंगे, जिन्होंने द्रौपदी को पांच श्रेष्ठतम महासतियों में गिना है। जरूर जिन्होंने गिनती की होगी, उनको भी यह तथ्य तो साफ जाहिर है। इस तथ्य में कोई छिपाव नहीं है। इस तथ्य को जानते हुए यह गिनती की गई है। यह बड़ी अर्थपूर्ण है। यह इस बात की सूचक है कि प्रेम एक से है या अनेक से है, यह सवाल नहीं है, प्रेम है या नहीं, यह सवाल है। और यदि प्रेम है तो वह अनंत धाराओं में बह सकता है। पांच तो सिर्फ प्रतीक ही है। पांच की तरफ बह सकता है, पचास की तरफ बह सकता है, लाख की तरफ बह सकता है। और जिस दिन हम इस पृथ्वी पर प्रेमपूर्ण व्यक्ति पैदा कर सकेंगे, उस दिन यह प्रेम की जो व्यक्तिगत मालकियत है, यह बिलकुल बेमानी हो जाएगी। ऐसा नहीं है कि किसी को हम जबर्दस्ती करें कि वह एक को प्रेम न करे, ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं है कि हम इससे उलटा नियम बना लें कि जो एक को प्रेम करता है, वह पाप करता है। वह फिर वही नासमझी दूसरे छोर से हो जाएगी। नहीं, हम यह जानकर चलें कि जो जिसकी सामर्थ्य है वैसा करता है और हम अपने व्यक्तित्व को और अपनी सामर्थ्य को दूसरे के ऊपर थोपते न चले जाएं।

द्रौपदी में प्रेम का बहाव है। और वह बहाव द्रौपदी ने एक क्षण को भी इनकार नहीं किया। यह बड़ी अजीब घटना थी। यह बड़े खेल में घट गई थी। द्रौपदी को लेकर आए थे और पांचों भाइयों ने कहा था कि हम एक बहुत अदभुत चीज ले आए हैं। मां ने कहा कि अदभुत ले आए हो तो पांचों बांट लो। उन्हें कभी कल्पना भी न थी। उन्होंने तो सिर्फ मजाक किया था और मां को छकाना चाहते थे। उन्हें पता भी न था कि मां कह देगी कि बांट लो पांचों। और फिर जब मां ने कह दिया था तो कोई उपाय न रहा था। फिर वे पांचों ही एक साथ द्रौपदी के पति हो गए। लेकिन द्रौपदी ने एक क्षण को भी इससे कोई इनकार नहीं किया। उसके प्रेम में अनंतता के कारण ही यह संभव हो सका। वह सब, पांचों को प्रेम दे सकी और इससे प्रेम चुका नहीं। पांचों को प्रेम दे सकी, प्रेम घटा नहीं। पांचों को प्रेम दे सकी, लेकिन इससे कहीं कोई दुविधा और कहीं द्वैत उसके मन में नहीं आया है। यह बहुत ही अदभुत स्त्री होनी चाहिए। अन्यथा स्त्री साधारणतःर् ईष्या में जीती है। अगर हम पुरुष और स्त्री के व्यक्तित्वों का एक खास चिह्न खोजना चाहें, तो पुरुष अहंकार में जीते हैं, स्त्रियांर् ईष्या में जीती हैं। असल मेंर् ईष्या जो है, वह अहंकार का “पैसिव’ रूप है। अहंकार जो है, वहर् ईष्या का “एक्टिव’ रूप है। अहंकार सक्रियर् ईष्या है,र् ईष्या निष्क्रिय अहंकार है। स्त्रियां तो निरंतरर् ईष्या में जीती हैं। लेकिन यह स्त्री बिनार् ईष्या के प्रेम में जी सकी, और इन पांचों भाइयों से कई अर्थों में ऊंचे उठ गई। ये पांचों भाई बड़ी तकलीफ में रहे हैं। द्रौपदी को लेकर भीतर एक निरंतर द्वंद्व और संघर्ष चलता ही रहा है। लेकिन द्रौपदी निर्द्वंद्व और शांत इस बहुत अजीब घटना को गुजार गई।

हमारी समझ में जो तकलीफ होती है, वह हमारे कारण होती है। हम प्रेम को एक और एक के बीच का संबंध मानते हैं। है नहीं प्रेम ऐसा। और इसलिए हम फिर प्रेम के लिए बहुत-बहुत झंझटों में पड़ते हैं और बहुत कठिनाइयां खड़ी कर लेते हैं। प्रेम ऐसा फूल है, जो कभी भी और किसी के लिए भी आकस्मिक रूप से खिल सकता है। न उस पर कोई बंधन है, न उस पर कोई मर्यादा है। और बंधन और मर्यादा जितनी ज्यादा होगी, उतना हम एक ही निर्णय कर सकते हैं कि हम उस फूल को ही न खिलने दें। फिर वह एक के लिए भी नहीं खिलता। फिर हम बिना प्रेम के जी लेते हैं। लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं। हम बिना प्रेम के जी लेना पसंद करेंगे, लेकिन प्रेम की मालकियत छोड़ना पसंद न करेंगे। हम यह पसंद कर लेंगे कि जिंदगी हमारी रिक्त प्रेम से गुजर जाए, लेकिन हम यह बर्दाश्त न करेंगे कि जिसे हमने प्रेम किया है उसके लिए कोई और भी प्रेमपात्र हो सके। यह हम बर्दाश्त न करेंगे। हम बिना प्रेम के रह जाएं, यह चलेगा; हमारे भवन पर प्रेम की वर्षा न हो, यह चलेगा, लेकिन पड़ोसी के भवन पर हो जाए, हमारे भवन के साथ, तो भी नहीं चलेगा। अहंकार औरर् ईष्या अदभुत कष्ट में डालते हैं।

फिर साथ ही यह भी खयाल रहे कि यह जो घटना है द्रौपदी की, यह अकेली घटना नहीं है। ऐसा है कि द्रौपदी की घटना शायद आखिरी घटना है। द्रौपदी के पहले जो समाज था जगत में, वह मातृसत्ता का था। हजारों वर्षों तक “मेट्रिआर्क सोसाइटी’ थी। उसमें कोई स्त्री किसी पुरुष की नहीं होती थी। और इसलिए मां का तो पता चलता था, पिता का कोई पता नहीं चलता था। ऐसा मालूम होता है कि द्रौपदी की घटना उस लंबी शृंखला की आखिरी कड़ी है। इसलिए उस वक्त में किसी ने इस पर एतराज नहीं उठाया। “पॉलिगैमी’ समाप्त होने के करीब थी। आखिरी कड़ी है यह। एक स्त्री के बहु-पति, आज भी कुछ आदिम समाज जो जिंदा हैं जमीन पर, उनमें चलती है वह व्यवस्था। ऐसा प्रतीत होता है कि द्रौपदी की घटना उस लंबी शृंखला की, मरती हुई शृंखला की आखिरी कड़ी है। इसलिए उस समाज को बहुत अड़चन न हुई मालूम। किसी ने इस पर कोई एतराज न उठाया। नहीं तो मां को भी क्या तकलीफ थी कि अपना वक्तव्य बदल देती। लड़के अगर आज्ञा मानने को भी उत्सुक थे, तो मां तो अपनी आज्ञा बदल सकती थी। पता चलने पर कि नहीं, कोई चीज नहीं ले आए हैं, एक पत्नी ले आए हैं, इसको पांच में कैसे बांटा जा सकता है। लेकिन मां ने आज्ञा न बदली। और अगर आज्ञा अनैतिक होती तो लड़के भी प्रार्थना तो कर ही सकते थे कि यह आज्ञा बदल लें, क्योंकि हमसे भूल हो गई। इसमें कोई अड़चन न थी। लेकिन न मां ने आज्ञा बदली, न लड़कों ने आज्ञा बदलने की कोई प्रार्थना की, न उस समाज में किसी ने इस पर कोई एतराज उठाया कि यह गलत हो गया है। उसका कुछ कारण इतना ही है कि वह समाज जिस व्यवस्था में जी रहा था, उस व्यवस्था में यह घटना अनैतिक नहीं मालूम पड़ी होगी।

हमेशा ऐसा होता है कि एक-एक समाज की अपनी धारणाएं दूसरे समाज को बड़ा अनैतिक बना देती हैं। मुहम्मद ने नौ शादियां कीं। और कुरान में प्रत्येक व्यक्ति को चार शादी करने की आज्ञा दी। आज हम सोचने बैठते हैं तो बड़ा अनैतिक मालूम पड़ता है, यह क्या पागलपन है! एक व्यक्ति चार शादी करे, और खुद मुहम्मद नौ शादी करें! और मुहम्मद भी बड़े अनूठे आदमी हैं। पहली शादी जब इन्होंने की तो उनकी उम्र कुल चौबीस साल थी और उनकी पत्नी की उम्र चालीस साल थी। लेकिन जिस समाज में मुहम्मद थे, उस समाज में एक बहुत अदभुत घटना घट गई थी जिसकी वजह से यह बिलकुल स्वाभाविक था और अनैतिक नहीं समझा गया। जिस कबीले में वे थे, वह एक लड़का कबीला था। पुरुष तो कट जाते थे और मर जाते थे। स्त्रियां इकट्ठी हो गई थीं बहुत बड़ी संख्या में। और यही नैतिक था उस घड़ी में कि एक-एक पुरुष चार-चार शादी कर ले। अन्यथा जो तीन स्त्रियां बच जाती थीं–स्त्रियां चौगुनी–वह जो तीन स्त्रियां बच जाती हैं, उनका क्या होगा? और तीन स्त्रियां अगर जीवन में प्रेम को न पा सकें, अतृप्त रहें, तो समाज बहुत अनैतिक और बहुत व्यभिचारी हो जाएगा। इसलिए मुहम्मद ने कहा कि चार शादी प्रत्येक पुरुष कर ले, यह बड़ी धार्मिक व्यवस्था है। और खुद तो हिम्मत करके नौ शादियां कीं। वह सिर्फ यह कहने को कि अगर मैं चार की कहता हूं तो मैं नौ करके बताये देता हूं। अरब में किसी को अड़चन न हुई इस बात से, क्योंकि बात सीधी और साफ थी। इसमें कोई अनैतिकता नहीं दिखाई पड़ी थी।

द्रौपदी के मामले को लेकर मेरी समझ यह है कि कोई अड़चन नहीं हुई क्योंकि जो युग था, वह धीरे-धीरे मर रही थी यह व्यवस्था, बहु-पति की व्यवस्था मर रही थी, लेकिन…और मरेगी, क्योंकि स्त्री और पुरुष अगर बराबर संख्या में होते चले जाएं तो न तो बहु-पति की व्यवस्था चल सकती है, न बहु-पत्नी की व्यवस्था चल सकती है। किन्हीं कारणों से पुरुष और स्त्रियों का संतुलन बिगड़ जाता है तो ऐसी व्यवस्थायें चल सकती हैं।

तो उस दिन तो यह अनैतिक न था। आज भी मैं मानता हूं कि जिस स्त्री ने पांच को एक-सा प्रेम दिया, पांच के प्रेम में जीयी, वह साधारण स्त्री न थी। असाधारण स्त्री थी। और उसके पास प्रेम का अजस्र स्रोत था, इसलिए ही यह संभव हो सका था।

लेकिन हमें सोचने में कठिनाई होती है, वह हमारे कारण होती है।

“भगवान श्री, आपने कहा है कि कृष्ण न मित्र बनाते, न शत्रु बनाते। लेकिन अपने बालसखा सुदामा से उनका इतना प्रेम है कि सिंहासन छोड़कर उसके लिए भागे आते हैं। और तीन मुट्ठी चावल पाकर उसे त्रिलोक का वैभव दे डालते हैं। कृपया, कृष्ण-सुदामा के इस विशेष मैत्री-संबंध पर प्रकाश डालें।’

विशिष्ट मैत्री-संबंध नहीं है, बस मैत्री-संबंध है। यहां भी हमारी ही तकलीफ है। हमें लगता है कि तीन मुट्ठी चावल के लिए तीनों लोक का साम्राज्य दे डालना, जरा ज्यादा है। लेकिन सुदामा के लिए तीन मुट्ठी चावल देना जितना कठिन था, कृष्ण के लिए तीन लोकों का साम्राज्य देना उतना कठिन नहीं है। उसका हमें खयाल नहीं है। सुदामा के लिए तीन मुट्ठी चावल भी बहुत बड़ी बात थी, बहुत मुश्किल था। इसमें अगर दान दिया है तो सुदामा ने ही दिया है। इसमें दान कृष्ण का नहीं है। लेकिन आमतौर से हमें यही दिखाई पड़ता रहा है कि दान दिया है कृष्ण ने। सुदामा क्या लाया था! तीन मुट्ठी चावल ही लाया था! फटे कपड़े में बांधकर!

लेकिन हमें पता नहीं कि सुदामा कितनी दीनता में जी रहा था। उसके लिए एक दाना भी जुटाना और लाना बड़ा कठिन था। और कृष्ण के लिए तीन लोक का साम्राज्य देना भी कठिन नहीं था। इसलिए कोई कृष्ण ने सुदामा पर उपकार कर दिया हो, इस भूल में कोई न रहे। कृष्ण ने सिर्फ “रिसपांस’, उत्तर दिया है और उत्तर बहुत बड़ा नहीं है। बड़े-से-बड़ा जो हो सकता था, उतना है। इसलिए तीन लोक के साम्राज्य की बात कही। बड़ी-से-बड़ी जो कल्पना है कवि की, वह यह है कि तीन लोक हैं और तीनों लोक का साम्राज्य है। लेकिन एक गरीब हृदय के पास, जिसके पास कुछ भी नहीं है, तीन चावल के दाने भी नहीं हैं, वह तीन मुट्ठी चावल ले आया है, उसे हम कब समझ पाएंगे? नहीं, कृष्ण देकर भी तृप्त नहीं हुए हैं। क्योंकि जो सुदामा ने दिया है वह बहुत असाधारण है। और जो कृष्ण ने दिया है, उनकी हैसियत के आदमी के लिए बहुत साधारण है। इसलिए ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि कोई सुदामा के साथ विशेष मैत्री दिखाई गई है। सुदामा आदमी ऐसा है कि सुदामा ने ही विशेष मैत्री दिखाई है। कृष्ण ने सिर्फ उत्तर दिया है।

और जैसा मैंने कहा कि वे मित्र और शत्रु किसी के भी नहीं हैं। लेकिन सुदामा जैसा मित्र, सुदामा की तरफ से मैत्री का इतना भाव लेकर आए, तो कृष्ण तो वैसा ही “रिसपांस’ करते हैं जैसे घाटियों में हम आवाज दें तो घाटियां सात बार आवाज को दोहराकर लौटाती हैं। घाटियां हमारी आवाज की प्रतीक्षा नहीं कर रही हैं, न घाटियां हमारी आवाज के उत्तर देने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं, न उसका कोई “कमिटमेंट’ है, लेकिन जब हम घाटियों में आवाज देते हैं तो घाटियां उसको सातगुना करके वापस लौटा देती हैं। वह घाटियों का स्वभाव है। वह प्रतिध्वनि, वह “इकोइंग’ घाटी का स्वभाव है। कृष्ण ने जो उत्तर दिया है वह कृष्ण का स्वभाव है। और सुदामा जैसा व्यक्ति जब सामने आ गया हो और इतनी प्रेम की आवाज दी हो, तो कृष्ण उसे अगर हजारगुना करके भी लौटा दें तो भी कुछ नहीं है। वह कृष्ण का स्वभाव है। यह कोई भी कृष्ण के द्वार पर गया होता, सुदामा का हृदय लेकर…।

बड़े मजे की बात है कि गरीब हमेशा मांगने जाता है, सुदामा देने गया था। और जब गरीब देने जाता है तो उसकी अमीरी का कोई मुकाबला नहीं। इससे उलटी बात अमीर के साथ घटती है, अमीर हमेशा देने जाता है। लेकिन जब अमीर मांगने जाता है, जैसे बुद्ध की तरह भिक्षा का पात्र लेकर सड़क पर खड़ा हुआ, तब मामला बिलकुल बदल जाता है। अगर बुद्ध की तरह भिक्षा का पात्र लेकर सड़क पर खड़ा हुआ, तब मामला बिलकुल बदल जाता है। अगर बुद्ध और सुदामा को साथ सोचेंगे तो खयाल में आ सकेगा। इधर सुदामा गरीब है और देने गया है, और बुद्ध के पास सब कुछ है और भीख मांगने चले गए हैं। जब अमीर भीख मांगने जाता है तब अलौकिक घटना घटती है और जब गरीब दान देने जाता है, तब अलौकिक घटना घटती है। ऐसे अमीर तो दान देते रहते हैं और गरीब मांगते रहते हैं, यह बहुत सामान्य घटना है। इसमें कोई विशेष बात नहीं है। सुदामा उसी विशिष्ट हालत में है जिस हालत में बुद्ध का सड़क पर भीख मांगना है। बुद्ध को क्या कमी है कि भीख मांगने जाएं? सुदामा के पास क्या है जो देने को उत्सुक हो गया है? पागल ही है। बुद्ध भी पागल, वह भी पागल। और देने भी किसको गया है! कृष्ण को देने गया है, जिनके पास सब कुछ है। लेकिन प्रेम यह नहीं देखता कि आपके पास कितना है। आपके पास कितना ही हो तो भी प्रेम देता है। प्रेम यह मान ही नहीं सकता कि आपके पास पर्याप्त है।

इसे थोड़ा समझना चाहिए।

प्रेम कभी यह मान ही नहीं सकता कि आपके पास पर्याप्त है। प्रेम तो देता ही चला जाता है। ऐसी कोई घड़ी नहीं आती कि जब वह कहे कि बस, अब काफी दे चुके, बहुत तुम्हारे पास है, अब देने की कोई जरूरत न रही। “इट इज़ नेवर इनफ’। कभी पर्याप्त होता ही नहीं। प्रेम देता ही चला जाता है, उलीचता ही चला जाता है और सदा कम ही रहता है। अगर हम एक मां से पूछें कि तूने अपने बेटे के लिए इतना-इतना किया, तो अगर वह नर्स होगी तो बताएगी कि हां, इतना-इतना किया। और अगर वह मां होगी तो वह कहेगी, कहां किया! मुझे बहुत कुछ करना था, वह मैं कर नहीं पाई। मां हमेशा लेखा-जोखा रखेगी उसका, जो वह नहीं कर पाई। और अगर मां लेखा-जोखा रखती हो कि कितना उसने किया, तो वह मां होने के भ्रम में है, उसने सिर्फ नर्स का काम किया है, इससे ज्यादा कोई उसका काम नहीं है? प्रेम सदा लेखा-जोखा रखता है कि क्या मैं कर नहीं पाया। कृष्ण के पास क्या कमी है? फिर भी सुदामा देने को आतुर है। घर से चलते वक्त उसकी पत्नी ने तो कहा है कि कुछ मांग लेना। लेकिन वह देने को चला आया है।

दूसरी भी बात है, बड़े संकोच से भरा है, अपनी पोटली को बहुत छिपा लिया है। प्रेम देता भी है और संकोच भी अनुभव करता है, क्योंकि प्रेम को सदा लगता है कि देने योग्य है क्या? प्रेम देता भी है और छिपाता भी है। अंधेरे में देना चाहता है, अज्ञात देना चाहता है, बिना नाम के देना चाहता है, पता न चले। तो वह अपनी पोटली को छिपाए हुए है कि दूं कैसे! देने योग्य है भी क्या! ऐसा नहीं है कि चावल है, इसलिए; अगर हीरे भी लेकर सुदामा गया होता तो भी ऐसा ही छिपाता। वह सवाल चावल का नहीं है, उसके लिए तो हीरे से भी ज्यादा कीमती चावल हैं। बड़ा सवाल यह है कि प्रेम कभी घोषणा करके नहीं देता। क्योंकि जब घोषणा ही हो गई तो प्रेम कहां रहा! वहां तो अहंकार शुरू हो गया। प्रेम चुपचाप दे देता है और भाग जाता है। पता भी न चल पाए कि कौन दे गया। और वह बड़ा डरा हुआ है और छिपाए हुए है। वह घड़ी बड़ी अदभुत रही होगी। लेकिन बड़े मजे की बात है, और कृष्ण उससे आते ही से पूछने लगते हैं कि लाए क्या हो? देने को क्या लाए हो? क्योंकि कृष्ण यह मान ही नहीं सकते कि प्रेम बिना देने के खयाल से, और आ गया हो। प्रेम जब भी आता है तो देने ही आता है। सुदामा है कि छिपाए जा रहा है। और कृष्ण हैं कि खोजे जा रहे हैं कि लाए क्या हो? अब ऐसे कृष्ण को क्या कमी है, कि सुदामा क्या लाएगा जिससे उनकी कोई बढ़ती हो जाए! लेकिन वे जानते हैं कि प्रेम जब भी आता है तो देने ही आता है, लेने नहीं आता। सुदामा जरूर कुछ लाया ही होगा। उसने जरूर छिपा रखा होगा, क्योंकि वे जानते हैं कि प्रेम सदा छिपाता है। और फिर उन्होंने उसकी पोटली खोज-बीन कर छीन ही ली। और फिर उस भरे दरबार, जहां कि खाली चावल कभी भी न आए होंगे, वे उन चावलों को खाने लगे।

इसमें कोई विशेष घटना नहीं है। प्रेम के लिए बड़ी सामान्य घटना है। लेकिन चूंकि प्रेम ही हमें सामान्य नहीं रह गया, इसलिए विशेष मालूम पड़ता है।

“मेरा प्रश्न ऐसा है भगवान श्री, कि सुदामा की दरिद्रता को कृष्ण ने दूर किया, पर उसे देखकर क्या कृष्ण को समाज में जिस कारण से दरिद्रता है, उसका खयाल न आया और उन्होंने समाज की अर्थ-व्यवस्था को बदलने के बारे में न सोचा? महावीर और बुद्ध न सोचते तो एक बात थी, पर कृष्ण जैसा व्यापक व्यक्ति, जो लौकिक विषयों को भी पूरा महत्व देता है, क्यों नहीं सोचता है?

धार्मिक पुरुषों ने शायद सोचा ही नहीं। और जिसने सोचा, कार्ल माक्र्स ने, वह धार्मिक न रहा। आप अपने बारे में भी बतलाएं कि आप चूंकि धर्म और आत्मा से संबद्ध हैं, आप अर्थ-व्यवस्था के बारे में कुछ सोचेंगे? और किस रूप में उसे क्रियान्वित किया जा सकेगा?’

यह सवाल बहुत बार उठता रहा है। और यह इल्जाम बुद्ध पर, कृष्ण पर, महावीर पर, जीसस पर, मुहम्मद पर, सब पर लगाया जा सकता है कि उन्होंने अर्थ-व्यवस्था के संबंध में क्यों न सोचा? बहुत से कारण हैं। वे सोच ही नहीं सकते थे। सोचने का उपाय ही नहीं था। सोचने की परिस्थिति ही नहीं थी। हम सोच पाते हैं, क्योंकि परिस्थिति पैदा हो गई। माक्र्स सोच पाया, क्योंकि माक्र्स के पहले एक “इंडस्ट्रियल रेवल्यूशन’, एक औद्योगिक क्रांति हो गई। औद्योगिक क्रांति के पूर्व जगत में कोई भी अर्थ-व्यवस्था को रूपांतरण करने की नहीं सोच सकता। उपाय नहीं है। इसके कारण समझ लेने जरूरी हैं।

औद्योगिक क्रांति के पूर्व जो जगत था, उस जगत के पास आदमी का श्रम ही एकमात्र उत्पादक स्रोत था। और आदमी के श्रम से जितना पैदा हो सकता था, उसको किसी भी तरह बांटा जाए, उससे दरिद्रता नहीं मिट सकती थी। उससे दरिद्रता मिटने का उपाय ही नहीं था। दरिद्रता लाजिमी थी। विषमता भी नहीं मिट सकती थी। उसके भी कारण हैं। उसकी मैं बात करता हूं।

पहली बात, दरिद्रता नहीं मिट सकती थी। दरिद्रता मिटने के लिए जितनी संपत्ति चाहिए, उतनी समाज के पास संपत्ति न थी। हां, इतना ही हो सकता था कि कुछ लोग जो समृद्ध दिखाई पड़ते थे, वे मिटाए जो सकते थे। उनको भी दरिद्र बनाया जा सकता था। इतना हो सकता था। अगर हजार आदमी में एक आदमी के पास थोड़ी संपत्ति दिखाई पड़ती थी, तो उसको मिटाया जा सकता था। और नौ सौ निन्यानबे की जगह एक हजार आदमी दरिद्र हो सकते थे। मनुष्य अपने श्रम से जो संपत्ति पैदा करता है, उससे कभी दरिद्रता के “लेवल’ के ऊपर नहीं जा सकता। उस दिन के बाद ही दरिद्रता मिटाने का विचार उठ सकता है जिस दिन से आदमी के श्रम की जगह यंत्र का श्रम संपत्ति पैदा करने लगे। उस दिन हम एक-एक आदमी की जगह लाख-लाख गुनी मशीनों का उपयोग कर पाते हैं। संपत्ति वृहत पैमाने पर पैदा होनी शुरू होती है और पहली दफे यह खयाल आना शुरू होता है कि अब दरिद्र रखने की कोई जरूरत न रही। उसकी ऐतिहासिक आवश्यकता समाप्त हो गई। इसलिए औद्योगिक क्रांति के बाद ही माक्र्स सोच पाया। अगर औद्योगिक क्रांति के बाद कृष्ण पैदा होते तो माक्र्स से बहुत ज्यादा साफ सोच पाते, जितना साफ माक्र्स नहीं सोच पाया। लेकिन कृष्ण औद्योगिक क्रांति के पहले हैं। कोई माक्र्स से भी पूछे कि आप भी औद्योगिक क्रांति के पहले क्यों न पैदा हो गए!

ऐसा नहीं है कि मनुष्य के पास चिंतन नहीं था और ऐसा भी नहीं है कि मनुष्य को दरिद्रता के मिटाने का खयाल पैदा नहीं हुआ। हुआ। बुद्ध को भी हुआ, महावीर को भी हुआ। लेकिन बुद्ध और महावीर ने दरिद्रता को मिटाने का उपाय किया? मालूम है, खुद दरिद्र हो गए। और कोई उपाय नहीं था। अगर दरिद्रता पीड़ा देती है, तो इसके सिवाय कोई उपाय नहीं कि तुम भी दरिद्र होकर खड़े हो जाओ दरिद्रों के साथ, और क्या करोगे! तो बुद्ध और महावीर ने अपनी संपत्ति छोड़ दी। महावीर ने तो अपनी संपत्ति बांट भी दी। सारी संपत्ति महावीर ने बांट दी। जो उनके हिस्से में पड़ी थी, वह सब बांटकर वह चले गए। लेकिन उससे दरिद्रता नहीं मिटी। दरिद्रता के मिटने से उसका कोई संबंध नहीं है। यह एक नैतिक उपाय तो हुआ। महावीर ने अपने मन की पीड़ा तो मिटा ली, लेकिन दरिद्रता न मिटी।

इसलिए पुराने जगत के समस्त विचारकों ने अपरिग्रह पर जोर दिया है, परिग्रह मत करो। इस पर वह जोर नहीं दे सकते कि कोई दरिद्र न रहे, वह इस पर ही जोर दे सकते हैं कि कोई संपत्तिशाली न रहे। इसके सिवा कोई उपाय नहीं है। यानी उनके पास जो मौजूदा स्थिति थी, उस मौजूदा स्थिति में एक ही उपाय था कि कोई अमीर न रहे। इसलिए सारे पुराने धर्म अपरिग्रह पर, नॉन पजेसन’ पर, चीजों के त्याग पर, धन के संग्रह के विरोध में खड़े हैं। वे कहते हैं, बांट दो सब जो है। लेकिन यह भी वे जानते हैं कि बंटने से यह धनी आदमी तो अपरिग्रही हो जाता है, लेकिन जिसके पास नहीं है उनके पास कुछ भी नहीं पहुंचता। यह उपाय ऐसा है, जैसे कोई चम्मच रंग लेकर और समुद्र को रंगने चला जाए। एक बुद्ध बंट जाते हैं, खतम! एक महावीर बंट जाते हैं, खतम! वह जो विराट दरिद्रता का सागर है, वह उनके चम्मच को घोलकर पी जाता है। उससे कुछ पता नहीं चलता, उससे कहीं कोई परिणाम नहीं होता।

नहीं सोचा जा सकता था, इसलिए नहीं सोचा गया।

लेकिन, दूसरा सवाल है कि विषमता तो मिटाई जा सकती थी। दरिद्रता नहीं मिटाई जा सकती थी, विषमता मिटाई जा सकती थी, लेकिन विषमता मिटाने का खयाल क्यों पैदा न हुआ?

उसका भी कारण है। इसे थोड़ा ऐसे समझना पड़ेगा। विषमता मिटाने का खयाल तभी पैदा होता है, जब बहुत दूर तक हमारे बीच समानता आनी शुरू हो जाती है। उसके पहले पैदा नहीं होता। असल में विषमता है, यह हमें तभी पता चलता है जब समाज “क्लासेज’ में बंटा हुआ नहीं रह जाता, बल्कि सीढ़ियों में बंट जाता है। जैसे एक मेहतरानी है एक गांव की। अगर गांव की महारानी हीरों के हार पहनकर निकले तो मेहतरानी को कोई भी तकलीफ नहीं होती। होती ही नहीं। कोईर् ईष्या नहीं पकड़ती। क्योंकि फासला इतना बड़ा है किर् ईष्या पकड़ने का उपाय भी नहीं। “डिस्टेंस’ बहुत बड़ा है। कहां मेहतरानी और कहां महारानी! इन दोनों के बीच इतना अंतराल है कि मेहतरानी यह सोच भी तो नहीं सकती कि वह महारानी सेर् ईष्या करे। लेकिन उसकी पड़ोस की मेहतरानी अगर एक कंकड़-पत्थर का हार भी डालकर निकल जाए, तो उसेर् ईष्या शुरू हो जाती है। क्यों? पड़ोस की मेहतरानी जहां है, वहां वह भी हो सकती है। इसमें कोई असंभावना नहीं है। इसलिएर् ईष्या पकड़ती है। जब तक समाज में ऐसी स्थिति थी कि नीचे फैला हुआ दरिद्रों का विशाल जगत था, और ठेठ आसमान में एकाध आदमी समृद्ध था, तब तक फासले इतने ज्यादा थे कि समानता की धारणा पैदा नहीं हो सकती थी। हम समानता का दावा नहीं कर सकते थे। इसलिए इसका ही उपाय सूझता था कि जो जैसा है, वैसा है।

लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद फासले टूटने शुरू हुए और बीच में सीढ़ियां बन गईं। आज शिखर पर कोई रॉकफेलर होता है, नीचे कोई मजदूर होता है, लेकिन यह विभाजन दो वर्गों का विभाजन नहीं है, इसमें सीढ़ियों का विभाजन है, पायरी हैं। हर एक के ऊपर कोई है, उसके ऊपर कोई है, उसके ऊपर कोई है, और पूरा समाज लंबी सीढ़ी बन गया है। इसमें बीच की सीढ़ियां सब जुड़ गई हैं। इन बीच की सीढ़ियों की वजह से प्रत्येक को यह खयाल आता है कि मुझसे जो आगे है, मैं उसके समान क्यों नहीं हो सकता! प्रत्येक को यह खयाल आता है कि मुझसे जो आगे है, मैं उसके समान क्यों नहीं हो सकता!

समानता का खयाल वर्ग-विभक्त समाज में नहीं पैदा होता, सीढ़ी-विभक्त समाज में पैदा होता है। समानता की धारणा ही पैदा नहीं होती। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि बुद्ध, महावीर या कृष्ण ने समानता की बात नहीं की। जिस समानता की बात उस समय संभव थी, उन्होंने की है। वह आत्मिक समानता की बात है। उस दिन वही संभव था। एक आध्यात्मिक “इक्वेलिटी’ की बात संभव थी कि सबके भीतर जो प्राण हैं, जो आत्मा है, वह समान है। लेकिन सबके बाहर जो सुविधा-असुविधा है–धन है, कपड़े हैं, मकान है, उनके समान होने का का कोई खयाल पैदा नहीं हो सकता था। इसका कोई रास्ता नहीं था। आज हम सोच सकते हैं। लेकिन एक उदाहरण से आपको मैं खयाल दिलाऊं। बहुत-सी बातें हैं जो आज हम नहीं सोच सकते, जो कल आने वाली पीढ़ियां हम पर इल्जाम लगाएंगी। आज हम नहीं सोच सकते। उदाहरण के लिए एकाध बात आपसे कहूं जो आने वाली पीढ़ियां आप पर इल्जाम लगाएंगी–

आज आप यह सोच ही नहीं सकते, आज आप हर आदमी को मजदूरी देते हैं, जब वह काम करता है। आने वाली पीढ़ियां आपसे कहेंगी क्या उस वक्त कोई भी एक विचारक पैदा न हुआ, जो कहता कि खाने-पीने के लिए काम की जबर्दस्त शर्त लगानी अनैतिक है? जल्दी वक्त आ जाएगा। जल्दी वक्त आ जाएगा जब सारी “आटोमेटिक’ मशीनें उत्पादन करने लगेंगी, तो बहुत सवाल आ जाएगा कि अब काम जरूरी नहीं रहा। प्रत्येक आदमी को बिना काम के मिल जाना चाहिए। और जो लोग काम की भी मांग करेंगे, उनको थोड़ा कम मिलेगा, बजाय उनके जो काम की मांग नहीं करेंगे। क्योंकि वे दो-दो चीजें इकट्ठी मांगते हैं–काम भी मांगते हैं, तनख्वाह भी मांगते हैं।

आज अमरीका का अर्थशास्त्री निरंतर चिंतित है कि वह क्या, भविष्य के लिए क्या करे? हमारी पुरानी आदत यह है कि जो काम करे, उसे मिलना चाहिए। भविष्य की संभावना यह है–सिर्फ पच्चीसत्तीस साल के बाद–कि जो काम करे, काम तो दे नहीं सकते हम सबका तो जो न काम करे उसे ज्यादा दिया जाए–देना तो पड़ेगा ही उसको, क्योंकि अगर फैक्ट्री में आप कारें भी बना लेंगे और खरीदने के लिए लोगों के पास पैसा नहीं होगा, तो आप कारों को बनाकर क्या करेंगे? फैक्ट्री पूरी-की-पूरी आटोमेटिक हो जाएगी, जहां लाख आदमी काम करते थे, वहां एक आदमी बटन दबा कर काम कर देगा, तो वह जो लाख आदमी बाहर चले गए, अगर उनको कुछ भी न दें आप, तो यह फैक्ट्री की कारें कौन खरीदेगा? इन कारों को खरीदने के लिए देना तो पड़ेगा ही। सारी चीजों को खरीदने के लिए उनको देना पड़ेगा। वे बिना काम से रहने को राजी हैं–जो कि बड़ा कठिन पड़ेगा–अभी हमको पता नहीं है कि बिना काम से राजी रहना इतना कठिन पड़ेगा जितना सख्त मजदूरी कठिन नहीं पड़ी। तो भविष्य में कोई जरूर कहेगा कि कैसे लोग थे, न कृष्ण, न महावीर, न माक्र्स, कोई भी यह नहीं सोच सका कि आदमी से काम लेना बड़ी अनैतिक अमानवीयता है। क्योंकि उसको भूख लगी है, इसलिए आप काम लेकर रोटी देते हैं। भूख लगी है तो रोटी मिलनी चाहिए। काम का क्या सवाल है! लेकिन यह अभी हम नहीं सोच सकते। अभी हमें सोचना बहुत कठिन पड़ेगा कि यह क्या बात है! अभी तो काम भी मिल जाए तो भी रोटी नहीं मिलती, तो बिना काम के रोटी तो बहुत मुश्किल है। हर युग की अपनी व्यवस्था, अपनी संभावना के बीच चिंतन के फूल खिलते हैं।

कृष्ण के वक्त में विषमता का कोई दंश नहीं है। “अनइक्वेलिटी’ की कोई पीड़ा नहीं है। इसलिए “इक्वालिटी’ का, समानता का कोई नारा नहीं है। और गरीब पीड़ित नहीं है इस बात से कि वह गरीब है। अब देखें, मजे की बात है कि प्लेटो जैसा विचारक, जो कि समानता का बड़ा पुरस्कर्ता है, वह भी गुलामों को मिटाया जाए इसका खयाल ही उसे नहीं आता। बल्कि वह कहता है, गुलाम तो रहेंगे ही। क्योंकि यूनान में गुलाम सहज बात थी। बल्कि प्लेटो यह कहता है कि अगर गुलाम न रहेंगे तो समानता कैसे रहेगी?

“फिर कुछ चुने हुओं का वर्ग हमेशा हावी रहेगा?’

वे रहे हैं। और “एलाइट क्लास’ हमेशा हावी रहेगा, शक्लें बदल सकती हैं उससे और कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। कभी वह मालिक की तरह हावी होता है, कभी नेता की तरह हावी होता है, कभी राजा की तरह हावी होता है, कभी गुरु की तरह हावी होता है, कभी महात्मा की तरह हावी होता है, लेकिन “एलाइट’ हमेशा हावी होता है। और ऐसा मैं कोई युग नहीं देख सकता, जिस दिन कि चुने हुए लोग हावी नहीं होंगे। असल में जब तक चुने हुए लोग रहेंगे तब तक हावी होते रहेंगे, इसमें कोई उपाय नहीं है। यह दूसरी बात है, उनकी शक्ल बदल जाए, कभी हम उनको कहें कि ये राजा हैं और कभी हम कहें ये राष्ट्रपति हैं। कभी हम कहें कि ये सम्राट हैं और कभी हम कहें कि वे मंत्री हैं। और कभी हम कहें कि ये महात्मा हैं और कभी हम कहें कि ये भगवान हैं। और हम नाम कुछ भी देते रहें लेकिन जब तक मनुष्यों का विकास समान तल पर नहीं पहुंच जाता कि हर मनुष्य समान तल पर पहुंच जाए, समस्त विकासों की दृष्टि से जैसा कि मैं नहीं मानता कि कभी हो पाएगा। और वह समाज बड़ा बेरौनक और बहुत बेहूदा होगा, जिस दिन सारे लोग समान तल पर पहुंच जाएंगे। बहुत “बोरडम’ का होगा–अभी हम सोच सकते हैं। लेकिन चुने हुए लोग रहेंगे। कोई अच्छा सितार बजाएगा, तो कम अच्छा सितार बजानेवाले पर हावी हो ही जाने वाला है, इसमें करियेगा क्या! कोई अच्छा नाचेगा तो कम अच्छा नाचनेवाले पर हावी हो ही जाने वाला है, इसमें करियेगा क्या! अब कोई आइंस्टीन पैदा होगा, तो जो दो और दो भी नहीं जोड़ सकते उन पर अगर हावी हो जाए, तो इसमें कसूर किसका? इसमें करियेगा क्या? यह स्थिति ऐसी है कि इस स्थिति में कोई-न-कोई हावी होता रहेगा। यह बात पक्की है कि पुराने ढंग के हावी होनेवाले लोगों से जब हम ऊब जाते हैं–ऊब भी जाते हैं और व्यवस्था के लिए, भविष्य के लिए वे मौजूं भी नहीं रह जाते, इसलिए बदलाहट करनी पड़ती है। अब आज रूस है, हमने बदल दिया है सब, लेकिन फिर दूसरे लोग हावी हो गए। वे पिछले लोगों से कम हावी नहीं हैं, बल्कि ज्यादा ही हावी हैं। आज चीन है, हमने एक को तो बदल दिया, दूसरे लोग हावी हो गए।

जब तक मनुष्य और मनुष्य के बीच फासले हैं, बुद्धि के, विचार के, क्षमताओं के, प्रतिभाओं के, शक्तियों के, तब तक असंभव है कि कोई हावी नहीं हो सकेगा। हो ही जाएगा। और तब तक यह असंभव है कि कोई न चाहेगा कि कोई मुझ पर हावी हो जाए। कोई चाहेगा कि हावी हो जाए। क्योंकि वह भी बिना उसके नहीं जी सकेगा, बिना हावी हुए। तो दुनिया में बदलाहट चलती रहेगी। एक युग की बात हमें बेहूदी लगने लगती है, क्योंकि हम दूसरी तरह के हावीपन को स्वीकार कर लेते हैं।

कृष्ण के वक्त में यह सहज स्वीकृत है। गरीब गरीब होने को राजी है। अमीर के मन में कोई दंश नहीं है अमीर होने का। क्योंकि जब तक गरीब गरीब होने को राजी है। अमीर के मन में दंश हो नहीं सकता। अमीर “ऐट ईज’ है। उसे कोई तकलीफ नहीं है इस बात की। इसलिए समाज को कोई चिंतन का मौका पैदा नहीं होता। जैसे उदाहरण के लिए, अभी हम कहने लगे कि गरीब और अमीर समान होने चाहिए। उसका कुल कारण यह नहीं है कि हमारी बौद्धिक प्रतिभा कृष्ण से आगे चली गई, उसका कुल कारण इतना है कि सामाजिक व्यवस्था कृष्ण से भिन्न हो गई। लेकिन अभी भी कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि मैं कम बुद्धि का हूं, तो जो मुझसे ज्यादा बुद्धि का है, हममें समानता होनी चाहिए। लेकिन आज से पचास साल बाद कम बुद्धि का आदमी यह अपील करना शुरू कर देगा। क्योंकि पचास साल में हम वह व्यवस्था खोज लेंगे जिससे बुद्धि में भी कमी-बढ़ती की जा सकती है। अभी वह व्यवस्था हमारे पास नहीं है, विकसित हो रही है। पचास साल बाद हर बच्चा यह कहेगा कि मैं जड़बुद्धि होने को राजी नहीं हूं, और किसी आदमी को यह हक नहीं है कि वह प्रतिभाशाली हो जाए, होंगे तो हम सब समान रहेंगे।

यह उस दिन उठ सकती है, अभी नहीं उठ सकती यह आवाज। क्योंकि अभी हमारे पास व्यवस्था नहीं है। लेकिन अब हम जो खोज कर रहे हैं और मनुष्य के “जीन’ में, उसके मूल “सेल’ में जो प्रवेश हो गया है, उससे संभावना बढ़ गई है। क्योंकि मनुष्य के “जीन’ में विज्ञान का जो प्रवेश है, अब वह यह बात तय कर सकेगा कि इस बच्चे की कितनी प्रतिभा हो जो इस बीज से पैदा होगा। और जैसे अभी बाजार में आप फूलों के बीज का पैकेट खरीदने चले जाते हैं, जिस पर फूल की तस्वीर बनी होती है ऊपर कि अगर इस बीज को इतनी खाद और इतनी व्यवस्था दी गई तो यह बीज इतना बड़ा फूल बन सकेगा, उस दिन एक बाप और एक मां बाजार में–सिर्फ पचास साल के भीतर–उस पैकेट को खरीद सकेंगे जिसमें बच्चे की तस्वीर बनी होगी कि इसकी आंखें इस रंग की होंगी, इसके बाल इस ढंग के होंगे, इसकी लंबाई इतनी होगी, इसका स्वास्थ्य इतना होगा, इसकी उम्र इतनी होगी–यह “गारंटीड’ है कि सत्तर साल तक नहीं मरेगा, इसको ये-ये बीमारियां नहीं होंगी और इसकी प्रतिभा का “आइ.क्यू.’ इतना होगा, इसकी बुद्धि का माप इतना होगा। आप चुनाव कर सकते हैं। यह संभव हो जाएगा। बीज के बाबत भी पहले संभव नहीं था, आज संभव है। आदमी भी एक बीज से जन्मता है। आदमी के बीज के बाबत भी संभव हो सकता है।

जिस दिन यह संभव हो जाएगा, उस दिन हम पूछेंगे कि कृष्ण को कभी खयाल न आया कि यह प्रतिभा और गैर-प्रतिभा में समानता होनी चाहिए। आ कैसे सकती है? इसके आने का कोई उपाय नहीं है।

“भगवान श्री, सुदामा के संबंध में एक छोटा-सा प्रश्न आया है। जब सुदामा कृष्ण के पास कुछ लेने आए तभी तीन लोक का साम्राज्य दिया गया। लेकिन उसके पहले कृष्ण ने सुदामा को क्यों कुछ नहीं दिया? वह गरीब तो बहुत था बेचारा!’

इस जगत में मिलता कुछ भी नहीं है। इस जगत में मिलता कुछ भी नहीं है, खोजना पड़ता है। भगवान तो यहीं मौजूद है और ऐसा नहीं कि आपकी पीड़ा का उसको पता नहीं है, लेकिन आप पीठ करके खड़े हैं। और इतनी स्वतंत्रता आपको है कि आप चाहें तो भगवान को लें और चाहें तो न लें। जिस दिन आपको मिलेगा, उस दिन आप भगवान से शिकायत कर सकते हैं कि जब तक मैंने तुझे नहीं खोजा, तूने ही मुझे क्यों न खोज लिया? लेकिन भगवान उस दिन कहेगा कि जबर्दस्ती तेरे ऊपर हावी हो जाऊं, वह भी परतंत्रता हो सकती है।

स्वतंत्रता का अर्थ ही इतना है कि जो हम खोजते हैं वह हमें मिल सके, जो हम नहीं खोजते हैं वह न मिल सके। और ध्यान रहे, कुछ भी इस जगत में नहीं मिलता है बिना खोजे, खोजना ही पड़ता है। सुदामा कैसा है, यह सवाल बड़ा नहीं है। सुदामा इनकार भी कर सकता है। और मैं मानता हूं कि अगर कृष्ण देने गए होते सुदामा के घर, तो शायद इनकार भी कर देता। जरूरी नहीं था कि स्वीकार करता। सुदामा की तैयारी होनी चाहिए। यह सारी-की-सारी घटनाएं बहुत मनोवैज्ञानिक अर्थ रखती हैं। इनकी अपनी “साइकलॉजिकल’ अर्थवत्ता है। हम जो खोजने जाएंगे, जिस दिन हमारी खोज की तैयारी पूरी होगी, उसी दिन वह हमें मिल सकता है। उसके पहले हमें नहीं मिलेगा। पड़ा हो बगल में तो भी नहीं मिलेगा। हमारी खोज ही उसके मिलने का द्वार बनेगी। इसलिए सुदामा गरीब है, अकेला सुदामा गरीब नहीं है, बहुत लोग गरीब हैं। और कृष्ण के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सुदामा गरीब है कि कोई और गरीब है, बड़ा फर्क जो पड़ता है वह यह कि सुदामा इतना गरीब होकर भी देने चला आया है, आदमी अमीर होने के योग्य है।

यह जो सुदामा की स्थिति है, उसी से परिवर्तन शुरू होता है। और हम ही, प्रत्येक व्यक्ति व्यक्ति की हैसियत से अपने परिवर्तन को शुरू करता है, बाकी फिर सारी शक्तियां मिलती चली जाती हैं। जिस आदमी ने इस पृथ्वी पर गरीब होने का तय किया है, उसे सब गरीबी की परिस्थितियां मिल जाएंगी। जिस आदमी ने इस पृथ्वी पर अज्ञानी रहने का तय किया है, उसे अज्ञानी होने की सब परिस्थितियां मिल जाएंगी। जिस आदमी ने इस जगत में ज्ञान के लिए तय कर रखा है, उसे ज्ञान के सब द्वार खुल जाएंगे। इस जगत में हम जो मांगते हैं, वह लौट आता है, वह आ जाता है। बहुत गहरे में, हमारी ही आकांक्षाएं, हमारी ही प्रार्थनाएं, हमारी ही अभीप्साएं हम पर लौट आती हैं। और जब अगर कोई आदमी समझता हो कि मैं गरीब क्यों हूं, तब अगर आप उसके पूरे व्यक्तित्व का खोजेंगे तो बहुत हैरान हो जाएंगे, उसने गरीब होने की सारी व्यवस्था कर रखी है। वह गरीब होने के लिए पूरा-का-पूरा तत्पर है। और अगर गरीब न हो तो खुद भी चौंकेगा कि यह क्या हो गया! अज्ञानी ने पूरी व्यवस्था कर रखी है अज्ञान की। और अपने अज्ञान की सुरक्षा के सब उपाय कर रहा है। और अगर कोई उसका अज्ञान तोड़ने आए तो क्रुद्ध हो जाता है। और अपने बागुड़-बगीचे को डंडा लेकर खड़ा हो जाता है कि भीतर प्रवेश मत कर जाना।

नहीं, जो हम खोजने जाते हैं, वही होता है। सुदामा जाता है कृष्ण के पास, तो सुदामा को कृष्ण मिल पाते हैं। कृष्ण का आना उचित भी नहीं है। प्रतीक्षा कृष्ण को करनी चाहिए सुदामा के आने तक। वह प्रतीक्षा जरूरी है। ऐसा नहीं है कि परमात्मा आपसे नाराज है और आपके पास नहीं आ रहा है। लेकिन आपको उसके पास जाना पड़ेगा। और जिस दिन आप जाएंगे, उस दिन आप पाएंगे, वह सदा तत्पर था आपको मिलने को। लेकिन आप ही राजी नहीं थे।

“द्रौपदी वाले पहले प्रश्न में, कृष्ण द्रौपदी के प्रति बहुत अनुराग है, इसकी चर्चा नहीं हुई। इस पर कुछ सुनना चाहेंगे।’

द्रौपदी ऐसी है कि कृष्ण का अनुराग उस पर हो। ऐसे तो कृष्ण का अनुराग सब पर है। लेकिन द्रौपदी के पास पात्र बड़ा है। सागर के तट पर हम जाएं, तो अपने-अपने पात्र के बराबर भर ले आते हैं। सागर तो बहुत बड़ा है। और कभी सागर कहता नहीं कि कितना बड़ा पात्र लेकर मेरे पास तुम आओ। जितना बड़ा पात्र हो, उतना लेकर हम जाते हैं।

द्रौपदी के पास बड़े-से-बड़ा पात्र है और कृष्ण का बहुत अनुराग उसे उपलब्ध हुआ है। और वह अनुराग और वह प्रेम बड़ा गहरा, बड़ा वायवी, जिसको कहें “प्लेटॅनिक’–इतना गहरा है कि कृष्ण और द्रौपदी के बीच किसी तरह की शारीरिक निकटता का कोई आग्रह नहीं है। लेकिन जितने कृष्ण द्रौपदी के काम पड़ते हैं, उतने किसी के काम नहीं पड़ते हैं। और जब भी वक्त आता है, तब वे तत्काल मौजूद हो जाते हैं। जैसे कि पीछे हम बात कर रहे थे कि उसे नग्न किया जा रहा है, उघाड़ा जा रहा है, तब वे मौजूद हो गए हैं।

एक तो प्रेम है जो मुखर होता है, जो बोलता है और एक प्रेम है जो मौन होता है, बोलता नहीं है। और ध्यान रहे, बोले जाने वाला प्रेम बहुत गहरा नहीं हो पाता, छिछला हो जाता है। वाणी में कोई बहुत गहराई नहीं है। मौन रहे जाने वाला प्रेम बहुत गहरा हो जाता है। मौन की बड़ी गहराई है। द्रौपदी का प्रेम बड़ा मौन है। बहुत मौके पर दिखाई पड़ता है, लेकिन प्रगट और आक्रामक नहीं है। और मौन जितने दूर तक प्रभावित करता है प्रेमी को, उतना कोई और प्रेम प्रभावित नहीं करता है। कृष्ण काम तो पड़ जाते हैं द्रौपदी के जगह-जगह, लेकिन कृष्ण का यह प्रेम और द्रौपदी का यह कृष्ण के प्रति लगाव कहीं बहुत स्थूल घटनाओं में रूपांतरित नहीं होता। असल में स्थूल में रूपांतरित होने का आग्रह ही तब होता है जब हम सूक्ष्म में नहीं मिल पाते हैं। अन्यथा प्रेम दूर भी रह सकता है, कोसों दूर रह सकता है। अन्यथा प्रेम समय में भी फासले पर हो सकता है। अन्यथा ऐसा भी हो सकता है कि प्रेम कभी निवेदन भी न करे कि प्रेम है। इतना चुप भी हो सकता है।

लेकिन कृष्ण जैसे व्यक्ति को इतनी चुप्पी भी समझ में आ सकती है। सभी को समझ में नहीं आएगी। इसलिए प्रेम न भी हो हमारे भीतर, तो भी वाणी से प्रगट करने से काम चलता है। क्योंकि वाणी समझ में आती है, प्रेम तो समझ में आता नहीं। अभी प्रेम पर किताबें लिखी जाती हैं। मनोवैज्ञानिक प्रेम पर किताबें लिखते हैं। तो वे उसमें इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि चाहे प्रेम हो या न हो, चाहे प्रेम का क्षण हो या न हो, लेकिन प्रगट जरूर करते रहो। पति जब सांझ को घर लौटे, तो चाहे वह थका-मांदा हो, चाहे वह कितना ही परेशान हो, मनोवैज्ञानिक कहते हैं उसे आकर एकदम पत्नी को देखकर खिल जाना चाहिए। चाहे यह अभिनय करना पड़े। एकदम उसे कुछ ऐसी बातें कहनी चाहिए जो प्रेमपूर्ण हैं। जब वह सुबह जाने लगे तो उसे बड़ी पीड़ा दर्शानी चाहिए कि पत्नी से कुछ घंटों के लिए छूट रहा है। चाहे उसे बड़ा सुख मिल रहा हो। यह मनोवैज्ञानिक ठीक कहते हैं। वह इसलिए ठीक कहते हैं कि हम शब्दों पर जी रहे हैं। यहां असली प्रेम का मतलब किसे है, प्रयोजन किसे है! हम शब्दों पर जीते हैं। एक आदमी ने आपका कुछ थोड़ा-सा काम किया और आप उसे सिर झुका कर कर धन्यवाद दे देते हैं। आपने धन्यवाद अनुभव किया या नहीं किया, यह सवाल नहीं है बड़ा। लेकिन आप सिर झुका कर धन्यवाद दे देते हैं। उस आदमी को तो धन्यवाद मिल जाता है, आपने दिया या नहीं, यह सवाल नहीं। क्योंकि शब्दों में हम जीते हैं। लेकिन अगर आपने धन्यवाद न दिया, चाहे भीतर अनुभव भी किया, तो भी वह आदमी दुखी होकर चला जाता है कि कैसे पागल आदमी हैं, मैंने इतना काम किया, धन्यवाद तक न दिया।

हम मौन को नहीं समझ पाते, इसलिए वाणी में ही हमारा सब चलता है। लेकिन ध्यान रहे, यह कभी खयाल में आया हो, न आया हो,, जब हम किसी के प्रति बहुत प्रेम में भरे होते हैं तो वाणी एकदम निरस्त हो जाती है। जब हम किसी के प्रति बहुत प्रेम से भरे होते हैं तो अचानक पाते हैं अब बोलने को कुछ भी नहीं बचा, कहने को कुछ भी नहीं बचा। प्रेमी बहुत तय करते हैं कि जब अपने प्रेमपात्रों को मिलेंगे तो यह कहेंगे, यह कहेंगे, यह कहेंगे और जब मिलते हैं तब अचानक पाते हैं कि कुछ याद नहीं पड़ता क्या कहना था! सब चुप हो गया है, सब मौन हो गया है। बीच में मौन खड़ा हो जाता है।

द्रौपदी और कृष्ण का प्रेम बड़ा मौन है। वह और मुखर प्रेमों की तरह नहीं है। लेकिन कृष्ण पर उसकी…उसकी गहरी….उसकी गहरी संवेदना कृष्ण पर हुई है। इसलिए जितने काम वह द्रौपदी के पड़े उतने वह किसी के काम पड़े नहीं हैं। और पूरी महाभारत की कथा में कृष्ण छाया की तरह द्रौपदी की रक्षा करते रहे हैं। वह बड़ा दूर का नाता है। उसमें बहुत साफ-साफ बीच में घटनाएं नहीं दिखाई पड़ती हैं। लेकिन बहुत छाया-संबंध है। वह बहुत चुपचाप “इंटिमेटली’ चलता रहता है।

“पश्चिम के सागरत्तट की सुरक्षा तथा बाहरी आक्रमण से बचने के लिए कृष्ण ने मथुरा का त्याग और द्वारका का वास किया था। सुना है कि मथुरा के लोग भगवान कृष्ण को आपत्ति समझते थे, क्योंकि उनके कारण ही जरासंध आदि राजा मथुरा पर आक्रमण करने पर तुले थे। कृष्ण को भी जरासंध हरा सका, यह उनके चरित्र के मानवीय अंश का छोर नहीं है क्या?’

जीवन में हार और जीत कपड़े के आड़े और तिरछे तानों-बानों की तरह होती है। अकेली जीत से कोई जीवन नहीं बनता। खड़े ताने रह जाते हैं, आड़े ताने नहीं होते। अकेली हार से कोई जीवन नहीं बनता, आड़े ताने रह जाते हैं, खड़े ताने नहीं होते। जीवन के कपड़े की जो बुनावट है वह हार और जीत के इकट्ठे साथ, सफलता और असफलता के इकट्ठे साथ, गलत और सही के इकट्ठे साथ से बुना जाता है। जीवन है, तो वह दोनों हैं।

इसलिए असली सवाल यह नहीं है कि कब कृष्ण हार जाते हैं किससे और कब जीत जाते हैं। असली सवाल जो है वह यह है कि टोटल जिंदगी का परिणाम जीत है कि हार है। सभी की जिंदगी के लिए। यह सवाल नहीं है कि आप कब हार गए थे और कब जीत गए थे; क्योंकि हो सकता है, आपकी हार जीत के लिए सीढ़ी बनी हो। और यह भी हो सकता है कि आपकी जीत सिर्फ एक बड़ी हार में कूदने के लिए खाई बन गई हो। जिंदगी के ताने-बाने विराट, जटिल हैं। यहां सब हारें हारें नहीं हैं, यहां सब जीतें जीतें नहीं हैं। इसलिए आखिरी जो निर्णय है वह यह नहीं होता है कि आदमी कब असफल हुआ और कब सफल हुआ; कब हारा, कब जीता? असली सवाल यह है कि उसकी पूरी जिंदगी की कथा का सार निचोड़ जीत है कि हार?

इसलिए बहुत स्वाभाविक है कि कृष्ण की जिंदगी में भी कुछ हार के क्षण हों। जिंदगी है तो होंगे। अगर भगवान को भी जीना हो, तो भी उसे आदमी की तरह ही जीना होगा। जिंदगी में तो उसे आदमी की तरह ही खड़ा होना होगा। और जिंदगी के सुख-दुख उसे एक-साथ स्वीकार करने पड़ेंगे। अगर जो आदमी हारने को तैयार नहीं है, उसे पक्का कर लेना चाहिए कि उसे जीतने का खयाल छोड़ देना चाहिए।

कृष्ण की जिंदगी में दोनों हैं। इसलिए जिंदगी मेरे लिए मानवीय किसी हीनता के अर्थ में नहीं हो जाती, बल्कि गरिमा के अर्थ में हो जाती है। यानी कृष्ण हार भी सकते हैं, इतने अदभुत आदमी हैं। जीत की जिद्द नहीं है। जीतेंगे ही, जीतकर ही रहेंगे, जीतते ही रहेंगे, ऐसा अभिमान भी नहीं है। हार भी आ सकती है। भागना भी आ सकता है। कहीं पलायन भी हो सकता है, कहीं से जगह भी छोड़नी पड़ सकती है। यह सब स्वीकार है। जिंदगी के सब ताने-बाने, जैसे हैं वे स्वीकृत हैं। इसमें चुनाव नहीं है कि हम यही करके रहेंगे। बस इतना ही हम राजी हैं, आगे हम राजी नहीं हैं। तो कृष्ण की बहुत जगह जो “हयूमनिटी’ है, वह कई जगह बुद्ध और महावीर की “डिविनिटी’ के सामने छोटी मालूम पड़ेगी। बुद्ध और महावीर एकदम “डिवाइन’ मालूम पड़ते हैं, एकदम दिव्य मालूम पड़ते हैं, उनमें मानवीयता बिलकुल नहीं मालूम पड़ती। लेकिन ध्यान रहे, बहुत दिव्यता अमानवीयता भी हो जाती है। बहुत दिव्यता में, वह जो मानवीय नाजुकता है, वह जो “डेलिकेसी’ है, वह खो जाती है और चीजें सख्त हो जाती हैं।

कृष्ण सख्त होने को राजी नहीं हैं। इसलिए जिनको हम मानवीय कमजोरियां कहते हैं, वे कृष्ण में सब-की-सब स्वीकृत हैं। कहावत है अंग्रेजी में, “टु एर इज हयूमन’, भूल करना मानवीय है। लेकिन इससे उलटी कहावत नहीं है, “नेवर टु एर इज इनहयूमन’। पर वह भी सच है। कभी भी भूल न करना बड़ा अमानवीय हो जाना है। पर भूल को भूल की तरह लेने की जरूरत कृष्ण को नहीं मालूम पड़ती है। वह जिंदगी में आया हुआ हिस्सा है, वह उसे लिए चले जाते हैं।

और यह भी सच है कि उन्हें मथुरा छोड़ देनी पड़ी। कृष्ण जैसे व्यक्ति को बहुत जगहें छोड़नी पड़ सकती हैं। वे कई जगह उपद्रव के सिद्ध हो सकते हैं। कई जगह उन्हें सहने के लिए धीरे-धीरे असमर्थ हो सकती हैं। कई जगह आखिर में उनसे कह सकती हैं कि आपसे हम क्षमा चाहते हैं, आप हट जाएं–क्योंकि कृष्ण के साथ चलना और कृष्ण के साथ जीना और कृष्ण को समझना आसान नहीं है। तो वे हट जाते हैं। इस हटने में कोई उन्हें कठिनाई नहीं होती। वे ऐसे ही हट जाते हैं, क्योंकि वे पैर जमाकर कहीं भी खड़े नहीं हो गए हैं कि वहां होने का उन्होंने निश्चय कर रखा है। वे हट जाते हैं। हटने में वे बड़ी सरलता का उपयोग करते हैं, चुपचाप हट जाते हैं। फिर पीछे लौटकर भी नहीं देखते। इधर पीछे जो उन्हें प्रेम करते हैं, परेशान हैं, खबरों पर खबरें भेजते हैं, चिट्ठियों पर चिट्ठियां लिखते हैं, पता लगाते हैं कि वे याद भी करते हैं कि नहीं करते हैं, लेकिन वे दूसरी जगह पहुंच गए हैं। अब वे दूसरी जगह को याद करेंगे कि इस जगह को याद करेंगे! वे भूल गए हैं। वे जहां हैं, वहां पूरे हैं। इसलिए कठोर भी मालूम पड़ते हैं।

कृष्ण की जिंदगी एक बहाव है। हवाएं पूरब जाती हैं तो वे पूरब चले जाते हैं, हवाएं पश्चिम जाती हैं तो वे पश्चिम चले जाते हैं। कृष्ण का अपना आग्रह नहीं है कि मैं यहीं रहूंगा, ऐसा ही रहूंगा, ऐसा ही होने की मैंने कसम खा रखी है, ऐसा कुछ भी नहीं है। जिंदगी जहां ले जाती है, वे राजी हैं। और लाओत्से का एक वचन है, वह मैं कहूं आपको, लाओत्से कहता है, हवाओं की तरह हो जाओ। जब हवाएं पूरब जाएं तो पूरब, जब हवाएं पश्चिम जाएं तो पश्चिम, तुम आग्रह मत करो कि मैं यहां ही जाऊंगा।

एक छोटी-सी झेन कहानी है। एक नदी पर तीव्र पूर है। जोर का बहाव है–बाढ़ है आई हुई। पागल दौड़ती है नदी। और दो घास के छोटे-से तिनके उसमें बह रहे हैं। एक तिनके ने नदी की बाढ़ में अपने को आड़ा डाल रखा है और नदी से लड़ रहा है। कुछ फर्क नहीं पड़ रहा है नदी को। उसे पता भी नहीं है कि यह तिनका नदी से लड़ रहा है। लेकिन तिनका है कि मरा जा रहा है, तिनका है कि लड़े जा रहा है। लड़ रहा है, फिर भी बह तो रहा ही है। क्योंकि नदी बही जा रही है। कोई तिनके के लड़ने से नदी रुकती नहीं। दूसरे तिनके ने नदी में अपने को सीधा छोड़ दिया है, लंबाई में। और वह बड़ा आनंदित है और बड़ा नाच रहा है, क्योंकि वह यह सोच रहा है कि नदी को बहने का मैं रास्ता दे रहा हूं। नदी मेरे सहारे बही जा रही है। नदी को कोई फर्क नहीं पड़ता। नदी को उन दोनों तिनकों का भी पता नहीं है, लेकिन उन तिनकों को बहुत फर्क पड़ता है।

जिंदगी में दो ही तरह के लोग हैं। आग्रहशील–ऐसे ही होंगे, यही होंगे, यही करेंगे, ऐसे लोग उस तिनके की तरह हैं जो नदी में अपने को आड़ा डाल देते हैं। इससे नदी को कोई फर्क नहीं पड़ता, जीवन की धारा चली जाती है। वे आड़े ही बहते रहते हैं, लेकिन कष्ट बड़ा भोगते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो जिंदगी में नदी की धार में अपने को सीधा लंबा छोड़ देते हैं। वे कहते हैं कि हम साथ-साथ हैं। हम तुम्हें साथ ही दे रहे हैं! नदी, बहो! हमारे साथ ही बहो! वे बड़े आनंदित होते हैं और नाच पाते हैं। कृष्ण के ओंठों पर बांसुरी संभव हो सकी, क्योंकि वह लंबी धारा में अपने को छोड़े हुए आदमी हैं। जिंदगी की धार के साथ वह एक हैं। आड़े नहीं हैं, नहीं तो बांसुरी मुश्किल थी। महावीर के ओंठ पर बांसुरी नहीं रख सकते आप। एकदम फेंक देंगे कि क्या पागलपन कर रहे हो! कृष्ण के ओंठ पर बांसुरी रखी जा सकती है। यह आदमी बांसुरी बजा सकता है। उसका कुल कारण इतना ही है कि नदी की, जीवन की धारा से कोई ऐसा संघर्ष नहीं है; नदी जहां ले जाती है, जाने को राजी है। अगर मथुरा से नदी बह गई, तो द्वारका में बहेगी, हर्ज क्या है! अगर मथुरा के घाट से छूट गया सब तो द्वारका में घाट बन जाएगा, हर्ज क्या है? अनाग्रहशील व्यक्तित्व का वह लक्षण है।

“भगवान श्री, कालयवन मानता है कि कृष्ण भागते हैं, मगर कृष्ण भगाते हैं उसे और ले जाते हैं उस गुफा में जहां मुचकुंद सोया हुआ है। मुचकुंद जागता है और उसकी दृष्टि से, पुराणकार कहते हैं, कालयवन जल जाता है। वह क्या तात्पर्य रखता है?’

इन सारे शब्दों के प्रतीक अर्थ हैं। यह कृष्ण की कथा में बहुत कुछ जुड़ा है। बहुत कुछ सिर्फ प्रतीक है, “मेटाफर’ है। बहुत कुछ किन्हीं घटनाओं से संबंधित है। बहुत कुछ किसी “फिलासॅफी’, किसी “मेटाफिजिक्स’ से संबंधित है, यह सब जुड़ा है। कृष्ण किसी को भगाते हैं, ऐसा हमें दिखाई पड़ सकता है। जो भाग रहा है, उसको भी दिखाई पड़ सकता है कि मुझे भगा रहे हैं। लेकिन जहां तक मेरी समझ है, कृष्ण जैसा व्यक्ति किसी को भगाता नहीं, भागने की घटना घट सकती है। स्थिति ऐसी हो सकती है कि भागना किसी के लिए अनिवार्य हो जाए और कृष्ण को पीछा करना अनिवार्य हो जाए। अब इसमें बड़ा तय करना मुश्किल है।

मैंने सुना है कि एक बादमी सुबह एक गाय के गले में रस्सी बांधकर ले जा रहा है। और रास्ते के लोगों में से कोई एक फकीर ने, एक सूफी फकीर ने उससे पूछा है कि तुम गाय से बंधे हो कि गाय तुमसे बंधी है? उस आदमी ने कहा, पागल हो गए हो! मैं गाय को बांधे हुए हूं। मैं क्यों गाय से बंधा होने लगा? तो उस फकीर ने पूछा, फिर मैं तुमसे एक काम कहता हूं, अगर गाय छोड़ दी जाए और भागे, तो तुम गाय के पीछे भागोगे कि गाय तुम्हारे पीछे भागेगी? उस आदमी ने कहा, मुझे गाय के पीछे भागना पड़ेगा। तो उस फकीर ने कहा, फिर बंधा कौन है किससे?

असल में बांधना हमेशा दोतरफ होता है। जो भगा रहा है, वह कृष्ण को भगा रहा है अपने पीछे कि कृष्ण भागकर उसको आगे भगा रहे हैं, इसको एक हिस्से में तोड़कर तय करना मुश्किल हो जाएगा। इतना ही हम कह सकते हैं कि भागना घटित हो रहा है। उसमें एक आगे है और एक पीछे है। हां, इसमें कौन कहां है और कौन भगा रहा है, कौन भाग रहा है, ऐसा तय करना मुश्किल है। लेकिन कृष्ण के व्यक्तित्व को देखकर हम सोच सकते हैं कि वह चूंकि इतने सहज जीते हैं, इसलिए किसी चीज से उनका अगर संघर्ष भी है, तो वह संघर्ष भी किसी सहयोगता से ही फलित हुआ है। वह किसी सीधे बहाव से ही फलित हुआ है।

और जब कथा कहती है कि कालयवन जल जाता है, तो मेरा अपना मानना है कि यह काल के जल जाने का प्रतीक है। यह समय के जल जाने का प्रतीक है, यह “टाइम’ के जल जाने का प्रतीक है। समय ही शायद हमारी जिंदगी की सबसे बड़ी दुविधा, तनाव और तकलीफ है। समय ही शायद हमारा संताप और “एंग्विश’ है। समय ही शायद हमारा खिंचा हुआ होना है। समय जल जाए; इसे हम ऐसा कह सकते हैं कि काल ही शायद सिर्फ एकमात्र राक्षस है, काल ही है जिससे हमारा संघर्ष चल रहा है प्रतिफल और काल ही है जो हमें लील जाएगा और समाप्त कर देगा। लेकिन कभी-कभी कोई काल को लील जाता है और समाप्त कर देता है। कभी-कभी कोई समय को मिटा देता है और समय के अतीत हो जाता है। कभी-कभी समय जल जाता है।

किनसे जल जाता है? कौन समय को जला देते हैं?

आप कह रहे हैं न, कृष्ण आगे भाग रहे हैं। जो समय के पीछे भागेगा, वह समय को नहीं जला सकेगा। जो समय के आगे भागेगा, वह समय को ही जला सकता है। हां, समय के पीछे जो भागेगा, वह तो कभी समय को नहीं जला सकेगा। वह तो समय का अनुगामी होकर जियेगा। लेकिन जो समय के आगे भागने लगता है, वह समय को जला सकता है, क्योंकि समय सिर्फ छाया रह जाती है और वह समय के आगे हो जाता है। वह समय को जला सकता है। और सोये हुए मुचकुंद की आंख खुलने से जल जाता है।

मैंने कहा कि यह मेरे लिए प्रतीक-कथा है। असल में सोई हुई आंख के लिए ही समय है। खुली हुई आंखों के लिए समय नहीं है। हम जितने “अनअवेयर’ हैं, हम जितने सोये हुए हैं और जितने “अनकांशस’ हैं, उतना ही समय है। जिस दिन हम पूरे “कांशस’ हैं और पूरे जागे हुए हैं और आंख खुली है, उसी दिन समय जल जाता है। किसी की भी आंख खुल जाए–और हम सभी गुफाओं में सोये हुए हैं, कृष्ण की मौजूदगी किसी गुफा में सोये हुए आदमी की आंख खोलने का कारण बन सकती है और कृष्ण के पीछे आता हुआ समय उसकी खुली आंख में भी जल सकता है। उसके लिए भी जल सकता है। कृष्ण के लिए तो मैं मानता हूं, समय नहीं है, मुचकुंद के लिए रहा होगा। वह जल सकता है।

इन प्रतीकों को अगर हम कभी जीवन-सत्यों की तरफ शोध में लगाएं, तो बड़ी आश्चर्यजनक अनुभूतियां उपलब्ध होती हैं और बड़ी आश्चर्यजनक अंतर्दृष्टियां उपलब्ध होती हैं, लेकिन हम इन सबको कथाएं मानकर बैठ गए हैं। और इन सबको कथाएं मानकर हम कहे चले जाते हैं। हम सब इनको ऐतिहासिक घटनाएं मानकर दोहराए चले जाते हैं। लेकिन ऐतिहासिक घटनाओं से ज्यादा कहीं मनुष्य के चित्त पर घटी हुई संभावनाओं, मनुष्य के चित्त में छिपी हुई “पोटेंशियलिटीज’, मनुष्य के चित्त में होने वाली विराट लीला के ये हिस्से हैं। लेकिन इस भांति हमने कभी उन पर बहुत गौर से देखने की कोशिश नहीं की है। इससे बहुत अड़चन हुई है। और इसलिए कृष्ण जैसे व्यक्तित्व हमें धीरे-धीरे झूठे मालूम पड़ने लगते हैं। क्योंकि इतना सब कुछ उनमें मिल जाता है कि उसे तय करना मुश्किल हो जाता है कि यह कैसे संभव हो सकता है! कृष्ण जैसे व्यक्तियों की बड़ी “साइकोलॉजिकल कमेंट्री’ की जरूरत है कि उनका पूरा-का-पूरा व्यक्तित्व मनस-शास्त्र के हिसाब से खोला जा सके।

और एक आखिरी बात आपसे कहूं, और वह यह कहना चाहूंगा कि पुराने आदमी के पास दूसरा उपाय न था। उसने जो मनस-सत्य भी जाने थे, उनको भी वह कथा के प्रतीकों में ही रख सकता था। उनमें ही उनको ढांक सकता था। उनमें ही उनको छिपा सकता था। उसके सिवा कोई मार्ग ही नहीं था उसके पास। लेकिन आज हमारे पास मार्ग है कि उनको खोज लें। जीसस ने एक जगह कहा है कि मैं तुममें ऐसी भाषा में कहता हूं कि जो समझ सकते हैं वे समझ लेंगे, और जो नहीं सकते, उन्हें कोई हानि न होगी। मैं तुमसे ऐसी भाषा में कहता हूं कि जो समझ सकते हैं, वे समझ लेंगे, और जो नहीं समझते, उन्हें कोई हानि न होगी, वे एक कहानी सुनने का मजा ले लेंगे।

हम सब कहानी सुनने का मजा लेते रहे हजारों साल तक। और धीरे-धीरे कुंजियां भी खो गईं जिनसे उन कहानियों को खोला जा सकता था और “डिकोड’ किया जा सकता था। इधर जो बातें मैं कर रहा हूं, शायद उससे कुछ कुंजियां आपके खयाल में आएं और कुछ “डिकोड’ आप कर सकें, कुछ कथा-प्रतीक खुल जाएं और जीवन के सत्य बन जाएं। तो सच में ही ऐसा उनका अर्थ है, इससे मुझे प्रयोजन नहीं है। आपके चित्त के लिए अगर वैसा अर्थ खुल जाए, तो वह आपके लिए हितकर हो सकता है, कल्याणकारी हो सकता है, मंगलदायी हो सकता है।

आज इतना ही।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–90

February 15, 2015, 4:49 am

अब तुम वाटरूलू पुल से छलांग लगा सकते हो—(प्रवचन—दसवां)

प्रश्‍न—सार:

1—काम की समस्या उठ खडी हुई है, क्‍या किया जाए?

 2—निष्क्रियता पूर्वक सजग कैसे हुआ जाए?

 3—मेरा सामान रेलगाड़ी ले जाती है, मैं रह जाता हूं। इस स्वप्न का अर्थ क्या है?

 4—जिस समय आप मुझसे कुछ कहते हैं मैं आपकी बात नहीं मानता। इससे छुटकारा कैसे हो?

प्रश्न: मैं किसी अन्य गुरू के निर्देशन में साधना कर रहा था। उस समय मेरे लिए ‘काम’ समस्या लेकिन मेरे मन में तनाव रहा करते थे। आपकी छत्रछाया में आकर तनाव खो चुके है, किंतु ‘काम’ की एक नई समस्‍या उठ खड़ी हुई है। ‘काम’ के कारण एक नया तनाव आरंभ हो रहा है। इस अवस्‍था में क्‍या किया जाए? कृपया मेरा मार्ग निर्देशन करें।

एक बार तुम किसी बात को समस्या की भांति ले लो तो इसे हल करना असंभव हो जाता है। ऐसे तो किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। यदि तुम किसी समस्या में—बिना इसे समस्या की भांति स्वीकार किए—गहराई तक देखो, तो समाधान स्वत: ही सतह पर आ जाता है। इसलिए सीखने के लिए पहली बात है कि चीजों को समस्या की भांति देखने की पुरानी आदत त्याग दो। उनको तुम समस्या बना देते हो।

उदाहरण के लिए, काम। यह समस्या जरा भी नहीं है। यदि यह समस्या है तो तुम किसी भी चीज को समस्या में बदल सकते हो। तुम श्वास लेने को समस्या में बदल सकते हो, एक बार तुम श्वास लेने को समस्या की भांति देख लो, तो तुम सोचना आरंभ कर दोगे कि इससे छुटकारा कैसे पाया जाए। तुम श्वास लेने से भयभीत हो जाओगे। काम समस्या नहीं है। काम एक सरल, शुद्ध ऊर्जा है। किंतु किसी गुरु के साथ रहते हुए तुम संस्कारित हो गए हो, क्योंकि गुरुओं में से करीब—करीब निन्यानबे प्रतिशत काम को समस्या की भांति लेते हैं। वास्तव में वे गुरु ही नहीं हैं। उन्होंने अपने स्वयं के जीवन में कुछ भी हल नहीं किया हुआ है। वे उतनी ही परेशानी में हैं जितनी परेशानी में तुम हो। उनमें उतनी ही विक्षिप्तता है जितनी तुम्हारे भीतर है।

अंतर्दृष्टि वाले व्यक्ति की कोई समस्याएं नहीं होतीं, और अंतर्दृष्टि रखने वाला व्यक्ति कभी किसी अन्य व्यक्ति की समस्याग्रस्त रहने में सहायता नहीं करता है।

यदि तुम्हारे पास समस्या निर्मित करने की यांत्रिक व्यवस्था है, तो मैं तुम्हारी समस्या का समाधान नहीं कर सकता, लेकिन मैं तुमको इसके आर—पार, इसके शर देख पाने की, अधिक पारदर्शितापूर्वक, अधिक स्पष्टता और समझ के साथ देख लेने के लिए अपनी अंतर्दृष्टि दे सकता हूं।

इसलिए विचार करने योग्य पहली बात यह है कि तुम काम को समस्या क्यों कह्ते हो? इसमें समस्याकारक क्या है? यदि काम समस्या है, तो भोजन समस्या क्यों नहीं है? यदि काम समस्या है, तो श्वसन समस्या क्यों नहीं है? यदि काम समस्या है, तो क्यों किसी भी बात को समस्या में नहीं बदला जा सकता? तुम्हें तो बस उस ढंग से देखने की आवश्यकता है और यह समस्या बन जाता है।

भिन्न—भिन्न संस्कृतियों में, विभिन्न समाजों में भिन्न—भिन्न बातों को समस्यामूलक समझा जाता है। यदि तुम फ्रायड के प्रभाव वाले समाज में पले—बढ़े हो, तो काम तो तनिक भी समस्या नहीं होता। तब तो कामुक न होना समस्या बन जाएगा। यह अनेक पाश्चात्यों की समस्या बन चुका है।

कोई पैंसठ वर्ष की स्त्री मेरे पास आई और उसने कहा. ‘ओशो, मेरी कामेच्छा मिट रही है। मेरी सहायता कीजिए।’ क्योंकि यदि तुम फ्रायड से बहुत अधिक प्रभावित रहे हो तो काम करीब—करीब जीवन के समतुल्य है। यदि कामेच्छा मिट रही है, इसका अर्थ हुआ कि तुम मर रहे हो, तब मृत्यु अति निकट है। इसलिए परम अंत तक, मृत्युशय्या पर भी तुमको कामुक व्यक्ति बने रहना पड़ता है, तुम्हें स्वयं को जबरदस्ती कामुक व्यक्ति बनाए रखना पड़ता है।

यह विशेष रूप से भारतीयों के लिए बिलकुल नई समस्या है, जो इसको समस्या की भांति सोच नहीं सकते। यदि ऐसा उनके साथ हो जाए तो वे मंदिर जाएंगे और ईश्वर को धन्यवाद देंगे। यदि वे युवा हों तो भी यदि काम खो जाता है, वे अत्याधिक प्रसन्न, आत्यंतिक रूप से प्रसन्न हो जाएंगे। परमात्मा बहुत सहायक रहा है, समस्या का समाधान हो गया है। किंतु ऐसा भी हो सकता है कि समस्या का समाधान नहीं हुआ है, वे बस नपुंसक हो रहे हों।

यह समस्या एक निश्चित दृष्टिकोण के कारण उपजती है। समस्या स्वयं में कोई समस्या नहीं है, यह तुम्हारे दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। यदि तुम पाश्चात्य हो तो एल्कोहल से निर्मित पेय पीना कोई समस्या नहीं है। किसी भी शीतल पेय कोकाकोला या फैंटा की भांति साधारण बात है यह। यदि तुम जर्मन हो तो बीयर, बस पानी है। इसमें कोई समस्या नहीं है। लेकिन यदि तुम भारतीय हो तो समस्या उठ खड़ी होती है। कोकाकोला तक समस्या है। गांधीजी तुम्हें कोकाकोला पीने की अनुमति नहीं देंगे। उन्होंने अपने आश्रम में चाय पर रोक लगा रखी थी। चाय! यह उनके लिए समस्या बन गई, क्योंकि इसमें कुछ मात्रामें कैफीन होती है। बौद्धों के लिए चाय कभी समस्या नहीं थी। जापान में, चीन में यह करीब—करीब एक धार्मिक अनुष्ठान की भांति है।

एक बौद्ध भिक्षु अपना दैनिक जीवन चाय से आरंभ करता है। उषाकाल में, इसके पूर्व कि वह ध्यान करने जाए, वह चाय पीता है। ध्यान कर लेने के उपरांत वह चाय पीता है, और वह इसे बहुत धार्मिक ढंग से, बहुत गरिमापूर्वक और अहोभाव पूर्वक पीता है। इसे कभी एक समस्या के रूप में नहीं सोचा गया; वस्तुत: बौद्धों ने ही इसकी खोज की थी। ऐतिहासिक रूप से यह बोधिधर्म से संबंधित है।

बोधिधर्म को चाय का अन्वेषक समझा जाता है। वह पर्वत उपत्यका में रहा करता था। उस पर्वत का नाम टा था, और क्योंकि चाय वहां पहली बार खोजी गई थी, यही कारण है कि टा, टी, चा, चाय—वे सभी ‘टा’ से जन्में हुए शब्द हैं। और बोधिधर्म ने इसे क्यों खोजा, और उसने इसे कैसे खोजा?

वह परम जागरूकता की एक अवस्था उपलब्ध करने का प्रयास कर रहा था। यह कठिन है। तुम भोजन के बिना कई दिन जीवित रह सकते हूए, लेकिन नींद के बिना? और वह जरा सी नींद को भी नहीं आने दे रहा था। एक समय, सात आठ, दिन बाद, अचानक उसे अनुभव हुआ कि नींद आ रही है। उसने अपनी आंख की पलकें उखाड़ दीं और उनको फेंक दिया, जिससे कि अब जरा भी समस्या न रहे। ऐसा कहा जाता है कि वे पलकें भूमि,, पर गिरी, वे चाय के रूप में अंकुरित हो गईं। यही कारण है कि चाय जागरूकता में सहायक होती है; यदि तुम रात्रि में बहुत अधिक चाय पी लो तो तुम सोने में समर्थ नहीं हो पाओगे। और क्योंकि सारा बौद्ध मन यही है कि कैसे वह बिंदु उपलब्ध हो जहां नींद बाधा न डाले और तुम पूर्णत: जागरूक रह सको, निःसंदेह चाय करीब—करीब एक पवित्र वस्तु, पवित्रों में पवित्रतम हो गई है।

जापान में आश्रमों में छोटे से घर, टी हाउस, चाय—घर हुआ करते हैं। जब वे किसी चाय—घर में जाते हैं, तो वे इस भांति जाते हैं जैसे कोई चर्च या मंदिर में जा रहा हो। वे स्नान करते हैं, वे नये स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं, वे अपने जूते बाहर छोड़ देते हैं, वे मौन में, आशीष में चलते हैं; वे बैठ जाते हैं।.. .और यह एक लंबा अनुष्ठान है। यह कोई ऐसा नहीं है कि तुम गए और चाय ली और पी और तुम चले आए, इतनी जल्दबाजी नहीं। देवताओं के साथ शुभ व्यवहार होना चाहिए, और चाय देवता है, जागृति की देवता, इसलिए वे मौन में बैठेंगे, और केटली अपना गीत गाती रहेगी, पहले वे इस गीत को सुनेंगे। अभी वे तैयारी कर रहे हैं। वे गाती हुई केटली पर ध्यान लगाएंगे।

फिर उनको कप और प्लेट दिए जाएंगे। वे कपों और प्लेटों को छुएंगे, उनको देखेंगे, क्योंकि वे कला की कृतियां हैं। और कोई बाजार से खरीदे हुए कप उपयोग करना नहीं पसंद करता है। प्रत्येक आश्रम अपने स्वयं के कप और प्लेट बनाते हैं। धनी लोग अपने स्वयं के लिए बनाते हैं। गरीब लोग यदि अपने स्वयं के लिए कप और प्लेट बनाने के व्यय को वहन न कर सकें तो वे बाजार से खरीद लाते हैं, उनको तोड़ देते हैं, उनको पुन: जोड़ते हैं, तब वे पूर्णत: अनूठे बन जाते हैं।

तब चाय उडेली जाती है। और प्रत्येक, गहन, ग्राह्य, ध्यानपूर्ण भाव—दशा में होता है, उनकी श्वास धीमी और गहरी चल रही होती है, और तब चाय पी जाती है, जैसे कि कुछ दिव्य तुम पर बरस रहा हो। अब महात्मा गांधी इसके बारे में सोच भी नहीं सकते। उनके आश्रम में चाय की अनुमति नहीं थी काली सूची, निषिद्ध वस्तुओं में थी चाय। यह तुम्हारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।

मैं तुमसे जो कहना चाहता हूं वह यह है कि यह तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है कि तुम कितनी समस्याएं निर्मित करना चाहते हो। जितनी संभव हो सके उतनी समस्याएं गिरा दो। जितनी कम समस्याएं तुम्हारे पास हों उतना ही उत्तम है, क्योंकि तब, यदि तुम उन कुछ को नहीं छोड़ सकते हो, यदि वे वास्तव में तुम्हारे दृष्टिकोण के कारण नहीं हैं बल्कि जीवन की असली समस्याएं हैं, तो उनका समाधान किया जा सकता है।

मैने सुना है, एक व्यक्ति मनोचिकित्सक के पास गया, उस बेचारे की आंखों के नीचे काले घेरे बने हुए थे, वह बहुत थका हुआ लग रहा था। मैं हर रात स्वप्न देखता हूं डाक्टर साहब, उसने अपने चिकित्सक से कहा। पिछली रात का सपना भयावह था, मैं एक बड़े वायुयान में हूं मेरा पैराशूट तैयार है, हम चालीस हजार फीट की ऊंचाई पर उड़ रहे हैं, जहां से छलांग लगा कर मैं नई ऊंचाई से कूदने का का रिकार्ड स्थापित करने वाला हूं। हम लोग चालीस हजार फीट की ऊंचाई पर हैं—मैंने दरवाजा खोला, मैंने एक कदम आगे बढ़ाया, मैंने पैराशूट की रस्सी खींची—आप सोच सकते हैं कि क्या हुआ होगा?

डाक्टर ने कहा. मुझे ऐसा कोई खयाल नहीं आता।

उस व्यक्ति ने कहा. मेरा पाजामा खुल कर गिर पड़ा।

अब यह समस्या है? जब तुम पृथ्वी से चालीस हजार फीट की ऊंचाई पर हो, तो क्या यह समस्या है? सारा जीवन दांव पर लगा हुआ है? और वह भी स्वप्न में। और वह थकान अनुभव कर रहा है। मैंने सुना है, एक पार्क की बेंच पर दो भिखारी बैठे हुए बातचीत कर रहे थे। मैं बस वहां से गुजर रहा था। एक भिखारी ने कहा. मैंने सपना देखा कि मुझे अच्छी नौकरी मिल गई है।

दूसरा बोला. हां, तुम थके हुए दिखाई दे रहे हो।

मूढूता त्यागो। काम समस्या नहीं है। काम तुम्हारी जीवन—ऊर्जा है। इसे स्वीकारो। यदि तुम स्वीकार करो तो ही इसका रूपांतरण किया जा सकता है। यदि तुम इसको इनकार करते हो, तुम उपद्रव में रहोगे। यदि तुम इससे संघर्ष करो, तो तुम किसके साथ संघर्ष कर रहे हो? जरा सोचो, स्वयं के साथ आधे— आधे, विभाजित। अपने आप से लड़ रहे हो तुम, निःसंदेह तुम और—और पंगु होते चले जाओगे। स्वयं से कभी संघर्ष मत करो।

साधना कोई संघर्ष नहीं है, यह कोई द्वंद्व नहीं। साधना एक गहरी समझ, एक रूपांतरण, एक जागरूकता है, जिसमें तुम्हारा प्रेम करना, स्वयं को स्वीकार करना और समझ के माध्यम से ऊंचे और ऊंचे होते जाने का आरंभ है। अपने अस्तित्व से किसी को भी निकालना नहीं है। हर चीज वैसी ही है जैसा उसे होना चाहिए। इसको उच्चतर लयबद्धता के लिए उपयोग करना पड़ता है, बस यही है सारी बात। वीणा को फेंकना नहीं है। यदि तुम इसे बजाना नहीं जानते तो बजाना सीख लो। वीणा में कुछ भी गलत नहीं है। यदि तुम बजा नहीं सकते, और फिर भी तुम वीणा बजाओ तो निःसंदेह तुम विक्षिप्त शोर ही पैदा करोगे। पड़ोसी जाएंगे और पुलिस थाने में तुम्हारी रिपोर्ट कर देंगे। तुम्हारी पत्नी फौरन तुम्हें तलाक दे देगी। तुम्हारे बच्चे मायूस हो जाएंगे। और तुम स्वयं एक उपद्रव में रहोगे, क्योंकि यदि तुम नहीं जानते कि वीणा कैसे बजाई जाए, कोई वाद्ययंत्र कैसे बजाया जाए, हूं? तो तुम स्वयं में ही और—और बिना सुर—ताल के होते जाओगे।

लेकिन स्मरण रखो कि वीणा में कुछ भी गलत नहीं है। तुम्हें पता नहीं कि इसे किस भांति बजाया जाए।

काम—ऊर्जा एक प्रचंड ऊर्जा है। तुम नहीं जानते कि इससे किस भांति संगीत उत्पन्न किया जाए। और सदियों से तुमको इसके विरोध में पढ़ाया गया है। जरा देखो तो तुम्हारे धार्मिक व्यक्तियों ने संसार के साथ क्या कर डाला है। वे काम के विरुद्ध सिखाते रहे हैं, और उनकी शिक्षाओं के कारण काम और—और महत्वपूर्ण होता चला जाता है। सारा संसार करीब—करीब विक्षिप्त ढंग से कामुक है। कुछ इसमें इस प्रकार से संलग्न हैं, जैसे कि जीवन में कुछ और है ही नहीं, और कुछ इससे इस भांति भाग रहे हैं जैसे कि इसके अतिरिक्त जीवन में कुछ नहीं रहा। कुछ तो बस भाग रहे हैं और कुछ बस संघर्ष कर रहे हैं। दोनों ही अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं।

यह एक महत् ऊर्जा, परमात्मा की भेंट है। इसमें अनेक खजाने छिपे हुए हैं। इसे सीखना पड़ता है, पुस्तक को खोलना पड़ता है, व्यक्ति को इसके भीतर जाना पड़ता है, इसको गहराई से अध्ययन करके, गहराई से समझना पड़ता है। अनंत जीवन की कुंजी छिपी है इसमें।

अब तुम मेरे पास आ गए हो, मैं समझ पर जोर दिए चला जाता हूं। एक खास किस्म की बौद्धिक समझ तुम्हारे भीतर पैदा हो जाती है। किंतु पुरानी संस्कारिता भी जारी रहती है। कोई ऐसा नहीं है कि तुम्हें केवल इसी जन्म में संस्कारित किया गया हो, सदियों से, अनेक जन्मों से तुम्हें संस्कारित कर दिया गया है। यह संस्कारिता करीब—करीब तुम्हारा दूसरा स्वभाव बन चुकी है। यह शब्द ‘काम’ और तुम्हारे भीतर कुछ बेचैन होने लगता है। यह शब्द ही तुम्हारे भीतर एक प्रतिक्रिया निर्मित कर देता है। बिना किसी वासना के इसके बारे में बात करना भी कठिन है। वस्तुगत रूप से इसके बारे में बात करना कठिन है।

वैज्ञानिक रूप से इसके बारे में बात करना कठिन है। इस ढंग से या उस ढंग से तुम इसमें वासनापूर्वक संलग्न हो जाते हो।

सारे विचारों, पूर्वाग्रहों को छोड़ दो। जरा इसकी तथ्यात्मकता की ओर देखो। तुम्हारा जन्म काम—ऊर्जा से हुआ है। जब तुम्हारा जन्म हुआ तो तुम्हारे माता—पिता कोई प्रार्थना नहीं कर रहे थे। वे संभोग कर रहे थे। और वे किसी गिरजा घर या मंदिर में नहीं थे। तुम इस बारे में कभी नहीं सोचते; लोग ऐसी बातों को सोचने से बचते हैं। तुम्हारे लिए इसकी कल्पना करना कठिन होगा कि तुम्हारे माता और पिता संभोग कर रहे थे। असंभव! यें तो दूसरे लोग—गंदे लोग हैं—जो संभोग करते हैं। तुम्हारे पिता और माता? कभी नहीं।

इसीलिए सारे संसार में अनेक कहानियां प्रचलन में रही हैं। एक बच्चे का जन्म होता है और दूसरे बच्चे पूछते हैं, यह बच्चा कहां से आया है? तुमको उन्हें बनावटी उत्तर देना पड़ते हैं—क्रौंच पक्षी, या झाड़ी, या देवताओं ने उसे रसोई की चिमनी से गिरा दिया है।

मैंने सुना है कि मां गर्भवती हो गई और दादी को छोटे बच्चे के बारे में चिंता पकड गई कि आज नहीं तो कल वह पूछेगा। इसलिए वह उसे तैयार करना चाहती थी। वह उस बच्चे को एक ओर ले गई और उससे कहा, क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी मां को भगवान की ओर से पुन: एक महान भेंट मिलने वाली है। यह एक पोटली में आएगी और रात में रसोई की चिमनी के छेद से, जब सभी लोग सो रहे होंगे, इसे तीस दिया जाएगा।

बच्चे ने कहा : यह ठीक है, लेकिन मैं आपसे एक बात कहना चाहता हूं। भगवान को वह पोटली ज्यादा शोरगुल से मत फेंकने दीजिएगा क्योंकि मेरी मां गर्भवती है। रात में वह बहुत अधिक व्याकुल हो सकती है। इस काम को कम से कम शोर में होना चाहिए।

काम से बचाव के लिए कहानियों का अविष्कार कर लिया गया है। बच्चों से बात करना कि बच्चा कैसे जन्म लेता है, कठिन है, और यह बनावटीपन का आरंभ, पाखंड की शुरुआत है। अभी या फिर कभी बच्चा इसकी खोज कर लेगा और वह भी यह खोज लेगा कि माता और पिता झूठ बोल रहे थे। किसलिए? वे इतने जीवंत तथ्य को क्यों छिपा रहे थे? और यदि वे इतने जीवंत तथ्य के बारे में झूठे हैं तो और बातों के बारे में क्या? एक बार छोटे बच्चे के मन में संदेह उठ जाए कि उसके साथ छल किया गया है, वह श्रद्धा करने की क्षमता खो देता है।

और फिर तुम उससे कहे चले जाते हो कि परम पिता परमात्मा में—जिसने हम सभी को रचा है, जो वहां स्वर्ग में है—श्रद्धा रखो, और वह असली पिता में जो इसी घर में रहता है, और जो धोखेबाज है, में ही भरोसा नहीं कर सकता। वह पिता में, परमात्मा रूपी पिता में कैसे भरोसा कर सकता है? असंभव।

नहीं, यही मुझको सुनते हुए तुम्हें जीवन की, जैसा यह है, समझ पर आना: पड़ेगा। मैं इसके बारे में कोई सिद्धांत नहीं गढ़ रहा हूं। मेरी किसी परिकल्पना के व्यवसाय में कोई रुचि नहीं है। मैं तो तुमको तथ्य दे रहा हूं। और वे सरल हैं, क्योंकि तुम उनको सुन सकते हो।

तुम अपने जीवन में जो कुछ भी कर रहे हो.. .यदि तुम एक बड़े कवि हो, यह काम—ऊर्जा है जो काव्य में रूपांतरित है। गई है, और कुछ नहीं, क्योंकि तुम्हारे लिए एक मात्र यही ऊर्जा उपलब्ध है। यदि तुम एक बड़े चित्रकार है।, तो यह काम—ऊर्जा है जो रंगों में कैनवास पर चित्रित हो रही है। यदि तुम एक बड़े चित्रकार हो को यह काम—ऊर्जा ही है जो पत्थर और संगमरमर से सुंदर कलाकृतियां निर्मित कर रही है। यदि तुम गायिक हो, तो यह काम—ऊर्जा गीत बन रही है। एक नर्तक, यह काम—ऊर्जा का नृत्य है। जो क़ुछ भी तुम हो, ही यह इस प्रकार से, उस प्रकार से काम—ऊर्जा का रूपांतरण, मार्गान्तरीकरण हैं—तुम्हारी प्रार्थना भी, तुम्हारा ध्यान भी।

काम प्रारंभ है, समाधि समापन है। लेकिन ऊर्जा वही है। समाधि है काम अपने उच्चतम शिखर पर, और काम है समाधि अपने निम्नतम तल पर। एक बार तुम इसे समझ लो फिर तुम जान लेते हो कि व्यक्ति को किस भांति उच्चतर आयाम में विकसित होना है।

किसी को भी इनकार नहीं करना है, प्रत्येक का उपयोग किया जाना है। सीडी का प्रत्येक पायदान, यहां तक कि सबसे निचला भी, उपयोग किया जाना है, क्योंकि इसके बिना सीढ़ी का अस्तित्व ही न रहेगा। पूरी कढ़ी इसी पर आधारित है। यदि तुम अपने जीवन से कुछ भी काट देते हो, तुम कभी पूर्ण नहीं होओगे और तुम कभी पवित्र नहीं होओगे। वह भाग जिसका इनकार कर दिया गया है, हमेशा पुन: स्वीकृति के लिए उपस्थित रहेगा और यह भाग तुम्हारे विरुद्ध विद्रोह करता चला जाएगा और तुम्हारे विरोध में संघर्ष करता रहेगा।

मैंने सुना है, इंगलिश औद्योगिक नगर में भेजे गए रूसी व्यापार प्रतिनिधि मंडल का कामरेड कोहेन एक सदस्य था। एक शाम रूसी लोग स्थानीय कामगारों के क्लब में मेहमान थे। इस क्लब के सदस्यों में से एक था जो छब, जो निष्ठावान युवा समाजवादी था, वह कामरेड कोहेन को चतुराई से अपने साथ एक कोने में ले गया।

कामरेड कोहेन, युवा छब ने कहा, मैं समझता हूं कि आप एक भले यहूदी हैं, मैं समझता हूं कि आप।’क समझदार व्यक्ति हैं, मैं समझता हूं कि आपमें उल्लेखनीय राजनैतिक चतुराई है। अब क्योंकि आपमें ये सभी श्रेष्ठ गुण हैं, तो अरब—इजरायली संघर्ष पर सोवियत दृष्टिकोण के बारे में आपकी राय जानना, और लोकतांत्रिक इजरायलियों के विरोध में मिश्री फासिस्टों को रूसी क्यों समर्थन दे रहे हैं, यह जानना मेरे लिए बेहद रुचिपूर्ण होगा।

कामरेड कोहेन ने कोई उत्तर न दिया। जरा सा कंधे उचका दिए।

लेकिन कामरेड कोहेन मान भी जाइए, जो छब ने अपनी बात पर बल देते हुए कहा, आखिरकार आप यहूदी हैं। आपके देश के, आपकी पार्टी के अधिकृत दृष्टिकोण के बावजूद आपके पास अपनी राय होनी चाहिए कि न्याय कहां है—कौन सा कारण उचित है।

लेकिन कामरेड कोहेन ने कुछ न कहा, एक शब्द भी नहीं।

जो छब और निकट झुका। करीब—करीब खुशामदी लहजे में वह बोला, लेकिन निश्चित रूप से कामरेड कोहेन आपकी कोई न कोई राय अवश्य होगी।

कामरेड कोहेन अपनी कुर्सी में जरा सा कसमसाए और इस युवक को स्थिर दृष्टि से देखा और उन्होंने अपना मौन तोड़ा, कामरेड छब, वे बोले, मेरी एक राय है, वे रुक कर बोले, लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं।

अब अधिकतर लोगों की ऐसी ही हालत है। तुम्हें पता है कि तथ्य क्या है, लेकिन तुम इससे सहमत नहीं हो, क्योंकि तुम्हें इससे राजी न होने के लिए तैयार कर दिया गया है। सत्य जैसा है वैसा तुम उसको जानते हो, लेकिन तुम्हें उसके बारे में पूर्वाग्रहग्रस्त होने के लिए संस्कारित कर दिया गया है।

जरा सारे पूर्वाग्रहों को एक ओर रख दो। बस जीवन को देखो भर। जीवन को तुम्हारे ऊपर इस भांति अभिव्यक्त होने दो जैसे कि तुम कभी संस्कारित नहीं किए गए थे, जैसे कि तुम किसी अन्य ग्रह से पृथ्वी पर बस अभी आए हो। और तुम बस देखो बिना किसी विचारधारा की पृष्ठलुक् के—हिंदू ईसाई, मुसलमान के बिना। अतीत के बिना, वर्तमान पर दृष्टि डालो। अतीत को वर्तमान में अवरोध मत उत्पन्न करने दो। वह जो है उसे स्वयं को तुम्हारे ऊपर अभिव्यक्त करने दो।

तब समस्या कहां है? काम समस्या क्यों है? इससे अधिक प्यारा और कुछ भी नहीं है। तुम पुष्पों की प्रशंसा किए चले जाते हो लेकिन तुमने कभी सोचा नहीं कि वे वृक्ष के कामुक प्रयास हैं। उनमें काम— बीजाणु, काम—कोष्ठ हैं। वह वृक्ष का तितलियों और मक्खियों को धोखा देने का—ताकि वे उसके पराग कणों को मादा पुष्प तक ले जाएं—उपाय है। उनकी प्रशंसा करते हो तुम, बिना यह जाने कि तुम काम—ऊर्जा की प्रशंसा कर रहे हो। कितने सुंदर हैं सारे फूल, लेकिन ये सभी काम—ऊर्जा की अभिव्यक्तियां हैं। तुम पक्षियों के गीतों की प्रशंसा करते हो, किंतु क्या तुम जानते हो? वे और कुछ नहीं बस रिझाने की तरकीबें हैं। नर पक्षी मादा पक्षी को पुकारता चला जाता है, हर उपाय से, ध्वनि से, गीत से उसे मोहित करने का प्रयास करता है। तुमने किसी मोर को नाचते हुए अवश्य देखा होगा। इसके जैसा और कुछ भी नहीं है— लेकिन यह विपरीत लिंगी को रिझाने की जादुई तरकीब के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यदि तुम चारों ओर देखो तो तुम हैरान हो जाओगे। जो कुछ भी सुंदर है, कामुक है।

तुम्हारे सभी साधु—महात्मा पुष्पों की प्रशंसा किए चले जाते हैं। वे तो बस मनुष्य के काम की खिलावट के विरोध में हैं। उन्होंने ठीक से नहीं देखा होगा कि वे क्या कर रहे हैं। तुम पुष्पों को, बहुत सारे पुष्पों को लेकर मंदिर जाते हो और अपने देवता के चरणों में तुम अपने पुष्पों को अर्पित कर देते हो, बिना जाने कि तुम क्या कर रहे हो। यह एक कामुक उपहार है।

वह सभी कुछ, जो सुंदर है—पुष्प, गायन, नृत्य—कामुक है। जहां कहीं भी तुमको सौंदर्य का कोई अनुभव हुआ हो, यह कामुक है। सारा सौंदर्य कामुक है। इसे ऐसा होना ही पड़ता है।

लेकिन बस मनुष्यों में द्वैत निर्मित कर दिया गया है। द्वैत को गिरा दो। मैं तुम्हारी समस्या हल करने नहीं जा रहा हूं। मैं तो बस इतना कह रहा हूं कि तुम्हारी समस्या मूर्खतापूर्ण, बेवकूफी है। और यह मत सोचो कि तुम मेरे पास एक बड़ी आध्यात्मिक समस्या लेकर आ रहे हो। तुम तो बस एक मूर्खतापूर्ण चीज ला रहे हो जिसका आध्यात्मिकता से जरा भी लेना—देना नहीं है। उसे गिरा दो।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपने काम से संतुष्ट बने रहो। मैं कह रहा हूं कि इसको स्वीकार करो। इसमें श्रेष्ठतर संभावनाएं छिपी हुई हैं। लेकिन स्वीकृति से ही पहला द्वार खुलता है; तब दूसरा द्वार उपलब्ध हो जाता है। यह काम—ऊर्जा है जो ऊर्जा के अन्य चक्रों में गतिS?ाईल होती है, ऊंची और ऊंची और ऊंची चली जाती है।

यदि तुम कहीं अटक गए हो, काम समस्या बन जाता है, लेकिन फिर भी काम समस्या नहीं है बल्कि अटके रहना समस्या है। यह बात तुम पर स्पष्ट हो जानी चाहिए। काम कभी समस्या नहीं है, बल्कि तुम्हारा कहीं अटक जाना समस्या है। यह बिलकुल दूसरी बात है। इसलिए कहीं अटको मत, जम मत जाओ। तरल बने रहो और गतिशील रहो।

बौद्धिक रूप से तुम इसे समझ जाते हो, लेकिन तुम्हारा अतीत बाधा देता है। अब तुमको एक महत् चूनाव, एक बड़ा निर्णय करना पड़ेगा : अतीत की सुननी है या अपने वर्तमान—ताजी समझ की सुननी है। तम किसके साथ रहने जा रहे हो। अपने मृत और बोझिल अतीत के साथ या अपनी ताजी समझ के साथ जो कि अभी—अभी तुम्हें घटित हुई है।

एक बार दो मित्र थे, उनमें से एक को दूसरे के साथ प्रयोगात्मक मजाक करने का बेहद शोक था। एक संध्या, यह जान कर कि उसका मित्र चर्च के प्रांगण के छोटे रास्ते से होकर गुजरने वाला है, वह अंधेरे कब्रिस्तान की एक कब के पत्थर के पीछे छिप कर बैठ गया। कुछ समय बाद ही उसने अपने मित्र की आहट सुनी, जैसे ही वह निकट आया, मजाकिया मित्र ने खून जमा देने वाली चीत्कार मारी। पहला व्यक्ति घबड़ा कर अपने रास्ते पर थम गया और कहने लगा, क्या यह तुम हो जॉन? वह बोला।

वहां से कोई उत्तर न आया। मुझे पता है कि यह तुम हो जॉन, उस मित्र ने कहा, मैं जानता हूं कि यह तुम हो जॉन, लेकिन कुछ भी हो मैं तो भागने वाला हूं।

यदि तुम जानते हो, तो चाहे कुछ भी हो तुम भाग क्यों रहे हो? ताजी समझ के साथ जीयो। इस क्षण के साथ जीयो। अतीत के द्वारा पथभ्रष्ट मत होओ। सदैव ताजे और नये और उसके साथ रहो जिसका तुम्हारी चेतना के क्षितिज पर अभी—अभी उदय हो रहा है, तभी तुम विकसित होओगे। यदि तुम सदैव पुराने, बीते हुए के साथ रहोगे तो तुम बीते हुए हो जाओगे, तुम कभी विकसित नहीं होओगे।

विकास वर्तमान में है, विकास ताजे, युवा का है, विकास नये का है। इसलिए प्रतिदिन उस धूल को झाडू दो जो सामान्यत: तुम्हारी चेतना के दर्पण पर जम जाती है। अपने दर्पण को स्वच्छ रखो ताकि जो कुछ भी तुम्हारे सम्मुख आए पूरी तरह प्रतिबिंबित हो जाए। और प्रतिबिंबित करते हुए जीयो, उस ताजे परावर्तन के साथ जीयो।

‘मैं किसी अन्य गुरु के निर्देशन में साधना कर रहा था। उस समय मेरे लिए काम की समस्या नहीं थी।’

तुम्हें इसकी समस्या नहीं होगी यदि तुमको सिखाया जाए कि इसका दमन किस भांति किया जाए। इसका इतनी गहराई तक दमन किया जा सकता है कि तुम ऐसा अनुभव करने लगो जैसे कि यह वहां नहीं है।

‘लेकिन मेरे मन में तनाव रहा करते थे।’

तनाव आ जाएंगे क्योंकि तनावों के बिना कोई दमन नहीं हो सकता है। वास्तव में तुम्हारे मन की तनावग्रस्त अवस्था सूक्ष्म दमनों के प्रतिबिंबों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। यदि—तुम्हारे भीतर कोई भी दमन नहीं है तो ही तुम विश्रांत हो सकते हो। जिस व्यक्ति में कोई भी दमन न हो वह विश्रांत होता है। वह व्यक्ति जिसके भीतर दमन है विश्रांत नहीं हो सकता है, क्योंकि विश्रांति उसके दमनों के विरोध में चली जाएगी। इस प्रक्रिया को समझने का प्रयास करो।

जब तुम किसी बात का दमन करते हो, तुमको सतत रूप से चौकन्ने रहना पड़ता है, तुम लगातार दमन करते रहते हो। दमन कोई ऐसा कृत्य नहीं है कि तुमने इसे एक बार कर लिया और काम खत्म। इसे तुम्हारे जीवन के हर पल करना पड़ता है। यदि तुम ऐसा न करो तो वे चीजें जिनका तुमने दमन किया था सतह पर आ जाएंगी। तुमको लगातार उनकी छाती पर सवार होकर उनको वहीं पकड़ कर रखना पड़ता है। यदि तुम उनको एक क्षण के लिए भी छोड़ दो तो शत्रु फिर उठ खड़ा होगा और फिर वही संघर्ष और फिर वही द्वंद्व होगा।

इसीलिए तुम्हारे साधु—महात्मा कोई अवकाश नहीं ले सकते। असंभव। तुम अवकाश कैसे ले

सकते हो, क्योंकि अवकाश हर मामले को गड़बड़ कर देगा। तुम्हारे संतों को लगातार चौकसी पर रहना पड़ता है। यही तनाव है। सतत सतर्कता। कोई स्त्री आ रही है : अपनी ऊर्जा को लगातार संकुचित करते रहो; इसे वहां रोक कर रखो। स्त्री को निकल जाने दो। लेकिन वे लगातार वहां से होकर गुजर रही हैं। या यदि वे नहीं गुजर रही हैं, तो यह कुछ और है, और अन्य कोई है। सारा जीवन कामुक है।

यदि तुम किसी प्रकार से स्त्रियों से बच जाओ और हिमालय भाग जाओ, वहां पक्षी एक—दूसरे से प्रेमालाप कर रहे होंगे। क्या करोगे तुम? पशु आएंगे और तुम्हें बाधा देंगे। सारा जीवन कामुक है; तुम कहीं भाग नहीं सकते। सारा महासागर काम—ऊर्जा का है।

और इसमें गलत कुछ भी नहीं है; यह सुंदर ढंग से ऐसा है।

परमात्मा इस विश्व में काम की भ [ति निरूपित हुआ है। यदि तुम प्राचीन शास्त्रों में विशेषत: हिंदू शास्त्रों में खोजो—तों तुम्हें यही मिलेगा। परमात्मा ने संसार क्यों रचा? हिंदू शास्त्रों का कहना है, क्योंकि उसमें अभिलाषा उत्पन्न हो गई—उसमें काम उपजा—उसने संसार की रचना की। सारी सृष्टि काम—ऊर्जा, इच्छा—काम से जन्मी है। लेकिन हिंदू एक अर्थ में बहुत हिम्मतवर रहे हैं। वे कहते हैं, परमात्मा ने संसार रचा, फिर उसने वृक्षों, पशुओं को बनाना आरंभ किया। उसने इतने अधिक वृक्षों को कैसे बनाया? उसने इतने सारे पशुओं को कैसे बनाया? उसकी योजना, कार्य प्रणाली क्या थी? इतने जटिल संसार पर कार्य करना उसने किस भांति शुरू किया? हिंदू कहते हैं, यह बहुत सरल है। सर्वप्रथम उसने गाय को बनाया…….हिंदू गाय को प्रेम करते हैं, इसलिए निःसंदेह परमात्मा को पहले गाय की रचना ही करनी पड़ी। और गाय बहुत दिव्य, बहुत शांत, बहुत सुंदर दिख रही थी। उसने गाय को रचा, और तब वह उस गाय के प्रेम में पड़ गया। कोई दूसरा धर्म इतना साहसी नहीं है—पिता पुत्री के प्रेम में पड़ रहा है। गाय उसकी पुत्री है, उसने इसे बनाया है। अब वह प्रेम में पड़ गया है; तो क्या किया जाए? वह स्वयं ही काफी उलझन में था। इसलिए वह बैल बन गया, क्योंकि गाय से प्रेम करने का केवल यही उपाय है, वरना तुम कैसे प्रेम करोगे। इससे बचने के लिए—जैसे कि स्त्रियां सदा भागती रहती हैं…

स्त्रैण ऊर्जा भागती है। यही तो खेल है। ऐसा नहीं है वास्तव में कोई स्त्री भाग जाना चाहती है; वह भागने का खेल खेलती है। हूं :….? यदि कोई पुरुष स्त्री से प्रेम—प्रस्ताव करे और वह तुरंत उसके साथ बिस्तर में जाने को तैयार हो जाए, तो पुरुष जरा चिंता करना आरंभ कर देगा। इस स्त्री के साथ क्या गड़बड़ है? क्योंकि खेल तो खेला ही नहीं गया। प्रेम का सौंदर्य प्रेम में इतना अधिक नहीं है जितना कि ग्रम करने से पूर्व खेले जाने वाले खेल, प्राक्—क्रीड़ा में है। तुम अनेक प्रयास करते हों—कोर्टशिप, साथ— साथ रहना, घूमना—फिरना, लेकिन कोर्टशिप तभी संभव है जब स्त्री राजी हो। जरा सा गौर करना। जब तुम किसी स्त्री से बात कर रहे हो, यदि तुम उसमें उत्सुक हो, वह पीछे की ओर हट रखो होगी, और तुम आगे बढ़ रहे होओगे। लेकिन सदैव वहां एक दीवाल हुआ करती है, यदि स्त्री दीवाल से विपरीत दिशा में जाती है तो वह पकड़ में आ जाएगी। वह हमेशा दीवाल की ओर बढ़ती है—यह भी चाही हुई बात है। यह सभी कुछ चाहा गया है, यही सारा खेल है, और सुंदर है यह खेल।

इस तरह गाय ने बैल से बचने के लिए भागना आरंभ कर दिया। वह मादा चीता बन गई। तो परमात्मा को चीता बनना पड़ गया। वह शेरनी बन गई—बस भागने के लिए। परमात्मा को शेर बनना पड़ा। और इसी प्रकार से सारा संसार निर्मित हो गया, स्त्री का भागना, पुरुष का पीछे दौड़ना। एक सुंदर कहानी, और बहुत सत्य।

इसी प्रकार से सारा संसार सृजित हुआ है : एक ऊर्जा भागती हुई, दूसरी उसके पीछे दौडती हुई। लुकाछिपी का खेल—और स्त्री छिपती है, और छिप जाती है और छिपती रहती है—और इसका सौंदर्य—और परमात्मा उसे बार—बार खोज लेता है—नये रूपों में, नये पुष्पों में, नये पक्षियों में, नये पशुओं में। और खेल चलता चला जाता है…..यह लीला अनंत है। हिंदू कहते हैं कि परमात्मा की लीला का कोई अंत नहीं है।

किंतु सारा खेल कामुक है। यह खेल जैसा है, कामुक है क्योंकि यह कार्य नहीं है। तुम खेल को इसी के लिए खेलते हो। यही कारण है कि हिंदुओं की परमात्मा की अवधारणा, ईसाइयों और मुसलमानों और यहूदियों की परमात्मा की अवधारणाओं से कहीं श्रेष्ठ है। यहूदी ईश्वर किसी श्रमिक, करीब—करीब कामगार, एक शूद्र जैसा दिखाई पड़ता है। हिंदू ईश्वर कार्य की चिंता नहीं करता है, वह किसी श्रमिक संघ से संबंधित नहीं है। वह खिलाड़ी है, अभिनेता है। सारा संसार उसका खेल है। वह इससे आनंदित होता है, और इसका कोई अंत नहीं है। अपने आप में यही साध्य है, यह कोई साधन नहीं है।

कार्य और खेल में यही अंतर है, कार्य सदैव लक्ष्य उन्मुख होता है। अपने आप में यह व्यर्थ है, इसीलिए तुम इसे न करना चाहोगे। तुम आफिस जाते हो, फैक्ट्री में, दुकान में जाते हो और सारा दिन तुम कार्य करते हो, क्योंकि जो कुछ तुम चाहते हो—कार, अच्छा मकान, एक सुंदर स्त्री—सिर्फ तभी संभव है यदि तुम धन कमाओ। तुम फैक्ट्री में इसलिए कार्य नहीं कर रहे हो क्योंकि तुम इससे प्रेम करते हो, तुम आफिस में इसलिए नहीं हो कि तुम इसे प्रेम करते हो। तुम्हें कुछ दूसरी वस्तुओं की चाह है, लेकिन वे कार्य के बिना उपलब्ध नहीं है, इसलिए तुम्हें किसी भी प्रकार से उनको पाने के लिए शर्त पूरी करनी पड़ती है। इसलिए तुम कार्य करते हो। लेकिन तुम्हारा लक्ष्य कहीं और है।

खेल पूरी तरह अलग है। तुम खेल रहे हो; इसका कोई लक्ष्य नहीं है। यह स्वयं में ही लक्ष्य है। तुम सक्रियता का आनंद उसमें ही ले रहे हो।

मैंने सुना है, लार्ड कार्नफोर्थ, लार्ड येले और लार्ड डोनिंग्टन एक रविवार को लान में बैठ कर तीसरे पहर की चाय पी रहे थे। उनकी बातचीत का विषय काम—संबंध की ओर मुड़ गया। लार्ड कार्नफोर्थ ने कहा कि यह नब्बे प्रतिशत सुख है औs दस प्रतिशत कार्य; लार्ड येले ने कहा कि यह पचास प्रतिशत कार्य है और पचास प्रतिशत सुख; लार्स डोनिंग्टन, जो उनमें सबसे अधिक उम्र के थे, ने कहा कि यह दस प्रतिशत सुख और नब्बे प्रतिशत कार्य है।

अपने विवाद का समापन करने के लिए उन्होंने फूलों की क्यारी में काम कर रहे बूढ़े माली को बुलाया। जब उन्होंने यह प्रश्न उसके सामने रखा, तो उसने कहा, क्यों, निःसंदेह इस काम में सौ प्रतिशत सुख है, यदि इसमें जरा भी कार्य करना पड़ता, तो हुजूर, अपने लिए आप लोग यह काम भी हम नौकरों से ही करा लिया करते।

खेल सौ प्रतिशत सुख है। परमात्मा के लिए हिंदू अवधारणा लीला करने वाले की है, और यह सारी सृष्टि लीला से रची गई है। और इस लीला में संलग्न ऊर्जा काम है।

वहां अटक मत जाओ, क्योंकि और श्रेष्ठ खेल हैं; खेले जाने के लिए सूक्ष्मतर खेल हैं। पहले तुम बाहर की स्त्री से खेलते हो, यह निम्नतम संभावना है। फिर तुम भीतर की स्त्री से खेलना आरंभ करते हो। यही है जिसको योग सूर्य और चंद्र, पिंगला और इड़ा का मिलन कहता है। यदि तुम पुरुष हो तब भीतर की स्त्री के साथ या यदि तुम स्त्री हो भीतर के पुरुष के साथ तुम्हारा खेल आरंभ हो जाता है।

और दोनों हैं तुम्हारे भीतर, कोई पुरुष केवल पुरुष नहीं है, उसके भीतर स्त्री है; कोई स्त्री केवल स्त्री नहीं है, उसके भीतर पुरुष है। ऐसा होना ही है, क्योंकि तुम्हारा जन्म दोनों के संगम से हुआ है। तुम्हारा पिता तुमको कुछ देता है, तुम्हारी मां भी तुमको कुछ देती है। चाहे तुम पुरुष हो या स्त्री, इससे जरा भी अंतर नहीं पड़ता। तुम दो ऊर्जाओं—स्त्री, पुरुष का सम्मिलन हो। दोनों तुममें आधा—आधा योगदान देते हैं।

तो एक पुरुष और एक स्त्री में क्या अंतर है? अंतर इस प्रकार का है. जैसे कि दो सिक्के हों, दोनों बिलकुल एक समान हों, लेकिन एक सिक्के का शीर्ष भाग ऊपर है, दूसरे सिक्के का पृष्ठभाग ऊपर है। दोनों बिलकुल एक से है। अंतर तो केवल प्रभाव का है। यह अंतर गुणवत्ता का नहीं है, यह अंतर ऊर्जा का नहीं है, यह अंतर केवल प्रभाव का है। एक पुरुष सचेतन रूप से पुरुष है, अचेतन रूप से स्त्री है; एक स्त्री सचेतन रूप से स्त्री है, अचेतन रूप से पुरुष है।

एक बार तुम जान लो कि किस भांति से बाहर की स्त्री के साथ खेला जाए। और इसी कारण से मेरा जोर इसी बात पर है कि पहले तुमको बाहर का खेल सीखना पड़ता है, तभी तुम भीतर के सूक्ष्म स्त्री या पुरुष के साथ खेल खेलना आरंभ कर सकते हो। पहले तुम्हें बाहर की स्त्री या पुरुष को राजी करना पड़ता है, और वहीं यह खेल खेलना पड़ता है, क्योंकि यह बहुत स्थूल है और सरलता से सीखा जा सकता है। यह किसी अन्य महत् खेल की तैयारी मात्र है। फिर तुम भीतर जाते हो। फिर तुम उस दूसरे की खोज आरंभ करते हो जो तुम्हारे अस्तित्व में कहीं छिपा है, तुम इसे पा जाते हो, और तभी तुम्हारे भीतर एक गहरा चरम सुख, आर्गाज्य घटता है।

यह चरम सुख उच्चतर से उच्चतर और विराटतर और विराटतर होता जाता है और सहस्रार पर, शीर्ष पर, तुम्हारे अस्तित्व के अंतिम केंद्र पर परम आर्गाज्य घटित होता है, जहां परम ईश्वर का परम प्रकृति से मिलन होता है, जहां दो परम मिलते हैं, संबंधित होते हैं और स्थ—दूसरे में विलीन हो जाते हैं, जहा चेतना पदार्थ से मिलती है, पुरुष प्रकृति से मिलता है, जहां दृश्य अदृश्य से मिलता है और परम समाधि घट जाती है।

यह एक खेल है। तुम्हें इसे जितनी सुंदरता से संभव हो पाए खेलते रहना पड़ता है। और तुमको इसकी कला सीखनी पड़ती है।

इसलिए यदि तुम दमन करते हो, तुम्हें लगातार दमन करना पड़ता है। यदि तुम दमन करते हो तो तुम्हें लगातार चौकीदारी करनी पड़ती है, और तुम विश्रांत नहीं हो सकते। विश्रांति केवल तभी संभव है जब तुम्हारे भीतर कोई शत्रु न हो, केवल तभी तुम विश्रांत हो सकते हो। अन्यथा तुम कैसे विश्रांत हो सकते हो, विश्रांति मन की एक अवस्था है जहा कोई दमन, इसका कोई चिह्न तक न हो।

एक छोटा बच्चा विश्रांत हो जाता है। जितनी तुम्हारी आयु बढ़ती है उतना ही शांत हो पाना तुम्हारे लिए कठिन हो जाता है। एक छोटा बच्चा काफी गहराई तक शांत हो जाता है। जरा देखो, डाइनिंग टेबल पर भोजन करने के दौरान भी छोटा बच्चा सो सकता है। वह अपने खिलौनों से खेलते—खेलते भी सो सकता है। वह कहीं पर भी सो सकता है। और बड़ी आयु के लोगों के लिए सोना, विश्रांत होना, प्रेम करना, विलीन हो जाना और— और कठिन होता जाता है। इतने अधिक दमन भरे पड़े हैं भीतर। और तुम सदैव इतना बोझ ढोते रहते हो, तुम अत्याधिक भार से दबे हुए हो।

और यह भार बहुत जटिल भी है; यह सरल नहीं है। यदि तुम काम का दमन करते हो—इसको समझने का प्रयास करो—तुम्हें साथ ही साथ बहुत सी अन्य चीजों का भी दमन करना पड़ेगा, क्योंकि हर चीज परस्पर संबंधित है। अंदर से यह बहुत जटिल मामला है। यदि तुम काम का दमन करो तो तुमको अपनी श्वास का भी दमन करना पड़ेगा। तुम गहराई से भलीभांति श्वास नहीं ले सकते हो, क्योंकि गहरी श्वास काम के आंतरिक केंद्र की मालिश करती रहती है। यदि तुम वास्तव में ढंग से श्वास लो तो तुम कामुक अनुभव करोगे। तुमको श्वसन प्रक्रिया का दमन करना पड़ेगा, तुम गहराई से श्वास नहीं ले सकते, यदि तुम काम का दमन करते हो, तो तुम्हें अपने भोजन में से कई चीजों का दमन करना पडेगा, क्योंकि ऐसे कई भोज्य पदार्थ हैं जो तुम्हें अन्य की तुलना में अधिक काम—ऊर्जा प्रदान करते हैं। फिर तुमको अपना भोजन बदलना पड़ जाएगा। यदि तुम काम का दमन करते हो तो तुम ठीक से सो नहीं सकते, क्योंकि यदि तुम ढंग से सो जाओ और तुम पूरी तरह विश्रांत हो जाओ तो तुम्हें कामुक स्वप्न आएंगे, निद्रा में तुम्हारा स्खलन हो सकता है, इसका भय वहां रहेगा। तुम भलीभांति सो पाने में समर्थ न हो पाओगे। अब तुम्हारा सारा जीवन एक जटिलता, एक ग्रंथि, एक घबड़ाहट बन जाएगा।

तुम काम का दमन कर सकते हो, लेकिन फिर तुम्हें बेहद, बहुत तनावग्रस्त, करीब—करीब पागलों जैसा तनावग्रस्त रहना पड़ेगा। यही है जिसे होना चाहिए.

‘लेकिन मेरे मन में तनाव रहा करते थे। आपकी छत्रछाया में आकर तनाव खो चुके हैं…’

बहुत शुभ हुआ यह। निःसंदेह जब तनाव विसर्जित होते हैं, तो उन तनावों के द्वारा तुमने जिस काम को दबा कर रखा हुआ था, उभर आएगा, पुन: उठ खड़ा होगा।

‘…….किंतु काम की एक नई समस्या उठ खड़ी हुई है।’

इसे समस्या मत कहो। इसे बस ऐसे कहो अब काम—ऊर्जा पुन: प्रवाहित हो रही है। अब तुम्हारी काम—ऊर्जा कोई ठोस वस्तु न रही, यह तरल और प्रवाहमान हो गई है। अब तुम्हारा काम पुन: जीवंत हो गया है, यह पंगु और मृत नहीं रहा। तुम पुन: युवा हो गए हो।

मेरा सारा प्रयास है तुम्हें उन शिक्षकों से जिनके साथ तुम रहे हो, उन शास्त्रों से जिनको तुम पढ़ते रहे हो, और उन सारी मूढ़ताओं से जिनमें तुम रहा करते थे, कैसे मुक्त किया जाए—तुम्हें निर्भार कैसे करूं। मेरा नब्बे प्रतिशत कार्य इसी कारण है कि तुमने कुछ गलत सीख रखा है अब तुमको इसे अनसीखा करना पड़ेगा। अब पुन: यदि तुम इसे समस्या कहते हो, तो यह तुम नहीं हो। तुम्हारे तथाकथित शिक्षक की आवाज तुम्हारे माध्यम से कार्य कर रही है; वह तुम्हारे हृदय के सिंहासन पर बैठा है और कह रहा है, देखो। यह समस्या पुन: उठ रही है। इसको रोक दो। दमन करो इसका। तुम्हें इस आवाज के प्रति उदासीन होना पडेगा।

यदि तुम मेरे साथ रहना चाहते हो, तुम्हें जीवंत होना पड़ेगा—इतना जीवंत कि इससे बाहर कुछ भी न हो, सब कुछ इसमें समाहित हो जाए। यही कार्य का आरंभ है।

यदि तुम विश्रांत हो सकते हो, तुम परमात्मा तक पहुंच सकते हो। परमात्मा तक पहुंचना कोई प्रयास नहीं है। यह है प्रयास रहित विश्रांति, लेट गो।

प्रश्न: निष्‍क्रियतापूर्वक सजग कैसे हुआ जाए?

न बहिर्मुखी और न अंतर्मुखी कैसे हुआ जाए?

होना और फिर भी न होना कैसे हुआ जाए?

कृपया शब्‍दों से नहीं वरन शून्‍य द्वारा उत्‍तर दे।

तब तो तुम्हें भी शून्य के माध्यम से पूछना पड़ेगा। यदि तुम्हें मेरा मौन उत्तर चाहिए, तो तुमको मौन द्वारा ही पूछना पड़ेगा। यदि तुम मौन द्वारा नहीं पूछ सकते, तब भी मैं मौन द्वारा उत्तर दे सकता हूं किंतु उस उत्तर को तुम समझ न पाओगे। पहले तुम्हें मौन की भाषा सीखनी पड़ेगी। इसलिए यदि तुम मुझसे मौन में कुछ पाना चाहते हो, तो स्वयं की तैयारी करो—और मौन में प्रश्न पूछो। इसे लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि मैं तुम्हें उतना ही दे सकता हूं जितना ग्रहण करने की पात्रता तुममें है।

और ऐसे दीवानगी भरे प्रश्न मत पूछो, क्योंकि मैं और दीवानगी से उत्तर दे सकता हूं।

मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं

एक मां ने सोचा कि उसकी बेटी की असामान्य प्रवृत्तियों की संभावना के लिए जांच की जानी चाहिए, इसलिए वह उसे एक मनोचिकित्सक के पास लेकर गई। अन्य प्रश्नों के साथ मनोचिकित्सक ने पूछा : तुम लड़का हो या लड़की?

लड़की ने उत्तर दिया. लड़का।

इस अप्रत्याशित उत्तर से हैरान होकर मनोचिकित्सक ने पूछा : जब तुम बड़ी हो जाओगी तो तुम क्या बनोगी—स्त्री या पुरुष?

पुरुष। उसने उत्तर दिया।

बाद में जब वे घर लौट रहे थे, तो मां ने पूछा : उनके द्वारा पूछे गए प्रश्नों के तुमने इतने अजीब से उत्तर क्यों दिए?

छोटी लड़की गर्वपूर्वक खड़ी हो गई और उसने कहा. यदि वे मुझसे दीवानगी भरे सवाल पूछने जा रहे, तो मैं भी उन्हें दीवानगी भरे उत्तर दूंगी—वें मुझे मूर्ख नहीं बना सकते।

इस बात को याद रखो। यदि तुम पूर्ण मौन में उत्तर प्राप्त करना चाहते हो, तो सीखो मौन कैसे हुआ जाए। फिर तुम्हें पूछने की जरूरत न रहेगी, तुम्हें अपने भीतर प्रश्न बनाने की जरूरत भी न पड़ेगी, तुम्हें मेरे पास आने की आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि तब शारीरिक निकटता की जरूरत नहीं रहेगी। तुम जहां कहीं भी हो तुम मेरा उत्तर पाने के योग्य होओगे। और वह उत्तर मेरा या किसी और का नहीं होगा, यह तुम्हारे अपने हृदय का उत्तर होगा।

मुझे तुम्हें उत्तर देने पड़ते हैं क्योंकि तुम्हें नहीं पता कि प्रश्न कैसे पूछा जाए। मुझे तुम्हें उत्तर देने पड़ते हैं क्योंकि तुम अपने स्वयं के अस्तित्व से उत्तर पाने में अभी समर्थ नहीं हो पाए हो। एक बार तुम मौन सीख लो, तो तुम आत्यंतिक रूप से समर्थ हो जाओगे। बस मौन हो जाओ और सारे प्रश्न खो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि तुम्हें कोई उत्तर मिल जाता है, बस प्रश्न खो जाते है, तुम्हारे पास पूछने के लिए कोई प्रश्न नहीं बचता।

बुद्ध अपने शिष्यों से कहा करते थे, एक वर्ष के लिए बस चुप हो जाओ, मौन हो रहो। एक वर्ष बाद जो कुछ भी तुम पूछना चाहो पूछ सकते हो। लेकिन एक वर्ष बाद वे नहीं पूछेंगे क्योंकि प्रश्न खो जाते हैं।

तुम जितना अधिक मौन हो जाते हो, उतने ही कम प्रश्न उठते हैं, क्योंकि प्रश्न शोरगुल से भरे मन का भाग हैं। प्रश्न तुम्हारे जीवन से, तुम्हारे अस्तित्व से और तुम्हारे होने से नहीं आ रहे हैं। वे एक विक्षिप्त मन से आ रहे हैं। जब विक्षिप्तता कुछ कम हो जाती है, शोरगुल जरा थम जाता है और मन का यातायात खो जाता है, तो उस यातायात और शोरगुल के साथ प्रश्न भी खो जाते हैं। अचानक वहां मौन हो जाता है।

मौन ही उत्तर है।

प्रश्न: ओशो, मैं बहुत से स्‍वप्‍न देखा करता हूं, किंतु शायद ही कभी आप मेरे सपनों में आते है। अक्‍सर नैहरू, जयप्रकाश और दिनकर ही दिखाई देते है। और वहीं शैतान रेलगाड़ी जो हर बार मेरे सामान लेकर चली जाती है। लेकिन मुझे स्‍टेशन पर खड़ा छोड़ जाती है।

सवप्‍न में आप एक बार मुझे आपनी जीप से एक ऊबड़—खाबड़ नदी तट पर ले गए थे।

और कल रात मैंने आपको अनेक भली स्‍त्रियों से एक साथ विवाह करते हुए देखा, और आपने मुझसे कहा कि आप उन सभी के साथ सरलता और सहजतापूर्वक निभा लेंगे।

ओशे, कृपया कुछ कहेंगे कि स्‍वप्‍न देखने वाले के लिए इस सबका क्‍या अभिप्राय है?

यह प्रश्न स्वामी आनंद मैत्रेय ने पूछा है। यह सुंदर प्रश्न है। और एक अच्छा तथा अर्थपूर्ण प्रश्न है यह। यह उनके बारे में बहुत कुछ प्रदर्शित करता है।

पहली बात, अतीत में वे राजनीतिज्ञ रहे हैं, और उन्हें बहुत उम्मीदें थीं। वे पंडित जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण और रामधारी सिंह दिनकर क़े सहयोगी रहे हैं। कई वर्षों तक वे संसद के सदस्य भी रहे हैं। किसी प्रकार वे मेरे प्रति आकृष्ट हो गए, और एक महान राजनेता, एक बड़ी राजनैतिक ताकत बन पाने के उनके सारे स्वप्न खो गए। लेकिन अतीत अब भी चिपका है।

ये सपने जिनमें नेहरू, जयप्रकाश और दिनकर आते हैं, बहुत प्रतीकात्मक हैं। वे प्रदर्शित करते हैं कि उनके अचेतन में कहीं भीतर अभी भी राजनैतिक महत्वाकांक्षा विद्यमान है। वे अभी तक इससे पूरी तरह से छुटकारा पाने में समर्थ नहीं हो पाए हैं। वे निष्ठापूर्वक मेरे साथ हैं, वे प्रमाणिकता से मेरे साथ हैं लेकिन अतीत अब भी चिपका है। वे इससे छुटकारा पाना चाहते हैं, यही कारण है कि अतीत दिन में नहीं आता है। रात में जब वे गहरी नींद में और असहाय होते हैं तब वह आ जाता है। तब मन पुरानी चालबाजियां बार—बार खेलना आरंभ कर देता है।

मैं उनके सपनों में अधिक नहीं आता, क्योंकि मैं तो यहां हूं ही। मैं यथार्थ में यहां हू इसलिए मेरे बारे में स्वप्न निर्मित करने में क्या सार है। याद रखो, स्वप्न सदैव उन्हीं चीजों के बारे में आते हैं जो उपस्थित नहीं हैं; या तो वे अतीत में थीं या भविष्य में तुम उन्हें चाहोगे। जो कुछ भी वर्तमान में तुम्हारी वास्तविकता का हिस्सा है, कभी तुम्हारे स्वप्नों में नहीं आएगा। तुम्हारी खुद की पत्नी कभी भी तुम्हारे स्वप्नों में नहीं आएगी, पड़ोसियों की पत्नियां, वे आ जाएंगी। तुम्हारा अपना पति कभी तुम्हारे स्वप्नों में न आएगा, कोई सार ही नहीं है उसके आने में, लेकिन दूसरे लोग आ जाएंगे।

स्वप्न वास्तविकता का स्थानापन्न है। यह परिपूरक है। यदि तुमने ढंग से भोजन किया है, अपने भोजन का आनंद लिया है, इसको प्रेम किया है, और तुम संतुष्ट हो, तो तुम रात्रि को स्वप्न में पुन: भोजन करते हुए स्वयं को न देखोगे और न ही ऐसा सोचोगे, ऐसा स्वप्न नहीं आएगा। एक दिन उपवास करो, और फिर तुम्हें स्वादिष्ट भोजन, सुस्वाद भोजन के स्वप्न आएंगे—तुम्हें राजघराने द्वारा राजमहल में निमंत्रित किया गया है, तुम खाते हो, खा रहे हो और खाए जा रहे हो।

स्वप्न तो बस इसी को इंगित करता है कि तुम्हारे जीवन में क्या खोया हुआ है, जो पहले से ही वहां है वह कभी स्वप्न का भाग नहीं होता। यही कारण है कि सबुद्ध व्यक्ति को स्वप्न नहीं आते, क्योंकि वह किसी भी बात से नहीं चूक रहा है। जो कुछ भी उसने चाहा घट गया है और अब कुछ रहा भी नहीं। उसके वर्तमान को प्रभावित करने के लिए उसके पास न अतीत है और न भविष्य। उसका वर्तमान परिपूर्ण है। जो कुछ भी वह कर रहा है वह पूरी तरह उसका आनंद ले रहा है। वह इतना तृप्त है कि किसी भी प्रकार के परिपूरक स्वप्न की आवश्यकता ही न रही।

तुम्हारे स्वप्न तुम्हारे असंतोष है, तुम्हारे स्वप्न तुम्हारी अतृप्तियां है, तुम्हारे स्वप्न तुम्हारी अधूरी इच्छाएं हैं।

मैत्रेय राजनीतिज्ञ रहे हैं, और उनका मन अभी भी इस राजनीति को साथ रखे हुए है। और इसीलिए ‘वही शैतान रेलगाडी जो हर बार मेरा सामान लेकर चली जाती है लेकिन मुझे छोड़ जाती है’ यह भी उनके स्वप्नों में अनेक बार आता है, यह बहुत से लोगों के स्वप्नों का हिस्सा है। एक रेलगाड़ी, किसी भांति तुम उस तक पहुंचे, दौड़ते— भागते, किसी प्रकार से तुम प्लेटफार्म तक पहुंच पाए हो और रेलगाड़ी छूट गई। और उनकी परेशानी तो और भी अधिक है, उनका सामान भी रेलगाड़ी में रखा हुआ है और वे प्लेटफार्म पर बिना किसी सामान के अकेले खड़े छोड़ दिए गए हैं। यही तो हुआ है उनके साथ। नेहरू रेलगाड़ी में बैठ —कर चले गए, दिनकर रेलगाड़ी में बैठ कर चले गए, जयप्रकाश नारायण रेलगाड़ी में बैठ कर चले गऐ और वे उनका सामान भी ले गए और वे प्लेटफार्म पर खड़े रह गए हैं खाली हाथ। वे महत्वाकांक्षाएं, राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं अभी भी उनके अचेतन में विद्यमान हैं।

इसीलिए उनके स्वप्न में नहीं आ रहा हूं मैं। मैं तो यहां हूं ही। मैं कोई महत्वाकांक्षा नहीं हूं। जब मैं जा चुका होऊंगा तो मैं उनके स्वप्नों में आ सकता हूं—अब उनकी एक और रेलगाड़ी छूट चुकी होगी। एक रेलगाड़ी उनकी छूट गई है, और उन्होंने उसे आत्यंतिक रूप से छोड़ दिया है। अब वापस लौटने का कोई उपाय रहा नहीं, क्योंकि एक खास किस्म की समझ उनमें जाग चुकी है। वे अब वापस नहीं जा सकते वे पुन: राजनीतिज्ञ नहीं हो सकते। वापसी नहीं हो रही है, किंतु अतीत चिपका रह सकता है, और जितना अधिक यह चिपकता है उनकी दूसरी रेलगाड़ी भी छूट सकती है।

और निःसंदेह, ‘आप एक बार मुझे अपनी जीप से एक ऊबड़—खाबड़ नदी तट पर ले गए थे।’ जीप है, और चारों तरफ एक ऊबड़—खाबड़ नदी तट है—यह बहुत ऊबड़—खाबड़ है। मेरे साथ रहना सदैव खतरे में, असुरक्षा में जीना है। मैं तुम्हें कोई सुरक्षा नहीं देता, वास्तव में मैं तुमसे तुम्हारी सारी सुरक्षाएं छीन लेता हूं। मैं करीब—करीब खाली कर देता हूं—पकड़ने के लिए कुछ भी नहीं, चिपकने के लिए कुछ भी नहीं। मैं तुम्हें अकेला छोड़ देता हूं। भय उठ खडा होता है।

अब मैत्रेय पूरी तरह अकेले छूट गए है—न धन, न शक्ति, न प्रतिष्ठा, न कोई राजनैतिक स्तर। सब कुछ जा चुका है, वे मात्र एक भिक्खु हैं। मैंने उनको एक भिक्षुक बना दिया है। और वे ऊपर उठ रहे थे। वे ऊपर और ऊपर उठ रहे थे। अब तक तो वे किसी तरह मुख्यमंत्री बर्न चुके होते या वे केंद्रीय मंत्रिमंडल में सम्मिलित हो चुके होते। बहुत आश्वस्त थे वे। वे सभी स्वप्न तिरोहित हो चुके हैं। अब वे सपने बनते रहते हैं और उनका पीछा करते रहते हैं, भूत हैं वे स्वप्न।

उनको इस तथ्य को पहचानना होगा कि वापस जाना संभव न रहा। वे वापस न लौट सकने वाले बिंदु पर पहुंच चुके हैं। इसलिए अब उस बोझ को ढोना अनावश्यक है। आदतवश मन इसको ढोए चला जाता है। इसे छोड़ दें। इसको पहचान लें, इसमें गहराई से देख लें। इससे धोखा न खाएं।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी अपने पति की बहुत अधिक पीने की आदत से बेहद चिंतित थी, और एक रात उसने मुल्ला को डराने की ठानी। उसने खुद को सफेद कपड़े में लपेटा और यह जानते हुए कि उसके पति की शराब घर से आते समय कब्रिस्तान से होते हुए छोटे रास्ते से आने की आदत है वह कब्रिस्तान में जाकर बैठ गई। थोड़ी ही देर में मुल्ला लड़खड़ाता हुआ आया, वह एक कब के सिरहाने से कूद कर अचानक उसके सामने आ खड़ी हुई।

हूंऽऽऽ, वह चीखी, मैं शैतान हूं।

मुल्ला नसरुद्दीन ने अपना हाथ बाहर निकाला और उसका कंधा थपथपा कर वह बोला. तुम्हारी बहन से मेरा विवाह हो चुका है।

पहचान लो! इन नेहरू, दिनकर और जेपी. के भूतों को पहचान लो, तुम्हारे अतीत का उनकी बहन राजनीति से विवाह हो चुका है। इन भूतों के द्वारा मत छले जाओ। उन्होंने एक दाग छोड़ दिया है, इसे धोकर साफ करना पडेगा।

और मैं जानता हूं कि बहुत कठिन है। जब तुम बस सफलता के कगार पर हो और अचानक तुम मुड़ गए और तुमने अपना रास्ता बदल लिया, तब बड़ी मुश्किल बात है यह। जब वे मुझसे मिले थे तो वे संसद सदस्य थे, लेकिन इस मुलाकात ने उनका जीवन बदल दिया। धीरे— धीरे वे राजनीति से हटने लगे, मुझमें अधिक रुचि लेने लगे और अपनी राजनैतिक गतिविधियों में रुचि कम करने लगे। और वे बस सफलता के मुकाम पर खड़े थे। यदि वे सफल हो गए होते, और उन्होंने सफलता की पीड़ाओं को सह लिया होता, और सफलता की असफलता को भी झेला होता, तो उनके लिए पुराने भूतों को छोड़ पाना अपेक्षाकृत आसान रहा होता, बस सफल होने के मुकाम पर खड़े थे वे। बस उसी दरवाजे पर जब वे महल में घुस रहे थे उनकी भेंट मुझसे हो गई। अब वह दरवाजा और उस महल का स्वप्न और वहां रहने का स्वप्न जारी है।

यदि वे उस महल में कुछ समय रह लिए होते और यह जान गए होते कि इसमें कुछ नहीं रखा है, तो यह सरल रहा होता, तो यह बहुत आसान बात हो गई होती। इसीलिए तो मेरा कहना है कि यदि तुम किसी कार्यक्षेत्र में हो तो उसे छोड़ने के बजाय उसमें सफल हो जाना बेहतर है। यदि तुम धनवान होना चाहते हो, तो धनवान हो जाओ। इस मामले को निबटा ही डालो, एक बार धन तुम्हारे पास हो तभी तुम यह जान सकोगे कि यह कुछ नहीं है, यह निराशा लाता है। लेकिन यदि तुमने सफलता से पूर्व ही इसे छोड़ दिया हो, समस्या हो जाएगी। अनेक बार यह विचार बार—बार उठेगा, हो सकता है कि उसमें कुछ रहा हो। वरना सारा संसार क्यों धन, राजनीति और शक्ति में उत्सुक है? वहां कुछ न कुछ तो है। हो सकता है कि मैंने ही गलती से ट्रेन छोड़ दी हो। मुझे लगे रहना चाहिए था, मुझे सारे मामले को देख कर उसका अनुभव कर लेना चाहिए था।

यदि तुम किसी इच्छा को पूरा करने में सफल हो चुके हो, तो वह इच्छा स्वय ही तुम्हें इच्छाविहीन बना देती है। वह सफलता स्वत: ही इच्छा को मार डालती है। तब कम जागरूकता के साथ ही व्यक्ति त्याग कर सकता है। लेकिन अगर तुम बस पहुंचने ही जा रहे हो, बस लक्ष्य छूने भर की दूरी पर हो और सभी कुछ संभव हुआ जा रहा हो और तुम पीछे घूम कर दूर चले जाओ, इसके लिए अधिक सघन होश की जरूरत पड़ेगी। इसलिए मैत्रेय को और सघन होश की जरूरत होगी।

लेकिन यह भी घटित होना था, क्योंकि एक बार तुम किसी के प्रभाव क्षेत्र में आ जाओ जो तुम्हें संसार से बाहर ले आए, एक बार तुम्हारा संपर्क हो जाए—और तुम अनजाने में ही संस्पर्शित हो गए… मैं एक अन्य राजनेता के घर मेहमान था और उन्होंने मैत्रेय को भी निमंत्रित किया हुआ था। अब क्योंकि एक बुजुर्ग राजनेता, एक वरिष्ठ राजनेता ने उन्हें निमंत्रित किया था तो उन्हें यह जानने के लिए आना ही पड़ता कि मामला क्या है। किंतु बार—बार तुम किसी ऐसे प्रभाव क्षेत्र के संपर्क में आ जाओ जो तुमको महत्वाकांक्षा के संसार से बाहर ले जा सकता हो—और यदि तुम जरा संवेदनशील हो और समझपूर्ण हो—और वे हैं—वे बात को तुरंत समझ गए। वे वयोवृद्ध राजनेता जिनके घर मैं ठहरा हुआ था, मेरे साथ कई वर्षों तक रहे, परंतु मुझको कभी नहीं समझे। वे अब विदा ले चुके हैं, स्वर्गीय हो गए हैं, लेकिन वे राजनेता की भांति मरे, और वे संसद सदस्यरहते हुए मरे। वै सारे संसार के सर्वाधिक समय रहने वाले संसद सदस्यों में से एक थे। वे पचास वर्ष तक संसद सदस्य रहे। लेकिन वे मुझे कभी नहीं समझ सके। वे मुझको बहुत चाहते थे, करीब—करीब मेरे प्रेम में पड़ गए थे, लेकिन समझ संभव न हो सकी। वे बहुत मंदमति, मूढ़ थे।

उनके माध्यम से मैत्रेय मेरे पास आए, लेकिन वे बहुत संवेदनशील व्यक्ति हैं। और मेरा उनसे कहना है कि न केवल अपने राजनैतिक जीवन में वे सफलता के पात्र थे वरन परम के लिए भी वे बेहद उपयुक्त पात्र हैं। तुमने एक ट्रेन छोड़ दी है, दूसरी को मत छोड़ना। यदि इस बार तुम चूक गए, तो न सिर्फ तुम्हारा सामान, बल्कि तुम्हारे वस्त्र भी जाने वाले हैं। तुम नग्न खड़े रह जाओगे।

एक बार एक बड़ा राजनेता मर गया और उसके भूत ने शवयात्रा में, अपनी खुद की शवयात्रा के साथ, चलने का फैसला किया। अपने अंतिम संस्कार के समय उसकी भेंट एक अन्य राजनेता के भूत से हुई जिससे वह वर्षों से परिचित था।

कहिए भई नेताजी, दूसरे भूत ने कहा, मैं तो कहता हूं—बड़ी भीड़ है, क्या बात है आपकी?

ही, पहले भूत ने कहा, यदि मुझे मालूम होता कि मैं इतनी बड़ी भीड़ जमा कर सकता हूं तो मैं कभी का मर चुका होता।

राजनेता की इच्छा बेहद बचकानी इच्छा होती है, दूसरों की आंखों में श्रेष्ठ और महान दीखना। सरल है इसे उपलब्ध करना, क्योंकि भीड़ तो बस पागल है। तुमको बस इतना मालूम होना चाहिए कि उनके पागलपन को कैसे इस्तेमाल किया जाए। तुमको तो सिर्फ यह मालूम होना चाहिए कि उसकी प्रशंसा को कैसे उकसाया जाए। तुमको बस जरा सा चालाक होना पड़ता है। बस यही सब कुछ है, किसी और चीज की जरूरत ही नहीं है। भीड़ें तो मूढ़ हैं।

लेकिन वास्तव में महान बन पाना पूर्णत: अलग बात है। वास्तविक रूप से श्रेष्ठ बनने के लिए व्यक्ति को भीतर जाना पड़ता है। व्यक्ति को सजग, इच्छा शून्य, अनासक्त, संकेंद्रित होना पड़ता है, व्यक्ति को परा, अतिक्रमण के पार के बिंदु पर पहुंचना पड़ता है। इसका दूसरों से कुछ भी लेना—देना नहीं है। दूसरे भी करीब—करीब उतने ही विक्षिप्त हैं जितने कि तुम हो। उनको तुम इस्तेमाल कर सकते हो, तुम अपने लिए उनकी तालियों को और उनकी प्रशंसा को उकसा सकते हो, लेकिन इसमें क्या सार है? जरा इस ढंग से सोच कर तो देखो, थोड़ा अंक—गणित तोलगाओ। यदि एक मूर्ख तुम्हारी प्रशंसा में अपने हाथों से ताली बजाता है, क्या इससे तुम महिमावान हो जाओगे? तुम नहीं होओगे। लेकिन एक मूर्ख, एक हजार मूर्ख या दस लाख मूर्खों की ताली में क्या अंतर है?

यदि कोई समझदार व्यक्ति तुम्हारी ओर प्रेम और आशीष से त्रार कर देखता है, तो यह पर्याप्त है। एक चिड़ियाघर से दो शेर एक हो दिन भाग गए। आजाद घूमते रहने के तीन सप्ताह बाद उनकी एक—दूसरे से मुलाकात हुई। उनमें से एक शेर दुबला और कमजोर था, जब कि दूसरा तगड़ा—मोटा और निःसंदेह खाया—पीया दीख रहा था।

मैं चिड़ियाघर में वापस लौटने की सोच रहा हूं कमजोर वाले शेर ने कहा, पिछले पंद्रह दिनों से तो मैंने कुछ भी नहीं खाया है।

बेहतर यह रहेगा कि तुम मेरे साथ चलो, मोटे शेर ने कहा, मैं संसद भवन में एक सज्जन के घर में रहता हूं। मैं सप्ताह के हर दिन एक नेता को खा लेता हूं और मजा यह है कि कोई उनका गम भी नहीं मनाता।

तुम्हारे तथाकथित महत्वपूर्ण लोग, कौन उनका अफसोस करता है? वे सोचते हैं कि उनके बिना सारा संसार मिट जाने वाला है। मिटता कुछ भी नहीं है, सब कुछ जैसे चलता था वैसे ही चलता रहता है।

इसकी चिंता मत लो कि तुमसे महत्वाकांक्षा की रेलगाड़ी छूट गई है। यह पकड़ने योग्य थी भी नहीं। यदि तुमने इसे पकड़ लिया होता तो तुमने बहुत निराशा अनुभव की होती और तुमने पश्चात्ताप किया होता। लेकिन मन इसी भांति कार्य करता है। यदि तुम सफल हो जाते हो तुम पश्चात्ताप करते हो, यदि तुम असफल हो जाते हो तो भी तुम पश्चात्ताप करते हो। देख लो। मन ऐसे या वैसे परेशानी ही पैदा करता है। जो कुछ भी घटित हो मन इससे परेशानी पैदा कर लेता है। वह रेलगाड़ी इतनी मूल्यवान नहीं है। इसको इस ढंग से मत देखो, सिर्फ तुम्हारा सामान ट्रेन में चला गया है और तुम छूट गए हो। प्रसन्न हो जाओ कि केवल तुम्हारा सामान ही चला गया और तुम बच गए।

एक दिन मैं बगीचे में टहल रहा था और मैंने एक भिखारी को देखा, जिसके एक ही पैर में जूता था। तो मैंने उससे पूछा गरीब आदमी, क्या तुम्हारा एक जूता खो गया है?

वह बोला नहीं, मुझे एक जूता मिल गया है।

विधायक दृष्टिकोण रखो।

एक शर्त पूरी करने के लिए एक व्यक्ति रात भर एक भुतहा घर में रुकने को राजी हो गया। यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह रात में घर छोड़ कर न भाग सके, सामने व पिछवाड़े के दरवाजों में ताले लगा दिए गए और खिड़कियां बंद कर दी गईं। अगली सुबह जब उस घर को खोला गया तो वहां उस आदमी का नामोनिशान तक नहीं था, लेकिन छत में एक बड़ा छेद था, और यह स्पष्ट था कि रात में वह इस छेद से निकल भागा था। दो दिन बाद वह गांव में वापस लौट आया।

पिछले अड़तालीस घंटों में तुम कहां गायब हो गए थे? उसके मित्रों ने पूछा।

वापस लौट रहा था, उसने कहा. मैं वापस आ रहा था।

भय में वह इतनी तेजी से भागा होगा कि उसे वापस इसी गांव तक लौटने में अड़तालीस घंटे लग गए।

यह शुभ हुआ मैत्रेय कि तुम्हारी ट्रेन छूट गई; वरना वापस लौटने ‘में अड़तालीस जन्म लग जाते। उनके प्रश्न का दूसरा भाग है : ‘ और कल रात मैंने आपको अनेक भली स्त्रियों से एक साथ विवाह करते हुए देखा, और आपने मुझसे कहा कि आप उन सभी के साथ सरलता और सहजतापूर्वक निभा लेंगे।’

क्या तुम देख नहीं पा रहे हो कि सभी के साथ सहजता और सरलता पूर्वक निभा रहा हूं? प्रत्येक शिष्य स्त्री होता है—स्‍त्री हो या पुरुष—इससे कोई भेद नहीं पड़ता, क्योंकि शिष्य को स्त्रैण होना पड़ता है, केवल तभी वह सीख सकता है। कोई दूसरा उपाय है भी नहीं, क्योंकि शिष्य को एक गर्भ की भांति ग्रहणशील होना पड़ता है। उसे मुझको पूरी तरह ग्रहण करना पड़ेगा… उसे निष्किय ग्राहक होना पड़ता है।

भारत में हमारे पास एक पौराणिक कहानी है कि कृष्ण के पास सोलह हजार पत्नियां या सखियां थीं। उनको ‘पत्नियां’ कहना उचित नहीं है क्योंकि वे वास्तव में क्रांतिकारी थे। वे पति या पत्नी होने में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने सखा या सखी—गोपियां, सखियां बनाने का सारा विचार निर्मित किया था। सोलह हजार सखियां? सम्हालने के लिए थोड़ा अधिक मालूम होता है, लेकिन यह कहानी प्रतीकात्मक है, यह बस कहती है, सोलह हजार शिष्य। वे पुरुष भी हो सकते हैं, वे स्त्री भी हो सकते हैं—यह बात नहीं है— लेकिन एक शिष्य स्त्रैण होता है। शिष्य गोपी है, सखी है, वरना वह शिष्य नहीं है।

मेरे पास भी सोलह हजार संन्यासी हैं, संख्या ठीक वहीं पहुंच गई है, और भले भी हैं सभी। और तुम देख सकते हो कि मैं ठीक से सम्हाल भी रहा हूं। वास्तव में ऐसा नहीं है कि मैं इन्हें ढंग से सम्हाल रहा हूं। यह तो प्रेम है जो भलीभांति सम्हालता है। प्रेम सदा ही सुंदरता से, सहजता और सरलता से सम्हाल लेता है। प्रेम किसी तनाव को नहीं जानता।

तुमसे तो एक स्त्री भी ढंग से नहीं सम्हल पाती, क्योंकि अभी भी तुमको प्रेम का कोई पता नहीं। तुमसे एक प्रेम संबंध भी सम्हल नहीं पाता, क्योंकि प्रेम नहीं है। केवल संबंध है वहां, और प्रेम खोया हुआ है, तो निःसंदेह यह बहुत सी परेशानियां पैदा करता है।

मेरी ओर से प्रेम है, और कोई संबंध नहीं है। प्रेम सम्हाल लेता है।

प्रश्न:

ओशो, आपके साथ कई व्‍यक्‍तिगत साक्षात्‍कारों में आप मुझसे कई बातें कहा करते थे। उस समय मैं सोचा करता था कि ये बातें आपके द्वारा मेरे मानसिक प्रोत्‍साहन के लिए कही जा रही है। लेकिन जैसे—जैसे समय व्‍यतीत होता गया आपके साथ कथन मेरे अनुभवों में सौ प्रतिशत सही सिद्ध हुए है। उन अनुभवों के बावजूद अब जि आप मुझसे कुछ कहते हो तो उस समय मैं उस बात का भरोसा नहीं करता हूं।

मैं अनुभव करता हूं कि पुन: आपका कथन सौ प्रतिशत सही होगा, फिर भी जिस समय आप मुझसे कहते है मैं आपको बात नहीं मानता हूं। इस असहाय अवस्‍था से छुटकारा कैसे हो?

मैं तुमसे एक कहानी कहता हूं यही है मेरा उत्तर।

एक आदमी घुड़दौड में अपनी सारी बचत गंवा बैठा, और उसका दिल ऐसा टूटा कि वह वाटरलू पुल पर चढ़ गया और नीचे कूदने को तत्पर हुआ। अचानक उसके कान में एक भूतिया आवाज फुसफुसाई, कूदो मत। कल दुबारा घुडूदौड़ के मैदान में जाओ और मैं तुम्हें बताऊंगा कि किस घोड़े पर दांव लगाना है। वह आदमी घर चला गया और अगले दिन उसने कुछ रुपयों का इंतजाम किया और वह घुड़—दौड़ के मैदान में चला गया। जब वह खिड़की पर लाइन में लगा था, तो भूतिया आवाज ने कहा, जो कुछ भी तुम्हारे पास है उसे पहली रेस में प्ल पीटर पर लगा दो। उसने यही किया और प्ल पीटर जीत गया। जब वह दूसरी रेस की प्रतीक्षा कर रहा था, तो उस आवाज ने कहा, दांव लगाने के लिए लिबरटी बैले ठीक है। यही हुआ लिबरटी बैले जीत गया और उस आदमी के पास धन आ गया। यही चलता रहा, और जब घुड़दौड़ सिमट रही थी वह आदमी दस लाख रुपये जीत चुका था। जब वह अंतिम दांव के लिए लाइन में खड़ा हुआ तो उस आवाज ने फुसफुसा कर कहा, अंतिम रेस में बिलकुल भी दांव मत लगाओ। फिर भी उस आदमी ने खुद को किस्मत वाला मानते हुए अंतिम रेस में अपने मन पसंद घोड़े पर सारा धन दांव पर लगा दिया। वह हार गया।

‘अरे नहीं’, जैसे ही परिणाम की घोषणा की गई वह चिल्लाया, ‘अब मैं क्या करूं?’

‘अब तुम वाटरलू के पुल से छलांग लगा सकते हो’, आवाज ने कहा।

यही मेरा उत्तर है। अब फैसला तुम्हारे हाथ में है।

आज इतना ही।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–12

February 17, 2015, 6:17 pm

साधनारहित सिद्धि के परमप्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक 1 अक्‍टूबर, 1970;

प्रात:, मनाली (कुलू)

“भगवान श्री, कृष्ण का व्यक्तित्व, कृष्ण की बांसुरी, कृष्ण की राधा, कृष्ण के रास से लेकर सुदर्शन चक्र तक हमें बहुत कुछ जानने का मौका मिला। आज एक नया स्वरूप कृष्ण का आपकी वाणी से, आपके मुख से सुनने के लिए हम सब उत्सुक हैं। हम चाहेंगे कि आप कृष्ण से संबंधित उनकी साधना, उनका दर्शन, उनसे संबंधित उपासना पर अपने विचार प्रस्तुत करें, ताकि हम कृष्ण के दूसरे स्वरूप को भी जान सकें। कृष्ण ने तो केवल एक अर्जुन का मोह भंग किया था, यहां पर हम सब अर्जुन बैठे हुए हैं और सब मोह से ग्रसित हैं, उन सबका मोह भंग करने के एकमात्र अधिकारी आप हैं।

भगवान श्री, गत पांच दिनों में आपने मक्खनचोर और रासलीला करते हुए कृष्ण को विराट जीवन की पूर्णता का या योग की पूर्णता का केंद्र बताया। यदि सूक्ष्मता से आपकी दृष्टि को समझें और यह कहें कि रासलीला आदि जीवन के सत्य हैं और गीता के कृष्ण अथवा कृष्ण की गीता जीवन का निचोड़ है, जीवन का सार है–क्योंकि आपने भी कहा कि गीता प्रमाण है कृष्ण का, ऐसा नहीं कहा कि रासलीला प्रमाण है कृष्ण का। आपने कहा कि महावीर और बुद्ध एक आयामी, “वन डायमेंसनल’ हैं और इसीलिए शायद पूर्ण नहीं हैं। और, यह भी आपने ही कहा है कि महावीर छठवें और सातवें को पाकर योग की पूर्णता को पाए हैं। तो क्या जीवन में रासलीला हुई, या कुछ उलटा-सीधा करना पड़ा, इसलिए कृष्ण पूर्ण ठहरे या कि गीता जैसे ग्रंथ को देने के कारण पूर्ण हुए?

एक बात और कि महावीर के जीवन में जीवन की पूर्णता न निखरी, तो क्या उनके पहले के तेईस तीर्थंकरों को भी उन बहु-आयामों का खयाल नहीं आया था?

यदि हम दमन को न लें, तो फिर संयम का क्या अर्थ है? दमन को छोड़ दें तो साधना में संयम की क्या स्थिति है?’

सबसे पहले पूर्णता का अर्थ समझ लेना चाहिए। पूर्णता भी एक-आयामी और बहु-आयामी हो सकती है। एक चित्रकार पूर्ण हो सकता है चित्रकला में, लेकिन इससे वह वैज्ञानिक की तरह पूर्ण नहीं हो जाता। एक वैज्ञानिक पूर्ण हो सकता है विज्ञान में, लेकिन इससे वह संगीतज्ञ की तरह पूर्ण नहीं हो जाता। तो पूर्णता का एक अर्थ तो “वन-डायमेंसनल’ है। इसलिए मैं महावीर, बुद्ध या जीसस को पूर्ण कहता हूं एक-आयामी अर्थों में। कृष्ण को बहुत दूसरे अर्थों में पूर्ण कहता हूं, बहु-आयामी, “मल्टी-डायमेंसनल’ अर्थों में। जीवन के जितने आयाम हैं, जीवन की जितनी दिशाएं हैं, उनमें से हम सारी दिशाओं का त्याग करके एक दिशा में पूर्ण हों, यह संभव है। इस तरह की पूर्णता भी परम सत्य तक ले जाती है। वह नदी भी सागर पहुंच जाती है, जो एक ही धारा बनाकर बहती है। वह नदी भी सागर पहुंच जाती है जो हजार धाराओं में टूटकर सागर की तरफ बहती है। सागर तक पहुंचने के लिए इस संबंध में कोई भेद नहीं है। महावीर भी सागर में पहुंच जाते हैं, बुद्ध भी और कृष्ण भी। लेकिन महावीर एक धारा की भांति पहुंचते हैं, कृष्ण अनंत धाराओं की भांति पहुंचते हैं।

इसलिए कृष्ण की पूर्णता बहु-आयामी है। वह एक-आयामी नहीं है, “मल्टी-डायमेंसनल’ है। इससे कोई यह न समझ ले कि महावीर वहां नहीं पहुंच पाते, सातवें शरीर के पार, बिलकुल पहुंच जाते हैं। लेकिन कृष्ण बहुत-बहुत मार्गों से वहां पहुंचते हैं, और बिना किसी जीवन के तत्व का निषेध किए पहुंचते हैं। महावीर या बुद्ध निषेध किए बिना नहीं पहुंचते हैं। इसलिए महावीर और बुद्ध के जीवन में निषेध का, “निगेशन’ का अनिवार्य तत्व है। कृष्ण के जीवन में निषेध का कोई तत्व नहीं है। कृष्ण का जीवन पूरी तरह “पाजिटिव’, पूरी तरह विधायक है। महावीर कुछ छोड़कर पहुंचते हैं, कृष्ण सबको आत्मसात करके पहुंचते हैं।

इसलिए मैंने कृष्ण की पूर्णता को भिन्न कहा है। इससे कोई ऐसा न समझे कि महावीर अपूर्ण हैं। इतना ही समझे कि उनकी पूर्णता एक-आयामी है, कृष्ण की पूर्णता बहु-आयामी है। और भविष्य के मनुष्य के लिए एक-आयामी पूर्णता का बहुत अर्थ नहीं होगा। भविष्य के मनुष्य के लिए बहु-आयामी पूर्णता का ही अर्थ होगा। इसका एक और खयाल ले लेना जरूरी है कि जो व्यक्तित्व भी एक दिशा से पूर्ण होता है वह अपने जीवन में ही दूसरी दिशाओं का निषेध नहीं कर रहा है, उसके एक दिशा से पूर्ण होने के कारण दूसरी दिशाएं दूसरे लोगों के जीवन में भी निषिद्ध होती हैं। जो व्यक्ति अपने जीवन में सब दिशाओं से यात्रा करता है, उसके कारण विभिन्न दिशाओं से यात्रा करने वाले एक-आयामी सब तरह के लोगों को सहारा मिलता है। जैसे हम यह सोच ही नहीं सकते कि कोई चित्रकार या कोई मूर्तिकार या कोई कवि महावीर की चिंतना के आधार पर कभी ब्रह्म को उपलब्ध हो सकता है। यह हम सोच ही नहीं सकते। महावीर की साधना एक-आयामी उनके जीवन में ही नहीं बनेगी, जो उस साधना को समझेंगे उनके जीवन में भी शेष सारी दिशाओं का निषेध हो जाएगा। यह हम सोच ही नहीं सकते कि कोई नर्तक भी और ब्रह्म को उपलब्ध हो सकता है। महावीर के साथ नहीं सोच सकते हैं। कृष्ण के साथ सोच सकते हैं। एक नर्तक भी और सारी दिशाओं को छोड़ दे और सिर्फ नाचता ही चला जाए और नृत्य में डूबता चला जाए, तो उस क्षण को उपलब्ध हो सकता है जिस क्षण को महावीर ध्यान से उपलब्ध होते हैं। यह कृष्ण के साथ संभव है।

तो कृष्ण अपने जीवन से समस्त दिशाओं को भागवत-स्वरूप प्रदान कर देते हैं–समस्त दिशाओं को। समस्त दिशाएं कृष्ण के साथ पवित्र हो जाती हैं। महावीर के साथ सभी दिशाएं पवित्र नहीं होतीं। जिस दिशा से वे यात्रा करते हैं, वही दिशा पवित्र होती है। और उसके पवित्र होने के कारण अनिवार्य रूप से शेष अपवित्र हो जाती हैं। और उसके पवित्र होने के कारण अनिवार्य रूप से शेष अपवित्र हो जाती हैं। शेष का गहरा “कंडमनेशन’ और निंदा अपने-आप हो जाता है। ऐसा महावीर के साथ ही नहीं होता है, बुद्ध के साथ भी होता है, क्राइस्ट के साथ भी होता है। मुहम्मद के साथ भी होता है। राम के साथ भी होता है। शंकर के साथ भी होता है।

कृष्ण एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिसको हम कह सकें कि जिसने समस्त जीवन को, समस्त दिशाओं को पवित्रता प्रदान कर दी है। और किसी भी दिशा से गया हुआ व्यक्ति ब्रह्म तक पहुंच सकता है। इस अर्थों में वह “मल्टी-डायमेंसनल हैं। खुद के जीवन में ही नहीं, दूसरों के जीवन के लिए भी “मल्टी-डायमेंसनल’ हैं। बांसुरी बजाकर भी कोई ब्रह्म को उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि बांसुरी की भी अंतिम क्षण अवस्था समाधि की हो जाएगी। लेकिन महावीर या बुद्ध के साथ बांसुरी बजाकर कोई ब्रह्म को उपलब्ध नहीं हो सकता। ऐसी कोई संभावना उनके व्यक्तित्व में नहीं है जो बांसुरी को भी इतनी गरिमा दे दे, जितनी ध्यान और समाधि को है। इसका कोई उपाय नहीं है। मीरा उपलब्धि के मार्ग पर नहीं हो सकती, महावीर के हिसाब से। राग के ही मार्ग पर है। और राग कभी भी परमात्मा तक नहीं पहुंचा सकता, महावीर की दृष्टि में, वैराग्य ही पहुंचाएगा। कृष्ण के साथ विरागी भी पहुंच जाता है, रागी भी पहुंच जाता है। इस अर्थों में मैंने कहा कि कृष्ण की पूर्णता का कोई मुकाबला नहीं है, कोई उपमा नहीं है।

दूसरी बात पूछी गई है कि क्या तेईस तीर्थंकर, महावीर को भी छोड़ दें तो उनके पहले के तेईस तीर्थंकर, वे कोई भी पूर्णता को उपलब्ध नहीं हुए? वे सब पूर्णता को उपलब्ध हुए। लेकिन एक-आयामी पूर्णता को ही उपलब्ध हुए। और एक-आयामी पूर्णता के कारण ही जैन-विचार बहुत व्यापक नहीं हो सका। हो नहीं सकता। महावीर को मरे ढाई हजार वर्ष हो गए हैं, आज भी जैनियों की संख्या तीस-पैंतीस लाख से ज्यादा नहीं है। थोड़ा सोचने जैसा है कि महावीर जैसी प्रतिभा का आदमी जिस विचार को मिला हो–अकेला नहीं, और पीछे तेईस तीर्थंकरों का विराट दर्शन मिला हो–वह विचार तीस-पैंतीस लाख लोगों तक पहुंचा? अगर महावीर के जमाने में तीस-पैंतीस आदमी भी उनसे प्रभावित हो जाएं, तो इतने बच्चे पैदा हो जाएंगे। कारण क्या है कारण है। “वन-डायमेंसनल’ है, बहु-आयामी नहीं है। बहुत दिशाओं को स्पर्श नहीं करता, एक ही दिशा को स्पर्श करता है। इसलिए बहुत विभिन्न तरह के लोगों को प्रभावित नहीं कर सकता। बहुत विभिन्न तरह के लोग उस आयाम में अपने को मौजूं नहीं पा सकते।

फिर बड़े मजे की बात यह है कि यह जो पच्चीस लाख जैन हैं, अगर इनकी तरफ भी हम ध्यान दें तो हम बहुत हैरानी में पड़ जाएंगे। यह भी महावीर के साथ इनमें से अनेक लोग वैसा व्यवहार कर रहे हैं जैसा व्यवहार कृष्ण के साथ तो उचित है, महावीर के साथ अनुचित है। महावीर के सामने आरती लेकर घुमा रहे हैं। कृष्ण के साथ चल सकता है। महावीर के साथ नहीं चल सकता। महावीर की भी भक्ति चल रही है! उसका मतलब यह है कि जैन घरों में जो पैदा हुए हैं, उनका चित्त भी उस आयाम में नहीं बैठता है। वह बहुत थोड़े-से लोगों का आयाम है। तो जैन घर में पैदा होने की वजह से आदमी जैन तो रहा चला जाएगा, लेकिन वह उस सबको सम्मिलित कर लेगा जो कि महावीर के आयाम का नहीं है। भक्ति आ गई है जैन में; उपासना आ गई है, प्रार्थना आ गई है, पूजा आ गई है, इनका कोई संबंध महावीर से नहीं है। यह सब महावीर के साथ अनाचार है। महावीर के व्यक्तित्व में इनके लिए कोई गुंजाइश नहीं है लेकिन वह जो जैन है, उसके व्यक्तित्व की तकलीफ है। उसके व्यक्तित्व में इसके बिना तृप्ति नहीं है। तो महावीर के साथ यह सब जोड़े चला जा रहा है।

इसलिए और दूसरी बात आपसे कहूं कि “वन-डायमेंसनल’ जितने भी व्यक्तित्व हैं, इनके साथ निरंतर अनाचार होगा। सिर्फ “मल्टी-डायमेंसनल’ व्यक्ति के साथ अनाचार आप नहीं कर सकते। क्योंकि आप कुछ भी करें, उसके लिए वह राजी हो सकता है। कृष्ण के साथ हजार तरह के लोग राजी हो सकते हैं, महावीर के साथ सिर्फ एक “पर्टिकुलर टाइप’ राजी हो सकता है।

इस वजह से मैंने कहा कि वह जो चौबीस तीर्थंकर हैं वे सब एक रूप हैं, एक ही यात्रा पर हैं। उन सबकी एक ही दिशा है, एक ही उनकी साधना है। ऐसा नहीं है कि वे नहीं पहुंच जाते हैं, यह मैं नहीं कह रहा हूं, वे बिलकुल पहुंच जाते हैं। अंतिम क्षणों में ऐसा नहीं है कि जो कृष्ण को मिलता है वह उन्हें नहीं मिलता। वह उन्हें मिल जाता है। हजार धाराओं में नदी बहकर सागर पहुंचे कि एक धारा में पहुंचे, इससे क्या फर्क पड़ता है? सागर में पहुंचकर तो सब बात समाप्त हो जाती है। लेकिन एक धारा और एक मार्ग पर बहने वाली नदी सारी पृथ्वी को नहीं घेर सकती, यह समझना चाहिए। हजार धाराओं में बहने वाली नदी सारी पृथ्वी को भी घेर सकती, यह समझना चाहिए। हजार धाराओं में बहने वाली नदी सारी पृथ्वी को भी घेर सकती है। एक धारा में बहने वाली नदी के तट पर जो वृक्ष हैं उनको पानी मिल सकता है, हजार धाराओं में बहने वाली नदी हजार मार्गों पर जो वृक्ष हैं उनकी जड़ों को पानी दे पाती है। वह फर्क है। उस फर्क को इनकार नहीं किया जा सकता। उतने फर्क को ध्यान में रखना जरूरी है। बहु-आयामी से मैंने इतना ही कहना चाहा है।

तीसरी बात पूछी गई है कि दमन को छोड़ दें तो संयम का क्या अर्थ है?

साधारणतः वैराग्य की भाषा में संयम का अर्थ दमन ही है। वैराग्य की भाषा में संयम का अर्थ दमन ही है। इसलिए जैन शरीर-दमन शब्द का भी उपयोग करते हैं। शरीर को दबाना है, दमन करना है। लेकिन, कृष्ण की भाषा में संयम का अर्थ दमन नहीं हो सकता। क्योंकि कृष्ण किस हिसाब से संयम का अर्थ दमन कर सकते हैं? कृष्ण की भाषा में संयम का अर्थ बिलकुल और है। शब्द भी बड़ी दिक्कत देते हैं। क्योंकि शब्द तो एक ही होते हैं–चाहे कृष्ण के मुंह पर हों और चाहे महावीर के मुंह पर हों। संयम, शब्द एक ही है। लेकिन अर्थ बिलकुल भिन्न है। क्योंकि ओंठ भिन्न हैं और उनका प्रयोग करने वाला आदमी भिन्न है। और उसमें जो अर्थ है, उस व्यक्तित्व से आता है। शब्द में जो अर्थ है, वह “डिक्शनरी’ से नहीं आता। “डिक्शनरी’ से सिर्फ उनके लिए आता है जिनके पास कोई व्यक्तित्व नहीं है। जिनके पास व्यक्तित्व है, उनके लिए शब्द का अर्थ भीतर से आता है। कृष्ण के ओंठ पर संयम का क्या अर्थ है, यह महावीर को समझे बिना नहीं कहा जा सकता। महावीर के ओंठ पर संयम का क्या अर्थ है, यह महावीर को समझे बिना नहीं कहा जा सकता। संयम का अर्थ महावीर से निकलेगा, या कृष्ण से निकलेगा। अब कृष्ण को देखते हुए कहा जा सकता है कि अर्थ दमन नहीं हो सकता। क्योंकि अगर दुनिया में कोई भी आदमी, “अनसप्रेस्ड’ आदमी हुआ है, तो वह कृष्ण।

तो संयम का क्या अर्थ होगा?

ऐसे मेरी समझ में, संयम का बहुत गहरा अर्थ दमन नहीं है। संयम शब्द बहुत अदभुत है। संयम का मेरे लिए अर्थ है, संतुलन, “बैलेंस’। संयम का मेरे लिए अर्थ है, न इस तरफ, न उस तरफ–बीच में, मध्य में। त्यागी असंयमी है–त्याग की तरफ, भोगी असंयमी है–भोग की तरफ। भोगी एक छोर छू रहा है, त्यागी दूसरा छोर छू रहा है। ये दो “एक्सट्रीम’ हैं। संयम का अर्थ है, अन-अति, “एक्सट्रीम’ नहीं, बीच में। कृष्ण के ओंठों पर संयम का अर्थ है, मध्य में। न त्याग, न भोग। या, त्यागपूर्ण भोग, या भोगपूर्ण त्याग। यही अर्थ हो सकता है संयम का कृष्ण के ओंठों पर। त्यागपूर्ण भोग, या भोगपूर्ण त्याग; या न त्याग न भोग–संयम का ऐसा अर्थ होगा। जो कहीं भी झुकता नहीं अति पर, वह व्यक्तित्व संयमित है।

एक आदमी है, धन के पीछे पागल है। बस इकट्ठा किए जाता है, तिजोड़ी भरे चला जाता है, यह असंयमी है। धन इसका साध्य हो गया, अति हो गई इसके जीवन की। एक दूसरा आदमी धन से पीठ करके भागता है। लौटकर नहीं देखता, भागता ही चला जाता है। और सदा डरा हुआ है कि कहीं धन न मिल जाए। यह भी असंयमी है। इसके लिए धन का त्याग वैसे ही साध्य बन गया जैसे किसी के लिए धन का इकट्ठा करना साध्य था। संयमी कौन है? कृष्ण के अर्थों में जनक जैसा आदमी संयमी है। अन-अति संयम है, “नॉन-एक्स्ट्रीमिटी’ संयम है। मध्य में होना संयम है। भूखा मरना संयम नहीं है, ज्यादा खा लेना संयम नहीं है, सम्यक आहार संयम है। उपवास संयम नहीं है–भूख की तरफ असंयम है। ज्यादा खा लेना संयम नहीं है–भोग की तरफ असंयम है। सम्यक आहार–जितना जरूरी है बस उतना ही; न ज्यादा, न कम–संयम है। कृष्ण के ओंठों पर संयम का अर्थ “बैलेंस’ है, संतुलन है, संगीत है। जरा ही यहां-वहां हटे कि कुआं और खाई हैं। और दो तरफ आदमी हट सकता है–राग की तरफ हट सकता है, विराग की तरफ हट सकता है। घड़ी का “पेंडुलम’ हमने देखा है। वह बायें से हटता है तो सीधा दायें जाता है, बीच में रुकता नहीं। दायें से हटता है तो सीधा बायें जाता है, बीच में रुकता नहीं। और एक और बहुत मजे की बात है जो घड़ी के “पेंडुलम’ से समझ लेनी चाहिए कि जब घड़ी का पेंडुलम बायें तरफ जाता है तो हमें दिखता है बायें तरफ जा रहा है, लेकिन बायें तरफ जाते समय पूरे समय दायें तरफ जाने का “मोमेंटम’ इकट्ठा कर रहा है। जब घड़ी का “पेंडुलम’ बायीं तरफ जा रहा है तब वह दायीं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा है। बायें तरफ जाते हुए दायें तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी होती है। दायें तरफ जाते हुए बायें तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी होती है। जो अनशन कर रहा है, वह ज्यादा खाने की तैयारी कर रहा है। जो ज्यादा खा रहा है, वह अनशन की तैयारी कर रहा है। जो राग में डूब रहा है, वह विराग की तैयारी कर रहा है। जो विराग की तरफ दौड़ रहा है, वह राग की तरफ दौड़ेगा। दोनों अतियां सदा जुड़ी होती हैं। सिर्फ वह “पेंडुलम’ न जो बायें जा रहा है, न दायें जा रहा है, बीच में खड़ा हो गया है, वह कहीं भी जाने की तैयारी नहीं कर रहा है–न वह बायें जाने की तैयारी कर रहा है, न वह दायें जाने की तैयारी कर रहा है। और यह जो मध्य में खड़ा हो गया “पेंडुलम’ है, यह संयम का प्रतीक है।

असंयम “लेफ्टिस्ट’ या “राइटिस्ट’ दो तरह का होता है। संयम का अर्थ है, मध्य। कृष्ण के ओंठों पर यह अर्थ है। कृष्ण के ओंठों पर दूसरा अर्थ नहीं हो सकता। इस अर्थ को हम अगर वास्तविक जीवन में समझने जाएंगे तो क्या होगा? इसे वास्तविक जीवन में समझने जाएंगे, वस्तुतः जीवन की गहराई में, तो इसके दो अर्थ होंगे। ऐसा व्यक्ति न तो त्यागी कहा जा सकता है, न तो भोगी कहा जा सकता है, या दोनों कहा जा सकता है। पर ऐसा व्यक्ति दोनों में एकसाथ होगा। उसके भोग में त्याग होगा, उसके त्याग में भोग होगा। इस संयम के अर्थ से त्यागवादी कोई परंपरा राजी न होगी। त्यागवादी परंपरा के लिए संयम का अर्थ विराग होगा, असंयम का अर्थ राग होगा। जो राग को छोड़ता है और विराग की तरफ जाता है, वह संयमी है। कृष्ण त्यागवादी नहीं हैं और कृष्ण भोगवादी भी नहीं हैं। अगर उन्हें हम कहीं भी रखें तो वह ठीक चार्वाक और महावीर के बीच में खड़े हो जाएंगे। वे भोग में चार्वाक से पीछे न होंगे और त्याग में महावीर से पीछे न होंगे।

इसलिए अगर चार्वाक और महावीर का कोई “मिक्सचर’ बन सकता हो, अगर इन दोनों का कोई सम्मिलन बन सकता हो, तो वह कृष्ण है। इसलिए कृष्ण के ओंठों पर सारे शब्दों के अर्थ भिन्न होंगे। शब्द वे ही हैं, अर्थ भिन्न हो जाएंगे। उनके व्यक्तित्व से अर्थ निकलेगा।

दूसरा सवाल पूछा है, कृष्ण की उपासना, साधना क्या है?

कृष्ण के व्यक्तित्व में साधना जैसा कुछ भी नहीं है। हो नहीं सकता। साधना में जो मौलिक तत्व है, वह प्रयास है, “इफर्ट’ है। बिना प्रयास के साधना नहीं हो सकती। दूसरा जो अनिवार्य तत्व है, वह अस्मिता है, अहंकार है। बिना “मैं’ के साधना नहीं हो सकती, करेगा कौन! कर्ता के बिना साधना कैसे होगी? कोई करेगा, तभी होगी।

साधना शब्द ठीक से अगर बहुत गहरे में समझें तो अनीश्वरवादियों का है। साधना शब्द, जिनके लिए कोई परमात्मा नहीं है, आत्मा ही है, साधना शब्द उनका है। आत्मा साधेगी और पाएगी। उपासना शब्द बिलकुल उलटे लोगों का है। आमतौर से हम दोनों को एकसाथ चलाए जाते हैं। उपासना शब्द उनका है, जो कहते हैं आत्मा नहीं, परमात्मा है। सिर्फ उसके पास जाना है, साधना कुछ भी नहीं। उपासना का मतलब है, पास जाना। पास बैठना–उप-आसन, निकट होते जाना, निकट होते जाना। और निकट होने का अर्थ है, खुद मिटते जाना, और कोई अर्थ नहीं है। हम उससे उतने ही दूर हैं, जितने हम हैं। जीवन के परम सत्य से हमारी दूरी, हमारा “डिस्टेंस’ उतना ही है, जितने हम हैं। जितना हमारा होना है, जितना हमारा “मैं’ है, जितना हमारा “इगो’ है, जितनी हमारी आत्मा है, उतने ही हम दूर हैं। जितने हम खोते हैं और विगलित होते हैं, पिघलते हैं और बहते हैं, उतने ही हम पास होते हैं। जिस दिन हम बिलकुल नहीं रह जाते, उस दिन उपासना पूरी हो जाती है और हम परमात्मा हो जाते हैं। जैसे बर्फ पानी बन रहा हो, बस उपासना ऐसी है कि बर्फ पिघल रहा है, पिघल रहा है। साधना क्या कर रहा है बर्फ? साधना करेगा तो और सख्त होता चला जाएगा। क्योंकि साधना का मतलब होगा कि बर्फ अपने को बचाए। साधना का मतलब होगा कि बर्फ अपने को सख्त करे। साधना का मतलब होगा कि बर्फ और “क्रिस्टलाइज्ड’ हो जाए। साधना का मतलब होगा कि बर्फ और आत्मवान बने। साधना का मतलब होगा कि बर्फ अपने को बचाए और खोए न।

साधना का अर्थ अंततः आत्मा हो सकता है। उपासना का अर्थ अंततः परमात्मा है। इसलिए जो लोग साधना से जाएंगे, उनकी आखिरी मंजिल आत्मा पर रुक जाएगी। उसके आगे की बात वह न कर सकेंगे। वह कहेंगे अंततः हमने अपने को पा लिया। उपासक कहेगा, अंततः हमने अपने को खो दिया। ये दोनों बातें बड़ी उलटी हैं। बर्फ की तरह पिघलेगा उपासक और पानी की तरह खो जाएगा। साधक तो मजबूत होता चला जाएगा। इसलिए कृष्ण के जीवन में साधना का कोई तत्व नहीं है। साधना का कोई अर्थ ही नहीं है। अर्थ है तो उपासना का है।

उपासना की यात्रा ही उलटी है। उपासना का मतलब ही यह है कि हमने अपने को पा लिया, यही भूल है। हम हैं, यही गलती है। “टु बी इज द ओनली बांडेज”। होना ही एकमात्र बंधन है। न होना ही एकमात्र मुक्ति है। साधक जब कहेगा तब वह कहेगा, मैं मुक्त होना चाहता हूं; उपासक जब कहेगा तो वह कहेगा, मैं “मैं’ से मुक्त होना चाहता हूं। साधक कहेगा, मैं मुक्त होना चाहता हूं। मैं मोक्ष पाना चाहता हूं। लेकिन “मैं’ मौजूद रहेगा। उपासक कहेगा, “मैं’ से मुक्त होना है। “मैं’ से मुक्ति पानी है। उपासक के मोक्ष का अर्थ है, “न-मैं’ की स्थिति। साधक के मोक्ष का मतलब है, “मैं’ की परम स्थिति। इसलिए कृष्ण की भाषा में साधना के लिए कोई जगह नहीं है; उपासना के लिए जगह है।

अब यह उपासना क्या है, इसे हम थोड़ा समझें।

पहली तो बात समझ लें कि उपासना साधना नहीं है, इससे समझने में आसानी बनेगी। अन्यथा भ्रांति निरंतर होती रहती है। और उपासक हममें से बहुत कम लोग होना चाहेंगे, यह भी खयाल में ले लें। साधक हममें से सब होना चाहेंगे। क्योंकि साधक में कुछ खोना नहीं है, पाना है। और उपासक में सिवाय खोने के कुछ भी नहीं है, पाना कुछ भी नहीं है। खोना ही पाना है, बस। उपासक कौन होना चाहेगा? इसलिए कृष्ण को मानने वाले भी साधक हो जाते हैं। कृष्ण के मानने वाले भी साधना की भाषा बोलने लगते हैं। क्योंकि वह भीतर जो अहंकार है, वह साधना की भाषा बुलवाता है। वह कहता है, साधो, पाओ, पहुंचो।

उपासना बड़ी कठिन बात है, “आरडुअस’। इससे ज्यादा “आरडुअस’, इससे ज्यादा कठिन कोई बात ही नहीं है–पिघलो, मिटो, खो जाओ। निश्चित ही हम पूछना चाहेंगे कि क्यों मिटें? मिटकर क्या फायदा है? साधक कितनी ही ऊंची बात बोले, फायदे की बात में ही सोचेगा। उसका मोक्ष भी उसका ही सुख है। उसकी मुक्ति भी उसकी ही मुक्ति है। इसलिए साधक बहुत गहरे अर्थों में स्वार्थी हो तो आश्चर्य नहीं। स्व अर्थ से वह ऊपर कभी उठ भी नहीं पाएगा। उपासक स्व अर्थ के ऊपर उठेगा, इसलिए उपासक परमार्थ की बात बोलेगा। वह परम अर्थ की बात बोलेगा, जहां स्व खो जाता है। इस उपासना का क्या अर्थ होगा, और यह उपासना की क्या गति होगी और क्या यात्रा होगी? बड़ी कठिन होगी समझना यह बात। इसलिए पहले ही आपको कह देता हूं कि साधना शब्द को बिलकुल ही हटा दें। उसकी जगह ही नहीं है, फिर हम उपासना को समझने चलें।

जैसा मैंने कहा, उपासना का अर्थ है, निकट आना, “टु बी नियरर’। तो दूरी क्या है, “डिस्टेंस’ क्या है? एक तो दूरी है जो हमें दिखाई पड़ती है, “फिजिकल स्पेस’ है। आप वहां बैठे हैं, मैं यहां हूं, हम दोनों के बीच एक फासला है, एक “डिस्टेंस’ है। मैं आपके पास आ जाऊं, आप मेरे पास आ जाएं, भौतिक दूरी समाप्त हो जाएगी। हम बिलकुल पास-पास, हाथ में हाथ लेकर, गले में गले डालकर बैठ जाएं, दूरी खत्म हुई। लेकिन दो आदमी गले में हाथ डाले हुए भी कोसों दूरी पर हो सकते हैं। एक “इनर स्पेस’ है। एक भीतरी दूरी है, जिसका “फिजिकल’ दूरी से कुछ भी संबंध नहीं है। और दो आदमी कोसों दूर होकर भी बड़े निकट हो सकते हैं। और दो आदमी गले में हाथ डालकर दूर हो सकते हैं। तो एक तो दूरी है जो हमसे बाहर है। और एक दूरी है जो मन की है और हमारे भीतर है। उपासना भीतर की दूरी को मिटाने की विधि है। लेकिन भक्त भी बाहर की दूरी मिटाने को आतुर रहता है। वह भी कहता है, सेज बिछा दी है, आ जाओ! वह भी कहता है, कब तक तड़पाओगे, जाओ! वह भी बाहर की दूरी मिटाने को आतुर रहता है। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि बाहर की दूरी कितनी ही मिट जाए, दूरी बनी ही रहती है हम कितने ही पास आ जाएं, बाहर से हम पास आते ही नहीं। पास आना बिलकुल ही आंतरिक घटना है। इसलिए उपासक उस परमात्मा के पास भी हो सकता है जो दिखाई ही नहीं पड़ता। जिससे “फिजिकल’ दूरी मिटाने का कोई उपाय ही नहीं है, उसके पास भी पास हो सकता है।

यह जो “इनर स्पेस’ है हमारी, यह कैसे पैदा होती है? यह जो भीतर की दूरी है, यह कैसे पैदा होती है? बाहर की दूरी हम समझते हैं कि कैसे पैदा होती है। अगर मैं आपसे दूर चलने लगूं, आपसे हटने लगूं, आपकी तरफ पीठ कर लूं और भागने लगूं, तो बाहर की दूरी पैदा हो जाती है। आपकी तरह मुंह करने लगूं और आपकी तरफ चलने लगूं, आपकी दिशा में, तो बाहर की दूरी कम हो जाती है। भीतर की दूरी कैसे पैदा होती? भीतर की दूरी चलने से पैदा नहीं होती, क्योंकि भीतर तो चलने की कोई जगह नहीं है। भीतर की दूरी होने से पैदा होती है; कितना सख्त मैं हूं, उतनी ही भीतर की दूरी होती है। और कितना तरल मैं हूं, उतनी ही भीतर की दूरी टूट जाती है। और अगर मैं बिलकुल तरल हो जाऊं कि मैं भीतर कह सकूं कि मैं हूं ही नहीं, शून्य हो गया, तो भीतर की दूरी समाप्त हो जाती है।

उपासना का अर्थ शून्य होना है। उपासना का अर्थ न-कुछ होना है–“नथिंगनेस’, “नॉन-बीइंग’। मैं नहीं हूं, इस सत्य को जान लेना उपासक हो जाना है। मैं हूं, इस तथ्य को जोर से पकड़े रहना परमात्मा से दूर होते जाना है। मैं हूं, यह घोषणा ही हमारी दूरी है।

रूमी ने गीत लिखा है।

एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार को खटखटाता है। सूफियों का गीत है, जो कि उपासना को जानते हैं। शायद पृथ्वी पर उपासना को जानने वाले थोड़े ही लोग हैं, वे सूफी हैं। कृष्ण को अगर कोई ठीक से समझ सकता है तो वह सूफी ही समझ सकते हैं। ऐसे वे मुसलमान फकीर हैं, लेकिन इससे क्या बनता-बिगड़ता है। सूफी गीत है जलालुद्दीन रूमी का कि प्रेमी ने द्वार खटखटाया है प्रेयसी का। भीतर से आवाज आई, कौन हो? तो प्रेमी ने कहा, मैं हूं, पहचानी नहीं? फिर भीतर से कोई आवाज नहीं आती। फिर प्रेमी द्वार खटखटाये चला जाता है और कहता है मेरी आवाज नहीं पहचानती, मैं हूं! तब भीतर से बड़ी मुश्किल से इतनी भर आवाज आती है कि जब तक तुम हो, तब तक प्रेम के द्वार नहीं खुल सकते। कब खुले हैं मैं के लिए प्रेम के द्वार! तो जाओ, उस दिन आना जिस दिन मैं न रह जाओ। वह प्रेमी वापस लौट जाता है।

वर्ष आते हैं, जाते हैं। वर्षा और धूप और चांद और सूरज, वर्षों के बाद वह वापिस लौटता है। वह द्वार पर दस्तक देता है। भीतर से फिर वही सवाल कि कौन है? लेकिन अब वह प्रेमी कहता है, अब तो तू ही है। तो रूमी की कविता यहां पूरी हो जाती है। वह कहता है द्वार खुल जाते हैं। लेकिन मैं मानता हूं कि रूमी उपासना को पूरा नहीं समझ पाया। कृष्ण तक नहीं पहुंच पाई रूमी की समझ। गया थोड़ी दूर, रुक गया। अगर मैं इस कविता को लिखूं तो मैं कहूंगा कि फिर वह प्रेयसी भीतर से कहती है कि जब तक तू भी है, तब तक मैं होगा ही। छिपा होगा। क्योंकि तू का बोध मैं के बिना नहीं होता। चाहे कोई मैं कहता हो या न कहता हो, जब तक तू है, तब तक मैं मौजूद होगा ही। छिपा होगा, अप्रगट होगा, अंधेरे में दब गया होगा, मन के किसी कोने-कांतर में बैठ गया होगा, लेकिन होगा ही। क्योंकि कौन कहेगा तू? तू को कहने के लिए मैं होना ही चाहिए। यह सिर्फ तराजू बदल लिया, पहलू बदल लिया। बात कुछ हुई नहीं, बात कुछ बनी नहीं। तो मैं अगर इस कविता को लिखूं तो कहूंगा कि फिर वह कह देती है कि जब तक तू है, तब तक मैं कैसे मिट सकता है? अभी तू मैं को खोकर आया, अब तू को भी खोकर आ। लेकिन जब मैं भी खो जाएगा और तू भी खो जाएगा, तो क्या प्रेमी आएगा? तब मेरी कविता बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी, क्योंकि फिर वह आएगा कैसे? आएगा किसके पास? आएगा कहां? नहीं, फिर वह आएगा नहीं। फिर आने की कोई बात न रही, फिर जाने की कोई बात न रही, क्योंकि फासला, वह “इनर डिस्टेंस’ भी टूट गया जिसमें आया-जाया जा सकता है। वह जो भीतर का फासला था वह टूट गया, वह तो मैं और तू का फासला था। इसलिए मेरी कविता आखिर में आकर बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी। हो सकता है रूमी ने इसीलिए कविता वहीं खत्म की। क्योंकि आगे फिर कविता को खत्म कैसे करेंगे? वहां जाकर कविता एकदम टकरा जाएगी जिंदगी की चट्टान से और टूट जाएगी। क्योंकि फिर आएगा कौन? आएगा किसके पास? आएगा क्यों? जब तक आता है, तब तक फासला है। और जब मैं और तू न रहे तो कोई फासला नहीं, जो जहां है उसे वहीं मिल जाता है।

उपासना के लिए कहीं पहुंचना नहीं होता। जहां हम हैं, वहीं घटित हो जाती है। किसी के पास नहीं पहुंचना होता, बस अपने से मिटना होता है और पास पहुंचना हो जाता है।

“भगवान श्री, कृपया मार्टिन बूबर के संदर्भ में कुछ कहें?’

पूछा है कि मार्टिन बूबर के संदर्भ में भी कुछ कहें।

मार्टिन बूबर की सारी-की-सारी चिंतना मैं और तू के “इंटीमेसी’, मैं और तू के “रिलेशनशिप’, मैं और तू के संबंधों पर है। मार्टिन बूबर गहरे-से-गहरे लोगों में से एक है। लेकिन गहराई कितनी ही हो, वह उथलेपन का ही दूसरा छोर है। सच्ची गहराई तो उस दिन शुरू होती है जिस दिन आदमी न उथला रह जाता है और न गहरा रह जाता है। जिस दिन उथला और गहरापन दोनों मिट जाते हैं। मार्टिन बूबर ने बड़ी गहरी बातें कही हैं। गहरी-से-गहरी जो बात है वह यह है, यह सारे जीवन का सत्य मैं और तू के अंतर्संबंधों में समाया हुआ है।

एक नास्तिक है, एक अनीश्वरवादी है, एक है जो मानता है कि सिर्फ पदार्थ है। उसका जगत मैं और तू का जगत नहीं है। उसका जगत मैं और वह का जगत है। “आई एंड इट’। तू है ही नहीं। क्योंकि तू होने के लिए दूसरे में आत्मा को स्वीकार करना जरूरी है। नास्तिक का जगत, “आई एंड इट’, मैं और वह का जगत है। इसलिए नास्तिक का जगत बड़ा जटिल है, क्योंकि खुद को तो वह मैं कहता है और आत्मवान होने की घोषणा करता है, और शेष सबको मैं से हीन कर देता है और वह बना देता है। पदार्थ बना देता है, वस्तुएं बना देता है। अगर मैं जानता हूं कि आत्मा नहीं है, तो आप मेरे लिए पदार्थ से ज्यादा नहीं हैं, फिर मैं तू किसको कहूं? तू तो जीवंत व्यक्ति को कहा जा सकता है।

इसलिए मार्टिन बूबर कहता है कि आस्तिक का जगत मैं और वह का जगत नहीं है, “आई एंड दाउ’, मैं और तू का जगत है। जब मेरा मैं तू कह पाता है जगत को, तो आस्तिक का जगत है। मैं नहीं कहूंगा। मैं कहूंगा, यह आस्तिक भी बहुत गहरे में अभी नास्तिक है। क्योंकि अभी तो मैं और तू में जगत को बांट पाता है। या ऐसा कहें कि यह द्वैतवादी आस्तिक का जगत है। लेकिन द्वैतवादी चूंकि झूठा है, इसलिए द्वैतवादी आस्तिकता का भी कोई अर्थ नहीं होता। एक अर्थ में नास्तिक अद्वैतवादी होता है। क्योंकि वह कहता है, एक ही है, पदार्थ। एक अर्थ में नास्तिक अद्वैतवादी होता है, क्योंकि वह कहता है, एक ही है, पदार्थ; और एक अर्थ में आत्मवादी अद्वैतवादी होता है, क्योंकि वह कहता है, एक ही है, पदार्थ; और एक अर्थ में आत्मवादी अद्वैतवादी होता है, क्योंकि वह भी कहता है, एक ही है, आत्मा है। अब मेरा मानना है कि एक ही से एक पर जाना बहुत आसान है, दो से एक पर जाना बहुत कठिन है। इसलिए द्वैतवादी नास्तिक से भी ज्यादा उलझन में होता है। क्योंकि किसी दिन अगर नास्तिक अद्वैतवादी को यह दिखाई पड़ जाए कि पदार्थ नहीं है, आत्मा है, तो यात्रा तत्काल बदल जाती है। एक तो वह मानता ही था। वह एक क्या है, इसकी व्याख्या पर झगड़ा था। वह पदार्थ है कि परमात्मा है? लेकिन द्वैतवादी की झंझट और गहरी है। द्वैतवादी मानता है, दो हैं। पदार्थ भी है, परमात्मा भी है। इसे एक पर पहुंचना बहुत मुश्किल है।

बूबर द्वैतवादी है। वह कहता है, मैं और तू। लेकिन उसका द्वैतवाद बहुत मानवीय है। क्योंकि वह मैं को मिटा देता है। तू का दर्जा देता है दूसरे को भी, आत्मा का दर्जा देता है। लेकिन मैं और तू के बीच संबंध ही हो सकते हैं, एकता नहीं हो सकती, ऐक्य नहीं हो सकता। संबंध कितने ही गहरे हों, तब भी फासला बना ही रहता है। अगर मैं आपसे संबंधित हूं, कितना ही गहरा संबंधित हूं, तब भी मेरा और आपका संबंध, मुझे और आपको दो में तोड़ता है। संबंध जोड़ता भी है, तोड़ता भी है। वह दोहरे काम करता है। जिससे हम जुड़ते हैं, उससे हम टूटे हुए भी होते हैं। जिस जगह हमारा जोड़ होता है, वही हमारी टूट भी होती है। जो हमारा सेतु है, वही हमें दो तटों में भी तोड़ देता है। जो सेतु जोड़ता है, वह तोड़ता भी है। असल में जोड़ने वाली कोई भी चीज तोड़ने वाली भी होती है। होगी ही। अनिवार्य है। इसलिए दो कभी एक नहीं हो पाते, कितने ही गहरे संबंध हों, संबंध कभी भी एक नहीं हो पाते। इसलिए गहरे से गहरा संबंध भी दो बनाए रखता है। प्रेम का संबंध कभी भी एक नहीं हो पाते। इसलिए गहरे से गहरा संबंध भी दो बनाए रखता है। प्रेम का कितना ही गहरा संबंध हो, उसमें दो नहीं मिटते। और जब तक दो नहीं मिटते, तब तक प्रेम तृप्त नहीं हो सकता। इसलिए सब प्रेम अतृप्त होते हैं।

दो तरह की अतृप्तियां हैं प्रेम की–प्रेमी न मिले तो, और मिल जाए तो। प्रेमी न मिले तो यह अतृप्ति होती है कि जिससे मिलना चाहा था वह नहीं मिला, और प्रेमी मिल जाए तो यह अतृप्ति होती है कि जिससे मिलना चाहा था वह मिल तो गया, लेकिन मिलना कहां हो पा रहा है! फासला खड़ा ही है। दूरी बनी ही है। पास आ गए हैं बहुत, लेकिन कहां दूरी मिटती है! इसलिए कई बार, जिसको अपना प्रेमी नहीं मिलता वह भी उतना दुखी नहीं होता, जितना दुखी वह हो जाता है जिसे उसका प्रेमी मिल जाता है। क्योंकि जिसको नहीं मिलता उसे एक आशा तो रहती है कि कभी मिल सकता है। इसकी वह आशा भी टूट जाती है, कि अब क्या होगा? मिल तो गया है, लेकिन मिलना नहीं हो पा रहा है।

असल में कोई मिलन मिलन नहीं बन सकता, क्योंकि मिलन में संबंध ही है और संबंध दो बनाए रखता है। इसलिए मार्टिन बूबर मैं और तू के गहरे संबंधों की बात करता है, जो बड़ी मानवीय है। और इस जगत में, जो कि निरंतर पदार्थवादी होता चला गया है, मार्टिन बूबर की बात भी बड़ी धार्मिक मालूम होती है, लेकिन मुझे मालूम नहीं होती। मैं तो कहूंगा, यह बात धार्मिक नहीं है, सिर्फ समझौता है, यह मैं और तू के बीच अगर एकता न हो सके, तो कम-से-कम संबंध ही हो।

प्रेम और उपासना में यही फर्क है। प्रेम संबंध है, उपासना असंबंध है। असंबंध का मतलब यह नहीं कि दो असंबंधित हो गए। असंबंध का मतलब यह कि दो के बीच से संबंध गिर गया। “रिलेशनशिप’ भी गिर गई। वह जो संबंध था, वह भी गिर गया; अब दो दो ही न रहे, वह एक ही हो गए। यह जो एक हो जाना है, यह उपासना है।

इसलिए प्रेम का अगला कदम उपासना है। और जिसे हम प्रेम करते हैं उससे हम तब तक पूरी तरह नहीं मिल सकते जब तक वह दिव्य न हो जाए, भागवत न हो जाए, भगवान न हो जाए। दो मनुष्यों का मिलन असंभव है। उनका मनुष्य होना ही बाधा देता रहेगा। दो मनुष्य ज्यादा-से-ज्यादा संबंधित हो सकते हैं। दो परमात्मत्तत्व ही मिल सकते हैं, क्योंकि फिर तोड़ने वाला कोई भी नहीं रह जाता। जोड़ने वाला भी कोई नहीं रह जाता। इसलिए मार्टिन बूबर ज्यादा-से-ज्यादा प्रेम पर पहुंच सकता है। कृष्ण उपासना पर पहुंचते हैं। उपासना बहुत और बात है, उपासना बहुत ही और बात है। वहां दूसरा भी मिट गया है, मैं भी मिट गया हूं। और हम दोनों के मिटने पर जो शेष जाता है, “दैट ह्विच रिमेन्स’, वह विस्तार जो बाकी रह गया, उसे हम क्या नाम दें? उसे हम पदार्थ कहें? उसे हम आत्मा कहें? उसे मैं मैं कहूं? उसे मैं तू कहूं? उसे हम कोई भी नाम दें वे गलत होंगे। इसलिए जो परम उपासक हैं वे चुप रह गए हैं, उन्होंने उसके लिए कोई नाम नहीं दिया। उन्होंने कहा वह अनाम है, “नेमलेस’ है। उन्होंने कहा, उसका कोई छोर नहीं है, उसका कोई प्रारंभ नहीं है, उसका कोई अंत नहीं है। उन्होंने कहा, उसका कोई नाम नहीं, उसका कोई रूप नहीं। उन्होंने कहा, उसका कोई आकार नहीं। उन्होंने कहा, उसे कोई शब्द नहीं दिया जा सकता। वे चुप रह गए हैं। वे मौन रह गए हैं।

परम उपासक मौन रह गया है, उस सत्य के संबंध में उसने कोई घोषणा नहीं की, क्योंकि सभी घोषणाएं द्वैत में गिर जाती हैं। मनुष्य के पास ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो द्वैत में न ले जाता हो। हम शब्द का उपयोग किए नहीं कि हमने जगत को दो में तोड़ा नहीं। इधर हमने शब्द का उपयोग किया, वहां चीजें दो में टूटीं। ऐसे ही हम किसी प्रिज्म में से सूर्य की किरण को निकालें तो वह सात हिस्सों में टूट जाती है। ऐसे ही हमने भाषा से किसी सत्य को निकाला कि वह तत्काल दो में टूट जाती है। भाषा का प्रिज्म हर सत्य को दो में तोड़ देता है और दो में टूटते ही सत्य असत्य हो जाता है। इसलिए परम उपासक चुप रह गया, मौन रह गया। नाचा है, बांसुरी बजाई है, गीत गाया है, इशारे किए हैं, लेकिन घोषणा नहीं की। घोषणा शब्दों में होती है। “गेस्चर’ से जाहिर किया है। नाचकर कहा है कि क्या है वह। हंस कर कहा है कि क्या है वह। चुप रहकर कहा है कि क्या है वह। हाथ के इशारे उठा दिए हैं आकाश की तरफ और कहा है कि क्या है वह! लेकिन, चुप रह गया है। पूरे व्यक्तित्व से कहा है कि क्या है वह।

गदर के वक्त में, एक संन्यासी को एक अंग्रेज सैनिक ने छाती में संगीत मार दी। निकलता था संन्यासी। मौन था वर्षों से, तीस वर्ष से बोला नहीं था। और जिस दिन मौन लिया था उस दिन किसी ने पूछा था कि क्यों मौन लेते हो? तो उसने कहा था, जो बोला जा सकता है वह बोलने योग्य नहीं है और जो बोलने योग्य है, वह बोला नहीं जा सकता। तो सिवाय मौन के और मैं क्या करूं? तो तीस वर्ष से वह मौन था। गदर चल रही थी, बगावत चल रही थी, अंग्रेज शंकित थे, नग्न वह संन्यासी रात के अंधेरे में उनके कैंप के पास से गुजरता था। उन्होंने उसे पकड़ लिया। समझा कि कोई जासूस होगा। कोई “डिटेक्टिव’ होगा। पूछा उससे, कौन हो? अगर वह कुछ उत्तर भी दे देता, तो भी शायद वे समझ जाते, लेकिन वह चुप रहा, हंसता रहा। जब वे पूछते, कौन हो, तो वह हंसता। तब तो पक्का हो गया कि वह जासूस है और बोलने की भी तैयारी नहीं दिखाता। तब उन्होंने उसकी छाती में संगीन भोंक दी। तीस वर्ष से जो मौन था, वह मरते वक्त हंसा और उसने एक शब्द कहा, मरते वक्त उसने उपनिषद का एक महावाक्य कहा, कहा: “तत्त्वमसि, श्वेतकेतु’। उस संगीन भोंकने वाले सैनिक से उसने कहा कि तू भी वही है, जो मैं हूं। और तू पूछता है कि तू कौन है!

इशारे हैं। या फिर असंगत भाषा…कबीर की भाषा को लोगों ने संध्या-भाषा कहा है। संध्या-भाषा का मतलब यह है कि न पक्का पता चले कि दिन है कि रात है। बात ऐसी हो कि पक्का पता न चले कि हां है कि ना। पक्का पता न चले कि तुम स्वीकार करते हो कि अस्वीकार; तुम आस्तिक हो कि नास्तिक, तुम मानते हो कि नहीं मानते हो; जिस भाषा में कुछ पक्का पता न चले, उस भाषा को संध्या-भाषा कहा है। इसलिए कबीर की भाषा का अभी भी अर्थ तय नहीं हो पाता। कृष्ण की भाषा का भी नहीं हो सकता। जिन्होंने भी सत्य को कहा है, उनकी संध्या-भाषा हो गई। क्योंकि वे दोनों को साथ-साथ कहेंगे, हां और ना को, या दोनों को साथ-साथ इनकार कर देंगे और हमारी भाषा में कोई तर्क-व्यवस्था में वे नहीं बैठ पाएंगे। इसलिए मौन रह गए वे लोग, जिन्होंने जाना उसे जहां मैं और तू दोनों खो जाते हैं।

“भगवान श्री, सार्त्र कहता है, “एक्ज़िस्टेंस प्रिसीड्स इसेंस’। आप “इसेंस’ को “एक्ज़िस्टेंस’ के पहले मानते हैं? या कि दोनों का कैसा संबंध आप करते हैं? और इधर साधना शिविर में आए हुए लोग भी गड़बड़ में पड़ गए हैं कि वे उपासना शिविर में आए हैं, या साधना शिविर में?’

गड़बड़ में डालना मेरा काम है। साधना और उपासना के बीच का फासला गिर जाए, तो शिविर का मतलब समझ में आ गया।

सार्त्र या अस्तित्ववादी ऐसा मानते हैं, “एक्ज़िस्टेंस प्रिसीड्स इसेंस’। बड़ी अजीब बात है। क्योंकि दुनिया में ऐसा मुश्किल से कभी माना गया है। इससे उलटी बात सदा मानी जाती रही है। दुनिया के जितने तत्व-चिंतन हैं, उन सबका मानना है, “इसेंस प्रिसीड्स एक्ज़िस्टेंस’।

इसे समझ लें।

सार्त्र के पहले या अस्तित्ववादियों के पहले जितने जितने भी तत्व-चिंतन हैं, वे यह मानते हैं कि बीज वृक्ष के पहले है। स्वभावतः। सार्त्र कहता है, वृक्ष बीज के पहले है। सारा चिंतन साधारणतः कहेगा कि अस्तित्व के पहले आत्मा है, तभी तो अस्तित्व हो सकेगा। सार्त्र कहता है, अस्तित्व पहले है, फिर आत्मा है। क्योंकि अस्तित्व ही न होगा तो आत्मा कैसे गठित होगी।

कृष्ण के संदर्भ में क्या मतलब होगा? असल में तत्व-चिंतन की सारी लड़ाइयां बड़ी बचकानी हैं, बहुत “चाइल्डिश’ हैं। वे सारी लड़ाइयां तत्व-चिंतन की जो मनुष्य जाति ने अब तक बड़े-से-बड़े दार्शनिकों के द्वारा की हैं, वे बच्चों के छोटे-से सवाल में समाहित हो जाती है कि मुर्गी पहले होती है कि अंडा। बड़े-से-बड़ा तत्व-चिंतन, बड़े-से-बड़ी “फिलासफी’ इस छोटे-से मुद्दे पर लड़ती रही है। जो जानते हैं, वे कहेंगे कि मुर्गी और अंडा दो नहीं हैं; इसलिए कौन पहले है यह सिर्फ नासमझ पूछ सकता है और बड़ा नासमझ उत्तर दे सकता है।

अगर हम ठीक से समझें तो अंडे का मतलब क्या होता है? अंडे का मतलब क्या होता है? अंडे का कुल मतलब छिपी हुई मुर्गी होता है। मुर्गी का क्या मतलब होता है? छिपा अंडा होता है। अंडा और मुर्गी दो चीजें अगर होतीं, तो कौन “प्रिसीड’ करता है यह सवाल सार्थक था। कौन पहले है, यह सार्थक था सवाल, अगर अंडा और मुर्गी दो चीजें होतीं।अंडा और मुर्गी एक ही चीज है। या एक ही चीज को हमारे देखने के दो ढंग हैं। या एक ही चीज की दो क्षणों में दिखाई पड़ने की स्थितियां हैं! लेकिन दो चीजें नहीं हैं। अंडा और मुर्गी एक ही चीज की दो “फेज’ हैं, एक ही चीज के प्रगट होने के दो ढंग हैं। बीज और वृक्ष दो चीजें नहीं हैं। जन्म और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। एक ही चीज के होने के दो ढंग हैं, या, या हो सकता है कि हम पूरी तरह देख नहीं पाते इसलिए हम दो में तोड़कर देखते हैं। दृष्टि हमारे पास छोटी है। जैसे समझ लें कि एक बड़ा कमरा हो, एक बड़ा भवन हो, एक छोटा-सा छेद हो, और उस छेद में मैं आंख गड़ाए देखता हूं। पूरा कमरा दिखाई नहीं पड़ता। छेद के पहले मुझे एक कुर्सी दिखाई पड़ती है। फिर मैं आंख को और घुमाता हूं, मुझे तीसरी कुर्सी दिखाई पड़ती है। मैं पूछ सकता हूं कि इन तीन कुर्सियों में पहले कौन है? लेकिन कमरे में, कमरे के भीतर जाकर मैं क्या कहूंगा? कौन पहले है, सब “साइमलटेनियस’ हैं। वह तीनों कुर्सियां एकसाथ हैं। लेकिन जिस छेद से मैंने देखा था वहां पहले एक कुर्सी दिखाई पड़ी, फिर दूसरी कुर्सी दिखाई पड़ी, फिर तीसरी कुर्सी दिखाई पड़ी। पहले कौन था? कमरे के भीतर जाकर मैं पूछूंगा कि पहले कौन है? मैं कहूंगा, तीनों कुर्सियां साथ हैं।

एक लेबोरेट्री आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में, जिसने अभी इस सदी की श्रेष्ठतम खोजें की हैं। मैं मानता हूं कि भविष्य के लिए सबसे बड़ा काम उस प्रयोगशाला में हो रहा है। उस प्रयोगशाला का नाम है, “डिलाबार लेबोरेट्री’। एक बड़ी चमत्कारपूर्ण घटना जो घटी है, वह यह है कि एक कली का फोटोग्राफ लेते वक्त कली का फोटो नहीं आया, फूल का फोटो आ गया। बहुत “सेंसिटिव फिल्म’ से। अब तक जो सबसे ज्यादा संवेदनशील फिल्म बन सकी है, उस फिल्म के सामने कली रखने से गुलाब की–थी तो कली, फोटो आ गया गुलाब के फूल का। बड़ी कठिनाई हो गई। क्योंकि अभी कली फूल हुई नहीं है, होगी। तब बड़ी मुश्किल की बात हो गई। जो कली अभी फूल हुई नहीं है, उसका फोटो कैसे आ गया! या तो किसी बहुत रहस्यपूर्ण जगत में वह फूल अभी भी हो, चूंकि यह सिर्फ हमें दिखाई नहीं पड़ रही है और कैमरा उसे देख पाया जो हम नहीं देख पा रहे। शायद कैमरा कमरे के भीतर जाकर देख पाया, जहां कली और फूल “साइमल्टेनियस’ हैं। हमारी आंख कमरे के बाहर से देखती थी जहां पहले कली है, फिर फूल है। लेकिन, शायद कोई भूल हो गई हो। शायद इस कैमरे की फिल्म पहले ही “एक्सपोज’ हो गई हो। हजार बातें हैं, किसी फूल का फोटो पहले आ गया है, भूल-चूक हो गई हो। कुछ “केमिकल’ गड़बड़ हो गई हो। तो प्रतीक्षा करनी पड़ी कि जब तक कली फूल न बन जाए। फिर वह कली फूल बन गई। और तब बहुत मुश्किल हो गई! क्योंकि जो वह फूल बनी, उसका फोटो ही पहले पकड़ा गया था। वह फोटो कोई “केमिकल’ भूल न थी, वह इसी फूल का फोटो है। “डिलाबर लेबोरेट्री’ के छोटे-से कमरे में घटी यह घटना बड़ी मुश्किल में डाल देती है।

इसका मतलब यह हुआ कि हमारे देखने के ढंग की वजह से एक दफा हमें अंडा दिखाई पड़ता है, फिर एक दफे मुर्गी दिखाई पड़ती है। लेकिन, अगर कृष्ण जैसी आंख हो देखने की हमारे पास, तो मुर्गी अंडा क्या एकसाथ नहीं दिखाई पड़ सकते? हमें बड़ी मुश्किल पड़ेगी। क्योंकि यह तर्क के बाहर का मामला हो गया। लेकिन, विज्ञान बहुत से तर्क के बाहर के मामलों को पिछले पच्चीस सालों में स्वीकार कर रहा है।

एक और आपको उदाहरण दूं, उससे खयाल आ सके। ताकि ऐसा न लगे कि मैं कोई अवैज्ञानिक बात कह रहा हूं। आज से पचास साल तक कभी कोई सोच भी नहीं सकता था, लेकिन इधर पचास वर्षों में बड़ी मुश्किल पड़ी। जैसे ही हम अणु का विस्फोट किए और “इलेक्ट्रांस’ की खोज किए, वैसे एक बड़ी कठिनाई आई जो मनुष्य जाति के सामने पहली दफे आई। और वह यह थी कि इलेक्ट्रान को हम क्या कहें? क्योंकि कभी “इलेक्ट्रान’ का फोटो ऐसा आता है जैसे इलेक्ट्रान “वेव’ है, लहर है; और कभी ऐसा आता है जैसे “पार्टिकल’ है, कण है। और कभी एक ही साथ दो कैमरे फोटो लेते हैं, तो एक कैमरे में फोटो आता है, “वेव’ का और दूसरे कैमरे में फोटो आता है कण का। अब कण और लहर में बड़ा फर्क है। इसको क्या कहें? इसको लहर कहें? अगर लहर कहते हैं तो यह कण नहीं हो सकता। अगर कण कहते हैं तो यह लहर नहीं हो सकता। इसलिए अंग्रेजी में एक नया शब्द ईजाद हुआ जो अभी दुनिया की दूसरी भाषा में नहीं हुआ, क्योंकि दुनिया की दूसरी भाषाएं उस गहराई पर नहीं पहुंचीं, वह है–“क्वांटा’। एक नया शब्द बनाना पड़ा। “क्वांटा’ का मतलब है, “बोथ साइमल्टेनियसली, वेव एंड पार्टिकल’। मगर “क्वांटा’ बड़ा “मिस्टीरियस’ मामला है। “क्वांटा’ का मतलब होता है, दोनों एकसाथ–लहर भी और कण भी। हां, मुर्गी भी और अंडा भी–“क्वांटा’।

तो सार्त्र से मैं राजी नहीं हूं, न सार्त्र के विरोधियों से राजी हूं। जो कहते हैं कि अस्तित्व पहले, फिर आत्मा; जो कहते हैं आत्मा पहले, फिर अस्तित्व, उनमें से किसी से मैं राजी नहीं हूं। मेरा मानना है, अस्तित्व और आत्मा एक ही सत्य को देखने के दो ढंग। हमारी कमजोर नजर की वजह से हम दो में तोड़कर देखते हैं। अस्तित्व ही आत्मा है। “इसेंस इज एक्ज़िस्टेंस, एक्ज़िस्टेंस इज इसेंस’। अस्तित्व आत्मा है, आत्मा अस्तित्व है। ये दो चीजें नहीं हैं। इसलिए जब हम कहते हैं कि आत्मा का अस्तित्व है, तो हम गलत भाषा का उपयोग करते हैं। जब हम कहते हैं, परमात्मा का अस्तित्व है, तब भी हम गलत भाषा का उपयोग करते हैं। क्योंकि परमात्मा का अस्तित्व है, इसका मतलब यह हुआ कि परमात्मा कुछ है और उसका अस्तित्व है।

नहीं, अगर हम ठीक से समझें तो हम कहेंगे, परमात्मा अस्तित्व है। परमात्मा का अस्तित्व है, गलत है। फूल का अस्तित्व है, क्योंकि कल फूल का अस्तित्व नहीं भी हो जाएगा। लेकिन परमात्मा का अस्तित्व कब नहीं होगा? जो कभी अनस्तित्व में नहीं जा सकता, उसका अस्तित्व नहीं कहा जा सकता। हम कह सकते हैं कि मेरा अस्तित्व है। क्योंकि कल मेरा अस्तित्व नहीं होगा। लेकिन परमात्मा का अस्तित्व है, ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि ऐसा कभी भी नहीं होगा जब उसका अस्तित्व न हो। इसलिए परमात्मा का अस्तित्व है, यह भाषा की भूल है। “गॉड एक्जिस्ट्स’, यह गलत बात है। परमात्मा अस्तित्व है, “गॉड इज एक्ज?िस्टेंस’, यह ठीक है।

लेकिन भाषा हमेशा दिक्कत में डालती है। क्योंकि जब हम कहते हैं, “गॉड इज एक्जिस्टेंस’, परमात्मा का अस्तित्व “है’, तो वह है शब्द भी बहुत झंझट का है। क्योंकि परमात्मा इस तरफ, अस्तित्व उस तरफ, और इससे, “है’ से “रिलेटेड’। इधर परमात्मा, उधर अस्तित्व, और “है’ से जुड़ा हुआ। इसलिए फिर इसमें एक शब्द और गिराना पड़ेगा। “गॉड इज एक्जिस्टेंस’, ऐसा न कहकर कहना पड़ेगा, “गॉड मीन्स इजनेस’। जुड़ा नहीं, अर्थ करना पड़ेगा। परमात्मा का अर्थ है, होना। परमात्मा का अर्थ है, अस्तित्व। है शब्द भी पुनरुक्ति है। इतना भी हम कहें कि ईश्वर है, तो पुनरुक्ति है। क्योंकि “है’ का मतलब भी ईश्वर होता है, और ईश्वर का अर्थ भी “है’ होता है। जो “है’, उसका नाम ईश्वर है। इसलिए कठिनाई है बड़ी भाषा की। और जैसे उसमें भीतर प्रवेश करते हैं, इसलिए जो जानता है वह कहता है, छोड़ो झंझट, चुप रह जाओ, कौन कहे कि ईश्वर है? जो कहे वह अलग हो जाए! किसको कहो कि ईश्वर है? जिसको कहो, वह “आब्जेक्ट’ बन जाए! तो चुप ही रह जाओ।

एक झेन फकीर के पास कोई गया और उससे पूछता है, ईश्वर के संबंध में कुछ कहो। तो वह हंसता है, डोलता है। फिर वह पूछता है, कुछ कहो भी, हंसने-डोलने से क्या होगा? तो वह और जोर से नाचता है। वह कहता है, क्या पागल तो नहीं हो? हम कहते हैं, कुछ कहो! तो वह फकीर कहता है, मैं कहता हूं लेकिन तुम सुनते नहीं। तो उस आदमी ने कहा कि गजब की बातें कह रहे हैं, खुद पागल हो, मुझको भी पागल बनाते हो! एक शब्द तुम बोले नहीं। तो उस फकीर ने कहा, अगर मैं बोलूंगा तो गलती हो जाएगी। अगर नहीं बोलने से नहीं समझ सकते हो तो जाओ, वहां समझो जहां बोलकर समझाया जा रहा है। लेकिन बोलकर समझाने से परम तत्व में गलती हो ही जाएगी। इसलिए हम बोल सकते हैं आखिरी क्षण तक, लेकिन बिलकुल आखिरी क्षण पर बोलना रुक जाएगा। उसके बाद चुप रह जाना पड़ेगा।

विट्गिंस्टीन ने अपने सारे जीवन के बाद एक छोटा-सा वाक्य लिखा है। और वह वाक्य बहुत अदभुत है। उसने लिखा है, “दैट ह्विच कैन नाट बी सेड, मस्ट नाट बी सेड’। जो नहीं कहा जा सकता, उसे कहना ही नहीं चाहिए। लेकिन, इतना तो कहना ही पड़ता है। अब विट्गिंस्टीन मर गया, नहीं तो उससे मैं कहता, इतना तो कहना ही पड़ता है कि जो नहीं कहा जा सकता उसे नहीं नहीं कहना चाहिए। और इससे क्या फर्क पड़ता है कि कितना कहते हैं! कुछ तो कहना ही पड़ता है। हां, उसने पहली किताब में कहा है, पहली किताब में “टैक्टेसस’ में उसने यह बात कही है कि जो कहा जाएगा वह भाषा में ही कहा जाएगा। यह थोड़ी दूर तक ठीक है। क्योंकि अगर “गेस्चर’ को भी कहना समझें, तो वह भी एक भाषा है। एक गूंगा हाथ उठाकर कह देता है–पानी पीना है। वह भी भाषा है, गूंगे की भाषा है। इसलिए हम तो कहते ही रहे हैं कि परमात्मा जो है वह गूंगे का गुड़ है। लेकिन उसका मतलब यही है कि गूंगे की भाषा में कहना पड़ेगा। लेकिन कहेंगे जो भी हम किसी भी ढंग से, नाच कर कहें–मौन रहकर कहें तो भी हम कह रहे हैं–और इसलिए जो है, वह हमारे सब कहने के पार छूट जाएगा। इसलिए लाओत्से ने विट्गिंस्टीन से बहुत गहरी बात कही है। लाओत्से ने कहा, सत्य कहा कि असत्य हो जाता है, इस इतना ही कहा जा सकता है। इसलिए जो जानते हैं वे चुप रह जाते हैं।

“भगवान श्री, आप बहुधा कहते हैं कि मैं जब पूर्ण होता है तब वह सर्व अर्थात “न-मैं’ हो जाता है। उपर्युक्त कथन का अभी आप खंडन कर रहे हैं। इसमें लगता है कि केवल शब्दों की “इम्फेसिस’ भर बदल रहे हैं आप। पूर्ण मैं और न-मैं क्या एक नहीं है?’

कोई अंतर नहीं है। क्योंकि पूर्ण मैं का मतलब ही इतना होता है कि तू नहीं बचा अब बाहर, सब तू मैं में समा गए और जब सब तू मैं में समा जाएंगे तो इसको मैं कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इससे उलटा भी कह सकते हैं कि हमारा मैं तू में समा गया, लेकिन जब मेरा मैं तू में समा गया, तो तू को तू कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसलिए चाहे मैं पूर्ण कहें हम, चाहे मैं शून्य कहें हम, ये दोनों एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। मैं पूर्ण हो जाए तो शून्य हो जाता है, मैं शून्य हो जाए तो पूर्ण हो जाता है। कहां से हम कहते हैं, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। परम सत्य को अगर हम हां कहें, तो भी ठीक है, न कहें तो भी ठीक है। क्योंकि परम सत्य के संबंध में हां के भीतर न सम्मिलित होगी और न के भीतर हां सम्मिलित होगा। इसलिए परम सत्य के संबंध में हम कुछ न भी कहें तो भी ठीक है, और बहुत कुछ कहें, कहते रहें अनंत काल तक, तो भी पूरा नहीं होता। और चुप रह जाएं और कुछ भी न कहें, तो भी पूरा हो जाता है।

सत्य को, जो है, उसे जब भी हम किसी दृष्टि से देखते हैं तब कठिनाई में पड़ते हैं। और हम सब दृष्टि से देखते हैं। हम कहीं खड़े होकर देखते हैं। कोई जगह से देखते हैं। कोई धारणा से देखते हैं। कोई भाव से देखते हैं। कोई विचार से देखते हैं। कहीं-न-कहीं कोई “कन्सेप्शन’ है हमारा, उससे खड़े होकर हम देखते हैं। जब तक हमारी कोई धारण है, कोई दृष्टि है, तब तक जिस सत्य को हम देखेंगे वह अपूर्ण होगा, अधूरा होगा, खंड होगा, अंश होगा। इतना भी हम जानें कि वह अंश है, खंड है, तो भी ठीक है। लेकिन हर दृष्टि घोषणा करती है कि मैं पूर्ण हूं। और जब दृष्टि घोषणा करती है कि मैं पूर्ण हूं, और जब दृष्टि कहती है कि मैं दर्शन हूं, तब बड़ी भ्रांति खड़ी हो जाती है। दृष्टि इतना ही कहे कि मैं दृष्टि हूं तब कोई खतरा नहीं है।

दर्शन तो उसी दिन उपलब्ध होगा जिस दिन कोई दृष्टि न होगी। आप किसी दृष्टि से न देख रहे होंगे, आप किसी जग से न देख रहे होंगे, आप सब जगह से देख रहे होंगे, एक साथ सब जगह हो गए होंगे, उस दिन दर्शन उपलब्ध होगा। उस दर्शन को कहने के दो ढंग हो सकते हैं। दो ही ढंग हमारे पास हैं–निषेध के या विधेय के। या तो हम निषेध का उपयोग करें, जैसा बुद्ध ने उपयोग किया और कहा कि निर्वाण है, शून्य है; या, जैसा शंकर ने उपयोग किया और कहा कि ब्रह्म है, पूर्ण है। और मजा यह है कि शंकर और बुद्ध दोनों विपरीत मालूम पड़ते हैं और दोनों बिलकुल एक बात कहे चले जाते हैं। दोनों एक ही बात कहते हैं, सिर्फ उनकी भाषा का मोह भिन्न है। शंकर विधायक शब्द को पसंद करते हैं, वह कहते हैं, ब्रह्म है। बुद्ध नकारात्मक शब्द को पसंद करते हैं, वह कहते हैं, शून्य है।

अगर मुझसे पूछें कि मैं क्या कहूं, तो मैं कहूंगा कि शून्य का एक नाम ब्रह्म है और ब्रह्म का एक नाम शून्य है। और जहां बुद्ध और शंकर दोनों मिल जाते हैं, वहां भाषा खत्म हो जाती है। वहां से असली बात शुरू होती है।

“भगवान श्री, आपने यह तो स्वीकारा कि पूर्ण मैं और न-मैं में कोई फर्क नहीं है, लेकिन इसके पहले आप अपनी चर्चा में कह चुके हैं कि साधना पूर्ण मैं की दिशा में ले जाती है। और आपने साधना और उपासना में बहुत फर्क किया; लेकिन बाद में आप दोनों को एक मान रहे हैं।’

नहीं, मैंने यह नहीं कहा कि साधना पूर्ण मैं की दिशा में ले जाती है। मैंने कहा, साधना मैं की दिशा में ले जाती है। अगर साधना पूर्ण मैं की दिशा में ले जाए, तो फिर उपासना में कोई फर्क नहीं है। लेकिन साधना नहीं ले जा पाती, और इसलिए साधक को एक दिन मैं को भी खोना पड़ता है। वह मैं की ही दिशा में ले जाती है। क्योंकि पूर्ण मैं तभी हो सकता है जब मैं खो जाए। इसलिए साधक को एक छलांग और लगानी पड़ेगी अंत में। एक साधना करके वह मैं को पाएगा, आत्मा को पाएगा; उसे अंत में आत्मा को भी खोने की छलांग लगानी पड़ेगी। और अगर वह नहीं लगाता, तो वह एक कदम पहले रुक जाएगा। उपासक जो छलांग पहले ही दिन लगा लेता है, वह साधक को अंतिम दिन लगानी पड़ेगी–वह मैंने पीछे बात की है। साधक, साधना, प्रयास एक जगह ले जाएंगे जहां मैं बच जाऊंगा और सब खो जाएगा। अब इस मैं को भी खोना पड़ेगा। उपासक पहले ही क्षण से मैं को खोने की बात करता है। इसलिए अंत में उसके पास खोने को कुछ नहीं बचता। खोने को ही नहीं बचता।

तो जो काम साधक को अंत में करना पड़ता है वह उपासक को प्रथम करना पड़ता है। और मेरी अपनी समझ यह है कि जो काम अंत में करना ही हो, उसे प्रथम ही कर लेना उचित है। इतनी देर तक इस झंझट को ढोना उचित नहीं है। जिस बोझ को फेंक ही देना हो, और पहाड़ के अंतिम शिखर पर जहां जाकर सब बोझ छोड़ देना हो, इसको इतनी पहाड़ी तक कंधे पर ढोने का भी कोई प्रयोजन नहीं है। उपासक यह कहता है कि तुम पहाड़ के नीचे ही कंधे का बोझ रख दो, क्योंकि आखिरी शिखर पर पहुंचने के पहले यह बोझ छोड़ना पड़ेगा। उस ऊंचाई पर यह बोझ नहीं ले जाया जा सकता है। लेकिन हम कहते हैं कि नहीं, जब तक ले जाया जा सकता है तब तक हम ले चलें, जब आएगा मौका तब देख लेंगे। तो हम पूरा पहाड़ बोझ ढोते हैं। आखिरी शिखर के पहले तो छोड़ना पड़ता है। उपासक नीचे ही छोड़ आता है, वह इतने ढोने से बच जाता है। इतना फर्क है। आखिरी शिखर पर फर्क नहीं रह जाएगा। लेकिन, जब आखिरी शिखर पर इतनी दूर तक खींचा गया बोझ छोड़ने का क्षण आएगा, तब उपासक मजे से बढ़ता रहेगा और साधक अड़चन में पड़ेगा। क्योंकि जिसे इतनी दूर तक खींचा, उसके साथ राग और मोह तो बन ही जाता है। और मन करेगा कि पहाड़ चढ़ कर आए, इतनी दूर तक खींचा, अब अंत में छोड़े! हां, रोएगा कि इसको अगर ले जा सकें तो अच्छा है। या सोचेगा कि यहीं टिक जाएं, थोड़ी दूर न भी गए तो क्या हर्ज है, अपने बोझ के साथ ही रुक जाएं। यह समस्या उसके सामने खड़ी होगी। यह उपासक के सामने पहले दिन ही खड़ी होगी, नीचे ही पहाड़ के। उसकी भी कठिनाई तो है। कठिनाई यह है कि साधक बोझ को ले जाता दिखाई पड़ेगा, और उसको लगेगा कि कुछ लोग तो लिए जा रहे हैं और मुझे यहीं छोड़ना पड़ रहा है। कहीं ऐसा न हो कि ये शिखर पर साथ लिए पहुंच जाएं और मैं गरीब यहीं छोड़ जाऊं! और आखिर में पता चले कि यह तो पहुंच गए बोझ के साथ और मैं खाली हाथ पहुंच गया।

इसलिए साधक की कठिनाई अंत में है, उपासक की कठिनाई प्रथम है। अब नहीं कहा जा सकता, “टाइप’ हैं दुनिया में। किसी को अच्छा लग सकता है एक, किसी को अच्छा लग सकता है दूसरा। लेकिन कृष्ण को समझते वक्त मैं आपसे कहना चाहता हूं कि कृष्ण का जगत उपासक का है।

“भगवान श्री, आप जो सात-आठ साल से धर्मचक्र-प्रवर्तन कर रहे हैं, उसका केंद्रीय तत्व ध्यान मालूम पड़ता है। तो कृपया बताएं कि ध्यान और उपासना में क्या फर्क है और आपके धर्मचक्र-प्रवर्तन का केंद्रीय सूत्र ध्यान और साधना है, कि उपासना है?’

मेरे लिए कोई फर्क नहीं है। मेरे लिए कोई भी फर्क नहीं है। मेरे लिए शब्दों से कोई भी फर्क नहीं पड़ता। सत्य का सवाल है। मैं ध्यान में भी उसी सत्य को कहता हूं, उसी सत्य को प्रार्थना में भी कह देता हूं; उसी सत्य को साधना में भी कहता हूं, उसी सत्य को उपासना में भी कह देता हूं। मेरे लिए फर्क नहीं पड़ता। लेकिन कृष्ण के संदर्भ में आप पूछते हैं, तब फर्क है। महावीर के संदर्भ में पूछेंगे, तब फर्क है। महावीर के लिए योग शब्द उपासना नहीं है। महावीर उपासना शब्द के लिए राजी नहीं होंगे। महावीर साधना के लिए राजी होंगे, बुद्ध साधना के लिए राजी होंगे। “एम्फेटिकली’ उनका जोर साधना पर होगा। क्राइस्ट उपासना के लिए राजी होंगे, कृष्ण उपासना के लिए राजी होंगे, मुहम्मद उपासना के लिए राजी होंगे। उनका “एम्फेटिक’ शब्द उपासना होगा।

मेरे लिए कोई झंझट नहीं है। मेरे लिए कोई कठिनाई नहीं है। इसलिए बहुत बार ऐसा लगेगा कि कल मैंने जो कहा, आज उससे उलटा कह रहा हूं। मैं बिलकुल मजे से कह सकता हूं। मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता। अभी कृष्ण पर बोल रहा हूं, इसलिए उपासना की बात कर रहा हूं; पिछले वर्ष महावीर पर बोल रहा था, इसलिए साधना की बात कर रहा था। अगले वर्ष क्राइस्ट पर बोलूंगा तो कुछ और बात करूंगा। मेरे लिए चूंकि जैसा सत्य दिखाई पड़ता है, उस सत्य के दिखाई पड़ने में अब मेरे लिए कोई फर्क नहीं रह गया है कि कौन के लिए क्या फर्क है। लेकिन जब आप कृष्ण को समझने जाते हैं, तब मैं कृष्ण पर साधना शब्द रखूं, तो कृष्ण के साथ अन्याय होगा। वह कृष्ण का शब्द नहीं है। जैसे महावीर के ऊपर मैं नाचने को थोप दूं…मेरे लिए कोई फर्क नहीं है; महावीर शांत खड़े हैं एक पहाड़ की कंदरा में, वे जिस आनंद में हैं उस आनंद में, और कृष्ण एक वृक्ष के नीचे बांसुरी बजा रहे हैं, उस आनंद में, मेरे लिए कोई फर्क नहीं है…लेकिन अगर कोई कहे कि महावीर और कृष्ण के लिए फर्क नहीं है, तो मैं राजी नहीं होऊंगा। महावीर नाचने को राजी न होंगे। कृष्ण महावीर की तरह आंख बंद करके वृक्ष के नीचे नग्न खड़े होने को राजी न होंगे। मेरे लिए दिक्कत नहीं है, मेरे लिए कठिनाई नहीं है। इसलिए जब आप महावीर को समझने की मुझसे बात करेंगे, तो मैं न कह सकूंगा कि महावीर नाचते हैं। इसलिए जब आप महावीर को समझने की मुझसे बात करेंगे, तो मैं न कह सकूंगा कि महावीर नाचते हैं। मैं कैसे कह सकूंगा? यह महावीर के साथ अन्याय हो जाएगा। आप कृष्ण को समझ रहे हैं तो मैं न कह सकूंगा कि कृष्ण आंख बंद करके और वृक्ष के नीचे ध्यान करते हैं। यह मैं न कह सकूंगा। वृक्ष के नीचे कृष्ण ने सदा नाच किया है, ध्यान कभी नहीं किया।

कृष्ण ने कभी ध्यान ही किया है, इसकी भी कोई खबर नहीं है। महावीर कभी नाचें, साधना के पहले भी, वह भी नहीं है संभव। तो जब मैं कृष्ण की बात कर रहा हूं, इसलिए उपासना शब्द पर जोर दे रहा हूं। मेरे लिए अंतर नहीं है। मेरे लिए कोई अंतर नहीं है, मेरे लिए तो साधना भी एक “टाइप’ के लोगों के लिए जरूरी है, उपासना भी एक “टाइप’ के लोगों के लिए जरूरी है। और मैं दोनों में सत्य को देखता हूं और दोनों का सत्य मैंने आपसे कहा कि दोनों की अड़चन है, दोनों की सुविधा है। लेकिन फिर भी दोनों को ठीक से साफ-साफ समझ लेना आपके लिए उपयोगी है। मेरे लिए जरा भी उपयोगी नहीं है दोनों में फासला करना। आपके लिए तो निर्णय करना पड़ेगा कि आप साधक की यात्रा पर जाते हैं कि उपासक की यात्रा पर जाते हैं। मेरे लिए कोई यात्रा नहीं है, मुझे किसी यात्रा पर जाना नहीं है। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मुझे कोई उपासक समझे कि साधक समझे, कि दोनों न समझे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। आपके लिए मैं दोनों चीजों को साफ-साफ अलग-अलग कर देना चाहता हूं, क्योंकि आपके लिए तो निर्णय लेना होगा। आपको तो तय करना होगा कि आप किस ढंग के आदमी हैं। आपके लिए क्या निकट होगा। आप उपासना के निकट से पहुंच पाएंगे कि साधना के निकट से पहुंच पाएंगे। जिन्हें पहुंचना है उन्हें तय करना पड़ेगा, जिन्हें जाना है उन्हें तय करना पड़ेगा। जो जहां खड़े हैं वहीं पहुंचे हुए समझ रहे हैं, उनके लिए कोई सवाल नहीं है। अगर किसी दिन आपको यह समझ में आ जाए कि न कहीं जाना है, न कहीं पहुंचना है, तब न उपासना शब्द सार्थक है, न साधना शब्द सार्थक है। तब आप दोनों पर हंस सकते हैं और कहते हैं कि दोनों तरह की बातें पागलपन की होंगी, क्योंकि हम तो वहीं खड़े हैं जहां हैं। जहां पहुंचना है वहां तो हम हैं ही।

एक झेन फकीर एक गुफा के बाहर सोता रहता है। और जिस गुफा के बाहर वह सोया है वह तीर्थयात्रियों का मार्ग है, जहां से पहाड़ पर तीर्थयात्री जाते हैं। जो भी वहां से गुजरता है, उस फकीर को सोया देखकर कहता है कि अरे, तुम यहां क्यों पड़े हो? तीर्थयात्रा पर नहीं चलना है? तो वह फकीर कहता है, तुम जहां जा रहे हो, हम वहां पहुंच गए हैं। फिर लौटता हुआ कोई उससे पूछता है कि अरे, तुम यहीं पड़े हुए हो! ऊपर तक नहीं गए? तो वह कहता है, तुम जहां से आ रहे हो, हम वहीं रहते हैं। और वह वहीं पड़ा रहता है। तो वह न कभी तीर्थ करने गया, न कभी जाएगा, और यात्री अपना सिर ठोंककर आगे बढ़ जाते हैं कि पागल है! लेकिन वह कहता है कि तुम जहां जा रहे हो, हम वहां हैं ही। तुम जहां से आ रहे हो, हम वहां सदा से हैं।

ऐसे आदमी को न साधना का अर्थ है, न उपासना का अर्थ है। तो मैं कभी साधना की बात करता हूं, कभी उपासना की, कभी दोनों के पागलपन की भी बात करूंगा। लेकिन अगर आप ठीक-ठीक समझेंगे, तो विरोधाभास दिखाई नहीं पड़ेगा, विरोधाभास है नहीं।

“एक जगह और विरोधाभास लग गया। आपने कहा कि कृष्ण जन्म से ही सिद्ध हैं और महावीर साधक हैं। जबकि कश्मीर के शिविर में आपने महावीर के बारे में कहा कि उन्होंने पिछले जन्मों में ही अपनी सारी साधना पूरी कर ली थी। इस जन्म में उन्हें कुछ भी साधना नहीं करनी थी, केवल अभिव्यक्ति करनी थी। तब महावीर भी जन्म से ही सिद्ध हुए, कृष्ण जैसे ही हुए।’

नहीं, ऐसा मैंने नहीं कहा। मैंने इतना ही कहा है कि महावीर जो भी हुए हैं, वह होकर हुए हैं। चाहे वह पिछले जन्म में साधना की हो, या उससे जन्म में साधना की हो, इससे कुछ लेना-देना नहीं है। वह जो भी हुए हैं, साधना से हुए हैं। उनकी सिद्धावस्था के पहले साधना की यात्रा है। कृष्ण किसी जन्म में कभी भी साधना नहीं किए।

“सीधे पूर्ण हो गए?’

हमें कठिनाई लगती है। हमें कठिनाई लगती है कि सीधे पूर्ण हो गए? हमें लगता है कि आड़े-तिरछे चलकर ही पूर्ण हो सकते हैं। हमें लगता है…वह वही फकीर का सवाल, वह फकीर यही तो कह रहा है। उससे आने-जाने वाले लोग कहें कि अच्छा, तुम यहीं पड़े-पड़े पहुंच गए! हम तीर्थ तक चलकर पहुंचे, तुम यहीं पड़े पहुंच गए! ऐसा हो नहीं सकता। लेकिन वह फकीर यह कहता है कि अगर तुम यहीं पड़े-पड़े नहीं पहुंच सकते, तो ऊपर चढ़कर भी कैसे पहुंच जाओगे! जहां पहुंचना है, वह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके लिए यात्रा जरूरी हो। लेकिन “टाइप’ है कुछ, जो बिना यात्रा किए नहीं पहुंच सकते। जिन्हें अपने घर भी आना हो तो दस-पांच दूसरों के घर के दरवाजे खटखटाए बिना नहीं आ सकते। अपने घर का भी जिन्हें पता लगाना हो, तो दूसरे से पूछकर ही आ सकते हैं। यह “टाइप’ का फर्क है। महावीर और कृष्ण के “टाइप’ का फर्क है। महावीर बिना साधना किए पहुंचेंगे ही नहीं। असल में महावीर राजी भी न होंगे, वह भी समझ लेना चाहिए।

अगर महावीर को कोई कहे कि बिना साधना के यह रखा-रखाया मिलता है, तो महावीर कहेंगे, क्षमा करें, ऐसा हम न लेंगे, क्योंकि जिसको अर्जित नहीं किया, उसको ले लेना चोरी है। महावीर कहेंगे कि जिसको अर्जित नहीं किया, जिसके लिए साधा नहीं, उपाय नहीं किया, उसे ले लेना चोरी है। हम न लेंगे। अगर महावीर को मोक्ष कोई दान में मिलता हो, ऐसा रास्ते के किनारे पड़ा हुआ मिलता हो, तो महावीर को जैसा मैं समझता हूं, वह फिर ठुकराकर आगे चले जाएंगे, वह कहेंगे ऐसा हम न लेंगे। हम तो पाएंगे, अर्जित करेंगे, खोजेंगे। जिस दिन मिलेगा, उस दिन लेंगे। अधिकारी बनें तो लेंगे। कृष्ण कहेंगे कि जिसको पाने-खोजने से मिलता हो, उसको पाकर भी क्या करेंगे! क्योंकि जो पाने से नहीं मिल सकता, वह खो भी सकता है। हम तो उसी को पाएंगे जो पाने-वाने से नहीं मिलता, जो है ही। यह “टाइप’ का फर्क है। ये व्यक्तित्व-भेद हैं। इसमें ऊंचे-नीचे की बात नहीं कह रहा हूं। यह व्यक्तियों के भेद हैं। यह कृष्ण और महावीर दो तरह के बड़े गहरे व्यक्तित्वों का भेद है। महावीर के लिए वही सार्थक है जो मिलता है खोज से, उघाड़ा जाता है, श्रम से पाया जाता है। इसलिए महावीर का नाम ही श्रमण हो गया। और महावीर की पूरी परंपरा का नाम श्रमण-परंपरा हो गया। महावीर कहते हैं, जो भी मिलेगा वह श्रम से मिलेगा। श्रम के बिना पाया हुआ सब चोरी है। चाहे परमात्मा भी मिल जाए बिना श्रम के तो वह कुछ-न-कुछ जालसाजी है, कहीं-न-कहीं धोखाधड़ी है। कहीं-न-कहीं कोई छल-कपट है। लेकिन महावीर कहते हैं कि हमारा स्वाभिमान नहीं कहता कि बिना श्रम के हम कुछ पा लें। हम तो मेहनत करेंगे और जितना मिल जाएगा उतने के लिए राजी होंगे। इसलिए महावीर की भाषा में, महावीर के भाषाशास्त्र में प्रसाद और “ग्रेस’ जैसा कोई शब्द नहीं है। प्रयास, श्रम, पुरुषार्थ, साधना, संघर्ष, ऐसे शब्द हैं। होंगे ही। इसलिए महावीर की पूरी परंपरा श्रमण-परंपरा है।

हिंदुस्तान में दो परंपराएं हैं–श्रमण और ब्राह्मण। ब्राह्मण-परंपरा का अर्थ है, जो मानते हैं ब्रह्म हम हैं ही, होना नहीं है। श्रमण-परंपरा का अर्थ है कि ब्रह्म हमें होना है, हम हैं नहीं। और दो तरह के ही लोग हैं। और मैं मानता हूं कि ब्राह्मण तरह के लोग बड़े न्यून हैं। ब्राह्मण भी नहीं हैं। जिनको हम ब्राह्मण समझते हैं, वे भी ब्राह्मण नहीं हैं। क्योंकि इस बात के लिए हिम्मत जुटाना कि हम बिना पाए पा लेंगे, हम बिना अधिकारी बने अधिकारी हैं, हम बिना गए पहुंचे हैं, बड़ा मुश्किल है! साधारण मन कहता है, पाना ही होगा, श्रम करना ही होगा, कुछ किए बिना कैसे मिलेगा! हमारा सब गणित कहता है, साधन के बिना साध्य नहीं; श्रम के बिना उपलब्धि नहीं, प्रयास के बिना पहुंचना कैसा? इसलिए ब्राह्मण तो कभी-कभी दो-चार सदियों में एकाध आदमी होता है। बाकी सब श्रमण हैं, चाहे वे अपने को जैन श्रमण मानते हों कि न मानते हों। इसलिए बुद्ध और महावीर के बड़े भेद होते हुए भी दोनों की परंपरा को श्रमण नाम मिल गया–दोनों की परंपरा को। क्योंकि बुद्ध का भी आग्रह–बिना पाए नहीं मिलेगा, खोजना पड़ेगा। कृष्ण ब्राह्मण हैं। वे कहते हैं, ब्रह्म हम हैं ही।

और मैं किसी एक को गलत और दूसरे को सही नहीं कह रहा हूं, यह ध्यान में रखना। क्योंकि मुझे दोनों की ठीक दिखाई पड़ते हैं। उसमें कुछ बहुत कठिनाई नहीं है। ये दो तरह के सोचने के ढंग, दो तरह के व्यक्तित्व, दो तरह के चित्त, उनकी यात्राएं हैं।

“एक अंतिम बात पूछूं, कृष्ण अपने पिछले जन्मों में कभी-न-कभी तो अपूर्ण और अज्ञानी रहे ही होंगे!’

अपूर्ण और अज्ञानी तो महावीर भी किसी जन्म में नहीं रहे हैं। सिर्फ पता उनको इस जन्म में चला है। और कृष्ण को सदा से पता है। अपूर्ण और अज्ञानी तो आप भी नहीं हो। अपूर्ण और अज्ञानी तो कोई भी नहीं है; बस पता चलने की देर है। जो फर्क है, वह अपूर्ण होने का नहीं है, वह बोध का है।

यहां सब आदमी सोए हुए हैं, सूरज निकला हुआ है, एक आदमी जागा हुआ है। यह जो आदमी जागा हुआ है और ये जो आदमी सोए हुए हैं, इन दोनों के लिए सूरज निकला हुआ है। सूरज के निकलने में कोई फर्क नहीं है। एक आदमी जागा हुआ है, उसे पता है कि सूरज निकला है, बाकी सोए हैं, उन्हें पता नहीं है कि सूरज निकला है। जब वे जागेंगे, वे कहेंगे, अरे, अब सूरज निकला! नहीं, उचित यही होगा कि वे कहें कि सूरज तो निकला था, हम अब जागे हैं। अपूर्ण, अज्ञानी न महावीर हैं, न कृष्ण हैं, न आप हो।

लेकिन कृष्ण अपने को किसी भी तल पर कभी भी ऐसा नहीं जानते, इसलिए कोई चेष्टा नहीं करते। किसी तल पर महावीर चेष्टा करके जानते हैं कि अपूर्ण और अज्ञानी नहीं हैं, पूर्ण हैं और ज्ञानी हैं। जिस दिन वे जानते हैं, उस दिन यह भी जान लिया जाता है कि यह होना उसका सदा से था। सिर्फ पता अब चला। और क्या फर्क पड़ता है कि किसी को दो जन्म पहले चला और किसी को दो जन्म बाद चला! हमको बहुत दिक्कत मालूम होती है। किसी को दस जन्म पहले चला और किसी को दस जन्म बाद चला, क्योंकि हम “टाइम’ में जीते हैं। हमारा सारा सवाल यह है कि कौन पहले, कौन पीछे? लेकिन जगत में समय का न हो प्रारंभ है, न कोई अंत है। इसमें आगे और पीछे का क्या मतलब है? आगे और पीछे का तभी तक मतलब है जब तक अंत और आदि को हम मानते हों। अगर समय का कोई प्रारंभ ही नहीं है, तो मुझसे दो दिन पहले जिसे ज्ञान मिला, उसे मुझसे पहले मिला? और अगर समय का कोई अंत ही नहीं है, तो मुझे दो दिन बाद मिला, मुझे उससे बाद में मिला?

नहीं, ये बाद और पहले तभी सार्थक हो सकते हैं जब आगे-पीछे खंभे लगे हों कि वहां समय खत्म हो जाता है, वहां समय शुरू होता है। अगर कभी समय शुरू होता हो, तो उसको मुझसे दो दिन पहले मिल गया। उस खंभे से नाप की जा सकती है कि यह आदमी दो दिन पहले मुझसे पहुंचा। आगे के खंभे से नाप की जा सकती है कि मैं दो दिन बाद पहुंचा हूं। लेकिन अगर पीछे कोई प्रारंभ न हो और आगे कोई अंत न हो, तो कौन पहले पहुंचा और कौन पीछे पहुंचा? पहले और पीछे पहुंचने की धारणाएं हमारी समय की धारणाएं हैं। और जो भी पहुंचते हैं, वे समयातीत, कालातीत, “बियांड टाइम’ पहुंच जाते हैं।

इसलिए एक मैं अजीब-सी बात आपसे कहूं कि जिस क्षण महावीर पहुंचते हैं, उसी क्षण कृष्ण पहुंचते हैं। मगर यह बड़ा मुश्किल होगा। इसे थोड़ा समय को समझकर फिर समझना पड़ेगा।

जिस क्षण कोई भी पहुंचा है इस जगत में, उसी क्षण सब पहुंचते हैं। इसे ऐसा समझें थोड़ा-सा। एक बड़ा वर्तुल हम बनाएं, एक “सर्किल’ बनाएं। “सर्किल’ के बीच में एक “सेंटर’ हो। और “सर्किल’ से, परिधि से हम कई रेखाएं “सेंटर’ की तरफ खींचे। परिधि पर रेखाओं में फासला होगा, दो रेखाओं में दूरी होगी। फिर दोनों रेखाएं केंद्र की तरफ चलती हैं, तो दूरी कम होती जाती है। फिर वे जब केंद्र पर पहुंचती हैं तो दूरी समाप्त हो जाती है। परिधि पर दूरी होती है, केंद्र पर दूरी समाप्त हो जाती है। “टाइम’ की जो “सरकमफरेंड’ है, समय की जो परिधि है, उस पर महावीर एक दिन छलांग लगाकर केंद्र पर पहुंचते हैं। समय की परिधि पर कृष्ण और महावीर के बीच फासला है। मेरे और कृष्ण के बीच फासला है। आपके और मेरे बीच फासला है। लेकिन जिस दिन केंद्र पर पहुंचते हैं उस दिन कोई फासला नहीं रह जाता। समय के केंद्र पर फासले समाप्त हो जाते हैं। लेकिन यह सब कठिन है। यह खयाल में लेना कठिन है, क्योंकि हम परिधि पर जीते हैं और हमें “सेंटर’ का कोई पता नहीं है।

इसे ऐसा भी समझ लें। एक बैलगाड़ी का चाक चलता है। तो चाक चलता है, लेकिन कील खड़ी रहती है। और बड़े मजे की बात तो यह है कि खड़ी हुई कील पर ही चाक चलता है। चलता उसके आधार पर है, जो नहीं चलती है। चाक कई मील चल जाएगा और चाक कहेगा कि दस मील की यात्रा की, और अगर कील से पूछें कि कील तूने कितनी यात्रा की, कील कहेगी, मैं वही हूं। लेकिन बड़े मजे की बात है जिस कील पर चाक दस मील चल गया, वह कील जरा-सा भी नहीं चली। तो चाक कैसे चला होगा, जब कील नहीं चली जरा भी? और कील तो यही कहेगी कि मैं वही हूं, मैं बिलकुल चली ही नहीं। और चाक कहेगा, मैं दस मील चल गया। और कील और चाक एक ही साथ जुड़े हैं। तो चाक जो कील से जुड़ा है, दस मील चल गया, और कील जो चाक से जुड़ी है बिलकुल नहीं चली–ये दोनों बातें एकसाथ कैसे हो सकती हैं? ये एकसाथ हो जाती हैं। हम रोज गाड़ी में देखते हैं। ये इसलिए हो जाती हैं कि कील “सेंटर’ पर है और चाक परिधि पर है। कील “सेंटर’ पर है और चाक परिधि पर है। परिधि पर इतिहास, समय है। और कील पर सत्य है, ब्रह्म है।

महावीर और कृष्ण एक ही क्षण वहां पहुंचते हैं। और जब वे वहां पहुंचते हैं तो ऐसा पता नहीं चलता है कि कौन पहले पहुंचा और कौन पीछे पहुंचा। लेकिन जहां परिधि पर जीने वाले लोग हैं, चाक पर जीने वाले लोग हैं, वहां कोई कभी पहुंचता है, कोई कभी पहुंचता है, कोई कभी पहुंचता है, ये सब समय के फासले हैं। समय के फासले वहां नहीं हैं, क्योंकि समय के बाहर समय का कोई फासला नहीं है।

इस पर कल थोड़ी बात करेंगे, कुछ और पहलुओं से, तो खयाल में आ सकता है।

“भगवान श्री, मेरी एक प्रार्थना है। वह यह है कि समय बहुत कम बचा है, इसलिए सायंकाल आप स्वतंत्र प्रवचन दें। गीता में जो कुछ भी आप हमारे लिए उपादेय और हितकर मानें, वह पांच भागों में बांटते हुए पांच प्रवचनों में हमें दें। और प्रातःकाल उन्हीं प्रवचनों पर प्रश्नोत्तर का अवसर रहे।’

नहीं, वह ठीक नहीं पड़ेगा। मुझे जो कहना है, वह मैं कह लूंगा। उसकी फिकिर ही न करें। आप क्या पूछते हैं, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। मुझे क्या कहना है, मैं वही कहता हूं। इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता।

आज इतना ही।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग-5) प्रवचन–91

February 17, 2015, 6:26 pm

कृत्रिम मन का परित्‍याग—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

योग—सूत्र:

(कैवल्‍यापाद)

जन्मौषधिमन्त्रतप समाषिजा: सिद्धंय:।। 1।।

सिद्धियां जन्म के समय प्रकट होतीं हैं, इन्हें औषधियों से, मंत्रों के जाप से, तपश्चर्याओं से या समाधि से भी अर्जित किया जा सकता है।

 जात्यन्तर परिणाम: प्रकृत्यापूरात्।। 2।।

एक वर्ग, प्रजाति, या वर्ण से अन्य में रूपातरण, प्राकृतिक प्रवृत्तियों या क्षमताओं के अतिरेक से होता है।

निमित्तम प्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्‍तु तत: क्षेत्रिकवत्।। 3।।

आकस्मिक कारक प्राकृतिक प्रवृतियों को सक्रिय होने के लिए प्रेरित नहीं करता, यह तो बस अवरोधों को हटा देता है—जैसे खेत सींचता हुआ किसान; वह बाधाओं को हटा देता है और तब पानी स्वत: ही मुक्त होकर प्रवाहित होने लगता है।

निर्माणचित्‍तान्यस्‍मितामात्रात्।। 4।।

कृत्रिमता से निर्मित मन केवल अस्‍मिता से ही अग्रसर होते है।

प्रवृतिभेदे प्रयोजकं चित्‍तमेकमनेकेषाम्।। 5।।

कृत्रिम मानों की गतिविधियां भिन्‍न—भिन्‍न होती है। फिर भी एक मूल मन उन सभी का नियंत्रण करता है।

मनुष्य लगभग विक्षिप्त है—विक्षिप्त इसलिए कि वह कुछ ऐसा खोज रहा है जो उसके पास पहले से ही है; विक्षिप्त है क्योंकि उसे नहीं पता कि वह कौन है, विक्षिप्त है क्योंकि वह आशा करता है, अभिलाषा रखता है और अंत में निराशा अनुभव करता है। निराश तो होना ही है, क्योंकि खोज कर तुम स्वयं को नहीं पा सकते; तुम पहले से ही वहां हो। खोज को बंद करना पड़ेगा, तलाश छोड़नी पड़ेगी; यही वह सबसे बड़ी समस्या है, जिसका सामना करना है, जिससे संघर्ष करना है।

समस्या यह है कि तुम्हारे पास कुछ है और तुम उसी को खोज रहे हो। अब वह तुम्हें कैसे मिल सकता है? तुम खोजने में अति व्यस्त हो और तुम उस चीज को नहीं देख पाते जो पहले से ही तुम्हारे पास है। जब तक कि सारी खोज बंद नहीं हो जाती, उसको तुम देख न पाओगे। खोज तुम्हारे मन को कहीं भविष्य में केंद्रित कर देती है, और वह वस्तु जिसको तुम खोज रहे हो पहले से ही यहीं, अभी, इसी क्षण है। वह जिसको तुम खोज रहे हो स्वयं खोजी के भीतर छिपा हुआ है, खोजने वाला ही खोजा जाने वाला है। इसीलिए इतनी अधिक विक्षिप्तता, इतना ज्यादा पागलपन है।

एक बार तुम्हारा मन कहीं केंद्रित हो जाए, तुम्हारा कुछ उद्देश्य बन जाता है। तत्‍क्षण तुम्हारा अवधान अब मुक्त नहीं रह पाता। उद्देश्य अवधान को पंगु बना देता है। यदि तुम उद्देश्य पूर्वक कुछ तलाश कर रहे हो, तुम्हारी चेतना सिकुड़ जाती है। यह अन्य सभी वस्तुओं से हट जाएगी, यह केवल तुम्हारी अभिलाषा, तुम्हारी आशा, तुम्हारे स्वप्न पर सिमट जाएगी। और जो तुम हो उसके साक्षात के लिए तुम्हें किसी उद्देश्य की आवश्यकता नहीं है, तुम्हें अवधान की आवश्यकता है, बस शुद्ध अवधान; कहीं जाने का कोई उद्देश्य नहीं, विकेंद्रित चेतना कहीं और की नहीं—अभी और यहीं की चेतना। मूलभूत समस्या यही है. कुत्ता अपनी पूंछ का पीछा कर रहा है, वह निराश हो जाता है, वह करीब—करीब पागल हो जाता है, क्योंकि हर बार वह आगे बढ़ता है और उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता—केवल असफलता, विफलता और पराजय मिलती है।

अभी उस दिन एक संन्यासी ने मुझसे कहा कि अब वह निराशा अनुभव कर रहा है। यह सुन कर मैं बहुत खुश हुआ। क्योंकि जब तुम निराशा अनुभव करते हो तो तुम्हारे भीतर कुछ खुल जाता है। जब तुम निराशा अनुभव करते हो, यदि वास्तव में निराश हो तो भविष्य खो जाता है। भविष्य केवल अपेक्षा, अभिलाषा और उद्देश्य के सहयोग से बना रह सकता है। भविष्य उद्देश्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। मैं बेहद खुश हुआ कि चलो एक व्यक्ति तो निराश हुआ।

इस सदी के सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों में से एक फ्रिटज पर्त्स ने कहा है कि थेरेपिस्ट का कुल काम कुशलतापूर्वक निराशा उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

क्या है उसका अभिप्राय? उसका अभिप्राय है कि जब तक तुम अपनी अभिलाषाओं, आशाओं, अपेक्षाओं से वास्तव में निराश नहीं हो जाते, तुमको तुम्हारे अस्तित्व में वापस नहीं फेंका जा सकता। वास्तविक निराशा एक महत् आशीष है। अचानक तुम होते हो और वहां अन्य कुछ भी नहीं होता। उस संन्यासी ने कहा, मुझको निराशा अनुभव हो रही है। ऐसा लगता है कि कुछ भी नहीं घट रहा है। मैं हर प्रकार के ध्यान, हर प्रकाश की सामूहिक मनोचिकित्सा में भागीदारी करता रहा हूं और हो कुछ भी नहीं रहा है। सभी ध्यान विधियों का और सभी सामूहिक मनोचिकित्साओ का कुल मतलब यही है कि तुम्हें बोध हो जाए कि कुछ भी घट नहीं सकता। सब कुछ पहले ही घट चुका है। गहन निराशा में तुम्हारी ऊर्जा उद्गम पर वापस लौट जाती है। तुम अपने आप में गिर जाते हो।

तुम नई आशा निर्मित करने का प्रयास करोगे। इस कारण से लोग अपने थेरेपिस्ट, अपनी थेरेपियां, अपने शिक्षकों, अपने गुरुओं, धर्मों को बदलते चले जाते हैं। वे बदलते चले जाते हैं, क्योंकि वे कहते हैं, अब यहां मुझे निराशा अनुभव हो रही है, अब किसी अन्य स्थान पर मैं पुन: आशा के नये बीज बोऊंगा। तब तुम लगातार चूकते जाओगे। यदि तुम समझ लो समस्या यह है कि तुम्हें तुम्हारे ऊपर कैसे फेंका जाए, तुम्हें तुम्हारी आशाओं में कैसे हताश किया जाए, निःसंदेह इसे बड़ी कुशलता से करना पड़ता है।

यही तो कर रहा हूं मैं यहां। यदि तुम्हारे भीतर कोई आशाएं न हों, तो पहले मैं उनको निर्मित करता हूं। मैं तुम्हें उम्मीद बंधा देता हूं। मैं कहता हूं ‘ही, शीघ्र ही कुछ घटित होने को है’ —क्योंकि मुझे पता है कि इच्छा तो है लेकिन वह पूर्णत: स्पष्ट नहीं है। यह वहां बीज—रूप में छिपी हुई है, इसे अंकुरित होना पड़ेगा, इसे पुष्पित होना पड़ेगा। और जब इच्छा पुष्पित होती है तो वे फूल हताशा के होते हैं।

फिर अचानक तुम सारी मूढ़ता, सारे चक्कर को छोड़ देते हो। और एक बार तुम प्रमाणिक रूप से हताश हो जाओ—और जब मैं कहता हूं प्रमाणिक रूप से हताश, वास्तविक रूप से निराश, तो मेरा अभिप्राय यह है कि अब तुम पुन: कोई आशा नहीं करते, तुम तो बस इस हताशा को स्वीकार कर लेते हो और घर वापस लौट आते हो—तुम हंसने लगोगे। और यह सदा से तुम्हारे भीतर था लेकिन तुम खोज में बहुत अधिक उलझे हुए थे।

‘दि किंग ऑफ हार्टस’ नाम की एक बहुत सुंदर फिल्म है। यह प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूइम पर बनी है, एक फ्रांसीसी नगर पर कब्जा जमाने के लिए जर्मन और अंग्रेज युद्धरत हैं। जर्मन सैनिक नगर में एक टाइम बम लगा देते हैं और नगर छोड़ कर चले जाते हैं, और जैसे ही फ्रांसीसियों को बम के बारे में जानकारी होती है, वे भी नगर छोड़ देते हैं।

पागलखाने से —सारे पागल बाहर निकल आते हैं और खाली पडे नगर पर कब्जा कर लेते हैं, उनका समय बहुत अच्छा बीतने लगता है—क्योंकि वहां कोई बचा ही नहीं है, केवल पागलखाने के पागल ही रह गए हैं। उनके पहरेदार तक भाग चुके हैं, इसलिए अब वे आजाद हैं। वे नगर में आ जाते हैं और वहा सब कुछ खाली पड़ा है—दुकानें खाली हैं, सारे कार्यालय खाली हैं। इसलिए वे नगर पर अधिकार कर लेते हैं, वे खाली हो गए नगर पर कब्जा जमा लेते हैं और वे अपना समय अदभुत ढंग से बिताते हैं। वे सभी लोग भिन्न—भिन्न तरह के वस्त्र धारण कर लेते हैं और पूर्णत: आनंदित हैं। उनका पागलपन बस खो जाता है, और अब वे पागल नहीं रहते। सदा से वे जो कुछ भी बनना चाहते थे और न बन सके, अब वे लोग बिना किसी प्रयास के वही सब बन जाते हैं। कोई व्यक्ति जनरल बन जाता है, कोई व्यक्ति ड्यूक बन जाता है और कोई महिला मैडम बन जाती है और दूसरे कुछ लोग डाक्टर, बिशप या जो कुछ भी वे बनना चाहते हैं बन जाते हैं। वहां पर हर बात की स्वतंत्रता है। वे भिन्न—भिन्न तरह के कपड़े पहन लेते हैं, और अपने आप में पूरी तरह आनंदित होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति नगर में कोई न कोई भूमिका ले लेता है : जनरल, ड्यूक, लेडी, मैडम, बिशप आदि। एक आदमी नाई बन जाता है और वह ग्राहकों से कुछ लेने के बजाय भुगतान करता है, क्योंकि उसे नाई होने में आनंद आ रहा है, और इस प्रकार उसके पास और अधिक ग्राहक आने लगते हैं।

वे सभी इन भूमिकाओं में जी रहे हैं, इसी क्षण में जीकर इसका पूर्णत: आत्यंतिक रूप से आनंद लेते हुए।

उस बम को निष्प्रभावी करने के लिए एक ब्रिटिश सैनिक को उस नगर में भेजा जाता है। वह निराश हो जाता है क्योंकि बम जहां रखा है वह स्थान उसे नहीं मिलता। वह दीवानों की तरह चीखना और चिल्लाना आरंभ कर देता है ‘हम सभी लोग मरने जा रहे हैं।’ इसलिए प्रत्येक व्यक्ति—जनरल, ड्यूक, बिशप, सारे पागल लोग, हर कोई उसका क्रियाकलाप देखने के लिए आराम कुर्सियां लाकर उसके चारों ओर बैठ गए। उन्होंने उसकी बातें सुन कर खुशी जाहिर की और तालियां बजाई। निःसंदेह उनकी हरकतों से वह सैनिक और ज्यादा पगला गया।

अगले दिन जर्मन और ब्रिटिश दोनों सेनाएं शहर में वापस मार्च करती हैं और वे सारे पागत्न लोग इसे उनकी परेड की तरह देखते हैं। फिर वे सिपाही एक—दूसरे को देखते हैं, एक—दूसरे पर गोली चलाते हैं और मार डालते हैं। बॉलकनी में खड़ा हुआ ड्यूक घृणापूर्वक नीचे पड़े हुए मृतकों को देखता है और कहता है: अब वे अभिनय की अति कर रहे हैं।’ एक युवती उदासी से नीचे की ओर देखती है और आश्चर्यचकित होकर कहती है ‘मजेदार लोग।’ बिशप कहता है : ‘ये लोग निश्चित रूप से पागल हो गए हैं।’

तुम सोचते हो कि केवल पागल ही पागल है…..जरा अपने आप को देखो कि तुम क्या कर रहे हो? तुम सोचते हो कि जब कोई पागल व्यक्ति दावा करता है कि वह प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति है तो वह पागल है। तो तुम्हारे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री लोग क्या कर रहे हैं? वास्तव में वे और ज्यादा पागल हैं। पागल व्यक्ति बस कल्पना का आनंद लेता है, वह इसको वास्तविक बनाने की चिंता नहीं करता, लेकिन वे राष्ट्राध्यक्ष, वे राष्ट्रपति, और वे सेनापति लोग अपनी कल्पनाओं से संतुष्ट नहीं रहे हैं, उन्होंने इसे वास्तविक बनाने के प्रयास किए हैं। निःसंदेह यदि कोई पागल आदमी सिकंदर है या चंगीज खान है, तो वह कभी किसी की हत्या नहीं करता, वह तो बस होता है। वह यह सिद्ध करने नहीं निकल पड़ता कि वह वास्तव में सिकंदर या चंगीज खान है। वह खतरनाक नहीं है, वह मासूम है। लेकिन जब ये तथाकथित समझदार व्यक्ति सिकंदर या चंगीज खान, तैमूरलंग होने की बात सोचने लगते हैं। तो वे मात्र इस भाव से ही संतुष्ट नहीं होते, वे इसको मूर्तमान करने का प्रयास करते हैं। तुम्हारे एडोल्फ हिटलर जैसे लोग अधिक पागल हैं, तुम्हारे माओत्से तुंग जैसे लोग किसी भी पागलखाने में बद किसी भी पागल की तुलना में कहीं ज्यादा पागल हैं।

समस्या यह है कि संपूर्ण मानव—जाति किसी विशेष सम्मोहन में जी रही है।

यह ऐसा है कि तुम सभी को सम्मोहित कर दिया गया है और तुम नहीं जानते कि इससे बाहर कैसे निकला जाए। हमारी सभी जीवन—शैलियां पागलपन की हैं, विक्षिप्तता की हैं। जितनी वे प्रसन्नता निर्मित करती हैं उससे कहीं अधिक वे पीड़ा को जन्म देती हैं। जितनी परितृप्ति उनसे निर्मित होती है उससे कहीं अधिक वे निराशा पैदा कर देती हैं। तुम्हारे जीने का पूरा ढंग तुम्हें —नरक के और— और अधिक निकट और निकट, पास और पास लिए जा रहा है। स्वर्ग तो मात्र एक इच्छा है, नरक लगभग एक वास्तविकता है। तुम नरक में रहते हो और तुम स्वर्ग के सपने देखा करते हो। वास्तव में स्वर्ग एक प्रकार की शामक औषधि है; यह तुम्हें आशा देता है—लेकिन सभी आशाएं निराशा बन जाने वाली हैं। स्वर्ग की आशा तो बस निराशा का नरक निर्मित कर देती है। इसे याद रखो, केवल तभी तुम पतंजलि के अंतिम अध्याय ‘कैवल्यपाद’ को समझ पाओगे।

मुक्ति की कला क्या है? मुक्ति की कला और कुछ नहीं बल्कि सम्मोहन से बाहर आने की कला है; मन की इस सम्मोहित अवस्था का परित्याग कैसे किया जाए; संस्कारों से मुक्त कैसे हुआ जाए; वास्तविकता की ओर बिना किसी ऐसी धारणा के जो वास्तविकता और तुम्हारे मध्य अवरोध बन सकती है, कैसे देखा जाए; आंखों में कोई इच्छा लिए बिना कैसे बस देखा जाए, किसी प्रेरणा के बिना कैसे बस हुआ जाए। यही तो है जिसके बारे में योग है। तभी अचानक जो तुम्हारे भीतर है और जो तुम्हारे भीतर सदैव आरंभ से ही विद्यमान है, प्रकट हो जाता है।

पहला सूत्र:

जन्मौषधिमन्त्रतप समाधिजा सिद्धय।

‘सिद्धियां जन्म के समय प्रकट होती हैं,…’

यह बहुत ही अर्थगर्भित सूत्र है, और मुझे अभी तक इस सूत्र की सही व्याख्या नहीं दिखाई पड़ी है। यह इतना सारगर्भित है कि जब तक तुम इसके अंतर्तम में न प्रविष्ट हो जाओ, तुम इसे समझ पाने में समर्थ न हो पाओगे।

‘सिद्धियां जन्म के समय प्रकट होती हैं; इन्हें औषधियों से, मंत्रों के जाप से, तपश्चर्याओं से या समाधि से भी अर्जित किया जा सकता है।’

जो कुछ भी तुम हो उसे तुम्हारे जन्म के समय बिना किसी प्रयास के प्रकट कर दिया जाता है। प्रत्येक बच्चा जिस समय उसका जन्म हो रहा होता है, सत्य को जानता है, क्योंकि अभी तक वह सम्मोहित नहीं हुआ है। उसकी कोई इच्छाएं नहीं हैं, वह अभी भी निर्दोष है, परिशुद्ध है, उसे किसी इरादे ने भ्रष्ट नहीं किया है। उसका अवधान शुद्ध, विकेंद्रित है। बच्चा स्वाभाविक रूप से ध्यानमय है। एक तरह से वह समाधि में है, वह परमात्मा के गर्भ से बाहर आ रहा है। उसकी जीवन—सरिता अभी भी अपने स्रोत से ही आत्यंतिक रूप से ताजी है। वह सत्य को जानता है, लेकिन उसे नहीं पता कि वह जानता है। उसे बिना यह जाने कि उसे पता है इसका ज्ञान है। यह जानकारी बिलकुल सरल है। वह यह कैसे जाने कि वह जानता है? —क्योंकि यहां कभी भी अज्ञान का कोई क्षण नहीं होता है। यह अनुभव करने के लिए कि तुमको कुछ पता है, तुम्हारे पास न जानने का भी कुछ अनुभव होना चाहिए। अज्ञान के बिना तुम ज्ञान का अनुभव नहीं कर सकते। अंधकार के बिना तुम सितारे नहीं देख सकते। दिन में तुम सितारे नहीं देख पाते हो क्योंकि चारों ओर प्रकाश होता है। रात्रि में तुम सितारे देख लेते हो क्योंकि सब ओर अंधकार है, विरोधाभास की आवश्यकता होती है। बच्चे का जन्म संपूर्ण प्रकाश में होता है, वह यह अनुभव नहीं कर सकता कि यह प्रकाश है। इसे अनुभव करने के लिए उसको अंधकार के अनुभव से होकर गुजरना पड़ेगा। तभी वह तुलना करने और देखने में समर्थ हो सकेगा और जान लेगा कि वह जानता है। अभी तक उसका ज्ञान सजग नहीं है। वह अबोध है। वह बस एक तथ्य की भांति वहां होता है। और वह अपने ज्ञान से पृथक नहीं है। वह स्वयं अपना ज्ञान है। उसके पास कोई मन नहीं है, उसके पास सरल अस्तित्व है।

जो पतंजलि कह रहे हैं वह यह है : जिसको तुम खोज रहे हो उसे तुम पहले से ही जानते हो। बिना यह जाने कि तुम इसे पहले ही जान चुके हो। वरना इसको खोजने का कोई उपाय नहीं होता। क्योंकि हम केवल उसी चीज को खोज सकते हैं जिसे हम किसी भी ढंग से पहले से जानते हों—भले ही बहुत धुंधले, अस्पष्ट रूप से जानते हों। शायद बोध इतना स्पष्ट नहीं था, यह कुहासे के मेघों से आच्छादित था, किंतु तुम किसी ऐसी चीज को कैसे खोज सकते हो जिसे तुमने पहले कभी जाना ही न हो? तुम परमात्मा को कैसे खोज सकते हो? तुम आनंद को कैसे खोज सकते हो? तुम सत्य को कैसे खोज सकते हो? तुम आत्म को, परम आत्म को कैसे खोज सकते हो? तुमने इसका कुछ न कुछ स्वाद अवश्य लिया होगा, और वह स्वाद, उस स्वाद की स्मृति अभी भी तुम्हारे अस्तित्व के स्मृति कोष में संचित है। किसी बात से तुम चूक रहे हो, इसी कारण तलाश, खोज उत्पन्न होती है।

समाधि का पहला अनुभव, असीम शक्ति, सिद्धि, अंतशक्ति, परमात्मा होने का पहला अनुभव जन्म के समय प्रकट होता है। परंतु उस समय तुम इसको ज्ञान में नहीं डाल सकते। उसके लिए तुमको आत्मा की अंधेरी रात से होकर गुजरना पडेगा, तुम्हें भटकना होगा। इसके लिए तुमको पाप करना पड़ेगा।’पाप’ शब्द बहुत अच्छा है। इसका मतलब है रास्ते से भटक जाना, ठीक रास्ते से चूक जाना, या लक्ष्य से चूकना, मंजिल से भटक जाना। आदम को अदन के बगीचे से बाहर निकलना पड़ा था। यह एक अनिवार्यता है। जब तक कि तुम परमात्मा को खो न दो, उसे जानने में तुम समर्थ न हो सकोगे। जब तक कि तुम उस बिंदु पर न पहुंच जाओ जहां तुम नहीं जानते कि परमात्मा है या नहीं, जब तक कि तुम उस बिंदु तक न पहुंच जाओ जहां तुम संताप, दुख और पीड़ा से ग्रस्त हो जाओ, तुम कभी न पाओगे कि आनंद क्या है। संताप समाधि का द्वार है।

पतंजलि का पहला सूत्र बस यह कह रहा है कि योगी को जो कुछ भी उपलब्ध होता है उसमें नया कुछ भी नहीं है। यह किसी खोई हुई चीज की पुन: प्राप्ति है। वह एक स्मरण है। यही कारण है भारत में जब कोई समाधि को उपलब्ध हो जाता है तो हम इसे दूसरा जन्म कहते .हैं, उसका पुनर्जन्म होता है। उसको हम द्विज, दुबारा जन्मा, कहते हैं। एक जन्म अचेतन में हुआ था, पहला जन्म, दूसरा जन्म सचेतन होता है। व्यक्ति ने पीड़ा भोगी है, वह भटका है और वापस घर लौट आया है। जब आदम वापस लौटता है तो वह जीसस हो चुका होता है। हर जीसस को घर से बहुत दूर जाना पड़ता है, तब वह आदम है। जब आदम वापसी की यात्रा आरंभ करता है, वह जीसस है। आदम पहला आदमी और जीसस अंतिम व्यक्ति हैं। आदम आरंभ है, आदि है (अल्फा) और जीसस समापन हैं, अंत हैं (ओमेगा) और वर्तुल पूर्ण हो जाता है।

‘सिद्धियां जन्म पर प्रकट होती हैं,…….’

तब ‘संसार’ उत्पन्न होता है; जिसे हिंदुओं ने माया कहा है। इसे भ्रम, जादू के रूप में अनुवादित किया जाता रहा है, लेकिन इसे अनुवादित करने का सर्वोत्तम उपाय है—इसे सम्मोहन कहा जाए। तब सम्मोहन उत्पन्न होता है। चारों ओर हजारों तरह के सम्मोहन हैं, यहां पर उसे सिखाया जा रहा है कि वह हिंदू है—अब यह सम्मोहन है; उसको सिखाया जा रहा है कि वह ईसाई है—अब यह एक सम्मोहन है। अब उसका मन संस्कारित और संकुचित कर दिया जा रहा है। वह मुसलमान है—यह एक सम्मोहन है। फिर उसको सिखाया जाता है कि वह स्त्री या पुरुष है—यह एक सम्मोहन है।

तुम्हारा नब्बे प्रतिशत पुरुषत्व या स्त्रीत्व मात्र एक सम्मोहन है, इसका तुम्हारी जैविक संरचना से कुछ भी लेना—देना नहीं है। स्त्री और पुरुष के मध्य जैवशास्त्रीय भेद बहुत साधारण है, लेकिन मनोवैज्ञानिक अंतर बहुत जटिल और उलझा हुआ है। तुम्हें छोटे बालकों को बालक होने और छोटी बालिकाओं को बालिका होने के लिए शिक्षित करना पड़ता है, और तुम उन्हें विभाजित कर देते हो। तुम उनके मन में एक उद्देश्य पैदा कर देते हो। बालिकाओं को सुंदर स्त्रियां बन जानी है और बालकों को बहुत ताकतवर पुरुष बनना है। बालिकाओं को तो बस गृहस्थिनें, गृहिणियां, माताएं बन कर घर में ही सिमट जाना है और बालको को संसार में महान अभियान—धन, शक्ति, प्रतिष्ठा, महत्वाकांक्षा के पथ पर अग्रसर हो जाना है। उनके भीतर तुम भिन्न उद्देश्य उत्पन्न कर देते हो।

विभिन्न समाजों में अलग—अलग संस्कार दे दिए जाते हैं। ऐसे भी समाज हैं जो मातृसत्तात्मक हैं, स्त्री का वहां वर्चस्व है। तब तुम वहां एक अविश्वसनीय सच्चाई देखोगे : जब भी कहीं एक ऐसा समाज होता है जिसमें स्त्री का प्रभुत्व है, वहां पुरुष कमजोर हो जाता है और स्त्री शक्तिशाली हो जाती है। वह बाहर के सभी काम सम्हाल लेती है और पुरुष बस घर की देखभाल करता है।

लेकिन क्योंकि हम एक पुरुष प्रधान समाज में रहते हैं, पुरुष ताकतवर हो गया है और स्त्री कमजोर और नाजुक हो गई है। लेकिन यह एक सम्मोहन है, यह प्राकृतिक नहीं है। ऐसा होना प्राकृतिक नहीं है। तुम एक निश्चित दिशा दे देते हो और फिर हजारों तरह के सम्मोहन प्रचलित हो जाते हैं।

भारत में यदि कोई व्यक्ति गरीब अछूत के परिवार में जन्म लेता है तो वह शूद्र है, अपनी सारी जिंदगी उसे एक शूद्र की भांति जीने के लिए मजबूर कर दिया जाता है।’ वह अपना व्यवसाय तक नहीं बदल सकता। वह ब्राह्मण नहीं बन सकता। वह सिमटा हुआ है, एक बहुत संकरा छिद्र, एक सुरंग जैसा छिद्र उसको दिया जाता है। उसको इसमें से होकर गुजरना पड़ता है; उसके लिए कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। और वह उसी शैली में सोचेगा, वह जीवन के एक निश्चित ढांचे में जीएगा और उसके मन का प्रत्येक संस्कार अपने आप संचालित होता रहता है। यह अपने आपको और कुशलतापूर्वक निर्मित करता रहता है। फिर तुम्हें परमात्मा के बारे में धारणाएं दे दी जाती हैं। सोवियत रूस में तुम्हें धारणा दी जाती है कि कोई परमात्मा नहीं है।

स्टैलिन की पुत्री स्वेतलाना ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि बहुत शुरू से ही, निःसंदेह क्योंकि वह स्टैलिन की पुत्री थी, तो उसको बहुत दृढ़तापूवेक नास्तिक होना सिखाया गया। लेकिन धीरे— धीरे उसे अनुभव होने लगा, ‘क्यों? यदि कोई परमात्मा नहीं है तो उसके विरोध में इतना प्रचार क्यों है? क्या है इसका अर्थ? इसमें तो कोई अर्थ नहीं दिखाई पड़ता, यदि परमात्मा है ही नहीं तो बात खत्म। चिंतित क्यों होना? परमात्मा विरोधी प्रचार, साहित्य, यह और वह, इसे सिद्ध करने की कोशिश ही क्यों? यह सारा प्रयास यही प्रदर्शित करता है कि शायद वहां कुछ हो, कुछ हे। सकता है वहां।’ उसे संदेह हो गया। और जब स्टैलिन का देहांत हुआ तो उसने बगावत कर दी। वह एक धार्मिक व्यक्ति बन गई। लेकिन उसका मन संकीर्ण हो चुका था। वह एक दुर्लभ व्यक्ति रही होगी, क्योंकि सोवियत रूस में आस्तिक होना उतना ही कठिन है जितना कि भारत में नास्तिक होना।

इन बातों को सिखाया नहीं जाता, ये बातें मां के रक्त के साथ, मां के दूध के साथ, मां की श्वास के साथ ही सीख ली जाती हैं। तुम्हारे चारों ओर का वात तुम्हें एक सूक्ष्म संस्कारिता के साथ घेरे रहता है। ये बातें सिखाई नहीं जातीं। कोई भी तुम्हें ये बातें विशेषतौर से नहीं सिखा रहा है; तुम उन्हें सीख लेते हो। हिंदू बच्चा जब यहां जन्म लेने के उपरांत आंखें खोलता है और अपने कान खोलता है, तो जो पहली बात वह सुनता है, वह या तो मंत्र होता है या भगवतगीता से कोई बात। यद्यपि वह समझता कुछ भी नहीं है, किंतु पहला प्रभाव संस्कृत का होता है, उस पर पहली छाप किसी धार्मिक ग्रंथ की होती है। फिर वह बड़ा होने लगता है, वह अपनी मां को प्रार्थना करता हुआ देखता है, देवताओं की मूर्तियों, फूलों और धूपबत्ती को देखता है, वह घुटनों के बल घिसटता हुआ वहां पहुंच जाता है, वह उधर निगाह डालता है और देखता है कि क्या हो रहा है। वह देख सकता है कि मां भावविभोर होकर रो रही है, आंसू निकल रहे हैं, और वह बहुत आह्लादित और बहुत प्रसन्न दिखाई पड़ रही है। कुछ अत्यंत महत घट रहा है; वह यह नहीं जान सकता कि यह क्या है, लेकिन कुछ हो रहा है। वह इसे ग्रहण कर रहा है। फिर मंदिर, फिर पुजारी, फिर वे विचित्र से तड़क—भड़क वाले लबादे, और पूरा वातावरण, वह इस माहौल को पीने लगता है। यह उसके अस्तित्व का एक भाग बन जाता है। या तो मां के दूध से या राज्य की शिक्षाओं से, लेकिन जब वह अनजान था तभी उसने ये बातें ग्रहण कर ली थीं। तुम ईसाई बन जाते हो, जब तक तुम सजग हो पाते हो तुम पहले से ही एक ईसाई, एक हिंदू एक मुसलमान, एक जैन, एक बौद्ध, बन चुके होते हो, और तुमको इन धार्मिक संस्कारों से मुक्त करना बहुत कठिन है।

पतंजलि का पूरा प्रयास यही है कि तुम्हें कैसे संस्कारों से मुक्त किया जाए, किस भांति तुम्हारी मदद की जाए कि तुम स्वयं को संस्कारों से स्वतंत्र कर सको। जो कुछ भी तुमको दिया गया है उस सभी का परित्याग करना पड़ेगा, ताकि पुन: तुम बादलों से पार मुक्त आकाश में आ सको, ताकि तुम पुन: इस छोटे सुरंग नुमा हिंदू मुसलमान, साम्यवादी, यह और वह, होने से बाहर निकल सको—कैसे वह आयाम रहित, खुला आकाश तुम्हें उपलब्ध हो सके। कोई भी धर्म, विशेषत: कोई भी संगठित धर्म इसके पक्ष में नहीं है। वे अपनी सुरंगों को सजाते हैं। वे अपनी बातों को लोगों पर थोपते हैं जैसे कि परमात्मा तक पहुंचने के लिए उनका रास्ता ही एक मात्र रास्ता है।

मैंने सुना है, एक व्यक्ति जो प्रोटेस्टेंट था मर गया और स्वर्ग पहुंचा। उसने सेंट पीटर से कहा, इसके पूर्व कि मैं कहीं बस जाऊं मैं स्वर्ग का भ्रमण करना चाहता हूं मैं पूरा स्वर्ग देखना चाहता हूं। सेंट पीटर ने कहा, तुम्हारी जिज्ञासा समझ में आती है, परंतु एक बात तुमको याद रखनी पड़ेगी : मैं तुमको चारों तरफ ले जाऊंगा लेकिन बात मत करना, बिलकुल शांत रहना। और चलना ऐसे कि कोई आवाज न होने पाए। वह प्रोटेस्टेंट थोड़ा सा घबड़ाया, इतना सब कुछ किसलिए? लेकिन वे चल पड़े। जब कभी भी वह कुछ कहना चाहता, सेंट पीटर अपने होंठों पर अंगुली रख लेते और फुसफुसा कर कहते, श555 शांत रहो। जब भ्रमण पूरा हो गया तो उसने पूछा, आखिर मामला क्या है? इतनी शांति किसलिए? पीटर ने उत्तर दिया, यहां पर प्रत्येक विश्वास में जीया करता है। उदाहरण के लिए कैथेलिक विश्वास करते हैं कि केवल वे ही स्वर्ग में हैं; प्रोटेस्टेंट विश्वास करते हैं कि केवल वे ही स्वर्ग में हैं; हिंदुओं का विश्वास है कि केवल वे ही स्वर्ग में हैं; मुसलमान विश्वास करते हैं कि केवल वे ही स्वर्ग में हैं। इसलिए यदि वे जान जाएं कि कोई और भी यहां पर है तो वे बहुत नाराज हो जाते हैं। उनके लिए इस बात पर भरोसा कर पाना नामुमकिन है।

पृथ्वी पर लोग सुरंगों में रहते हैं और स्वर्ग में भी।

कोई भी संगठित धर्म पूर्णत: खुले हुए मन के पक्ष में नहीं है। यही कारण है कि कोई भी संगठित धर्म धर्म जरा भी नहीं है, वह राजनीति है।

अभी उस दिन मुझे अमिदा से एक पत्र प्राप्त हुआ। वह एरिका समूह में हुआ करती थी। अब वह यहां आ गई थी, इसलिए एरिकन लोग अत्याधिक क्षुब्ध हैं। उसने संन्यास ले लिया, इसलिए उन्होंने उसके निष्कासन का एक पत्र लिखा है। वह निष्कासित कर दी गई है। यह बात बेवकूफी जैसी लगती है, यह राजनीति मालूम होती है। अब उसको उनकी सभाओं में प्रवेश करने या उनमें भागीदारी करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। अपनी शब्दावली में उन लोगों ने कह दिया, हमारी ओर से अब तुम्हें पानी में डाल दिया गया है। उसकी निंदा की गई। हर ओर यही चलता रहता है। साइटोलाजी भी लोगों के साथ यही करती है। एक बार तुम साइटोलाजी में आ गए और तुम इसको छोड़ दो, तो बस जैसे अमिदा को पानी मे डाल दिया गया है, वे तुम्हें एक सूचना भेजते हैं कि अब तुम एक शत्रु हो। दुश्मन!

लेकिन ऐसा है, सदा से। ऐसा कैसे हुआ है। हमेशा स्मरण रखो, जहां कहीं भी तुम्हारा मन संकीर्ण किया जा रहा हो वहां से भाग जाओ, यह राजनीति है। यह अहंकार का खेल है।

धर्म तुम्हें विस्तीर्ण करता है।

धर्म तुम्हें इतना अधिक विस्तीर्ण कर देता है कि तुम्हारे चारों ओर का सारा मकान धीरे— धीरे खो जाता है। तुम बस आकाश के नीचे पूर्णत: आवरण विहीन अस्तित्व के साथ संवाद में होते हो। अस्तित्व के और तुम्हारे मध्य कुछ भी नहीं रहता। यह परिस्थिति जन्म के समय सहजता से, स्वाभाविक रूप से तत्‍क्षण अर्जित कर ली जाती है। सिद्धियां जन्म के समय प्रकट होती हैं—जन्म के समय सभी कुछ प्रकट होता है। प्रश्न केवल उस पर पुन: दावा करने का है। प्रश्न है उसे पुन: स्मरण करने का। यह कोई अन्वेषण नहीं है, यह एक पुन: अन्वेषण होने जा रहा है।

अनेक लोग मेरे पास आते हैं और वे पूछते हैं, यदि समाधि घट जाए, यदि संबोधि घट जाती है, तो हम उसे पहचान कैसे पाएंगे कि यह वही है? और मैं उनसे कहता हूं तुम चिंता मत लो; तुम इसको पहचान लोगे क्योंकि तुम जानते हो कि यह क्या है। तुमने इसको विस्मृत कर दिया है। एक बार यह पुन: घट जाए, अचानक तुम्हारी चेतना में, स्मृति उभरेगी, सतह पर आ जाएगी और तुम इसे पहचान लोगे। और इसे चार ढंगों से अर्जित किया जा सकता है। पहला है. औषधियों के द्वारा। हिंदू लोग हजारों वर्षों से औषधियों का निर्माण करते रहे हैं। पश्चिम में इसकी सनक नई है, भारत में यह बहुत प्राचीन काल से है।

पतंजलि कहते हैं:

‘इन्हें औषधियों से, मंत्रों के जाप से, तपश्चर्याओं से या समाधि से भी अर्जित किया जा सकता है।’ वे केवल समाधि के पक्ष में हैं, लेकिन वे एक बहुत ही वैज्ञानिक व्यक्ति हैं। उन्होंने कुछ भी बाहर नहीं छोडा है।

हां, इसको औषधियों से प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन यह उसकी निम्नतम झलक है। रसायनों के माध्यम से तुम्हें एक खास तरह की झलक मिल सकती है, किंतु यह करीब—करीब एक हिंसा, परमात्मा के साथ लगभग बलात्कार हैं—क्योंकि तुम झलक में विकसित नहीं हो रहे हो बल्कि तुम उस झलक को अपने ऊपर थोप देते रहे हो। तुम एल एस डी या मारिजुआना या कुछ और ले सकते हो, तुम अपने दैहिक रसायन तंत्र के साथ जबदरस्ती कुछ कर रहे हो। यदि दैहिक रसायन तंत्र के साथ बहुत अधिक जबरदस्ती की जाए, तो बस कुछ पलों के लिए यह मन के प्रतिबंध से मुक्त हो जाता है। तुम्हारे जीवन की सुरंग जैसी जीवनशैली से यह छूट जाता है। तुम्हें एक विशेष प्रकार की झलक मिलती है, लेकिन यह झलक एक बहुत बड़ी कीमत चुका कर मिलती है। अब तुम उस औषधि से आसक्त हो जाओगे। जब कभी भी तुम्हें झलक की आवश्यकता होगी तुम उसी औषधि की ओर जाने के लिए बाध्य हो जाओगे, और जितनी बार तुम उस औषधि का सेवन करोगे, हर बार तुम्हें इसकी और अधिक मात्रा की जरूरत पड़ेगी। और तुम्हारा जरा सा भी विकास नहीं हो रहा होगा, कोई भी परिपक्वता तुममें नहीं आ रही होगी। केवल औषधि की मात्रा बढ़ेगी और तुम वही के वही रहोगे। यह दिव्यता की झलक पाने के लिए बहुत महंगा सौदा है। इसका मूल्य इतना नहीं है। यह अपने आप को विनष्ट करना हुआ। यह आत्मघाती है, लेकिन पतंजलि इसे एक संभावना के रूप में रखते हैं। बहुत लोगों ने इसकी कोशिश की है, और बहुत से लोग इसके द्वारा करीब—करीब पागल हो गए हैं। अस्तित्व के साथ किसी भी प्रकार की हिंसा खतरनाक है। व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से विकसित होना चाहिए। अधिक से अधिक यह स्वप्न जैसा हो सकता है लेकिन यह वास्तविकता नहीं हो सकता। एक व्यक्ति जो लंबे समय से एल एस डी ले रहा है वैसा ही आदमी रहता है। वह उन नये अंतरालों के बारे में बात कर सकता है जो उसने प्राप्त किए हैं और वह स्वप्‍निल अनुभवों के बारे में बात करेगा, लेकिन तुम देख सकते हो कि वह आदमी वैसा का वैसा ही है। वह बदला नहीं है। उसे कोई गरिमा उपलब्ध नहीं हो गई है। इससे भिन्न भी हो सकता है, जो गरिमा पहले से ही उसके पास थी वह भी खो सकती है। वह और अधिक प्रसन्न और आनंदित नहीं हो गया है। ही, औषधि के प्रभाव में वह हंस सकता है किंतु वह हंसी भी रुग्ण है, यह स्वाभाविक रूप से नहीं उठ रही है, यह सहजता से नहीं खिल रही है। और औषधि का प्रभाव मिटते ही वह मंदमति हो जाएगा, उसके मन में सुखाभास की स्मृतियां होंगी। और वह बार—बार खोजेगा, बार—बार वह उसी झलक की खोज और अन्वेषण करेगा। अब वह औषधि के अनुभव से सम्मोहित हो जाएगा। यह निम्नतम संभावना है।

दूसरा उससे बेहतर है वह है मंत्र। यदि तुम एक खास मंत्र को लंबे समय तक दोहराते रहो, तो यह तुम्हारे अस्तित्व में सूक्ष्म रासायनिक परिवर्तन निर्मित कर देता है। यह औषधियों से बेहतर है, लेकिन फिर भी यह भी एक प्रकार की औषधि ही है। यदि तुम लगातार ओम, ओम, ओम दोहराते रहो, तो वह पुनरुक्ति तुम्हारे भीतर ध्वनि—तरंगें निर्मित करती है। यह ‘ऐसा ही है कि तुम झील में पत्थर फेंकते चले जाओ और तरंगें उठती रहें, उठती चली जाएं और अनेक आकृतियां बनाते हुए फैलती चली जाएं। ठीक यही घटता है जब तुम किसी मंत्र का एक शब्द के सतत उच्चारण का प्रयोग करते हो। इसे ओम, राम, अवे मारिया या अल्लाह से कुछ लेना—देना नहीं है, इसका उनसे कोई सरोकार नहीं है। तुम कुछ भी, जैसे ब्लाह, ब्लाह, ब्लाह, कह सकते हो, वह भी चलेगा। लेकिन तुमको वही—वही ध्वनि उसी सुर में, उसी लय में दोहराना पड़ेगी। यह बार—बार उसी केंद्र पर संघात करती चली जाती है और इससे तरंगें, कंपन और स्पंदन निर्मित होते हैं। वे तुम्हारे अस्तित्व के भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं और प्रसारित हो जाते हैं। वे ऊर्जा के वर्तुल निर्मित करते हैं। यह औषधियों से श्रेष्ठ है, लेकिन फिर भी इसका गुणवत्ता वही है।

इसीलिए कृष्‍णमूर्ति कहे चले जाते हैं कि मंत्र एक औषधि है। यह औषधि है, और वे कोई नई बात नहीं कह रहे हैं; पतंजलि भी यही कहते हैं। यह औषधि की तुलना में बेहतर है, तुम्हें किसी इंजेक्यान की आवश्यकता नहीं रहती, तुम किसी बाह्य साधन पर निर्भर नहीं रहते। तुम किसी औषधि—विक्रेता पर निर्भर नहीं रहते, क्योंकि हो सकता है कि वह तुम्हें ठीक चीज न दे रहा हो। वह तुम्हें कुछ नकली चीज पकड़ा सकता है। तुम्हें किसी पर निर्भर होने की जरूरत नहीं रहती। यह औषधियों की तुलना में अधिक स्वावलंबी है। तुम अपने भीतर अपना मंत्रदोहरा सकते हो, और समाज से यह और अधिक तालमेलपूर्ण है। यदि तुम ओम, ओम, ओम दोहराओं तो समाज कोई आपत्ति नहीं करगा, किंतु यदि तुम एल एस डी ले रहे हो तो समाज आपत्ति करेगा। मंत्र—जाप बेहतर है, अधिक सम्मानजनक है, लेकिन फिर भी यह औषधि है। यह ध्वनि ही है जिसके द्वारा तुम्हारे शरीर का रसायन तंत्र बदल जाता है।

अब ध्वनि, संगीत, जाप के ऊपर अनेक प्रयोग चल रहे हैं। यह निश्चित रूप से रसायनों को बदल देता है। यदि किसी पौधे को एक खास किस्म के संगीत के माहौल में—निश्चित रूप से शास्त्रीय या भारतीय, आधुनिक पाश्चात्य संगीत नहीं—रखा जाए तो यह तेजी से बढ़ता है। अन्यथा विकास अवरुद्ध हो जाएगा या पौधा पगला जाएगा। सूक्ष्म कंपनों के साथ, श्रेष्ठ ताल और लयबद्धता के साथ पौधा तेजी से बढ़ता है। उसकी वृद्धि करीब—करीब दो गुना हो जाती है, और उस पर लगने वाले पुष्प और बड़े और रंगीन हो जाते हैं, वे अधिक समय तक टिकते हैं और उनसे अधिक सुगंध आती है। अब ये वैज्ञानिक सत्य हैं। यदि ध्वनियों से एक पौधा इतना अधिक प्रभावित होता है तो मनुष्यों पर और अधिक प्रभाव होगा। और यदि तुम एक भीतरी ध्वनि, एक अनवरत कंपन उत्पन्न कर सको, तो यह तुम्हारे शरीर क्रिया विज्ञान, तुम्हारे दैहिक रसायन तंत्र—तुम्हारे मन, तुम्हारे शरीर को बदल डालेगा—लेकिन फिर भी यह बाहरी सहायता है। अभी भी यह एक प्रयास है; तुम कुछ कर रहे हो। और कुछ करते हुए तुम एक अवस्था निर्मित कर रहे हो जिसे बनाए रखना है। यह स्वाभाविक रूप से सहज नहीं है। यदि तुम कुछ दिन इसे बनाए न रख सको तो यह विलीन हो जाएगी। अत: यह भी विकास नहीं है।

एक बार एक सूफी मेरे पास आया। तीस सालों से वह एक सूफी मंत्र का अभ्यास कर रहा था, और उसने इसे बहुत निष्ठापूर्वक किया था। वह कंपनों से भरा हुआ था—बहुत जीवंत, बहुत प्रसन्न, सारे दिन करीब—करीब आनंदमग्न, जैसे कि समाधि में हो……मदहोश। उसके शिष्य उसको मेरे पास लेकर आए थे। वह मेरे पास तीन दिन रुका। मैंने उससे कहा. एक काम करो, तीस साल से तुम एक जप कर रहे हो, तीन दिन के लिए इसे बंद कर दो। उसने पूछा : क्यों? मैंने कहा : केवल यह जानने के लिए कि अभी तुम्हारे साथ यह घटा है या नहीं। यदि तुम जप करते रहे तो तुम कभी न जान पाओगे। इस सतत जप करने से हो सकता है कि यह मदहोशी तुमने ही निर्मित कर ली हो। तीन दिन के लिए तुम इसको रोक दो और बस देखो। वह थोड़ा सा घबड़ाया, लेकिन उसकी समझ में बात आ गई।

क्योंकि जब तक कोई चीज इतनी स्वाभाविक न हो जाए कि तुम्हें उसे करने की आवश्यकता ही न पड़े, तब तक वह तुम्हें उपलब्ध नहीं हुई है।

बस तीन दिन के भीतर ही सब कुछ तिरोहित हो गया; बस तीन दिन के भीतर। कोई तीस साल का प्रयास और तीसरे दिन वह आदमी रोने लगा और वह बोला, आपने यह क्या किया? आपने मेरी पूरी साधना नष्ट कर डाली। मैंने कहा. मैंने कुछ भी नष्ट नहीं किया; तुम दुबारा से शुरू कर सकते हो। लेकिन अब एक बात याद रखो, यदि तुम तीस जन्म भी जप करते रहे तो भी तुम्हें वह न मिलेगा। यह मार्ग नहीं है। तीस साल के सतत प्रयास के बाद भी तुम तीन दिन के अवकाश पर नहीं जा सकते, यह तो बंधन प्रतीत होता है, और यह अभी तक सहज नहीं हो सका है। अब भी यह तुम्हारा भाग नहीं बन सका है, तुम्हारा विकास नहीं हुआ है। इन तीन दिनों ने तुम्हारे समक्ष उदघाटित कर दिया है कि तीस सालों से सारा प्रयास गलत दिशा में जा रहा था। अब यह तुम पर निर्भर है। यदि तुम जप जारी रखना चाहते हो, जारी रखो, लेकिन याद रखो, अब यह मत भूलना कि किसी भी दिन यह खो सकता है; यह एक स्वप्न है जिसको तुमने सतत जप के द्वारा पकड़ रखा है। यह एक निश्चित तरंग है, जिसे तुम पकड़े हुए हो, किंतु यह वहा से उठ नहीं रही है। यह कृत्रिम रूप से निर्मित और पोषित है; अभी यह तुम्हारा स्वभाव नहीं बन पाई है।

तीसरा उपाय है : तपश्चर्याओं द्वारा अपने जीवन के ढंग को परिवर्तित करके—भोजन, निद्रा, कामवासना की सुविधा, सहूलियत की चाहत न करके, वह सभी कुछ जो मन स्वभावत: चाहता है और इसका ठीक विपरीत करना। यह मंत्रों से फिर भी कुछ ऊपर है। यदि मन कहे, सो जाओ तो तपश्चर्या वाला व्यक्ति कहेगा, नहीं, मैं सोने नहीं जा रहा हूं मैं तुम्हारा दास बनने नहीं जा रहा हूं-जब मैं सोना चाहूंगा तभी मैं सोऊंगा, अन्यथा नहीं। मन कहता है, तुम को भूख लगी है, अब जाओ और व्यवस्था बनाओ। तपश्चर्याओं वाला व्यक्ति कहता है, नहीं। तपश्चर्याओं वाला व्यक्ति अपने मन को लगातार नहीं कहता है। तपश्चर्या यही है, मन को न कहना। निःसंदेह यदि तुम अपने मन को लगातार नहीं कहते जाओ तो तुम पर मन के बंधन ढीले हो जाते हैं। तब मन तुम पर और अधिक समय हावी नहीं रह पाता, तब तुम थोड़ा सा मुक्त हो जाते हो। लेकिन इस नहीं को लगातार कहते रहना पडता है। यदि तुम एक दिन के लिए भी मन की सुन लो, पुन: मन की पूरी शक्ति तुम पर हावी होने और तुम पर अधिकार जमाने के लिए वापस आ जाएगी। इसलिए बस एक क्षण का भटकाव और सब कुछ खो जाता है।

तपश्चर्याओं वाला व्यक्ति बेहतर कर रहा है; वह मंत्र-जाप वाले की तुलना में कुछ अधिक स्‍थाई कर रहा है-क्योंकि जब तुम जप करते हो तुम्हारी जीवनशैली अपरिवर्तित रहती है। बस तुम भीतर’ अच्छापन अनुभव करते हो; एक विशेष प्रकार की सुखानुभूति। इसीलिए तो महेश योगी के भावातीत ध्यान का पश्चिम में इतना अधिक आकर्षण है, क्योंकि वे तुमसे तुम्हारी जीवनशैली बदलने के लिए नहीं कहते हैं। उनका कहना है, तुम जहां भी हो, जैसे भी हो, यह ठीक है। वे तुमसे कोई अनुशासित जीवनशैली भी नहीं चाहते हैं, बस मंत्र को दोहराओं, बीस मिनट सुबह और बीस मिनट शाम और इससे काम बन जाएगा। निःसंदेह इससे तुम्हें बेहतर निद्रा, बेहतर भूख मिल जाएगी। तुम और अधिक शांत और मौन रहोगे। उन परिस्थितियों में जब क्रोध सरलता से आ जाता था, अब यह उतना आसान न रहेगा। लेकिन तुम्हें मंत्र—जाप प्रतिदिन जारी रखना पड़ेगा। यह ध्वनि तरंगों के माध्यम से तुम्हें एक खास तरह का अंतर—स्नान दे देगा। लेकिन यह विकास में तुम्हारी सहायता नहीं कर सकेगा। तपश्चर्याएं अधिक सहायक होती हैं, क्योंकि तुम्हारा जीवन परिवर्तित होने लगता है।

यदि तुम एक विशेष कार्य न करने का निश्चय करो, तो मन आग्रह करेगा कि तुम इसे कर लो। यदि तुम मन को इनकार करते चले जाओ तो तुम्हारे जीवन की सारी व्यवस्था बदल जाती है। लेकिन यह भी जबरदस्ती थोपी हुई है। वे लोग जो तपश्चर्याओं में बहुत अधिक संलग्न हैं वे अपनी गरिमा खो देते हैं, वे थोड़ा कुरूप हो जाते हैं। सतत संघर्ष और युद्ध और लगातार दमन और इनकार करते रहना उनके अस्तित्वों में बहुत गहरी दरार निर्मित कर देता है। जप करने वाले व्यक्ति या उस आदमी की तुलना में जो औषधियों से असक्त है उन्हें अधिक स्थायी झलकें मिल जाती हैं। उन्हें टिमोथी लिएरी या महेश योगी से अधिक स्थायी परिणाम मिलेंगे, लेकिन फिर भी यह एक सहज खिलावट नहीं है। अभी भी यह झेन, वास्तविक योग, तंत्र नहीं है।

‘……या समाधि।’

अब आता है चौथा, जिसे पतंजलि तुम्हें समझाने का प्रयास कर रहे हैं। संयम के माध्यम से, समाधि के माध्यम से, सभी कुछ प्राप्त किया जाना है। अब तक वे जो कुछ भी समझा रहे थे वह था तुम्हारी सजगता को संयम, समाधि की ओर —लेकर आना। औषधियों वाला व्यक्ति रसायनशास्त्र के माध्यम से कार्य करता है, तपश्चर्याओं वाला व्यक्ति शरीर क्रिया वितान के माध्यम से कार्य करता है, जाप वाला व्यक्ति अपने अस्तित्व की ध्वनि—संरचना के माध्यम से कार्य करता है, किंतु वे सभी आशिक हैं। उसकी पूर्णता को उन्होंने अभी तक नहीं छुआ है। और वे सभी एक प्रकार का असंतुलन निर्मित कर लेते हैं। एक भाग बहुत विराट हो जाएगा और दूसरे भाग पीछे रह जाएंगे, और वह कुरूप हो जाएगा।

समाधि समग्र का विकास है।

और विकास को स्वाभाविक, सहज होना चाहिए, जबरदस्ती नहीं। विकास को सजगता के माध्यम से होना चाहिए न कि रसायन शास्त्र के माध्यम से, न कि भौतिक वितान के माध्यम से, न कि ध्वनि के माध्यम से। विकास को सजगता के, साक्षित्व के माध्यम से घटित होना चाहिए, यही है समाधि। समाधि तुम्हें उसी बिंदु पर ले आएगी जिस पर तुम्हारा जन्म हुआ था। तत्‍क्षण यह तुम पर तुम्हारी सत्ता को, जो तुम हो उसको, तुम पर प्रकट कर देगी।

अब समाधि के बारे में कुछ बातें समझ लेनी पडेगी।

पहली : वह उपलब्धि हेतु कोई लक्ष्य नहीं है, वह पूर्ति हेतु कोई आकांक्षा भी नहीं है। यह कोई अपेक्षा नहीं है, यह कोई आशा नहीं है, यह किसी भविष्य में नहीं है, यह अभी और यहीं है। इसीलिए समाधि के लिए एकमात्र शर्त है इच्छा विहीन होना—समाधि की भी इच्छा न होना।

यदि तुम समाधि की इच्छा कर रहे हो तो तुम स्वयं समाधि को लगातार नष्ट करते जा रहे हो। इच्छा की प्रकृति को समझना पड़ेगा, और इसी समझ में यह अपने आपसे ही स्वत: गिर जाती है। इसीलिए मैं कहता हूं कि जब तुम्हारी आशाएं विफल हो जाती हैं तो तुम एक सुंदर परिस्थिति में हो, इसका उपयोग करो। यही वह पल है जब तुम समाधि में अधिक सरलता से प्रविष्ट हो सकते हो। धन्य हैं वे जो निराश हैं; इस वाक्य को जीसस की अन्य सुंदर उक्तियों में शामिल हो जाने दो।

वे कहते हैं, धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि पृथ्वी के उत्तराधिकारी वे ही होंगे। मैं तुमसे कहता हूं धन्य हैं जो निराश हैं, क्योंकि समग्र के उत्तराधिकारी वे ही होंगे।

इसे देखने का प्रयास करो कि आशा तुम्हें कैसे नष्ट कर रही है। आशा के साथ ही भय उत्पन्न होता है। भय उसी सिक्के का दूसरा पहलू है। जब कभी तुम आशा करते हो, साथ ही तुम भयभीत भी हो जाते हो। तुम भयभीत हो जाते हो कि तुम अपनी आशा को पूरा कर भी पाओगे या नहीं। आशा कभी अकेली नहीं आती, इसकी संगत भय के साथ है। फिर भय और आशा के बीच तुम्हारा विस्तार हो जाता है। आशा भविष्य में है और भय भी भविष्य में है; और तुम आशा और भय के मध्य झूलना आरंभ कर देते हो। कभी तुमको लगता है, ही, यह आशा पूरी होने वाली है, और कभी—कभी तुम्हें लगता है, नहीं, यह तो असंभव बात लगती है। और भय उठ खड़ा होता है। भय और आशा के मध्य तुम अपना अस्तित्व खो देते हो। मैं तुम्हें एक प्रसिद्ध भारतीय कथा सुनाता हूं :

एक मूर्ख को आटा और नमक खरीदने भेजा गया। वह अपनी खरीद का सामान रखने के लिए एक बर्तन लेकर गया। उसे बताया गया था कि दोनों चीजों को मिलाना मत बल्कि उनको अलग—अलग रखना। जब दुकानदार ने बर्तन को आटे से भर दिया, तो उस मूर्ख ने अलग—अलग रखने के आदेशों को ध्यान में रखते हुए बर्तन को पलट दिया और दुकानदार से नमक को बर्तन के पृष्ठभाग में रखने को कहा। इस प्रकार आटा गिर गया, लेकिन नमक उसके पास था। उसे लेकर वह अपने मालिक के पास पहुंचा, मालिक ने पूछा, किंतु आटा कहां है? तो मूर्ख ने आटा खोजने के लिए बर्तन पुन: पलट दिया, तो नमक भी गिर पडा।

आशा और भय के मध्य तुम्हारा सारा अस्तित्व खो गया है।

इसी प्रकार से तुम इतने विखंडित, विभाजित और असंगठित हो गए हो। जरा इसके मूल तथ्य को देखो; यदि तुम्हारे पास कोई आशा नहीं है, तो तुम किसी भी प्रकार का भय निर्मित नहीं कर रहे होओगे— क्योंकि बिना आशा के भय आ ही नहीं सकता। आशा तुम्हारे भीतर भय का सोपान है। आशा भय के प्रवेश के लिए द्वार निर्मित करती है। यदि तुम्हारे पास कोई आशा नहीं है, तो भय की कोई बात न रही। और जब न आशा हो और न भय, तो तुम अपने आप से दूर नहीं जा सकते। जो तुम हो तुम बस वही हो। तुम अभी—यहीं हो। यही क्षण अत्यधिक जीवंत बन जाता है।

दूसरा सूत्र:

जात्यन्तर परिणाम: प्रकृत्यापूरात।

‘एक वर्ग, प्रजाति या वर्ण से अन्य में रूपांतरण, प्राकृतिक प्रवृत्तियों या क्षमताओं के अतिरेक से होता है।’

बहुत महत्वपूर्ण…….

यदि तुम तपश्चर्याओं वाले व्यक्ति हो तो तुम कभी भी अतिरेक में नहीं होओगे। तुम अपनी ऊर्जाओं का दमन कर चुके होओगे। कामवासना से भयभीत, क्रोध से भयभीत, प्रेम से भयभीत, इससे और उससे भयभीत, तुम अपनी सारी ऊर्जाओं का दमन कर चुके होओगे, तुम अतिरेक में नहीं होओगे। और पतंजलि कहते हैं कि केवल अतिरेक के माध्यम से ही रूपांतरण होता है। यह जीवन के परम आधारभूत नियमों में से एक है।

क्या तुमने गौर किया है कि जब तुम ऊर्जा में कमी अनुभव करते हो, अचानक प्रेम खो जाता है? जब तुम ऊर्जा में कमी अनुभव करते हो, सृजनात्मकता खो जाती है? तुम चित्र नहीं बना सकते, तुम कोई गीत नहीं लिख सकते। यदि तुम लिखते हो तो तुम्हारी कविता चल नहीं पाएगी, नाचना तो बहुत दूर की बात है। यह तो चल भी न सकेगी, यह तो बस अधिक से अधिक लंगड़ा कर चल सकती है। यह कविता जैसी होगी भी नहीं। यदि तुम उस समय चित्र बनाओ, जब तुम अल्प ऊर्जावान हो तो तुम्हारा चित्र रुग्ण होगा। वह स्वस्थ नहीं होगा। यह स्वस्थ हो नहीं सकता, क्योंकि इस चित्र को तुमने बनाया है और तुम ऊर्जा में अल्पता अनुभव कर रहे हो। वास्तव में इस चित्र के रूप में तुम ही कैनवास पर चित्रित हो। यह उदास, दुखी, मरणासन्न होगा।

मैंने एक बड़े चित्रकार के बारे में सुना है। उसने अपने एक मित्र को, जो एक चिकित्सक था उसे आकर अपनी एक कलाकृति देखने का अनुरोध किया था। उस चिकित्सक ने चित्र का अवलोकन किया, इस ओर से देखा और उस ओर से देखा। वह मित्र, वह चित्रकार बहुत प्रसन्न हो गया कि वह कितने गौर से देख कर उसके चित्र का मूल्यांकन कर रहा है। और अंत में उस चित्रकार ने पूछ ही लिया, क्योंकि उसने देखा कि उसका चिकित्सक मित्र उलझन में पड़ा है—न सिर्फ उलझन में है बल्कि चिंतित है। उस चित्रकार मित्र ने पूछा, बात क्या है? इस चित्र के बारे में तुम क्या सोचते हो? उस चिकित्सक ने कहा परिशेषिका शोथ (अपेंडिसाइटिस)। उस चित्रकार ने किसी व्यक्ति का चित्र बनाया था और चिकित्सक बहुत ध्यान से इस चित्र को हर ओर से देख रहा था, क्योंकि चेहरा इतना पीला था और सारा शरीर इतनी पीड़ा में दिख रहा था कि उसे लगा इसे अवश्य ही अपेंडिसाइटिस का रोग होना चाहिए। बाद में यह पता लगा कि चित्रकार को अपेंडिसाइटिस थी, वह इससे पीड़ित था।

तुम अपने आप को ही अपने काव्य में, अपनी चित्रकारी में, अपनी मूर्तिकला में विस्तीर्ण करते हो। जो कुछ भी तुम करते हो यह तुम ही हो, इसे ऐसा ही होना चाहिए।

वृक्षों में पुष्प केवल तभी लगते हैं जब वे ऊर्जा के अतिरेक में होते हैं, जब अत्यधिक होती है ऊर्जा। वे फूल खिलाने में समर्थ हो पाते हैं। जब किसी वृक्ष के पास अधिक ऊर्जा नहीं होती है तो उसमें फूल नहीं लगते, क्योंकि उसके पास तो पत्तियों तक के लिए पर्याप्त ऊर्जा नहीं है। उसके पास तो जड़ों तक के लिए पर्याप्त ऊर्जा नहीं है—यह फूल खिलाने की व्यवस्था वौसे कर सकता है? फूल तो करीब—करीब एक विलासिता होंगे। जब तुम भूखे होते हो तो तुम घर के लिए चित्रों को खरीदने के बारे में नहीं सोचते। जब तुम्हारे पास वस्त्र नहीं होते हैं तो तुम वस्त्रों के बारे में सोचते हो, तुम एक सुंदर उपवन के बारे में नहीं सोचते। ये विलासिताएं हैं। जब ऊर्जा अतिरेक में होती है केवल तभी उत्सव होता है, रूपांतरण घटता है। जब तुम ऊर्जा से ओतप्रोत हो रहे हो तभी तुम गीत गाना चाहते हो, तुम नृत्य करना चाहते हो, तुम बांटना चाहते हो।

‘एक वर्ग, प्रजाति, या वर्ण से अन्य में रूपांतरण, प्राकृतिक प्रवृत्तियों या क्षमताओं के अतिरेक से होता है।’

सामान्यत: मनुष्य जैसा वह है, इतना अवरुद्ध है, और इतनी अधिक समस्याएं दमित हैं कि ऊर्जा कभी उस बिंदु तक नहीं आ पाती जिससे यह उद्वेलित हो सके और इसे बस दूसरों के साथ बांटा जा सके। और तुम्हारा सहस्रार, जो तुम्हारा खिल जाना है, तुम्हारे सिर के शीर्ष में स्थित कमल, तब तक नहीं खिलेगा जब तक कि ऊर्जा उद्वेलित न हो, जब तक कि यह इतनी अधिक अतिरेक में न हो कि यह ऊंची और ऊंची उठती जाए। उसका तल ऊपर और ऊपर उठता चला जाता है, यह दूसरे केंद्र पर पहुंचता है, फिर तीसरा केंद्र, चौथा केंद्र और जो केंद्र भी इस उद्वेलित ऊर्जा के द्वारा स्पर्शित होता है खुल जाता है, खिल जाता है। सातवां चक्र मानवता का पुष्प है : सहस्रार। सहस्र—दल—कमल, एक हजार पंखुड़ियों वाला कमल, जो केवल तब खिलेगा जब तुम ऊर्जा के अतिरेक में हो।

न तो कभी दमन करो और न ही अपने अस्तित्व में अवरोध उत्पन्न करो। कभी अधिक ठोस मत हो जाओ। जमो मत। प्रवाहित होओ। अपनी ऊर्जा को सदैव प्रवाहमान रहने दो। योग के उपायों, योगासनों का यही पूरा उद्देश्य है कि तुम्हारे अवरोध छिन्न—भिन्न हो जाएं। यौगिक आसन और कुछ नहीं बल्कि उन अवरोधों को जो तुमने अपने शरीर में बना रखे हैं तोड्ने की एक प्रणाली है।

अब पश्चिम में ठीक ऐसा ही घटित हुआ है। यह है रोल्फिंग, इदारोल्फद्वारास्थापित। क्योंकि पश्चिम में मन अधिक तकनीकी है, लोग अपनी चीजें स्वयं करना नहीं चाहते। वे इन्हें किसी और के द्वारा कराना चाहते है; इसीलिए रोल्फिंग। कार्य रोल्फिंग करने वाला करेगा। वह तुम्हारी गहरी मालिश करेगा, और वह तुम्हारे अवरोधों को पिघलाने का प्रयास करेगा। जो पेशीतंत्र कठोर हो चुका है वह शिथिल हो जाएगा।

योग के साथ भी यही किया जा सकता है, और अधिक आसानी से किया जा सकता है, क्योंकि तुम स्वयं अपने मालिक हो। अपने आंतरिक अस्तित्व को तुम अधिक उचित ढंग से, बिलकुल ठीक अनुभव कर सकते हो। तुम अनुभव कर सकते हो कि तुम्हारे अवरोध कहां—कहां हैं। यदि तुम प्रतिदिन अपनी आंख बंद करो और मौन होकर बैठो तो तुम यह जान सकते हो कि कहां पर तुम्हारा शरीर असहज अनुभव कर रहा है, कहां पर तुम्हारा शरीर तनाव अनुभव कर रहा है। फिर शरीर के उस विशेष भाग को शिथिल करने के लिए योगासन हैं। वे आसन पेशी तंत्र के उस भाग को जो कठोर हो चुका है, शिथिल करने में अवरोध को विसर्जित करने में सहायक होंगे और ऊर्जा को प्रवाहित होने देंगे। किंतु एक बात निश्चित है कि दमित व्यक्ति कभी पुष्पित नहीं होता है।

दमित व्यक्ति निदित और प्रतिबधित ऊर्जा के साथ रहता है। और यदि तुम अपनी ऊर्जा को ठीक दिशाओं में गति के लिए निर्देशित नहीं करोगे तो तुम्हारी ऊर्जा तुम्हारे लिए आत्मघाती और विध्वंसक हो सकती है। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारी ऊर्जा प्रेम की ओर नहीं जा रही है, तो वह क्रोध बन जाएगी। यह खट्टी, कड्वी हो जाएगी। जब कभी भी तुम किसी क्रोधित व्यक्ति को देखो, तो याद रहे, किसी भी प्रकार से उसकी ऊर्जा प्रेम से वंचित रह गई है। किसी तरह से वह भटक गया है, इसलिए वह क्रोधित है। वह तुम पर क्रोधित नहीं है, वह तो बस क्रोधित है। तुम भी एक बहाना हो सकते हो। वह क्रोध है। ऊर्जा अवरुद्ध हो गई है और जिंदगी करीब—करीब अर्थहीन अनुभव हो रही है, इसमें कोई सार्थकता न रही, वह रोष में है।

डीलन थॉमस की एक बहुत प्रसिद्ध कविता है। उसके पिता का देहांत हो गया और उसी रात उसने यह कविता लिखी। इस कविता में ये पंक्तियां आती हैं—

क्रोध

प्रकाश के अवसान

के विरुद्ध,

क्रोध;

उस शुभ रात्रि में

जाएं मत

कोमलता से,

बिना विरोध!

वह अपने पिता से कह रहा है : ‘मृत्यु से संघर्ष करें, इसके विरुद्ध क्रोध करें समर्पण न करें, बस ऐसे ही मत छोड़े। उसे कड़ी चुनौती दें, भले ही आप उससे पराजित हो जाएं, लेकिन बिना संघर्ष किए न जाएं।’

यदि प्रेम परितृप्त नहीं है तो व्यक्ति क्रोधित हो जाता है। यदि जीवन परितृप्त नहीं है तो व्यक्ति मृत्यु पर क्रोधित हो जाता है। ऐसा व्यक्ति जिसका जीवन परितृप्त है वह मृत्यु पर क्रोधित नहीं होगा, वह उसका स्वागत करेगा। और वह ऐसा नहीं कहेगा कि यह अंधेरी रात है; वह कहेगा, कितनी सुंदर, कितनी विश्रामदायी। अंधकार विश्रामदायक है। यह करीब—करीब मां के गर्भ की भांति उष्ण है। व्यक्ति पुन: परमात्मा के वृहत्तर गर्भ में जा रहा है। क्रोध किसलिए? वे जो खिल चुके हैं, समर्पण कर देते हैं। वे जो हताश हैं समर्पण नहीं कर सकते। अपनी हताशाओं में से वे और अधिक आशाएं निर्मित करते हैं और प्रत्येक आशा और अधिक हताशाएं उत्पन्न करती है—और यह दुष्‍चक्र चलता चला जाता है, अनंत तक।

यदि तुम हताश नहीं होना चाहते हो तो आशा छोड़ दो—तब कोई हताशा नहीं रहेगी। और यदि तुम वास्तव में विकसित होना चाहते हो तो दमन कभी न करो। ऊर्जा का आनंद लो। जीवन ऊर्जा की एक घटना है। ऊर्जा का आनंद लो—नाचो, गाओ, तैसे, दौड़ो, ऊर्जा को अपने ऊपर सभी ओर बहने दो, ऊर्जा को अपने ऊपर सभी तरफ फैल जाने दो। इसे प्रवाह बन जाने दो। एक बार तुम प्रवाह में आ जाओ तो खिलना बहुत सरल हो जाता है।

‘आकस्मिक कारक प्राकृतिक प्रवृत्तियों को सक्रिय होने के लिए प्रेरित नहीं करता, यह तो बस अवरोधों को हटा देता है—जैसे खेत सींचता हुआ किसान; वह बाधाओं को हटा देता है और तब पानी स्वत: ही मुक्त होकर प्रवाहित होने लगता है।’

पतंजलि कह रहे हैं कि वास्तव में यदि तुम्हारे भीतर अवरोध न हों तो हर चीज को स्वाभाविक रूप से प्राप्त किया जा सकता है। यह कुछ निर्मित करने का प्रश्न नहीं है, प्रश्न तो केवल बाधा को हटाने का है। यह तो बस ऐसा ही है कि झरना वहा हो और एक चट्टान उसका रास्ता रोक रही हो। उसके पीछे इसकी जलधार बह रही है लेकिन यह चट्टान को नहीं हटा सकती। यह झरना, यह जल निर्मित नहीं करना पड़ता है, यह पहले से ही वहां है, तुम्हें तो बस चट्टान हटा देनी है और यह आगे की ओर फूट पड़ता है, यह फव्वारे की भांति है, तुम तो बस चट्टान हटा दो और यह ऊपर की ओर फूट पड़ता है, यह खिल जाता है। बच्चे के पास यह स्वभावत: होता है, तुम्हें इसे समझ के द्वारा अर्जित करना पड़ता है। और तुम्हें उन सभी अवरोधों को छोड़ना पड़ेगा जो समाज ने तुम्हारे ऊपर थोप रखे हैं।

समाज कामवासना के विरोध में है, उसने काम—केंद्र के ठीक पास में एक अवरोध निर्मित कर दिया है। जब कभी कामवासना उठती है तुम बेचैनी अनुभव करते हो, तुम्हें अपराध बोध होता है, तुम भयभीत अनुभव करते हो। तुम सिकुड़ जाते हो, तुम प्रवाहित नहीं होते, तुम बहते नहीं हो। समाज क्रोध के विरोध में है; उसने वहां एक अवरोध निर्मित कर दिया है। इसलिए क्रोध आता है, लेकिन तुम इसमें पूरी तरह नहीं जा पाते हो। तुम्हें इन सभी अवरोधों को छोड़ना पड़ेगा।

इसी कारण से मैं ध्यान की सक्रिय विधियों पर जोर देता हूं। वे तुम्हारे अवरोधों को पिघला देंगी। यदि तुम क्रोधित हो, तो चीखो, चिल्लाओ। किसी व्यक्ति पर चीखने और चिल्लाने की आवश्यकता नहीं है, बस एक तकिया ही काम कर जाएगा। तकिए को पीटो, इस पर कूद पड़ो, तकिए को मार डालो। किसी व्यक्ति को मारने की कोई जरूरत नहीं है। बस यह खयाल कि तुम तकिए को मार रहे हो, पर्याप्त है। बस क्रोध में, गुस्से में हो जाना ही काफी है, अवरोध टूट गया है। यदि तुम किसी की हत्या करना चाहो या तुम किसी के ऊपर क्रोधित होना चाहो, तो तुम इसमें कभी पूरी तरह न हो सकोगे—क्योंकि दूसरे को चोट पहुंचेगी, वह घायल होगा, और तुम एक मनुष्य हो, तुम्हारे पास प्रेम और करुणा भी हैं। इसलिए व्यक्ति अभिव्यक्ति रोक लेता है।

तकिए को पीटो। एक बढ़िया चाकू लो और तकिए को मार डालो। जब तकिया मर जाए, तो उसके शरीर को दफना दो और यह मामला निबटा दो। अचानक तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे भीतर कुछ टूट गया है। एक चट्टान हटा दी गई है। चीखो, कूदो, दौड़ो। यदि कामवासना उठती है तो इसकी उठने में सहायता ‘क?रो। समाज ने तुमको जो कुछ भी सिखाया है उस सभी को भूल जाओ। अपने भीतर उठ रही कामुकता की परम अनुभूति का, आनंद लो। सहयोग करो इसके साथ। न तो सिकुड़ो और न ही इसका प्रतिरोध करो, इसके साथ सहयोग करो। शीघ्र ही तुम पाओगे कि कामुकता रूपांतरित हो रही है। जब तालाब भर जाता है, तो इसका पानी किनारे पार करके बाहर की ओर फैल जाता है। उद्वेलित होती कामुकता संवेदना बन जाती है। वे लोग जो अपनी कामवासना का दमन करते हैं संवेदनाशन्य, जड़ हो जाते हैं। उनके पास जीवन नहीं होता। वे काष्ठवत निर्जीव हो जाते हैं।

‘आकस्मिक कारक प्राकृतिक प्रवृत्तियों को सक्रिय होने के लिए प्रेरित नहीं करना, यह तो बस अवरोधों को हटा देता है।’

योग का सारा प्रयास ही अवरोधों को हटा देने का है; निषेध है इसका ढंग। वास्तव में कुछ नहीं किया जाना है क्योंकि सब कुछ है तुम्हारे पास; बस यह प्रवाहित नहीं हो रहा है। राह में कुछ चट्टानें रख दी गई हैं। तुमको राह से भटका दिया गया है। ऐसे ही है यह, जैसे खेत सींचता हुआ किसान। क्या तुमने कभी किसान को खेत सींचते हुए देखा है? पानी एक नाली में बह रहा होता है, वह जरा सी मिट्टी हटा देता है और पानी दूसरे रास्ते पर जाने लगता है। जब उस भाग की सिंचाई हो जाती है तो वह निकास पर थोड़ी सी मिट्टी वापस रख देता है, पानी उस रास्ते पर बहना बंद कर देता है। फिर वह नाली को कहीं और से खोल देता है, पानी वहां से बहना आरंभ कर देता है। पानी वहां है, उसे प्रवाहित होने के लिए पथ की आवश्यकता है। ऊर्जा तुम्हारे पास है, तुम ऊर्जावान हो, इसे केवल प्रवाहित होने के मार्ग की आवश्यकता है ताकि यह सहस्रार, उच्चतम शिखर, तुम्हारे अस्तित्व की पराकाष्ठा, तक पहुंच जाए।

‘कृत्रिमता से निर्मित मन केवल अस्मिता से ही अग्रसर होते हैं।’

और हम सभी के पास कृत्रिम मन हैं। इसी को मैं सम्मोहन कहता हूं जो समाज ने तुम पर किया हुआ है।

यहां आश्रम में हमारे यहां एक मनोचिकित्सा समूह है, और मैं इसके विषय में सोचता रहा हूं। इसे सम्मोहन चिकित्सा, हिम्मोथेरेपी कहा जाता है। लेकिन मैं इसे वि—मोहन चिकित्सा, डी—हिम्मोथेरैपी कहना पसंद करूंगा—क्योंकि आधारभूत प्रयास तुम्हें वि—मोहित करने का या अ—सम्मोहित करने का, तुमको प्रतिबंधों से मुक्त करने का है।

सभी मन कृत्रिमता से निर्मित मन हैं. ‘निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात्।’ ‘कृत्रिमता से निर्मित मन केवल अस्मिता से ही अग्रसर होते हैं।’ मैं हिंदू हूं मैं मुसलमान हूं मैं अश्वेत हूं मैं गोरा हूं मैं यह हूं वह हूं—वे सभी कृत्रिम मन हैं। मौलिक चेहरा, मौलिक मन, जिसे मनुष्य ने निर्मित नहीं किया है, उसका ही साक्षात करना है, और उसे ही जानना है।

मैने सुना है, एक छोटे अश्वेत बच्चे ने दुर्घटनावश सफेद रंग का डिब्बा अपने ऊपर उड़ेल लिया। जब वह घर लौटा तो उसके पिता ने उसकी जम कर पिटाई की और उसे सीधे बिस्तर में जाने के लिए कहा। कमरे से सुबकते हुए बाहर जाते समय उसने कहा, ‘मैं केवल बीस मिनट के लिए ही श्वेत हुआ हूं और मैं तुम अश्वेतों से अभी से नफरत करने लगा हूं!’

एक बीस मिनट पुराने बच्चे ने भी कृत्रिम मन का संचय आरंभ कर दिया है। एक बीस मिनट उम्र का बच्चा भी किसी और की तुलना में अपनी मां की ओर अधिक प्रेम से देखता है, क्योंकि उसने एक तरकीब सीख ली है। मन की संस्कारिता आरंभ हो गई; वह भोजन देने वाली है, और जीवित रह पाना भोजन पर निर्भर है। इसलिए मां चाहे कितनी भी कुरूप हो, मां हमेशा सुंदर दिखाई पड़ती है। यह जीवित बच पाने का मामला है और बच्चे ने कूटनीति सीखना आरंभ कर दी है। वह पिता को देख कर उतना अधिक नहीं मुस्कुराका। वह नहीं जानता कि यह व्यक्ति कौन है। बाद में वह जान जाएगा। धीरे— धीरे वह देखेगा कि यह व्यक्ति महत्वपूर्ण है। निःसंदेह वह घर में इतना अधिक दिखाई नहीं पड़ता लेकिन है महत्वपूर्ण। मुश्किल से रविवारों को ही वह वहां होता है, लेकिन मां तक उस पर निर्भर है, मां भी उसको देख कर मुस्कुराती है। तब बच्चा भी पिता को देख कर मुस्कुराता है। वह कृत्रिम मन सीख रहा है। वह संबंधों को निर्मित कर रहा है, अपने जीवित रहने की व्यवस्था बनाता है, एक परिस्थिति निर्मित कर रहा है— कूटनीति, राजनीति का प्रयोग करते हुए, लेकिन यह कृत्रिम मन है, जो आरंभ में जीवित रह पाने में सहायता करता है, लेकिन अंत में बड़ी से बड़ी समस्या बन जाता है।

जब तुम जीवित बच गए और तुमने कृत्रिम मन का उपयोग कर लिया होता है तो वह तुम्हारे आस— पास तुम्हारे गले में लटके पत्थर की भांति लटक जाता है। यह अहंकार बन जाता है। इसे सीखना पड़ता है, इसके बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता। प्रत्येक बच्चे को कृत्रिम मन में जाना ही पड़ेगा। लेकिन जब तुम सावधान और सजग हो जाते हो और जब तुम जीवन के बारे में सोचना और उस पर ध्यान लगाना आरंभ कर देते हो तो यह समय आ जाता है कि धीरे— धीरे इसे छोड़ दिया जाए। और अहंकार को छोड़ दो, क्योंकि अहंकार कृत्रिम मन ही है और कुछ नहीं। कृत्रिम मन का केंद्र अहंकार है। और प्रत्येक कृत्रिम मन केवल तभी जारी रह सकता है जब तुम अपने अहंकार में वृद्धि करते चले जाओ।

हिंदू कहेंगे कि उनके पास दुनिया का श्रेष्ठतम धर्म है, कि संसार में वे सर्वाधिक धार्मिक लोग हैं। वास्तव में यदि सच में ही धार्मिक होते तो वे ऐसी मूर्खता की बात नहीं कहते, क्योंकि एक धार्मिक मन सरल एवं विनम्र होता है। यह अहंकार है। फिर प्रत्येक देश का अपना अहंकार है। रूसी, चीनी, अमरीकन, जर्मन, अंग्रेज—प्रत्येक के पास उसका निजी अहंकार है और प्रत्येक देश यह अनुभव करता रहता है कि हम श्रेष्ठ हैं, विशिष्ट हैं। प्रत्येक देश अपने अहंकार को बढ़ाने के उपाय और साधन खोज लेता है, और यही कार्य प्रत्येक जाति, प्रत्येक समूह और प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष द्वारा किया जाता है। मैंने सुना है, एक हाथी ने नीचे देखा और उसको अपने पैरों के पास एक छोटा सा एक बहुत छोटा चूहा दिखाई पड़ा। मेरे प्यारे, हाथी ने कहा, तुम बहुत छोटे से हो। हां, चूहे ने सहमति दर्शाते हुए कहा, अभी कुछ दिन पहले तक मेरी तबियत खराब चल रही थी। एक चूहे तक का अपना अहंकार होता है? — उसकी तबियत खराब चल रही थी, इसीलिए वह इतना छोटा है।

कृत्रिम मन अहंकार के माध्यम से जीवित रहता है, इसलिए यदि तुम अहंकार छोड़ना आरंभ कर दो तो कृत्रिम मन छिन्न—भिन्न होने लगेगा। या यदि तुम अपने कृत्रिम मन का परित्याग कर दो, तो अहंकार विखंडित होने लगेगा। और यदि तुम वास्तव में इस चट्टान से छुटकारा पाना चाहते हो, तो दोनों उपायों को एक साथ आरंभ कर दो।

स्मरण रखो कि भौतिक मन अहं—शून्य होता है। यह मैं को नहीं जानता क्योंकि मैं एक संकुचन है। मौलिक मन आकाश की भांति असीम है।

और जहां तक अहंकार का संबंध है, एक समस्या लगातार उठती रहती है। आरंभ में तुम स्वयं के बारे में दूसरों को मूर्ख बनाने का प्रयास करते हो लेकिन धीरे— धीरे तुम स्वयं ही मूर्ख बन जाते हो। जब तुम दूसरों को विश्वास दिलाना आरंभ करते हो कि तुम कोई विशिष्ट व्यक्ति हो, तो तुम स्वयं ही अपने बारे में विश्वास करने लगते हो।

पागलखाने में एक कठोर नियम था : पालतू जानवर नहीं। वार्डर ने बेचारे हैरी को तेवर नाम के कुत्ते से बातचीत करते हुए सुना, तो वह उसकी गद्देदार कोठरी में घुस पड़ा। वहां वह डोरी के एक टुकड़े से बंधी हुई टूथपेस्ट हाथ में लिए बैठा था। क्या है यह? वार्डर ने पूछा। हैरी ने आश्चर्यचकित होकर उसे देखा, निश्चित रूप से कोई मूर्ख भी देख सकता है कि यह डोरी के एक टुकड़े में बंधी बस एक टूथपेस्ट की ट्यूब है, उसने कहा। संतुष्ट होकर वार्डर लौट गया। जैसे ही उसने अपने पीछे दरवाजा बंद किया, हैरी ने राहत की एक श्वास ली और कहा, तेवर, मेरे अच्छे बच्चे। उस समय हमने उसे निश्चित रूप से मूर्ख बना दिया।

जितना अधिक तुम दूसरों को मूर्ख बनाने में, यह सिद्ध करने में कि तुम कोई विशेष व्यक्ति हो, असाधारण हो, विशिष्ट हो, यह हो, वह हों—पागलपन के सभी विचार, जितना तुम इन्हें दूसरों के लिए सिद्ध करने में सफल होते हो, उतना ही अधिक तुम अपने आपको मूर्ख बनाने में सफल हो जाते हो। इसकी सारी मूढ़ता को देख लो।

कोई भी असाधारण नहीं है या प्रत्येक असाधारण है। कोई भी विशेष नहीं है या प्रत्येक व्यक्ति विशेष है। किंतु इसे किसी भी प्रकार से सिद्ध करने का कोई मतलब नहीं है—इसकी जरा भी आवश्यकता नहीं है।

कृत्रिमता से निर्मित मन केवल अस्मिता से ही अग्रसर होते हैं; इसलिए यदि तुम मौलिक मन पर आना चाहते हो—जो कि योग, तंत्र, झेन, सभी का पूरा प्रयास है—तो तुम्हें कृत्रिम मन का परित्याग करना पड़ेगा; वह मन जिसको समाज के द्वारा निर्मित किया गया है और तुम्हें दे दिया गया है, वह मन जिसे बाहर से बनाया गया है और तुम्हारे ऊपर थोप दिया गया है। धीरे— धीरे इसका परित्याग कर दो। जितना अधिक तुम इसको देखते हो, उतना ही अधिक तुम इसको छोड़ पाने में समर्थ हो जाते हो। जब भी तुम कृत्रिम मन से आसक्‍ति अनुभव करने लगो, जब कभी भी तुम कहो, ‘मैं एक हिंदू हूं,’ और मैं एक भारतीय हूं या मैं एक अंग्रेज हूं मैं ब्रिटिश हूं,, या यह और वह, बस स्वयं को रंगे हाथ पकड़ लो। अंदर गहरे में अपने चेहरे पर थप्पड़ लगाओ और कहो, ‘क्या बेवकूफी है।’ धीरे— धीरे समाज के द्वारा परिभाषित मत होओ। तब तुम उस अव्याख्य, अपने असली, प्रमाणिक अस्तित्व को पा लोगे।

‘यद्यपि अनेक कृत्रिम मनों की गतिविधियां भिन्न—भिन्न होती हैं, फिर भी एक मूल मन उन सभी का नियंत्रण करता है।’

इसलिए तुम्हारा कृत्रिम मन चाहे जैसा भी हो, वस्तुत:, वास्तव में, इसके पीछे छिपा मौलिक मन इन सभी का नियंत्रण करता है। नियंता को पाओ, यह खोजने का प्रयास करो कि समाज के द्वारा विकृत किए जाने से, प्रदूषित किए जाने से पूर्व, समाज के तुम्हारे भीतर प्रविष्ट होने से, तुम्हारे बारे में योजना बनाने से पूर्व, और समाज के द्वारा तुम्हारा प्रचंड रूप नष्ट करने से पूर्व मूलतः तुम कौन हो। झेन में वे इसको कहते हैं : अपने उस मौलिक चेहरे की खोज जो तुम्हारे पास तब था जब तुम्हारा जन्म नहीं हुआ था और जो तुम्हारे पास तब होगा जब तुम पुन: मरोगे; वह मौलिक चेहरा समाज के द्वारा अस्पर्शित। यही तुम्हारा स्वभाव, तुम्हारी आत्मा, तुम्हारा अस्तित्व है।

मौलिक चेहरे को उपलब्ध करके तुम्हारा पुनर्जन्म हो जाएगा, तुम एक द्विज, दुबारा जन्मे हुए हो जाओगे। तुम वास्तव में एक ब्राह्मण; वह जो जनता है, हो जाओगे। फिर पुन: प्रत्येक वस्तु तुम पर उसी भांति उद्घाटित हो जाएगी जिस भांति यह जन्म के समय उद्घाटित हुई थी, क्योंकि तुम पुन: जन्मे हुए होओगे। किंतु इस बार एक विराट अंतर होने जा रहा है, तुम सजग होओगे। पहली बार तुम चूक गए थे; इस बार तुम नहीं चूकोगे। पहली बार यह प्राकृतिक रूप से घटित हुआ था, इस बार यह तुम्हारे बोध, तुम्हारी सजगता से घटित होगा। तुम इसके प्रति चेतन होओगे। तुम स्वयं को दुबारा पुनर्जन्म लेता हुआ, जन्म लेता हुआ, अतीत से उभरता हुआ संशय और उलझन के बादलों सें—विचारों, पूर्वाग्रहों, अहंकारों, मनों, संस्कारिताओ, सभी से उदित होते हुए, कुंआरे, शुद्ध रूप में देखोगे, तब तुम पुन: उस शक्ति को, उस अस्तित्व को, जो तुम हो, देखोगे।

तो पहले यह जन्म पर घटित होता है, दुबारा वह समाधि में घटता है। मध्य में—तीन उपायों, औषधियों, मंत्र—जाप, तपश्चर्याओं के माध्यम से इसकी व्यवस्था की जा सकती है—लेकिन ये तीनों विधियां धोखेबाजी के, छल के उपाय हैं। और तुम परमात्मा के साथ छल नहीं कर सकते, तुम स्वयं के साथ छल कर सकते हो, इसको याद रखो।

आज इतना ही।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–13)

February 19, 2015, 7:04 pm

अचिंत्य-धारा के प्रतीकबिंदु कृष्ण—(प्रवचन—तेरहवां)

दिनांक 2 अक्‍टूबर, 1970;

प्रात:, मनाली (कुलू)

“एक चर्चा में आपने कहा है कि श्रीकृष्ण की आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है, क्योंकि कुछ मरता नहीं। तो कृष्ण-दर्शन को संभावितता की हद में लाने के लिए कौन-सी “प्रासेस’ से गुजरना पड़ेगा? और साथ ही यह बताएं कि कृष्ण-मूर्ति पर ध्यान, कृष्ण-नाम का जप और कृष्ण-नाम के संकीर्तन से क्या उपासना की पूर्णता की ओर जाया जा सकता है?’

विश्व अस्तित्व में कुछ भी एकदम मिट नहीं जाता। और विश्व अस्तित्व में कुछ भी एकदम नया पैदा भी नहीं होता है। रूप बदलते हैं, आकृतियां बदलती हैं, आकार बदलते हैं, लेकिन अस्तित्व गहनतम रहस्यों में जो है, वह सदा वैसा ही है। व्यक्ति आते हैं, खो जाते हैं, लहरें उठती हैं सागर पर, विलीन हो जाती हैं, लेकिन जो लहर में छिपा था, जो लहर में था, वह कभी विलीन नहीं होता।

कृष्ण को हम दो तरह से देखेंगे तो समझ में आ जाएगा। और अपने को भी फिर हम दो तरह से देख पाएंगे। एक हमारा लहर-रूप है, एक हमारा सागर-रूप है। लहर की तरह हम व्यक्ति हैं, सागर की तरह हम ब्रह्म हैं। कृष्ण का जो चेहरा देखा गया, कृष्ण का जो शरीर देखा गया, कृष्ण की जो वाणी सुनी गई, कृष्ण के जो स्वर सुने गए, वे लहर-रूप हैं। लेकिन जो इन वाणियों, इन नृत्यों, इस व्यक्तित्व के पीछे जो खड़ा है, वह सागर-रूप है। वह सागर-रूप कभी भी नहीं खोता है। वह सदा अस्तित्व के प्राणों में निवास करता है, वह सदा है ही। वह कृष्ण नहीं हुए थे तब भी था और जब कृष्ण नहीं हैं तब भी है। जब आप नहीं थे तब भी था, आप जब नहीं होंगे तब भी होगा। ऐसा समझें कि जैसे कृष्ण एक लहर की तरह जागे हैं, नाचे हैं सागर की छाती पर, किरणों में, सूरज की हवाओं में और फिर सागर में खो गए हैं।

हम सब भी ऐसे ही हैं। थोड़ा-सा फर्क है। कृष्ण जब लहर की भांति नाच रहे हैं, तब भी वह जानते हैं कि वह सागर हैं। हम जब लहर की भांति नाच रहे हैं, तब हम भूल जाते हैं कि हम सागर हैं। तब हम समझते हैं कि लहर ही हैं। चूंकि हम अपने को लहर समझते हैं, इसलिए कृष्ण को भी कैसे सागर समझ सकते हैं! फिर लहर जिस रूप में प्रकट हुई थी, जिस आकृति और आकार में प्रकट हुई थी, उस आकृति और आकार का उपयोग किया जा सकता है, उस लहर के पुनर्साक्षात्कार के लिए। लेकिन खेल सब छाया-जगत का है। दोत्तीन बातें खयाल में लेंगे तो बात पूरी स्पष्ट हो सकेगी।

कृष्ण के सागर-रूप से आज भी, अभी भी साक्षात्कार किया जा सकता है। महावीर के सागर-रूप से भी साक्षात्कार किया जा सकता है, बुद्ध के सागर-रूप से भी साक्षात्कार किया जा सकता है। जिस रूप में वे प्रकट हुए थे कभी, जो आकृति उन्होंने ली थी, उसका उपयोग इस सागर-रूप साक्षात्कार के लिए किया जा सकता है। वह माध्यम बन सकता है। मूर्तियां सबसे पहले पूजा के लिए नहीं बनी थीं। मूर्तियां सबसे पहले “इजोटेरिक साइंस’ की तरह बनी थीं। एक गुप्त-विज्ञान की तरह बनी थीं। उन मूर्तियों में, जो व्यक्ति उस रूप में जिआ था वह वायदा किया था कि इस मूर्ति पर यदि ध्यान “फोकस’ किया गया, इस मूर्ति पर पूरी तरह ध्यान किया गया, तो मेरे सागर-रूप अस्तित्व से संबंध हो सकेगा।

कभी रास्ते पर आपने किसी मदारी को “हिप्नोसिस’ का एक छोटा-सा खेल करते देखा होगा। छोटा-सा खेल है कि किसी लड़के को मदारी लिटा देता है, उसकी छाती पर एक ताबीज रख देता है, ताबीज रखने से वह बेहोश हो जाता है। बेहोश होने के बाद वह मदारी उस लड़के से बहुत-सी बातें पूछता है जो वह बताना शुरू कर देता है। आपके पास वह मदारी आता है और कहता है, कान में अपना नाम बोल दें। आप नाम बोलते हैं, वह लड़का वहां से चिल्ला देता है कि यह नाम है इस आदमी का। आप इतने धीमे बोलते हैं कि उस लड़के को सुनने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि आपके बगल का पड़ोसी भी नहीं सुन पाया है। वह मदारी कहता है, आपके खीसे में नोट रखा हुआ है, इसका नंबर कितना है? और वह लड़का नोट का नंबर बोल देता है। वह मदारी आपसे कहेगा कि यह ताबीज बड़ा अदभुत है। इस ताबीज के बदौलत इस लड़के की इतनी सामर्थ्य हो गई। बस यहीं वह धोखा देता है। फिर वह चार-आठ आने में ताबीज बेच भी लेता है। आप घर लेकर आठ आने का ताबीज छाती पर रखकर लेट जाते हैं, लेकिन कुछ नहीं होता। नहीं होगा। ताबीज से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन उस लड़के के संबंध में लेना-देना था।

“पोस्ट हिप्नोटिज्म’ की एक छोटी-सी प्रक्रिया यह है कि यदि किसी व्यक्ति को गहरी बेहोशी में डाल दिया जाए–जो कि बहुत सरल है–उस गहरी बेहोशी की हालत में यदि उसे कहा जाए कि यह ताबीज ठीक से देख लो, और जब भी इस ताबीज को हम तुम्हारी छाती पर रखेंगे तब तुम पुनः बेहोश हो जाओगे, तो उसकी अचेतन की गहराइयों में यह सुझाव बैठ जाता है। फिर कभी भी उस व्यक्ति के ऊपर वह ताबीज रखा जाए, वह तत्काल बेहोश हो जाएगा। और बेहोशी में हमारे मस्तिष्क की अचेतन शक्तियां काम करना शुरू कर देती हैं; जो हम होश में नहीं कर पाते, वह हम बेहोशी में कर लेते हैं। जितना हम होश में सुनते हैं, उससे बहुत तीव्रता से बेहोशी में सुनने लगते हैं। जितना हम होश में देखते हैं, उससे बहुत गहरा बेहोशी में देखने लगते हैं। लेकिन वह ताबीज आपके ऊपर काम नहीं करेगा, क्योंकि आपको वैसा आपके अचेतन में कोई गहरा सुझाव नहीं दिया गया है।

कृष्ण, महावीर, बुद्ध और क्राइस्ट जैसे लोग जब पृथ्वी से विदा होते हैं, तो जो उन्हें प्रेम करते हैं, जिन्होंने उन्हें चाहा है, जिन्होंने उनके निकट बहुत कुछ पाया है, वे अगर उनसे निवेदन करें कि फिर आपके इस देह-रूप के छूट जाने के बाद अगर हम आपको स्मरण करना चाहें, और संबंधित होना चाहें, तो हम क्या करें? तो अत्यंत गहरी ध्यान की अवस्था में कृष्ण अगर उनसे कह दें कि मेरी यह रही प्रतिमा, मेरा यह रहा रूप, और जब भी तुम इस पर ध्यान करोगे तो तुम तत्काल मुझसे संयुक्त हो जाओगे, मेरे सागर-रूप से। ये ध्यान की अवस्था में दी गई प्रतिमाएं हैं। ये ध्यान की अवस्थाओं में दिए गए प्रतीक हैं। ये सबके काम के नहीं हैं। आप कृष्ण की मूर्ति के सामने जिंदगी भर चिल्लाते रहें, कुछ होगा नहीं। आप महावीर की मूर्ति के सामने कितने नाचें-कूदें, कुछ होगा नहीं। ध्यान की अवस्था में पहले आपके पास यह अंतर्सुझाव चाहिए कि इस मूर्ति के द्वारा आपका संबंध उस व्यक्ति से हो सकेगा जिसकी यह मूर्ति है।

तो पहली बार जब बुद्ध, महावीर और कृष्ण जैसे लोग पृथ्वी से विदा होते हैं, तो उनके निकटतम जो वर्ग है, उसे वे सूचनाएं दे जाते हैं। पहली पीढ़ी जो उस वर्ग की होती है, वह तो उसका पूरा लाभ उठाती है। दूसरी पीढ़ी में वे लोग लाभ उठा सकते हैं जिनको पहली पीढ़ी के द्वारा पुनः वह सुझाव ध्यान की गहराइयों में चित्त में डाल दिया गया हो। धीरे-धीरे सुझाव खो जाता है, मूर्ति हाथ में रह जाती है। जैसे बाजार से आप आते हैं, ताबीज हाथ में ले आते हैं और सुझाव का कोई पता नहीं होता। फिर उस मूर्ति को रखे आप बैठे रहें जिंदगी भर, उससे कुछ होने का नहीं है।

जैसा मैंने मूर्ति के लिए कहा, मूर्ति एक “इजोटेरिक ब्रिज’ है, जिसके माध्यम से लहर-रूप व्यक्ति ने वादा किया है कि उसके सागर-रूप से पुनः संबंध स्थापित किया जा सकेगा, ठीक उसी तरह नाम भी है। नाम का भी उपयोग किया जा सकता है। लेकिन वह भी ध्यान की गहराइयों में दिया गया हो। अब गुरु लोगों के कान फूंकते रहते हैं उससे कुछ होता नहीं। क्योंकि सवाल कान फूंकने का नहीं है, सवाल तो बहुत गहरे ध्यान की अवस्था में कोई शब्द प्रतीक रूप देने से है कि उस शब्द के स्मरण करते ही, उसका उच्चारण करते ही सारी चेतना रूपांतरित हो जाएगी। ऐसे शब्दों को “बीज शब्द’ कहा जाता है। वे “सीड वर्ड्स’ हैं। उनमें बड़ा कुछ भर दिया गया है।

तो कृष्ण का नाम अगर बीज-शब्द है, उसका अर्थ यह हुआ कि अगर ध्यान की बहुत गहरी अवस्था में आपके चित्त के अतल में उसे छिपाया गया है–और बीज सदा ही गहरे और नीचे जमीन के छिपाए जाते हैं; वृक्ष तो ऊपर आते हैं, बीज सदा भूमि के नीचे अंधेरे गर्भ में होते हैं–तो अगर आपके चित्त के गहरे गर्भ में कोई शब्द डाला गया है और उस शब्द के साथ सुझाव डाला गया है, तो उसके परिणाम होने शुरू हो जाएंगे। रामकृष्ण बड़ी दिक्कत में थे। रामकृष्ण सड़क से निकल नहीं पाते थे। वह सड़क से जा रहे हैं और किसी ने कह दिया, जयरामजी, और रामकृष्ण वहीं गिर जायेंगे और ध्यानस्थ हो जायेंगे। रामकृष्ण को सड़क से ले जाना बहुत मुश्किल था। रामकृष्ण सड़क से जा रहे हैं तांगे में बैठकर, किसी मंदिर में कोई रामधुन चल रही है, वह वहीं गए! वह डूब गए वहीं। किसी के घर बैठकर बात कर रहे हैं और किसी ने राम का नाम ले दिया, वह गए! वह शब्द उनके लिए बीज है। वह शब्द पर्याप्त है उनके लिए। लेकिन हमें कठिन होगा यह मानना।

हमारे लिए भी कुछ बीज बातें हैं, वह हम समझ लें तो खयाल में आ जाए। कोई आदमी चिंतित होता है तो फौरन माथे पर हाथ रख लेता है। आप उसका हाथ नीचे रोक लें, वह बहुत बेचैनी में पड़ जाएगा। कोई आदमी परेशान होता है तो एक विशेष आसन में बैठ जाता है; आप उसको उसमें न बैठने दें, वह बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा।

डा.हरिसिंह गौर प्रिवी कौंसिल में एक मुकदमा लड़ते थे। उनकी सदा की आदत थी कि वह अपनी कोट का जो ऊपर बटन होता था, जब कभी कोई उलझन का मामला हाता और दलील करनी कठिन होती, तो कोट के ऊपर का बटन घुमाते लगते थे। जिन लोगों ने भी उनके साथ वकालत की थी उन सबको पता था कि उनका कोट के बटन पर हाथ गया कि उनकी वाणी प्रखर हो जाती थी। और वह इस तरह बोलने लगते थे जैसे कि इसके पहले बोल ही नहीं रहे थे। एक बड़ा मुकदमा था और विरोधी वकील बड़ी परेशानी में पड़ा था। उसने डा.हरिसिंह गौर के शोफर को कहा कि जितना पैसा तुझे चाहिए, वे ले ले, लेकिन कल जब तू कोट कार से उतार कर लाए, तो उसकी ऊपर की बटन तोड़कर फेंक देना। बटन उसने तुड़वाकर फिंकवा दी।

उस दिन आखिरी पैरवी थी। हरिसिंह गौर ने अपना कोट अपने गले में डाल लिया, लटका लिया और वह विवाद करने को खड़े हो गए। ठीक उस क्षण पर, जबकि उनका हाथ खोजने लगा बटन को, पाया कि बटन वहां नहीं है। वह एकदम बेहोश होकर गिर गए कुर्सी पर। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मेरी जिंदगी में पहली दफे मेरे मस्तिष्क ने काम करना एकदम बंद कर दिया। मुझे ऐसा लगा कि जैसे सब खो गया, अब मैं कुछ बोल सकूंगा नहीं, अब कुछ हो सकता नहीं। मजिस्ट्रेट से उन्हें प्रार्थना करनी पड़ी कि अब यह मुकदमा आगे के लिए टाल दिया जाए। आज मेरी कोई सामर्थ्य नहीं है।

बड़ी अजीब-सी बात मालूम पड़ती है। एक बटन इतना अर्थ रख सकता है? “एसोसिएशन’ का अर्थ है। अगर सदा ही उस बटन पर हाथ रखकर मन सक्रिय हो गया है, तो आज उस बटन को न पाकर मन एकदम निष्क्रिय हो जाएगा। यह “कंडीशन रिफ्लेक्स’ की बात है। नाम का प्रयोग भी इस भांति किया गया है। वह जो बटन था, हरिसिंह गौर के लिए बीज हो गया। साधारण बटन नहीं रहा जिससे सिर्फ कोट लगाया और अटकाया जाता है, इस बटन से उनका मन भी अटकने और लगने लगा। नाम का उपयोग इस भांति किया जा सकता है। किया गया है। लेकिन, खाली शब्द का उपयोग करने से कुछ भी नहीं होता है। खाली शब्द और बीज-शब्द में वही फर्क है। बीज-शब्द का अर्थ यह है कि आपकी अचेतन गहराइयों में उसे डाला जाए और इतने गहरे में बिठा दिया जाए कि उसके स्मरण मात्र से आप तत्काल रूपांतरित हो जाएं। तो वह बीज बन जाता है।

कृष्ण, राम, या बुद्ध, या महावीर, या और तरह के शब्द और मंत्र बीज की तरह उपयोग किए गए हैं, लेकिन अब लोग उनको ऐसे ही दोहरा रहे हैं। बैठे हुए हजार दफे राम-राम कह रहे हैं, कुछ भी नहीं होता। बीज होता तो एक बार में भी होता है, हजार बार कहने की बात न थी। और राम से ही होगा, ऐसा नहीं, कोई भी अ, ब, स शब्द को बीज बनाया जा सकता है और आपके व्यक्तित्व में गहरे में डाला जा सकता है। शब्द और मंत्र बीज बन जाए तो साधक की गहराइयों को रूपांतरित करने में उपयोगी होते हैं। हो सकते हैं। लेकिन हमारी कठिनाई यह है कि मूल सूत्र खो जाते हैं, ऊपरी बातें रह जाती हैं। कोई भी राम-राम जपता रहता है, कोई भी कृष्ण-कृष्ण चिल्लाता रहता है, उससे कुछ हो सकता नहीं। कभी नहीं होगा। जीवन भर चिल्लाने से भी नहीं होगा।

कीर्तन के लिए पूछते हैं। ध्यान का जो उपयोग हम कर रहे हैं, उसमें जो दूसरा चरण है, ठीक वही उपयोग कीर्तन का किया जा सकता है। किया जाता रहा है। जो जानते हैं उन्होंने वैसा ही उपयोग किया है। जो नहीं जानते हैं, वे सिर्फ चिल्लाते हैं, नाचते हैं। ध्यान का जो दूसरा चरण है, अगर ठीक वैसा ही उपयोग कीर्तन का, भजन का, नृत्य का किया जा सके, तो उसके बड़े व्यापक परिणाम हैं। पहला परिणाम तो यह है कि जब आप बहुत ही भाव से नाचने लगे, तो शरीर आपको अलग दिखाई पड़ने लगेगा। शरीर पृथक मालूम होने लगेगा, आप अलग मालूम होने लगेंगे। आप थोड़ी ही देर में देखने वाले हो जाएंगे, नाचने वाले नहीं। जब शरीर पूरी त्वरा में आएगा, पूरी गति में आएगा नृत्य की, तब आप अचानक एक क्षण ऐसा है जब आप पाएंगे कि आप अलग हो गए हैं। उस क्षण को अलग करने के लिए उपाय किए गए थे कि वह क्षण अलग हो जाए और आप अलग हो गए हैं। उस क्षण को अलग करने के लिए उपाय किए गए थे कि वह क्षण अलग हो जाए और आप तत्काल टूट जाएं, नृत्य बाहर रह जाए और आप अलग खड़े हो जाएं। कील अलग हो जाए, चाक घूमता रहे। और कील पहचान ले कि मैं कील हूं, और घूमता हुआ जो है वह चाक है।

नृत्य का उपयोग चाक की तरह किया गया है। जोर से घूमे, तो एक घड़ी आ जाती है जहां कील दिखाई पड़ने लगती है। यह बड़े मजे की बात है, अगर चाक और कील खड़े हों, तो कील और चाक का पता लगाना मुश्किल है कि कौन कील है और कौन चाक है, क्योंकि दोनों खड़े हैं। चाक चले, तो कील का फर्क फौरन पता चल जाता है। जो नहीं चलेगी वह पहचान में आ जाएगी। नाचें आप, आपके पीछे भीतर कुछ छूट जाएगा जो नहीं नाच रहा है। बस, वह आपकी कील है। वह आपका “सेंटर’ है। जो नाच रहा है, वह आपकी परिधि है। वह आपका चाक है। इस क्षण में अगर साक्षी हो जाएं, तो कीर्तन का अदभुत उपयोग हो गया। लेकिन अगर साक्षी न हुए और कीर्तन ही करते रहे, तो बेकार चली गई मेहनत, उसका कोई अर्थ न रहा।

प्रक्रियायें पैदा होती हैं और खो जाती हैं। खो जाती हैं इसीलिए कि सब प्रक्रियायें अनिवार्यरूपेण, मनुष्य का जैसा स्वभाव है, वह उसमें जो सार्थक है भूल जाता है और जो निरर्थक है उसको पकड़ लेता है। क्योंकि जो सार्थक है, वह गहरे में होता है, जो निरर्थक है, वह ऊपर होता है। जो निरर्थक है वह वस्त्र की तरह ऊपर होता है, जो सार्थक है, वह आत्मा की तरह भीतर होता है। जो भीतर है वह दिखाई नहीं पड़ता, धीरे-धीरे ऊपर का ही रह जाता है, भीतर का भूल जाता है। और इसलिए ऐसे वक्त आ जाते हैं, जैसे मैं ही हूं, मुझसे कोई पूछने आए कि कीर्तन से कुछ होगा तो मैं सख्ती से मना करता हूं कि कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि मैं जानता हूं कि अब कीर्तन मृत परंपरा हो गई है। अब मरा हुआ ढांचा रह गया है। वह चाक ही है, कील का पता लगाना बहुत मुश्किल है।

“चैतन्य का नृत्य-कीर्तन क्या “इंटॉक्सीकेशन’ था?’

नहीं, चैतन्य ने जरूर कीर्तन और भजन से वही पा लिया, जिसके पाने की मैं बात कह रहा हूं। चैतन्य ने नाच कर उसे पा लिया, जिसे बुद्ध और महावीर खड़े होकर पाते हैं।

ये दोनों बातें हो सकती हैं। कील को पकड़ने के दो रास्ते हो सकते हैं। एक रास्ता तो यह हो सकता है कि आप इतने खड़े हो जाएं कि आपमें कोई कंपन ही न रह जाए। कंपन ही न रह जाए कोई–इतने ठहरे हो जाएं, इतने थिर हो जाएं, “जस्ट स्टैडिंग’ की हालत रह जाए, तो उस हालत में आप कील पर पहुंच जाएंगे। या दूसरा रास्ता यह है कि आप इतने “मूवमेंट’ में हो जाएं, इतनी गति में हो जाएं कि चाक पूरा चल पड़े और कील पहचान में आ जाए। आसान दूसरा ही होगा। चाक जोर से चले तो कील का पहचानना आसान होगा। बहुत कम लोग हैं जो खड़े हुए चाक में और कील को पहचान पाएं। महावीर खड़े होकर पहचानते हैं, कृष्ण नाचकर। और चैतन्य तो कृष्ण भी जितना नहीं नाचे हैं। चैतन्य का तो कोई मुकाबला नहीं। चैतन्य के नृत्य का तो कोई हिसाब ही नहीं है। शायद पृथ्वी पर ऐसा कोई नाचा ही नहीं। और ध्यान में लेने की बात इतनी ही है कि हमारे भीतर दो–हमारी परिधि है, गतिमान है, परिवर्तन है वहां; और हमारे जो गहरे में आत्मा है वहां शाश्वतता है, “इटर्निटी’ है, वहां कोई परिवर्तन नहीं, वहां सब चुप और शांत सदा खड़ा रहा है, वह कील की भांति है, वह थिर है। उस थिर को, उस परिवर्तन-अतीत को किस भांति पहचान लें।

ध्यान का जो दूसरा चरण है, उस चरण में उस बात का ही गहरा प्रयोग किया जा रहा है; लेकिन कीर्तन मैं उसे नहीं कह रहा, क्योंकि कीर्तन शब्द अब अपदस्थ हो गया। कीर्तन शब्द ने अब अर्थ खो दिया है। सभी शब्द जैसे रुपये चल-चल कर घिस जाते हैं और घिस-घिसकर नकली हो जाते हैं–असली भी–वैसे ही शब्द भी चल-चलकर घिस जाते हैं और खराब हो जाते हैं। और एक वक्त आता है कि टकसाल में नए रुपये ढालने पड़ते हैं।

तो मुझे समझने में बहुत बार दिक्कत पड़ेगी, क्योंकि मैं नई टकसाल में जो रुपये ढाल रहा हूं वह इसीलिए ढाल रहा हूं जिस कारण से और जिस लिए पुराने सिक्के चलते थे। लेकिन पुराने सिक्के बहुत चल चुके और इतने हाथों में चल चुके कि बिलकुल घिस गए हैं। उनमें न चेहरा पहचान में आता है, न क्या लिखा है वह पहचान में आता है। न यही पता चलता है कि वे सिक्के हैं कि ठीकरे हैं; क्या हैं, कुछ पता नहीं चलता। इसलिए सब फिर से शुरू करना पड़ता है हर बार। और यह जानते हुए शुरू करना पड़ता है कि ये नये सिक्के जो आज टकसाल से निकल रहे हैं, कल ये भी हाथ में चल कर घिस जाएंगे और खराब हो जाएंगे और फिर किसी को नये सिक्के ढालने पड़ेंगे। और नये सिक्के ढालने वालों के सामने बड़ी कठिनाई आ जाती है कि उसे उन्हीं सिक्कों से लड़ना पड़ता है जिनके लिए वह जी रहा है। उन्हीं सिक्कों से लड़ना पड़ता है जिनके लिए वह फिर से ढाल रहा है। लड़ना मजबूरी हो जाती है। जब नये सिक्के बाजार में लाने पड़ते हैं तो पुराने सिक्के वापिस टकसाल में भेजने पड़ते हैं। तो मुझे वापस सिक्के आपसे छीनने पड़ते हैं कि इनको वापस टकसाल में भेजो, अब यह बेकार हो गया, अब तुम नये ले लो। लेकिन पुराने सिक्के का मोह होता है। बहुत दिन साथ रहा है। घिसा भी है तो अपने ही हाथों में घिसा है। नये सिक्के का एकदम भरोसा नहीं होता। धर्म के साथ ऐसा रोज होता है।

कीर्तन का बड़ा उपयोग किया जा सकता है। समझ लिया जाए तो कीर्तन का बड़ा अदभुत उपयोग है। लेकिन अब समझना बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि जब मैं कीर्तन कहूंगा, तब आप वही कीर्तन समझेंगे जो आप समझ रहे हैं। तब आप कहेंगे कि बिलकुल ठीक कहते हैं आप, हम तो कर ही रहे हैं कीर्तन। हम तो राम-राम कर ही रहे हैं, बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप। जब आपका मन कहता है, बिलकुल ठीक कह रहे हैं, तो मुझे ऐसा लगता है कि कहीं मैंने कुछ कहकर भूल तो नहीं की। क्योंकि आपको मैं ठीक नहीं कहना चाहूंगा। क्योंकि आप अगर ठीक होते तब तो कोई बात ही न थी। यह तो राम-राम आप कह ही रहे हैं। मैं आपके राम-राम का समर्थन नहीं कर रहा हूं। और आप तो कीर्तन करते ही रहे हैं। मैं आपके कीर्तन का समर्थन नहीं कर रहा हूं। क्योंकि अगर आप कीर्तन से पहुंच सकते होते तो पहुंच ही गए होते। वह आप नहीं पहुंचे। मैं तो कीर्तन का जो मूल है, उसकी बात कह रहा हूं, आपके कीर्तन की बात नहीं कर रहा हूं। मूर्ति का जो मूल है, उसकी बात कर रहा हूं, आपके घरों में रखी हुई मूर्तियों की चर्चा नहीं कर रहा हूं। उनको तो मैं निकालूंगा और फिंकवा दूंगा। उनको तो नहीं रखा जा सकता है।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन सब सूत्रों के पीछे कुछ भी नहीं था। उन सब सूत्रों के पीछे बहुत कुछ था। सच तो यह है कि हम सिर्फ उसी सूत्र के नाम पर हजारों साल तक गलत सूत्रों को खींच सकते हैं जिसमें कुछ हो रहा हो। नहीं तो खींच भी नहीं सकते। अगर हम किसी चीज को हजारों साल तक खींचते हैं बिना कुछ पाए, तो उसका मतलब इतना ही है कि मनुष्य की चेतना में कहीं वह अदभुत छिपा है कि उससे पाया गया था। नहीं तो हम उसे खींच नहीं सकते। कचरे को भी अगर कोई आदमी बहुत दिन तक खींचता है, तो इसलिए खींचता है कि उस कचरे में भी कभी हीरे के दर्शन हुए हैं, किसी अतीत क्षण में। नहीं तो उस कचरे को कोई खींचेगा कैसे! अगर गलत चीजें भी चलती हैं, तो इसलिए चल पाती हैं कि उन गलत के पीछे कभी कोई सत्य था जो खो गया है। अन्यथा गलत को खींचा नहीं जा सकता है।

“भगवान श्री, चैतन्य महाप्रभु का जीव-जगत जो जगदीश से भिन्न भी है और अभिन्न भी है, वह अचिंत्य भेदाभेदवाद है। वह आपके कील और पहिये के नजदीक आता है?’

बिलकुल आ जाएगा, बिलकुल आ जाएगा। चैतन्य कृष्ण को प्रेम करने वाले यात्रियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। अचिंत्य भेदाभेद, इसमें कीमती शब्द अचिंत्य है, “अनथिंकेबल’। जो सोचते हैं, वे या तो कहेंगे कि जगत में जीवन और जगत का भेद है, तो भेदवाद होगा। या वे कहेंगे कि जीवन और जगत एक है, तो अभेदवाद होगा। चैतन्य कहते हैं, दोनों हैं–भेद-अभेद दोनों हैं। एक भी हैं, भिन्न भी हैं। जैसे लहर भिन्न भी है सागर से और एक भी है। निश्चित ही। लहर भिन्न है तब तो हमने उसे नाम दिया लहर का। और एक तो है ही। अगर सागर से एक न हो तो होगी कहां! तो लहर एक भी है और भिन्न है, भेद भी है और अभेद भी है। इतना भी चिंतन में आ जाता है कि एक भी हो सकती है, भिन्न भी हो सकती हैं। उस पर एक शब्द और जड़ देते हैं वह, कहते हैं, अचिंत्य, “अनथिंकेबल’। वही शब्द बड़ा अदभुत है। वह यह कहते हैं कि अगर यह भी तुमने चिंतन से पाया, तो तुमने कुछ पाया नहीं। अगर यह भी तुमने सोच-सोच कर पाया है, तो यह सिर्फ सिद्धांत है, कुछ पाया नहीं। अगर सोचने के बाहर पाया है, तो फिर अनुभव में पाया है।

इसे समझना अच्छा होगा।

जब तक हम सोचकर पाते हैं तब तक शब्दों में ही पाते हैं। और जब हम जीकर पाते हैं तब हम शब्दों के बाहर पाते हैं, वह अचिंत्य हो जाता है। जीवन पूरा ही अचिंत्य है। उसका कोई चिंतन नहीं होता। एक आदमी प्रेम को समझे और शास्त्रों से समझ ले, तो बहुत लिखा है शास्त्रों में। शायद प्रेम के संबंध में जितना लिखा है, किसी और चीज के संबंध में नहीं लिखा है। विराट साहित्य है प्रेम का–काव्य हैं, महाकाव्य हैं, व्याख्यायें हैं, चर्चायें हैं, कोई आदमी प्रेम को समझ ले। तो समझ लेगा, प्रेम की व्याख्या कर देगा। लेकिन फिर भी प्र्रेम को उसने जाना नहीं। तो और एक आदमी है, जिसने कि प्रेम के संबंध में कुछ भी नहीं सुना, कुछ भी नहीं समझा, कुछ भी नहीं जाना, लेकिन प्रेम जिआ है। इन दोनों में फर्क क्या होगा? इनकी जानकारी का क्या भेद होगा? एक की जानकारी चिंत्य है, एक की जानकारी चिंतन से उपलब्ध हुई है। एक की जानकारी चिंत्य नहीं है, अनुभव है। अनुभव सदा अचिंत्य है। वह चिंतन से नहीं आता, चिंतन के पहले आ जाता है। और अनुभव के पीछे चिंतन चलता है। अनुभव पहले आ जाता है, चिंतन सिर्फ अभिव्यक्त करता है।

इसलिए चैतन्य कहते हैं, अचिंत्य है। और चैतन्य के कहने का अर्थ जरा ज्यादा है। ऐसे तो मीरा भी कहेगी कि सोच-समझ के परे है, लेकिन मीरा कभी बहुत सोच-समझ की स्त्री थी ही नहीं। लेकिन चैतन्य तो महातार्किक थे। चैतन्य की जो खूबी है वह यह है कि यह आदमी तो महातार्किक था। इसके तर्क का तो कोई अंत न था। इसने तो चिंतन की ऊंची-से-ऊंची शिखर को छुआ है। इसके साथ विवाद करने की सामर्थ्य न थी किसी की। विवाद में जहां खड़ा होता विजेता ही होता। तो जब यह चैतन्य इतना सब विवाद करके, इतना सब पांडित्य रचकर, इतना सब तर्क और ऊहापोह करके एक दिन कहने लगे कि अब मैं नाचूंगा और अचिंत्य को खोजूंगा, तब इसका अर्थ और हो जाता है। मीरा तो कभी कोई तार्किक थी नहीं। प्रेम उसका जीवन था। उसमें प्रेम के फूल लगे, तो सहज थे। यह आदमी उलटे थे चैतन्य। यह आदमी प्रेम के आदमी न थे और अगर प्रेम की तरफ आए तो चिंतन की पराजय से आए। किसी और से पराजित होकर नहीं, अपने ही भीतर चिंतन को पराजित पाकर कि वह जगह आ गई जहां चिंतन हार जाता है और बाहर जीवन आगे शेष रह जाता है।

इसलिए मैंने कहा कि कृष्ण के मार्ग पर चले हुए लोगों में चैतन्य का मुकाबला नहीं है। ध्यान में है मेरे कि मीरा भी उस मार्ग पर है, लेकिन चैतन्य से मुकाबला नहीं है। क्योंकि चैतन्य जैसा आदमी नाच नहीं सकता। चैतन्य जैसा आदमी मंजीरा ठोंककर सड़कों पर भाग नहीं सकता। और जब चैतन्य जैसा आदमी मंजीरा ठोंकने लगे और हरे कृष्ण, हरे राम कहकर सड़कों पर नाचने लगे, तो सोचने जैसा है। तो जरा विचारने जैसा है। ऐसे जैसे बर्ट्रेंड रसल नाचने लगें। बस, वैसे ही आदमी हैं वह। इसके वक्तव्य का मूल्य बहुत ज्यादा हो जाता है। इसके वक्तव्य का मूल्य ही यही है कि इस आदमी का नृत्य में उतर जाना और झांझ-मंजीरा पीटने लगना और यह कह देना कि अचिंत्य है वह और अब हम चिंतन छोड़ते हैं और अचिंतन से उसे पाएंगे, इस बात की खबर देता है कि चिंतन के पार भी केवल वे ही जा सकते हैं ठीक से, जो गहन चिंतन में उतरते हैं। गहन चिंतन में उतरते हैं वे एक दिन जरूर उस सीमारेखा पर पहुंच जाते हैं जहां वह “लिमिट’ आ जाती है, सीमांत आ जाता है, जहां पत्थर लगा है और लिखा है कि बुद्धि अब यहीं तक चलती है, आगे नहीं चलती। जगह है ऐसी जहां बुद्धि का सीमांत आ जाता है। इसलिए चैतन्य के वक्तव्य का बड़ा मूल्य है। वह उस पत्थर के आगे गया मूल्य है। मीरा उस पत्थर तक कभी पहुंची नहीं, उसने उस पत्थर तक कभी भी कोई यात्रा नहीं की।

“भगवान श्री, अमेरिका, इंग्लैंड, तथा अन्य देशों में आजकल “कृष्ण-चेतना-आंदोलन’ बहुत तेजी से चल रहा है और वे संकीर्तन वगैरह का बहुत उपयोग करते हैं। इससे ऐसा मालूम होता है कि कोई नया “वेराइटी आइटम’ या कोई मनोवैज्ञानिक चीज है, या कोई नया “फैड’। या क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि वहां कृष्ण-जन्म की कोई पूर्व भूमिका बन रही है?’

बड़े गहरे “इंप्लीकेशंस’ हैं। कृष्ण-चेतना का आंदोलन, “कृष्ण कांशसनेस’ का आंदोलन यूरोप-अमेरिका में रोज जोर पकड़ता जाता है। जैसे किसी दिन चैतन्य बंगाल के गांवों में नाचते हुए गूंजे व निकले थे, वैसा आज न्यूयार्क और लंदन की सड़कों पर भी हरिकीर्तन सुनाई पड़ता है। यह आकस्मिक नहीं है।

असल में जहां चैतन्य व्यक्तिगत रूप से थक गए थे वहां पश्चिम सामूहिक रूप से थक रहा है। चैतन्य सोच-सोचकर व्यक्तिगत रूप से थक गए थे और पाया था कि सोचने से पार नहीं है, और पश्चिम सामूहिक रूप से सोचने से थक गया है। सुकरात से लेकर बर्ट्रेंड रसल तक पश्चिम ने सिर्फ सोचा ही है और सोच-सोचकर ही खोजने की कोशिश की है सत्य को। बड़ी विराट साधना थी यह भी, बड़ा अनूठा प्रयोग था कि पश्चिम ने अपने पूरे प्राण इस बात पर लगा दिए हैं, सुकरात से लेकर रसल तक, कि हम सोचकर ही सत्य को पा लेंगे और सत्य को किसी-न-किसी तरह “लाजिक’ और तर्क की सीमा में उपलब्ध करना है। और उस सत्य को पश्चिम निरंतर इनकार करता रहा है जो तर्क की सीमा में नहीं आता है। जो अतक्र्य है, उसको उसने कहा, नहीं हम मानेंगे जब तक हमारी बुद्धि और मस्तिष्क स्वीकार नहीं कर लेते।

इन पच्चीस सौ साल की यात्रा में पश्चिम ने गहन तर्क किया है। पश्चिम सामूहिक रूप से थक गया और सत्य की कोई झलक नहीं मिली। बार-बार लगा कि यह रहा, यह रहा, अब पास है, पास है, और पास पहुंचकर पाया कि नहीं, फिर “कांसेप्ट’ ही हाथ में रह गए, सिद्धांत ही हाथ में रह गए, सत्य नहीं है।

पश्चिम की सामूहिक चेतना, “कलेक्टिव कांशसनेस’ उस जगह आ रही है जहां चैतन्य व्यक्तिगत रूप से आ गए हैं। इसलिए पश्चिम में “एक्सप्लोज़न’ संभावी है–जो हो रहा है। वसंत के पहले फूल आने शुरू हो गए हैं। जगह-जगह विस्फोट हो रहा है। पश्चिम की युवा पीढ़ी जगह-जगह टूट रही है और जगह-जगह उसने अचिंत्य की दिशा में कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। और अगर अचिंत्य की दिशा में कदम रखने हैं, तो कृष्ण से ज्यादा ठीक प्रतीक दूसरा नहीं है। महावीर के वक्तव्य बहुत तर्कयुक्त हैं। अगर महावीर रहस्य की बात भी करते हैं तो भाषा सदा तर्क की है। अगर महावीर कभी भी कोई बात करते हैं, तो विचार की संगति कभी भी टूटती नहीं। बुद्ध अगर पाते हैं कि कोई बात रहस्य की है, तो चर्चा करने से इनकार कर देते हैं। उसकी चर्चा नहीं करते। वह कह देते हैं, अव्याख्येय। इसकी बात नहीं होगी। बात वहीं तक करेंगे, जहां तक तर्क है।

पश्चिम के चित्त में आज जो तनाव है, वह चिंतन से पैदा हुआ तनाव है। जो “एंग्जाइटी’ है, जो “मेंटल एंग्विश’ है, जो संताप है, वह परम तक चिंतन को खींचने का परिणाम है। “अल्टीमेट’ तक चिंतन को खींचा गया है, जहां उसकी दम टूटी जा रही है। वहां नई पीढ़ियां बगावत करेंगी। यह बगावत बहुत रूपों में प्रकट होगी। क्योंकि चैतन्य एक आदमी थे, एक रूप में होगी। एक पीढ़ी जब बगावत करती है, तो बहुत रूपों में प्रगट होगी। उस अचिंत्य में यात्रा करने के लिए कोई भजन-कीर्तन कहकर कृष्ण-नाम जपने लगेगा, कोई उस अचिंत्य में प्रवेश करने के लिए भारत चला जाएगा और हिमालय की यात्रा करने लगेगा। कोई उस अचिंत्य की खोज में झेन फकीरों के पास जापान चला जाएगा। वह अचिंत्य की खोज चल रही है।

लेकिन, मुझे लगता है कि कृष्ण इस अचिंत्य की खोज में धीरे-धीरे पश्चिम के निकट आते चले जाएंगे। एल.एस.डी. दूरगामी साथी नहीं हो सकता। और कब तक लोग भारत की यात्रा करते रहेंगे और कितने लोग यात्रा करते रहेंगे? और कब तक लोग जापान में जाकर झेन फकीरों के चरणों में बैठते रहेंगे? पश्चिम को अपनी ही चेतना खोजनी पड़ेगी। यह उधार बातें ज्यादा देर नहीं चल सकती हैं।

तो पश्चिम के चित्त में वह घटना टूट रही है और बड़े मजे की बात है अगर हिंदुस्तान में आप किसी व्यक्ति को भजन-कीर्तन करते देखें, तो उसके चेहरे पर वह आनंद का भाव नहीं होगा जो लंदन के लड़के और लड़कियां जब भजन-कीर्तन करते हैं तो उनके चेहरे पर है। हमारे लिए वह पिटा-पिटाया क्रम है, घिसा हुआ सिक्का है। हम सब भलीभांति जानते हैं कि क्या कर रहे हैं। उनके लिए बड़ा नया सिक्का है। वह उनके लिए छलांग है। हमारे लिए परंपरा है, हमारे लिए “ट्रेडीशन’ है, उनके लिए बिलकुल “एंटी-ट्रेडीशनल’ है। जब सड़क से लंदन की कोई गुजरता है मंजीरे बजाते हुए और नाचते हुए, तो ट्रैफिक का पुलिस वाला भी खड़ा होकर सोचता है कि दिमाग खराब हो गया! हमारे मुल्क में कोई नहीं सोचेगा। नहीं कोई करता है, उसी का दिमाग खराब है। जो करता है, उसका दिमाग तो बिलकुल ठीक है। लेकिन दुनिया के धर्म पागलों से चलते हैं, बुद्धिमानों से नहीं। दुनिया में सारे-के-सारे, जिनको “ब्रेक थ्रू’ कहें हम, जहां चीजें टूटती हैं और बदलती हैं, वे पागलों से होती हैं, दीवानों से होती हैं। हमारे मुल्क में भजन-कीर्तन करना दीवानगी नहीं है। कभी रही होगी। चैतन्य जब बंगाल में नाचा तो दीवाना था। लोगों ने समझा कि पागल हो गया। अब नहीं है वह बात! “ट्रेडीशन’ सबको पचा जाती है, बड़े-से-बड़े पागलों को पचा जाती है। उनको भी जगह बना देती है कि यह रहा तुम्हारा घर, तुम भी विश्राम करो।

पश्चिम में एक विस्फोट की हालत है। इसलिए पश्चिम का युवा-चित्त जब नाचता है, तो उस नाच में बड़ी मोहकता है, बड़ी सरलता है। कृष्ण-जन्म की कोई तैयारी नहीं हो रही, लेकिन कृष्ण-चेतना के जन्म की तैयारी जरूर हो रही है। कृष्ण-चेतना का कोई संबंध कृष्ण से नहीं है। कृष्ण-चेतना प्रतीक शब्द है, जिसका मतलब है ऐसी चेतना की संभावना पश्चिम में हो रही है कि लोग काम को छोड़ेंगे और उत्सव को पकड़ेंगे। हां, “सिंबालिक’, प्रतीकात्मक रूप से काम बेमानी हो गया। पश्चिम बहुत काम कर चुका, पश्चिम बहुत चिंतन कर चुका, पश्चिम बहुत…मनुष्य जो भी कर सकता था मनुष्य की सीमाओं में वह सब कर चुका और थक गया, बुरी तरह थक गया। या तो पश्चिम मारेगा, या कृष्ण-चेतना में प्रवेश करेगा। और मरता तो कुछ नहीं। कृष्ण-चेतना में प्रवेश करना होगा।

क्राइस्ट उतने प्रतीकात्मक आज पश्चिम को नहीं मालूम होते हैं। उसका भी वही कारण है, “ट्रेडीशन’। क्राइस्ट अब “ट्रेडीशन’ हैं और कृष्ण अब “एंटी-ट्रेडीशन’ हैं। कृष्ण जो हैं वह चुनाव है; और क्राइस्ट जो हैं वह कोई चुनाव नहीं है, आरोपण है। फिर क्राइस्ट गंभीर हैं। और पश्चिम गंभीरता से ऊब गया है। “टू मच सीरियसनेस’ अंततः “डिसीज्ड़’ हो जाती है। बहुत ज्यादा गंभीरता गहरे में रुग्णता बन जाती है। तो पश्चिम गंभीरता से उठना चाहता है। “क्रास’ का बड़ा गंभीर प्रतीक है। “क्रास’ पर लटका हुआ जीसस बड़ा गंभीर व्यक्तित्व है। पश्चिम घबड़ा गया है। हटाओ “क्रास’ को, लाओ बांसुरी को। और “क्रास’ के खिलाफ अगर कोई भी प्रतीक दुनिया में खोजने जाएंगे तो बांसुरी के सिवा मिलेगा भी क्या! इसलिए कृष्ण की “अपील’ और कृष्ण के निकट आने की संभावना पश्चिम के चित्त की रोज बढ़ती चली जाएगी।

और भी कारण हैं।

कृष्ण के करीब सिर्फ “एफ्युलेंट सोसाइटी’ हो सकती है। कृष्ण के करीब सिर्फ वैभव-संपन्न समाज हो सकता है। क्योंकि बांसुरी बजाने की चैन गरीब, दीन-दरिद्र समाज में नहीं हो सकती। कृष्ण जिस दिन पैदा हुए उन दिनों के मापदंड से कृष्ण का समाज काफी संपन्न समाज था। खाने-पीने को बहुत था। दूध और दही तोड़ा-फोड़ा जा सकता था। दूध और दही की मटकियां सड़कों पर गिराई जा सकती थीं। उन दिनों के हिसाब से, उन दिनों के “स्टैंडर्ड आफ लिविंग’ से संपन्न समाज था–संपन्नतम समाज था। सुखी लोग थे, खाने-पीने को बहुत था। पहनने-ओढ़ने को बहुत था। एक आदमी काम कर लेता और पूरा परिवार बांसुरी बजा सकता था। उस संपन्न क्षण में कृष्ण की “अपील’ पैदा हुई थी।

पश्चिम अब फिर आज के मापदंडों के हिसाब से संपन्न हो रहा है। शायद भारत में कृष्ण के लिए अभी बहुत दिन तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अभी भारत के मन में कृष्ण बहुत ज्यादा गहरे नहीं उतर सकते। क्योंकि दीन-दरिद्र समाज बांसुरी बजाने की बात नहीं सोचता, उसको तो लगता है, क्राइस्ट ही ठीक हैं। जो खुद ही सूली पर लटका है रोज, उसके लिए क्राइस्ट ही ठीक मालूम पड़ सकते हैं। इसलिए यह बड़ी अनहोनी घटना घट रही है कि हिंदुस्तान में रोज-रोज क्राइस्ट का प्रभाव बढ़ रहा है और पश्चिम में रोज क्राइस्ट का प्रभाव कम हो रहा है। अगर कोई यह सोचता हो कि यह “मिशनरी’ लोगों को बरगला कर और ईसाई बना रहा है, इतना ही काफी नहीं है। ईसा का प्रतीक हिंदुस्तान के दीन-दुखी मन के बहुत करीब पड़ रहा है। सिर्फ “मिशनरी’ बरगला नहीं सकता। अगर वह बरगला भी सकता है तो सिर्फ इसीलिए कि वह प्रतीक निकट आ रहा है। अब कृष्ण की स्वर्ण-मूर्ति और राम के वैभव में खड़ी हुई मूर्तियां हिंदुस्तान के गरीब मन के बहुत विपरीत पड़ती हैं। बहुत दूर न होगा वह दिन जिस दिन कि हिंदुस्तान का गरीब अमीर पर ही न टूटे, कृष्ण और राम पर भी टूट पड़े। इसमें बहुत कठिनाई नहीं होगी। क्योंकि ये स्वर्ण-मूर्तियां नहीं चल सकतीं। लेकिन क्राइस्ट का सूली पर लटका हुआ व्यक्तित्व गरीब के मन के बहुत करीब आ जाता है। हिंदुस्तान के ईसाई होने की बहुत संभावनाएं हैं, उसी तरह, जैसे पश्चिम के कृष्ण के निकट आने की संभावनाएं हैं।

पश्चिम के मन में अब “क्रास’ का कोई अर्थ नहीं रहा है। न पीड़ा है, न दुख है। वे दुख और पीड़ा के दिन गए। सचाई यह है कि अब एक ही दुख है कि संपन्नता बहुत है, इस संपन्नता के साथ क्या करें! सब कुछ है, अब इसके साथ क्या करें! निश्चित ही कोई नाचता हुआ प्रतीक, कोई गीत गाता प्रतीक, कोई नृत्य करता प्रतीक पश्चिम के करीब पड़ जाएगा। और इसलिए पश्चिम का मन अगर कृष्ण की धुन से भर जाए, तो आश्चर्य नहीं है।

“भगवान श्री, पश्चिम में “कृष्ण कांशसनेस’ के आंदोलन का नेतृत्व “इर्रेशलन’ कवि एलन गिन्सबर्ग ने लिया है। चिंतक वर्ग पर अभी तक कोई प्रभाव पड़ा नहीं लगता। दूसरा आप “एफ्लुयेंट सोसाइटी’ की कल ही बात करते थे। वे चतुर्वर्ण थे। गीता में भी, भागवत में भी सुदामा का जो वर्णन आता है उसमें वह दारिद्रय का प्रतीक है। कृष्ण के जमाने में भी सुदामा “पावर्टी का प्रतीक था। गीता में “कलौ केशव कीर्तनात्’ और “यज्ञानाम् जपयज्ञस्मि’ का क्या अर्थ है?’

नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उस दिन कोई गरीब न था और न मैं यह कह रहा हूं कि आज पश्चिम में कोई गरीब नहीं है। यह मैं नहीं कह रहा हूं। खोजने से पश्चिम में गरीब मिलेंगे ही। गरीब तो हैं ही। समाज गरीब नहीं है। गरीब उस दिन भी थे, सुदामा उस दिन भी था। लेकिन समाज गरीब नहीं था। समाज की गरीबी और बात है, गरीब व्यक्ति खोज लेना और बात है। आज हम भारत के समाज को गरीब कह सकते हैं, हालांकि बिड़ला भी मिलेंगे। लेकिन बिड़ला के कारण भारत का समाज अमीर नहीं हो सकता। सुदामा के कारण उस दिन समाज गरीब नहीं हो सकता।

हिंदुस्तान के इतने गरीब समाज में अमीर तो मिलेगा ही। पश्चिम के, अमरीका के संपन्न समाज में भी गरीब तो मिलेगा ही। यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि बहुजन, समाज का पूरा-का-पूरा ढांचा संपन्न था। जो उस दिन जीवन की सुविधा थी, वह अधिकतम लोगों को उपलब्ध थी। आज अमरीका में जो जीवन की सुविधा है, वह अधिकतम लोगों को उपलब्ध है। संपन्न समाज में उत्सव प्रवेश कर सकता है, गरीब समाज में उत्सव प्रवेश नहीं कर सकता। गरीब समाज में उत्सव धीरे-धीरे विदा होता जाता है। या कि उत्सव भी फिर एक काम बन जाता है। गरीब समाज उत्सव भी मनाता है, दिवाली भी मनाता है, तो कर्ज लेकर मनाता है। होली भी खेलता है तो पिछले वर्ष के पुराने कपड़े बचाकर रखता है। होली के दिन फटे-पुराने कपड़ों को सिलाकर निकल आता है। अब जब होली ही खेलनी है तो फटे-पुराने कपड़ों से खेली जा सकती है। तो मत ही खेलो। होली का मतलब ही यह है कि कपड़े इतने ज्यादा हैं कि रंग में भिगाए जा सकते हैं। गरीब आदमी भी होली तो खेलेगा, लेकिन वह पुराने ढांचे को ढो रहा है सिर्फ। नहीं तो होली के दिन जो सबसे अच्छे कपड़े थे वही पहनकर निकलते थे लोग। उसका मतलब ही यह था कि इतने कपड़े हैं, तुम रंग डालो! लेकिन जिससे हम रंग डलवाने जा रहे हैं, उसको भी धोखा दे रहे हैं, कपड़ा पुराना, सी-सीकर आ गए हैं, धुलवाकर आ गए हैं। वह रंग डालने वाले को भी धोखा दे रहे हैं। तो रंग डालने का मतलब ही क्या था? जिन लोगों ने कपड़ों पर रंग डालने का खेल खेला होगा, उसके पास कपड़े जरूरत से ज्यादा रहे होंगे, अन्यथा नहीं खेल सकते हैं यह खेल। हम भी खेल रहे हैं, लेकिन हमारा खेल सिर्फ एक ढोना है एक रूढ़ि को। इसलिए दिल दुखता है। होली के दिन कोई कपड़े पर रंग डाल जाता है तो दिल दुखता है। दिल खुश होना चाहिए कि किसी ने रंग डालने योग्य माना, लेकिन दिल दुखता है। दुखेगा, क्योंकि कपड़े भारी महंगे पड़ गए हैं, अब कपड़े इतने आसान नहीं रह गए हैं। हां, पश्चिम में होली खेली जा सकती है। अभी कृष्ण का नृत्य चल रहा है, आज नहीं कल होली पश्चिम में प्रवेश करेगी, इसकी घोषणा की जा सकती है। पश्चिम होली खेलेगा। अब उनके पास कपड़े हैं, रंग भी है, समय भी है, फुर्सत भी है, अब वे खेल सकेंगे। और उनकी होली में एक आनंद होगा, उत्सव होगा, जो हमारी होली में नहीं हो सकता है।

संपन्नता से मेरा मतलब है, “ऑन द होल’ पश्चिम का समाज संपन्न हुआ है। और जब पूरा समाज संपन्न होता है, तो जो उस समाज में दरिद्र होता है वह भी उस समाज के संपन्न से बेहतर होता है, जो समाज दरिद्र होता है। यानी आज अमरीका का दरिद्रतम आदमी भी पैसे पर उतना पकड़ वाला नहीं है, जितना हिंदुस्तान का संपन्नतम आदमी है। हिंदुस्तान के अमीर-से-अमीर आदमी की पैसे पर पकड़ इतनी ज्यादा है–होगी ही–क्योंकि चारों तरफ दीन-दरिद्र समाज है। अगर वह जोर से न पकड़े तो कल वह भी दीन-दरिद्र हो जाएगा।

मैंने सुनी है एक घटना कि एक भिखारी बहुत मस्त, स्वस्थ, तगड़ा भिखारी एक घर के सामने भीख मांग रहा है। गृहणी ने उसे दिया है कुछ, दिल खोलकर दिया है। फिर उसकी तरफ गौर से देखा है कि वह स्वस्थ है, सुंदर है। उसने उससे पूछा कि तुम्हें देखकर तो ऐसा नहीं लगता कि गरीब के घर में पैदा हुए हो, लेकिन गरीब कैसे हो गए? तो उसने कहा, इसी भांति जिस भांति तुम हो जाओगी। जितने मजे से तुमने दिया है, इतने मजे से मैं देता रहा। ज्यादा देर न लगेगी कि तुम सड़क पर आ जाओगी।

जब चारों तरफ गरीब समाज हो तो धन की पकड़ पैदा होती है। अमीर-से-अमीर आदमी धन को पकड़ लेता है। जब समाज संपन्न हो तो गरीब-से-गरीब आदमी धन को छोड़ पाता है। क्योंकि कोई डर नहीं है, कल फिर मिल सकता है। कोई असुरक्षा नहीं है। कोई भय नहीं है।

इस अर्थ में मैंने कहा। और इस अर्थ में भी कहा। दूसरी बात जो पूछी है, वह भी सोच लेनी चाहिए। वह यह पूछी है कि पश्चिम में एलन गिन्सबर्ग और इस तरह के लोगों से वह जो “ब्रेक थ्रू’ है, वह जो छलांग है, आ रही है। ये सारे-के-सारे लोग, चाहे “एक्जिस्टेंशियलिस्ट’ हों और चाहे बीटल हों और चाहे बीटनिक हों और चाहे हिप्पी हों और चाहे इप्पी हों, किसी भी तरह के लोग हों, ये सारे-के-सारे लोग “इर्रेशनलिस्ट’ हैं, ये सारे-के-सारे लोग अबुद्धिवादी हैं।

पश्चिम का कोई बुद्धिवादी अभी इन बातों से प्रभावित नहीं है। इसके कारण हैं।

यह जो अबुद्धिवादी पीढ़ी पश्चिम में पैदा हुई है, जो “इर्रेशनलिस्ट जेनरेशन’ पैदा हुई है, यह पिछली पीढ़ी के अति बुद्धिवाद से पैदा हुई है। यह उसकी प्रतिक्रिया है। असल में किसी समाज में अबुद्धिवादी तभी पैदा होते हैं जब बुद्धिवाद चरम पर पहुंच जाता है। नहीं तो पैदा नहीं होते। रहस्य की बात तभी शुरू होती है जब तर्क बिलकुल प्राण लेने लगता है। परमात्मा की बात तभी शुरू होती है जब पदार्थ छाती पर पत्थर होकर बैठ जाता है। और ध्यान रहे, गिन्सबर्ग, या सार्त्र, या कामू, या कोई और ये सारे लोग घूम-फिर कर जहां “एब्सर्ड’ में खो जाते हैं, अतक्र्य में खो जाते हैं, उससे आप यह मत समझ लेना कि ये हमारे ग्रामीण अबुद्धिवादी जैसे लोग हैं। ये अपने अबुद्धिवाद में बड़े बुद्धिवादी हैं। इनका वह जो अतक्र्य होना है, अचिंत्य होना है, वह ऐसा नहीं है जो श्रद्धालु का है। वह किसी श्रद्धालु का अचिंत्य होना नहीं है। वह चैतन्य जैसा ही है। वह उसका ही अचिंत्य होना है जिसने चिंतन कर-करके, थक-थककर पाया है कि बेकार है। तो गिन्सबर्ग के वक्तव्य, या उसकी कविता अगर “एब्सर्ड’ है, अगर अतक्र्य है, या बुद्धि के परे है, या अबुद्धिवादी है, या बुद्धिविरोधी है, तो ध्यान रखना, उसके इस अबुद्धिवादी होने में भी एक “सिस्टम’ है, एक व्यवस्था है।

नीत्से ने कहीं कहा है कि मैं पागल हूं, “बट माइ मैडनेस हैज इट्स ओन लाजिक’। लेकिन मरे पागल होने का अपना तर्क है। मैं कोई ऐसे ही पागल नहीं हूं। मैं कोई ऐसा पागल नहीं हूं जैसे पागल होते हैं। मेरे पागल होने का भी कारण है। मेरे पागल होने की भी “सिस्टम’ है।

यह अबुद्धिवादी जो है, जानकार है। होशपूर्वक है। चेष्टापूर्वक है। इस अबुद्धिवाद का अपना आग्रह है। इस अबुद्धिवाद में बुद्धिवाद का स्पष्ट विरोध है, खंडन है। निश्चित ही जब अबुद्धिवाद खंडन करता है, विरोध करता है, तो तर्कों से नहीं करता है। क्योंकि अगर वह तर्कों से करे, तो वह खुद ही बुद्धिवादी हो जाता है। नहीं, वह अतक्र्य जीवन-व्यवस्था से करता है। गिन्सबर्ग एक छोटी-सी “पोएट गेदरिंग’ में कविता पढ़ रहा था। और कविता उसकी बेमानी है, “मीनिंगलेस’ है। एक कड़ी की दूसरी कड़ी से कोई संगति नहीं है। पहली कड़ी और दूसरी कड़ी में कोई तालमेल नहीं है। प्रतीक सब बेहूदे हैं। प्रतीकों का परंपरा से कोई संबंध नहीं है। बड़ा दुस्साहस है। असंगत दीखने से बड़ा दुस्साहस जगत में दूसरा नहीं है। इसलिए असंगत होने का दुस्साहस केवल वही कर सकता है, जिसे प्राणों के बहुत गहरे में संगति का भाव हो। जो जानता है कि मैं संगत हूं ही। कितना ही असंगत वक्तव्य दूं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरी संगति सुरक्षित है।

जिनकी संगति बहुत आत्मिक नहीं है, वे एक-एक वक्तव्यों को तौलत्तौलकर चलेंगे, एक-एक वाक्य को तौलत्तौलकर चलेंगे, क्योंकि डर है कि अगर दो वक्तव्य असंगत हो गए, तो भीतर की असंगति प्रगट न हो जाए। जो भीतर बिलकुल ही “कंसिस्टेंट’ है, “ही कैन एफॅर्ड टू बी इनकंसिस्टेंट’, वह “इनकंसिस्टेंट’ हो सकता है। तो वह गिन्सबर्ग बड़ी असंगत कविता कह रहा है। बड़ा दुस्साहस है। एक आदमी खड़े होकर कहता है कि बड़े दुस्साहसी आदमी मालूम पड़ते हो। लेकिन, कविता करने से क्या होगा? कोई “एक्ट’, कोई “डीड’, कोई कृत्य करके दिखाओ साहस का। तो गिन्सबर्ग सारे कपड़े छोड़कर नंगा खड़ा हो जाता है। सारे कपड़े छोड़ देता है, नंगा खड़ा हो जाता है। वह कहता है, यह मेरी कविता की आखिरी कड़ी है। वह उस आदमी से कहता है, कृपा करो और तुम भी नंगे खड़े हो जाओ। वह आदमी कहता है यह मैं कैसे हो सकता हूं! यह मैं कैसे हो सकता हूं! और वह हाल सकते में आ जाता है। क्योंकि किसी को खयाल न था कि कविता का अंत ऐसा हो सकता है, या कविता की ऐसी कड़ी आखिरी हो सकती है। उससे लोग पूछते हैं, गिन्सबर्ग, तुमने ऐसा क्यों किया? गिन्सबर्ग कहता है कि हम सोचकर नहीं करते हैं। ऐसा हो गया। ऐसा हो गया! मुझे ऐसा लगा कि अब क्या करूं? वह आदमी पूछता है, कुछ करके दिखाओ। अब मैं क्या करूं! यहां कौन-सा साहस करूं! यह कैसे करूं! अब मैं क्या करूं, यह आदमी कहता है कि साहस कुछ करके दिखाओ, तो अब कविता को कहां अंत करूं?

मगर यह “स्पांटेनियस’ है, यह कोई सोचा-विचारा नहीं है, लेकिन अतक्र्य है। कविता से इसका कोई संबंध नहीं है। कोई कालिदास, कोई भवभूति, कोई रवींद्रनाथ यह नहीं कर सकते। वे कवि हैं, परंपरा से बंधे हुए कवि हैं। यह हम सोच ही नहीं सकते कि कालिदास ऐसा करेंगे। यह सोच ही नहीं सकते कि भवभूति ऐसा करेंगे। यह हम सोच ही नहीं सकते कि रवींद्रनाथ ऐसा करेंगे। यह नहीं हो सकता। यह खयाल में ही नहीं हो सकता। यह आदमी कर पा रहा है। यह यही कह रहा है कि तर्क से सोच-सोचकर कब तक जियोगे? कब तक तुम “सिलोजिज्म’, तुम्हारी जिंदगी होगी? कब तक तुम दो और दो जोड़कर जिंदा रहोगे? कब तक तुम हिसाब, खाते-बही करोगे और जिंदा रहोगे? छोड़ो खाते-बही, छोड़ो हिसाब और जिंदा रहो। अब यह जिंदा रहना कैसा होगा?

इसलिए गिन्सबर्ग जैसे व्यक्ति मेरे लिए गांव के गंवार, ग्रामीण श्रद्धालु नहीं हैं। यह एक बहुत पक्की गहरी बुद्धिवादी परंपरा की आखिरी कड़ी है। और जब बुद्धिवादी परंपरा मरती है, जब वह सीमा पर पहुंच जाती है, जब उसे इनकार करने वाले लोग पैदा होते हैं…मैं मानता हूं, कृष्ण भी बहुत बड़ी बुद्धिवादी परंपरा की आखिरी कड़ी हैं। हिंदुस्तान बुद्धि के चरम शिखर छुआ है। हमने शब्दों की खाल उधेड़ डाली है। हमने बाल को काटने की, बीच से चीरने की कोशिश की है। हमारे पास बहुत ऐसा साहित्य है, जो दुनिया की किसी भाषा में अनुवादित नहीं हो सकता, क्योंकि इतने बारीक शब्द दुनिया की किसी भाषा के पास नहीं हैं। हमारे पास ऐसे शब्द हैं, जो पूरे पृष्ठ पर एक ही शब्द होता है। क्योंकि हम इतने विशेषण लगाते हैं उसमें और इतनी शर्तें लगाते हैं और इतनी बारीकियां करते हैं कि पूरे पृष्ठ पर एक ही शब्द फैल जाता है। कृष्ण भी एक अत्यंत बुद्धिवादी परंपरा का आखिरी छोर हैं, जहां हम सोच चुके हैं, जहां हम वेद सोच चुके हैं और जहां हम उपनिषद सोच चुके हैं और जहां हम पतंजलि सोच चुके हैं और जहां हम कपिल और कणादि सोच चुके हैं और जहां हमने समस्त, वृहस्पति से लेकर, सब सोच डाला है और सोच-सोचकर हम बुरी तरह से थक गए हैं, उसकी आखिरी कड़ी में यह आदमी कृष्ण आता है। यह कहता है, अब बहुत सोचना हो गया, अब हम जीना शुरू करें। “लेट अस नाव लिव, इनफ आफ थिंकिंग'; बहुत हो चुका सोचना, अब जियेंगे कब?

और दूसरी बात भी इस संदर्भ में आपसे कहूं कि चैतन्य भी बंगाल में ऐसे ही समय में आते हैं। बंगाल में “नव्व न्याय’ ने, मनुष्यजाति ने चिंतन की जो आखिरी कड़ियां छुई हैं, वह छुई। जिस गांव में चैतन्य पैदा हुए, वह हिंदुस्तान के तार्किकों का अन्यतम गांव है। वह नवदीप, जहां वे जन्मे, हिंदुस्तान के श्रेष्ठतम तार्किक नवदीप में इकट्ठे थे। वह काशी थी तार्किकों की। हिंदुस्तान भर का तर्क नवदीप में जन्म रहा था और “नव्व न्याय’ वहां पैदा हुआ। वहां हमने तर्क की नई ऊंचाइयां छुईं, जो अभी पश्चिम छूने को है। अभी पश्चिम के पास जो भी तर्क है सब “ओल्ड’ है, नव्व नहीं है। अभी अरस्तू पश्चिम के लिए तर्कशास्त्री है। नवदीप में हमने अरस्तू के आगे कदम बढ़ाया, नवदीप में हमने तर्क को उसकी आखिरी सीमा पर पहुंचा दिया। इतना ही कह देना काफी था कि कोई पंडित नवदीप से आता है, फिर उससे कोई विवाद नहीं करता था। उससे विवाद करना बेकार था। उससे झगड़े में पड़ना बेकार था। वह नवदीप से आता है, इतनी गवाही काफी थी कि वह जीत का “सर्टिफिकेट’ लेकर आता है। उससे तर्क में जीतने का कोई कारण नहीं, लड़ने की झंझट में पड़ना उचित नहीं। उस नवदीप में चैतन्य पैदा हुए हैं। चैतन्य खुद भी वैसे ही तार्किक हैं। उन्होंने बड़े तार्किकों को उस नवदीप में हराया। उस नवदीप में जीतने के लिए हिंदुस्तान से तार्किक जाते थे और जो आदमी नवदीप में जाकर जीत जाता था, उसकी डुगडुगी सारे देश में बज जाती कि इससे बड़ा बुद्धिशाली कोई आदमी नहीं है! नवदीप जीत लिया, तो समस्त संसार जीत लिया। नवदीप जीतकर लौटना मुश्किल था।

अक्सर ऐसा ही होता था कि लोग जीतने आते थे और हारकर नवदीप के शिष्य हो जाते थे। वहां कोई एकाध तार्किक न था, वहां घर-घर तार्किक थे। वह पूरा गांव तार्किकों का था। वहां एक से जीतिये तो दूसरा खड़ा था, वहां दूसरे से जीतिये तो तीसरा खड़ा था। वहां सीढ़ियां-दर-सीढ़ियां थीं। वहां पूरे नवदीप को जीतकर लौटना असंभव था। उस नवदीप में चैतन्य सबसे जीत गया। उस नवदीप में चैतन्य ने झंडा गाड़ दिया और उससे तर्क में कोई जीतने को न रहा और एक दिन यही चैतन्य जब झांझ-मंजीरा लेकर सड़क पर नाचने लगा और इसने कहा, अचिंत्य है सब, तब इसकी बात का बड़ा अर्थ है। यह उसी तर्क की आखिरी परंपरा का हिस्सा है। यह चैतन्य उस तर्क की गहनतम चिंतना, खोज, अन्वेषण, बारीक-से-बारीक समझ के बाद यह कहता है कि हम नासमझ होने को राजी हैं। अब हम समझदार नहीं होना चाहते। अब समझदारी हम छोड़ते हैं और नासमझ हम होते हैं। अब हम नाचेंगे नासमझी से। अब हम तर्क न करेंगे। अब हम तर्क से सत्य को खोजेंगे न, अब हम जियेंगे। तर्क की आखिरी कड़ी पर जीवन शुरू होता है।

“भगवान श्री, चैतन्य महाप्रभु और उनके अचिंत्य भेदाभेद की बात हुई, गिन्सबर्ग की भी बात हुई। इसके पहले शब्द के मंत्र बन जाने की विशिष्टता भी आपने बताई। और यही बात नाम-कीर्तन पर भी लागू होती है। साथ ही सुबह के प्रवचन में आपने कहा था कि शब्द का उपयोग किया नहीं कि द्वैत खड़ा हो जाता है। लेकिन कृष्ण ने बड़े विश्वास के साथ कहा है कि जो पुरुष ओम् अक्षर जप ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ उसके अर्थस्वरूप मेरा चिंतन करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त हो जाता है। भगवान श्री, कृष्ण के शब्द ओम् से अद्वैत का बोध कैसे होता है? ओम् “रेशेनल’ है या “इर्रेशनल’ है? आपके ध्यान-प्रयोग में ओम् को प्रवेश देने में क्या-क्या बाधाएं थीं?’

शब्द सत्य नहीं हैं। सत्य तो निःशब्द में ही उपलब्ध होता है। और सत्य को प्रगट करना हो तो भी शब्द से प्रगट किया नहीं जा सकता है। सत्य तो निःशब्द में ही अभिव्यक्त होता है, मौन में ही प्रगट होता है। मौन ही सत्य की मुखरता है। मौन ही सत्य के लिए वाणी है, ऐसा मैंने सुबह कहा।

पूछा जाता है, अगर ऐसा है तो अभी आप कहते हैं कि शब्द बीज बन सकता है, और शब्द साधना के लिए आधार बन सकता है। दोनों में कोई विरोध नहीं है, दोनों बात ही अलग है। मैंने कहा सुबह कि शब्द सत्य नहीं हैं। लेकिन जो असत्य में घिरे हैं, सत्य तक पहुंचने के लिए असत्य के सहारे ही चलते हैं। या तो छलांग लगाएं तब सीधे शब्द से मौन में कूद जाएं। अगर छलांग लगाने की हिम्मत न हो तो शब्द को धीरे-धीरे छोड़ते चलें। बीज-शब्द का मतलब है, सब शब्द छोड़ो, एक ही शब्द पकड़ो। इसमें सब शब्द छोड़ो और एक शब्द पकड़ो। नहीं हिम्मत है सब एक-साथ छोड़ने की तो सब छोड़ो, एक पकड़ो। फिर अंततः उस एक को भी छोड़ना पड़ता है। वह जो बीज-शब्द है, वह सत्य तक नहीं ले जाता, सिर्फ मंदिर के द्वार तक ले जाता है। जैसे मंदिर के बाहर जूते छोड़ देने पड़ते हैं, ऐसे उस बीज-शब्द को भी बाहर ही छोड़ देना पड़ता है। मंदिर में प्रवेश करते वक्त वह साथ नहीं जाता। उतनी दुविधा भी साथ नहीं ले जाई जा सकती। उतना शोरगुल भी बाधा है। सब शब्द तो बाधा हैं, बीज-शब्द भी अंततः बाधा है।

इसीलिए वे जो बीज-शब्द की बात किए हैं, वे भी कहे हैं कि वह क्षण आएगा जब बीज-शब्द भी खो जाएगा, तब तुम समझना ठीक हुआ। नाम जपना, लेकिन फिर अजपा नाम पर पहुंच जाना। जप से शुरू करना और अजपा पर पहुंच जाना। एक घड़ी आएगी, जप छूटे और अजप में कूद जाना। यह सारा मामला वही है–या पहले छोड़ो, या आखिरी छोड़ो। कहीं छोड़ देना पड़ेगा। जो पहले छोड़ने की हिम्मत रखते हैं, वे पहले छोड़ दें। जो नहीं छोड़ने की हिम्मत रखते हैं, बाकी शब्द छोड़ें, एक पकड़ लें। और उसको अंत में छोड़ दें।

मैं छलांग का आग्रह करता हूं, इसलिए साधना में जहां तक बने बीज-शब्द से बचने की बात करता हूं। उसे पीछे छुड़वाना पड़ेगा। रामकृष्ण के साथ ऐसा हुआ, उससे समझ में आ जाएगा।

रामकृष्ण ने मां का स्मरण करके ही, परमात्मा को मां स्वरूप मानकर ही साधना की। फिर ऐसा हो गया कि वह उस जगह पहुंच गए जहां मंजिल की आखिरी सीढ़ी आ गई। मां के साथ पहुंच गए। लेकिन उस सीढ़ी के बाद तो अकेले ही प्रवेश हो सकता है। मां को भी साथ नहीं लिया जा सकता। वह तो प्रतीक था, वह तो शब्द था, वह तो रूप था, वह तो लहर थी, अब सागर में प्रवेश करने के पहले उसे छोड़ देना जरूरी था। रामकृष्ण बड़ी मुश्किल में पड़ गए। रामकृष्ण की जिंदगी में सबसे बड़ी मुश्किल उस दिन आती है जिस दिन मां को छोड़ने का सवाल उठता है। अब जिसको इतने प्रेम से संवारा हो, और जिसको इतने आंसुओं से सींचा हो, और इतना नाच-नाचकर जिसको रमाया हो, और पुकार-पुकार कर जिसको बसाया हो, और श्वास-श्वास और हृदय की धड़कन-धड़कन में जिसको लेकर जिआ गया हो, अब आखिरी क्षण सवाल उठता है कि इसे छोड़ दो।

तोतापुरी के नाम के एक अद्वैतवादी साधक के पास वह सीखते हैं इसका छोड़ना। तोतापुरी उनसे कहता है कि इस मां को छोड़ो। तोतापुरी के लिए प्रतीक का कोई मतलब नहीं है। वह कहता है, छोड़ो इस मां को। इससे नहीं चलेगा। अकेले ही जा सकते हो। रामकृष्ण आंख बंद करते हैं, फिर आंख खोल लेते हैं कि नहीं, यह नहीं हो सकता। मैं कैसे छोड़ सकता हूं। मैं अपने को छोड़ सकता हूं, मां को नहीं छोड़ सकता। तोतापुरी कहते हैं, फिर कोशिश करो, क्योंकि अगर तुम अपने को छोड़ दोगे तो मंदिर के बाहर रह जाओगे, मां मंदिर के भीतर चली जाएगी, उससे तुम्हें क्या होगा? उससे कोई मतलब नहीं है। तुम्हें जाना है सत्य के सागर में, तो छोड़ो, यह द्वैत नहीं चलेगा, यह दो नहीं चलेंगे, यह प्रेम की गली बहुत संकरी है, यह सत्य की गली बहुत संकरी है, यहां आखिर में एक ही बच जाता है। छोड़ो। नहीं रामकृष्ण छोड़ पाते हैं, तीन दिन तक तोतापुरी मेहनत करते हैं। फिर तोतापुरी कहते हैं, तो मैं जाऊं। तो रामकृष्ण कहते हैं, एक बार और मेरे साथ मेहनत कर लो, क्योंकि तड़फता तो हूं उसके लिए जो अनजाना रह गया है, लेकिन प्रतीक जिन्हें बहुत प्रेम किया, बड़े जोर से भीतर बंध गए हैं।

तो तोतापुरी एक कांच का टुकड़ा लेकर आता है। रामकृष्ण आंख बंद करके बैठते हैं, तोतापुरी कहता है कि मैं तुम्हारे माथे पर आज्ञाचक्र जहां है, वहां कांच से काट दूंगा तुम्हारी चमड़ी को, जब खून बहने लगे और कटाई तुम्हें कांच की मालूम पड़ने लगे, तब तुम भीतर एक तलवार उठाकर मां को दो टुकड़े कर देना। रामकृष्ण कहते हैं, मां को, और दो टुकड़े, और तलवार! क्या कहते हैं आप! अपने को कर सकता हूं, मां पर कैसे तलवार उठाऊंगा? और फिर वहां तलवार लाऊंगा कहां से? तो वह तोतापुरी कहता है, पागल हो तुम, जो मां नहीं थी उसको तुम ले आए, तो जो तलवार नहीं है उसको भी ले आओ। जब इतना बड़ा झूठ तुमने सत्य कर लिया, जो नहीं है कहीं भी उसको भी तुमने साकार कर लिया, तो अब एक तलवार और साकार कर लो, इसमें क्या देर लगेगी! तुम कुशल हो, तलवार भी आ जाएगी। झूठी तलवार काम करेगी।

रामकृष्ण आंख बंद करके बैठते हैं, चूंकि तोतापुरी ने कहा है कि आज वह चला जाएगा, वह इस तरह बचकाने खेल में नहीं पड़ सकता। वह पहले ही छलांग लगा लेने वाले लोगों में से है। रामकृष्ण आखिरी सीढ़ी पर दिक्कत में पड़े हैं। वह कहता है, कहां की बचकानी बातें करते हो, छोड़ो। शर्म नहीं आती! फिर वह कांच उठाकर रामकृष्ण के माथे को काट देता है। इधर वह माथे को काटता है, उधर रामकृष्ण हिम्मत जुटाकर तलवार से दो टुकड़े मां के कर देते हैं। मूर्ति गिर जाती है, रामकृष्ण परम समाधि में खो जाते हैं, उठकर, वापस लौटकर वे कहते हैं, आखिरी बाधा गिर गई, “द लास्ट बैरियर’।

तो वे जो शब्द हैं, वे जो मंत्र हैं, वे जो बीज हैं, वे सबके सब “लास्ट बैरियर’ बनेंगे। उनसे जो चलेगा, एक दिन तलवार उठाकर उनको तोड़ना भी पड़ेगा। फिर बड़ा कष्ट पड़ता है। इसलिए मैं जहां तक कोशिश करता हूं, उनको जगह न बने, अन्यथा पीछे मुझे और एक झंझट होगी। वह बात पहले ही निबटा लेनी अच्छी।

और दूसरा सवाल पूछा है कि कृष्ण कहते हैं कि ओम् रूप में मुझे देखकर, जानकर, जीकर, पहचानकर अंत क्षण में तू मुझको उपलब्ध हो जाएगा। तो यह ओम् शब्द है या नहीं?

यह ओम् बड़ा अदभुत शब्द है। यह असाधारण शब्द है। असाधारण इसलिए कि अर्थहीन शब्द है। सब शब्दों में अर्थ होते हैं, इस शब्द में कोई अर्थ नहीं है। इसलिए ओम् का हम दुनिया की किसी भाषा में अनुवाद नहीं कर सकते हैं। कोई उपाय नहीं है। अर्थ हो तो अनुवाद हो सकता है, क्योंकि उसके अर्थ का दूसरा शब्द दुनिया की किसी भाषा में मिल जाएगा। लेकिन ओम् का अनुवाद नहीं कर सकते, क्योंकि यह अर्थहीन है, वह “मीनिंगलेस’ है। सब शब्दों में “मीनिंग’ होते हैं, इसमें कोई “मीनिंग’ नहीं है, इसमें कोई अर्थ नहीं है।

यह शब्द जिन्होंने बनाया, यह उन्होंने शब्द और निःशब्द के बीच में एक कड़ी खोजी। शब्द है अर्थपूर्ण, निःशब्द न अर्थ है, न अनर्थ है, पार है। इस दोनों के बीच में एक “ब्रिज’ बनाया ओम् का। यह भाषा की, शब्द की ध्वनियों की–तीन मूल ध्वनियां हैं, अ, उ, म–उन तीनों को जोड़कर बना लिया। समस्त शब्द-ध्वनियां अ, उ, म का विस्तार हैं। ए, यू, एक का विस्तार हैं। इन तीनों को जोड़कर इस ओम् को बना लिया। इसलिए फिर इस ओम् को शब्द की तरह लिखा भी नहीं, इसको “पिक्चोरियल’ बना लिया। इसका चित्र बना दिया जिसमें कि यह भी खयाल में न रहे कि यह कोई शब्द है। यह एक चित्र है। और वहां खड़ा है जहां शब्द समाप्त होते हैं और निःशब्द शुरू होते हैं। यह सीमांत का पत्थर है। यह उस जगह खड़ा है ओम्, जहां से आगे फिर शब्द नहीं है। जिसके इस तरफ शब्द हैं। यह बीच की कड़ी है। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अगर तू मुझे ओम् रूप, ओम् रूप का मतलब है–अर्थहीन, शब्दातीत, भाषाकोष में नहीं मिलता है जो, ऐसे शब्द में मुझे सोच सके अंत क्षण में, तो तू मुझे उपलब्ध हो जाएगा। क्योंकि यह सीमांत का शब्द है। अंत समय अगर, इस सीमांत पर कोई पहुंच सके, तो छलांग हो जाएगी।

इस ओम् शब्द में भारत के मन ने बहुत कुछ भरा है। इसे बड़ा विस्तीर्ण अर्थ दिया है। इतना विस्तीर्ण अर्थ दिया है कि अब इसमें कोई अर्थ नहीं है। इतना फैलाया है, इतना फैलाया है कि उसमें कोई सीमा नहीं रही। लेकिन, ओम् के पाठ का सवाल नहीं है, ओम् के अनुभव का सवाल है। और अगर ध्यान में आप उतरेंगे, तो जब सब शब्द खो जाएंगे, तब आपके भीतर ओम् की ध्वनि होने लगेगी। यह आपको करनी नहीं पड़ेगी। अगर करनी पड़ी तो धोखा हो सकता है, कि वह आप ही कर रहे हों।

इसलिए मैंने भी ध्यान में ओम् की जगह नहीं बनाई है। अगर हम अपनी तरफ से ओम् की ध्वनि करें, तो हो सकता है वह शब्द-ध्वनि ही होगी। एक ओम् की ध्वनि वह भी है, जब हमारे सब शब्द खो जाते हैं तो वह शेष रह जाती है। उसको कहना चाहिए वह “कॉज्मिक साइलेंस’ की ध्वनि है। जब सब शेष रह जाता है, सब मिट जाता है, सब शब्द, सब बुद्धि, सब विचार, तब एक ध्वनि का स्पंदन रह जाता है, जिसको इस देश में ओम् की तरह व्याख्या किया गया है। उसकी व्याख्या और भी हो सकती है। वह हमारी व्याख्या है। कभी आप रेलगाड़ी में बैठकर अगर चाहें, तो चक्के की आवाज की बहुत तरह की व्याख्या कर सकते हैं। यह चक्का जब आवाज करता है, तो वह कुछ आपके लिए आवाज नहीं करता, न आपके लिए कुछ करता है, लेकिन आप जो चाहें आप उसमें खोज सकते हैं। वह आपकी खोज होगी। जब विराट शून्य उत्पन्न होता है, तो विराट शून्य की अपनी ध्वनि है, अपना संगीत है। “साउंड आफ कॉज्म?िक साइलेंस’। जब सब शून्य हो जाता है, तब उसकी अपनी ध्वनि है। उस ध्वनि का नाम अनाहत है। वह किसी कारण से पैदा नहीं होती।

हम ताली बजाते हैं तो यह आहत नाद है। दो चीजों की टक्कर से पैदा होता है। आहत नाद का अर्थ है, दो चीजों की टक्कर से पैदा हो। ढोल पीटते हैं, आहत नाद है। बोलते हैं तो ओंठ और जीभ का आहत नाद है। जब सब बंद हो जाता है, जहां दो ही नहीं रह जाते, एक ही रह जाता है, तब अनाहत नाद होता है। बिना किसी चोट के, बिना किसी चोट के, बिना दो के टकराए ध्वनि होती है; वह जो ध्वनि है अनाहत, उसे इस देश के मनीषियों ने ओम् की तरह व्याख्या की है। दूसरे देश के मनीषियों ने भी उसकी व्याख्या की है, तो वह करीब-करीब ओम् के है। जैसे क्रिश्चियन “अमीन’ कहते हैं। वह ओमीन की व्याख्या है, वह ओम् की व्याख्या है। मुसलमान भी “अमीन’ कहते हैं। उपनिषद लिखा जाएगा तो सब लिखने के बाद आखिर में ऋषि लिखेगा: ओम् शांतिः शांतिः शांतिः। मुसलमान आयत पड़ेगा, शास्त्र लिखेगा, तो आखिर में सब लिखने के बाद लिखेगा: अमीन, अमीन, अमीन। उससे पूछो अमीन का क्या अर्थ है? अमीन अर्थहीन है। वह उसी “कॉज्म?िक’ ध्वनि की व्याख्या है उसकी, ओम् की व्याख्या है। क्रिश्चियन भी अमीन का उपयोग करता है।

अंग्रेजी में कुछ शब्द हैं: “ओमनीसियेंट’, “ओमनीप्रेजेंट’, ओमनीपोटेंट’। ये बड़े अजीब शब्द हैं। इनका अंग्रेजी भाषाशास्त्र के पास व्युत्पत्ति का सूत्र नहीं है। ये सब ओम् से बने शब्द हैं। “ओमनीसियेंट’ का मतलब है, जिसने ओम् को देखा। यह बहुत मुश्किल मामला है। इसलिए अंग्रेजी भाषाशास्त्री बड़ी कठिनाई में पड़ता है कि इसका मतलब क्या है, इस “ओमनीसियेंट’ का मतलब क्या है? “वन हू हेज़ सीन द ओम्। जिसने ओम् को देखा, वह “ओमनीसियेंट’ है। “ओमनीप्रेजेंट’ का क्या मतलब है? जो ओम् में उपस्थित हो गया। “ओमनीपोटेंट’ का क्या मतलब है? कि जिसको उतनी ही ऊर्जा मिल गई जितनी ओम् की है, जो उतना ही शक्तिशाली हो गया जितना ओम् है।

यह ओम् की व्याख्या बहुत-बहुत रूपों में पकड़ी गई। लेकिन, दुनिया के दो बड़े धर्मस्रोतों ने…यह बड़े मजे की बात है, जैन हिंदुओं का कुछ स्वीकार न करेंगे, लेकिन ओम् को इनकार न करेंगे। अगर जैन, बौद्ध, हिंदुओं के बीच कोई एक शब्द है जो समान है, तो वह ओम् है। अगर हिंदू, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुसलमान, सबके बीच कोई एक शब्द समान है, तो वह ओम् है। हां, उनकी व्याख्या “ओमीन’ की है, “अमीन’ की है, ये उसे ओम् कहते हैं। वह हमारा गाड़ी के चाक में सुना गया फर्क है। पक्का नहीं कहा जा सकता कि वह “अमीन’ है या “ओम्’ है। इसमें पक्का नहीं हुआ जा सकता, वह “अमीन’ भी हो सकता है, वह “ओम्’ भी हो सकता है। लेकिन एक बात पक्की है कि अमीन में भी और ओम् में भी एक ही ध्वनि की व्याख्या की गई है। वह ध्वनि अंतिम है। जब हम सब शब्दों के पार पहुंचते हैं तो एक ध्वनि शेष रह जाती है, जो कॉज्म?िक साउंड’ है।

झेन फकीर कहते हैं अपने साधक को कि तुम उस जगह जाओ और ऐसी बात खोजकर लाओ जहां एक हाथ की ताली बजती है। अब एक हाथ की ताली! यह झेन फकीरों का अपना ढंग है अनाहत को कहने का। उन्हें अनाहत का कोई पता नहीं है इस शब्द का। वे कहते हैं वह जगह खोजो, वह स्थान खोजो, जहां एक हाथ की ताली बजती है। जहां एक हाथ की ताली बजेगी, वहां ओम् रह जाएगा। जहां तक दो हाथ की ताली बजेगी, वहां तक शब्द होंगे, ध्वनियां होंगी।

मैंने क्यों जानकर ध्यान में ओम् को बिलकुल जगह नहीं दी है? जानकर नहीं दी है। क्योंकि अगर आपने उच्चारण किया ओम् का, तो वह आपके द्वारा पैदा की हुई ध्वनि होगी। वह आहत नाद होगा। मैं प्रतीक्षा करता हूं उस ओम् की जब आप बिलकुल खो जाएंगे और ओम् प्रगट होगा, और आपके भीतर से आएगा। वह हुंकार होगी, वह अनाहत होगा। वह “कॉज्म?िक साउंड’ होगी। उस दिन, जैसा कृष्ण कहते हैं, ठीक कहते हैं कि अगर ओम् को तुमने समझा और जाना और जिआ तो आखिरी क्षण में तुम मुझे उपलब्ध हो जाओगे। वह ठीक कहते हैं। लेकिन वह आपके द्वारा कहा गया ओम् नहीं है। मरते वक्त आप अपने ओंठ से ओम्-ओम् कहते रहें, तो बेकार मेहनत करेंगे। शांति से मर सकते थे और अशांति से मरना हो जाएगा।

ओम् आना चाहिए, प्रगट होना चाहिए, विस्फोट होना चाहिए। वैसा होता है।

अब हम ध्यान के लिए बैठे। देखें, उस ओम् की तरफ यात्रा करें।

बातचीत न करें, दूर-दूर बैठ जाएं… … …बातचीत न करें, दूर-दूर बैठ जाएं। थोड़ा फासला करके बैठें।… … …(जो लोग देखने खड़े हैं वे बाहर आ जाएं, सड़क पर खड़े हों, यहां “कंपाउंड’ में खड़े न हों। आप लोग बाहर जाएं।)… … …

थोड़े फासले पर बैठें, ताकि कोई गिर जाए, लेट जाए, तो आपके ऊपर न पड़ जाए…काफी पीछे जगह पड़ी है, कंजूसी न करें। थोड़े दूर-दूर हट जाएं। फिर कोई गिर जाएगा उतने ही में बाधा हो जाती है–और कई लोग गिर जाएंगे–इसलिए हट जाएं। और ऐसा मत सोचें कि दूसरा हटेगा, दूसरा कभी हटता ही नहीं। हटना हो तो आप ही हट जाएं।

(जो मित्र देखने खड़े हैं, उनसे प्रार्थना है कि वे बिलकुल चुपचाप खड़े होकर देखेंगे, बात न करेंगे, ताकि हमें बाधा न हो।)

दोत्तीन बात समझ लें। बैठकर प्रयोग करना है, उसी तरह परिणाम होंगे। दस मिनट तो हम गहरी श्वास लेते रहेंगे। दस मिनट के बाद बैठे-बैठे ही शरीर डोलने लगेगा, उसे डुलाना है–डोलने देना है। आवाज निकलने लगेगी, रोना निकलने लगेगा, उसे निकलने देना है। फिर दस मिनट पीछे–“मैं कौन हूं’, प्रक्रिया वैसी ही रहेगी, सिर्फ आपको बैठकर करना है, बस इतना फर्क होगा। इस बीच कोई गिर जाएगा तो उसे चिंता नहीं लेनी, गिर जाना है।

(“कंपाउंड’ में कोई भी आंख खोले हुए नहीं होगा।)

दोनों हाथ जोड़ लें, संकल्प कर लें–

“प्रभु को साक्षी रखकर मैं संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा।’

“प्रभु को साक्षी रखकर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा।’

“प्रभु को साक्षी रखकर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा।’

आप अपने संकल्प का स्मरण रखना, प्रभु आपके संकल्प का स्मरण रखता ही है।

अब दस मिनट के लिए बैठे-बैठे ही तीव्र श्वास लें। इसमें बहुत जोर से शक्ति उठेगी, खड़े होने से भी ज्यादा जोर से उठेगी।… … …

…शक्ति उठेगी ही, श्वास की चोट करें। …शरीर के भीतर विद्युत दौड़ने लगेगी …शरीर के भीतर “इलेक्ट्रीसिटी’ पैदा होने लगेगी… …जोर से सांस लें… शरीर कंपने लगे, कंपने दें; डोलने लगे, डोलने दें; हिलने लगे, हिलने दें।… … …

शक्ति जाग रही है उसे जागने दें, जोर से श्वास लें, शक्ति को जागने दें।… …

… …बहुत ठीक, बहुत ठीक, अपना-अपना खयाल कर लें, कोई पीछे न रह जाए… शक्ति जाग रही है, उसे जागने दें… शरीर जो करता हो बैठे-बैठे करने दें… … …गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास… शक्ति जाग रही, सहयोग करें, गहरी श्वास लें, गहरी श्वास लें, गहरी श्वास लें… …

गहरी श्वास…बहुत ठीक, बहुत ठीक…अधिक मित्रों की शक्ति जाग रही है, उसे पूरा खुला छोड़ दें…गहरी श्वास लें, चोट करें, आनंद से भर जाएं, आनंद से भर जाएं, गहरी श्वास लें, गहरी श्वास लें, आनंद से भर जाएं, गहरी श्वास लें, गहरी श्वास लें।… …

शरीर “इलेक्ट्रिफाइड’ हो गया है, उसे होने दें, आप गहरी श्वास लें, आनंद से, आनंद से, परिपूर्ण आनंद से भर कर गहरी श्वास लें।… …

जोर से, जोर से, आनंद से, आनंद से, पूरे आनंद से गहरी श्वास लें; पीछे न रह जाएं, पूरी शक्ति लगाएं, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करेंगे, चार मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं।… …

बहुत ठीक, बहुत ठीक, ठीक गति आ रही है, आने दें, आने दें, आने दें। कभी-कभी जरा-से में चूक जाते हैं…ताकत, ताकत पूरी लगा दें, आनंद भाव से पूरी ताकत लगा दें।… …

तीन मिनट बचे हैं…बढ़ें, बढ़ें, बढ़ें, जोर से, भीतर यात्रा करें, गहरी श्वास। शक्ति जागने लगेगी, शरीर अपना नहीं मालूम पड़ेगा, डोलने लगेगा, बैठे-बैठे नाचने लगेगा, डोलने लगेगा, कांपने लगेगा। कांपने दें, बैठे-बैठे नाचने दें, आप गहरी श्वास लें, गहरी श्वास लें…बहुत ठीक, डोलें, डोलें, कंपें…गहरी श्वास लें।… …

बहुत ठीक, बहुत गति ठीक आ रही है, आनंद से, आनंद से। दो मिनट बचे हैं, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास।…जब मैं कहूं एक, दो, तीन, तो पूरी ताकत लगा दें।…गहरी श्वास, गहरी श्वास, आनंद से भर जाएं, डोलने दें शरीर को, डोलने दें, बैठे-बैठे नाचने दें, कांपने दें।… …

एक, देखें कोई पीछे न रह जाए। दो…तीन…पूरी ताकत लगा लें, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करेंगे। शक्ति जाग गई है, पूरी ताकत लगा दें, जो पूरी ताकत लगाएगा वह दूसरे में शीघ्रता से गति कर जाएगा। बहुत ठीक, बहुत ठीक, बहुत ठीक, जोर से, जोर से, जोर से।… …

अब दूसरे चरण में प्रवेश करें, शरीर को जो करना है, करने दें। चिल्लाना है चिल्लाने दें, रोना है रोने दें, डोलना है डोलने दें, हंसना है हंसने दें, आनंद से भर जाएं और शरीर जो कर रहा है उसका सहयोग करें। हंसें, चिल्लाएं, रोएं, डोलें।… …

जोर से रोएं, हंसें, चिल्लाएं, आनंदित हों। शक्ति जाग गई है, दिल खोल कर हंसें।… …

जोर से आनंद से भर जाएं, जोर से आनंद से भर जाएं, हंसें, चिल्लाएं, जोर से चिल्लाएं, शरीर को जो हो रहा है होने दें।… …

सहयोग करें, आनंद से भर जाएं, डोलें, बैठे-बैठे नाचें, कांपें, चिल्लाएं, हंसें, रोएं। संभालें नहीं, जोर से करें, संभालें नहीं।… …

बहुत ठीक, बहुत ठीक, जोर से, जोर से, जोर से।… …

दिल खोल कर आनंद से भर जाएं, हंसें, दिल खोल कर हंसें। जोर से, जोर से, पांच मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं। दिल खोल कर चिल्लाएं, पूरी घाटी गूंज जाए।… …

चार मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं, हंसें, खिलखिलाएं, रोएं, चिल्लाएं, आनंद से भर जाएं, शरीर जो कर रहा है करने दें।…जोर से, जोर से, चार मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगा दें, शरीर को कंपने दें, डोलने दें, नाचने दें, जो हो रहा है होने दें।… …

तीन मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करें।… …

दो मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं, फिर हम तीसरे चरण में प्रवेश करें। जोर से, पूरी घाटी गूंजने लगे। चिल्लाएं, चिल्लाएं, आनंद से चिल्लाएं। आनंद से चिल्लाएं, हंसें, आनंद से चिल्लाएं।… …

मैं एक, दो, तीन कहूं तब पूरी शक्ति लगाएं। एक, पूरी शक्ति लगा दें। दो, पूरी शक्ति लगा दें, अपने को पूरा खाली कर लें। तीन, पूरी शक्ति लगा दें।…चिल्लाएं, हंसें, जोर से, एक दफा पूरी ताकत लगा दें।…

अब तीसरे चरण में प्रवेश कर जाएं। भीतर पूछें, मैं कौन हूं? डोलते रहें, कांपते रहें, पूछते रहें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? भीतर पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? डोलते रहें, डोलते रहें, कांपते रहें, नाचते रहें, पूछें, मैं कौन हूं? कोई फिकर नहीं आवाज बाहर निकल जाए, पूछें जोर से, मैं कौन हूं?…

नाचते रहें, नाचते रहें, पूछें, मैं कौन हूं? आनंद से पूछें, मैं कौन हूं? पूरे आनंद से पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? दस मिनट में मन को बिलकुल थका डालना है। जोर से पूछना हो जोर से पूछें, मैं कौन हूं?… …

मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें, पूछें, धीमे नहीं, शक्ति से पूछें, मैं कौन हूं? आनंद से पूछें, मैं कौन हूं?…डोलें, नाचें, कांपें, जोर से पूछें, मैं कौन हूं?… …

पूछें, पूछें, बाहर भी आवाज निकले फिकर न करें। पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?…थका डालना है। पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?…मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें, पूछें, डोलें, नाचें, कंपें; पूछें, मैं कौन हूं? थका डालना है मन को, बिलकुल थका डालना है। पूछें, मैं कौन हूं?…

जोर से, जोर से, ताकत लगाएं, पूछें परमात्मा से, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?…

मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पांच मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम आखिरी चरण में प्रवेश करेंगे। थका डालें, बिलकुल थका डालें, चिल्लाएं जोर से, मैं कौन हूं? चिल्लाएं, चिल्लाएं जोर से, मैं कौन हूं? चिल्लाएं, चिल्लाएं जोर से, मैं कौन हूं?… …

चार मिनट बचे हैं, पूछें, पूछें, पूछें, पीछे न रह जाएं–बहुत ठीक, पूछें मैं कौन हूं? चिल्लाएं जोर से, पूछें, मैं कौन हूं?… …

बहुत ठीक, बहुत ठीक, तीन मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, आनंद से पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूरी तरह कूद जाएं, पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?… …

दो मिनट बचे हैं, अब पूरी ताकत लगा दें। पूछें जोर से, मैं कौन हूं?… …

मैं कौन हूं? एक, पूरी ताकत लगाएं। दो, मैं कौन हूं? पूरी ताकत लगाएं। तीन, पूरी ताकत लगाएं, मैं कौन हूं? जोर से पूछें, कुछ सेकेंड के लिए पूरी ताकत लगा दें। बिलकुल पागल हो जाएं। जोर से पूछें, मैं कौन हूं? जोर से, कुछ सेकेंड के लिए पूरी ताकत लगा दें। चीखें, जोर से चिल्लाएं, मैं कौन हूं?…जोर से, जोर से, जोर से।… …

बस अब आखिरी चरण में प्रवेश कर जाएं, शांत हो जाएं, अब सब छोड़ दें। पूछना छोड़ दें, पूछना छोड़ दें। कंपना छोड़ दें, गहरी श्वास लेना छोड़ दें। जो जहां है वैसा ही रह जाए। कोई गिर गया गिरा हुआ, कोई बैठा है बैठा हुआ, जो जैसा है वैसा ही रह जाए। दस मिनट के लिए परिपूर्ण मौन में प्रवेश कर जाएं। जैसे बूंद सागर में खो जाए ऐसे खो जाएं। सब शून्य हो गया, सब मौन हो गया। जैसे हम मर ही गए।

दस मिनट के लिए बिलकुल खो जाएं, न हो जाएं। इस न होने में ही उसका पता चलता है जो है। चारों तरफ वही है, काश हम शून्य हो जाएं तो वह हमारे भीतर प्रवेश कर जाता है। जैसे मिट ही गए, जैसे समाप्त हो गए। परमात्मा ही शेष रह गया है, हम समाप्त हो गए।… …

प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया है, हम समाप्त हो गए हैं। आनंद ही आनंद शेष रह गया है, हम समाप्त हो गए हैं। देखें भीतर प्रकाश ही प्रकाश अनंत प्रकाश है, देखें भीतर आनंद की वर्षा हो रही है। रोएं-रोएं में, पुलक-पुलक में आनंद भर गया है। परमात्मा के अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। परमात्मा के अतिरिक्त और कोई भी नहीं है, वही है चारों ओर, वही है बाहर, वही है भीतर। पहचानें, स्मरण करें, पहचानें, स्मरण करें।… …

स्मरण करें, स्मरण करें, वही है बाहर, वही है भीतर, वह दीवाल गिर गई जो बाहर और भीतर को अलग करती थी। सब एक हो गया, बूंद सागर में खो गई।…बूंद सागर में गिर गई, खो गई, समाप्त हो गई। परमात्मा ही शेष रह गया। परमात्मा ही शेष रह गया, परमात्मा ही शेष रह गया। वही है बाहर, वही है भीतर, वही है सब ओर, पहचानें, स्मरण करें, पहचानें।…

वही है, वही है, वही है, स्मरण करें। बीच की दीवाल गिर गई, उससे हम एक हो गए, वह हमसे एक हो गया है। आनंद ही आनंद, अमृत ही अमृत, प्रकाश ही प्रकाश है।… …

डूब जाएं, डूब जाएं, खो जाएं, खो जाएं, स्मरण करें वही है, अपने को छोड़ दें, मिट जाएं। आनंद ही आनंद, प्रकाश ही प्रकाश, परमात्मा ही परमात्मा शेष रह जाता है। प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया। आनंद रोएं-रोएं में भर गया। पहचानें, स्मरण करें, स्मरण करें।… …

स्मरण करें, स्मरण करें, स्मरण करें, पहचानें।…यही है वह क्षण, जब दर्शन हो सकता है। यही है वह क्षण, जब मिलन हो सकता है। यही है वह क्षण, जब उसके मंदिर में प्रवेश हो सकता है। द्वार पर खड़े हैं, पहचानें, प्रकाश ही प्रकाश, आनंद ही आनंद, शांति ही शांति रह गई है। परमात्मा ही है, चारों ओर वही है, वृक्षों में, आकाश में, हवाओं में, बाहर-भीतर, उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। स्मरण करें, स्मरण करें।… …

अब दोनों हाथ जोड़ लें और उसे धन्यवाद दे दें, उसकी अनुकंपा अपार है। दोनों हाथ जोड़ लें, सिर झुका लें, उसे धन्यवाद दे दें, उसके अज्ञात चरणों में समर्पित हो जाएं। दोनों हाथ जोड़ लें, सिर झुका लें, उसके चरणों पर सिर रख दें। उसकी अनुकंपा अपार है। उसकी अनुकंपा अपार है। उसकी अनुकंपा में नहा जाएं। दोनों हाथ जोड़ लें, सिर झुका लें, धन्यवाद दे दें। प्रभु की अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है।… …

प्रभु की अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है।… …

उसकी अनुकंपा अपार है। उसकी अनुकंपा अपार है। उसकी अनुकंपा अपार है। अब दोनों हाथ छोड़ दें। धीरे-धीरे आंख खोल लें, ध्यान से वापस लौट आएं। जिनसे आंख न खुले, वे दोनों हाथ आंख पर रख लें। जिनसे उठते न बने, वे दो-चार गहरी श्वास लें और धीरे-धीरे उठ आएं।

ध्यान से वापस लौट आएं। दो-चार गहरी श्वास ले लें। उठते न बने, दो-चार गहरी श्वास लें फिर धीरे-धीरे उठ आएं। आंख न खुलती हो तो दोनों हाथ आंख पर रख लें और आंख खोल लें। ध्यान से वापस लौट आएं।

हमारी ध्यान की बैठक पूरी हुई।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–82

February 19, 2015, 7:14 pm

एकांत अंतिम उपलब्‍धि है—(प्रवचन—बारहवां)

प्रश्‍नसार:

1—क्या शिष्य अपने सदगुरु से कुछ चुराता है?

 2—क्या व्यक्ति जीवन का आनंद अकेले नहीं ले सकता है?

 3—जीवन क्या है? काम— भोग में संलग्न होना, धन कमाना, सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करना, व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर होना, और क्या यह सब खोजी की खोज को बहुत लंबा नहीं बना देगा?

 4—क्या कोई शिष्य हुए बिना आपकी आत्मा से अंतरंग हो सकता है?

पहला प्रश्न: क्या सदगुरू कुछ चुराता है?

सभी कुछ! क्योंकि सत्य को सिखाया नहीं जा सकता, इसे सीखना पड़ता है। सदगुरु तुम्हें केवल प्रलोभित करता है, तुम्हें इसके लिए और—और प्यासा बना सकता है, लेकिन सत्य तुम्हें दे नहीं सकता—यह कोई वस्तु नहीं है। वह इसे सरलता से तुम्हारे नाम हस्तांतरित नहीं कर सकता—यह कोई विरासत नहीं है। तुम्हें इसको चुराना पड़ेगा। तुम्हें आत्मा की अंधेरी रात में कठिन परिश्रम करना पड़ेगा। इसे किस प्रकार से चुराया जाए इसके उपाय तुम्हें खोजने पड़ेंगे। सदगुरु केवल तुम्हें प्रलोभित करता है, वह बस तुम्हें उकसाता है। वह दिखाता है कि वहां कुछ है, एक खजाना—और अब तुमको कठोर परिश्रम करना पड़ेगा। वास्तव में’ तो वह हर प्रकार के अवरोध निर्मित करेगा ताकि तुम खजाने तक बहुत आसानी से न पहुंच सको। क्योंकि यदि तुम खजाने तक बहुत सरलता से पहुंच गए, तो तुम विकसित नहीं हुए; तुम उस खजाने को पुन: खो दोगे। यह बच्चे के हाथ में खजाना देने जैसा है। कुंजी खो जाएगी, खजाना खो जाएगा।

इसलिए न केवल तुमको चुराना पड़ता है, बल्कि सदगुरु को इस ढंग से कार्य करना पड़ता है कि तुम केवल तब ही चुरा पाने में समर्थ हो जब तुम तैयार हो चुके हो। उसे अनेक बाधाएं निर्मित करनी पड़ती हैं। वह खजाने को छिपाता चला जाता है। वह तुमको तभी अनुमति देगा जब तुम तैयार हो। बस तुम्हारा लोभ या तुम्हारी अभिलाषा पर्याप्त नहीं है, बल्कि तुम्हारी तैयारी, तुम्हारी तत्परता चाहिए, तुम्हें इसको अर्जित करना पड़ेगा। और यह चोरी करने जैसा है, क्योंकि प्रयास अंधकार में करना पडेगा, और प्रयास बहुत शांतिपूर्ण ढंग से करना होगा। और वहां रास्ते पर हजारों बाधाएं हैं, दूर भाग जाने के लिए प्रलोभन हैं भटक जाने के लिए आकर्षण हैं। सदगुरु की सहायता तो वास्तव में तुम्हें और निपुण बनाने के लिए है, तुम्हें यह दक्षता देने के लिए है कि कैसे पता लगे कि खजाना यहां है या नहीं।

सदगुरु के साथ रहते हुए, उसकी आबोहवा से घिरे हुए, धीरे— धीरे तुममें एक विशेष सजगता का उदय होने लगता है। तुम्हारी आंखें स्वच्छ हो जाती हैं और तुम देख सकते हो कि खजाना कहां है। और तब तुम इसके लिए कठोर परिश्रम करते हो। सदगुरु तुम्हें सुदूर हिमालय के—हिमाच्छादित, धूप में चमकते हुए शिखरों की झलक दे देता है, किंतु यह दूर है और तुम्हें यात्रा करनी पडेगी। यह कठिन होने जा रही है, यह श्रमसाध्य होने जा रही है। इस बात की पूरी संभावना है कि तुम खो सकते हो। इस बात की पूरी संभावना है कि तुम लक्ष्य से चूक जाओ, तुम भटक सकते हो। जितना अधिक तुम शिखर के नजदीक आते हो, चूकने की संभावना और—और अधिक, विराट से विराटतर होती जाती है—क्योंकि जितना तुम शिखर के निकट आते हो उतना ही तुम उसको कम देख पाते हो। तुमको केवल अपनी सजगता से चलना पड़ता है। दूर से तुम शिखर को देख सकते थे, दिशा चूकना कठिन था। लेकिन जब तुम पर्वतों में पहुंच गए हो और तुम ऊपर जा रहे हो तो तुम शिखर को नहीं देख सकते हो। तुमको तो बस अंधकार में टटोलना है, इसलिए यह चोरी करने जैसा ही अधिक है। सदगुरु तुमको इसे सरलता से नहीं देने जा रहा है। इसकी बहुत सरलता से अनुमति दी जा सकती है—द्वार को ठीक अभी खोला जा सकता है—किंतु तुम वहां किसी खजाने को अभी देख पाने समर्थ नहीं हो, क्योंकि अभी तक तुम्हारी आंखें प्रशिक्षित नहीं हुई हैं। और यदि मात्र श्रद्धावश तुम यह विश्वास कर लो कि यह बहुत बेशकीमती है, तो बार—बार तुम्हारी श्रद्धा खो जाएगी। जब तक कि तुम अनुभव न करो और न जानो कि यह मूल्यवान है, यह अधिक समय तक रखा नहीं रह पाएगा, तुम इसको कहीं भी फेंक दोगे।

मैंने एक निर्धन व्यक्ति, एक भिखारी के बारे में सुना था, जो सड़क पर अपने गधे के साथ आ रहा था। गधे की गर्दन में एक सुंदर हीरा लटक रहा था, भिखारी ने इसे कहीं पाया था और सोचा कि यह सुंदर दीखता है, तो उसने अपने गधे के लिए एक छोटा सा गहना, एक कंठहार बना दिया था। एक जौहरी ने उसे देखा। वह उस निर्धन व्यक्ति के पास गया और पूछा, इस पत्थर के लिए तुम क्या कीमत लोगे? निर्धन व्यक्ति बोला. आठ आने लूंगा। वह जौहरी ललचा गया। उसने कहा : आठ आने ?—इस जरा से पत्थर के लिए? मैं तुमको चार आने दे सकता हूं। लेकिन उस निर्धन व्यक्ति ने कहा. बस चार आने के लिए इसे गधे से क्यों अलग करूं? फिर मैं नहीं बेच रहा हूं। जौहरी ने मन में कहा, यह भिखारी बेचेगा अवश्य, इसलिए वह थोड़ी दूर चला गया। वह उसे राजी करने के लिए आता, किंतु इसी बीच एक अन्य जौहरी ने इसे देख लिया। वह एक हजार रुपये देने को राजी था, इसलिए निर्धन व्यक्ति ने तुरंत बेच दिया, क्योंकि पिछला वाला तो आठ आने तक देने को राजी नहीं था। और यह दूसरा जौहरी तो करीब—करीब पागल मालूम पड़ा; उसने एक हजार रुपये का प्रस्ताव रख दिया। पहला जौहरी वापस आया, लेकिन हीरा तो जा चुका था। उसने उस निर्धन व्यक्ति से कहा : तुम मूर्ख हो! तुमने उसे केवल एक हजार रुपये की खातिर बेच डाला, यह लगभग दस लाख रुपये कीमत का था! वह भिखारी हंसने लगा, मैं मूर्ख हो सकता हूं मैं मूर्ख हूं लेकिन अपने बारे में क्या खयाल है आपका? मैं नहीं जानता था कि यह हीरा था, लेकिन आप तो जानते थे, और आपने उसे आठ आने तक में नहीं खरीदा।

तुम्हें हीरा मिल सकता है; यह तुमसे छीन लिया जाएगा। तुम इसको लंबे समय तक रख न सकोगे। जब तक कि तुम स्वयं न समझ लो कि यह कितना मूल्यवान है, इसे चुरा लिया जाएगा। इसलिए तुमको विकसित होना पड़ेगा।

सदगुरु का कार्य बहुत विरोधाभासी है। विरोधाभास यह है कि वह तुम्हें उकसाता है, वह तुम्हें निमंत्रित करता है, और खजाने को छिपाए चला जाता है। उसे साथ ही साथ दोनों कार्य करने पड़ते हैं; उसे तुमको प्रलोभित करना है, राजी करना है, और फिर भी वह तुम्हें आसानी से उस तक पहुंचने भी न देगा। इन दो विरोधाभासी प्रयासों के मध्य : उकसाना, सतत उकसाते रहना…

मैं प्रतिदिन बोले चला जाता हूं : यह और कुछ नहीं, प्रलोभन है, निमंत्रण है। किंतु मैं इसे अंत तक छिपाऊंगा जब तक तुम इसको चुरा पाने में समर्थ नहीं हो जाते। मैं इसे देने नहीं जा रहा हूं इसको दिया नहीं जा सकता। इसे तुम केवल चुरा सकते हो। लेकिन तुम धीरे— धीरे उस्ताद चोर बन जाओगे। प्रलोभन तुम्हें उस्ताद चोर बना देगा। तुम करोगे क्या? मैं तुमको प्रलोभित करूंगा, और तुम्हें दिया कुछ भी नहीं जाएगा। तुम क्या करोगे? तुम यह सोचना आरंभ कर दोगे कि इसको कैसे चुराया जाए।

ठीक समय से पहले कुछ भी घटित नहीं होता, कम से कम सत्य तो अपने उचित समय के पूर्व कभी नहीं घटता। और यदि मैं इसको तुम्हें देने का प्रयास करूं, तो पहली बात यह कि तुम तक कभी न पहुंचेगा। यदि यह पहुंच भी जाता है तो तुम दुबारा इसको खो दोगे। और… यदि मैं इसको तुम्हें दे दूं तो मेरी ओर से यह कोई करुणा का कृत्य न होगा। मेरी करुणा को कठोर होना पड़ेगा। मेरी करुणा को इतना कठोर होना पड़ेगा कि तुम इसके लिए चीख—पुकार मचाते रहते हो, और मैं इसको छिपाता रहता हूं। एक ओर मैं तुम्हें प्रलोभित करता हूं दूसरी ओर मैं इसे छिपाता हूं। एक बार प्रलोभित हो जाओ, तुम धीरे— धीरे और— और दीवानगी से भर उठोगे। तुम उपाय खोजोगे, तुमको उपाय खोजने पड़ेंगे। क्योंकि केवल खोज, अंवेषण, रास्तों की तलाश, अविष्कार, नये रास्तों की खोज, नये रास्तों के बारे में पूछताछ, पुराने ढांचों ग्रे बाहर निकल कर नये ढंग—ढांचे, नये अनुशासन को पाकर, उनके माध्यम से ही तुम विकसित होओगे, तूम समृद्ध होओगे। वास्तव में जिस क्षण तुम विकसित हो जाते हो तत्‍क्षण सत्य तुम्हारे भीतर दीखता है।

व्यक्ति को बस उसको पहचानना भर है, लेकिन यह पहचान कठिन रास्ते से आती है। तुमको हर वह वस्तु जो तुम्हारे पास है दांव पर लगा देनी पड़ती है; चोरी का यही अभिप्राय है। यह कोई व्यवसाय नहीं है; यह कोई मोल— भाव नहीं है। यह चोरी करने जैसा है।

चोर के बारे में सोचो, वह उस चीज के लिए जो अज्ञात है, जिसको वह नहीं जानता कि वास्तव में यह वहां है भी या नहीं, सब कुछ दांव पर लगाता है। वह अपनी संपत्ति दांव पर लगाता है, वह अपना परिवार दांव पर लगाता है, वह अपना खुद का जीवन दांव पर लगा देता है। यदि वह चूकता है और कुछ गलत हो जाता है, तो वह सदा के लिए कारागृह में भेजा जा सकता है। वह एक जुआरी है, बेहद हिम्मतवर। वह कोई व्यवसायी नहीं हुऐ। वह उस वस्तु के लिए जो वहां हो सकती है और नहीं भी हो सकती है, सभी कुछ दांव पर लगा देता है। व्यवसायी के पास एक ध्येय वाक्य होता है, वह कहता है, कभी अपने हाथ की आधी रोटी को भविष्य की कल्पना की पूरी रोटी की खातिर खो मत देना। कभी भी उसके लिए जो तुम्हारे पास नहीं है, इसको खो मत देना जो तुम्हारे पास है। यह व्यवसायी का ध्येय वाक्य, व्यवसायी का मन है।

चोर पूर्णत: दूसरे ध्येय वाक्य का अनुसरण करता है; वह कहता है, उस वस्तु की खातिर जो तुम्हारे पास नहीं है, उस सभी कुछ को जो तुम्हारे पास है, दांव पर लगा दो। अपने स्वप्न के लिए वह अपना यथार्थ दाव पर लगाता है। यह बस एक ‘शायद’ है। वह अपनी सारी सुरक्षाओं. को, किसी ऐसी वस्तु के लिए जो अत्यंत असुरक्षित है, खतरे में डालता है। यही है जहां साहस की आवश्यकता है।

इसलिए व्यवसायी बनने की अपेक्षा चोर बनो, जुआरी बनो। क्योंकि अज्ञात को केवल तभी पाया जा सकता है जब तुम ज्ञात को त्यागने को राजी हो। जब ज्ञात विलीन हो जाता है, अतात तुम्हारे अस्तित्व में प्रविष्ट हो जाता है। जब सारी सुरक्षा खो जाती है, केवल तभी तुम अज्ञात को अपने भीतर प्रवेश करने का रास्ता देते हो।

दूसरा प्रश्न:

क्या व्यक्ति जीवन का आनंद अकेले नहीं ले सकता है? क्योंकि मैं उतना बोधपूर्ण नहीं हूं कि बिना गीले हुए, पानी में उतर जाना या बिना जले हुए आग में से गुजर जाना मेरे लिए संभव हो सको क्या व्यक्ति अकेले जीवन का आनंद नहीं ले सकता है?

कम से कम प्रश्नकर्ता तो आनंदित नहीं हो सकता है, क्योंकि वह व्यक्ति जो आनंद ले सकता है कभी प्रश्न न पूछेगा।

यह प्रश्न ही दर्शाता है कि तुम्हारे लिए अकेले आनंद ले पाना असंभव होगा। तुम्हारा एकांत बदतर हो जाएगा और अकेलापन बन जाएगा। तुम्हारा एकांत कोई परिपूर्णता नहीं होगा, तुम्हारा एकांत अकेलापन होगा—रिक्त।

हां, भय के कारण तुम इसमें रुके रह सकते हो। पानी से भीग जाने के भय के कारण, आग में घिर जाने के भय के कारण; भय के कारण तुम रुक सकते हो। अनेक लोग रुक गए हैं। आश्रमों में जाओ, पुराने आश्रमों में जाकर देखो, अनेक लोग भय के कारण रुके हुए हैं।

संबंध एक अग्नि है; यह दग्ध करता है। यह दुष्कर है। किसी के साथ रह पाना करीब—करीब असंभव है। यह एक सतत संघर्ष है। अनेक लोग भाग गए हैं, लेकिन कायर हैं वे। वे वयस्क नहीं हैं, उनका प्रयास बचकाना है। हां, वे अधिक सुविधापूर्ण।’ जीवन जीएंगे, यह सच है। जब वहां कोई दूसरा नहीं है, तो निःसंदेह सब कुछ सरलता से चलता है। तुम अकेले रहते हों—किसके साथ क्रोधित होना है? किसके साथ ईर्ष्यालु होना है? किसके साथ संघर्ष करना है? लेकिन तुम्हारा जीवन सारा स्वाद खो देगा। तुम स्वादहीन हो जाओगे, जीवन का कोई रस तुममें न होगा।

अनेक लोग जीवन से भाग जाते हैं क्योंकि जीवन अतिशय है और वे स्वयं को इससे निबटने में सक्षम नहीं पाते हैं। मैं यह सुझाव नहीं दूंगा; मैं कोई पलायनवादी नहीं हूं। मैं तुमसे तुम्हारे जीवन—पथ में संघर्षरत रहने को कहूंगा, क्योंकि अधिक सजग और होशपूर्ण रहने का यही एक मात्र रास्ता है। इतना संतुलित हो जाना है कि कोई भी तुम्हें असंतुलित न कर पाए, इस कदर शांत हो जाना ‘है कि दूसरे की उपस्थिति कभी तुम्हें विचलित न कर सके। दूसरा तुम्हारा अपमान कर सकता है किंतु तुम उत्तेजित नहीं होते। दूसरा ऐसी परिस्थिति पैदा कर सकता है जिसमें सामान्यत: तुम पागल हो गए होते, लेकिन अब तुम पागल नहीं होते। तुम परिस्थिति को उच्चतर चेतना के लिए सीढ़ी के रूप में प्रयोग कर लेते हो।

जीवन को एक परिस्थिति, अधिक चेतन, अधिक संतुलित, अधिक केंद्रित और अपनी जड़ों से गहराई में जुड्ने के अवसर के रूप में प्रयुक्त किया जाना चाहिए। यदि तुम भाग जाते हो, तो यह ऐसे हुआ जैसे कोई बीज मिट्टी से भाग जाए और ऐसी गुफा में जा छिपे जहां जरा भी मिट्टी न हो केवल पत्थर हों। बीज सुरक्षित हो जाएगा। मिट्टी में बीज को मरना पड़ेगा, मिटना पड़ेगा। जब बीज मिटता है तभी पौधा अंकुरित होता है। फिर खतरे आरंभ हो जाते हैं। बीज के लिए कोई खतरा नहीं था. उसे किसी पशु ने नहीं खाया होता, और किसी बच्चे ने उसे नहीं तोडा होता। अब एक सुंदर हरा अंकुर और सारा संसार उसके विरोध में प्रतीत होता है : हवाएं आती हैं और वे इसे जड़ से उखाड़ने का प्रयास करती हैं, बादल आते हैं, और तूफान आते हैं, और एक छोटा सा बीज अकेले ही सारे संसार के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है। वहां बच्चे हैं, वहां जानवर हैं, और वहां माली हैं, और सामना करने के

लिए लाखों समस्याएं हैं। बीज सुविधापूर्वक रह रहा था, वहां कोई समस्या नहीं थी : न हवा, न मिट्टी, न जानवर—कुछ भी समस्या नहीं थी। यह अपने आप में पूरी तरह से बंद था; बीज संरक्षित था, सुरक्षित था।

इसलिए तुम हिमालय की किसी गुफा में जा सकते हो : तुम एक बीज रह जाओगे। तुम अंकुरित नहीं होगे। वे हवाएं तुम्हारे विरोध में नहीं हैं, वे तुमको एक अवसर देती हैं, वे तुम्हें एक चुनौती देती हैं, वे तुम्हें गहराई से जड़ें जमा लेने का एक अवसर देती हैं। वे तुम्हें अपनी जमीन पर दृढ़तापूर्वक खड़े होने को और कड़ी टक्कर देने को कहती हैं। यह तुमको सबल बनाता है।

तुम देखते हो, यहां एक यूकेलिप्टस का एक वृक्ष है। बस उसे बचाने भर को मुक्ता ने जब यह वृक्ष छोटा था तो इसके बराबर में एक बांस लगा दिया था। अब यह इतना लंबा हो गया है, लेकिन अब यह अपने आप खड़ा नहीं हो सकता। बांस अभी भी वहां पर है, और अब यह असंभव प्रतीत होता है, एक बार तुम बांसों को हटा लो पूरा वृक्ष गिर पड़ेगा। सुरक्षा खतरनाक सिद्ध हो जाएगी। अब यह वृक्ष सुरक्षा का आदी हो चुका है। इसकी शक्ति में विकास नहीं हुआ है, यह बचकाना रह गया है।

चुनौतियां विकास के अवसर हैं और जीवन में प्रेम से बड़ी कोई चुनौती नहीं है। यदि तुम किसी को प्रेम करो, तो तुम अत्याधिक अनिश्चितता में हो जाते हो। प्रेम, जिस तरह तुम्हारे कवि कहा करते हैं पूरा गुलाबों की सुगंध से भरा हुआ नहीं है; वे सभी मूर्ख हैं। उन्होंने प्रेम के बारे में स्वप्न देखे होंगे, लेकिन उन्होंने कभी इसे जाना नहीं। यह कोई फूलों की सेज नहीं है। इसमें जितनी तुम कल्पना कर सकते हो उससे अधिक कांटे हैं। गुलाब तो दुर्लभ हैं, यहां और वहा हैं, लेकिन कांटे लाखों हैं। लेकिन जब लाखों कांटों के बीच से एक गुलाब खिलता है तो इसका अपना सौंदर्य होता है। जीवन में प्रेम सबसे बड़ा खतरा है। इसीलिए मैं जोर देता हूं कि यदि तुम वास्तव में विकसित होना चाहते हो तो इस सबसे बड़े खतरे प्रेम को स्वीकार करो और इसमें उतर जाओ।

लोगों ने इससे बचने के अनेक उपाय खोजने के प्रयास किए हैं। कुछ ने संसार छोड़ दिया है। तुम संसार से इतने भयभीत क्यों हो? संसार का भय वास्तव में प्रेम का भय है, क्योंकि जब दूसरे वहां हैं तो संभावना यह है कि तुम किसी के प्रेम में पड़ सकते हो। चारों ओर इतनी अधिक सुंदर आत्माएं, इतने अधिक आकर्षण हैं; तुम कहीं भी फंस सकते हो। खतरा है… भागो! कुछ लोग आश्रमों में भाग गए हैं, कुछ लोग अन्य उपायों से भागे हैं। कुछ लोग विवाहों से भागे हैं। यह भी एक पलायन है। आश्रम एक पलायन है और विवाह भी एक पलायन है—प्रेम से बचने के लिए।

व्यक्ति कभी नहीं जानता कि प्रेम संबंध का परिणाम क्या होने वाला है। यह सदैव डगमगाता रहता है। यह कभी सुविधाजनक नहीं है, यह कभी आरामदायक नहीं है। यह तुम्हारे लिए आनंद के क्षण ला सकता है, लेकिन यह नरक भी लाता है। यह पीड़ापूर्ण विकास है, लेकिन सारा विकास पीड़ापूर्ण होता है। व्यक्ति का विकास पीड़ा के बिना कभी नहीं होता। पीड़ा उसका भाग है एक आवश्यक भाग है। यदि तुम पीडा से बचते हो तो तुम विकास से भी बच जाते हो।

बहुत से लोग कहीं न कहीं रुक जाते हैं। कुछ लोग महत्वाकांक्षा में रुक गए हैं, राजनीतिज्ञ बन गए हैं। उन्हें प्रेम की कोई चिंता नहीं है। वे कहते हैं कि उनको संसार में महान कार्य करने हैं। वे शक्ति के बारे में चिंतित हैं, वे शक्ति का प्रयोग पलायन के लिए करते हैं। कुछ अपने आश्रमों में दफन हो गए हैं; कुछ अपने परिवारों में, विवाह, बच्चे, यह और वह में दफन हो चुके हैं, लेकिन मैं कठिनता से ही किसी ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आता हूं जिसने प्रेम की चुनौती का, वहां जो बड़े से बड़ा तूफान है उसका सामना किया हो। लेकिन जिसने इसका सामना कर लिया है वही विकसित होता है। एक दिन वह इससे बाहर आता है, शुद्ध, निर्मल, परिपक्व।

अब तुम पूछते हो : ‘क्या व्यक्ति जीवन का आनंद अकेले नहीं ले सकता?’

तुम अकेले प्रसन्न हो सकते हो, लेकिन तुम आनंद नहीं ले सकते। एक ढंग से तुम प्रसन्न हो सकते हो, क्योंकि वहां कोई व्यवधान, कोई उपद्रव, कोई संघर्ष नहीं होगा। तुम्हारी प्रसन्नता शांति की भांति अधिक होगी, आनंद की भांति कम। इसमें कोई समाधि की छाया न होगी। आनंद पर समाधि का बहुत प्रभाव होता है, आनंद बहुत कुछ नृत्य की भांति होता है। प्रसन्नता ऐसी है जैसे कि तुम अपने स्नानगृह में गाना गाते हों—स्नानागार गायन—यह बहुत —कुनकुना होता है; तुम इसे अकेले कर सकते हो। तुम इसे सदैव अपने स्नानगृह में करते हो क्योंकि तुम अकेले हो। लेकिन दूसरे लोगों के साथ गायन और नृत्य पूरी तरह उनसे आविष्ट हो जाना, यह आनंद है। आनंद एक बांटने वाली अनुभूति है, प्रसन्नता न बांट सकने वाला अनुभव है।

वे लोग जो कंजूस हैं सदैव प्रसन्नता की तलाश करते हैं, आनंद की नहीं; क्योंकि आनंद को बांटने की आवश्यकता है। तुम अकेले आनंदित नहीं हो सकते। एक विशेष वातावरण की आवश्यकता पड़ती है, एक विशिष्ट जलवायु की आवश्यकता पड़ती है, लोगों की, व्यक्तियों की, चेतना की एक विशिष्ट उमंग की आवश्यकता पड़ती है। अकेले, बहुत हुआ तो तुम प्रसन्न ही हो सकते हो।

और स्मरण रखो, प्रसन्नता कोई बहुत खुश होने वाली बात नहीं है।

आनंद वास्तव में उर्ध्वगमन है आनंद है चरम उत्कर्ष, शिखरों की भांति; प्रसन्नता समतल मैदान है : व्यक्ति सुविधापूर्वक बिना कहीं गिर पड़ने के किसी भय के बिना चलता—फिरता रहता है—न चारों ओर कोई घाटी है, न कोई खतरा है। तुम अपनी आंखें बंद करके चल सकते हो। तुम्हें रास्ता पता है, उन रास्तों पर तुम चलते रहे हो, यह रास्ता और वह रास्ता सब पता है। तुम पूरी तरह अचेतन होकर चल—फिर सकते हो।

आनंद को चेतना की आवश्यकता होती है। क्या तुम कभी पहाड़ों पर गए हो? तुम चल रहे हो और बस बगल में ही एक विशाल घाटी फैली हुए है। तुम सजग हो जाते हो। पर्वतारोहण के सौंदर्यों में यह भी एक बात है। वास्तव में यह आनंद पर्वत में नहीं है, आनंद है खतरे में, सतत खतरे में चलना। वहां सदैव मृत्यु चारों ओर है, घाटी तुमको किसी भी क्षण निगल लेने की प्रतीक्षा कर रही है। एक बार तुम्हारे पांव उखड़े, तुम सदा के लिए चले गए। उस खतरे के कारण व्यक्ति बहुत तीक्ष्माता से सजग तलवार जैसा हो जाता है। उस सजगता से आनंद मिलता है।

जब तुम लोगों के साथ संबंधों में रहा करते हो तो तुम सदैव खतरे में हो। जीवन प्रखर हो जाता है। फिर तुम्हारे पास एक जीवनशैली होती है, तब तुम्हारी ऊर्जा बस जक नहीं खाती, यह प्रवाहमान होती है। उन लोगों की ओर देखो जो गुफाओं या आश्रमों में बहुत लंबे समय से रह रहे हैं, तुम देखोगे कि उनके चेहरों पर खास किस्म की जक लग चुकी है। वे जीवंत नहीं दिखाई पड़ेंगे। वे मूढ़ होने की सीमा तक मंदमति होंगे। यही कारण है कि साधुओं ने संसार में कभी किसी सुंदर चीज का निर्माण नहीं किया है। उनके द्वारा कुछ भी निर्मित नहीं हुआ है। वे अपशिष्ट हैं, वे उर्वर भूमि नहीं हैं। वे नपुंसक सिद्ध हुए हैं।

सारे पलायन तुम्हें और कायर, नपुंसक बना देते हैं। और जितना तुम भागते हो उतना और तुम भागना चाहते हो। सारा पलायन आत्मघाती है।

फिर मेरा क्या अभिप्राय है? क्या मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि कभी अकेले मत रहो? नहीं, जरा भी नहीं। बल्कि मैं कह रहा हूं कि कभी अकेलेपन में मत रहो।

एकांत उस समृद्धि से आता है जिसे तुमने संबंधों के, अनेक संबंधों, अनेक आयामों, अनेक गुणवत्ताओं के माध्यम से सीखा है मां के साथ रह कर, पिता के साथ रह कर, मित्र के साथ रह कर, भाई, बहन के साथ रह कर, पत्नी के साथ, प्रेमिका, प्रेमी के साथ रह कर, मित्रों के, शत्रुओं के साथ रह कर सीखा है।’साथ रह कर’ ही संसार है। और व्यक्ति को जितना संभव हो सके उतने अधिक संबंधों में रह कर देखना पड़ता है, तभी तुम विस्तीर्ण होते हो। प्रत्येक संबंध तुम्हारी आंतरिक समृद्धि में कुछ योगदान करता है। जितना अधिक तुम लोगों के मध्य उनसे संबंधित होकर फैल जाते हो, उतना ही अधिक तुम्हारा विस्तार हो जाता है। तुम्हारे पास एक और बड़ी आत्मा होती है, और तुम्हारे पास एक और समृद्ध आत्मा होती है। वरना तुम दरिद्र हो जाते हो।

अब मनस्विद उन बच्चों पर कठोर श्रम कर रहे हैं, जिनको अपना पहला और आधारभूत संबंध

नहीं मिला है—बच्चे और मां का संबंध। वे सिकुड जाते हैं। ये बच्चे कभी सामान्य न होंगे। किसी कारण से विस्तीर्ण होने की पहली लालसा नहीं घट पाई है। मां और बच्चे के बीच का संबंध संसार में पहला प्रवेश है।

तुम संसार में अपनी मां के प्रेम के साथ प्रविष्ट होते हो। तुम्हारा संसार में प्रवेश होता है क्योंकि तुम अपनी मां से संबंधित होते हो, और तुम सीखते हो कि किस भांति संबंधित हुआ जाए। वह उष्णता जो मां और बच्चे के बीच प्रवाहित होती है ऊर्जा का पहला आदान—प्रदान है। यह चरम रूप से कामुक है क्योंकि सारी ऊर्जा कामुक है। बच्चा मुस्कुरा रहा है, मां मुस्कुरा रही है, प्रचंड मात्रा में ऊर्जा का आदान— प्रदान हो रहा है। मां बच्चे को दुलार कर रही है, बच्चे का आलिंगन कर रही है, बच्चे का चुंबन ले रही है, एक विराट ऊर्जा बच्चे को दी जा रही है, और बच्चा प्रतिसंवेदन के लिए तैयार हो रहा है। शीघ्र ही वह दिन आ जाएगा जब बच्चा मां का आलिंगन करेगा और उसका चुंबन लेगा। वह अब बड़ा है, न केवल लेने के लिए तैयार, बल्कि देने के लिए भी तत्पर है। यह उसकी पहली सीख है। फिर वह भाइयों और बहनों और पिता और चाचाओं के साथ उठेगा—बैठेगा, और यह वर्तुल और—और बडा और बड़ा होता जाएगा—विद्यालय में, और महाविद्यालय में, और विश्वविद्यालय में और फिर ब्रह्मांड में—व्यक्ति आगे बढ़ता जाता है।

जितना अधिक तुम संबंधित हो उतना ही अधिक से अधिक तुम हो। अस्तित्व की खोज संबंधित होने के माध्यम से होती है। प्रत्येक संबंध एक दर्पण है। यह तुम्हारे अस्तित्व का एक भाग तुम्हें दिखाता है। यह तुम्हारे बारे में कुछ प्रदर्शित करता है। तुम्हारे बारे में यह कुछ प्रतिबिंबित करता है। जब तुम इतने अधिक विकसित हो जाओ और अनंत तक विस्तीर्ण हो जाओ तब अंतिम संबंध परमात्मा से होता है। यह अंतिम संबंध है।

यदि तुम संबंधों से भागते हो, जैसा कि ये तथाकथित धार्मिक लोग करते हैं.. .वे कुछ बहुत असंगत कार्य कर रहे हैं। वे परमात्मा से संबंधित होने में समर्थ नहीं हो पाएंगे, क्योंकि उन्होंने सीखा ही नहीं कि संबंधित किस प्रकार हुआ जाए। उन्होंने नहीं सीखा कि संबंधों में कैसे उतरा जाए। और याद रखो परमात्मा से संबंधित होना महानतम, सर्वाधिक खतरनाक संबंध है।

अभी उसी दिन मैं एक ईसाई, एक बहुत सुंदर व्यक्ति, जो रूस की जेलों में कई साल रहा है, के संस्मरण पढ़ रहा था। तीन साल वह लगातार एक भूमिगत कोठरी में, जमीन से तीस फीट नीचे रहा। लगातार तीन वर्ष तक उसने जरा भी धूप, कोई फूल, कोई तितली, चंद्रमा तक नहीं देखा। उसने संतरी के अतिरिक्त किसी आदमी का चेहरा भी नहीं देखा। तीन साल का यह समय पगला देने वाला था। न पढ़ने के लिए कोई पुस्तक, न करने के लिए कुछ कार्य। उसे तो यह भी नहीं पता था कि इस समय दिन है या रात, बाहर संसार में..सूर्योदय हुआ भी या नहीं। वहां कोई समाचार पत्र भी नहीं था, संसार में क्या हो रहा था इसकी कोई भी खबर नहीं, कुछ भी नहीं। वह पूरी तरह असंबद्ध था। उसने एक काम करना आरंभ कर दिया—आत्यंतिक रूप से सुंदर था यह कार्य, उसने परमात्मा से बात करना आरंभ कर दी। करने को क्या था? और करता भी क्या? तीन वर्ष तक उसने परमात्मा से बातें कीं और धीरे— धीरे वह उपदेश देने लगा। परमात्मा उसका एक मात्र श्रोता था। वह खड़ा हो जाता और वह उपदेश करता। लेकिन वे उपदेश वास्तव में सुंदर थे।

अब कारागृह से बाहर निकल कर उसने उन उपदेशों को एकत्रित किया और उसने उन्हें वैसा ही रखा है जैसा उसने उन्हें परमात्मा से बोला था। वह कहता है, ‘अपमानित अनुभव न करें।’ क्योंकि अनेक बार वह परमात्मा से क्रोधित हो जाता है। व्यक्ति को क्रोधित होना पड़ेगा। क्या मूर्खता है : तीन साल के लिए! वह शास्त्रों से उद्धरण देता है और परमात्मा से कहता है, उसे देखो जो तुमने कहा हुआ है। बाइबिल में तुम कहते हो कि मनुष्य को कभी अकेला नहीं रहना चाहिए। मेरे बारे में क्या? क्या तुम अपने धर्मशास्त्र के बारे में, और अपना वह संदेश जो जीसस के माध्यम से दिया था, उसके बारे में सब कुछ भूल चुके हो? कहां हो तुम? क्या तुमने अपने नियम बदल लिए हैं? एक व्यक्ति को कभी अकेला नहीं होना चाहिए? तो तुमने मुझको तीन साल तक क्यों अकेला रहने के लिए—बाध्य किया? और वह कहता है, याद रहे, फैसले वाले दिन मैं अकेला ही गुनाहगार न होऊंगा, तुम भी वहां गुनाहगार बन कर खड़े रहोगे। न केवल तुम मेरे पापों के बारे में बताओगे, मैं भी तुम्हारे पापों के बारे में बताऊंगा। याद रहे! इसे भूलना मत! यह मामला एक तरफा नहीं होने जा रहा है।

वास्तव में ये संवाद, ये परमात्मा के साथ वार्तालाप सुंदर हैं। उन्हीं वार्तालापों के कारण वह सामान्य रहा। वह कारागृह से पूर्णत: स्वस्थ बाहर आया, उससे भी अधिक सामान्य जैसे मानसिक स्वास्थ्य के साथ वह भीतर गया था—अधिक स्वस्थ। ऐसा सुंदर संबंध.. .और परमात्मा पूरी तरह मौन था। यह क्षुब्ध करता है। तुम बात किए चले जाते हो; वह कुछ नहीं कहता, ही, नहीं—कुछ भी नहीं।

जरा सोचो, तुम बोलते चले जाओ और तुम्हारी पत्नी चुपचाप रहे। वह रसोई में काम करती रहे। तुम पगलाए जा रहे हो और तुम चीख रहे हो और चिल्ला रहे हो और वह खामोशी से अपना काम किए चली जा रही है। कैसा महसूस होगा तुमकी? परमात्मा के संबंध में ऐसा ही घटित होता है 1 व्यक्ति को इसे जीवन में सीखना पड़ता है, तभी तुम परमात्मा से संबंधित हो सकते हो। परमात्मा से संबंधित होना समग्र से संबंधित होना है। निःसंदेह वह समग्र मौन है, और उससे संबंधित होने के लिए बहुत कुशलता की आवश्यकता है—केवल तभी संबंध हो पाता है। जब तुम परमात्मा से संबंधित हो चुके हो और तुम उस में विलीन हों गए हो, तभी एकांत घटता है।

एकांत अंतिम उपलब्धि है।

यही है जिसको पतंजलि कैवल्य कहते हैं : आत्यंतिक एकांत। यह कोई आरंभ में नहीं है, यह अंत में है। यही कारण है कि हम अंतिम अध्याय पढ़ रहे हैं—यह अध्याय एकांत के बारे में है, कैवल्यपाद। योगी का अनेक जन्मों से सारा प्रयास यही है कि किस भांति स्वात तक पहुंचा जाए। यह इतना सस्ता नहीं है। जितना तुम सोचते हो कि तुमने बस घर छोड़ दिया और तुम किसी गुफा में चले गए और तुमको एकांत उपलब्ध हो गया। फिर तो पतंजलि के योग—सूत्र की कोई जरूरत न रही। बस एक ही सूत्र काम कर जाएगा : रेलवे स्टेशन जाओ एक टिकट खरीद लो और हिमालय चले जाओ, बस हो गया। तुम्हें कौन रोक रहा है? तुम्हें रोका कैसे जा सकता है?

लेकिन उस प्रकार से जीवन बहुत सस्ता हो जाएगा, किसी कीमत का न रहेगा। व्यक्ति को इसे सीखना पड़ता है। तुम्हारे सभी संबंधों का खिल जाना एकांत है। तुमने अपने सभी संबंधों की सुगंधों को, अच्छी या बुरी, सुंदर या कुरूप, को एकत्रित कर लिया है, तुम सुगंध एकत्रित करते चले जाते हो। फिर तुम्हारे भीतर एक ज्वाला उठती है। उस एकांत को लक्ष्य होना चाहिए। जिसको अभी तुम एकांत कह रहे हो वह एकांत नहीं है; यह तो बस अकेलापन होने जा रहा है। अकेले में होना, एकांत में होना नहीं है। अकेले होना, कुरूप, रुग्ण, उदास है। एकांत में होना अपने में परम सौंदर्य लिए हुए है; यह एक उपलब्धि है।

‘…….क्योंकि मैं उतना बोधपूर्ण नहीं हूं कि बिना गीले हुए पानी में उतर जाना या बिना जले हुए आग में से गुजर जाना मेरे लिए संभव हो सके।’

फिर तुम किस प्रकार से बोधपूर्ण होने जा रहे हो? संबंधों में और—और आगे बढ़ो। भाग कर तुम कभी बोधपूर्ण नही पाओगे। तुमको बोधपूर्ण बनने के लिए इन सभी की आवश्यकता है। यदि तुम संसार में रहते हुए बोधपूर्ण न हो सके तो संसार से .बाहर रह कर तुम बोधपूर्ण नहीं हो सकते। अन्यथा तुमको संसार दिया ही किसलिए गया है; तुम संसार में क्यों हो—बोध सीखने के लिए।

जब तुम्हारे रास्ते में बहुत सारे लोग इधर—उधर भाग—दौड़ कर रहे हों, अनेक ऊर्जाएं तुम्हारे चारों ओर आवागमन कर रही हों, और हल करने के लिए यह एक पहेली हो, तो इससे बोध का उदय होगा। ही, एक दिन तुम पानी में चलने में समर्थ हो जाओगे और पानी तुम्हारे पांवों को स्पर्श नहीं करेगा; लेकिन इससे पूर्व कि ऐसा घटित हो तुमको जीवन की अनेक नदियों और सागरो में चलना पड़ेगा। ही, एक दिन तुम आग में चलने में समर्थ हो जाओगे और अग्नि तुमको नहीं जलाएगी; लेकिन इसको अनेक अग्नियों और अनेक दहन अनुभवों से होकर सीखना पड़ेगा, केवल अनुभव से ही व्यक्ति मुक्त होता है। सत्य मुक्त करता है; अनुभव तुमको सत्य देते हैं। बिना अनुभवों के जीवन के लिए कभी निर्णय मत करो। सदैव और अनुभवों के लिए निर्णय लो। भले ही कितना कठिन और दुष्कर हो, लेकिन सदा अनुभव का जीवन चुनो। एक दिन तुम पार चले जाओगे, लेकिन व्यक्ति इसे जान कर ही अतिक्रमण करता है।

तीसरा प्रश्न:

अभी उस दिन आपने मेरे प्रश्न के उत्तर में जीवन को पूरी तरह से जीने और उसका आनंद लेने को कहा। लेकिन फिर जीवन क्‍या है? काम—भोग में संलग्‍न होने, धन कमाना, सांसारिक इच्‍छाओं की पूर्ति करना, और यही सब कुछ? यदि ऐसा है, तो व्‍यक्‍ति को दूसरों पर और उन सांसारिक वस्‍तुओं पर, जिनको निश्‍चित रूप से आगे जाकर बंधन बन जाना है, निर्भर होना पड़ेगा। और क्‍या यह खोजी की खोज को बहुत लंबा भी नहीं बना देगी?

हां, जीवन यही सब कुछ है जिसकी तुम कल्पना और अभिलाषा कर सकते हो। काम— भोग सम्मिलित है, धन सम्मिलित है, मनुष्य का मन जिसकी अभिलाषा कर सकता है, वह प्रत्येक वस्तु इसमें सम्मिलित है। लेकिन तुम एक अटकाव वाला जीवन जीते हो। प्रश्न को लिखे जाने में भी तुम्हारी निदाएं पूरी तरह स्पष्ट रूप से साफ दिखाई दे रही हैं।

तुम कहते हो. ‘अभी उस दिन आपने मेरे प्रश्न के उत्तर में जीवन को पूरी तरह से जीने और उसका आनंद लेने को कहा। लेकिन फिर जीवन क्या है? काम— भोग में संलग्न होना, धन कमाना, सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करना, और यही सब कुछ?’ निंदा स्पष्ट है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रश्न पूछने से पूर्व ही उत्तर का तुम्हें पता है। तुम्हारी सीख नितांत स्पष्ट है—काम— भोग को काट दो, प्रेम को काट दो, धन को काट दो, लोगों को काट दो। फिर वहां किस प्रकार का जीवन बचेगा?

इसे समझना पडेगा। जीवन शब्द का अपने में, यदि तुम हर बात को काटते चले जाओ तो कोई अर्थ नहीं है। और प्रत्येक बात की निंदा की जा सकती है। भोजन का आनंद लेना ही जीवन है; कोई भी इसकी निंदा कर सकता है; क्या मूर्खता है! बस भोजन को चबाना और इसे भीतर निगल लेना! क्या यही जीवन हो सकता है? फिर श्वास लेना, बस वायु भीतर लेना, इसको बाहर फेंक देना, इसे भीतर लेना, इसे बाहर फेंक देना—कितनी ऊब! और किसलिए? फिर प्रात: शीघ्र ही उठ जाना और संध्या को सोने चले जाना, और कार्यालय जाना और दुकान जाना, और हजारों प्रकार की पीड़ाएं। क्या यही जीवन है? फिर किसी स्त्री के साथ सहवास करना? बस दो गंदे शरीर! किसी स्त्री का चुंबन लेना और कुछ नहीं बल्कि लार और लाखों जीवाणुओं का आदान—प्रदान। जीवाणुओं के बारे में सोचो यह तो स्वास्थ्यदायी भी नहीं है, निश्चित रूप से यह अधार्मिक है। यह स्वास्थ्य के लिए नुकसान पहुंचाने वाला भी है।

तो जीवन क्या है? प्रत्येक बात को समग्र के संदर्भ में लो और यह अर्थहीन, असंगत दिखाई पड़ती है। इसी कारण धार्मिक लोग जीवन को युगों से निंदित करते आ रहे हैं। उनको तुम कोई भी चीज दे दो और वे इसको निंदित करने में समर्थ हो जाएंगे। वे कहेंगे, शरीर है क्या? बस खाल का एक थैला भर है, जिसमें लाखों गंदी चीजें भरी हुई हैं। जरा थैला खोलो और देख लो। और तुम पाओगे कि वे सही हैं। लेकिन क्या तुमने दूसरा प्रश्न पूछा है? ये लोग किसी ऐसी वस्तु की आशा लगा रहे थे जो उनको वहां नहीं मिली। खाल के इस थैले के भीतर क्या तुम सोने की उम्मीद लगा रहे थे, या खाल के थैले में हीरे? क्या तब चीजें बेहतर हो जातीं? दूसरा प्रश्न पूछो, तुम क्या उम्मीद लगा रहे थे? जो शरीर तुम्हारे पास है तुम इससे बेहतर और अधिक सुंदर शरीर को नहीं पा सकते, और तुम भीतर गंदगी देखते रहते हो। तुम उस सुंदर कार्य को नहीं देखते जो यह करता रहता है।

सारा शरीर कितनी गहन कुशलता से, कितनी शांति से, सत्तर, अस्सी या सौ साल तक कार्यरत रहता है। शरीर में कार्यरत ऊर्जा के स्पंदन को, ऊर्जा की धड़कन को देखो। लेकिन ऐसे लोग हैं जो हमेशा कुछ न कुछ गलत खोज सकते हैं। भले ही यह कुछ हो, वे कुछ न कुछ गलत खोज सकते हैं। तुम उनको एक गुलाब दिखाओ और वे उसे पौधे से तोड़ लेंगे और कहेंगे, यह क्या है? यह कुछ ही घंटों में मुर्दा हो जाएगा। हां, यह विदा हो जाएगा, ऐसे सारा सौंदर्य खो जाता है। उन्हें तुम एक सुंदर इंद्रधनुष दिखाओ, और वे कहेंगे, यह भ्रम है। तुम वहां जाओ तुम्हें कुछ न मिलेगा। यह बस प्रतीत होता है कि है। ये महान निंदक जीवन को विषाक्त करने वाले हैं। उन्होंने हर चीज को विषाक्त कर दिया है, और तुमने उनकी बातों को बहुत अधिक सुन रखा है। अब तुम यह पाते हो कि जीवन का आनंद ले पाना तुम्हारे लिए करीब—करीब असंभव हो चुका है। लेकिन तुम यह कभी नहीं सोचते कि जीवन का आनंद ले पाने की इस अक्षमता को तुम्हारे तथाकथित धार्मिक शिक्षकों ने निर्मित किया है। उन्होंने तुम्हारे अस्तित्व को विषाक्त कर दिया है। उस समय भी जब तुम किसी स्त्री का चुंबन ले रहे होते हो तुम्हारे भीतर वे तुम्हें बताए चले जाते हैं, यह क्या कर रहे हो तुम? यह मूर्खता है। इसमें कुछ नहीं रखा है। जब तुम भोजन कर रहे होते हो, वे कहे चले जाते है, तुम क्या कर रहे हो? इसमें कुछ नहीं रखा है। उन निंदकों ने एक बड़ा काम कर डाला है।

और यह मूलभूत समस्याओं में से एक है। प्रशंसा करना कठिन है और निंदा करना सरल है। प्रशंसा करना बहुत कठिन है क्योंकि तुम्हें विधायक रूप से कुछ सिद्ध करना पड़ेगा। केवल तभी तुम प्रशंसा करू सकते हो। एक श्रेष्ठ जर्मन कवि हेनरिक हेन अपने संस्मरणों में लिखता है. एक बार मैं एक बड़े दर्शनशास्त्री हीगल के साथ खड़ा हुआ था, और यह एक सुंदर शीतल रात्रि थी—अंधेरी, शांत, और सारा आकाश सितारों के सौंदर्य से जगमगा रहा था। निःसंदेह कवि ने इसकी प्रशंसा करनी आरंभ कर दी, और उसने कहा, कितना सौंदर्य, कैसा आत्यंतिक सौंदर्य। और उसने आगे कहा, मैं सदैव सोचता था कि यदि व्यक्ति केवल भूइम को देखता है और कभी आकाश को नहीं देखता तो वह नास्तिक हो सकता है। लेकिन एक व्यक्ति जो आकाश की ओर देखता हो वह नास्तिक कैसे हो सकता है? असंभव है यह। लेकिन धीरे— धीरे वह थोड़ा असहज हो गया क्योंकि हीगल पूरी तरह से चुपचाप था, उसने एक शब्द भी नहीं बो ला था। उसने हीगल से पूछा, महोद्रय, आप क्या सोचते हैं? और हीगल ने कहा, मैं कोई सौंदर्य या कोई बात नहीं देख पाता हूं। आप इन सितारों की बात कर रहे हैं? वे और कुछ नहीं बल्कि आसमान का कोढ़ हैं। कोढ़…….!

निंदा कितनी सरल है। यही कारण है कि निंदा करने वाले इतने सुस्पष्ट होते हैं। लोगों ने जीवन के पक्ष में बात नहीं की है, क्योंकि जीवन के बारे में कुछ भी विधायक कहना कठिन है—शब्दों के लिए यह बहुत कठिन ह्रै। निंदक अपनी बात कहने में बहुत कुशल रहे हैं वे निंदा करते रहे हैं और इनकार करते रहे हैं, किंतु उन्होंने तुम्हारे भीतर एक निश्चित मन निर्मित कर दिया है जो भीतर कार्यरत रहता है और तुम्हारे जीवन को विषाक्त करता रहता है।

अब तुम मुझसे पूछते. हो : ‘जीवन क्या है? काम— भोग में संलग्न होना? धन कमाना? सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करना, और यही सब कुछ?’

और सांसारिक इच्छाओं में गलत क्या है? वास्तव मे सभी इच्छाएं सांसारिक हैं। क्या तुमने किसी ऐसी इच्छा को जाना है जो सांसारिक न हो? परमात्मा को तुम किसलिए चाहते हो? और तुम पाओगे कि तुम्हारी इच्छा में सारा संसार छिपा हुआ है। तुम स्वर्ग की इच्छा क्यों करते हो? और तुम पाओगे कि वहां सारा संसार छिपा हुआ है। वे जो जानते हैं कहते हैं कि इच्छा में ही संसार है। वे ‘सांसारिक इच्छाएं’ नहीं कहते। बुद्ध ने कभी नहीं कहा था, सांसारिक इच्छा। वे कहते हैं, इच्छा ही संसार है, इच्छा जैसी वह है। समाधि के लिए इच्छा, संबोधि के लिए इच्छा भी सांसारिक है। इच्छा करना संसार में होना है, इच्छा न करना संसार से बाहर होना है।

इसलिए_ सांसारिक इच्छा की निंदा मत करो; इसको समझने का प्रयास करो, क्योंकि सभी इच्छाएँ सांसारिक हैं। यही है भय कि यदि तुम सांसारिक इच्छाओं की निंदा करते हो तो तुम अपने लिए नई इच्छाएं निर्मित करना आरंभ कर देते हो, जिनको तुम अ—सांसारिक या दूसरे संसार की कहते हो। तुम कहोगे मैं कोई साधारण मनुष्य नहीं हूं। मैं धन के पीछे नहीं हूं। यह आखिर है क्या? तुम मरते हों—तुम धन को अपने साथ नहीं ले जा सकते। मैं किसी शाश्वत संपदा की खोज, अन्वेषण कर रहा हूं। इसलिए तुम अ—सांसारिक हो, या अधिक सांसारिक हो? वे लोग जो इस संसार की संपत्ति से संतुष्ट हो जाते हैं—जो क्षणिक है, और मृत्यु इसको छीन लेगी—वे सांसारिक हैं। और तुम किसी ऐसी संपदा की खोज कर रहे हो जो स्थायी है, जो सदा और सदा के लिए है, और तुम असांसारिक हो? तुम अधिक चालाक और चतुर प्रतीत होते हो।

लोग सामान्य मानवों से काम संबंध बना रहे हैं—वे सांसारिक हैं। और तुम क्या चाह रहे हो? और कुरान में देखो, बाइबिल में देखो, हिंदुओं के धर्मशास्त्रों में देखो. स्वर्ग में तुम किसकी इच्छा कर रहे हो? सुंदर अप्सराएं स्वर्ण से बनी हुईं, उनकी आयु कभी नहीं बढ़ती है, वे सदा युवा रहती हैं। वे सदा सोलह वर्ष की रहती है—न कभी पंद्रह, न कभी सत्रह—कितने आश्चर्य की बात है। जब शास्त्र लिखे गए थे, तब भी उनकी आयु सोलह वर्ष थी। अब शास्त्र बहुत प्राचीन हो चुके हैं, लेकिन ये अप्सराएं अभी भी सोलह वर्ष की आयु पर रुकी हुई हैं। तुम क्या चाह रहे हो?

मुसलमान देशों में समलैंगिकता प्रभ्रावी रही है, इसलिए उनके स्वर्ग में इसकी भी व्यवस्था है। तुम्हारे पास न केवल सुंदर लडकियां होगी बल्कि तुम्हारे लिए सुंदर लड़के भी उपलब्ध रहेंगे। और इस संसार में अल्कोहल निंदित है, वहां मुसलमानों के स्वर्ग में शराब के चश्मे बहते हैं। शराब की नदियां! तुम्हें शराबखानों में जाने की जरूरत ही नह्रीं है, तुम तो बस उनमें तैर सकते हो, उनमें डुबकी लगा सकते हो। और तुम इन लोगों को असासारिक कहते हो? वास्तव में वे और कोई नहीं?ल्कि सांसारिक लोग हैं जो इस संसार से इतने निराश हो गए हैं कि अब वे कल्पना में जीते हैं। उनके पासकल्पना का एक संसार है, वे इसको स्वर्ग, जन्नत या कुछ और कहते हैं।

सभी इच्छाएं सांसारिक हैं, और जब मैं यह कहता हूं तो मैं उनकी निंदा नहीं कर रहा हूं मैं केवल एक तथ्य बोल रहा हूं इच्छा करना सांसारिक होना है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। परमात्मा ने यह समझने के लिए कि इच्छा क्या है, तुम्हें एक अवसर दिया है। इच्छा को समझने में, इसकी मात्र समझ से ही इच्छा तिरोहित हो जाती है। क्योंकि इच्छा भविष्य में है, इच्छा कहीं और है, और तुम अभी और यहीं हो। तुम अभी और यहीं होना चाहते हो और सत्य अभी और यहीं है, अस्तित्व अभी और यहीं घटित हो रहा है, सभी कुछ अभी और यहीं पर एकाकार हो रहा है, और अपनी इच्छा के साथ तुम कहीं और हो, इसलिए तुम चूकते चले जाते हो। तुम सदैव अतृप्त रहते हो क्योंकि वह जो तुमको तृप्त कर सकता है यहीं बरस रहा है और तुम कहीं और हो।

अभी एकमात्र सत्य है और यहीं एकमात्र अस्तित्व है। इच्छा तुम्हें दूर ले जाती है।

इच्छा को समझने का प्रयास करो, किस भांति यह तुम्हें धोखा देती रहती है, किस प्रकार यह तुम्हें और—और अभियानों पर ले जाती है, और तुम चूकते चले जाते हो। इसलिए जब कभी तुम्हें स्मरण आ जाए, वापस आ जाओ, घर लौट आओ।

इच्छा से संघर्ष करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यदि तुम इच्छा के साथ संघर्ष करोगे तो तुम एक और इच्छा निर्मित कर लोगे। केवल एक इच्छा ही दूसरी इच्छा के साथ संघर्ष कर सकती है। समझ इच्छा के साथ संघर्ष नहीं है। समझ के प्रकाश में इच्छा तिरोहित हो जाती है; जैसे कि जब तुम दीया जलाते हो तो अंधकार मिट जाता है।

इसलिए इन्हें सांसारिक इच्छाएं मत कहो; निंदक मत बनो। समझने का प्रयास करो।

यदि ऐसा है तो व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर होना पड़ेगा, और उन सांसारिक वस्तुओं पर जिनको निश्चित रूप से आगे जाकर बंधन बन जाना है। लेकिन दूसरों पर निर्भर होने में गलत क्या है? अहंकार किसी पर निर्भर होना नहीं चाहता। अहंकार स्वतंत्र होना चाहता है। लेकिन तुम निर्भर हो। तुम अस्तित्व से भिन्न नहीं हो, तुम उसका भाग हो। प्रत्येक चीज आपस में जुड़ी है। हमारा अस्तित्व एक साथ है, एक सहजीविता में है। अस्तित्व एक सहजीवन है तो तुम स्वतंत्र कैसे हो सकते हो?. क्या तब तुम श्वास न लोगे? क्या तब तुम भोजन नहीं करोगे? यदि तुम भोजन करोगे तो तुमको वृक्षों पर, पौधों पर निर्भर होना पड़ेगा। वे तुम्हें भोजन की आपूर्ति कर रहे हैं। क्या तुम पानी नहीं पियोगे? फिर तो तुम्हें नदियों पर निर्भर होना पड़ेगा। और क्या तुमको सूर्य की आवश्यकता नहीं पड़ेगी? तब तो तुम मर जाओगे। तुम स्वतंत्र कैसे हो सकते हो? ‘ आत्मनिर्भर’ एक गलत शब्द है, उतना ही गलत है जितना गलत यह शब्द निर्भर है। आत्मनिर्भरता और पर निर्भरता दोनों गलत हैं। असली बात है, ‘परस्पर निर्भरता।’ हम सभी साथ—साथ हैं, परस्पर निर्भर हैं। राजा तक अपने दास पर उतना ही निर्भर है जितना कि दास राजा पर निर्भर है। यह एक परस्पर निर्भरता है।

ऐसा खलीफा हारुन रशीद के जीवन में हुआ। वह अपने दरबारी विदूषक बोल्लुल के साथ बैठा हुआ था और उसने कहा, बोल्लुल, मैं संसार में सर्वाधिक आत्मनिर्भर व्यक्ति हूं। मैं अनंत शक्ति संपन्न सुलान हूं और मैं जो कुछ भी चाहूं कर सकता हूं। सारा संसार मेरी आशा मानता है। क्या तुम किसी को खोज सकते हो जो मेरे आदेश के अधीन न हो।

बोल्लुल खामोश रहा, फिर वह बोला, हुजूर यह एक मक्खी मुझे बहुत परेशान कर रही है। क्या आप उसे आता दे सकते हैं कि वह मुझे तंग न करे?

हारुन रशीद ने कहा तुम मूर्ख हो। मैं किसी मक्खी को कैसे आदेश दे सकता हूं? और वह मेरी बात नहीं सुनेगी।

बोल्लुल ने कहा : हुजूर क्या आप भूल गए, अभी आप क्या कह रहे थे कि सारा संसार आपके आदेशों का पालन करता है? और यह मक्खी भी जो ठीक आपके सामने मेरे सिर पर बैठी है। मैं इसको भगा देने की कोशिश कर रहा हूं और यह बार—बार आकर मेरी नाक पर बैठ रही है; और मैंने देखा है कि यह आपकी नाक पर भी बैठ चुकी है, हुजूर! और आप इस जरा सी मक्खी को आशा नहीं दे सकते? और सारा संसार आपके आदेश का पालन करता है? कृपया आप दुबारा सोचें।

यह संसार एक परस्पर निर्भरता है।

हारुन रशीद और मक्खियां सभी परस्पर निर्भर हैं, और बोल्लुल हारुन रशीद से अधिक समझदार है। वस्तुत: क्योंकि वह बहुत बुद्धिमान है, इसीलिए उसे मूर्ख समझा जाता है। या शायद ऐसा उसकी बुद्धिमानी के कारण है कि वह स्वयं को मूर्ख कहता हो, क्योंकि मूर्खों के इस संसार में तुमको यह घोषित नहीं करना चाहिए कि तुम एक बुद्धिमान व्यक्ति हो। वरना वे तुमको मार डालेंगे। यह बोल्लुल सुकरात और जीसस से अधिक समझदार प्रतीत होता है। उन्होंने एक गलती की, उन्होंने घोषणा कर दी कि वे समझदार हैं। इसी बात ने संकट उत्पन्न कर दिया। सारे मूर्ख एक साथ एकत्रित हो गए और उन्होंने कहा, हम तुम्हें सहन नहीं कर सकते। तुम किसी बोल्लुल को सूली नहीं चढ़ा सकते। हो सकता है कि वह जीसस और सुकरात से अधिक समझदार हो। वह कहता है, मैं बेवकूफ हूं हुजूर, लेकिन उसकी अंतर्दृष्टि को देखो।

एक बार हारुन रशीद ने एक कविता लिखी। अब प्रत्येक व्यक्ति ने इसकी प्रशंसा की, प्रत्येक व्यक्ति को इसकी प्रशंसा करनी पड़ी। यह बस एक मूर्खता थी। और जब उसने दरबार में बोल्लुल से पूछा, उसने कहा, यह निरी मूर्खता है, हुजूर, मुझ जैसा मूर्ख भी इस जैसी कविता नहीं लिखेगा। निःसंदेह हारुन रशीद बहुत क्रोधित हो गया। बोल्लुल को कारागार में डाल दिया गया, और उसे पीटा गया और उसे भूखा रहने को बाध्य किया गया। सात दिन बाद फिर उसको दरबार में लाया गया। हारुन रशीद ने एक और कविता लिखी थी, और यह कविता पहली से कहीं अधिक परिष्कृत थी। और सारे दरबार ने कहा, वाह, वाह, पुन: बोल्लुल से पूछा गया। उसने कविता को देखा, उसने सुना और तुरंत उठ कर खड़ा हो गया और जाने लगा। सुलान ने पूछा, तुम कहां जा रहे हो? वह बोला, कारागार। मैं फिर वहीं जा रहा हूं। मैं आपको मुझे कारागृह भेजने की तकलीफ नहीं दूंगा। इसकी जरूरत ही क्या है? वह वास्तव में बुद्धिमान व्यक्ति था।

यही विडंबना है कि अनेक बार बुद्धिमान व्यक्ति को खुद को मूर्ख की भांति प्रकट करना पड़ता है। याद रखो, स्वतंत्र होने का प्रयास बहुत मूर्खतापूर्ण है। और यह संभव नहीं है; असंभव है यह। तब तुम और—और हताश हो जाओगे, क्योंकि हमेशा तुम पाओगे कि तुम पुन: निर्भर हो, पुन: अर्त्वित हो। जहां कहीं तुम जाओगे तुम निर्भर रहोगे, क्योंकि तुम अस्तित्व के जाल से बाहर नहीं निकल सकते। हम एक जाल की गांठों की तरह हैं—हमसे होकर ऊर्जाएं बहती रहती हैं। जब बहुत सारी ऊर्जाएं एक बिंदु से होकर गुजरती हैं वह बिंदु विशिष्टता बन जाता है, यही है सारी बात। कागज पर रेखा खींचो, फिर इसके आर—पार एक और रेखा खींचो; जहां ये दोनों रेखाएं एक—दूसरे को काटती हैं, विशिष्टता बन जाती हैं। जहां जीवन और मृत्यु एक—दूसरे को काटते हैं, वहीं तुम हो, मात्र एक उभयनिष्ट बिंदु।

इसको समझ लेना ही सब कुछ है। फिर न तुम पर निर्भर हो, न तुम आत्मनिर्भर हो, दोनों असंगतियां हैं। फिर तुम बस परस्पर निर्भर होते हो, और तुम स्वीकार कर लेते हो।

‘यदि ऐसा है तो व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर होना पड़ेगा, और उन सांसारिक वस्तुओं पर, जिनको निश्चित रूप से आगे चल कर बंधन बन जाना है।’

किसने कहा तुमसे कि उनको निश्चित रूप से आगे चल कर बंधन बन जाना है? या तो तुम जानते हो या नहीं जानते। यदि तुम्हें पता है तो मुझसे पूछने में कोई सार नहीं; तुम उस बंधन में नहीं पडोगे। यदि तुम नहीं जानते और तुमने इस बात को बस दूसरों से सुन रखा है, तो यह मदद देने वाला नहीं है। तुम संकट में पड़ोगे।

तुम सदा आधे हृदय से जीते रहोगे क्योंकि यह तुम्हारी समझ नहीं है, और केवल तुम्हारी समझ तुम्हें मुक्त कर सकती है।

मैं तुमको कुछ कहानियां सुनाता हूं :

एक व्यक्ति और उसकी पत्नी ने समझौता किया कि उनमें से जो भी पहले मरेगा वह वापस आएगा और दूसरे को बताएगा कि उस दुनिया में कैसा लगता है।’फिर भी एक बात है’, पति ने कहा, ‘यदि तुम पहले मर जाओ, तो मुझे तुमसे एक वादा चाहिए कि तुम दिन के समय ही वापस आओगी।’ वह भयभीत था इस समझौते में, आधे मन से सम्मिलित था।

यदि तुमने—दूसरों पर विश्वास किया है—क्योंकि दूसरे कहते हैं कि यदि तुम इस संसार में उठोगे—बैठोगे तो तुम बंधन में पड़ोगे—फिर तो जहां कहीं भी तुम जाओ तुम बंधन में होओगे, क्योंकि यह तुम्हारी समझ नहीं है। समझ तुम्हें मुक्त करती है। और याद रखो, बंधन आगे चल कर नहीं घटित होता है, यह तुरंत बंध जाता है।

जिस पल तुम इच्छा करते हो, ठीक उसी पल बंधन बंध जाता है। यह इच्छा से जन्मता है, और तुममें जैसे ही इच्छा उठी तुम कारागृह में बंद हो जाते हो। यदि तुम्हारे पास अंतर्दृष्टि है तो तुम तुरंत देख लेते हो कि हरेक इच्छा अपने साथ कारागृह लेकर आती है, और यह आगे चल कर नहीं होता। आगे चल कर……यह ‘आगे चल कर’ का विचार उठता है क्योंकि दूसरे ऐसा कहते हैं। यह तुम्हारा स्वयं का अनुभव नहीं है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी मूल्यवान नहीं है।

ऐसा एक कोर्ट में घटित हुआ, मैंने देखा है, जज ने कठघरे में खड़े अभियुक्त से कहा कि तुमने धन चुराने के साथ—साथ बेशकीमती गहनों का सैट भी उठा लिया है। जी हां, योर आनर अभियुक्त ने प्रसन्नतापूर्वक कहा। मेरी मां ने मुझे बचपन से ही सिखाया था कि केवल धन ही प्रसन्नता नहीं लाता है।

दूसरों की शिक्षाएं मददगार नहीं होने जा रही हैं। अपने अनुसार तुम उनका सारा अर्थ बदल लोगे। ऐसा अचेतनता में घटेगा, चेतन रूप से नहीं। तुम धम्मपद पढ़ते हो, तुम बुद्ध के वचन नहीं पढ़ते, तुम अपनी व्याख्याएं पढ़ते हो। तुम पतंजलि के योग—सूत्र पढ़ते हो, तुम पतंजलि को नहीं पढते, तुम पतंजलि के माध्यम से अपने आप को पढ़ते हो। इसलिए यदि तुम अज्ञानी हो तो तुम पतंजलि में कुछ ऐसा खोज लोगे जो तुम्हारे अज्ञान की सहायता करता हो। यदि तुम लोभी हो तो तुम पतंजलि में कुछ ऐसा खोज लोगे जो: तुम्हारे लोभ में सहायक हो। यदि तुम लोभी हो, तो तुम कैवल्य के प्रति, मोक्ष के प्रति, निर्वाण .के प्रति लोभ से भर सकते हो। यदि तुम अहंकारी हो तो तुम कुछ ऐसा खोज लोगे जो तुम्हारे अहंकार की सहायता करता हो। तुम एक बड़े स्वतंत्र व्यक्ति बनना आरंभ कर दोगे। तुम निर्भर कैसे हो सकते हो?……ऐसा महान व्यक्ति। तुम किसी और पर निर्भर कैसे हो सकते हो? —तुम्हें आत्मनिर्भर होना पड़ेगा। चाहे तुम कुछ भी पढ़ लो, चाहे कुछ भी सुन लो, जब तक तुम अपने स्वयं के जीवन को समझना आरंभ नहीं करते उसमें तुम सदैव अपने आप को पाओगे।

‘और क्या यह खोजी की खोज को बहुत लंबा भी नहीं बना देगा?’

यही लोभ है। भयभीत क्यों हो? परिणाम की इतनी चिंता में क्यों हो? मैं बार—बार सतत रूप से अभी और यहीं होने के लिए कह रहा हूं कल की मत सोचो। और तुम न केवल कल की सोच रहे हो बल्कि तुम भविष्य के जन्मों की भी चिंता ले रहे हो।

और क्या यह खोजी की खोज को बहुत लंबा, अत्यधिक लंबा नहीं बना देगा? इससे भयभीत क्यों हो? अनंतकाल उपलब्ध है। समय की कोई कमी नहीं है। तुम बहुत धीरे, अत्यधिक मंद गति से चल सकते हो; कोई जल्दी नहीं है। यह शीघ्रता लोभ के कारण है। इसलिए जब कभी लोग अधिक लोभी हो जाते हैं, वे बहुत जल्दबाजी में रहते हैं, और अधिक रफ्तार पाने के और—और उपाय खोजते रहते हैं। वे सतत दौडते रहते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि जीवन बीता जा रहा है। ये लोभी लोग कहते हैं, समय धन है। समय धन है? धन बहुत सीमित है, समय असीम है। समय धन नहीं है, समय शाश्वतता है। यह सदैव वहां है और वहां रहेगा और तुम सदा से यहां हो और सदैव यहां रहोगे।

इसलिए लोभ को त्याग दो और परिणाम की चिंता मत लो। कभी— कभी यह घटित हो जाता है, अपने अधैर्य के कारण तुम अनेक चीजों से चूकते हो। यदि तुम मुझको लोभपूर्वक, लोभी मन से

सुन रहे हो तो तुम मुझको नहीं सुन रहे होओगे। अपने’ भीतर तुम लगातार बोल रहे होओगे, हां, यह अच्छा है; इसका मैं प्रयास करूंगा। यह मैं कर लूंगा। ऐसा लगता है कि इसके द्वारा, मुझको बहुत शीघ्र लक्ष्य मिल जाएगा। तुम मुझसे चूक गए हो कि मैं क्या कह रहा था, और जो मैं कह रहा था, उसी में लक्ष्य छिपा था।

एक चिकित्सक यहां आया करते थे; अब उनका स्थानांतरण हो चुका है, वे लगातार नोट्स बनाया करते थे। मैंने उनसे पूछा, आप यह क्या करते रहते हैं? वे बोले, बाद में घर जाकर आराम से मैं उनको पड़ता हूं। किंतु मैंने उनसे कहा, आप मुझको ‘चूकते जा रहे हैं। आप एक बात सुनते हैं, आप उसको लिखते हैं, इसी समय में मैंने कुछ ऐसा कह दिया जिससे आप चूक गए। फिर आपने कुछ लिखा पुन: आप चूक गए। और जो कुछ भी आपने संकलित किया वे अंश हैं, और आप इनको एक साथ जोड़ नहीं पाएंगे। उनके मध्य के अंतराल को, आप अपने स्वयं के लोभ से, अपनी स्वयं की समझ से, अपने स्वयं के पूर्वाग्रहों से भर देंगे और वह पूरी बात विनष्ट हो जाएगी।

लक्ष्य यहीं है।

तुमको बस मौन, धैर्यवान, सजग होना पड़ता है। जीवन को परिपूर्णता में जीयो। लक्ष्य स्वयं जीवन में ही छिपा है। यह परमात्मा है जो तुम्हारे पास लाखों ढंगों से आता है। जब कोई स्त्री तुमको देख कर मुस्कुराती है तब याद रखो, यह परमात्मा है जो एक स्त्री के रूप में मुस्कुरा रहा है। जब कोई पुष्प अपनी पंखुड़ियां खोलता है, देखो, निरीक्षण करो—परमात्मा ने अपना हृदय एक पुष्प के रूप में खोल दिया है। जब कोई पक्षी गीत गाना आरंभ करे, उसको सुनो—परमात्मा तुम्हारे लिए गीत गाने के लिए आया है। यह सारा जीवन दिव्य है, पवित्र है। तुम सदैव पवित्र भूमि पर हो। जहां कहीं भी तुम देखते हो, यह परमात्मा है। जिसको तुम देखते हो, जो कुछ भी तुम करते हो, यह परमात्मा के लिए करते हो। तुम जो कुछ भी हो तुम परमात्मा के लिए भेंट हो। मेरा अभिप्राय यही है, जीवन को जीयो, जीवन का आनंद लो, क्योंकि यही परमात्मा है। और वह तुम्हारे पास आता है और तुम उसका आनंद नहीं ले रहे हो। वह तुम्हारे पास आता है और तुम उसका स्वागत नहीं कर रहे हो। वह आता है और उसको तुम उदास, अकेले, अरुचि से भरे हुए और मंदमति के रूप में मिलते हो।

नाचो, क्योंकि हर क्षण वह अनंत ढंगों से, लाखों रास्तों से, हर दिशा से आ रहा है। जब मैं कहता हूं जीवन को परिपूर्णता में जीयो, तो मेरा अभिप्राय है, जीवन को इस भांति जीयो जैसे कि यह परमात्मा है। और इसमें प्रत्येक बात समाहित है। जब मैं कहता हूं जीवन, तो सभी कुछ समाया हुआ है इसके भीतर। काम सम्मिलित है, प्रेम सम्मिलित है, क्रोध सम्मिलित है, सब कुछ समा गया है। कायर मत बनो। बहादुर बनो और जीवन को इसकी परिपूर्णता में, इसकी पूरी सघनता में स्वीकार कर लो।

अंतिम प्रश्न:

क्‍या कोई आपका शिष्‍य हुए बिना आपकी आत्‍मा से अंतरंग हो सकता है?

यह ऐसा है जैसे कि तुम पूछो, ‘क्या कोई आपके साथ अंतरंग हुए बिना आपके साथ अंतरंग हो सकता है?’ शिष्य होना क्या है? शिष्य मात्र एक अभिरुचि, अंतरंग होने की तैयारी मात्र है। शिष्य मात्र एक स्वीकार भाव, स्वीकार करने की, स्वागत करने की तैयारी, है। शिष्य एक मुद्रा है. यदि आप मुझको देते हैं तो मैं उसे अस्वीकार नहीं करूंगा। किंतु तुम शब्दों को लेकर भ्रमित हो। तुमने प्रेम, अंतरंगता में सारी अंतर्दृष्टि खो दी है। यदि तुम शिष्य नहीं हो तो तुम अपनी ओर से अंतरंग नहीं होओगे। मेरी ओर से मैं सभी के प्रति अंतरंग हूं भले ही वे मेरे शिष्य हैं या नहीं। मैं बिना किसी शर्त के अंतरंग हूं।

किंतु यदि तुम शिष्य नहीं हो तो अपनी ओर से तुम बंद हो, इसलिए अकेली मेरी अंतरंगता कार्य नहीं करेगी। यह तुम्हारे साथ जुड नहीं सकेगी। तुम एक बाहरी व्‍यक्ति बने रहोगे। किसी भी तरह से तुम बचाव की अवस्था में रहोगे। निःसंदेह जिसे तुम चाहोगे उसी को तुम चुन लोगे, और जिसको तुम नापसंद करते हो उसे इनकार कर दोगे। शिष्य वह है जो कहता है, ओशो, मैं आपको पूर्णत: स्वीकार करता हूं अब आपके साथ मैं कोई चुनाव नहीं करूंगा—बस पूरी हो गई बात। अब मैं अपना मन छोड़ता हूं आप मेरे मन हो जाइए। मैं आपको सुनूंगा और अपने मन को नहीं सुनूंगा। यदि कोई मत विभिन्नता होती हैं तो मैं आपके साथ रहूंगा अपने मन के साथ नहीं— यही है सारी बात। यदि कोई निर्णय लिया जाना है तो मेरे अपने मन की तुलना में आप मेरे अधिक निकट रहेंगे—यही है सब कुछ।

जो व्यक्ति शिष्य नहीं है वह सीमा रेखा पर खडा रहता है और वह कहता है, जो कुछ मुझको पसंद है या जिस बात से मैं सहमति अनुभव करता हूं मैं चुनाव कर लूंगा; और जो कुछ मैं पसंद नहीं करता और जिससे मैं संतुष्ट नहीं हूं उसे मैं नहीं चुनूंगा। जो कुछ भी तुम्हें पसंद है, तुम्हारे मन को और—और शक्तिशाली बना देगा; जो कुछ तुम्हें नापसंद है इससे तुम्हारे मन का कोई रूपांतरण नहीं होगा। तुम और ज्ञानी हो जाओगे। तुम मुझसे अनेक बातें सीख लोगे, किंतु मुझको तुम नहीं सीखोगे। इसलिए यह तुम पर निर्भर है।

मेरे लिए तुम्हें शिष्य बना लेना कोई प्रश्न नहीं है, यह तुम पर निर्भर है। जब अधिक उपलब्ध है तुम कम के लिए निर्णय करते हो—जैसा है, ठीक है।

मैं तुमसे एक कहानी कहता हूं।

एक चिकित्सक के पास नगर के विभिन्न छोरों से आने वाले दो रोगी आया करते थे, दोनों पुराने अनिद्रा के रोगी थे। उन्हें नींद लाने में सहायता के लिए उसने उनको नींद की गोलियां दीं। एक को हरी गोलियां मिलीं, दूसरे को लाल वाली। एक दिन दोनों अपनी अनिद्रा की समस्या पर चर्चा कर रहे थे और बातचीत के समाप्त होने पर एक व्यक्ति को इतना अधिक क्रोध आया कि वह भाग कर चिकित्सक के पास गया और बोला, ऐसा कैसे होता है कि जब मैं अपनी नींद वाली गोलियां लेता हूं तो मैं सो जाता हूं और स्वप्न देखता हूं कि मैं बंदरगाह का मजदूर हूं और लिवर—मूल पर स्टीमर से निरर्थक सामान उतार रहा हूं तेल और गंदगी से लथपथ हूं जब कि मिस्टर ब्राउन अपनी गोलियां खाते हैं और स्वप्न देखते हैं कि वे बरामूडा के समुद्र तट पर अर्धनग्न सुंदर युवतियों से घिरे हुए लेटे हुए हैं, वे सभी उनको सहला रही हैं, चूम रही हैं, उनका समय शानदार ढंग से कट रहा है?

चिकित्सक ने अपने कंधे झटके और कहा, समझने का प्रयास कीजिए, आप स्वास्थ्य बीमा योजना के सदस्य हैं और श्री ब्राउन एक निजी रोगी हैं।

इसलिए मैं तुमसे इतना ही कह सकता हूं समझने का प्रयास करो!

आज इतना ही।

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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–83

February 21, 2015, 7:01 am

मौलिक मन पर लौटना—(प्रवचन—तैरहवां)

योग—सूत्र:

(कैवल्‍यपाद)

तत्र ध्यानजमनाशयम्‍ ।। 6।।

केवल ध्यान से जन्मा मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है।

कंर्माशुल्काकृष्णं योगिनस्तिबिधमितरेषामू।। 7।।

योगी के कर्म न शुद्ध होते हैं, न अशुद्ध, लेकिन अन्य सभी कर्म त्रि—आयामी होते हैं—शुद्ध, अशुद्ध और मिश्रित।

ततस्तद्विपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्बासनानामू।। 8।।

जब उनकी पूर्णता के लिए परिस्थियां सहायक होती हैं तो इन कर्मों से इच्छाएं उठती हैं।’’

जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्य स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्‍वात्।। 9।।

क्योंकि स्मृति और संस्कार समान रूप में ठहरते हैं, इसलिए कारण और प्रभाव का नियम जारी रहता है, भले ही वर्ण, स्थान समय में उनमें अंतर हो।

तासामनादित्‍वं चाशिषो नित्‍यत्‍वात्।। 10।।

और इस प्रक्रिया का कोई प्रारंभ नहीं है, जेसे कि जीने की इच्‍छा शाश्‍वत होती है।

तत्र ध्यानजमनाशयम्।

‘केवल ध्यान से जन्मा मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है।’

यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण सूत्रों में से एक है।

पहली बात, मौलिक मन क्या है? क्योंकि प्रत्येक प्रकार के योग का चरम लक्ष्य मौलिक मन ही है। पूर्व लगातार मौलिक मन का रास्ता खोजता रहा है। मौलिक मन वह मन है जो तुम्हारे पास तुम्हारे जन्म से पूर्व था, न केवल इस जीवन में, बल्कि उससे भी पहले जब तुम इच्छाओं के संसार में प्रविष्ट हुए थे, बल्कि उससे भी पहले जब तुम विचारों, इच्छाओं, मूल प्रवृत्तियों, शरीर, मन में सीमित हो गए .थे; वह मौलिक अंतराल, किसी भी वस्तु द्वारा अप्रदूषित, वह मौलिक आकाश, बादलों से शून्य— वही है मौलिक मन।

उस मौलिक मन पर मनों की अनेक पर्तें होती हैं। मनुष्य की अवस्था प्याज के समान है, इसे तुम छीलते चले जाते हो। तुम एक पर्त छील देते हो, दूसरी पर्त वहां होती है, तुम उस पर्त को छील देते हो, एक और पर्त दिखाई पड़ती है। तुम्हारे पास एक मन नहीं है, तुम्हारे पास अनेक मनों की पर्त दर पर्त हैं। क्योंकि प्रत्येक जीवन में तुमने एक निश्चित मन निर्मित किया है, फिर दूसरे जीवन में एक और मन, और इसी भांति अनेक मन बन चुके हैं। और इन मनों के पीछे, इन पर्तों दर पर्तों के पीछे मौलिक मन पूरी तरह खो चुका है। किंतु यदि तुम प्याज को छीलते चले जाओ तब एक क्षण आता है जब तुम्हारे हाथों में केवल खालीपन बच रहता है। प्याज खो चुका होता है।

जब सारे मन खो जाते है तभी मौलिक मन का उदय होता है। वस्तुत: इसे मन कहना उचित नहीं है, लेकिन इसको अभिव्यक्त करने का कोई और उपाय नहीं है। यह अ—मन है। मौलिक मन अ—मन है। जब वे सभी मन जो तुम्हारे पास हैं विलीन हो जाते हैं, तिरोहित हो जाते हैं, तब मौलिक मन अपनी प्राथमिक शुद्धता, अपने कुंवारेपन के साथ प्रकट होता है। यह मौलिक मन तुम्हारे पास पहले से ही है। शायद तुम इसे भूल चुके हो। तुम अपने मनों की संस्कारिताओं में खो सकते हो, लेकिन गहरे में इन सभी पर्तों के परे तुम अभी भी अपने मौलिक मन में जीया करते हो और किन्हीं दुर्लभ क्षणों में तुम इसमें डुबकी लगा लेते हो। गहरी नींद में जब स्वप्न भी मिट चुके हैं, स्वप्न रहित निद्रा में तुम मौलिक मन में डुबकी लगा लेते हो। यही कारण है कि प्रातःकाल तुम इतनी ताजगी अनुभव करते हो। किंतु यदि पूरी रात भर स्वप्नों का सातत्य चलता रहा हो, तो तुम्हें थकान अनुभव होती है। तुम उससे भी अधिक थकान अनुभव करते हो जितनी तुम्हें सोने से पहले थी। तुम अपने अंतस की गंगा में, अपनी शुद्ध चेतना की धारा में डुबकी नहीं लगा पाए हो। तुम इसमें जा नहीं सके हो, तुम इसमें स्नान नहीं कर पाए हो। तब प्रातःकाल में तुम स्वयं को थका हुआ, चिंतित, संशयग्रस्त, खंडित पाते हो। तुम्हारे पास वह लयबद्धता नहीं होती जो गहन निद्रा से आती है। लेकिन यह लयबद्धता गहन निद्रा से नहीं आ रही है, गहन निद्रा तो मौलिक मन के लिए मात्र एक रास्ता है। इसीलिए तो पतंजलि कहते हैं कि समाधि और गहन निद्रा (सुषुप्ति) एक समान हैं, उनमें मात्र एक अंतर है समाधि में तुम ठीक उसी मौलिक मन में चले जाते हो जिसमें तुम गहन निद्रा में जाते हो, किंतु तुम पूर्णत: जाग्रत होकर जाते हो, गहन निद्रा में तुम बेहोशी में वहां जाते हो, बिना यह जाने कि तुम कहां जा रहे हो, बिना यह जाने कि तुम किस रास्ते से जा रहे हो। मौलिक मन से तुम्हारा यही संपर्क बचा हुआ है।

चिकित्सक भलीभांति जानते हैं कि जब भी कोई रोग से पीड़ित होता है और यदि वह सो नहीं पा रहा है तो उसे रोग मुक्त करने का कोई उपाय नहीं है। निद्रा रोगनाशक है। वास्तव में रोगी के लिए पहली बात यही है : उसे गहरी निद्रा, गहन विश्राम में जाने में किस भांति सहायता की जाए। यह विश्राम रोगी को ठीक कर देता है, क्योंकि रोगी पुन: मौलिक मन से जुड़ जाता है, और मौलिक मन स्वास्थ्यदायी स्रोत है। यह तुम्हारी जीवन—ऊर्जा, प्रेम का स्रोत है। जो कुछ भी तुम्हारे पास है वह तुम्हारे मौलिक मन के महासागर जैसे संसार से आ रहा है।

निःसंदेह जब इसे अनेक पर्तों से होकर गुजरना पड़ता है तो यह प्रदूषित, विषाक्त हो जाता है। तुम्हारा भीतरी पर्यावरण अब मौलिक नहीं रहा, यह भरा हुआ है, अनेक मुर्दा चीजों से भरा हुआ है। तुम्हारे मन और कुछ नहीं वरन तुम्हारे मुर्दा अनुभव हैं।

कोई व्यक्ति जो मौलिक मन में सजग, बोधपूर्ण होकर जाना चाहता है उसको सीखना पड़ेगा कि अनसीखा कैसे हुआ जाए, अनुभव को अनसीखा कैसे करें, अतीत के प्रति कैसे लगातार मरते रहा

जाए, अतीत से कैसे न चिपका जाए। एक क्षण तुम जी लिए हो यह क्षण मिट गया, इसके साथ मामला समाप्त करो। इसके साथ कोई सातत्य मत होने दो, इससे असंबद्ध हो जाओ। अब यह तुमसे संबद्ध नहीं रहा। यह समाप्त हो गया और सदा के लिए मिट गया। इस पर पूर्णविराम लगा दो, और तुम इसमें से इस भांति बाहर निकल आओ जैसे कि सांप अपनी पुरानी केंचुली से बाहर निकल आता है और पलट कर देखता भी नहीं। बस एक क्षण पूर्व यही केंचुली उसके शरीर का एक भाग थी, अब वह उसका भाग न रही। अतीत से सतत बाहर आते रही ताकि तुम वर्तमान में रह सकी। यदि तुम वर्तमान में रह सको तो तुम अपने मौलिक मन से बाहर नहीं जा सकते हो। मौलिक मन न अतीत जानता है और न भविष्य।

जिसको तुम मन कहते हो वह कुछ और नहीं बल्कि अतीत और भविष्य है, अतीत और भविष्य—अतीत और भविष्य के मध्य एक झूला—और तुम्हारा मन कभी अभी और यहीं नहीं रुकता। ध्यान का अभिप्राय यही है, अतीत से बाहर निकल आना, भविष्य को निर्मित न करना और उस सत्य के साथ बने रहना जो अभी और यहीं उपलब्ध है। इसके साथ रहो और अचानक तुम देखोगे कि तुम्हारे और वास्तविकता के बीच, तुम्हारे और उसके मध्य, जो है, कोई मन नहीं है, क्योंकि वर्तमान में मन रह नहीं सकता। तुम इसके बारे में विचार नहीं कर सकते, क्योंकि जिस क्षण तुम किसी के बारे में विचार करते हो, तो यह पहले से ही अतीत हो गया है, या यह अभी भी वर्तमान नहीं है। विचार करने के लिए समय चाहिए। इसलिए यह सूत्र है कि केवल ध्यान के माध्यम से ही व्यक्ति मौलिक मन पर आता है।

ध्यान कोई विचार करना नहीं है, यह विचार का त्याग है।

मैंने सुना है, एक वृद्ध किसान से जब यह पूछा गया कि सारा दिन वह क्या किया करता है, तो उसने कहा, अच्छा, कभी—कभी मैं बैठता हूं और सोचता हू और बाकी समय मैं मात्र बैठता हूं।

यह ‘मात्र बैठना’ ही ध्यान का ठीक—ठीक अर्थ है। जापान में वे ध्यान को झाझेन कहते हैं। झाझेन का अर्थ है मात्र बैठना और कुछ न करना, बस होना और कुछ न करना, मन की निलंबित सक्रियता। और बादल छंट जाते हैं और तुम अंतरिक्ष को, आकाश को देख सकते हो। एक बार तुम जान लो कि अंतर—आकाश में कैसे जाया जाए, तो यह सदा के लिए उपलब्ध हो जाता है। तुम कार्य करते रह सकते हो और जब कभी भी तुम चाहो तुम भीतर एक डुबकी लगा सकते हो। और यह इतना सरल हो जाता है जैसे कि तुम मकान के भीतर जाते हो और मकान से बाहर निकल आते हो। एक बार तुमने जान लिया कि द्वार कहां है, तब कोई समस्या नहीं रहती। तुम इसके बारे में सोचते भी नहीं। जब बाहर तेज गर्मी अनुभव हो रही हो, तुम मकान के भीतर शीतलता और आश्रय में चले जाते हो।

जब अधिक सर्दी लगने लगी हो और तुम ठंड के कारण जमने लगे हो, तुम मकान से बाहर गर्म धूप में निकल आते हो। बाहर और भीतर के मध्य तुम एक तरलता बन जाते हो।

अंदर के रास्ते को मन अवरुद्ध कर रहा है। जब कभी भी तुम अपने भीतर जाते हो, बार—बार तुमको मन की कोई पर्त मिल जाती है। किसी विचार के अंश, कोई इच्छा, कोई योजना, कोई स्वप्न, भविष्य का कुछ या अतीत का कुछ। और याद रहे, भविष्य और कुछ नहीं बल्कि अतीत का प्रक्षेपण है। भविष्य है अतीत का थोड़ा परिष्कृत ढंग से, कुछ बेहतर रूप में पुन: चाहत। अतीत में तुम्हारे पास प्रसन्नता थी और अप्रसन्नता थी, खुशी थी, दुख था, कांटे थे, फूल थे। तुम्हारा भविष्य और कुछ नहीं है केवल फूल हैं, कांटे हटा दिए गए हैं, दुख छोड़ दिए गए है—बस खुशियां और खुशियां, और खुशियां। तुम अपने अतीत की छंटनी करते रहते हो, और जो कुछ भी तुम्हें अच्छा और सुंदर अनुभव हुआ था उसको तुम भविष्य में प्रक्षेपित कर देते —हो।

एक बार तुम जान लो कि अतीत से किस भांति बाहर आया जाए, तो भविष्य स्वत: ही तिरोहित हो जाता है। जब भीतर कोई अतीत नहीं होता तो कोई भविष्य नहीं हो सकता है। अतीत भविष्य को उत्पन्न करता है। अतीत भविष्य की जननी, भविष्य का गर्भ है। जब न कोई अतीत है और न भविष्य, तब जो है वही है। फिर जो है है। तभी अचानक तुम शाश्वतता में होते हो।

यही है जो मौलिक मन है, विचार के किसी स्पंदन के बिना; दृष्टि में कोई बादल नहीं, तुम्हारे चारों ओर कोई धूल नहीं—बस शुद्ध आकाश।

तत्र ध्यानजमनाशयम्।

‘केवल ध्यान से जन्मा मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है।’

क्योंकि मौलिक मन अतीत से मुक्त है, अनुभवों से मुक्त है। जब तुम अनुभवों से मुक्त हो तो तुम इच्छा कैसे कर सकते हो? इच्छा अतीत के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकती। जरा सोचो, यदि तुम्हारा कोई अतीत न हो, तुम इच्छा कैसे कर सकते हो? तुम क्या इच्छा करोगे? कुछ चाहने के लिए अनुभव संचित अनुभव की आवश्यकता होती है। यदि तुम इच्छा न कर सको तो तुम एक शून्य में होओगे आत्यंतिक सुंदर खालीपन।

केवल मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है, इसलिए इच्छाओं के साथ संघर्ष मत करो। यह संघर्ष तुम्हें कहीं नहीं ले जाएगा, क्योंकि इच्छाओं से संघर्ष करने के लिए तुम्हें प्रतिइच्छाएं निर्मित करनी पड़ेगी। और वे भी उतनी ही इच्छाएं हैं जैसी कि दूसरी इच्छाएं। इच्छाओं से संघर्ष मत करो, तथ्य को देखो। इच्छाओं से संघर्ष करने के माध्यम से मौलिक मन नहीं पाया जा सकता। तुम्हें एक श्रेष्ठ मन मिल सकता है, लेकिन मौलिक मन नहीं मिल सकता। हो सकता है कि तुम्हारे पास एक पापी का मन हो, और यदि तुम इसके साथ संघर्ष करो तो तुमको साधु का मन मिल सकता है, लेकिन एक साधु उलटे खड़े हुए असाधु के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

पापी और महात्मा भिन्न व्यक्तित्व नहीं हैं, वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम सिक्के को एक ओर से दूसरी ओर पलट सकते हो। एक पापी किसी भी क्षण साधु बन सकता है और साधु किसी भी क्षण पापी बन सकता है। और पापी सदैव साधु होने के स्वप्न देखा करता है और साधु सदैव पाप की कीचड़ में पुन: वापस गिरने से भयभीत रहता है। वे अलग नहीं हैं, उनका अस्तित्व साथ—साथ है। वास्तव में यदि संसार से सभी पापी मिट जाएं तो साधुओं के हो पाने की भी कोई संभावना न रहेगी। वे पापियों के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकते।

मैने सुना है, एक पादरी अपने गिरजाघर की ओर जा रहा था, रास्ते में सड़क के किनारे उसने एक आदमी को देखा जो बुरी तरह घायल था, करीब—करीब मृतप्राय: था। खून बह रहा था। वह दौडा गया, लेकिन जैसे .ही वह उसके पास पहुंचा और उस व्यक्ति का चेहरा देखा, वह वापस लौट पड़ा। उसका चेहरा वह अच्छी तरह पहचानता था। वह आदमी और कोई नहीं स्वयं शैतान था। अपने चर्च में उसने शैतान की तस्वीर लगा रखी थी, लेकिन शैतान ने कहा, मुझ पर करुणा करो। और तुम करुणा के बारे में बोलते हो, और तुम प्रेम के बारे में बोला करते हो, और क्या तुम भूल गए? अपने चर्च में अनेक बार तुम उपदेश दिया करते हो, अपने शत्रु को प्रेम करो, मैं तुम्हारा शत्रु हूं मुझको प्रेम करो।

वह पादरी भी उसकी तर्कयुक्त बात को नकार न सका। हां, ‘शैतान के अतिरिक्त इतना बड़ा शत्रु और कौन होगा? पहली बार उसने इस बात को समझा, लेकिन फिर भी वह स्वयं को मरते हुए शैतान की सहायता हेतु तैयार नहीं कर पाया। उसने कहा, तुम ठीक जानते हो, लेकिन मैं जानता हूं कि शैतान शास्त्रों के उद्धरण दे सकता है। तुम मुझको मूर्ख नहीं बना सकते। यह अच्छा है कि तुम मर रहे हो। यह बहुत अच्छा है, यदि तुम मर जाओ तो संसार बेहतर हो जाएगा। शैतान हंसा, एक बहुत शैतानी हंसी हंसा और उसने कहा, तुम नहीं जानते, यदि मैं मरता हूं तो तुम कहीं के न रहोगे। तुमको भी मेरे साथ मरना पडेगा। और इस समय मैं शास्त्रों का हवाला नहीं दे रहा हूं मैं व्यवसाय की बात कर रहा हूं। मेरे बिना तुम्हारा क्या होगा, और तुम्हारा चर्च और तुम्हारा ईश्वर? अचानक वह पुजारी सारी बात समझ गया। उसने शैतान को अपने कंधों पर उठाया और वह उसे लेकर अस्पताल चला गया। उसको जाना पड़ा,. क्योंकि शैतान के बिना ईश्वर का भी अस्तित्व नहीं हो सकता।

पापी के बिना महात्मा बच नहीं सकता। वे एक—दूसरे से पोषित होते हैं, वे एक—दूसरे की रक्षा करते हैं, वे एक—दूसरे का बचाव करते हैं। वे दो विभिन्न लोग नहीं हैं, वे एक ही घटना के दो ध्रुव हैं।

मौलिक मन मन नहीं है। यह न तो पापी का मन है और न साधु का मन है। मौलिक मन में कोई मन नहीं है। इसकी न कोई परिभाषा है, न कोई सीमा। यह इतना शुद्ध है कि तुम इसे शुद्ध भी नहीं कह सकते क्योंकि किसी वस्तु को शुद्ध कहने के लिए तुमको अशुद्धता की अवधारणा को बीच में लाना पड़ेगा। वह धारणा तक इसे प्रदूषित कर देगी। इतना शुद्ध है यह, इतना आत्यंतिक रूप से शुद्ध है यह कि यह कहने में कि यह शुद्ध है कोई सार न रहा।

‘केवल ध्यान से जन्मा मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है।’

अब ‘तत्र ध्यानजम’ ‘ ध्यान से जन्मा हुआ’ यह शाब्दिक अनुवाद है, लेकिन इसमें कुछ खो रहा है। संस्कृत बहुत काव्यात्मक भाषा है। यह मात्र एक भाषा नहीं है, यह मात्र एक व्याकरण नहीं है, यह उससे भी अधिक एक काव्य है, एक बहुत घनीभूत काव्य। यदि इसका ठीक से अनुवाद किया जाए, यदि भाव का अनुवाद किया जाए, केवल शब्द नहीं, तो मैं इसका अनुवाद करूंगा ‘जिसका ध्यान से पुनर्जन्म होता है।’ बस केवल जन्म नहीं, क्योंकि मौलिक मन का जन्म नहीं होता, यह पहले से ही विद्यमान है, बस पुनर्जन्म, यह पहले से वहां है, बस प्रत्यभिज्ञा होती है, यह पहले से ही वहां है, बस पुन: अन्वेषण होता है। परमात्मा सदैव एक पुन: अन्वेषण है। तुम्हारा स्वयं का अस्तित्व पहले से वहां है। इस पर कोई बहुत अधिक ताकत नहीं लगानी है, यह पहले से ही वहां है, तुम्हें इसको पुन: उपलब्ध करना है। नया कुछ भी नहीं जन्मा है, क्योंकि मौलिक मन नया नहीं है, यह पुराना नहीं है, यह शाश्वत है, सदा और सदैव और सदा के लिए।

‘अनाशयम्’ का अभिप्राय है. बिना किसी प्रेरणा के, बिना किसी सहारे के, बिना किसी कारण के बिना किसी वजह के।

तत्र ध्यानजमनाशयम्।

मौलिक मन बिना किसी प्रेरणा के रहता है। यह बिना किसी कारण के रहता है। यह बिना किसी सहारे के रहता है। अनाशयम् का शाब्दिक अर्थ होता है किसी सहारे के बिना। यह बिना किसी आधार के, भूमि के बिना रहता है। इसका अस्तित्व अपने, आप में है, इसको बाहर से कोई सहायता नहीं मिलती। ऐसा होना ही है, क्योंकि परम कोई सहायता ले ही नहीं सकता, क्योंकि परम का अभिप्राय है संपूर्ण इसके बाहर कुछ भी नहीं है। तुम सोच सकते हो कि तुम पृथ्वी पर बैठे हो, और पृथ्वी सौरमंडल के चुंबकीय बलों से सहारा पा रही है, और सौरमंडल के ग्रह किसी महासूर्य के गुरुत्वीय बल से सहारा पा रहे हैं। लेकिन संपूर्ण को कोई सहारा नहीं मिल सकता है, क्योंकि वह सहायता आएगी कहां से? संपूर्ण के पास इसके लिए कोई आधार नहीं होता।

तुम बाजार जाते हो, निःसंदेह तुम्हारा कोई उद्देश्य होता है, तुम धन अर्जित करने जाते हो। तुम घर आते हो, तुम्हारे पास एक निश्चित उद्देश्य है, विश्राम करना। तुम भोजन करते हो, क्योंकि तुम भूखे हो; इसके लिए एक कारण है। तुम मेरे पास आए हो, इसका एक उद्देश्य है। तुम किसी चीज की तलाश में हो। यह चीज अस्पष्ट, स्पष्ट, ज्ञात, अज्ञात, कुछ भी हो सकती है, लेकिन उद्देश्य वहां है। लेकिन संपूर्ण का उद्देश्य क्या हो सकता है? यह उद्देश्य विहीन है, यह इच्छारहित है, क्योंकि प्रेरणा बाहर से कुछ लेकर आएगी। यही कारण है, हिंदू इसे लीला, एक खेल कहते है। खेल भीतर से आता है, तुम बस टहलने जा रहे हो, वहां कोई उद्देश्य नहीं .है, स्वास्थ्य तक नहीं। स्वास्थ्य की सनक वाला व्यक्ति कभी टहलने नहीं जाता, वह जा ही नहीं सकता, क्योंकि वह टहलने का मजा नहीं ले सकता। वह हिसाब—किताब लगाता है, कितने मील? वह गणना कर रहा है, कितनी गहरी श्वासें? वह हिसाब जोड़ रहा है, कितना पसीना? वह गणित लगा रहा है। वह सुबह के टहलने को किए जाने वाले कार्य की भांति, एक अभ्यास की भांति ले रहा है। यह, मात्र एक खेल नहीं रह गया है।

अंग्रेजी शब्द इल्युजन का प्रयोग करीब—करीब हमेशा ही पूर्वीय शब्द माया के अनुवाद के रूप में किया जाता है। सामान्यत: इल्युजन का अर्थ होता है अवास्तविक, यथार्थ में जिसका अस्तित्व नहीं है। किंतु यह इसका सही अर्थ नहीं है। यह लैटिन मूल ज्यूडेरे से आता है, जिसका अर्थ है. खेलना। इल्युजन का अर्थ बस खेल है., और माया का यही वास्तविक अर्थ है। माया का अर्थ भ्रम नहीं है, इसका अर्थ है खेलपूर्ण। परमात्मा स्वयं के साथ खेल रहा है। निःसंदेह वह अपने स्वयं के अतिरिक्त और कुछ था भी नहीं, इसलिए वह अपने स्वयं के साथ लुकाछिपी का खेल खेल रहा था, वह अपना एक हाथ छिपा देता है और दूसरे हाथ से इसको खोजने का प्रयास करता है, जब कि वह भलीभांति जानता है कि यह कहां है।

मौलिक मन निरुद्देश्य है, इसके होने का कोई कारण नहीं है। अन्य मन जो मौलिक नहीं हैं, बल्कि आरोपित कर दिए गए हैं, निःसंदेह वे उद्देश्यपूर्ण हैं, और उद्देश्य के कारण ही हम उनको परिपोषित करते हैं। यदि तुम एक चिकित्सक बनना चाहते हो तो तुमको एक खास प्रकार का मन विकसित करना पड़ेगा, तुम्हें चिकित्सक बन कर रहना है। यदि तुमको एक इंजीनियर बनना है तो तुमको एक दूसरे प्रकार का मन विकसित करना पड़ेगा। यदि तुम कवि बनना चाहते हो तो तुम गणितज्ञ का मन विकसित नहीं कर सकते, तब तुमको कवि का मन विकसित करना पड़ेगा। इसलिए जो कुछ भी तुम्हारा उद्देश्य हो उसी के अनुरूप तुम एक निश्चित मन निर्मित करते हो।

मैंने सुना है, एक महिला अपने पुत्र के साथ बस में बैठी हुई थी। उसने मात्र एक टिकट खरीदा। कंडक्टर ने बच्चे को संबोधित किया, छोटे बच्चे तुम्हारी आयु कितनी है?

मैं चार वर्ष का’, लड़के ने उत्तर दिया।

और तुम पांच वर्ष के कब होओगे? कंडक्टर ने पूछा।

बच्चे ने अपनी मां की ओर एक नजर डाली, जो बच्चे की इस बातचीत को मुस्कुरा कर अपनी सहमति दे रही थी, और बोला, जब मैं इस बस से नीचे उतर जाऊंगा।

उस बच्चे को कुछ कहना सिखाया गया है, लेकिन फिर भी वह असली उद्देश्य को नहीं जानता है। उसको टिकट के रुपये बचाने के लिए चार वर्ष कहना सिखाया गया है, लेकिन इसके पीछे उद्देश्य क्या है वह यह नहीं जानता, इसलिए वह इस बात को तोते की तरह दोहरा देता है।

प्रत्येक बच्चा बड़े लोगों की तुलना में मौलिक मन के साथ अधिक लयबद्धता में होता है। बच्चों को खेलते हुए, इधर—उधर दौड़ते हुए देखो, तुम्हें उनका कोई विशिष्ट उद्देश्य नहीं मिलेगा। वे आनंदित हो रहे हैं, और यदि तुम उनसे पूछते हो किसलिए? तो वे अपने कंधे उचका देंगे। उनके लिए बडे लोगों से संवाद कर पाना लगभग असंभव है। बच्चों को यह करीब—करीब नामुमकिन सा महसूस होता है; कोई सेतु नहीं है; क्योंकि बड़े लोग एक बहुत मूर्खतापूर्ण प्रश्न पूछते हैं किसलिए? बड़े लोग एक खास किस्म के अर्थशास्त्रीय मन के. साथ जीते हैं। तुम कुछ कमाने के लिए कुछ करते हो। बच्चे इन सतत उद्देश्यपूर्ण कृत्यों से अभी परिचित नहीं हैं। वे इच्छा की भाषा को नहीं जानते वे खेलपूर्ण होने की भाषा को जानते हैं। जब जीसस कहते हैं, तुम परमात्मा के राज्य में तब तक प्रवेश नहीं कर सकते जब तक कि तुम छोटे बच्चों जैसे नहीं हो जाते, तो यही है उनका अभिप्राय, वे कह रहे हैं कि जब तक कि तुम पुन: बच्चे नहीं बन जाते, जब तक कि तुम उद्देश्य नहीं छोड़ते और खेलपूर्ण नहीं हो जाते…। याद रखो, कार्य कभी किसी को परमात्मा तक नहीं ले गया है। और वे लोग जो परमात्मा की ओर जाने वाले अपने रास्ते पर कार्य कर रहे हैं, बाजार में ही गोल—गोल घेरे में घूमते रहेंगे, वे कभी परमात्मा तक नहीं पहुचेंगे। वह खेलपूर्ण है और तुमको भी खेलपूर्ण होना पड़ेगा। तब अचानक संवाद घटित होगा, अचानक एक संपर्क, एक सेतु बन जाएगा।

खेलपूर्ण ढंग से ध्यान करो, गंभीरतापूर्वक ध्यान मत करो। जब तुम ध्यान—कक्ष में जाते हो तो अपने गंभीर चेहरे वहीं छोड़ दो जहां तुम अपने जूते छोड़ देते हो। ध्यान को एक मजा होने दो। मजा एक बहुत धार्मिक शब्द है; गंभीरता बहुत अधार्मिक शब्द है। यदि तुम मौलिक मन को उपलब्ध करना चाहते हो तो तुमको एक बहुत ही गैर—गंभीर किंतु निष्ठापूर्ण जीवन जीना पड़ेगा, तुमको अपने कार्य को खेल में रूपांतरित करना पड़ेगा; तुम्हें अपने सभी कर्तव्यों को प्रेम में. रूपांतरित करना पड़ेगा। कर्तव्य एक कुरूप शब्द है, निसंदेह यह एक चार अक्षर वाला शब्द है।

कर्तव्य से बच कर रहो। कार्य में और प्रेम अर्पित करो। अपने कार्य को एक नई ऊर्जा में, जिसका तुम आनंद ले सकी, और—और परिवर्तित करो, और अपने जीवन को और अधिक मजे, और अधिक हंसी और कम इच्छा, और कम उद्देश्य वाला हो जाने दो। जितना अधिक तुम उद्देश्यपूर्ण हो उतना ही अधिक तुम एक निश्चित प्रकार के मन से बंध जाओगे। तुमको बंधना ही पड़ेगा, क्योंकि उस उद्देश्य को एक विशिष्ट प्रकार का मन ही पूरा कर सकता है। और यदि तुम सारे मनों का परित्याग करना चाहते हो—और सभी मनों का परित्याग किया जाना है—केवल तब तुम अपने अंतर्तम स्वभाव _ तुम्हारी सहजता को उपलब्ध कर सकते हो। यह पूर्णत: भिन्न है, इच्छा से बिलकुल अलग भाषा है इसकी।

मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं।

अदालत में मुल्ला नसरुद्दीन के विरुद्ध एक मुकदमा चल रहा था। निचली अदालत के समक्ष प्रस्तुत किए गए सबूतों की, जो इस मुकदमे के बारे में थे, प्राथमिक जानकारी सुनने के उपरांत न्यायाधीश ने निर्देशित किया कि शेष बचा हुआ मुकदमा इन कैमरा (अभियुक्त के बयान की फिल्म बना कर) सुना जाएगा। मुल्ला नसरुद्दीन ने, जो अभियुक्त था, इस आधार पर इसका विरोध किया कि उसे इस शब्द ‘इन कैमरा’ का अर्थ ज्ञात नहीं है, लेकिन न्यायाधीश ने यह कह कर कि मैं जानता हूं कि इसका क्या अर्श है, बचाव पक्ष का वकील जानता है कि इसका क्या अर्थ है, गवाही पक्ष जानता है कि इसका क्या अर्थ है, न्यायसभा को पता है कि इसका क्या अर्थ है; अब न्यायालय का समय नष्ट न करो, उसका आक्षेप नकार दिया।

इसके उपरांत बचाव पक्ष के वकील ने अभियुक्त मुल्ला नसरुद्दीन से कहा कि वह अपने शब्दों में न्यायालय को बता दे कि जिस रात की बात चल रही है उस रात क्या हुआ था। ठीक है मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, मैं इस लड़की के साथ गांव की सड़क से घर जा रहा था और हमने एक रास्ता कम करने के लिए एक खेत के बीच से होकर निकलने का फैसला किया। खेत से होकर आधा रास्ता तय करने के बाद वह थकी हुई मालूम पड़ी तो हम आराम करने के लिए बैठ गए। गर्मी की यह एक सुंदर रात थी और मैंने स्वयं को थोड़ा रोमांटिक अनुभव किया, तो मैंने उसका चुंबन ले लिया और उसने मेरा चुंबन ज्या, फिर मैंने उसका चुंबन लिया और उसने मेरा चुंबन लिया, और दस मिनट के बाद, हाई टिड ली हीटी।

न्यायाधीश ने पूछा, हाई टिड ली हीटी? क्या अर्थ हुआ इसका?

ठीक है, मुल्ला नसरुद्दीन ने उत्तर दिया, बचाव पक्ष के वकील को पता है इसका क्या अर्थ है अभियोजन पक्ष का वकील जानता है कि इसका क्या अर्थ है, और न्यायसभा जानती है कि इसका क्या अर्थ है—और यदि आप भी अपने कैमरा के साथ वहां होते तब आपको भी पता लग जाता कि इसका अर्थ क्या होता है!

इच्छा की अपनी स्वयं की भाषा है, उद्देश्य की अपनी स्वयं की भाषा है, और सभी भाषाएं इच्छा की और उद्देश्य की हैं—विभिन्न इच्छाओं की। मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं ईसाइयत एक निश्चित चाह के लिए भाषा है, यह कोई धर्म नहीं है। हिंदू धर्म किसी और चाहत के लिए भाषा है, किंतु यह धर्म नहीं है और अन्य सभी धर्मों के साथ भी ऐसा ही है।

मौलिक मन की कोई भाषा नहीं है। तुम इस तक हिंदू ईसाई, जैन, मुसलमान, बौद्ध होकर नहीं पहुंच सकते। वे सभी इच्छाएं हैं। उनके माध्यम से तुम कुछ उपलब्ध करना चाहते हो। वे तुम्हारे लोभ का प्रक्षेपण हैं।

मौलिक मन तभी जाना जाता है जब तुम सारी चाहतें, सारी भाषाएं, सारे मनों को गिरा देते हो। और अचानक तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो। धार्मिक व्यक्ति वह है जिसने सोच—विचार के किसी भी ढांचे के साथ अपने सारे तादात्म्य को छोड़ दिया है, और जो वहां बस अकेला, आवरणहीन होकर खडा हो गया है, वह बिना वस्त्रों के, भाषा और मनों के खोल के बिना अस्तित्व से घिरा हुआ है—एक प्याज की भांति जिसको पूरी तरह से छील दिया गया है, हाथों में केवल खालीपन आ गया है।

तत्र ध्यानजमनाशयम्।

‘केवल ध्यान से जन्मा मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है।’

तो मौलिक मन कैसे उपलब्ध हो? अब धर्म की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्याओं में से एक को समझना है, मौलिक मन इच्छाओं से मुक्त है और इसको उपलब्ध करने का उपाय है इच्छा—मुक्त हो जाना। तब विचारशील बुद्धि के लिए एक समस्या उठ खडी होती है, कौन सी बात प्राथमिक है? क्या हमें इच्छाओं का त्याग करना पड़ेगा? और तब क्या हम मौलिक मन को उपलब्ध कर सकते हैं? लेकिन तब यह समस्या उठती है कि यदि इच्छाएं तभी गिरती हैं जब मौलिक मन उपलब्ध हो जाता है, तो हम इसकी उपलब्धि से पूर्व ही इच्छाओं का त्याग कैसे कर सकते हैं? या यदि मौलिक मन को उपलब्ध किया ही जाना है तो इच्छाएं स्वत: ही अपने आप से इसके परिणाम स्वरूप गिर जाती हैं। तब तो हमें मौलिक मन उसी समय उपलब्ध कर लेना चाहिए जब इच्छाएं अभी भी अस्तित्व में हों, और मौलिक मन इच्छाओं को छोड़े बिना उपलब्ध नहीं हो सकता, इस प्रकार से एक विरोधाभास उठ खड़ा होता है। लेकिन विरोधाभास इसीलिए है क्योंकि तुम्हारी बुद्धि विभाजित करती है। वास्तव में मौलिक मन और इच्छा—शून्य हो जाना दो बातें नहीं हैं, यह बस एक ही घटना है, जिसकी दो ढंगों से चर्चा की जाती है। यह बस एक ऊर्जा है— इसको इच्छारहितता कहो या इसको मौलिक मन कहो—ये दो चीजें नहीं हैं। यह एक साथ ही घटित होता है, मैं जानता हूं।

जब तक कि मौलिक मन उपलब्ध न हो तुम पूर्णत: इच्छा—शून्य नहीं हो सकते, लेकिन तुम निन्यानबे दशमलव नौ प्रतिशत इच्छा शून्य हो सकते हो, और यही है उपाय। तुम अपनी इच्छाओं को समझना आरंभ कर देते हो। समझ के माध्यम से उनमें से कई बस विलीन हो जाती हैं, क्योंकि वे मात्र मूर्खता हैं। वे तुम्हें और—और हताशा के अतिरिक्त कहीं और नहीं ले गई थीं। उन्होंने केवल नरक के लिए द्वार खोले थे और कुछ नहीं किया था—अधिक चिंता, अधिक पीड़ा, अधिक संताप, और परेशानी। बस उनको देख लो; वे खो जाएंगी। पहले वे इच्छाएं जो तुमको हताशा में ले गई थीं, मिट जाएंगी, और तब तुम्हें अधिक सूक्ष्मग्राही परिप्रेक्ष्य मिल जाएगा। फिर तुम उन इच्छाओं को देखोगे जिन पर तुम अब तक विचार कर रहे थे, वे इच्छाएं जो तुमको सुख में ले गई थीं, जो तुमको सुख में नहीं भी ले गईं—क्योंकि जो कुछ भी सुखद प्रतीत होता है अंततः अंत में खट्टा और कडुवा बन जाता है।

इसलिए सुख इच्छा की एक तरकीब मालूम पड़ती है : तुमको दुख में डाल देने की एक तरकीब। पहले पीडादायक गिर जाएंगी, और फिर तुम यह देख पाने में समर्थ हो जाओगे कि सुख भ्रामक, नकली, एक स्वप्न है, समझ के माध्यम से निन्यानबे दशमलव नौ प्रतिशत इच्छाएं विलीन हो जाएंगी, और फिर चरम घटता है। यह उसी क्षण घट जाता है : सौ प्रतिशत इच्छाएं विलीन होती हैं और मौलिक मन एक क्षण में ही प्रकट हो जाता है, ऐसा कारण और प्रभाव से नहीं घटता, बल्कि तत्‍क्षण,— साथ—साथ घट जाता है।

इसके लिए कार्ल गुस्ताव जुग का शब्द प्रयोग करना बेहतर रहेगा—समक्रमिकता। वे कारण और प्रभाव की भांति संबंधित नहीं हैं। वे एक साथ एक ही क्षण में प्रकट होते हैं, और ऐसा भी इस ढंग से इसलिए कहना पडता है क्योंकि मुझको भाषा का उपयोग करना पड़ता है। अन्यथा वे एक ही हैं, एक सिक्के के दो पहलू हैं। यदि तुम समझ के, ध्यान के माध्यम से देखो तो तुम इसे मौलिक मन कहोगे। यदि तुम अपनी इच्छाओं, वासनाओं के माध्यम से देखो तो तुम इसे इच्छा शून्यता कहोगे। जब तुम इसको इच्छा शून्यता कहते हो, तो यह बस यही प्रदर्शित करता है कि तुम इसकी तुलना इच्छा से करते रहे हो, जब तुम इसको मौलिक मन कहते हो, तो यह बस यही प्रदर्शित करता है कि तुम इसकी तुलना यांत्रिक मनों से करते रहे हो, लेकिन तुम, एक और उसी चीज की, बात कर रहे हो।

चाहे तुम कहीं भी हो, तुम यांत्रिक मन में हो। तुम जो कुछ भी हो, तुम यांत्रिक मन में हो, बंदी हो। अपने लिए अफसोस मत करो। यह स्वाभाविक है। प्रत्येक बच्चे को कुछ न कुछ सीखना ही पड़ता है, इसी से मन निर्मित होता है। और प्रत्येक बच्चे को इस संसार में जीवित रहने के उपाय सीखने पड़ते हैं, इससे मन निर्मित होता है। अपने माता—पिता या अपने समाज के प्रति क्रोधित अनुभव मत करो, इससे कोई सहायता नहीं मिलने वाली है। प्रेम में उन्होंने तुम्हारी सहायता की है, यह स्वाभाविक था।

तुमको जीवित रहने के लिए एक मन की आवश्यकता होती है, और प्रत्येक समाज हर बच्चे पर मन थोपने का प्रयास करता है, क्योंकि सभी बच्चे जन्म के समय जंगली होते हैं। उनको पालतू बनाना पड़ता है, उनको एक सांचा देना पड़ता है। वे बिना सांचे के आते हैं। उनको इस संसार में, जहां बहुत सा संघर्ष जारी रहता है, जहां जिंदा बने रहना एक सतत समस्या है, जीवित बच पाना और जीना कठिन होगा। उनको स्वयं की रक्षा करने के कुछ खास उपायों में निपुण होना पड़ेगा। उन्हें संसार की शत्रुतापूर्ण शक्तियों के विरुद्ध कवच, आवरण, खोल धारण करना पड़ेगा। उनको दूसरों की भांति व्यवहार करना सिखाना पड़ता है, उनको नकलची होना सिखाना पड़ता है। नकल के माध्यम से यांत्रिक मन निर्मित होता है। नकल को त्याग कर मौलिक मन निर्मित होता है।

मैंने सुना है, तीन भूत ताश खेल रहे थे, तभी चौथे भूत ने द्वार खोला और भीतर प्रवेश किया। खुले दरवाजे से बाहर से आए हवा के झोंके ने उनके पत्ते उड़ा कर फर्श पर बिखेर दिए। नया भूत, बच्चा भूत था—बहुत छोटा, भूतों के संसार में बहुत नया। उनमें से एक भूत ने निगाह उठाई और कहा, क्या तुम अन्य सभी की भांति आने के लिए की—होल का प्रयोग नहीं कर सकते थे?

अब भूतों को भी प्रशिक्षित करना पड़ता है. द्वार खोलने की कोई आवश्यकता नहीं है; चाबी के छेद से भीतर आओ जैसा कि प्रत्येक कर रहा है।

इसी भांति माता—पिता तुमको सिखाते चले जाते हैं—नकल करो, और वे लोग जो बड़े नकलची हैं, प्रशंसा पाते हैं। वह बच्चा जो नकल नहीं करता, दंडित होता है। विद्रोही बच्चा दंड पाता है, आज्ञाकारी बच्चा प्रशंसा पाता है। आज्ञाकारिता को एक महान जीवन—मूल्य समझा गया है और विद्रोह को एक बड़ी गलती। सारा समाज तुमको आज्ञाकारी बनाना चाहता है, तुम्हारे ऊपर समाज पुरस्कारों द्वारा, दंडों द्वारा, भय, प्रशंसा, अहंकार को उकसा कर आज्ञाकारिता को थोप देता है। तुम्हें दूसरों की नकल करने को बाध्य करने के हजारों उपाय हैं, क्योंकि तुमको ढांचा देने का, तुमको सिकोड़ने का, तुमको काबू में लाकर अनुशासित करने का यही एक मात्र उपाय है। लेकिन निःसंदेह इसकी कीमत बहुत अधिक है। ऐसा होता ही है, यह हो चुका है, और कोई दूसरा उपाय था भी नहीं। इससे कोई भी बचाव नहीं कर पाया है, और मुझे नहीं दीखता कि कभी भी इससे पूरी तरह बचने की कोई संभावना हो सकेगी। कम या अधिक यह वहां रहेगा।

लोग मुझसे पूछते हैं, कि यदि मुझको बच्चों को शिक्षित करना हो तो मैं उनको क्या सिखाना चाहूंगा? लेकिन तुम उनको चाहे जो कुछ भी सिखाओ, तुम उनको एक मन दे दोगे। तुम उन्हें विद्रोह सिखा सकते हो, लेकिन यह भी उनको एक मन दे देगा। वे विद्रोही व्यक्तियों की नकल करना आरंभ कर देंगे। फिर से वे ढांचे में बंध जाएंगे।

कृष्णमूर्ति ने सारे संसार में ऐसे कई विद्यालय बच्चों को सिखाने के लिए, ताकि वे नकलची न बन जाएं, आरंभ किए हैं, लेकिन वे फिर भी नकलची बन जाते हैं। वे कृष्णमूर्ति की नकल करना आरंभ कर देते हैं। समस्या बहुत सूक्ष्म है। जब तुम बच्चों को नकल न करना सिखाते हो, वे तुम्हारी नकल करना आरंभ कर देते हैं; वे कहते हैं, नकल मत करो! तुम उनको सिखाते हो कि नकल करना गलत है, और निःसंदेह तुम भी वे ही साधन प्रयोग करते हो। यदि वे नकल करते हैं तो उनकी निंदा की जाती है, प्रत्येक उनको नीची दृष्टि से देखता है। यदि वे विद्रोही हो जाते हैं तो उनकी प्रशंसा की जाती है। यह पुरस्कार और दंड की, भ्रम और लोभ की वही रणनीति है। वे नकली विद्रोही बन जाते हैं, लेकिन कोई विद्रोही नकलची कैसे हो सकता है?

मन से बचा पाने का कोई उपाय नहीं है, किंतु इससे बाहर आने का उपाय है। इसको समाज में जन्म लेने पर, माता—पिता से जन्म लेने पर जन्मी एक आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार करना पड़ता है। यह सहन किए जाने के लिए एक आवश्यक बुराई है। निःसंदेह इसको जितना संभव हो सके उतना शिथिल बना लो, बस इतना ही करो। इसको जितना हो सके उतना तरल बना लो, बस यही पर्याप्त है। अच्छा समाज वह समाज है जो तुमको एक मन देता है, और फिर भी तुमको सजग बनाए रखता है कि एक दिन इस मन को छोड़ना पड़ता है—यह कोई परम जीवन—मूल्य नहीं है, इससे होकर गुजरना पड़ता है, लेकिन इसके परे भी जाना है। इसका अतिक्रमण करना पड़ता है। मन को देना तो पड़ता है लेकिन मन के साथ तादात्‍मय बना लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि यह तादात्म शिथिल रहे तो जब लोग परिपक्व हो जाएंगे तो वे इससे अधिक सरलता से, कम पीड़ा, कम संतप, कम प्रयास से बाहर आने में समर्थ होंगे।

चाहे तुम धनी हो या निर्धन, चाहे तुम गोरे हो या काले, चाहे तुम शिक्षित हो या अशिक्षित, इससे जरा भी अंतर नहीं पड़ता, हम एक ही नाव में सवार हैं; कृत्रिम मन की नाव में। और यही समस्या है। इसलिए तुम निर्धन से धनी हो सकते हो या तुम अपनी संपदा का त्याग कर सकते हो, और भिखारी, बौद्ध भिक्खु, कोई साधु बन सकते हो, लेकिन यह तुमको बदल नहीं देगा। अभी भी तुम उसी नाव में बैठे हुए हो। तुम बस भूमिकाएं बदल रहे होगे, तुम व्यक्तित्वों को बदल रहे होंगे, लेकिन तुम्हारा सार—तत्व पहले की तरह सिमटा हुआ रहेगा।

मैंने सुना है, एक करोड़पति ने एक आवारा के को अपने बाग में चहलकदमी करते हुए देखा, तो वह उस पर चिल्लाया, यहां से इसी समय बाहर निकल जाओ। उस आवारा ने कहा : महोदय, देखिए आपमें और मुझमें केवल इतना अंतर है कि आप अपने दूसरे करोड़ की तैयारी में हैं और मैं अभी पहले करोड़ को पूरा करने के लिए कार्य कर रहा हूं—कोई बहुत अधिक अंतर नहीं है।

निर्धन व्यक्ति, धनी व्यक्ति, शिक्षित, अशिक्षित, सुसंस्कृत, संस्कार—विहीन, सभ्य, आदिम पाश्चात्य, पूर्वी, ईसाई, हिंदू इससे जरा भी अंतर नहीं पड़ता है। मात्रा में अंतर हो सकता है, किंतु गुणवत्ता में नहीं होता। हम सभी मन में हैं, और सारा धर्म इससे पार जाने का एक प्रयास है।

कर्माशुल्काकृष्‍ण योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्।

‘योगी के कर्म न शुद्ध होते हैं, न अशुद्ध, लेकिन अन्य सभी कर्म त्रि—आयामी होते हैं—शुद्ध, अशुद्ध और मिश्रित।’

यह कुछ ऐसी बात है जिसको पश्चिम में समझा जाना बहुत ही कठिन है, क्योंकि पश्चिम में केवल दो श्रेणियां अस्तित्व में .हैं : शुद्ध और अशुद्ध, महात्मा और पापी, दिव्यता और शैतानियत, स्वर्ग और नरक, गोरा और काला। सारा पश्चिम अरस्तु के तर्क का अनुगमन करता है, और यह अभी भी किसी ऐसी बात को नहीं जान पाया जो दोनों के पार हो, उनमें से कुछ भी न हो फिर भी उनका अतिक्रमण करती हो। इस भांति के सूत्र किसी पश्चिमी मन द्वारा समझे जाने के लिए काफी दुरूह हैं, क्योंकि मन का एक निश्चित ढांचा होता है। यह ढांचा कहता है, यह कैसे संभव हो सकता है? कोई व्यक्ति या तो अच्छा है या बुरा है! ऐसा व्यक्ति कैसे संभव है, ऐसा मन कैसे संभव है जो कुछ न हो? तुम या तो अच्छे हो या बुरे। यह द्वैतवाद, द्विमुखी पद्धति, पश्चिमी मन में बहुत स्पष्ट है। यह विश्लेषणात्मक है।

यह सूत्र कहता है. ‘योगी के कर्म न शुद्ध होते हैं, न अशुद्ध।’ क्योंकि वे मौलिक मन से आते हैं। अब यहां बहुत सी बातें समझ लेनी हैं।

तुम किसी को मरता हुआ देखते हो और तभी अचानक अरस्तुवादी मन में एक समस्या उठ खड़ी होती है : यदि परमात्मा भला है, तो मृत्यु क्यों त्र: यदि परमात्मा भला है, तो निर्धनता क्यों? यदि परमात्मा भला है, तो कैंसर क्यों? यदि परमात्मा भला है, तो सभी कुछ अच्छा होना चाहिए। वरना संदेह उपजता है। तब परमात्मा हो ही नहीं सकता। या यदि वह है तो वह भला नहीं हो सकता। और उस परमात्मा को तुम कैसे परमात्मा कह सकते हो जो भला तक नहीं है गुम इसलिए सारा ईसाई धर्मशास्त्र शताब्दियों से इस समस्या पर कार्य करता रहा है कि इसकी व्याख्या किस प्रकार से की जाए? लेकिन यह असंभव है। क्योंकि अरस्तुवादी मन के साथ यह संभव नहीं है। तुम इसकी उपेक्षा कर सकते हो, लेकिन तुम इस समस्या को पूरी तरह से मिटा नहीं सकते, क्योंकि यह प्रश्न मन की संरचना के कारण ही उठता है।

पूरब में हम यह कहते हैं कि परमात्मा न तो भला है, न बुरा है, इसलिए जो कुछ घट रहा है घट रहा है। इसमें कोई नैतिक मूल्य नहीं है। इसे तुम अच्छा या बुरा नहीं कह सकते। इसको तुम अच्छे या बुरे की भांति पुकारते हो क्योंकि तुम्हारे पास एक निश्चित मन है। यह तुम्हारे मन का संदर्भ है कि कोई चीज अच्छी बन जाती है और कोई चीज बुरी बन जाती है।

अब देखो, एडोल्फ हिटलर का जन्म हुआ; यदि मां ने एडोल्फ हिटलर को मार डाला होता, तो यह अच्छा होता या बुरा? अब हम देख सकते हैं कि यदि मां ने एडोल्फ हिटलर को मार दिया होता तो यह संसार के लिए बहुत अच्छा हुआ होता। लाखों लोग मारे गए इसके स्थान पर यह बेहतर रहा होता कि एक व्यक्ति मारा जाता। लेकिन यदि मां ने एडोल्फ हिटलर को मार दिया होता तो उसको कठोरता से दंडित किया गया होता। उसको उम्र कैद की सजा दी गई होती या फिर उसको सरकार द्वारा, न्यायालय द्वारा, पुलिस द्वारा गोली मार दी गई होती। और किसी ने नहीं कहा होता कि सरकार गलत थी, क्योंकि बच्चे की हत्या पाप है। लेकिन क्या तुम परिणाम देखते हो? फिर एडोल्फ हिटलर ने लाखों लोगों की हत्या की। वह सारे संसार को करीब—करीब मौत के कगार पर ले आया था। पहले कभी कोई भी इतनी बड़ी आपदा सिद्ध नहीं हुआ था। उसके सामने सारे चंगीज खान और तैमूरलंग फीके पड़ जाते हैं। वह अभी तक का सबसे बड़ा हत्यारा था। लेकिन क्या कहा जाए? उसने अच्छा किया या बुरा इसका निर्णय करना अभी भी कठिन है, क्योंकि जीवन कभी पूर्ण नहीं होता, और जब तक यह पूर्ण न हो तुम मूल्यांकन किस भांति कर सकते हो? हो सकता है कि उसने जो कुछ भी किया वह अच्छा हो। हो सकता है कि उसने गलत लोगों को मार कर उनसे पृथ्वी को साफ कर दिया हो—कौन जाने? और कौन निर्णय कर सकता है? हो सकता है कि उसके बिना संसार उससे भी अधिक बुरा हो जाता, जितना यह इस समय है।

जिस किसी बात को भी हम अच्छा कहते हैं वह किसी विशेष प्रकार के सीमित मन के अनुसार अच्छी होती है। जिस किसी बात को हम बुरा कहते हैं वह भी किसी विशेष प्रकार के सीमित मन के अनुसार बुरी होती है।

ताओवादियो की एक कहानी है। एक व्यक्ति के पास एक बहुत ही सुंदर घोड़ा था, यह इतना बेशकीमती था कि सम्राट तक उसके प्रति शत्रुता और ईर्ष्या का भाव रखता था। अनेक बार उसके पास घोड़े के लिए अनेक प्रस्ताव आए, और वह जितने भी धन की अपेक्षा करता या चाहता लोग उतना देने को तैयार थे। लेकिन वह का व्यक्ति हंसता, वह कहता था, मैं घोड़े को प्रेम करता हूं और तुम अपने प्रेम को कैसे बेच सकते हो? इसलिए तुम्हारे प्रस्ताव के लिए धन्यवाद, लेकिन इसे मैं बेच नहीं सकता।

फिर एक दिन रात्रि में घोड़ा चुरा लिया गया या कुछ और हो गया। अगले दिन सुबह घोड़ा अस्तबल में नही था। सारा नगर एकत्रित हो गया और उन्होंने कहा, अब देखो, इस मूर्ख बुढ़े को! घोड़ा चला गया। और तुम उसे बेच कर काफी धनवान हो सकते थे। इस नगर में ऐसी मुसीबत कभी नहीं आई। और तुम निर्धन हो और वृद्ध हो। तुम्हें इसे बेच डालना चाहिए था, तुमने गलत किया।

वह का व्यक्ति हंसा, उसने कहा, मूल्यांकन करने के चक्कर में मत पड़ो, और अच्छा या बुरा होने के बारे में कुछ मत कहो, और आपदा या आशीष के बारे में बात मत करो। मैं केवल एक बात जानता हूं कि पिछली रात घोड़ा अस्तबल में था और इस सुबह वह वहां नहीं है, बस यही है पूरी बात। लेकिन मैं इसके बारे में और कुछ नहीं कहूंगा। तथ्य के साथ रहो कि घोड़ा अस्तबल में नहीं है, बस बात समाप्त। इस घटना में किसी प्रकार का मन बीच में क्यों लाते हो कि यह अच्छा है या बुरा, कि ऐसा नहीं होना चाहिए, कि यह एक आपदा है, इसके बारे में सब कुछ भूल जाओ।

लोग स्तंभित रह गए। उन्होंने अपमान अनुभव किया कि वे अपनी सहानुभूति दिखाने आए थे और यह मूर्ख दर्शनशास्त्र की बातें कर रहा है। इसलिए यह अच्छा रहा, इस आदमी को सजा मिलनी चाहिए थी, और देवता लोग सदैव ठीक करते हैं।

लेकिन पंद्रह दिन बाद घोड़ा वापस लौट आया। इसको चुराया नहीं गया था, यह जंगल में भाग गया था। और इसके साथ बारह और घोड़े आ गए थे—जंगली घोड़े, बहुत सुंदर, बहुत बलशाली। सारा नगर एकत्रित हो गया। उन्होंने कहा, यह का आदमी अवश्य कुछ जानता है, वह ठीक कह रहा था, यह कोई आपदा नहीं थी, हम गलत थे। और वे बोले, हमें खेद है। हम पूरी परिस्थिति को समझ नहीं सके, लेकिन यह एक बड़ा आशीष है। न केवल तुम्हारा घोड़ा वापस आ गया, लेकिन बारह और घोड़े! और हमने इतने सुंदर और बलशाली घोड़े कभी नहीं देखे। तुम बहुत सा धन एकत्रित कर लोगे।

उस वृद्ध व्यक्ति ने पुन: कहा, इसकी चिंता मत लो कि यह आशीष है या आपदा। कौन जाने? भविष्य अज्ञात है, और हमें तब तक कुछ नहीं कहना चाहिए जब तक कि हमें भविष्य शांत न हो। तुम फिर वही गलती कर रहे हो। बस इतना कहो, घोड़ा वापस आ गया है, और बारह अन्य घोड़ों के साथ वापस आया है, बस बात खत्म। उन्होंने कहा, अब हमको मूर्ख बनाने का प्रयास मत करो। हम जानते हैं कि तुमने इन घोड़ों के रूप में बहुत सारा धन एकत्रित कर लिया है।

लेकिन एक सप्ताह बाद उस के व्यक्ति का एकमात्र पुत्र जो एक घोड़े को सिखा रहा था, जंगली घोड़े को साधने का प्रयास कर रहा था, वह घोड़े से गिर पड़ा। उसको बहुत चोटें आईं, अनेक हड्डियां टूट गईं। उस के आदमी का वह एक मात्र सहारा था। और लोगों ने कहा, यह का आदमी जानता है, वास्तव में उसे पता है… अब यह एक बड़ी आपदा है। घोड़े का ऐसे आना एक दुर्भाग्य हो गया। उसकी वृद्धावस्था का एकमात्र सहारा, उसका पुत्र, अब करीब—करीब मरने जैसी हालत में है। वह के व्यक्ति को सहारा दिया करता था, अब उस के व्यक्ति को युवक की सेवा करनी पड़ेगी, क्योंकि वह तो अपनी पूरी जिंदगी अब बिस्तर पर काटेगा। और उस युवक का तो बस अभी विवाह होने जा रहा था। अब तो विवाह भी असंभव हो जाएगा।

और वे पुन: एकत्रित हो गए, और फिर से वे बोले, और उस बूढ़े व्यक्ति ने कहा, तुमको कैसे बताया जाए? तुम लोग बार—बार वही काम किए चले जाते हो। केवल इतना कहो कि मेरे युवा पुत्र की अनेक हड्डियां टूट गई हैं, बस बात समाप्त। भविष्य में क्यों जाते हो? तुम इतनी तेजी से भविष्यकाल में क्यों पहुंच जाते हो? और तुम लोगों ने देखा है कि इन दिनों बार—बार तुमने जो विचार प्रकट किए थे, वे गलत थे, लेकिन फिर भी बार—बार तुम वर्तमान से हट जाते हो और मूल्यांकन करना आरंभ कर देते हो।

और ऐसा हुआ कि कुछ दिन बाद उस देश का पड़ोसी देश से युद्ध कि गया और नगर के सारे युवकों को बलपूर्वक सेना में भर्ती कर लिया गया। केवल इस बूढ़े आदमी का पुत्र बच गया क्योंकि उसकी हड्डियां टूटी हुई थीं। वे लोग फिर एकत्रित हो गए, लेकिन इससे पूर्व कि वे एकत्रित होते के आदमी ने कहा, खामोश रहो! तुम लोग कब समझोगे? जीवन जटिल है।

सार—रूप में पूर्वीय दृष्टिकोण यही है।

योगी मौलिक मन में रहता है, तथाता में जीता है। जो कुछ भी घटता है, घट जाता है; वह कभी इसका मूल्यांकन नहीं करता है। और वह अपने से कुछ भी नहीं करता है, वह समग्र के लिए बस एक वाहन बन जाता है। समग्र उससे होकर प्रवाहित हो जाता है। वह एक पोला बांस, एक बांसुरी जैसा बन जाता है। योगी वही करता है जो उसके पास परमात्मा से, समग्र से आता है। इसीलिए भगवद्गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, चिंता मत करो और इस बारे में मत सोचो कि जो तुम करने जा रहे हो वह हिंसा होगी, और तुम अनेक लोगों को मार दोगे। यदि परमात्मा की इच्छा यही होगी तो इसे होने दो। यदि वह मारना चाहता है, तो वह मार देगा, भले ही वह तुम्हारे माध्यम से मारे या किसी अन्य के माध्यम से मारे। कृष्ण कहते हैं, वास्तव में वह पहले से ही मार चुका है। तुम मात्र एक उपकरण हो, इसलिए अपने कृत्यों से बहुत अधिक तादात्म्य मत करो। साक्षी बने रहो।

‘योगी के कर्म न शुद्ध होते हैं, न अशुद्ध; न नैतिक होते हैं और न अनैतिक, लेकिन अन्य सभी त्रि—आयामी होते हैं—शुद्ध, अशुद्ध, और मिश्रित।’

जो कुछ भी सामान्य लोग कर रहे हैं—सामान्य से मेरा अभिप्राय है, वे लोग जिनको अभी अपने अस्तित्व का अंतर्तम केंद्र उपलब्ध नहीं हुआ है; वे लोग जो अपने मन के साथ जी रहे हैं. सामान्य हैं, जो लोग अपने आदर्शों और विचारों और विचारधाराओं और शास्त्रों के साथ जी रहे हैं, जो कुछ भी वे कर रहे हैं—या तो उनके कृत्य शुद्ध हैं, या उनके कृत्य अशुद्ध हैं, या उनके कृत्य मिश्रित हैं; लेकिन उनके कृत्य सहज नहीं हैं, मौलिक नहीं हैं। वे प्रतिकर्म करते हैं, वे कर्म नहीं करते। उनका प्रत्युत्तर एक प्रतिकर्म होता है। यह कोई ऊर्जा का अतिशय प्रवाह नहीं है। वे ठीक अभी इस क्षण में नहीं जी रहे हैं।

किसी ने झेन मास्टर लिन ची से पूछा, यदि कोई आए और आपके ऊपर आक्रमण कर दे, तो आप क्या करेंगे? उसने अपने कंधे झटक दिए और कहा : उसको आने दो और मैं देखूंगा। मैं पहले से तैयारी नहीं रख सकता। मैं नहीं जानता। मैं हंस सकता हूं या मैं रो सकता हूं या मैं उस व्यक्ति के ऊपर कूद कर उसकी हत्या कर सकता हूं। या हो सकता है कि मैं उस आदमी की जरा सी भी चिंता न लूं। किंतु मुझको पता नहीं। उस व्यक्ति को आने दो। वह क्षण स्वत: निर्णय कर लेगा, मैं नहीं। समग्र निर्णय लेगा, मैं नहीं। मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं क्या करूंगा?

एक संबुद्ध व्यक्ति मन के माध्यम से नहीं जीता है। उसके चारों ओर कोई ढांचा नहीं होता। एक विराट शून्यता है वह। कोई नहीं जानता उस क्षण में परमात्मा उसके माध्यम से किस प्रकार से कार्य करेगा। वह परमात्मा के कार्य में रुकावट नहीं डालेगा, बस उतनी सी बात है, क्योंकि वहा रुकावट डालने के लिए कोई है ही नहीं। मन रुकावट डालता है, अब वह मन नहीं रहा। वह कुछ ऐसा करने का प्रयास नहीं करेगा जिसको वह अच्छा समझता है, और वह किसी ऐसे कृत्य से बचने का भी प्रयास नहीं करेगा जिसे वह समझता है कि यह कार्य बुरा है। वह कुछ भी करने का प्रयास नहीं करेगा। वह केवल परमात्मा के हाथों में होगा और जो कुछ भी घटित होना ही है उस घटना को घटने देगा। बाद में वह व्याख्या भी नहीं करेगा कि जो कुछ भी हुआ था वह अच्छा है या बुरा। नहीं, एक समाधिस्थ व्यक्ति कभी पीछे नहीं देखता, कभी मूल्यांकन नहीं करता, कभी भविष्य में नहीं देखता, कभी योजना नहीं बनाता। जो कुछ भी उस क्षण द्वारा हो और वह क्षण को निर्णय करने देता है। उस क्षण में सभी कुछ एक साथ सहभागी हो जाता है। .सारा अस्तित्व इसमें भाग लेता है, इसलिए कोई नहीं जानता कि क्या होगा?

लिन ची ने कहा : यदि मुझ पर कोई आक्रमण करता है, कोई नहीं जानता कि मैं क्या करूंगा। यह निर्भर करेगा कि आक्रमण कौन कर रहा है। वे गौतमबुद्ध हो सकते हैं, और यदि वे मुझ पर आक्रमण करते हैं तो मैं हंसूंगा। मैं उनके चरणस्पर्श कर सकता हूं कि मुझ पर बेचारे लिन ची पर आक्रमण करना उनकी कैसी करुणा है। किंतु यह उस क्षण पर निर्भर होगा, इतनी अधिक बातों पर निर्भर होगा कि इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है।

बस बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही सन उन्नीस सौ में एक महान वैज्ञानिक, मैक्स प्लैंक ने अभी तक खोजी गई महान खोजों में से एक खोज की है। उनको यह अनुभव हुआ और उन्होंने यह खोजा कि यह अस्तित्व सतत प्रवाह जैसा नहीं है, इसमें कोई सातत्य नहीं है। यह कोई ऐसा नहीं है जैसे कि तुम एक बर्तन से दूसरे बर्तन में तेल लौट दो। तो तेल के प्रवाह में एक सातत्य होता है; यह एक सतत धारा के रूप में गिरता है। मैक्स. प्लैंक ने कहा, अस्तित्व ऐसा है जैसे कि तुम एक डिब्बे से मटर के दाने दूसरे डिब्बे में डाल रहे हों—अनवरत प्रवाह नहीं है—मटर का प्रत्येक दाना अलग— अलग ढंग से अलग—अलग स्थान पर गिर रहा है। उसने कहा, सारा जीवन विच्छिन्न है। इन विच्छिन्न अवयवों को वह क्वांटा, तन्मात्रा कहता है। यही उसका तन्मात्रा सिद्धांत, क्वांटम थ्योरी है। क्वांटा का अर्थ है : प्रत्येक वस्तु दूसरी हर वस्तु से भिन्न है, और उसके सातत्य में नहीं है, और दो वस्तुओं के मध्य एक अंतराल है। अब यह अंतराल प्रत्येक चीज को सम्हाले हुए है, क्योंकि दो वस्तुएं परस्पर जुड़ी हुई नहीं हैं, दो परमाणु एक—दूसरे से जुड़े हुए नहीं हैं। वह अंतराल, वह रिक्तता दोनों को सम्हाले हुए है। वे प्रत्यक्षत: जुड़े हुए नहीं हैं, वे अंतराल के द्वारा जुड़े हुए हैं। अभी तक किसी ने मन के बारे में ऐसे ही समानांतर सिद्धांत पर ध्यान नहीं दिया है, लेकिन मन के बारे में ठीक यही बात है।

दो विचार एक—दूसरे से जुड़े हुए नहीं हैं, और विचार विच्छिन्न होते हैं। एक विचार, अन्य विचार, अन्य विचार और इन विचारों के मध्य में अंतराल हैं, बहुत छोटे अंतराल—वह तुम्हारा अंतर—आकाश है। यही है जिसे मौलिक मन कहा जाता है। एक बादल गुजरता है, दूसरा बादल गुजरता है, दोनों के मध्य आकाश है। एक विचार गुजरता है, दूसरा विचार गुजरता है, दोनों के मध्य मौलिक मन है। यदि तुम सोचते हो कि तुम्हारे विचार सातत्य में हैं, तो तुम स्वयं को मन के रूप में सोचते हो।

वास्तव में मन जैसी कोई चीज नहीं है, केवल विचार है, विच्छिन्न विचार, तुम्हारे भीतर घूमते हुए, इतनी तेज भागते हुए कि तुम अंतरालों को देख नहीं पाते। इन विचारों को तुम्हारे अंतर—आकाश ने धारण किया हुआ है। परमाणुओं को बाह्मआकाश सम्हालता है, विचारों को अंतर—आकाश द्वारा सम्हाला जाता है। यदि तुम पदार्थ का हिसाब लगाते हो तो तुम पदार्थवादी हो जाते हो, यदि तुम अपने विचारों का हिसाब लगाते हो तो तुम मनवादी हो जाते हो। लेकिन मन और पदार्थ दोनों भ्रम हैं। वे प्रक्रियाएं हैं, विच्छिन्न हैं। और मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि योग का परम संश्लेषण यही है कि अंतर—आकाश और बाह्य—आकाश दो नहीं हैं। तुम्हारा मौलिक मन और परमात्मा का मौलिक मन दो नहीं हैं। तुम्हारा कृत्रिम मन परमात्मा के मन से भिन्न है, लेकिन तुम्हारा मौलिक जरा भी भिन्न नहीं है। यह वही है।

‘जब उनकी पूर्णता के लिए परिस्थितियां सहायक होती हैं, तो इन त्रि—आयामी कर्मों से इच्छाएं उठती हैं।’

यदि तुम शुद्धकर्म, कोई शुभकार्य, कोई साधु जैसा कृत्य करते हो तो इच्छा का जन्म होगा, निःसंदेह और शुभ करने की इच्छा। यदि तुम कोई अशुद्ध कर्म करते हो, तो और अशुद्ध कर्म करने की इच्छा जाग्रत होगी, क्योंकि जो कुछ भी तुम करते हो, वह तुम्हारे भीतर इसको दोहराने की एक खास आदत निर्मित करता है। लोग दोहराए चले जाते हैं। जो कुछ भी तुम कर चुके हो, तुम इसको करने में कुशल हो जाते हो। यदि तुम कोई मिश्रित कृत्य करते हो, तो निःसंदेह एक मिश्रित इच्छा उपजेगी जिसमें शुभ और अशुभ दोनों मिले हुए होंगे। लेकिन ये सभी कृत्रिम मन हैं। एक महात्मा का मन तक, अब भी कृत्रिम मन है। मैने सुना है, एबी कोहेन, एक बड़ा व्यवसायी, जो यहूदी था, एक हत्या के मामले में राज्य न्यायालय में दोषी पाया गया। उसकी सजा वाले दिन की सुबह कारागार अधीक्षक उससे मिलने आया। मिस्टर कोहेन, उसने कहा, तुम्हें फांसी पर लटकाने में देश को सौ पाउंड खर्च करना पड़ेंगे। बुरा व्यवसाय रहेगा यह, द्वी ने कहा, मुझको केवल पिचानवे पाउंड दे दो और मैं खुद को गोली मार लूंगा।

एक व्यवसायी व्यवसायी रहता है। वह व्यापार के बारे में, धन के बारे में सोचता रहता है। वह इसके बारे में कुशल हो गया है। जरा देखो, जो कुछ तुम करते रहे हों—तुम्हारे भीतर, बेहोशी में, अवचेतन में इसे दोहराने की प्रवृत्ति होती है। तुम वे ही चीजें बार—बार दोहराए चले जाते हो, और निःसंदेह जितना अधिक तुम दोहराते हो उतना ही अधिक तुम आदत की पकड़ में आ जाते हो। एक समय ऐसा आता है कि तुम आदत को छोड़ना भी चाहो तो आदत इतनी गहराई तक जड़ें जमा चुकी होती है कि तुम इसे छोड़ना चाहते हो, लेकिन यह तुम्हें छोड़ना नहीं चाहती।

मैंने सुना है, ऐसा हुआ, एक मास्टर साहब गरीबी के कारण शीत ऋतु में भी सूती कपड़े पहने हुए थे। एक तूफान में पहाड़ों से एक भालू बह कर नदी में आ गया। उसका सिर पानी में छिपा हुआ था। उसकी पीठ देख कर बच्चे चिल्लाए मास्टर साहब, देखिए पानी में एक फर का कोट गिर पड़ा है, और आपको सर्दी लगा करती है। जाकर उसे ले आइए। मास्टर साहब ने अपनी जरूरत की मजबूरी के वश में फर का कोट लाने के लिए नदी में छलांग लगा दी। भालू ने तुरंत उन पर आक्रमण किया और उनको पकड़ लिया। मास्टर साहब, किनारे पर खड़े बच्चे चिल्लाए या तो कोट को लेकर लौटें या उसे बह जाने दें—और वापस लौट आएं। मैं फर का कोट बह जाने देने को राजी हूं मास्टर साहब चिल्लाए लेकिन फर का कोट मुझे वापस नहीं लौटने दे रहा है।

आदतों के साथ यही समस्या है : पहले तुम उनको विकसित करते हो, फिर धीरे—धीरे वे करीब— करीब तुम्हारा दूसरा स्वभाव बन जाती हैं। फिर तुम उनको छोड़ना चाहते हो, लेकिन उनको छोड़ देना इतना सरल नहीं है। क्या किया जाए?

तुमको .और सजग हो जाना पड़ेगा।

आदतों को छोड़ा नहीं जा सकता। उनको छोड़ने के केवल दो उपाय हैं : एक है आदत को किसी वैकल्पिक आदत से बदल लिया जाए—लेकिन यह बस एक समस्या को दूसरी समस्या से बदल लेना है, इससे कोई बहुत अधिक मदद नहीं मिलने वाली है; दूसरा उपाय है और सजग हो जाना। जब कभी तुम किसी आदत को दोहराते हो, सजग हो जाओ। भले ही तुमको इसे दोहराना पड़े, दोहराओ इसे, लेकिन एक साक्षीभाव से, सजगता से, बोधपूर्वक दोहराओ। वह जागरूकता तुमको आदत से अलग कर देगी, और वह ऊर्जा जिसे तुम अनजाने में आदत को देते रहते थे अब और नहीं दी जाएगी। धीरे—धीरे आदत सिकुड़ जाएगी, इसके माध्यम से जलधार का प्रवाह हो रहा था, रास्ता बंद हो गया है, अत: धीरे—धीरे यह लुप्त हो जाएगी।

कभी किसी आदत को दूसरी आदत से मत बदलों, क्योंकि सभी आदतें बुरी हैं। अच्छी आदतें तक बुरी हैं, क्योंकि वे आदते हैं। अशुद्ध आदतों को शुद्ध आदतों में बदलने का प्रयास मत करो। समाज के लिए यह अच्छा है कि तुम बुरी आदतों को अच्छी आदतों से बदल लो। रोज शराबखाने जाने के स्थान पर यदि तुम प्रतिदिन चर्च या मंदिर जाते हो तो समाज के लिए यह अच्छा है। किंतु जहां तक तुम्हारा प्रश्न है, इससे कोई बहुत सहायता नहीं मिलने वाली है। तुमको आदतों के पार जाना पड़ेगा। तभी यह सहायक होगा।

समाज चाहता है कि तुम नैतिक हो जाओ, क्योंकि अनैतिक होकर तुम कठिनाइयां पैदा करते हो— समाज मिट जाता है। एक बार तुम नैतिक हो जाओ—समाज का काम समाप्त। अब समाज का यह काम नहीं रहा कि वह तुम्हारी चिंता करे। यदि तुम अनैतिक हो तो समाज का तुमसे मतलब समाप्त नहीं होता, तुम्हारे बारे में कुछ किया जाना शेष है। एक बार तुम नैतिक हो गए, समाज का काम समाप्त। समाज तुम्हें फूलमाला पहनाता है और तुम्हारा सम्मान करता है और कहता है, आप एक बहुत अच्छे आदमी हैं। समाप्त हो गई समाज की तुम्हारे प्रति चिंता, समाज को अब तुमसे कोई परेशानी न रही, लेकिन स्वयं तुम्हें अभी बहुत दूर जाना है, यात्रा अभी पूरी नहीं हुई है। बुरी आदत समाज के विरुद्ध है, और आदत जैसी कि वह है तुम्हारे मूल स्वभाव के विरुद्ध है।

एक पिस्सू बंद होने से ठीक पहले एक शराबखाने में दौड़ता हुआ पहुंचा, पांच डबल स्कॉच का आर्डर किया, उन्हें वह गटागट पी गया, गली की ओर भागा, हवा में ऊपर की ओर उछला और मुंह के बल जमीन पर आ गिरा। किसी तरह से वह उठ कर खड़ा हुआ और इधर—उधर देख कर बड़बड़ाया, हद हो गई, किसी ने यहां से मेरा कुत्ता भगा दिया।

अनेक जन्मों से तुम पी रहे हो और अचेतनता के कारण पिए जा रहे हो। प्रत्येक व्यक्ति नशेबाज है, और निःसंदेह तुम बार—बार गिरते चले जाते हो।

यही गहन समस्या है, सजग कैसे हुआ जाए, कैसे अचेतन न रहा जाए, आरंभ कहां से करें? किसी गहरी जड़ों वाली आदत से संघर्ष करने की कोशिश मत करो। तुम हार जाओगे। फर का कोट तुमको इतनी आसानी से नहीं छोड़ेगा। बहुत सामान्य बातों से आरंभ करो।

उदाहरण के लिए, तुम टहलने जाते हो; बस सजग हो जाओ कि तुम टहल रहे हो। यह एक सामान्य बात है। इसमें कुछ भी नहीं जा रहा है। तुम वृक्षों को देख रहे हो; बस वृक्षों को देखो और सजग हो जाओ। धुंधली आंखों से मत देखो। सारे विचारों को छोड़ दो। बस कुछ क्षणों के लिए ही, जरा वृक्षों को देखो— और बस देखो। सितारों को देखो 1 तैरते हुए, बस उस आंतरिक अनुभूति के प्रति सजग हो जाओ, जो तुम्हारे शरीर के भीतर तब होती है जब तुम तैर रहे होते हो, अंतस की अनुभूति। इसे अनुभव करो। तुम धूपस्नान ले रहे हो, अनुभव करो तुमको भीतर कैसा लगने लगा है : उष्णता, विश्राम, ठहराव। जब सोने जा रहे हो, जरा देखो तुमको भीतर कैसी अनुभूति हो रही है। भीतर—बाहर, चादर की ठंडक के प्रति, कमरे में व्याप्त अंधकार के प्रति, बाहर के मौन के प्रति, या बाहर के शोरगुल के प्रति सजग होने का प्रयास करो। अचानक एक कुत्ता भौंकता है—सामान्य बातें; पहले अपनी चेतना को उन पर लाओ। और फिर धीरे— धीरे आगे बढो।

फिर अपनी अच्छी आदतों के प्रति सजग होने का प्रयास करो, क्योंकि अच्छी आदतों की जड़ें उतनी गहरी नहीं होतीं जितनी बुरी आदतों की। अच्छी आदतों को तुम्हारे कठोर परिश्रम की आवश्यकता होती है, इसलिए बहुत कम लोग अच्छी आदतें डालने का प्रयास करते हैं। और वे लोग जो अच्छी आदतें डालने का प्रयास करते हैं बहुत कम अच्छी आदतें डालने की कोशिश करते हैं, बस उनकी ओट में अनेक बुरी आदतें जारी रहती हैं।

पहले सामान्य बातों के प्रति, फिर अच्छी आदतों के प्रति और फिर धीरे— धीरे बुरी आदतों के प्रति सजग होते जाओ। और अंतत: स्मरण रखो कि प्रत्येक आदत के प्रति सजग होना है। एक बार तुम अपनी आदतों के पूरे ढांचे के प्रति सजग हो जाओ, यह आदतों का ढांचा ही तुम्हारा मन है; तब किसी भी दिन अवधान का विषयांतरण घटित हो जाएगा। अचानक तुम अ—मन में होओगे। जब तुम अपनी सभी आदतों के प्रति सजग हो चुके होते हो तुम उनको अचेतनता से नहीं करते, और तुम बेहोशी में उनके साथ सहयोग नहीं करते, तब किसी दिन जब संतृप्तता का बिंदु आता है—सौ डिग्री पर—अचानक एक विषयांतरण घट जाएगा। तुम स्वयं को शून्यता में पाओगे जो न शुद्ध है और न अशुद्ध।

‘जब उनकी पूर्णता के लिए परिस्थितियां सहायक होती हैं, तो इन त्रि— आयामी कर्मों से इच्छाएं उठती हैं।’

जो कुछ भी तुम करते हो वह तुम्हारे भीतर बीज की भांति पड़ा रहता है। और जब कभी कोई विशेष परिस्थिति पैदा हो जाती है जो तुम्हारे लिए सहायक हो सकती हो, तो यह बीज अंकुरित हो जाता है। कभी—कभी हम इन बीजों को अनेक जन्मों तक साथ लिए फिरते हैं। उचित परिस्थिति, उचित मौसम नहीं आ पाता है, किंतु जब कभी भी यह माहौल बन जाता है, इससे बहुत जटिल समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। अचानक सड़क चलते हुए एक आदमी से तुम्हारा सामना होता है और तुमको उसके प्रति बहुत ही विकर्षण अनुभव होता है, और तुम उस आदमी को पहले कभी जानते भी नहीं थे। तुमने उसके बारे में कभी सोचा भी न था, न कभी उसके बारे में सुना था, एक नितांत अनजान व्यक्ति और अचानक तुम प्रतिकर्षण अनुभव करते हो, या तुम आकर्षित अनुभव करते हो। अचानक तुमको लगता है कि उससे तुम पहले कभी मिल चुके हो। अचानक तुम इस अनजान व्यक्ति के लिए अपने भीतर प्रेम—ऊर्जा की एक बडी लहर उठती हुई अनुभव करते हो, जैसे कि तुम सदैव उसके निकट, उसके अंतरंग रहे हो। अतीत के किसी अन्य जन्म से कोई बीज भीतर पड़ा हुआ था—एक विशेष परिस्थिति—और बीज ने अंकुरित होना आरंभ कर दिया। अचानक तुम बिना किसी कारण के संतापग्रस्त हो गए। और तुम सोचते हो, मैं क्यों संतापग्रस्त हूं? क्यों? इस दृश्य संसार में कोई कारण भी नहीं दिखाई पड़ता है। इस संताप के लिए तुम कोई बीज लिए हुए हो सकते हो; बस उसका सही समय आ गया है।

जूलिया शर्म से सिर झुकाए अपने पिता के पास आई, पापा, वह बोली, आप उस अमीर मिस्टर वोल्फ को जानते हैं? उसने मेरे साथ धोखा किया है, और मुझे बच्चा होने वाला है।

ओह भगवान! पिता ने कहा, वह है कहां? मैं उसको मार डालूंगा। उसको पता दो। मैं उसका खून कर दूंगा। उतावला होकर वह उस अमीर आदमी के घर पहुंचा, उसने तेज आवाज में उसे पुकारा और पूछा कि उसका क्या करने का इरादा है। लेकिन अमीर मिस्टर वोल्फ तो बिलकुल शांत रहा, उत्तेजित मत हो, उसने कहा, मैं कहीं भागा नहीं जा रहा हूं। और मैं तुम्हारी बेटी के साथ उचित बर्ताव करना चाहता हूं। यदि उसके पुत्र उत्पन्न होता है तो उसे पचास हजार डालर मिलेंगे और यदि उसके पुत्री हुई तो पैंतीस हजार डालर। क्या यह ठीक है?

पिता रुक गया, उसके चेहरे से क्रोध के भाव मिट गए। और यदि गर्भपात हो गया, उसने आक्षेप करते हुए कहा, तो क्या आप उसको एक मौका और देंगे?

अचानक परिस्थितियां बदल गईं। अब लोभ का बीज अंकुरित हो गया है। वह हत्या करने आया था, लेकिन बस धन का उल्लेख हुआ और वह हत्या के बारे में सब कुछ भूल गया; वह पूछ रहा है, क्या आप उसको एक मौका और देंगे?

निरीक्षण करो……लगातार अपना निरीक्षण करते रहो, परिस्थितियां बदलती हैं और तुम तुरंत बदल जाते हो। तुम्हारे भीतर कुछ अंकुरित होने लगता है, कुछ बंद होने लगता है।

मौलिक मन वाला व्यक्ति वही रहता है। जो कुछ भी घटता है वह इसका निरीक्षण करता है, लेकिन उसके भीतर अतीत से कोई इच्छा के बीज शेष नहीं बचे हैं। वह अपने अतीत के माध्यम से कृत्य नहीं करता, वह बस प्रतिसंवेदना करता है, उसका प्रतिसंवेदन शून्यता से आता है। कभी—कभी तुम भी उसी प्रकार से कृत्य करते हो, लेकिन बहुत कम। और जब कभी तुम इस प्रकार से कृत्य करते हो, तुमको अत्यधिक पूर्णता और परितृप्ति और संतुष्टि अनुभव होती है। यह कभी—कभी घटित होता है।

कोई मर रहा है, नदी में डूब रहा है और तुम बस बिना किसी विचार के नदी में छलांग लगा देते हो। तुम यह नहीं सोचते कि उस व्यक्ति को बचाना है या नहीं, वह हिंदू है या मुसलमान, या कोई पापी है या पुण्यात्मा, तुम्हें चिंता क्यों करनी चाहिए? नहीं, तुम जरा भी नहीं सोचते। अचानक यह घटित हो जाता है। अचानक तुम्हारा कृत्रिम मन पीछे धकेल दिया जाता है और तुम्हारा मौलिक मन कार्य करता है। और जब तुम उस व्यक्ति को बाहर निकाल लाते हो तो तुमको अत्यधिक परितृप्ति अनुभव होती है, जैसी कि तुम्हें पहले कभी नहीं हुई थी। तुम्हारे भीतर एक लयबद्धता उदित होती है। तुम बहुत संतुष्टि अनुभव करते हो। जब कभी तुम्हारी शून्यता से कुछ भी घटित होता है तुम आनंदित अनुभव करते हो।

आनंद तुम्हारी शून्यता का कृत्य है।

‘क्योंकि स्मृति और संस्कार समान रूप में ठहरते हैं, इसलिए कारण और प्रभाव का नियम जारी रहता है, भले ही वर्ण, स्थान और समय में उनमें अंतर हो।’

और यह चलता चला जाता है.. .तुम्हारा जीवन बदलता है. तुम इस शरीर में मर जाते हो, तुम एक और गर्भ में प्रवेश करते हो, लेकिन अंतर्तम रूप तुम्हारे साथ संलग्न रहता है। तुमने जो कुछ भी किया है, चाहा है, अनुभव किया है, संचित किया है, वही फर का कोट तुम्हारे साथ चिपक जाता है, तुम इसे अपने साथ ले जाते हो। मृत्यु, सामान्य मृत्यु, केवल शरीर की मृत्यु होती है, मन नहीं मरता। वास्तविक मृत्यु, परम मृत्यु, जिसको हम समाधि कहते हैं, न केवल शरीर की मृत्यु है बल्कि यह मन की भी मृत्यु है। फिर अब कोई और जन्म नहीं होता, क्योंकि वापस लौटने के लिए कोई बीज न बचा, पूरी होने के लिए कोई इच्छा न रही, कुछ शेष नहीं रहा, व्यक्ति बस एक सुगंध की भांति खो जाता है

‘और इस प्रक्रिया का कोई प्रारंभ नहीं है, जैसे कि जीने की इच्छा शाश्वत होती है।’

दर्शनशास्त्री पूछे चले जाते हैं, संसार कब आरंभ हुआ? योग एक अत्यधिक अनूठी बात कहता है. संसार का आरंभ कभी नहीं हुआ था। इच्छा का कोई आरंभ नहीं है, क्योंकि जीने की इच्छा शाश्वत है। यह सदैव से वहां थी। योग संसार के किसी सृजन में विश्वास नहीं रखता है। ऐसा नहीं है कि किसी दिन, किसी क्षण में ईश्वर ने ससार का सृजन किया। नहीं, इच्छा सदा से वहां थी। इच्छा के लिए कोई आरंभ नहीं है, लेकिन इसका अंत है, इसको समझ लिया जाना चाहिए। यह बात बहुत बेतुकी है, किंतु यदि तुमने इसको समझ लिया तो तुम ठीक अर्थ को अनुभव करने में समर्थ हो जाओगे।

इच्छा का कोई आरंभ नहीं है, किंतु इसका अंत होता है। इच्छा—शून्यता का आरंभ है, लेकिन इसका कोई अंत नहीं है, और वर्तुल पूरा हो जाता है। इच्छा का कोई आरंभ नहीं है लेकिन अंत है। यदि तुम सजग हो जाओ तो अंत आता है और तब इच्छा—शून्यता आरंभ होती है। इच्छा—शून्यता का आरंभ है किंतु फिर इसका कोई अंत नहीं है। संसार का कोई आरंभ नहीं है, हम पूर्व में कहते रहे हैं, यह सदा से और सदैव चल रहा है; लेकिन इसका अंत है। बुद्ध के लिए, यह मिट जाता है। फिर यह वहां नहीं बचता। ठीक एक स्वप्न की भांति यह तिरोहित हो जाता है। लेकिन संसार के जो परे हैं—निर्वाण, कैवल्य, मोक्ष—इसका एक आरंभ है लेकिन कोई अंत नहीं है। इसलिए हम यह कभी नहीं पूछते कि संसार कब आरंभ हुआ। हमने इसकी चिंता ही नहीं ली है क्योंकि इसका कभी आरंभ नहीं हुआ था।

हमने कृष्‍ण, बुद्ध, महावीर की जन्मतिथियो पर कभी अधिक ध्यान नहीं दिया, किंतु हमने उस दिन पर बहुत ध्यान दिया जब उन्हें समाधि घटित हुई—क्योंकि यह किसी ऐसी बात का वास्तविक आरंभ है जिसका कभी अंत नहीं होगा। बुद्ध का संबोधि—दिवस बहुत महत्वपूर्ण है, उसको हमने स्मरण रखा है, और उसकी हमने बार—बार अनेक बार पूजा की है। कोई नहीं जानता कि उनका जन्म कब हुआ था, किसी ने इसकी चिंता ही नहीं ली। वास्तव में पौराणिक कथा यह है कि उनका जन्म उसी दिन हुआ था जिस दिन उनकी मृत्यु हुई थी, और उसी दिन उन्हें बोध भी प्राप्त हुआ था:। मेरी अनुभूति यह है कि हमने उनके जन्म का दिन और उनकी मृत्यु का दिन भुला दिया है; हम केवल उनके संबोधि—दिवस को याद रखते हैं। लेकिन केवल वही महत्वपूर्ण है कि उनका जन्म—दिवस उनका मृत्यु—दिवस भी है क्योंकि यही जीवन की एकमात्र महत्वपूर्ण घटना है जो घटित होती है—अंतहीन का आरंभ।

इच्छा का कोई आरंभ नहीं है, यह सदा से यहां है, किंतु इसका अंत हो सकता है। इच्छा—शून्यता का आरंभ हो सकता है और अंत कभी नहीं होगा। और इच्छा तथा इच्छा—शून्यता के मध्य वर्तुल पूरा हो जाता है। यह वही ऊर्जा है जो इच्छा बन गई थी, इच्छा—शून्यता बन जाती है। यह वही ऊर्जा है। और निःसंदेह इच्छा—शून्यता का अंत कभी नहीं होता है। वह व्यक्ति जिसने इसको उपलब्ध कर लिया है, वह मुक्त हो गया है, वह कभी वापस नहीं लौटता; क्योंकि विकास कभी पीछे नहीं जा सकता। पीछे जाने का कोई रास्ता नहीं होता है। जब तक कि परम उपलब्ध न हो, हम ऊंचे और ऊंचे जाते हैं। किंतु वहां से वापस गिर पड़ने का कोई बिंदु नहीं है।

‘और इस प्रक्रिया का कोई प्रारंभ नहीं है; जैसे कि जीने की इच्छा शाश्वत होती है।’

अपनी इच्छा के प्रति सजग होने का प्रयास करो, क्योंकि अब तक का तुम्हारा जीवन यही है। इसकी पकड़ में मत आओ। इसे समझने का प्रयास करो। और लड़ने का प्रयास भी मत करो, क्योंकि इससे तुम दूसरे ढंग से बार—बार इसी में फंस जाओगे। बस इसको समझने का प्रयास करो; कैसे यह तुमको पकड़ लेती है, कैसे यह तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाती है और तुमको नितांत अचेतन बना देती है।

मैंने सुना है, एबी, मेरे पास तुम्हारे लिए एक आश्चर्यजनक सौदा है। मैं दो सौ डालर में एक हाथी ला सकता हूं।

लेकिन इज्जी, मूर्ख मत बनो। हाथी को लेकर मुझको क्या करना है?

तुमको हाथी को लेकर क्या करना है? तुम खुद मूर्ख मत बनो। सौदे के बारे में सोचो। बस दो सौ डालर में हाथी तुम्हें कहां मिल सकता है, बताओ मुझे?

लेकिन मेरे पास दो कमरों का फ्लैट है। हाथी को मैं कहां रख सकता हूं?

आखिर मामला क्या है तुम्हारे साथ? क्या तुमको एक अच्छा सौदा समझ में नहीं आ रहा है?

वास्तव में मामला यह है कि तुम्हारे लिए मेरे पास एक बेहतर खबर है। यदि तुम चाहो तो तुम्हारे लिए मैं तीन सौ डालर में दो हाथी ला सकता हूं।

वाह, अब तुम ठीक बात कर रहे हो।

अब एक व्यक्ति, जिसके पास केवल दो कमरों का फ्लैट है, इस बात को पूरी तरह भूल गया है। इच्छा का निरीक्षण करो, यह तुम्हें मूर्ख बनाती रहती है, यह तुम्हें रास्ते से भटकाती चली जाती है। यह तुमको भ्रमों में, स्वप्नों में ले जाती रहती है।

निरीक्षण करो।

इसके पूर्व कि तुम कोई कदम उठाओ, निरीक्षण करो, सजग रहो। और धीरे—धीरे तुम देखोगे कि इच्छा खो जाती है, और वह ऊर्जा जो इच्छा में फंसी हुई थी, मुक्त हो जाती है। लाखों हैं इच्छाएं, और जब उन सभी इच्छाओं से ऊर्जा मुक्त हो जाती है तो तुम ऊर्जा की एक विराट उत्ताल तरंग बन जाते हो। तुम ऊपर की ओर और ऊंचे उठने लगते हो, स्वभावत: भीतर ऊर्जा का कुंड भरता चला जाता है। ऊर्जा का स्तर ऊंचा और ऊंचा होता चला जाता है और एक दिन तुम्हारी ऊर्जा सहस्रार से प्रकीर्णित होने लगती है। तुम एक कमल, एक सहस्र पंखुड़ियों वाला कमल बन जाते हो।

आज इतना ही।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?


कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–14)

February 21, 2015, 7:07 am

अकर्म के पूर्ण प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—चौदहवां)

दिनांक 2 अक्‍टूबर, 1970;

प्रात:, मनाली (कुलू)

“आपने कहा है कि श्रीकृष्ण के मार्ग में कोई साधना नहीं है। केवल “सेल्फ रिमेंबरिंग’, पुनरात्मस्मरण है। लेकिन, आप सात शरीरों की साधना की बात करते हैं। तो सात शरीरों के संदर्भ में कृष्ण की साधना की रूपरेखा क्या होगी, कृपया इसे स्पष्ट करें।’

 कृष्ण के विचार-दर्शन में साधना की कोई जगह ही नहीं है। इसलिए सात शरीरों का भी कोई उपाय नहीं है। साधना के मार्ग पर जो मील के पत्थर मिलते हैं, वे उपासना के मार्ग पर नहीं मिलते हैं। साधना मनुष्य को जिस भांति विभाजित करती है, उस तरह उपासना नहीं करती। साधना सीढ़ियां बनाती है, इसलिए आदमी के व्यक्तित्व को सात हिस्सों में तोड़ती है। फिर एक-एक सीढ़ी चढ़ने की व्यवस्था करती है। लेकिन उपासना आदमी के व्यक्तित्व को तोड़ती ही नहीं। कोई खंड नहीं बनाती। मनुष्य का जैसा अखंड व्यक्तित्व है, उस पूरे को ही उपासना में लीन कर देती है।

इसलिए साधकों ने तो बहुत-सी सीढ़ियां बनाई हैं, बहुत-से मील के पत्थर लगाए हैं, बहुत-बहुत विभाजन किए हैं–सप्त शरीरों में विभाजन किया है मनुष्य के व्यक्तित्व का, सात चक्रों में विभाजन किया है मनुष्य के व्यक्तित्व का, तीन हिस्सों में विभाजन किया है मनुष्य के व्यक्तित्व का; अलग-अलग साधकों ने मनुष्य के व्यक्तित्व को अलग-अलग सीढ़ियों में बांटकर साधना की है, लेकिन उपासना के जगत में कोई विभाजन नहीं है। वहां मनुष्य जैसा है, उस पूरे ही मनुष्य को सिर्फ स्मरण करना है। स्मरण खंड-खंड नहीं होता, साधना खंड-खंड हो सकती है। किसी आदमी को स्मरण ऐसा नहीं आता कि मैं थोड़ा परमात्मा हूं और थोड़ा नहीं हूं। जब आता है तो पूरा आता है, अन्यथा नहीं आता है।

स्मरण की प्रक्रिया ही अलग है। स्मरण की प्रक्रिया “सडन’ है, “ग्रेजुअल’ नहीं है। स्मरण पूरा-का-पूरा एक ही छलांग में घटित होता है। स्मरण एक विस्फोट है। साधना का एक क्रम है, स्मरण का कोई क्रम नहीं है। जैसे उदाहरण के लिए ऐसा समझें–आपको किसी का नाम पक्की तरह मालूम है। वक्त पड़ा है और याद नहीं आ रहा है। और आप कहते हैं ओंठ पर रखा है, जीभ पर रखा है। बड़े मजे की बात आप कहते हैं। कहते हैं, जीभ पर रखा है और याद नहीं आ रहा है। असल में दोनों बातें आपको याद आ रही हैं कि मुझे याद भी है और याद नहीं भी आ रहा है। बड़ी असमंजस की स्थिति है। आपको मालूम है कि मालूम है, आपको भलीभांति पता है कि पता है, लेकिन याद नहीं आ रहा है। विस्मरण का मतलब ही यही है कि जो याद है और याद नहीं आ रहा है। मन के किसी गहरे तल को पता है कि याद है, लेकिन मन के ऊपरी तल तक खबर नहीं पहुंच पा रही। बीच में सेतु नहीं बन पा रहा। गहरा मन कहता है कि मालूम है, लेकिन उथला मन कहता है कि मुझ तक खबर नहीं आ रही। इसलिए हम कहते हैं कि जीभ पर रखा है लेकिन याद नहीं आ रहा है। दोनों बातें एकसाथ याद आ रही हैं। मालूम है, यह भी याद आ रहा है, याद नहीं आ रहा है, यह भी मालूम हो रहा है।

फिर आप क्या करते हैं?

फिर आप बड़ी कोशिश करते हैं। फिर हजार उपाय करते हैं। सिर पर बल दे देते हैं, मुट्ठियां कस लेते हैं, सब तरह से खोजते हैं, बीनते हैं, और जितना खोजते हैं उतना ही पाते हैं कि याद नहीं आ रहा है। जितना खोजते हैं, उतना ही पाते हैं कि याद आना मुश्किल हुआ जा रहा है। क्यों? क्योंकि जितना आप खोजते हैं उतना ही आप “टेंस’ और तनाव से भर जाते हैं। और जितना तनाव से भर जाते हैं उतना ही आपके गहरे मन और आपका संबंध टूट जाता है। तनाव से भरा हुआ मन खंडित हो जाता है, शांत मन इकट्ठा हो जाता है। जितना आप कोशिश करते हैं कि याद करूं, याद करूं, उतना आप मुश्किल में पड़ते हैं। क्योंकि जो आदमी यह कह रहा है कि मैं याद करूं, वह साथ ही यह भी स्मरण में रखे हुए है कि मुझे याद नहीं आ रहा है। ये दोहरे सुझाव उसको एकसाथ मिल रहे हैं। बार-बार कह रहा है कि याद करूं और बार-बार जान रहा है कि याद नहीं आ रहा है, तो उसका आत्मविश्वास कम होता जा रहा है। और मन तनता जा रहा है। वह याद नहीं कर पाएगा। फिर उस आदमी ने कहा कि जाने दो। नहीं आता याद तो जाने दो। वह आदमी बैठकर सिगरेट पीने लगा है, या बगिया में काम करने लगा है, या रेडियो खोलकर सुनने लगा है, या अखबार पढ़ने लगा, और अचानक याद आ गया है। और जब ऐसा याद आता है, तो कभी आधा याद आता है? बस पूरा याद आ जाता है।

क्यों? इस आकस्मिक अत्तनाव की हालत में, “रिलेक्सेशन’ की हालत में क्यों याद आ गया? तनाव मिट गया है, आपने याद करने की बात छोड़ दी, दोनों मन जो टूटे थे–याद करने वाला और जिसे याद था, वे दोनों लड़ रहे थे; याद करने वाला कहता था, याद आना चाहिए और तना हुआ था, वही बाधा थी, वही तनाव था। वह छूट गया। आप बगिया में काम कर रहे हैं, या अखबार पढ़ रहे हैं, या रेडियो सुनने लगे हैं और अचानक याद आ गया है। जो कोशिश से याद नहीं आया था, वह अचानक याद आ गया। जो प्रयास से नहीं खोजा जा सका था, वह अप्रयास में उपलब्ध हो गया है। लेकिन जब यह याद आती है तो अधूरी नहीं आती, बस पूरा ही आ जाता है। क्योंकि पूरा ही आपको मालूम है।

यह मैंने उदाहरण के लिए कहा। यह हमारी सामान्य स्मृति की बात है। इस स्मृति में मन के दो हिस्से काम करते हैं। जिसको हम “कांशस माइंड’ कहते हैं, वह; जिसको हम “अनकांशस माइंड’ कहते हैं, वह–हमारा चेतन मन और हमारा अचेतन मन। इसे हम ऐसा समझ ले सकते हैं कि चेतन मन हमारे मन का वह हिस्सा है, जिससे हम चौबीस घंटे काम लेते हैं। अचेतन मन हमारे मन का वह हिस्सा है, जिससे हमें कभी-कभी काम लेना पड़ता है, चौबीस घंटे काम नहीं लेते। चेतन मन हमारा प्रकाशित मन है, अचेतन मन हमारा अंधकार में डूबा मन है। यह जो स्मृति का मैंने उदाहरण लिया, यह अचेतन में दबी है और चेतन याद करने की कोशिश कर रहा है। चेतन अचेतन के खिलाफ लड़ रहा है। जब तक लड़ेगा तब तक याद नहीं आएगा। जैसे ही लड़ाई छोड़ेगा, दोनों मिल जाएंगे और याद आ जाएगा। और जो अचेतन के द्वार पर खड़ा था, बिलकुल चेतन में प्रवेश करने को, उसी को आप कह रहे थे कि जीभ पर रखा है।

परमात्मा की स्मृति, या आत्मस्मृति, या “सेल्फ रिमेंबरिंग’ और गहरी बात है। वह अचेतन में नहीं दबा है। उसके नीचे एक और अचेतन मन है, जिसको हम “कलेक्टिव अनकांशस’ कहें–हम सबका सामूहिक अचेतन मन। इसे ऐसा समझें कि चेतन मन है हमारा ऊपर का प्रकाशित हिस्सा, उसके नीचे दबा हुआ हमारा अचेतन मन है–हमारा ही व्यक्तिगत अंधेरे में दबा हिस्सा–उसके नीचे हम सबका समूह-मन है, वह भी अंधेरे में दबा। और उसके भी नीचे “कॉज्म?िक अनकांशस’ है, जो समस्त जगत, समस्त जीवन, समस्तता का अंधकार में डूबा हुआ मन है। परमात्मा की स्मृति उस “कॉज्म?िक अनकांशस’ में, समष्टि-अचेतन में दबी पड़ी है। तो स्मरण का कुल मतलब इतना ही है कि हम अपने भीतर इतने एक हो जाएं कि न केवल अपने अचेतन से जुड़ जाएं, समूह-अचेतन से जुड़ जाएं बल्कि उसके नीचे समष्टि-अचेतन से जुड़ जाएं।

अब जैसे उदाहरण के लिए, अब आप ध्यान में बैठते हैं, तो जब ध्यान की गहराई आती है, तो पहले तो आप व्यक्ति-अचेतन में उतरते हैं। आप रोने लगते हैं, हंसने लगते हैं; कोई रोता है, कोई हंसता है, कोई नाचता है, कोई डोलता है, यह आपके व्यक्ति-अचेतन में दबी हुई क्रियाएं प्रकट होती हैं। लेकिन दस मिनट पूरे होते-होते आप व्यक्ति नहीं रह जाते, आप एक “कलेक्टिविटी’ हो जाते हैं। आप अलग-अलग नहीं रह जाते। जो गहरे उतर जाते हैं, वे समूह-अचेतन में उतर जाते हैं। फिर उस क्षण में उन्हें ऐसा नहीं लगता कि मैं नाच रहा हूं, उस वक्त ऐसा ही लगता है कि नाच चल रहा है और मैं एक हिस्सा हो गया हूं। उस वक्त उन्हें ऐसा नहीं लगता है कि मैं हंस रहा हूं, उस वक्त ऐसा ही लगता है कि हंसी फूट रही है और मैं भी भागीदार हूं। उस वक्त ऐसा नहीं लगता है कि मैं हूं, बल्कि ऐसा लगता है कि सब कुछ नाच रहा है, सारा जगत नाच रहा है। चांदत्तारे नाच रहे हैं, पौधे-पक्षी नाच रहे हैं, आसपास जो भी है, कण-कण, वह सभी नाच रहा है। उस नाचने के हम एक हिस्से हो गए हैं। तब आप “कलेक्टिव अनकांशस’ में उतर गए। तब आप समूह-अचेतन में उतर गए।

उसके भी नीचे दबा हुआ “कॉज्म?िक अनकांशस’ है। उसमें जिस दिन आप उतर जाएंगे–यह “कलेक्टिव’ से ही उतरेंगे; यह समूह-चित्त जब और-और गहरा होता जाएगा तब आपको यह भी पता नहीं चलेगा कि सब नाच रहे हैं और मैं एक हिस्सा हूं, आपको यह भी पता नहीं चलेगा कि मैं हिस्सा हूं, आपको यही पता चलेगा कि सब और मैं एक ही हूं। हिस्सा भी नहीं हूं। “टोटल’ का मैं एक भाग नहीं हूं, मैं ही “टोटल’ हूं। जिस क्षण ऐसी प्रतीति होगी उसी क्षण “कॉज्म?िक अनकांशस’ से तीर की तरह कोई स्मरण आपके चेतन मन तक उठकर आ जाता है। उस वक्त आपको स्मरण होता है कि मैंने तो जाना जो मुझे पता ही था कि मैं कौन हूं। मैं ब्रह्म हूं। अहं ब्रह्मास्मि का बोध उस क्षण में आपके चेतन तक फैल जाता है। यह जो स्मरण की प्रक्रिया है, यह मैंने चार हिस्सों में बांटी आपको समझाने के लिए। कृष्ण इसको बांटते ही नहीं। यह समझाने के लिए बांटा कि आपको कठिन होगा। ये अलग-अलग चार चीजें नहीं हैं, यह एक ही चीज का फैलाव है, गहरे और गहरे, और गहरे। और जितना गहरा होता है, उतना हम खंड को अलग नाम दे रहे हैं।

हमारे बहुत गहरे में हमें पता ही है कि हम परमात्मा हैं। हमें परमात्मा होना नहीं है, सिर्फ “डिस्कवर’ करना है, सिर्फ आविष्कार करना है, उघाड?ना है। ऋषि कहते हैं उपनिषद में कि स्वर्ण-पात्र से ढंका है जो सत्य, तू उसे उघाड़ दे। वह जो ढंका है उसे तू उघाड़ दे। परमात्मा होना हमारी उपलब्धि नहीं है, सिर्फ उघाड़ना है, “अनकवर’ होना है। कुछ जो ढंका है, वह उघड़ जाए। किससे ढंका है? हमारी ही विस्मृति से ढंका है। हम अपने मन के बिलकुल अग्रिम भाग में जी रहे हैं, जैसे कोई बड़े भवन में रहता हो, और अपनी दहलान में जीता हो। और धीरे-धीरे दहलान में ही पैदा हुआ हो, दहलान में ही बड़ा हुआ हो, दहलान में ही जीआ हो और भूल ही गया हो, उसे पता ही न हो कि उसका बड़ा भवन भी है। उसे पता ही न हो, वह दहलान में जी लेता हो, सो जाता हो, काम करता हो, खाता हो, पीता हो और उसे याद ही न हो कि एक बड़ा भवन भी है उस दहलान से जुड़ा हुआ। असल में कोई दहलान अकेली नहीं होती। कभी देखी है कोई दहलान अकेली? दहलान किसी बड़े भवन का हिस्सा ही होती है। उस बड़े भवन का हमें कोई पता नहीं है। हम अपने चेतन मन में ही जी रहे हैं, वह हमारी दहलान है। वह हमारा सिर्फ बाहर का हिस्सा है जहां छपरी पड़ती है। इससे ज्यादा नहीं है। लेकिन हमें कोई पता नहीं भीतर का। उस भीतर का भी हमारे बहुत गहरे में स्मरण है पर उस भीतर की अपनी गहराई में भी हम नहीं उतरे हैं। इस भीतर की गहराई में उतर जाना खंड में नहीं होगा। चर्चा और समझाना खंड में होगा।

साधना के मार्ग से जो चलते हैं, वे एक-एक खंड को साधने की कोशिश करते हैं। कृष्ण कहते ही इतना हैं कि तुम परमात्मा हो, इसे स्मरण करना है। इसलिए उपनिषद बार-बार कहते हैं, स्मरण करो, स्मरण करो। सिर्फ “रिमेंबर’ करना है कि कौन हैं हम। यह हम भूल गए हैं, यह हमने खो नहीं दिया है। यह कुछ ऐसा भी नहीं है कि हमारा कोई भविष्य है, जो हमें होना है। सिर्फ विस्मरण है। बहुत बात बदल जाती है। साधना में सिर्फ विस्मरण नहीं है, साधना के खयाल में कोई चीज खोजी गई है, या कोई चीज अभी हुई ही नहीं है जो होने वाली है। या साधना के क्रम में कुछ चीज गलत जुड़ गई है जिसे काटना होगा, अलग करना होगा। स्मरण की प्रक्रिया में न कुछ काटना है, न कुछ अलग करना है, न कुछ गलत जुड़ गया है, न हमें कुछ होना है, न हम अन्यथा हो गए हैं, हम जो हैं वह हैं, सिर्फ विस्मरण है। बस विस्मरण के अतिरिक्त और कोई पर्दा नहीं है।

कृष्ण का सारा-का-सारा आधार उपासना का है और उपासना का सारा आधार स्मरण का है। लेकिन भूल गए उपासक स्मरण को। उसकी जगह उन्होंने सुमिरन शुरू कर दिया। स्मरण को भूल गए, अब वे सुमिरन कर रहे हैं! बैठे हैं और राम-राम जप रहे हैं। राम-राम जपने से याद न आएगा कि मैं राम हूं। स्मरण शब्द धीरे-धीरे सुमिरन बन गया। स्मृति शब्द धीरे-धीरे सुरति बन गया। और उस शब्द के दूसरे ही “कनोटेशन’ और दूसरे ही अर्थ हो गए। एक आदमी बैठकर अगर यह भी दोहराता रहे कि मैं परमात्मा हूं, मैं परमात्मा हूं, तो भी कोई हल न होगा। यह दोहराने से हल न होगा। इसके दोहराने से, “रिपीटीशन’ से कोई वास्ता नहीं है। इससे भ्रम भी पैदा हो सकता है कि वह आदमी नीचे तो उतर ही न पाए और चेतन मन में ही समझने लगे कि मैं परमात्मा हूं और भीतर के तलों का उसे कोई बोध ही न हो।

इसलिए स्मरण की क्या होगी प्रक्रिया? क्या होगा मार्ग? क्या होगा द्वार? मेरे देखे अगर आप शांत और शून्य सिर्फ बैठ जाएं, कुछ न करें–आपका कुछ भी करना बाधा बनेगा। असल में करने से हम वह पा सकते हैं जो हम नहीं हैं। करने से वह मिल सकता है जो हमारे पास नहीं है। इसलिए स्मरण का बहुत गहरा अर्थ तो “टोटल इनएक्टिविटी’ है, अकर्म है। इसलिए कृष्ण बहुत जोर देते हैं अकर्म पर। वह निरंतर कहे जाते हैं, अकर्म। गहरे में अकर्म, “नो एक्टिविटी’। जैसा मैंने आपसे कहा कि छोटी-सी चीज भी भूल जाते हैं, तो जब तक आप “एक्टिवली’ उसको याद करने की कोशिश करते हैं, नहीं कर पाते हैं, लेकिन जब आप उस हिस्से को छोड़ देते हैं और उस हिस्से में “इनएक्टिव’ हो जाते हैं, अकर्म में हो जाते हैं, तब वह स्मरण आ जाता है। अगर हम “टोटल इनएक्टिविटी’ में हो जाएं तो वह जो कॉज्म?िक अनकांशस’ में है, वह जो ब्रह्मांड-अचेतन में पड़ा है, वह एकदम तीर की तरह उठता है। जैसे बीज फूटता है अंकुर की तरह, ऐसे ही हमारे चित्त के किसी गहरे से बीज टूटता है और एक अंकुर उठकर हमारे चेतन मन के प्रकाश तक आ जाता है, और हम जानते हैं कि हम कौन हैं। अकर्म है सूत्र। साधना में सदा कर्म है सूत्र। साधना में सदा क्रिया है मार्ग। उपासना में सदा अक्रिया है द्वार, अकर्म है मार्ग।

कृष्ण के इस अकर्म को थोड़ा ठीक से समझ लेना अच्छा होगा। क्योंकि मैं मानता हूं कि इसे ठीक से नहीं समझा जा सका। इसे समझना बहुत मुश्किल था। क्योंकि जिन लोगों ने कृष्ण पर टीकाएं लिखी हैं और जिन लोगों ने कृष्ण की व्याख्या की है, उनकी किसी की भी पकड़ में अकर्म नहीं बैठ सका। या तो अकर्म का मतलब उन्होंने समझा कि संसार छोड़कर भाग जाओ। लेकिन छोड़कर भागना एक कर्म है। छोड़ना एक कर्म है, एक कृत्य है। अकर्म का निरंतर यही मतलब समझा गया कि तुम कुछ भी मत करो। दुकान मत करो, काम मत करो, गृहस्थी मत करो, प्रेम मत करो, भाग जाओ सब छोड़कर। सिर्फ भागना करो। सिर्फ त्यागना करो। लेकिन त्याग उतना ही कर्म है, जितना भोग कर्म है। तो कृष्ण को नहीं समझा जा सका। अकर्म का मतलब छोड़ना, भागना, त्यागना हो गया। हिंदुस्तान की लंबी परंपरा त्याग रही है, छोड़ रही है, भाग रही है। और कोई गौर से नहीं देखता कि कृष्ण बिलकुल भागे हुए नहीं हैं। कभी-कभी हैरानी होती है कि एक लंबी परंपरा भी अंधी हो सकती है। कोई यह नहीं देख रहा है कि जो आदमी अकर्म की बात कर रहा है, वह गहन कर्म में खड़ा हुआ है। इसलिए भागना उसका अर्थ हो नहीं सकता।

कृष्ण तीन शब्दों का प्रयोग करते हैं–अकर्म, कर्म और विकर्म। कर्म वे उसे कहते हैं, सिर्फ करने को ही कर्म नहीं कहते। अगर करने को ही कर्म कहें, तब तो अकर्म में कोई जा ही नहीं सकता। फिर तो अकर्म हो ही नहीं सकता। कर्म को कृष्ण ऐसा करना कहते हैं जिसमें कर्ता का भाव है। जिसमें करने वाले को यह खयाल है कि मैं कर रहा हूं। मैं कर्ता हूं। “इगोसेंट्रिक’ कर्म को वे कर्म कहते हैं। ऐसे कर्म को, जिसमें कर्ता मौजूद है। जिसमें कर्ता यह खयाल करके ही कर रहा है कि करने वाला मैं हूं। जब तक मैं करने वाला हूं, तब तक हम जो भी करेंगे वह कर्म है। अगर मैं संन्यास ले रहा हूं, तो संन्यास एक कर्म हो गया। अगर मैं त्याग कर रहा हूं, तो त्याग एक कर्म हो गया।

अकर्म का मतलब ठीक उलटा है। अकर्म का मतलब है ऐसा कर्म, जिसमें कर्ता नहीं है। अकर्म का अर्थ, ऐसा कर्म जिसमें कर्ता नहीं है। जिसमें मैं कर रहा हूं, ऐसा कोई बिंदु नहीं है। ऐसा कोई केंद्र नहीं है जहां से यह भाव उठता है कि मैं कर रहा हूं। अगर मैं कर रहा हूं, यह खो जाए, तो सभी कर्म अकर्म है। कर्ता खो जाए तो सभी कर्म अकर्म है। इसलिए कृष्ण का कोई कर्म कर्म नहीं है, सभी कर्म अकर्म है।

कर्म और अकर्म के बीच में विकर्म की जगह है। विकर्म का अर्थ है, विशेष कर्म। अकर्म तो कर्म ही नहीं है, कर्म कर्म है; विकर्म का अर्थ है, विशेष कर्म। इस शब्द को भी ठीक से समझ लेना चाहिए, दोनों के बीच में खड़ा है।

विशेष कर्म किसे कहते हैं कृष्ण? जहां न कर्ता है, और न कर्म। फिर भी चीजें तो होंगी। फिर भी चीजें तो होंगी ही। आदमी श्वास तो लेगा ही। न कर्म है, न कर्ता है। श्वास तो लेगा ही। श्वास कर्म तो है ही। खून तो गति करेगा ही शरीर में। भोजन तो पचेगा ही। ये कहां पड़ेंगे? ये विकर्म हैं। ये मध्य में हैं। यहां न कर्ता है, न कर्म है। साधारण मनुष्य कर्म में है, संन्यासी अकर्म में है, परमात्मा विकर्म में है। वहां न कोई कर्ता है, न कोई कर्म है। वहां चीजें ऐसी ही हो रही हैं, जैसे श्वास चलती है। वहां चीजें बस हो रही हैं। “जस्ट हैपनिंग’।

आदमी के जीवन में भी ऐसा थोड़ा कुछ है। वह सब विकर्म है। लेकिन वह परमात्मा के द्वारा ही किया जा रहा है। आप श्वास ले रहे हैं? आप श्वास लेते होंगे, फिर कभी मर न सकेंगे। मौत खड़ी हो जाएगी और आप श्वास लिए चले जाएंगे। या जरा श्वास को रोक कर देखें, तो पता चलेगा कि नहीं रुकती है। होकर रहेगी। जरा श्वास को बाहर ठहरा दें, तो पता चलेगा नहीं मानती है, भीतर जाकर रहेगी। न हम कर रहे हैं, न हम कर्ता हैं, श्वास के मामले में। जीवन की बहुत क्रियायें ऐसी ही हैं। अकर्म में वह आदमी प्रवेश कर जाता है जो विकर्म के इस रहस्य को समझ लेता है। फिर वह कहता है, फिर नाहक मैं क्यों कर्ता बनूं! जब जीवन का सभी महत्वपूर्ण हो रहा है, तो मैं क्यों बोझ लूं? वह बड़ा होशियार आदमी है, वह “वाइज़ मैन’ है।

वह इस तरह का आदमी है कि मैंने सुना है कि एक आदमी ट्रेन में सवार हुआ और अपने पेटी-बिस्तर को अपने सिर पर लेकर बैठ गया। पास-पड़ोस के यात्रियों ने उससे कहा कि यह पेटी-बिस्तर सिर पर क्यों लिए हो? इनको नीचे रख दो। उस आदमी ने कहा, ट्रेन पर बहुत वजन पड़ेगा। तो यह सोचकर कि मैं अपने सिर पर रख लूं, थोड़ा वजन मैं भी बंटा लूं। यात्री बहुत हैरान हुए। उन यात्रियों ने कहा, तुम पागल तो नहीं हो? क्योंकि तुम अपने सिर पर रखोगे तो भी ट्रेन पर वजन तो पड़ता ही रहेगा। ट्रेन पर वजन पड़ेगा ही और तुम पर नाहक पड़ेगा। तो वह आदमी हंसने लगा। और उस आदमी ने कहा कि मैं तो समझता था तुम सब संसारी हो, लेकिन तुम संन्यासी मालूम पड़ते हो। मैं तो तुम्हें देखकर यह सिर पर रखे था।

वह आदमी एक संन्यासी था। उसने कहा, मैं तो तुम्हें देखकर ही यह सिर पर रखे था, लेकिन तुम भी हंसते हो? पूरी जिंदगी में तुमने वजन कहां रखा है? अपने सिर पर रखा है, या परमात्मा पर छोड़ दिया है? क्योंकि तुम अपने सिर पर भी रखो तो भी परमात्मा पर ही पड़ता है। यह तुम अपने सिर पर क्यों रखे हो? तो उसने कहा कि मैं तो समझा कि यहां संसारी बैठे हैं, इसलिए इनके ढंग से बैठना चाहिए। मुझे क्या पता था कि यहां संन्यासी बैठे हैं! उसने न केवल नीचे रखा वजन, बल्कि वजन के ऊपर बैठ गया। उसने कहा कि अब मैं अपनी ठीक स्थिति में बैठ सकता हूं। यह मेरा ढंग है। लेकिन सोचकर कि तुम सबको अजीब न लगे।

जो विकर्म को समझ लेगा, वह अकर्म में उतर जाएगा। कर्म हमारी स्थिति है, जैसे हम जी रहे हैं। विकर्म हमारी समझ होगी, अकर्म हमारा होना हो जाएगा।

कृष्ण की साधना, उपासना–जो हम नाम देना चाहें–उसमें गहरे में अकर्म है। आपको कुछ करना नहीं है, जो हो रहा है उसे होने देना है। आपके कर्ता को मिट जाने देना है। जिस दिन आपका कर्ता मिटा कि बीच की दीवाल टूट जाएगी और स्मरण आ जाएगा। कर्ता ही आपकी बाधा है। “द डूअर’, वह जो करने वाला है, जो कह रहा है मैं कर रहा हूं, वही पर्त है स्टील की, लोहे की, जिसके नीचे पड़ी दबी है स्मृति। और जब तक आप कर्ता बने रहेंगे तब तक स्मृति नहीं लौटेगी। इसलिए बैठकर राम-राम दोहराने से नहीं होगा, बैठकर यह कहने से कि मैं परमात्मा हूं नहीं होगा, क्योंकि मैं आपसे कहता हूं कि यह आपका कर्ता ही दोहरा रहा है। यह आप ही दोहरा रहे हो, यह आपका कर्ता ही कह रहा है कि मैं हूं। कृपा करके कर्ता को जाने दें।

कैसे जाएगा कर्ता?

विकर्म को समझें। कर्म करते रहें और विकर्म को समझें। कर्म करते रहें और जीवन को समझें। “द वेरी अंडरस्टेंडिंग’। जिंदगी की समझ बताएगी कि मैं क्या कर रहा हूं–न मैं जन्मता हूं, न मैं मरता हूं, न मैं श्वास लेता हूं, न मुझसे कभी किसी ने पूछा कि आप होना चाहते हैं? न मुझसे कोई कभी पूछेगा कि अब जाने का वक्त आ गया, आप जाना चाहते हैं? न मुझसे कोई कभी पूछता कि कब मैं जवान हो जाता हूं, कब बूढ़ा हो जाता हूं। कोई मुझसे पूछ ही नहीं रहा है, मेरा कुछ होना नहीं है। मैं न रहूं तो क्या फर्क पड़ जाएगा! मैं नहीं था तो क्या फर्क था! चांदत्तारे कुछ फीके थे? फूल कुछ कम खिलते थे? पहाड़ कुछ छोटे थे? बादल कुछ गमगीन थे? सूरज कुछ परेशान था? मैं नहीं था तब सब ऐसा था। मैं जब नहीं रहूंगा तब सब ऐसा रहेगा। जैसे पानी पर खींची गई रेखा मिट जाए, ऐसे मैं मिट जाऊंगा। कहीं कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। सब ऐसा ही चलता रहेगा। सब ऐसा ही चलता रहा है। तो मैं नाहक यह “मैं’ को क्यों ढोऊं? जब मेरे बिना सब ऐसा चलता रहेगा तो मैं भी मेरे बिना क्यों न चल जाऊं। जब मेरे बिना कहीं भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तो मैं ही नाहक मुझमें इस “मैं’ से क्यों फर्क डालूं।

विकर्म की समझ का नाम प्रज्ञा है। विकर्म की समझ का नाम “विजडम’ है। जो विकर्म को समझ लेता, वह सब समझ लेता है। तब कर्म एकदम अकर्म हो जाता है। विकर्म कीमिया है, वह बीच का द्वार है। कर्म से गुजरते वक्त पड़ेगा विकर्म, और अकर्म स्मरण आ जाता है। आपको लाना नहीं पड़ता। जिस स्मरण को आप लाएंगे, वह कर्म होगा। जो स्मरण आएगा, वही आपके कर्ता के बाहर से आएगा; कॉज्म?िक’ से आएगा, ब्रह्मांड से आएगा। इसलिए वेद को हम कह सके कि यह अपौरुषेय है। इसका यह मतलब नहीं है कि जिन्होंने लिखा वे आदमी नहीं थे। इसलिए हम अपौरुषेय कह सके कि जो खबरें उन्होंने वेद में दी हैं वे उनके पुरुष से नहीं आई थीं, वे उनके पुरुष के पार से आई थीं। वे उनकी “पर्सनलिटी’ के बाहर से आई थीं, वे उनके होने के आगे से आई थीं, वे “कॉज्म?िक’ खबरें थीं। इसीलिए हम कह सके कि वेद जो है, वह ईश्वर का वचन है।

उसका यह मतलब नहीं है कि वेद ही ईश्वर का वचन है। जब भी किसी के भीतर से व्यक्ति के पार से कोई खबर आती है, वह ईश्वर का वचन होता है। इसलिए मुहम्मद के कुरान को कहा जा सका कि वह ईश्वर का इलहाम है, उसकी तरफ से दिया गया ज्ञान है। इसलिए जीसस कह सके कि मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह मैं नहीं कहता, वह परमात्मा ही कह रहा है। इसलिए कृष्ण तो सीधा कह सके कि मैं हूं ही नहीं, परमात्मा ही है। यह सब मैं ही करवा रहा हूं, यह खेल, यह युद्ध, यह सब मैं ही करवा रहा हूं। और तू घबड़ा मत अर्जुन, क्योंकि जिन्हें तू मारेगा, उन्हें मैं पहले ही मार चुका हूं। यह जो कृष्ण इतने सहजता से कह सके कि जिन्हें तू मारेगा उन्हें मैं पहले ही मार चुका हूं। वे मर ही चुके हैं, सिर्फ तेरा काम उन तक खबर पहुंचाने का है कि तुम मर गए हो और कोई बात नहीं है ज्यादा, यह काम मैं कर ही चुका हूं, यह हो ही चुका है; यह जो व्यक्ति बोल रहा है, अब व्यक्ति नहीं है, अब “कॉज्म?िक’ खबर है। यह ब्रह्मांड के गहरे से आई हुई सूचना है कि यह जो सामने तुझे जिंदा दिखाई पड़ते हैं, मैं कहता हूं कि ये मर ही चुके हैं, घड़ी-दो-घड़ी की देर है, उसमें तू निमित्त भर है। तो तू यह मत सोच कि तू मार रहा है। तू मार रहा है, तब तू भयभीत हो जाएगा। कर्ता आया कि भय आया, कर्ता आया कि चुनाव आया, कर्ता आया कि चिंता आई, कर्ता आया कि संताप आया। तो तू यह सोच ही मत, तू यह जान ही मत; तू भूल में पड़ा है, तू यह नहीं कर रहा है। तू “कॉज्म?िक’ के हाथों में, ब्रह्म के हाथों में एक इशारे से ज्यादा नहीं है, एक “गेस्चर’ से ज्यादा नहीं है। करने दे उसे वह जो कर रहा है, तू अपने को छोड़। इसलिए वे कहते हैं, “सर्वधर्मान् परित्यज्य’,…तू सब छोड़-छोड़कर आ। तू अपने को छोड़कर आ, तू अकर्म में आ जा।

अकर्म प्रक्रिया है स्मरण की।

“भगवान श्री, अभी आपने कर्म, अकर्म और विकर्म पर बड़ी गहरी और बड़ी असाधारण चर्चा की। कश्मीर-प्रवास के समय भी जिस समय महेश योगी के विदेशी शिष्यों के सामने आत्म-साक्षात्कार की बात आई थी, उस समय भी आपने उन्हें अकर्म का ही बोध कराया था। इसमें कहीं कोई “कन्फ्यूजन’ नहीं लगता है। लेकिन कृष्ण ने जो कुछ गीता में कहा, उसमें थोड़ा-सा “कनफ्यूजन’ जरूर दिखाई पड़ता है। गीता के चौथे और पांचवें अध्याय में अकर्म-दशा पर कृष्ण ने भी जोर दिया है, किंतु गीता की अकर्म-दशा दोहरी भासित होने के कारण “कन्फ्यूजन’ पैदा करती है। दोहरी इस प्रकार कि पहले कृष्ण कहते हैं कि सब कर्म करके वे कतई किए न हों, ऐसा होना योग बताया है; और कर्म कतई न करते हुए सब कर्म किए हों, ऐसा होना संन्यास है। यह दोहरी बात तत्वतः क्या है, इस पर कुछ प्रकाश डालें।

भगवान श्री, साथ में एक और प्रश्न ले लें।

शांकरभाष्य में, ज्ञानी को कर्म की जरूरत ही नहीं–ऐसा शंकराचार्य प्रस्तुत करते हैं। और कर्मी को ही कर्म करना उनको मंजूर है। और अभी आपने बताया कि हमें कुछ करना नहीं है, तो अर्जुन केवल यंत्र ही नहीं रह जाएगा? उसकी “इंडिवीजुऍलिटी’ का क्या होगा?’

कृष्ण कहते हैं, सब कर्म किए हों और फिर भी ऐसा होना कि कर्म किए ही नहीं हैं, योग है। सब कर्म किए हों, फिर भी ऐसा होना कि किए ही नहीं हैं, योग है। अर्थात अकर्ता में प्रतिष्ठित होना योग है। दूसरी बात वे जो कहते हैं, वह इसी बात का दूसरा पहलू है। कुछ भी न करते हुए जानना कि सब कुछ किया है, संन्यास है।

संन्यास और योग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। निश्चित ही पहलू उलटे होते हैं। लेकिन एक ही सिक्के के दो पहलू जुड़े होते हैं और तय करना बहुत मुश्किल है कि पहला पहलू कहां खत्म होता है और दूसरा कहां शुरू होता है। उलटे होते हैं, दोनों की एक-दूसरे की तरफ पीठ होती है, लेकिन अगर हम सिक्के को चीरें-फाड़ें और तय करने जाएं कि सामने वाला पहलू कहां खत्म होता है और पीछे वाला पहलू कहां शुरू होता है, तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे। वे दोनों कहीं खत्म नहीं होते, दोनों बिलकुल ही एकसाथ जुड़े होते हैं। जिसे हम पृष्ठभूमि कह रहे हैं, जिसे हम पिछला पहलू कह रहे हैं, वह अगले पहलू की ही पीठ होती है।

तो अगर हम ज्ञानी को उसके चेहरे की तरफ से पकड़ें तो वह योगी मालूम पड़ेगा और उसकी पीठ की तरफ से पकड़ें तो वह संन्यासी मालूम पड़ेगा। और कृष्ण की दोनों परिभाषाओं में कोई “कन्फ्यूजन’ नहीं है। वे ज्ञानी की दोनों तरफ से परिभाषा कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि वह करते हुए न करता है, न करते हुए करता है। और ध्यान रहे, ज्ञानी में ये दोनों बातें एकसाथ ही हो सकती हैं, एक अलग नहीं हो सकती। क्योंकि जो आदमी करते हुए न करता है, वही न करते हुए करता हो सकता है। ये दोनों बातें एक ही चीज के पहलू हैं, और ध्यान रहे, कोई भी सिक्का एक पहलू का नहीं होता, अब तक बनाया नहीं जा सका। दूसरा पहलू होगा ही। कहां से हम पकड़ते हैं, यह हम पर निर्भर करेगा। कृष्ण दोनों तरफ से पकड़ते हैं। और वह अर्जुन को सब तरफ से समझाने की कोशिश कर रहे हैं। वह उसको यह कह रहे हैं कि अगर तू योग में उत्सुक हो गया है तो योगी का यह मतलब है कि करते हुए न करने को उपलब्ध हो जा। अगर तू कहता है कि मुझे योग वगैरह की गहन चर्चा में मत उलझाइये, मैं तो यह देखकर दुख और यह भय और यह मोह पीड़ित हूं, मैं इनको नहीं मारता, मैं संन्यास ले लूंगा, तो वे उससे कहते हैं कि तू संन्यासी ही हो जा, लेकिन संन्यासी का मतलब ही यह है वह कहते हैं कि जो कुछ न करते हुए भी सब करता है।

वह अर्जुन को सब तरफ से घेरा डाल रहे हैं, और कुछ भी नहीं। इसलिए कोई जगह उनके वक्तव्य “कंट्राडिक्ट्री’ मालूम पड़ते हैं। आपके साथ मेरी वही हालत हो जाती है। आपको मैं सब तरफ से घेरा डालता हूं, आप एक तरफ से कहते हैं, यह नहीं, तो मैं कहता हूं जाने दो, चलो दूसरी तरफ से शुरू करें। लेकिन आप कहीं से भी राजी हो जाएं। जहां आप राजी नहीं हुए थे, आखिर में आप पाएंगे कि दूसरी तरफ से राजी होकर आप उस छोर पर भी पहुंच गए हैं जहां आप राजी नहीं हुए थे। अर्जुन कहीं से भी राजी हो जाए, वह योगी होने को राजी हो जाए तो कृष्ण कहते हैं, चलो चलेगा। क्योंकि वे जानते हैं कि एक सिक्के में दो पहलू होते हैं, वह दूसरा पहलू बच नहीं सकता। तुम कहते हो हम सीधा सिक्का लेंगे, लो। उसका उलटा हिस्सा कहां जाएगा, वह तुम्हारे हाथ में पहुंच जाएगा।

एक ताओइस्ट कहानी है, वह मैं आपसे कहूं, उससे खयाल में आ जाएगा–

लाओत्से के फकीरों ने बड़ी अदभुत कहानियां कही हैं। ऐसी कहानियां दुनिया में किसी ने भी नहीं कहीं। एक फकीर है। जंगल में रहता है वह, उसने दस-बीस बंदर पाल रखे हैं। एक दिन सुबह कोई आ गया है जिज्ञासु और उससे ऐसा सवाल पूछा है जैसा सवाल आपने पूछा। उसने कहा है कि कभी आप ऐसा कहते हो, कभी आप ऐसा कहते हो, हम बड़े “कन्फ्यूजन’ में पड़ जाते हैं। सांझ आप कुछ कहते हो, सुबह आप कुछ कहते हो, हम बड़े उलझन में पड़ जाते हैं। तो उस फकीर ने कहा, तू बैठ और देख। उसने अपने बंदरों को बुलाया और उनसे कहा कि सुना बंदरो, आज से तुम्हारे भोजन में परिवर्तन किए देता हूं। बंदरों को रोज सुबह चार रोटियां मिलती थीं। शाम तीन रोटियां मिलती थीं। उसने कहा कि उलट-फेर किए देता हूं। आज से तुम्हें सुबह तीन रोटियां मिलेंगी और सांझ को चार रोटियां मिलेंगी। बंदर एकदम नाराज हो गए और उन्होंने कहा कि हम बगावत कर देंगे, वह बर्दाश्त के बाहर है, यह परिवर्तन हम नहीं सह सकते। हम तो अपने नियम पर कायम रहेंगे। चार रोटी सुबह चाहिए। उसने कहा, यह नहीं होगा। तीन रोटी मिलेंगी सुबह, चार रोटी शाम मिलेंगी। बंदर हमला करने को उतारू हो गए। उसने कहा, अच्छा भाई ठहरो, तुम चार सुबह ले लो। बंदर बड़े प्रसन्न हुए। उसने उस आदमी की तरफ मुंह फेरा और उसने कहा कि सुनते हो, रोटियां सात ही मिलनी हैं, मगर बंदर तीन सुबह मिलेंगी इससे बहुत नाराज हैं। अभी भी सात ही मिलनी हैं, वे चार सुबह लें कि चार सांझ लें कि तीन सुबह लें कि तीन सांझ लें; लेकिन अब वे प्रसन्न हैं।

अर्जुन को कृष्ण ऐसे ही घेर रहे हैं। वे कभी उसको कहते हैं कि अच्छा तू तीन ले ले। वह कहता है कि यह नहीं हो सकता। तो वे कहते हैं, चार ले ले। रोटियां सात ही हैं। उसको कैसे अर्जुन लेने को राजी होगा, यह अर्जुन पर छोड़ते हैं। इसलिए इतनी लंबी गीता चलती है। वह बार-बार बदलते हैं कि अच्छा यह कर ले। अच्छा तू भक्त हो जा, अच्छा तू योगी हो जा, अच्छा तू कर्मयोग साध ले, अच्छा तू भक्तियोग साध ले, अच्छा नहीं तो ज्ञानयोग साध ले, तू क्या कहता है वही साध ले। मगर वे रोटियां सात हैं। अर्जुन को गीता के आखिर-आखिर तक समझ में आता है कि रोटियां सात हैं, और वह आदमी सात रोटियों से ज्यादा देगा नहीं, फिर कहीं से भी लिया जाए इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता।

दूसरे प्रश्न का उत्तर।

शंकर की परिभाषा पक्षपाती की परिभाषा है। शंकर की परिभाषा चुनाव की परिभाषा है। शंकर कर्म के सख्त विरोध में हैं। वे कहते हैं, कर्म ही बंधन है। वे कहते हैं, कर्म ही अज्ञान है। कर्म को छोड़े बिना उपाय नहीं। यहां वे कृष्ण के अकर्म को कर्म का छोड़ना बना लेते हैं कि कर्म छोड़ो। और कर्म के छोड़ने का मतलब भी वे यही लेते हैं कि जो-जो कर्मी का संसार है, जो कर्म का जगत है, उससे भाग जाओ। कर्म के संबंधों से हट जाओ।

ज्ञानी के लिए कोई कर्म नहीं है, यह बात तो सच है। लेकिन शंकर इसे जो व्याख्या देते हैं, वह ठीक नहीं है, अधूरी है। ज्ञानी के लिए कोई कर्म नहीं है, यह बिलकुल ही सच है, क्योंकि ज्ञानी के लिए कोई कर्ता नहीं है। लेकिन “एम्फेसिस’ कर्ता के न होने पर होनी चाहिए–अर्जुन से जो कृष्ण कह रहे हैं। शंकर “एम्फेसिस’ को बदलते हैं। वह कर्म पर “एम्फेसिस’ डालते हैं कि कर्म नहीं होना चाहिए। असल में कर्म के दो हिस्से हैं–कर्ता और कर्म। कृष्ण का पूरा जोर इस पर है कि कर्ता न रह जाए। कर्म तो रहेगा ही। परमात्मा भी कर्म के बिना नहीं है, तो या तो कर्मी है, संसारी है, अज्ञानी है। परमात्मा भी कर्म के बिना नहीं है, क्योंकि यह संसार उसका कर्म है, अन्यथा यह संसार कैसे चलता है। यह कैसे चलता है, क्यों चलता है? इस चलने के पीछे चलने वाली ऊर्जा का हाथ है। तो कर्म के बाहर तो परमात्मा भी नहीं है, ज्ञानी कैसे होगा! जोर है कृष्ण का कर्ता न होने पर। लेकिन संसार को छोड़कर भागने वाला संन्यासी, “एस्केपिस्ट’, पलायनवादी, वह कहेगा–कर्म छोड़ो। और तब शंकर को संसार को माया कहने को मजबूर हो जाना पड़ता है। उनको कहता पड़ता है, यह परमात्मा का कर्म नहीं है, सिर्फ हमारा भ्रम है। नहीं तो मुश्किल पड़ जाएगी। अगर यह परमात्मा का कर्म है–यह फूलों का खिलना और यह पहाड़ों का बनना और मिटना और यह चांदत्तारों का चलना और ऊगना और डूबना–अगर यह परमात्मा का कर्म है, तब तो परमात्मा भी संन्यस्त नहीं है। तो फिर आदमी से अपेक्षा क्या करनी है! तो इसलिए शंकर को और दूसरी झंझट में पड़ना पड़ता है।

असल में तर्क की अपनी झंझटें हैं। एक तर्क आपने पकड़ा, तो उसकी “कोरललीज’ हैं। फिर आपको उसकी आखिरी सीमा तक जाना पड़ेगा। तर्क बहुत “टास्क मास्टर’ है। एक तर्क आपने पकड़ा तो वह आपको फिर “लाजिकल कनक्लूज़न’ तक, वह जो तर्क का अंत होगा, वहां तक ले जाएगा। एक बार शंकर ने यह कहा कि कर्म बंधन है, कर्म ही अज्ञान है, और ज्ञानी का कोई कर्म नहीं है, तब फिर मुश्किल हो गई। यह कर्म का विराट जाल! फिर इसको सपना कहे बिना कोई रास्ता नहीं है। यह झूठ है। यह है ही नहीं, यह सिर्फ भास रहा है, यह “एपीयरेंस’ है, यह सिर्फ माया है, यह सिर्फ जादूगरी है, यह ऐसे है जैसे एक जादूगर एक बीज बोता है और आम का वृक्ष हो जाता है और आम लग जाते हैं–न कहीं कोई बीज है, न कहीं कोई आम है, न कहीं कोई वृक्ष है, एक “हिप्नोटिक ट्रिक’ है–वह सिर्फ भास है। लेकिन, बड़े मजे की बात है कि “हिप्नोटिक ट्रिक’ देखने वालों के लिए झूठ हो, करने वाले के लिए कर्म है। “हिप्नोटिस्ट’ के लिए तो कर्म है ही। “हिप्नोटिज्म’ भी तो करना ही पड़ता है।

शंकर इसलिए जाल में पड़ते जाते हैं। और बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है कि अब वह क्या करें? अब यह माया को कैसे समझाएं? अगर माया सिर्फ हमारा भ्रम है, हमने पैदा किया है, तो भी कम-से-कम परमात्मा “अलाविंग’ तो होगा ही कि वह हमको “अलाऊ’ करता है। यानी इतना तो कर्म मानना ही पड़ेगा उसका कि वह हमको आज्ञा देता है कि तुम भ्रम देखो। क्योंकि उसकी इतनी आज्ञा भी न हो, तो हम कैसे देख पाएंगे! हम भ्रम देख रहे हैं। हो सकता है कि भ्रम झूठ हो, लेकिन हमारा देखना तो कर्म होगा ही।

इसलिए शंकर छूट नहीं पाते, चक्कर बढ़ता जाता है। और वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। लेकिन बड़े तार्किक हैं, और गहरी चेष्टा करते हैं यह समझाने की कि कर्म असत्य है, है नहीं। ज्ञानी के लिए कोई कर्म नहीं है। बाकी उनका जोर कर्ता के मिटाने पर उतना नहीं पड़ता जितना कर्म के मिटाने पर पड़ता है। लेकिन क्या मैं यह कह रहा हूं कि शंकर सत्य को नहीं पहुंच सके? नहीं, यह मैं नहीं कह रहा हूं। शंकर सत्य को पहुंच गए। क्योंकि जिस दिन कर्म को आप बिलकुल मिटा देंगे, कर्ता बचेगा कैसे? कैसे बचेगा? क्योंकि कर्ता बच ही तब तक सकता है जब तक कर्म का भाव है। तो शंकर का पूरा “लाजिक’ “एब्सर्ड’ है, गलत है, लेकिन शंकर की अनुभूति गलत नहीं है। इस बहुत गलत-सलत रास्ते से वे पहुंच तो गए। ऐसे भटके, इधर-उधर बहुत चक्कर लगाए, मंदिर के आसपास बहुत दौड़े, तब मंदिर में प्रवेश किया, लेकिन कर गए। कर गए दूसरे कारण से। क्योंकि कर्म को अगर बिलकुल निषिद्ध किया जा सके, कल्पना में भी, ज्ञान में भी अगर यह माना जा सके कि कर्म है ही नहीं, तो कर्ता बचेगा कहां? क्योंकि कर्ता बच सकता है कर्म करने से; इस भाव से कि कर्म है, बच सकता है। तो बिलकुल गलत छोर से यात्रा शुरू की। कृष्ण के छोर से यात्रा शुरू नहीं की।

कृष्ण कह रहे हैं, कर्ता को जाने दो, क्योंकि जब कर्ता चला जाएगा तो कर्म चला जाएगा। ये दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। लेकिन मैं शंकर के मुकाबले कृष्ण को चुनने को राजी हूं। इसलिए राजी हूं कि शंकर की पूरी व्याख्या “एस्केपिस्ट’ बन जाती है। शंकर भगाने वाले बन जाते हैं। और शंकर के भागने वाले को भी उन लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है जो भागने वाले नहीं हैं। अगर यह पूरी पृथ्वी शंकर से राजी हो जाए, तो एक क्षण चल नहीं सकता। एक क्षण चलने का उपाय नहीं रह जाएगा। और इसलिए पूरी पृथ्वी राजी नहीं हो सकती। और शंकर भी कितनी ही चेष्टा करें, कर्म को कितना ही माया कहें, वह माया होकर भी शेष रह जाता है। शंकर भी भीख तो मांगने निकलते ही हैं, भिक्षा तो लेते ही हैं, समझाने तो जाते ही हैं, समझाने की चेष्टा तो करते ही हैं। शंकर के विरोधियों ने शंकर का खूब मजाक लिया है। शंकर के विरोधी कहते हैं, तुम किसको समझाते हो? अगर सब माया है, तो काहे भ्रम में पड़ते हो? तुम यह गांव-गांव किसलिए भटकते हो? यह चलना किसलिए? यह समझाना किसलिए? किसको समझा रहे हो, जो नहीं है उसको? कहां जा रहे हो, जो नहीं है वहां? कहां से आ रहे हो, जो नहीं था वहां से? यह भिक्षा का पात्र, यह भिक्षा मांगना, यह भूख, यह प्यास, यह किसी का पूरा करना, यह न करना–शंकर कहेंगे, सब माया है।

एक कहानी मुझे याद आती है। एक बौद्ध भिक्षु जो जगत को माया ही मानता, संसार को झूठा ही मानता, वह एक सम्राट के दरबार में गया। उसने बड़े तर्क दिए और सिद्ध कर दिया कि सब झूठ है। तर्क में एक सुविधा है। तर्क तो सिद्ध कभी नहीं कर पाता कि सत्य क्या है, लेकिन यह सिद्ध कर सकता है कि झूठ क्या है? तर्क यह तो कभी नहीं बता पाता है कि क्या है, तर्क यह जरूर बता पाता है कि क्या नहीं है। तलवार की तरह है–तलवार मार तो सकती है, जिला नहीं पाती। तोड़ तो सकती है, जोड़ नहीं पाती। मिटा तो सकती है, बना नहीं पाती। तो तर्क में एक धार है तलवार जैसी, “डिस्ट्रक्वि’ है। तर्क ने कभी भी कुछ “कन्स्ट्रक्ट’ नहीं किया, कर नहीं सकता।

सम्राट के दरबार में उसने सब सिद्ध कर दिया कि सब झूठ है। लेकिन सम्राट भी अपने ढंग का आदमी है। उसने कहा कि सब होगा झूठ, लेकिन एक चीज नहीं हो सकती है, वह मेरे पास है। उसे मैं बुलाए लेता हूं। उसके पास एक पागल हाथी है। उसने उस पागल हाथी को बुलवा लिया। महल पर, सड़क खाली कर दी गई और पागल हाथी छोड़ दिया गया और उस गरीब भिक्षु को छोड़ दिया गया, सम्राट छत पर खड़ा है। वह पागल हाथी दौड़ता है, वह भिक्षु भागता है और चिल्लाता है कि मुझे बचाओ! मैं मरा, मैं मर जाऊंगा, मुझे बचाओ, लेकिन वह हाथी को दौड़ाए चले जाते हैं, वह उसको बिलकुल पकड़वाते भी नहीं, पूरे गांव में दौड़वाते हैं। फिर आखिर हाथी उसे पकड़ लेता है सूंड़ में। वह चिल्लाता है, हाथ-पैर जोड़ता है, रोता है, गिड़गिड़ाता है कि मैं मर जाऊंगा, फिर उसे छुड़ाया जाता है। फिर सम्राट उसे महल के भीतर बुलाता है, फिर उससे पूछता है कि यह हाथी? वह भिक्षु कहता है, सब असत्य है। तुम्हारा रोना? वह कहता है, आप भ्रम में आ गए, सब असत्य, वह मेरा होना असत्य, वह मेरा रोना-चिल्लाना असत्य, वह मेरे मरने का भय असत्य, वह मेरी प्रार्थना असत्य, वह तुम जिनसे प्रार्थना की गई असत्य, वह तुमने जो छुड़वाया असत्य, कुछ सत्य नहीं है।

अब इसके साथ बड़ी मुश्किल है। इसके साथ बड़ी मुश्किल है। अब वह पागल हाथी भी हार गया, अब कोई मतलब न रहा। क्योंकि यह आदमी यह आदमी, मगर है “कंसिस्टेंट’। वह यह कहता है कि जब सभी असत्य है, तो मेरा रोना कैसे सत्य हो जाएगा? वह कह रहा है, सब असत्य है, बचाने की पुकार असत्य है। हां, वह यह कह रहा है, जब मैं कह रहा हूं कि संसार असत्य है, तो तुमने भ्रम समझा; मेरी बचाने की आवाज भ्रम भी, झूठी थी, माया थी। जो आदमी सारे जगत को माया कहने को राजी है। उसे समझाना बड़ा कठिन है। क्योंकि वह सबको ही कहने को राजी है। शंकर के विरोधी मजाक उड़ाते हैं, लेकिन शंकर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। शंकर कहते हैं, तुम्हारा यह देखना असत्य है कि मैं समझाने जाता हूं, कि मैं किसी को समझाता हूं, कि कोई समझाता है, कि कोई समझाने वाला है। न कोई समझाने वाला है, न कोई समझने वाला है, सब माया है। जिसने यह कहा सब माया है, उसको अब तर्क का कोई उपाय न रहा।

लेकिन, तर्क में यह कितना ही सही हो जाए, हम जीवन को चाहे माया ही नाम दे दें, लेकिन माया भी है। उसके होने को शंकर इनकार नहीं कर सकते। वह है। रात हम सपना देखते हैं, वह झूठ है, लेकिन वह है। उसके “एक्जिस्टेंस’ को, उसके अस्तित्व को इनकार नहीं कर सकते। सपना कितना ही झूठा हो, है। सांप मुझे रस्सी में दिखाई पड़ा हो, लेकिन दिखाई पड़ा है। यह सवाल नहीं है कि वह है या नहीं, लेकिन मेरा दिखाई पड़ना तो कम-से-कम है। न होगा सांप, रस्सी तो है। न होगी रस्सी, मुझे दिखाई पड़ा, यह तो है। न होगा यह दिखाई पड़ना, जिसे दिखाई पड़ा, वह तो है।

अस्तित्व को हम अंततः निषिद्ध नहीं कर सकते। वह बच ही जाता है। आखिर, आखिर, आखिर। हां, डिकार्ट ठीक कहता है कि हम सब निषेध कर दें, लेकिन आखिर उसको कैसे निषेध करेंगे जो निषेध कर रहा है? “वी कैन नाट निगेट द निगेटर’। सब असत्य कर दें, लेकिन शंकर? शंकर तो हैं। इसलिए शंकर की जो व्याख्या है, वह अधूरी है, और एक पहलू की है। वह सिक्के के एक पहलू पर जोर दे रहे हैं, दूसरे पहलू का उनको पता नहीं है। और दूसरे को इनकार कर रहे हैं, जबकि सिक्के के दोनों पहलू हैं।

तो शंकर कृष्ण से कम “कन्फ्यूजिंग’ हैं, शंकर कृष्ण से कम भ्रम में डालते हैं। इसलिए शंकर के साथ जो खड़े हैं, वे निर्भ्रांत खड़े हो गए। इसलिए शंकर हिंदुस्तान में संन्यासियों का बड़ा आत्मविश्वासी वर्ग पैदा कर सके, वह कृष्ण पैदा नहीं कर सके। सच तो यह है कि शंकर का ही एक निर्भ्रांत संन्यासियों का वर्ग खड़ा हुआ। क्योंकि शंकर एक पहलू की बात करते हैं, बिना इसकी फिक्र किए कि दूसरा पहलू अस्तित्व में है। लेकिन दूसरे पहलू के अस्तित्व की भी अगर बात की जाए, तो उसको समझने के लिए बड़ी गहरी समझ चाहिए। इसलिए शंकर संन्यासियों का एक बड़ा वर्ग भी पैदा कर सके, लेकिन नासमझ संन्यासियों को भी बड़ी संख्या में इकट्ठा कर सके। हिंदुस्तान का संन्यास भी शंकर के साथ पैदा हुआ और हिंदुस्तान का संन्यास शंकर के साथ ही मंदबुद्धि भी हुआ है। ये दोनों बातें एकसाथ हुई हैं। क्योंकि कृष्ण के साथ खड़े होने के लिए बड़ी मेधा चाहिए, जो “कन्फ्यूज्ड’ होती ही नहीं, जो “कंट्राडिक्शन’ से “कन्फ्यूज्ड’ होती ही नहीं, जो विरोधों से भ्रम में नहीं पड़ती। हम सब विरोध से भ्रम में पड़ जाएंगे। इसलिए शंकर की कृष्ण की गीता की जो व्याख्या है वह सर्वाधिक लोकप्रिय हुई है। उसका कारण यह है कि शंकर ने पहली दफे गीता को निर्भ्रांत कर दिया, उसमें से सब भ्रांतियां अलग कर दीं, साफ-सुथरा कर दिया, सब विरोध छांट डाले, एक सीधी एकरस व्याख्या कर दी। लेकिन मेरा मानना है कि कृष्ण के साथ जितना अन्याय शंकर ने किया उतना किसी और ने नहीं किया। हालांकि यह भी हो सकता है कि अगर शंकर ने टीका न की होती, तो गीता खो गई होती। यह भी हो सकता है। क्योंकि शंकर की टीका ही के कारण गीता सारे जगत में बची है। मगर यह सब है, ऐसा ही है।

“भगवान श्री, शंकर की माया का अर्थ झूठ न होकर परिवर्तनशीलता नहीं हो सकता?’

अर्थ तो कुछ भी किया जा सकता है। लेकिन शंकर परिवर्तनशीलता को ही झूठ कहते हैं। शंकर कहते ही यह हैं कि वही है असत्य, जो सदा एक-सा नहीं है। वही है मिथ्या, जो कल था कुछ और, आज है कुछ और, कल होगा कुछ और। शंकर की मिथ्या और असत्य की परिभाषा ही परिवर्तन है। शंकर कहते हैं, जो शाश्वत है, सदा है, वही है; वही है, वैसा ही है। जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं हुआ, जिसमें परिवर्तन हो ही नहीं सकता, वही है सत्य। सत्य की शंकर की परिभाषा शाश्वतता है। “इटरनिटी’ है। और संसार की परिभाषा परिवर्तन है, जो बदल रहा है, जो बदलता जा रहा है, जो एक क्षण भी वही नहीं है जो एक क्षण पहले था।

अब इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब यह होता है कि जो एक क्षण पहले कुछ और था और एक क्षण बाद कुछ और हो गया–इसका मतलब क्या हुआ–इसका मतलब यह हुआ कि जो एक क्षण पहले था वह भी वह नहीं था, और एक क्षण बाद जो हो गया वह भी वह नहीं है, क्योंकि एक क्षण बाद वह फिर कुछ और हो जाएगा। जो नहीं है, उसी का नाम असत्य है। जो एक क्षण पहले भी वही था, एक क्षण बाद भी वही है, एक क्षण बाद भी वही होगा, जो है ही वही, वही है सत्य। शंकर सत्य और असत्य की जो परिभाषा करते हैं, उसमें परिवर्तन ही असत्य का पर्याय बन जाता है। और अपरिवर्तनीय ही सत्य का पर्याय बन जाता है। लेकिन, मैं जो कह रहा हूं, या कृष्ण जो कहेंगे, वह यह कहेंगे कि परिवर्तन उतना ही सत्य है, जितना अपरिवर्तन सत्य है। कृष्ण यह कह रहे हैं कि परिवर्तन उतना ही सत्य है, जितना अपरिवर्तन सत्य है। क्योंकि वह जो अपरिवर्तित है, परिवर्तन के बिना नहीं हो सकता। और वह जो परिवर्तित हो रहा है, अपरिवर्तित कीली के बिना नहीं घूम सकता। असल में अपरिवर्तित के होने के लिए परिवर्तन जरूरी है। और परिवर्तन के होने के लिए अपरिवर्तित होना जरूरी है।

वह जो “अनमूविंग’ है, वह है ही इसीलिए कि उसके चारों तरफ “मूविंग’ है। कृष्ण के साथ–कृष्ण सारे द्वंद्व को आत्मासात करते हैं सब दिशाओं से। वे यह कहते हैं कि गति का आधार अगति है। अगति का होना गति पर है। अगर हम कृष्ण को समझें, तो उसका मतलब यह है कि सत्य के होने के लिए भी असत्य अनिवार्यता है। नहीं तो सत्य भी नहीं हो सकेगा। सत्य के होने के लिए असत्य वैसी ही अनिवार्यता है, नहीं तो सत्य भी नहीं हो सकेगा। सत्य के होने के लिए असत्य वैसी ही अनिवार्यता है, जैसे प्रकाश के होने के लिए अंधकार अनिवार्यता है। जो विपरीत है वह अनिवार्य है। असल में वे एक ही चीज के दो पहलू हैं, हमारी दिक्कत है कि हम उसको विपरीत मानकर चल पड़ते हैं। वह एक ही चीज के दो पहलू हैं। इसलिए हम पूछते हैं, असत्य आया कहां से? यह क्यों नहीं पूछते हैं कि सत्य आया कहां से? जब सत्य बिना कहीं से आए आ जाता है, तो असत्य को कौन-सी कठिनाई है? यह बड़े मजे की बात है कि ब्रह्मज्ञान पर चर्चा करने वाले लोग निरंतर पूछते हैं, असत्य आया कहां से? और उनमें से एक भी इतनी बुद्धि नहीं लड़ाता कि सत्य आया कहां से? और अगर सत्य आ जाता है बिना कहीं से, तो असत्य को क्या बाधा है? बल्कि सच तो यह है कि असत्य को ज्यादा सुविधा है बिना कहीं से आने के, बजाय सत्य के। सत्य को कहीं से आना चाहिए। असत्य को आने की क्या जरूरत है। जो असत्य ही है, वह बिना कहीं से भी आ सकता है! असत्य का मतलब ही है कि जो नहीं है। उसके आने के लिए क्या मूलस्रोत की जरूरत है?

नहीं, सत्य और असत्य आए कहां से, ऐसा सोचना गलत है। सत्य और असत्य युगपत हैं, “साइमल्टेनियस’ हैं। वे एक ही अस्तित्व के दो पहलू हैं। उनके आने-जाने का सवाल नहीं है। जिस दिन तुम्हारा जन्म आया उसी दिन मौत आ गई, आएगी नहीं। वह जन्म का ही दूसरा पहलू है। लेकिन अभी तुमने एक पहलू देखा, सत्तर साल लग जाएंगे दूसरे को देखने में, यह दूसरी बात है। यह तुम्हारी असमर्थता है कि तुम एक साथ नहीं देख सके। तुमको सिक्का उलटाने में सत्तर साल लग गए। बाकी जिस दिन जन्म आया, उसी दिन मौत आ गई। जिस क्षण सत्य आया, उसी क्षण असत्य आ गया। आ गया की भाषा ही गलत है–सत्य है, असत्य है। “एक्जिस्टेंस’ है, “नानएक्जिस्टेंस’ है। अस्तित्व है, अनस्तित्व है।

शंकर ने एक पहलू पर जोर दिया है, इसके साथ एक दूसरा पहलू भी ध्यान में ले लेना जरूरी है।

शंकर ने जोर दिया कि यह जो दिखाई पड़ रहा है यह माया है। यह एक पहलू था। बुद्ध ने इसके ठीक उलटे पहलू पर जोर दिया जो नागार्जुन में जाकर पूरा हो गया। उसने कहा, जिसको दिखाई पड़ रहा है, वह माया है। तो शंकर की भाषा में संसार झूठ हो गया, नागार्जुन की भाषा में आत्मा झूठ हो गई। नागार्जुन यह कहता है कि जो दिखाई पड़ रहा है, वह जिसको दिखाई पड़ रहा है, इनमें दोनों में मौलिक आधार वह नहीं है जो दिखाई पड़ रहा है, मौलिक आधार वह है जिसको दिखाई पड़ रहा है, वह झूठ है। और सब झूठ उससे पैदा हो रहे हैं। क्योंकि मैं आंख बंद कर लेता हूं, संसार दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन मैं आंख बंद करके सपने पैदा कर लेता हूं। आंख बंद कर लेता हूं, संसार नहीं दिखाई पड़ता है, लेकिन मैं आंख बंद करके सपने देखने लगता हूं। असली बुनियादी झूठ मैं हूं। अगर संसार भी न हो, तो मैं सपने पैदा करूंगा। मजे की बात है कि मैं सपने के भीतर भी सपने पैदा कर लेता हूं। आपने ऐसे भी सपने देखे होंगे जिसमें आप सपना देख रहे हैं। बहुत “मिरेकुलस’ है यह बात कि एक आदमी सपना देख रहा है कि वह सपना देख रहा है। जैसे कि जादूगर के डब्बे के भीतर डब्बे होते हैं, ऐसा सपने के भीतर सपने, सपने के भीतर सपने होते हैं। आप ऐसा देख सकते हैं कि मैं एक फिल्म देख रहा हूं, फिल्म में अपनी ही कहानी देख रहा हूं, उस कहानी में मैं सो गया हूं और सपना देख रहा हूं। डब्बे के भीतर डब्बे डाले जा सकते हैं। इसमें कोई अड़चन नहीं है। तो नागार्जुन कहता है कि संसार को किसलिए झूठ कहने की झंझट में पड़े हो, असली झूठ भीतर बैठा हुआ है। नागार्जुन कहता है, वह जो भीतर है, वही झूठ है।

असल बात यह है कि जगत में सत्य और असत्य एकसाथ हैं। अगर किसी ने बहुत जोर दिया कि सत्य ही है, तो उसको असत्य को कहीं-न-कहीं दिखाना पड़ेगा कि वह कहां है। अगर किसी ने जोर दिया कि असत्य ही है, तो उसको दिखाना पड़ेगा सत्य कहां है। कृष्ण की दुविधा बड़ी गहरी है। और जो लोग दुविधा में नहीं होते, अक्सर उथले होते हैं। दुविधा में होना बड़ी गहरी बात है। सौभाग्य से दुविधा मिलती है। दुविधा का मतलब यह है कि जिंदगी को हमने उसकी पूर्णता में देखना शुरू किया है। न हम यह कहते हैं कि सिर्फ असत्य है, हम देखते हैं और पाते हैं कि सत्य और असत्य किसी एक ही चीज के तालमेल हैं। किसी एक ही चीज के स्वर हैं। किसी एक ही बांसुरी से पैदा हुआ अस्तित्व भी है, अनस्तित्व भी है। और जब कोई आदमी इसको ऐसा पूर्णता में देखता है, तब उसकी कठिनाई हम समझ सकते हैं कि वह जो भी वक्तव्य देगा, वह “कन्फ्यूजिंग’ हो जाएंगे। इसलिए कृष्ण के सभी वक्तव्य “कन्फ्यूजिंग’ हैं। और बहुत गहरे दर्शन से ही “कन्फ्यूजिंग’ वक्तव्य दिए जा सकते हैं।

“शंकर का माया को अनिवर्चनीय कहना क्या उनका “कांप्रोमाइज’ करना नहीं है?’

शंकर को तो “कांप्रोमाइज’ करनी ही पड़ेगी। जो भी अधूरे सत्य पर जोर देगा, उसको समझौता करना ही पड़ेगा किसी-न-किसी रूप में स्वीकार करना पड़ेगा–कहो कि माया है, कहो कि निवृत्ति सत्य है, कहो कि व्यवहार सत्य है–कुछ नाम दो, लेकिन कहीं-न-कहीं स्वीकार, उसको स्वीकृति देनी पड़ेगी, क्योंकि वह है। शंकर भी ऐसा नहीं कह सकते कि हम माया की बात नहीं करते, क्योंकि जो है ही नहीं उसकी क्या बात करनी। उनको भी बात तो करनी ही पड़ेगी। तो शंकर को “कांप्रोमाइज’ करना पड़ेगा! सिर्फ कृष्ण जैसा आदमी “कांप्रोमाइजिंग’ नहीं होता। उसको “कांप्रोमाइज’ की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह दोनों को साथ-साथ स्वीकार कर रहा है। वह कह रहा है, दोनों हैं। जो एक को इनकार करेगा उसको किसी-न-किसी गहरे तल पर समझौता बनाना पड़ेगा उस दूसरे से, जिसको उसने इनकार किया है। जो दोनों को स्वीकार करता है, उसको अब समझौते का कोई कारण न रहा। समझौते की कोई जरूरत न रही। ऐसा कहें कि समझौता पहले से ही है।

“भगवान श्री, दुविधा को आपने शुभ कहा। पहले आपने अनिर्णायक स्थिति के विपरीत व किसी-न-किसी पक्ष में होने की अनिवार्यता पर जोर दिया है। कृपया स्पष्ट करें।’

मैंने कहा कि दुविधा सौभाग्य है। इसका मतलब यह नहीं है कि दुविधा में रहना सौभाग्य है। इसका मतलब है कि जिनको दुविधा पैदा होती है, फिर वह दुविधा के पार जाने की चेष्टा में लग जाते हैं। जिनको होती नहीं पैदा, वे वहीं खड़े रह जाते हैं, वे कहीं जाते नहीं।

तो दुविधा संक्रमण है। दुविधा यात्रा का बिंदु है। दुविधा पैदा होगी तो दुविधा के पार होना पड़ेगा। यह पार होना दो तरह से हो सकता है। या तो किसी पक्ष में हो जाएं नीचे गिरकर, तो दुविधा मिट जाएगी। शंकर से राजी हो जाएं, नागार्जुन से राजी हो जाएं, दुविधा मिट जाएगी। और जो राजी होते हैं, इसीलिए राजी होते हैं कि दुविधा मिट जाती है। झंझट के वे बाहर हो जाते हैं। लेकिन दुविधा वे खोते हैं बुद्धि को खोकर। जिसके पास बुद्धि नहीं है, उसको दुविधा होती ही नहीं। बुद्धि खो दें, दुविधा मिट जाती है। लेकिन मैं मानता हूं यह कि दुविधा को मिटाना महंगा हुआ, दुर्भाग्य हुआ। दुविधा मिटनी चाहिए बुद्धि के और अतिक्रम से, और ऐसे बिंदु पर पहुंचकर मिटनी चाहिए कि जहां से दोनों एक मालूम पड़ने लगें और दुविधा न रह जाए।

दो में से एक का चुनना–एक रह जाएगा, आप दुविधा के नीचे गिर जाएंगे। यह अगर ठीक से कहें, तो यह “इर्रेशनल’ हालत होगी। यह “एब्सर्ड’ हालत होगी, बुद्धि से नीचे गिर गए आप। दुविधा तो मिट गई। पागल इसी तरह अपनी दुविधा मिटाते हैं। बुद्धि छोड़ देते हैं, फिर दुविधा मिट जाती है। “ट्रांसरेशनल’ स्थिति भी है। “इर्रेशनल बिलो रीजन’ है, “ट्रांसरेशनल अबव रीजन’ है। बुद्धि के पार जाकर भी दुविधा मिटती है, लेकिन वहां दोनों एक दिखाई पड़ते हैं, इसलिए मिटती है। वहां विरोध खो जाता है–एक के बचने से नहीं, दो के मिट जाने से, एक ही रह जाने से। इसलिए मैं कहता हूं, दुविधा सौभाग्य है। वह अबुद्धि से बुद्धि में ले जाती है। और सौभाग्य इसलिए है कि उससे बुद्धि के पार बुद्धि-अतीत का द्वार खुलता है।

“भगवान श्री, आपने कहा कि शंकर की व्याख्या अधूरी है। गीता पर लगभग चालीस-पचास व्याख्याएं हैं। क्या कोई व्याख्या पूरी भी है? लोकमान्य तिलक की व्याख्या को क्या आप पूरी कहेंगे? वह “एस्केपिस्ट’ तो नहीं हैं, “एक्टिविस्ट’ हैं और “मॉरलिस्ट’ भी हैं। आप उनके “एक्टिविजम’ को और शंकर के “सुपरामॉरलिज्म’ को, दोनों को एकसाथ मिलाने का प्रयत्न कर रहे हैं क्या?’

कृष्ण पर कोई टीका पूरी नहीं है। हो नहीं सकती। जब तक कि कृष्ण जैसा व्यक्ति ही टीका न करे।

कृष्ण पर कोई टीका पूरी नहीं है। सब पहलू हैं। और कृष्ण अनंत पहलू हैं। उनमें से जिसको जो प्रीतिकर है, चुन लेता है। शंकर उसी गीता में संन्यास सिद्ध कर देते हैं, अकर्म सिद्ध कर देते हैं। उसी गीता में तिलक कर्म सिद्ध कर देते हैं, कर्मयोग सिद्ध कर देते हैं। शंकर से ठीक उलटा पहलू तिलक चुन लेते हैं। शंकर के पहलू को चुने हुए हजार साल हो गए थे। और हजार साल में शंकर के पलायनवादी पहलू ने हिंदुस्तान की जड़ों को बहुत तरह से कमजोर किया। भगोड़ापन कमजोर करेगा। हिंदुस्तान में जो भी सक्रिय होने की क्षमता थी, उस सबको क्षीण किया। हजार साल के अनुभव ने “पेंडुलम’ को घुमा दिया। जरूरी हो गई कि गीता की कोई व्याख्या हो जो कर्म को प्रश्रय दे और कहे जोर से कि गीता कर्म के लिए ही कहती है। ठीक दूसरे “एक्स्ट्रीम’ पर तिलक ने वक्तव्य दिया। एक पहलू चुना था शंकर ने, अकर्म का–कर्म छोड़ने वाले अकर्म का, तिलक ने दूसरा पहलू चुना कर्म में डूबने वाले का। तो कर्म की व्याख्या तिलक ने की, वह भी उतनी ही अधूरी है।

बहुत-सी व्याख्याएं हैं कृष्ण पर, अंदाजन पचास नहीं हजार, और रोज बढ़ती जाती हैं। लेकिन कोई टीका गीता के साथ न्याय नहीं कर पाती। उसका कारण है कि कोई टीकाकार “ट्रांसरेशनल’ होने की हिम्मत नहीं कर पाता। असल में टीकाकार सदा “रेशनल’ ही होता है। तर्क से पार अगर वे जाएं, तो गीता निर्मित हो जाएगी, टीका निर्मित नहीं होगी। तब गीता बन जाएगी। तब टीका की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। टीका का मतलब ही यह होता है कि जो हमें समझ में नहीं पड़ता, उसे हम समझाने योग्य टिप्पणी दे रहे हैं। टीका का मतलब ही यह होता है, “कमेंट्री’ का का मतलब ही यह होता है कि जो गीता में आपको समझ में नहीं आता, वह मैं समझाता हूं। तो मैं उसकी एक व्याख्या करूंगा। और जब समझाने के लिए ही व्याख्या करूंगा, तो वह तर्क के पार नहीं जा सकती। तर्क के पार अगर कोई भी बात जाएगी तो वह स्वयं गीता बन जाएगी, “कमेंट्री’ नहीं रह जाएगी।

“आप अभी कह रहे हैं, वह क्या है?’

एक बात पक्की है कि वह “कमेंट्री’ नहीं है, वह टीका नहीं है।

“और दूसरी बात?’

दूसरी बात तुम पर छोड़ता हूं। क्योंकि कुछ तुम पर भी छोड़ा जाना चाहिए न!

“भगवान श्री, मेरे पूर्व प्रश्न का एक अंश बाकी रहा लेने से। वह यह कि शंकर का “सुपरामॉरलिज्म’ और तिलक का “एक्टिविज्म’, दोनों को मिलाने से क्या आप मानते हैं कि गीता पूरी हो जाएगी? क्योंकि जिस अति-नैतिकता की बात आप करते हैं, उसकी बात शंकर करते हैं, तिलक नहीं। तिलक घोर नैतिकवादी हैं। और जिस प्रवृत्ति की बात आप करते हैं, उसकी बात तिलक करते हैं, शंकर नहीं, वह निवृत्तिमार्गी हैं।’

यह बात सच है। शंकर अति-नैतिकवादी हैं, “सुपरामॉरलिस्ट’। क्योंकि नीतिवादी कर्मवादी होगा। नैतिक धारणा कहेगी, यह करो और यह मत करो। शंकर कहते हैं, सभी कर्म माया है। तो तुम चोरी करो कि साधुता करो, सब कर्म माया है। रात में सपना देखूं कि डाकू हो गया, कि राम में सपना देखूं कि साधु हो गया, सुबह उठकर कहता हूं, दोनों सपने थे। दोनों एक-से बेकार हो गए। इसलिए शंकर के लिए कोई नीति नहीं है, कोई अनीति नहीं है–हो नहीं सकती। चुनाव का कोई उपाय नहीं है। दो सपने में कोई चुनाव होता है? चुनाव तो तभी हो सकता है जब हम दो यथार्थों में चुनाव करते हों।

तो चूंकि जगत माया है, इसलिए शंकर के विचार में नैतिकता की कोई जगह नहीं है। शंकर की दृष्टि अति-नैतिक है। वह नैतिकता के पार चली जाती है। अकर्म नैतिकता के पार जाएगा ही। इसलिए जब शंकर की टीका के पहली दफा पश्चिम में अनुवाद हुए, तो लोगों ने उसे “इस्मारल’ ही समझा। उसे समझा कि यह तो बड़ी अनैतिक दृष्टि है। क्योंकि अगर कुछ ठीक नहीं, कुछ गलत नहीं, सभी कर्म एक-सा है और सभी स्वप्न एक-से हैं, तब तो आदमी भटक जाएगा। तब तो आदमी पतित हो जाएगा। तब तो आदमी का क्या होगा? तो पश्चिम में, जो कि हिब्रू विचार पर खड़े हुए लोग हैं, जहां कि सारा धर्म “डू दिस एंड डू नाट डू दिस’, इस पर खड़ा हुआ है, जहां “टेन कमांडमेंट्स’ के आधार पर सारी संस्कृति खड़ी हुई है, जहां धर्म का मतलब है साफ-साफ बताना कि क्या करो और क्या न करो, उनके लिए शंकर की बात अनैतिक मालूम पड़े तो कठिन नहीं है। लेकिन, शंकर की बात अनैतिक नहीं है। क्योंकि अनैतिक का मतलब होता है, नीति के विपरीत चुनाव। शंकर की बात अचुनाव की है, “च्वॉइसलेस’ है। इसलिए अति-नैतिक है। वह यह भी नहीं कहते कि तुम अनैतिक हो जाओ, वह यह नहीं कहते हैं कि तुम चोर हो जाओ। वह यह नहीं कहते कि तुम होने को चुनो, यही कहते हैं कि गलती है तुम्हारी। तुम कुछ होने को ही मत चुनो। तुम न-होने में हो जाओ। यह अति-नैतिक, “ट्रांसमॉरल’ दृष्टि है।

तिलक की दृष्टि नैतिक दृष्टि है, “मॉरल’ दृष्टि है। वे कहते हैं, कर्म में चुनाव है। शुभ कर्म है, अशुभ कर्म है। करने योग्य कर्म हैं, न करने योग्य कर्म हैं। वांछनीय है, अवांछनीय है। और मनुष्य का धर्म “आट’ “चाहिए’ के आसपास निर्मित है। तो तिलक तो कर्मवादी हैं। इसलिए वह जगत को अयथार्थ नहीं कहते, यथार्थ कहते हैं। और यह जो दिखाई पड़ रहा है, यह माया नहीं है, सत्य है। और इस सत्य के बीच हम जो हैं, निर्णायक हैं, और ठीक और गलत का प्रतिपल चुनाव है। और धर्म का अर्थ ही यही है कि प्रतिपल हम उसको चुनें जो शुभ है। तो तिलक तो ठीक विपरीत व्याख्या में हैं।

प्रश्न यह पूछा गया है कि क्या इन दोनों के मिला देने से पूरी बात हो जाएगी? नहीं। नहीं होगी पूरी बात। उसके कई कारण हैं।

पहला जो सबसे बुनियादी कारण है वह यह है कि अगर हम एक आदमी के हाथ-पैर और हड्डियां सब अलग कर लें और फिर मिलाकर रख दें, तो क्या आदमी पूरा हो जाएगा? नहीं, पूरा नहीं होगा। आदमी पूरा हो तो हड्डियां इकट्ठे में काम करती हैं, हड्डियों को जोड़कर आदमी को पूरा करें, तो पूरा आदमी नहीं आता। “पार्ट्स’ को इकट्ठा करने से “होल’ पैदा नहीं होता। अंश को जोड़ने से पूर्ण नहीं बनता। जोड़ कभी पूर्ण पर नहीं ले जाता। हां, पूर्ण में अंश जुड़े होते हैं, यह बिलकुल दूसरी बात है।

तो जो मैं कह रहा हूं, उसमें तिलक और शंकर समाहित हो जाएंगे। लेकिन तिलक और शंकर को जोड़ने से कृष्ण की पूरी दृष्टि नहीं समझी जा सकती। और भी एक कारण है कि तिलक और शंकर सिर्फ दो दृष्टियां हैं। कृष्ण के बाबत और हजार दृष्टियां भी हैं। लेकिन उन सबको जोड़ने से भी कृष्ण नहीं बनेंगे। जोड़ हमेशा “मेकेनिकल’ होगा, “आर्गनिक’ नहीं हो पाता। तो एक मशीन को तो हम जोड़कर पूरा बना सकते हैं, लेकिन एक व्यक्तित्व को, जीवंत व्यक्तित्व को हम जोड़कर कभी पूरा नहीं बना सकते। यह बड़े मजे की बात है। यह मजे की बात है, “मेकेनिकल’ जोड़ में और “आर्गनिक’ जोड़ में, मृत जोड़ में और जीवंत जोड़ में एक बुनियादी फर्क है, जो खयाल में ले लेना चाहिए।

मृत जोड़ अपने अंशों का पूरा जोड़ होता है। जीवंत जोड़ अपने अंशों से थोड़ा ज्यादा होता है। जीवंत जोड़ का मतलब है, जैसे आप हैं, अगर आपके शरीर के हम सारे अंगों का हिसाब-किताब कर लें कि कितना लोहा है आपके भीतर, कितना तांबा है आपके भीतर, कितना “अल्यूमीनियम’ है आपके भीतर, कितना नमक है, कितना पानी है, कितना “फास्फोरस’ है, कितना क्या है वह हम सब जोड़कर निकाल लें, तो एक आदमी के भीतर मुश्किल से तीन-चार रुपये का सामान होता है। इससे ज्यादा नहीं नहीं होता। ज्यादा हिस्सा, कोई नब्बे हिस्सा तो पानी ही होता है। जिसका दाम लगाना फिलहाल ठीक नहीं। बाकी जो “अल्यूमीनियम’, “फास्फोरस’, लोहा इत्यादि सब होता है मिला-जुला कर, वह कोई तीन और चार रुपये, पांच और चार रुपये के बीच होता है। यह सारा अगर हम एक कागज पर रख लें–सब–और इसको जोड़ दें, तो जोड़ तो हो जाएगा लेकिन आप उसमें बिलकुल नहीं होंगे; आप भर नहीं होंगे और सब होगा। क्योंकि आप एक जीवंत व्यक्ति थे, जो इस जोड़ से ज्यादा थे। इस जोड़ के भीतर थे, लेकिन जोड़ ही नहीं थे। इस जोड़ के भीतर मौजूद थे, लेकिन जोड़ ही नहीं थे। यह जोड़ पूरा हो जाएगा और आप नहीं होंगे।

कृष्ण का जो जीवनदर्शन है, वह एक “आर्गनिक यूनिटी’ है। उससे हजार पहलुओं पर टीकाएं हुई हैं। उस पर रामानुज कुछ और कहते हैं, शंकर कुछ और कहते, निंबार्क कुछ और कहते, अरविंद कुछ और कहते। ये हजारों कुछ-कुछ कहने वाले लोगों को अगर हम सबको इकट्ठा करके रख लें, तो भी वह “आर्गनिक यूनिटी’ पैदा नहीं होती है जो कृष्ण हैं। हां, सब इकट्ठा हो जाएगा, कृष्ण उसमें नहीं होंगे। हां, इससे उलटी बात जरूर सच है। अगर कृष्ण हों, तो यह सब उसमें होगा। लेकिन इससे कुछ ज्यादा भी होगा। इसलिए शंकर और तिलक के जोड़ने से तो कुछ मामला नहीं बड़ा अगर हम समस्त व्याख्याकारों को, समस्त टीकाकारों को जोड़ लें, तो भी वह पूर्ण से कम होगा और मृत होगा। वह जीवंत नहीं हो सकता। वह जोड़ ही होगा। वह गणित का जोड़ ही होगा। वह “आर्गनिक टोटलिटी’ नहीं हो सकती।

इसलिए मैं जो कह रहा हूं, वह कृष्ण की कोई व्याख्या नहीं है। मैं कोई उनकी व्याख्या नहीं कर रहा। मुझे उनकी व्याख्या से प्रयोजन ही नहीं है। इसलिए मैं जरा भी चिंतित और भयभीत नहीं हूं कि मेरे वक्तव्यों में विरोध हो जाएगा। होगा ही। क्योंकि वह कृष्ण में है, उसका मैं कुछ कर नहीं सकता। मैं कृष्ण की व्याख्या नहीं कर रहा, कृष्ण को सिर्फ आपके सामने खोल रहा हूं। मैं अपने को उन पर थोपने का कोई उपाय नहीं कर रहा, सिर्फ उनको खोल रहा हूं। वे जैसे हैं–गलत हैं, सही हैं; अनुचित हैं, उचित हैं, जैसे हैं; “एब्सर्ड’ हैं, “इर्रेशनल’ हैं, “सुपरारेशनल’ हैं, जैसे हैं; नैतिक हैं, अनैतिक हैं, जैसे हैं; मुझे उनमें कोई चुनाव नहीं है। जैसे कृष्ण को जीवन में कोई चुनाव नहीं है, ऐसा मैं उनमें कोई चुनाव नहीं कर रहा, उनको बस खोले चला जा रहा हूं। इसमें मैं बहुत कठिनाई में पडूंगा ही। इसलिए कठिनाई में पडूंगा, जैसे कि कृष्ण की गीता से हजारों साल कठिनाई में पड़े हैं, तो मैं जो भी कहूंगा, वह फिर टीका योग्य होगा; वह टीका योग्य होगा और आप सब उसकी टीका करते हुए लौटेंगे कि मेरा क्या मतलब था? क्योंकि मैं तो सीधा पूरा ही खोले दे रहा हूं। उसमें मैं कोई यह फर्क कर ही नहीं रहा कि यह कहने से कृष्ण की दूसरी बात कहने में क्या कठिनाई होगी, इसका हिसाब ही नहीं रख रहा हूं। दूसरी बात जब होगी तब दूसरी बात कह दूंगा, तीसरी बात जब होगी तब तीसरी कह दूंगा। उनको खोलता चला जाऊंगा, वे जैसे हैं पूरे आपके सामने खुल जाए। तो जो मैं कह रहा हूं, इसीलिए मैंने कहा, वह व्याख्या नहीं है, वह “कमेंट्री’ नहीं है।

“तो फिर आप कृष्ण होकर ही बात कर रहे हैं?’

होने की जरूरत तब पड़ती है जब कोई न हो। होने की क्या जरूरत है? कोई होने की जरूरत ही नहीं है किसी को? हैं ही।

“भगवान श्री, श्री अरविंद ने जो टीका श्रीमद्भगवद्गीता पर लिखी है, अभी आपने उनका नाम लिया तो खयाल आया कि आप सृष्टि-दृष्टिवाद, जिसमें सृष्टि पर भार है और दृष्टि-सृष्टिवाद, जिसमें दृष्टि पर भार है–उन दोनों के करीब आ गए। तकलीफ यह है कि अरविंद “सुपरामेंटल’ की जब बात करते हैं कि प्रभु की चेतना नीचे उतरेगी, तब एक “डुअलिज्म’ आ जाता है। वह आ जाता है या नहीं? और रमण महर्षि का अजातवाद चैतन्य महाप्रभु के अचिंत्य भेदाभेदवाद के पास और आपके पास भी आता है कि नहीं? और अरविंद का कृष्ण-दर्शन का वह प्रसंग क्या था?’

अरविंद “सुपरामेंटल’ की बात करते हैं। अति-चेतन, अति-मनस की बात करते हैं। लेकिन, बात है “रेशनल’। अरविंद बुद्धि से पार कभी नहीं जाते। वे अगर बुद्धि के अतीत की बात भी करते हैं, तो बुद्धिगत धारणाओं में ही करते हैं। अरविंद निपट बुद्धिवादी हैं। वे जो बात करते हैं, जिन शब्दों, जिन धारणाओं की चर्चा करते हैं, वे सब धारणाएं अरविंद के बुद्धिवाद की धारणाएं हैं। अरविंद के पूरे वक्तव्य में बड़ी संगति है, जो “सुपरारेशनल’ के वक्तव्यों में कभी नहीं होती। बड़ी “कंसिस्टेंसी’ है। बड़ा गणित है, बड़ा तर्क है, जो “मिस्टिक’ के शब्दों में नहीं होता। हो नहीं सकता। “मिस्टिक’ के, रहस्यवादी के शब्द में तो एक शब्द के बाद जो दूसरा शब्द होता है, वह पहले का खंडन कर जाता है। अरविंद कहीं अपना खंडन नहीं करते।

अरविंद एक सुव्यवस्थित “सिस्टम मेकर’ हैं। “सिस्टम मेकर’ कभी भी “सुपरारेशनल’ नहीं होता। हो नहीं सकता है। “सिस्टम’ बनाना हो तो “रीज़न’ से बनती है। और जो “सुपरारेशनल’ होते हैं, सदा गैर-“सिस्टेमेटिक’ होते हैं। उनकी कोई “सिस्टम’ नहीं होती। “सिस्टम’ हो नहीं सकती। व्यवस्था होगी कैसे अतक्र्य में? अचिंत्य में व्यवस्था होगी कैसे? इसलिए इस सदी में जितने लोग “रीज़न’ के थोड़े पार गए हैं, वे सब “फ्रेग्मेंटरी’ हैं, “सिस्टेमेटिक’ नहीं हैं। चाहे विट्गिंस्टीन हो, चाहे हुसरेर हो, चाहे हाइडिगर हो, मारलुपांटी हो–कोई भी हों, ये सारे-के-सारे लोग “फ्रेग्मेंटरी’ हैं। कृष्णमूर्ति हों, ये सब “फ्रेग्मेंटरी’ हैं। इनकी कोई “सिस्टम’ नहीं है। इनकी कोई “सिस्टम’ नहीं है। ये कोई व्यवस्था नहीं बनाते। इनके वक्तव्य “एटामिक’ हैं, आणविक हैं। और एक वक्तव्य दूसरे वक्तव्य का खंडन कर सकता है, करता है।

अरविंद का मामला बहुत भिन्न है। सच तो यह है कि शंकर के बाद हिंदुस्तान में अरविंद के मुकाबले बड़ा “सिस्टम मेकर’ नहीं हुआ। इतना बड़ा व्यवस्थापक नहीं हुआ है। लेकिन यही उनकी कमजोरी और गरीबी है। यही उनकी दीनता है। क्योंकि वह शब्द और तर्क और सिद्धांत के बड़े माहिर, कुशल खिलाड़ी हैं। लेकिन जिंदगी का असली सत्य इन सबसे पार है। तो वह विभाजन करके रख देते हैं। असल में अरविंद की शिक्षा पश्चिम में हुई–सारी शिक्षा। सीखकर लौटे वे तर्क और गणित। सीखकर लौटे वे पश्चिम के सोने की ऍ?रिस्टॉटेलियन पद्धति। सीखकर लौटे वे डार्विन का विकासवाद। सीखकर लौटे वे विज्ञान की तर्क-चिंतन व्यवस्था। सारा मानस उनका पाश्चात्य है। हिंदुस्तान में अरविंद से ज्यादा पाश्चात्य मानस का व्यक्ति नहीं था इस सदी में। फिर पूरब की उन्होंने की व्याख्या, सो जो होना था वह हुआ। पूरब के पास कोई तर्क-व्यवस्था नहीं है। पूरब की गहनतम अनुभूतियां अतक्र्य हैं। पूरब के अनुभव अचिंत्य हैं। पूरब के अनुभव अज्ञात, अनजान के, ज्ञान के अतीत के हैं, जानने वाले के पार के हैं। पूरब का अनुभव रहस्य का है, “मिस्ट्री’ का है। फिर अरविंद पश्चिम का मानस लेकर और पूरब की अनुभूतियों की व्याख्या करने बैठे, सो एक अच्छी व्यवस्था बनी जो कि पूरब का कोई आदमी न बना सकता था। तो उन्होंने सारी बातें कीं, और सारे साधन उपयोग किए चिंत्य के।

लेकिन वे बातें ही हैं, इसीलिए वे चिंत्य के माध्यम से कर सके। अगर अनुभव भी अरविंद का अचिंत्य का हो, तब “कैटेगरीज’ टूट जाती हैं, वे “कैटेगरीज’ में नहीं जी सकते थे। कहीं “कैटेगरीज’ नहीं टूटतीं। यानी मजे की बात यह है कि वे उन चीजों के लिए भी धारणाएं बनाते हैं जिनके लिए कभी धारणाएं नहीं बनाई गई थीं। जैसे “सुपरामेंटल’। वह बनाते जाते हैं धारणाएं, वह खंड करते जाते हैं, वह ठीक गणित बिठाए चले जाते हैं, वह सारी बात कर देते हैं।

दूसरी बात जो पूछी है, वह भी इस संबंध में खयाल लेने जैसी है।

धर्मों का, समस्त धर्मों का चिंतन एक अर्थ में गैर-विकासवादी है, “नॉन एवॅलूशनरी’ है। समस्त धर्म दो हिस्सों में बंटे रहे हैं। एक हिस्सा है, जो “क्रिएशन’ में मानता है, सृष्टि में मानता है। जैसे ईसाई हैं, मुसलमान हैं, हिंदू हैं, सब सृष्टि में मानते हैं। यह मानते हैं, परमात्मा ने सृष्टि की। और जो लोग सृष्टि में मानते हैं, वे गहरे में विकास में नहीं मान सकते। क्योंकि विकास में मानने का यह मतलब होगा कि परमात्मा ने जब पहले बनाया प्रकृति को, सृष्टि को, तो वह अपूर्ण थी, और फिर धीरे-धीरे उसमें विकास हुआ। पूर्ण परमात्मा अपूर्ण को नहीं बना सकता है। इसलिए सृष्टिवादी विकासवादी नहीं हो पाता। विकास का मतलब है, रोज विकास हो रहा है। सृष्टि का मतलब है, एक क्षण में पूरा-का-पूरा सृजन किया गया है, विकास नहीं हो रहा। जो ऐसा नहीं मानते थे, जैसे जैन या बौद्ध, तो उन्होंने माना कि सृष्टि हुई ही नहीं है। जो है वह अनादि है, उसका कभी सृजन नहीं हुआ। सृजन हुआ ही नहीं।

इसलिए बड़े मजे की बात है, सृष्टि हिंदुओं का शब्द है, प्रकृति जैनों, बौद्धों, सांख्यों का शब्द है। अब सब घोल-मेल हो गया धीरे-धीरे। प्रकृति शब्द हिंदुओं का नहीं है, क्योंकि हिंदू प्रकृति कह ही नहीं सकते। प्रकृति का मतलब है, जो बनाने के पहले से मौजूद है, “प्रीक्रिएशन’, जो बनाने के पहले से भी मौजूद है। जो सदा मौजूद ही है, जिसको कभी बनाया ही नहीं गया। सृष्टि का मतलब है, जो कभी मौजूद नहीं थी और कभी बनाई गई। इसलिए प्रकृति शब्द बड़े और लोगों का है। वह उनका है जो “क्रिएशन’ में मानते ही नहीं। और सृष्टि उनका है, जो मानते हैं किसी क्षण में सृष्टि बनाई गई। इसलिए सांख्य, जैन या बौद्ध चूंकि सृष्टि को नहीं मानते, इसलिए उनके पास स्रष्टा की कोई धारणा नहीं है। जब बनाया ही नहीं गया, तो बनाने वाले का कोई सवाल नहीं है। इसलिए ईश्वर खो गया वहां। उसकी कोई जगह वहां नहीं रही। क्योंकि ईश्वर को बनाने वाले की तरह हमें जरूरत पड़ी थी। और जिन्होंने माना बनाया ही नहीं गया, बात खत्म हो गई। जिन्होंने सृष्टि मानी, उनके पास स्रष्टा है।

अरविंद पश्चिम से धारणा लेकर आए “एवॅल्यूशन’ की। अरविंद की जब शिक्षा हुई तब डार्विन छाया हुआ था यूरोप पर। वह धारणा लेकर आए विकास की। यहां आकर पूर्वी मनस का जब उन्होंने अध्ययन किया और पूर्वी अनुभूतियों का जब उन्होंने–अध्ययन किया मैं कहता हूं, जाना नहीं। अध्ययन उनका गहन है। ज्ञान उनका इतना गहन नहीं है। मनन और चिंतन, उनकी बड़ी तीव्र मेधा है; लेकिन अनुभूति उनकी बहुत क्षीण है। तो जब उन्होंने पूरब का पूरा अध्ययन किया और पश्चिम के मनस और डार्सिन के खयाल को लेकर वे आए, तो जिसको हम कहते हैं, “क्रास ब्रीडिंग’, अरविंद में “क्रास ब्रीडिंग’ हो गई। वर्णसंकर एक विचार पैदा हुआ। वह वर्णसंकर विचार में विकास का सिद्धांत भारत के मनस में जुड़ गया। अब बड़ी तकलीफ हुई। क्योंकि भारत का मनस प्रकृति की, पदार्थ की चिंतना ही नहीं करता, वह चिंतना करता है चित्त की, मनस की, आत्मा की। और पश्चिम से विकास का सिद्धांत लेकर वह आए और भारत के मनस की “साइकिक’ चिंतना का दोनों का जोड़ हो गया, तो “साइकिक एवॅल्यूशन’ का खयाल अरविंद को पैदा हो गया, कि एक मनस का विकास हो रहा है।

इस विकास में एक नई बात उन्होंने जोड़ी, जो बिलकुल उनकी थी और बिलकुल नई है और इसी कारण बिलकुल गलत है। मौलिक बातें सड़ जाती हैं, जड़ हो जाती हैं–अक्सर। क्योंकि एक ही व्यक्ति उनको खोजता है। परंपरागत बातें सड़ जाती हैं, जड़ हो जाती हैं, लेकिन अक्सर गलत नहीं होतीं। क्योंकि करोड़ों लोग उन्हें खोजते हैं। अरविंद का नवीनतम जो खयाल है, जिसकी वजह से उनकी प्रतिष्ठा हुई, वह है–परमात्म-चेतना का अवतरण।

सदा ऐसा ही सोचा गया है कि व्यक्ति उठेगा ऊपर और परमात्मा से मिलेगा। एक ऊर्ध्वगमन होगा। अरविंद कहते हैं, परमात्मा उतरेगा और व्यक्ति से मिलेगा। एक तरह से सोचने पर ये भी एक सिक्के के दो पहलू हैं। असल में, सत्य बहुत बीच में है। और वह सत्य है कि मिलन वहां होता है, जहां हम भी कुछ चले होते हैं और परमात्मा भी कुछ चला होता है। मिलन तो वहीं होता है। हम भी चले होते हैं, वह भी चला होता है। लेकिन पुरानी धारणा हमारे चलने पर जोर देती थी। उसका कारण था। क्योंकि परमात्मा का चलना तो सुनिश्चित है, हमारा चलना ही सुनिश्चित नहीं है। वह तो चलेगा ही, इसलिए उसको छोड़ा जा सकता है, हिसाब के बाहर रखा जा सकता है। हमारे चलने भर की बात है। हम अपने चार कदम को उठा लें, उसके चार कदम उठने ही वाले हैं। इसलिए उसको छोड़ दिया था, खयाल के बाहर रखा था। क्योंकि उसके चलने पर जोर देने का परिणाम कहीं हमारे चलने की कमजोरी न बन जाए।

अरविंद ने दूसरे पहलू से पकड़ा और कहना शुरू किया कि परमात्मा उतरेगा। इसका प्रभाव पड़ा, क्योंकि जो चलने के लिए बिलकुल उत्सुक नहीं थे, उन्होंने कहा यह बड़ी हृदय की बात है। यह लगती है, जंचती है। इसलिए हिंदुस्तान में अरविंद की तरफ जितने लोग दौड़े पिछले वर्षों में, उतना किसी की तरफ नहीं दौड़े। उसका कुल कारण इतना था कि जो भी और गहरे अर्थों में नहीं दौड़ सकते थे, वह पांडिचेरी की तरफ दौड़ने लगे। उन्हें लगा कि यह सस्ता मामला है। पांडिचेरी तो पहुंचा जा सकता है, और उसके बाद परमात्मा उतरेगा, उसके बाद हमें कुछ…परमात्मा के उतरने की बात सच है, लेकिन हमारे चढ़े बिना वह कभी नहीं उतरता। और इसमें एक दूसरी बात ध्यान रखने की है कि चढ़ने के मामले में, मैं चढूंगा तो मुझ पर उतरेगा, आप चढ़ेंगे तो आप पर उतरेगा, लेकिन उतरने के मामले में कैसे तय होगा कि किस पर उतरे? सब पर उतर जाएगा। क्योंकि परमात्मा तो सब पर उतर जाएगा। फिर कोई हिसाब करेगा, चुनाव करेगा कि इस पर उतरूं, इस पर न उतरूं!

तो पांडिचेरी में एक खयाल पैदा हुआ कि अरविंद कोशिश करेंगे और सब पर उतर जाएगा। यह खयाल पैदा हुआ, जो कि लोभ बना–जो अभी भी लोभ जारी है। खयाल यह हुआ कि जब एक पर उतर जाएगा, जैसे कि गंगा उतरी भगीरथ पर। तो फिर भगीरथ पर थोड़े ही उतरी, उतर गई सबके लिए, बह गई। तो भगीरथ का काम अरविंद कर देंगे। और एक दफा परमात्मा उतर गया, तो फिर सब पानी पिएंगे। फिर गंगा के किनारे सब बस जाएंगे।

इस भ्रम ने बड़ा उपद्रव पैदा किया। और मैं मानता हूं, यह बड़ी गलत धारणा है। व्यक्ति को जाना पड़ता है। घटना उतरने की घटती है, लेकिन व्यक्ति को तैयारी करनी पड़ती है। और सामूहिक रूप से कभी परमात्मा उतरेगा, ऐसा मुझे कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि परमात्मा की तरफ से वह उतरने को तैयार ही है। लेकिन समूह कब तैयार होगा? और समूह में आप आदमी ही हैं सिर्फ! उड़ते हुए पक्षी नहीं हैं? पौधे नहीं हैं? जंगल के जानवर नहीं हैं। ये सड़क के किनारे पत्थर नहीं हैं? परमात्मा जिस दिन उतरेगा, उस दिन पत्थर वंचित रहेगा, आपको मिल जाएगा? उस दिन पौधे वंचित रहेंगे, आपको मिल जाएगा? यह सोचना असंभव है।

इसलिए अरविंद की जो धारणा उतरने की है, उसने हमारे लोभ को तो बड़ा सुख दिया, लेकिन वह सार्थक नहीं है। इसलिए पांडिचेरी में जो प्रयोग चल रहा है, उससे ज्यादा व्यर्थ प्रयोग मनुष्यजाति के इतिहास में कभी नहीं चला। एकदम व्यर्थ प्रयोग चल रहा है। लेकिन वह हमारे लोभ के अनुकूल पड़ता है, इसलिए चल सकता है।

अरविंद को सोचते वक्त, दूसरा नाम स्मरण दिलाया है रमण का। रमण अरविंद से ठीक उलटे आदमी हैं। अरविंद बड़े पंडित हैं, तो रमण का पांडित्य से कभी कोई नाता नहीं रहा। अरविंद बड़े जानकार हैं, तो रमण से गैर-जानकार आदमी खोजना मुश्किल है। अरविंद सब जानते मालूम पड़ते हैं, लेकिन रमण अज्ञानी होने की तैयारी में हैं। रमण कुछ जानते हुए नहीं मालूम पड़ते। इसलिए रमण की जिंदगी में जो संभव हो पाया, वह अरविंद की जिंदगी में संभव नहीं हो सका। अरविंद जानकार बने रहे और रमण जान गए। रमण की जिंदगी में घटना घटी है। लेकिन चूंकि वे जानकार बिलकुल नहीं हैं, इसलिए उनके वक्तव्य एक ऐसे आदमी के हैं जो ज्ञान की भाषा जानता ही नहीं है। ज्ञान मिल गया है, ज्ञान की भाषा नहीं जानता। इसलिए वक्तव्य की दृष्टि से वक्तव्य बड़े कमजोर हैं। तर्क की दृष्टि से बड़े दीन हैं। लेकिन अनुभव की दृष्टि से उनकी समृद्धि का कोई मुकाबला नहीं है। रमण कोई “सिस्टम’ तो नहीं बना सकते, कोई व्यवस्था नहीं दे सकते। रमण के सब वक्तव्य “एटामिक’ हैं, सब आणविक हैं। ज्यादा हैं भी नहीं। क्योंकि रमण के पास कहने को भी नहीं है। थोड़ा-सा कहने को है–वह जितना जाना है। और वह जो जाना है, उसको कहने के लिए भी बहुत शब्द उनके पास नहीं हैं। थोड़े-से शब्द हैं, जिनमें वे उसको कहे चले जाते हैं। इसलिए रमण को तो एक पन्ने पर इकट्ठा किया जा सकता है। एक पन्ना भी बड़ा पड़ सकता है, एक पोस्टकार्ड भी काफी है। लेकिन अगर अरविंद को इकट्ठा करने चलो, तो एक “लाइब्रेरी’ भी छोटी है। और ऐसा नहीं है कि अरविंद जो कह सकते थे वे सब कह गए हैं, अभी उनको कहने के लिए दस-पांच जन्म लेना पड़े। अभी उनके पास कहने को बहुत था।

इसका यह मतलब नहीं है कि उनके पास कहने को बहुत था इसलिए उन्होंने नहीं जाना। नहीं, इससे कोई बाधा नहीं पड़ती। बुद्ध के पास कहने को बहुत है। बुद्ध ने बहुत कहा। बुद्ध रमण जैसे आदमी हैं, अनुभव की तरह; और जानकारी की तरह वे अरविंद जैसे आदमी हैं। इसलिए कहने का उपाय उनके पास बहुत है। महावीर ने बहुत कम कहा है। महावीर का ज्यादा समय मौन में बीता। बहुत कम कहा है। बहुत थोड़े वक्तव्य हैं महावीर के। और जो वक्तव्य भी हैं, बहुत संक्षिप्त हैं। रमण जैसा मामला दिखता है। महावीर ने बहुत नहीं कहा। दिगंबरों के पास तो कोई ग्रंथ ही नहीं है महावीर का। श्वेतांबरो के पास ग्रंथ हैं, वे भी महावीर के पांच सौ वर्ष बाद इकट्ठे किए गए हैं।

“आप रमण को बुद्ध तक इतनी दूर ले जाते हैं। उन्हें कृष्णमूर्ति के निकट रखकर समझाएं जरा।’

दूर और पास नहीं है कुछ। कृष्णमूर्ति ठीक रमण जैसे व्यक्ति हैं। रमण से और बुद्ध, अरविंद इनको मैंने क्यों तौला, उसका कुछ कारण है। कृष्णमूर्ति ठीक रमण जैसे अनुभव के व्यक्ति हैं, लेकिन अरविंद जैसी जानकारी कृष्णमूर्ति की भी नहीं है। हां, रमण से ज्यादा मुखर हैं। रमण से ज्यादा तर्कयुक्त हैं। लेकिन कृष्णमूर्ति के तर्क और अरविंद के तर्क में बड़ा फर्क है। अरविंद एक तार्किक हैं, कृष्णमूर्ति तार्किक नहीं हैं। और अगर तर्क का उपयोग कर रहे हैं, तो पूरे वक्त तर्क को मिटाने के लिए ही कर रहे हैं। और अगर तर्क की पूरी-की-पूरी चेष्टा है, तो वह अतक्र्य में प्रवेश के लिए ही है। लेकिन जानकार बहुत नहीं हैं। इसलिए मैंने दूर का उदाहरण लिया। बुद्ध से मैंने इसलिए कहा, ताकि आपको दोनों बात खयाल में आ जाए–बुद्ध का अनुभव रमण जैसा और जानकारी अरविंद जैसी। कृष्णमूर्ति का अनुभव रमण जैसा, जानकारी अरविंद जैसी नहीं।

दूसरा फर्क है। रमण बहुत मौन हैं, कृष्णमूर्ति मुखर हैं। इसीलिए कृष्णमूर्ति के भी वक्तव्यों को अगर छांटा जाए तो बहुत ज्यादा नहीं हैं। इसलिए जो कृष्णमूर्ति को सुनते हैं वे अनुभव करेंगे कि वह एक ही चीज को निरंतर चालीस वर्षों से दोहराए चले जा रहे हैं। एक ही बात को दोहराए चले जा रहे हैं। एक पोस्टकार्ड पर उनके वक्तव्य भी इकट्ठे हो सकते हैं। लेकिन वह कहने में ज्यादा विस्तार लेते हैं, तर्क का उपयोग करते हैं। रमण विस्तार भी नहीं लेते। इसको ऐसा समझें कि कृष्णमूर्ति के वक्तव्य तो “एटामिक’ हैं, लेकिन वक्तव्यों के आसपास तर्क का, विचार का, चिंतन का जाल भी खड़ा करते हैं। रमण के वक्तव्य निपट “एटामिक’ हैं, उनके आसपास कोई वक्तव्य का, तर्क का, समझाने का जाल भी नहीं है। रमण के वक्तव्य उपनिषदों जैसे हैं, सीधे “स्टेटमेंट्स’ हैं। हां, उपनिषद कह देते हैं, ब्रह्म है। फिर वह यह भी फिक्र नहीं करता कि क्यों है, है कि नहीं, कैसे है, क्या तर्क है, क्यों है, यह कुछ नहीं। सीधे, “बेयर स्टेटमेंट्स’ हैं। ऐसा, कि है। रमण उपनिषद के ऋषियों से जोड़े जा सकते हैं।

“रमण के अजातवाद पर कुछ कहें।’

हां, रमण या रमण जैसे और लोग भी कहते हैं, जो है वह कभी जन्मा नहीं, अजात है; यह दूसरा पहलू है एक और बात का, जिसे हम निरंतर कहते हैं लेकिन खयाल में नहीं लेते। सैकड़ों वक्तव्य हैं इस बात के कि जो है वह मरेगा नहीं, अमृत है। अमर्त्य है। इसका दूसरा पहलू है। क्योंकि अमर्त्य वही हो सकता है जो अज्ञात हो, जो जन्मा न हो। तो रमण कहते हैं, जो है, वह जन्मा नहीं है। इसीलिए तो जो है, वह मरेगा नहीं। आप कब जन्मे, आपको पता है?

यह बड़े मजे की बात है, आप कब जन्मे, आपको पता है? आप कहेंगे कि नहीं, पता तो नहीं है। हां, जन्म के लेखे-जोखे हैं, जो दूसरों ने हमें बताए। अगर मुझे कोई न बताए कि मैं जन्मा, तो क्या मुझे पता चल सकेगा कि मैं जन्मा? यह “इन्फर्मेशन’ है, जो दूसरों ने मुझे दी है। दूसरे मुझे कहते हैं कि फलां-फलां तारीख को फलां-फलां घर में जन्मा। अगर यह खबर मुझे न दी जाए तो क्या कोई भी उपाय मेरे पास है, “इंट्रेंसिक’, भीतर, जिससे मैं पता लगा सकूं कि मैं कभी जन्मा? नहीं, आपके पास भीतरी कोई “एविडेंस’ नहीं है कि आप जन्मे। असल में भीतर जो है, वह कभी जन्मा ही नहीं, “एविडेंस’ हो कैसे सकता है? आप कहते हैं कि मैं कभी मरूंगा, लेकिन आपको मरने का कोई अनुभव है? नहीं, आप कहेंगे, दूसरों को हमने मरते देखा। लेकिन समझ लें कि एक आदमी को हम किसी को मरते न देखने दें–इसमें कोई कठिनाई नहीं है–क्या एक ऐसा आदमी जिसको हम किसी को मरते न देखने दें, कभी इस नतीजे पर पहुंच सकेगा–किसी भी कारण से, किसी भीतरी वजह से–कि मैं मरूंगा? नहीं पहुंच सकता। यह भी “आउटर “एविडेंस’ है। यह भी हमने किसी और को मरते देखा है। लेकिन हमारे भीतर कोई प्रमाण नहीं है, कोई गवाही नहीं है कि हम मरेंगे। इसीलिए शायद इतने लोग मरते हैं, फिर भी हमें खयाल नहीं पैदा होता कि हम मरेंगे। हम मरते जाते हैं, सोचते हैं मर रहा होगा दूसरा कोई। बाकी चूंकि भीतरी कोई गवाही नहीं है कि मैं मरूंगा, न भीतरी कोई गवाही है कि मैं कभी जन्मा। भीतर की गवाही किस चीज की है? भीतर सिर्फ एक गवाही है कि मैं हूं, और कोई गवाही नहीं है।

तो गैर-गवाही की बातें माने जाने के लिए रमण मना करते हैं। वह कहते हैं कि जिसकी पक्की गवाही है, उतनी ही मानना काफी है। मैं हूं, इतनी गवाही है। मैं भी वह कहता हूं कि मैं हूं, उतनी गवाही है। और अगर थोड़े और भीतर प्रवेश करेंगे, तो पाएंगे, मैं भी नहीं हूं। हूं, इतनी ही गवाही है।

कल बात करेंगे।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–94

February 22, 2015, 4:56 am

सभी कुछ परस्‍पर निर्भर है—(प्रवचन—चौदहवां)

प्रश्‍न—सार:

1—आप कहते हैं, ‘पूरब में हम’ कृपया इसका अभिप्राय समझाएं?

 2—आप संसार में उपदेश देने क्यों नहीं जाते?

 3—कपटी घड़ियाल की चेतना के बारे में कुछ कहिए?

 4—परस्पर निर्भरता और पूर्ण स्वार्थ में क्या संबंध है?

 5—समर्पण के लिए किस भांति कार्य करूं?

 6—क्या परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति भी बच्चों को जन्म देते हैं?

पहला प्रश्न :

जब आप बुद्धिमत्‍ता, अंतदृष्‍टियों और संबोधि के बारे में बात करते है तो बहुधा ‘पूरब में हम’ कहते है। कृपया इस वाक्‍यांश का अभिप्राय समझाए।

पूरब का पूरब से कोई संबंध नहीं है। पूरब तो बस अंतराकाश, चेतना के भीतरी संसार का प्रतीक है। पूरब धर्म का प्रतीक है, पश्चिम विज्ञान का प्रतीक है। इसलिए पूरब में भी यदि कोई व्यक्ति वैज्ञानिक दृष्टिकोण उपलब्ध कर लेता है, तो वह पश्चिमी हो जाता है। हो सकता है कि वह पूरब में ही रहे, हो सकता है उसका जन्म पूरब में ही हुआ हो—इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। या जब कभी कोई धार्मिक चेतना को उपलब्ध करता है—हो सकता है कि उसका जन्म पश्चिम में हुआ हो, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है—वह पूरब का भाग होने लगता है। जीसस, फ्रांसिस, इकहार्ट, बोहेमे, विटगिस्टीन, यहां तक कि हेनरी थोरो, इमरसन, स्वीडनबर्ग—वे सभी पूर्वीय हैं। सदा स्मरण रखो, पूरब प्रतीकात्मक है। मेरा भूगोल से कोई लेना—देना नहीं है। इसलिए जब कभी मैं कहता हूं ‘पूरब में हम’ तो मेरा अभिप्राय होता है, वे सभी लोग जिन्होंने भीतर के सत्य को जान लिया है। और जब कभी मैं कहता हूं ‘पश्चिम में तुम’ तो मेरा अभिप्राय बस यही होता है—वैज्ञानिक मन, तकनीकी मन, अरस्तुवादी मन; तार्किक, गणितीय वैज्ञानिक, जो भाव—उन्‍मुख नहीं है; विषय उन्मुख है लेकिन विषयी उन्‍मुख नहीं है।

एक बार तुम इसको समझ लो, तब कोई समस्या न रहेगी। सभी महान धर्मों का जन्म पूरब में हुआ है। पश्चिम ने अभी तक कोई महान धर्म पैदा नहीं किया है। ईसाईयत, यहूदी धर्म, इस्लाम, हिंदु धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ताओ धर्म, ये सभी पूरब में जन्में हैं। यह एक स्त्रैण मन के जैसा कुछ है, और इसको ऐसा ही होना पड़ता है, क्योंकि प्रत्येक स्तर पर यिन और यांग का, पुरुष ऊर्जा और स्त्री ऊर्जा का सम्मिलन होता है। वर्तुल को विभाजित होना पड़ता है। पूरब स्त्रैण भाग की भांति कार्य करता है और पश्चिम पुरुष भाग की भांति कार्य करता है।

पुरुष मन आक्रामक होता है; विज्ञान आक्रामक है। स्त्रैण मन ग्रहणशील होता है; धर्म ग्रहणशील है। विज्ञान भरपूर प्रयास करता है। यह प्रकृति को उसके रहस्य खोलने के लिए बाध्य करता है। धर्म मात्र प्रतीक्षा करता है, प्रार्थना करता है और प्रतीक्षा करता है, उकसाता है किंतु बाध्य नहीं करता, पुकारता है, चिल्लाता है, रोता है, फुसलाता है, प्रकृति को करीब—करीब बहला कर इसको रहस्य और गोपनीयताए प्रकट करने के लिए राजी कर लेता है, लेकिन यह प्रयास स्त्रैण है। इसलिए ध्यान। जब प्रयास, पुरुष का, आक्रामक होता है तो प्रयोगशाला की भांति होता है प्रकृति को सताने के लिए, प्रकृति को अपने रहस्य अनावृत करने के लिए, कुंजी सौंप देने के लिए, भांति— भांति के उपकरण। पुरुष का मन एक आक्रमण है। पुरुष का मन एक बलात्कारी मन है, और विज्ञान एक बलात्कार है। धर्म प्रेम करने वाले का मन है; यह प्रतीक्षा कर सकता है यह अनंतकाल तक प्रतीक्षा कर सकता है।

इसलिए जब कभी मैं कहता हूं ‘पूरब में हम’ तो मेरा अभिप्राय है सभी धार्मिक लोग, चाहे उनका जन्म कहीं हुआ हो, चाहे उनका पालन—पोषण कहीं भी हुआ हो। वे सारे संसार में फैले हुए हैं। पूरब सारे संसार में फैला हुआ है, जैसे पश्चिम सारे संसार में फैला हुआ है। जब कभी कोई भारतीय अपनी वैज्ञानिक खोजों के लिए नोबल पुरस्कार पाता है, तो उसके पास पश्चिमी मन है। वह पूरब का भाग नहीं रहा है, अब वह पूर्वीय परंपरा का हिस्सा नहीं रहा। उसने अपना घर बदल लिया है, उसने अपना पता बदल लिया है। वह अब अरस्तु के पीछे खड़े लोगों की पंक्ति में सम्मिलित हो गया है।

पूरब तुम्हारे भीतर है, हम इसको पूरब कहते हैं, क्योंकि पूरब और कुछ नहीं बल्कि उदित होता हुआ सूर्य—सजगता, चेतना, बोध है।

इसलिए जब कभी मैं कहता हूं ‘पूरब में हम’ तो कभी दिग्भ्रमित मत हो। मेरा अभिप्राय उन सभी देशों से नहीं है जो पूरब में हैं, जरा भी नहीं। मेरा अभिप्राय है वह चेतना जो पूर्वीय है। जब मैं भारत शब्द का प्रयोग करता हूं तो मेरा अभिप्राय भारत नहीं होता है। मेरे लिए यह एक बड़ी चीज है, यह दूसरे देशों की भांति मानचित्र में छपा केवल भौगोलिक भूखंड भर नहीं है। यह मात्र उस विराट ऊर्जा का प्रतीक है, जिसको भारतवर्ष ने अंतस के अनुसंधान में लगाया है। इसलिए तुम्हारा जन्म चाहे कहीं हुआ हो यदि तुम परमात्मा की ओर आने लगते हो तो तुम भारतीय बन जाते हो। अचानक भारत के लिए तुम्हारी तीर्थयात्रा आरंभ हो जाती है। तुम भारत आ सकते हो या तुम भारत नहीं आ सकते हो यह बात अर्थपूर्ण नहीं है। लेकिन तुमने अपनी तीर्थयात्रा आरंभ कर दी है। और जिस दिन तुम समाधि उपलब्ध कर लेते हो अचानक तुम गौतम बुद्ध, जिन महावीर उपनिषद के दृष्टाओं, वेदों के ऋषियों, कृष्‍ण और पतंजलि का भाग हो जाते हो। अचानक तुम तकनीकविद मन, तार्किक मन का हिस्सा नहीं रहते हो, तुम तर्कातीत हो गए हो।

दूसरा प्रश्न:

जीसस, क्राइस्‍ट, बुद्ध, महावीर, लाओत्‍सु, इन सभी संबुद्ध लोगों के बारे में ज्ञात है कि वे सारे संसार में उपदेश देन गये थे। आप ऐसा नहीं कर रहे, इसका क्‍या कारण है?

मैं भी वही कर रहा हूं किंतु थोड़े विपरीत ढंग से। मैं सारे संसार को अपने चारों ओर आने दे रहा हूं। यह मेरा ढंग है। बुद्ध ने अपना कार्य किया, मैं अपना कार्य कर रहा हूं।

प्रश्न:

इसे मा प्रेम माधुरी ने पूछा है: मैं स्‍वयं को बहुधा उन घड़ियालों में से एक पाती हूं, जिनका आप उल्‍लेख करते है। आरे निश्‍चित ही स्‍वामी बोधि महान दार्शनिक होने का प्रत्‍येक लक्षण प्रदर्शित करता है। यह सुंदर है, लेकिन कपटी घड़ियाल की चेतना के बारे में कुछ कहेंगे ?

स्त्री ने लंबे समय से पीड़ा झेली है क्योंकि स्त्रैण मन ने लंबे समय तक दुख उठाया है। स्त्री का लंबे समय तक दमन हुआ है क्योंकि स्त्रैण चित्त को दीर्घकाल से दमित किया गया है। दमन, शोषण, उत्पीड़न की शताब्दियों पर शताब्दिया व्यतीत हो गई हैं, स्त्री के प्रति बहुत हिंसा की गई है। स्वभावत: वह चालाक हो गई है। स्वभावत: वह पुरुषों को सताने के सूक्ष्म उपायों का आविष्कार करने में अति चतुर हो गई है। यह स्वाभाविक है। दुर्बल का यही का है। छिद्रान्वेषण, दोष खोजना, बकवास करना—कमजोर का यही उपाय है। जब तक कि तुम इसे न समझ लो, तुम इसको छोड़ नहीं पाओगी।

स्त्रियां क्यों लगातार पुरुषों की कमियां खोजती रहती हैं, क्यों उनको सताने के लिए लगातार उपाय और विधियां तलाशती रहती हैं? यह उनके अवचेतन में है। यह शताब्दियों का दमन है जिसने उनके अस्तित्व को विषाक्त कर दिया है, और निःसंदेह वे सीधा आक्रमण नहीं कर सकतीं। अनेक कारणों से यह संभव नहीं है। एक, वे पुरुष से अधिक कोमल हैं। वे कराटे, अकीदो, खे सीख सकती हैं, लेकिन इससे कोई विशेष अतर नहीं पड़ेगा। वे कोमल हैं, यही उनका सौंदर्य है। यदि वे बहुत अधिक कराटे और को और जु—जित्सु और अकीदो सीख लेती हैं और वे बहुत बलिष्ठ और शक्तिशाली हो जाती हैं, तो वे कुछ खो देंगी, और उनको मिलेगा कुछ नहीं। वे अपनी स्त्रैणता खो देंगी, वे अपनी फूल जैसी कोमलता, नजाकत खो देंगी। यह प्रयास मूल्यवान नहीं है।

स्त्री कोमल है। उसे वैसा ही होना है। उसमें पुरुष से अधिक गहरी लयबद्धता है। वह पुरुष से अधिक संगीतमय, अधिक लयपूर्ण, अधिक गोलाई लिए हुए है। एक बात, अपनी कोमलता के कारण वह उतनी आक्रामक नहीं हो सकती है। एक और बात, पुरुष उसको एक निश्चित ढंग से प्रशिक्षित करता रहा है; पुरुष उसको एक निश्चित ढंग का मन देता रहा है, जो उसको उसके बंधनों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं देता। यह इतने लंबे समय से चलता रहा है कि यह उसकी गहराइयों तक पहुंच गया है।

उसने इसे स्वीकार कर लिया है। किंतु स्वतंत्रता एक ऐसी चीज है कि चाहे कुछ भी होता हो तुम स्वातंभ्य उन्मुख रहती हो। स्वतंत्र होने की इच्छा तुम कभी नहीं खोती, क्योंकि यह धार्मिक होने की इच्छा है, यह दिव्य होने की इच्छा है। चाहे कुछ भी हो जाए स्वतंत्रता लक्ष्य बनी रहती है।

इसलिए जब विद्रोह करने का कोई उपाय न हो, और सारा समाज पुरुष के नियंत्रण का है, तब क्या किया जाए? इससे संघर्ष कैसे करें? अपने थोड़े से सम्मान की रक्षा कैसे की जाए? इसलिए स्त्री चालाक और कूटनीतिज्ञ हो गई है। वह ऐसे काम करना आरंभ कर देती है जो प्रत्यक्ष रूप से नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष आक्रमण है। वह पुरुष से सूक्ष्म ढंगों से संघर्ष करती है। इसने उसे करीब— करीब एक घड़ियाल जैसा बना दिया है। वह बदला लेने के लिए अपने अवसर की सतत प्रतीक्षा करती रहती है। वह किसी विशिष्ट बात के लिए जिसके विरोध में वह संघर्षरत है, सजग नहीं भी हो सकती है, लेकिन वह बस एक स्त्री है और वह पूरी स्त्री—जाति का प्रतिनिधित्व करती है। गौरवहीनता और अपमान की शताब्दियों पर शताब्दियां वहां उसके अवचेतन में हैं। संभवत: तुम्हारे पुरुष—साथी ने तुम्हारे साथ कुछ भी गलत न किया हो, लेकिन वह सभी पुरुषों का प्रतिनिधित्व करता है। इसको तुम भूल नहीं सकतीं। तुम पुरुष से, इसी पुरुष से प्रेम करती हो, लेकिन तुम उस संगठन को प्रेम नहीं कर सकतीं जिसे पुरुषों ने बनाया है। तुम इस पुरुष से प्रेम कर सकती हो, किंतु पुरुष को जैसा वह है तुम क्षमा नहीं कर सकती हो। और जब कभी तुम इस पुरुष को देखती हो, तुम्हें वहां पुरुष—मन मिलता है, और तुम प्रतिशोध लेना शुरू कर. देती हो।

यह बहुत अवचेतन है। इससे स्त्रियों में एक विशेष प्रकार की विक्षिप्तता उत्पन्न हो जाती है। पुरुषों की तुलना में स्त्रियां अधिक संख्या में विक्षिप्त हैं। यह स्वाभाविक है, क्योंकि वे एक पुरुष निर्मित समाज में जो पुरुषों के लिए तैयार किया गया है रहती हैं, और उनको इसके अनुरूप होना पड़ता है। यह पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए निर्मित किया गया है, और उन्हें इसमें रहना पड़ता है, उनको इसके अनुरूप होना पड़ता है। उनको अपने बहुत से भाग काटने पड़ते हैं, अपने हाथ—पैर, जीवित हाथ—पैर—बस पुरुषों द्वारा उनको दी गई यांत्रिक भूमिका के अनुरूप होने के लिए उन्हें पंगु होग पड़ता है। वे संघर्ष करती हैं, वे प्रतिरोध करती हैं, और इस सतत संघर्ष से एक विशेष प्रकार की विक्षिप्तता का जन्म होता है। इसी को बिचिंग, कुतियापन कहा जाता है।

मैंने सुना है, एक भद्र वृद्ध महिला पालतू जानवरों की दुकान में गई। दुकान के प्रवेश द्वार के पास ही एक बहुत सुंदर कुत्ता था, और उसने दुकान के मालिक से कहा, आपने वह अच्छा सा, प्यारा सा कुत्ता वहां बिठा रखा है? दुकानदार बोला, जी हाँ, महोदया, वह एक बहुत सुंदर कुतिया (बिच) है। है न सुंदर?

वह महिला क्रोधित हो उठी, उसने कहा क्या! अपने शब्दों पर गौर करें, ऐसे शब्दों का उपयोग मत करें! नगर का संभ्रांत क्षेत्र है यह थोड़ा और सुसंस्कृत बनिए!

दुकान का मालिक भी जरा हैरान हुआ और घबड़ाया, वह बोला, मुझको खेद है, किंतु क्या आपने पहले कभी यह शब्द प्रयोग होने नहीं सुना है?

उस महिला ने कहा : मैने इसे प्रयोग किए जाते सुना है, लेकिन किसी प्यारे, प्यारे कुत्ते के लिए कभी नहीं।

इसको सदैव स्त्रियों के लिए प्रयोग किया गया है।

अभी उस दिन ही मैं ‘बिचिंग’ नाम की एक पुस्तक पढ़ रहा था, निःसंदेह इसे एक स्त्री ने ही लिखा है।

कुछ ऐसा है जो बहुत, बहुत ही गलत हो गया है। यह एक स्त्री का प्रश्न नहीं है, यह स्त्रीपन का प्रश्न है। लेकिन बकझक और कुतियापन और लगातार झगड़ते रहने से इसका समाधान नहीं हो सकता है। यह इसका हल नहीं है। समझ की आवश्यकता है।

प्रश्न निश्चित रूप से सही है। माधुरी घड़ियाल जैसी है, और बोधि के साथ वह बकवास और झगडा खूब कर रही है। निःसंदेह बोधि इसके द्वारा विकसित हो रहा है। उसमें बहुत सारा परिवर्तन हो गया है। इसका सारा श्रेय माधुरी को जाता है। जब तुम्हें एक लगातार झगड़ने और बक—बक करने वाली स्त्री के साथ रहना पड़ता है तो यह निश्चित है कि या तो तुम पलायन कर जाते हो या तुम दार्शनिक बन जाते हो। केवल दो रास्ते ही उपलब्ध हैं. या तो तुम भाग जाओ या तुम यह सोचना आरंभ कर दो कि यह बस माया, स्वप्न, भ्रम है : यह माधुरी और कुछ नहीं बल्कि एक स्वप्न है…। तुम अनासक्त हो जाते हो। यह भी भागने का ही एक उपाय है। तुम शारीरिक रूप से वहां रहते हो लेकिन आत्मिक रूप से तुम बहुत दूर चले जाते हो। तुम एक दूरी निर्मित कर लेते हो। तुम उन आवाजों को सुनते हो जिन्हें माधुरी निकाल रही होती है, लेकिन ये किसी अन्य ग्रह की आवाजों की तरह प्रतीत होती हैं। उसे अपना काम करने दो; धीरे— धीरे तुम अनासक्त हो जाते हो, धीरे’ धीरे तुम उपेक्षा करने लगते हो। बोधि के लिए यह शुभ रहा है।

अब माधुरी पूछ रही है : ‘बोधि के लिए यह सुंदर है लेकिन कपटी घड़ियाल की चेतना के बारे में क्या?’

वही करो जो बोधि कर रहा है। वह क्या कर रहा है? वह और अधिक दर्शक बन रहा है। जो तुम कह रही हो और कर रही हो उससे वह अपमानित नहीं हो रहा है। यदि तुम उसको चोट भी पहुंचा रही हो, तो वह इसको देखेगा, जैसे कि कुछ स्वाभाविक घटित हो रहा हो : वृक्ष से पुरानी पत्तियां गिर रही हैं—करना क्या है? एक कुत्ता भौंक रहा है—करना क्या है? रात है और अंधेरा है—करना क्या है? व्यक्ति स्वीकार कर लेता है, और इस स्वीकृति में जो कुछ भी घट रहा है व्यक्ति उसको देखता है। वही करो। जैसे कि बोधि तुमको देख रहा है, तुम भी अपने आप को देखो। क्योंकि वह घड़ियाल तुम्हारे अंतस का सत्व नहीं है। नहीं, यह किसी का आंतरिक सत्य नहीं है। यह घड़ियाल उन्हीं घावों से जन्मा है जिन्हें तुम मन में लिए हुए हो, और उन घावों का बोधि से कोई लेना—देना नहीं है। वे घाव किसी और ने दिए होंगे, या शायद किसी व्यक्ति ने नहीं बल्कि समाज ने ही दिए हों।

जब भी तुम विक्षिप्त ढंग से, विक्षिप्त शैली में व्यवहार करने लगो, स्वयं को देखो। इस व्यवहार को देखो।

जैसे कि बोधि तुमको देख रहा है, तुम भी अपने आपको देखो।

और इस देखने से एक दूरी उत्पन्न हो जाएगी, और तुम अपने मन को अनावश्यक परेशानी निर्मित करते हुए देखने में समर्थ हो जाओगी, तुमको एक सजगता प्राप्त होगी। चीजों को सतत देखते रहने से व्यक्ति मन से बाहर आ जाता है, क्योंकि देखने वाला मन के पार है।

यदि तुम ऐसा नहीं करती हो, तो संभावना यही है कि बोधि और और दार्शनिक और समझदार होता जाएगा और तुम और अधिक छिद्रान्वेषी हो जाओगी, क्योंकि तुम सोचोगी कि वह उदासीन हुआ जा रहा है, तुम सोचोगी कि वह दूर जा रहा है, और तुम उसको और कठोरता से चोट मारना आरंभ कर दोगी, तुम और अधिक कलह करना आरंभ कर दोगी। यह देख कर कि वह कहीं और जा रहा है, तुमको छोड़ रहा है, तुम और अधिक प्रतिशोध लेने लगोगी। इससे पहले कि यह घटित हो, सजग हो जाओ।

मैंने सुना है, एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी के अंतिम संस्कार के खर्चों को किस्तों में चुकाने की व्यवस्था की, किंतु कुछ महीने बाद उसे कुछ वित्तीय परेशानियां आ गईं और वह भुगतान जारी नहीं रख पाया। अंततोगत्वा व्यवस्थापक ने उसको फोन किया और कहा, देखो, या तो मुझे तुमसे तुरंत कुछ धन मिल जाए या तुम्हारी पत्नी फिर लौट कर आ रही है।

ऐसी परिस्थिति मत उत्पन्न करो कि जो व्यक्ति तुम्हें प्रेम करता है तुम्हारी मृत्यु के बारे में सोचना आरंभ कर दे, वह जिसने चाहा होता कि तुम अमर हो जाओ, आशा बांधना आरंभ कर दे कि तुम मर जाओ, तो बेहतर यही है कि तुम मर जाओ।

मुल्ला नसरुद्दीन फिल्मों के पीछे दीवाना था। प्रत्येक रात वह इस सिनेमा घर में होता या उसमें। एक दिन उसकी पत्नी बोली, मैं सोचती हूं यदि एक रात के लिए भी तुम घर में रुक गए, तो मैं मर जाऊंगी। मुल्ला ने पत्नी की और देखा और वह बोला, मुझे रिश्वत देने की कोशिश मत करो।

ऐसी परिस्थिति मत निर्मित करो।

क्लब के सबसे पुराने और अधिक सम्मानित सदस्य की पत्नी का अभी कुछ दिन पहले ही निधन हो गया था। उसके साथी सदस्य शोक—सभा में अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त कर रहे थे, और एक व्यक्ति ने कहा, अपनी पत्नी को खो देना कितना कठिन है।

एक और सदस्य स्वर में कड़वाहट घोलते हुए फुसफुसाया, कठिन? ऐसा हो पाना करीब—करीब असंभव है।

ऐसा कोई कहता नहीं, किंतु यही है वह स्थिति जिसको लोग निर्मित कर लेते हैं—एक बहुत कुरूप स्थिति। और मैं जानता हूं कि तुम अनजाने में इसे निर्मित कर रही हो, और मैं जानता हूं कि तुम इसे ठीक इसके उलटे की आशा में निर्मित कर रही हो। कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि स्त्री बस पुरुष की शीतलता को तोड्ने के लिए उस पर प्रहार करना आरंभ कर देती है, बस अवरोध हटाने के लिए। वह चाहती है वह कम से कम थोड़ा सा तो उत्तप्त हो, कम से कम क्रोधित ही हो जाओ, किंतु उत्तप्त तो हो। वापस मुझ पर चोट करो, लेकिन कुछ करो तो! इस प्रकार अलग होकर मत खडे रहो। लेकिन तुम ऐसी स्थिति जितनी अधिक बार निर्मित करोगी उतना ही अधिक पुरुष को अपने आप को बचाना पड़ेगा और बहुत दूर जाना पड़ेगा। धीरे— धीरे उसको अंतरिक्ष यात्रा सीखनी पड़ेगी, सूक्ष्म शरीर की यात्रा, जिससे शरीर यहीं रहे और वह बहुत दूर चला जाए।

ये दुष्‍चक्र हैं। तुम चाहती हो कि वह तुम्हारे निकट आए और संबंधों में उष्णता हो, वह तुम्हारा आलिंगन करे, किंतु तुम ऐसी परिस्थिति निर्मित कर देती हो जिसमें ऐसा होना और—और असंभव होता जाता है। जरा देखो, तुम क्या कर रही हो। और इस व्यक्ति ने विशेषत: तुम्हारे साथ कुछ नहीं किया है। उसने तुम्हें कोई हानि नहीं पहुंचाई है। मुझे पता है कि ऐसी परिस्थितियां होती हैं जब दो व्यक्ति सहमत नहीं होते हैं, किंतु यह असहमति विकास का एक भाग है। तुम ऐसा कोई व्यक्ति नहीं पा सकतीं जो तुम्हारे साथ पूरी तरह राजी होने जा रहा हो। विशेषतौर से स्त्रियां और पुरुष सहमत नहीं होते, क्योंकि उनके पास अलग तरह के मन होते हैं, चीजों के बारे में उनके दृष्टिकोण भिन्न होते हैं। वे भिन्न केंद्रों के माध्यम से कार्य करते हैं। इसलिए यह नितांत स्वाभाविक है कि वे आसानी से सहमत नहीं होते, लेकिन इसमें कुछ गलत नहीं है। और जब तुम किसी व्यक्ति को स्वीकार लेती हो और तुम किसी को प्रेम करती हो, तब तुम उसकी असहमतियों को भी प्रेम करती हो। तुम लड़ाई—झगड़ा आरंभ नहीं कर देती हो, तुम चालाकियां करना नहीं शुरू करती हो, तुम दूसरे का दृष्टिकोण समझने का प्रयास करती हो। और यदि तुम सहमत न भी हो सको, तो तुम असहमत होने के लिए सहमत हो सकती हो। किंतु फिर भी एक गहरी सहमति बनी रहती है कि ठीक है हम असहमत होने के लिए सहमत हैं। इस मामले में हम सहमत नहीं होने जा रहे हैं, ठीक है लेकिन संघर्ष की कोई आवश्यकता नहीं है। संघर्ष तुम्हें और निकट नहीं लाने जा रहा है, यह और दूरी उत्पन्न कर देगा। और बहुत सा, तुम्हारा करीब पचानवे प्रतिशत झगड़ा नितांत आधारहीन होता है, अधिकतर यह गलतफहमी से उत्पन्न होता है। और हम अपनी स्वयं की खोपड़ियों में इस कदर उलझे हुए हैं कि हम दूसरे व्यक्ति को, उसके मन में क्या है, इसको प्रदर्शित करने का अवसर ही नहीं देते।

इस मामले में भी स्त्रियां बहुत अधिक भयभीत हैं। फिर यह पुरुष मन और स्त्रैण मन की समस्या है। पुरुष अधिक तर्कनिष्ठ है। इतना तो स्त्रियों ने सीख ही लिया है कि यदि तुम तर्क से बात करोगी तो पुरुष विजयी हो जाएगा। इसलिए वे तर्क नहीं करतीं, वे झगड़ा करती हैं। वे क्रोधित हो जाती हैं और जो वे तर्क से नहीं कर सकतीं उसे वे अपने क्रोध के द्वारा कर लेती हैं। वे तर्क के विकल्प में क्रोध से काम लेती हैं और निःसंदेह पुरुष यह सोच कर कि इतनी छोटी सी बात के लिए इतनी झंझट क्यों’ पैदा करना? राजी हो जाता है। लेकिन यह कोई सहमति नहीं है, और यह दोनों के बीच एक अवरोध की भांति कार्य करेगा।

उसके तर्क को सुनो। ऐसी संभावनाएं हैं कि वह ठीक भी हो सकता है, क्योंकि आधे संसार, बाहरी संसार, वस्तुगत संसार तक तर्क से ही पहुंचा जा सकता है। इसलिए जब कभी भी बाहरी संसार का प्रश्न हो, तो अधिक संभावना यही है कि पुरुष सही हो सकता है। लेकिन जब कभी भी यह आंतरिक संसार का मामला हो, तो इस बात की अधिक संभावना है कि स्त्री सही हो सकती है क्योंकि वहां तर्क की आवश्यकता नहीं है। इसलिए यदि तुम कार खरीदने जा रही हो तो पुरुष की सुनो, और यदि तुम किसी चर्च, धर्म के पंथ को चुनने जा रहे हो तो स्त्री की सुनो। लेकिन यह करीब—करीब असंभव है। यदि तुम्हारी पत्नी है तो तुम अपने लिए कार नहीं चुन सकते, लगभग असंभव है यह बात। वही इसे चुनेगी। न सिर्फ यह बल्कि वह पिछली सीट पर बैठ जाएगी और इसे चलाएगी भी।

पुरुष और स्त्री को एक निश्चित समझ और सहमति पर आना पड़ेगा कि जहां तक वस्तुओं और पदार्थों का संसार है पुरुष उचित और सही के लिए अधिक ठीक है। वह तर्क के माध्यम से कार्य करता है, वह अधिक वैज्ञानिक है, वह अधिक पाश्चात्य है। जब कोई स्त्री भावना से कार्य करती है तो वह अधिक पूर्वीय, अधिक धार्मिक है। इस बात की अधिक संभावना है कि उसका भावपक्ष उसको ठीक रास्ते पर लेकर जाएगा। इसलिए यदि तुम चर्च जा रहे हो तो अपनी स्त्री का अनुगमन करो। उसके पास उन चीजों के लिए अधिक सही अनुभूति है जो भीतर के संसार की हैं। और यदि तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करती हो तो धीरे— धीरे तुम उसकी समझ तक पहुंच जाती हो, और दो प्रेमियों के मध्य एक मौन सहमति बन जाती है. कौन किस मामले में ठीक होने वाला है।

और प्रेम सदैव समझ से परिपूर्ण होता है।

बाह्य अंतरिक्ष से आए हुए दो परग्रहीय प्राणी एक सड़क से गुजर रहे थे, कि उन्होंने एक यातायात संकेत को देखा।’मुझे लगता है कि वह तुमको चाहती है’, पहले प्राणी ने कहा।’एक तो तुम्हें आख मार रही है।’तभी संकेत बदल कर जाओ से रुको हो गया।’ठीक महिलाओं की भांति’, दूसरा प्राणी बड़बड़ाया, ‘अपने मन को एक क्षण से अगले क्षण तक स्थिर नहीं रख सकतीं।’

एक स्त्री के लिए अपने मन को एक राय पर कायम रख पाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उसके मन में अधिक तरलता है, वह एक प्रक्रिया जैसा अधिक है, उसमें ठोसपन बहुत कम है। यही उसका सौंदर्य और प्रसाद है। वह नदी जैसी अधिक है, परिवर्तित होती चली जाती है। पुरुष अधिक ठोस, अधिक वर्गाकार, अधिक निश्चित, निर्णय लेने में सक्षम है। इसलिए माधुरी जहां फैसले लेने हों, बोधि की सुनो।

और जब निर्णयों की जरूरत न हो बल्कि यूं, ही उद्देशयविहीन चहलकदमी करना हो, तब तुम बोधि को अपनी बात बता कर उसकी सहायता कर सकती हो, और वह सुनेगा।

स्त्रैण मन अनेक रहस्यों को उदघाटित कर सकता है; ऐसे ही पुरुष का मन कई रहस्यों को उदघाटित कर सकता है; लेकिन जैसे कि धर्म और विज्ञान में संघर्ष है ऐसे ही स्त्री और पुरुष के मध्य संघर्ष है। ऐसी आशा लगाई जा सकती है कि किसी दिन स्त्री और पुरुष एक—दूसरे के साथ संघर्ष करने के बजाय एक— दूसरे के पूरक बन जाएंगे, लेकिन यह वही दिन होगा जब विज्ञान और धर्म भी एक—दूसरे के पूरक बन जाएंगे। विज्ञान समझपूर्वक सुनेगा कि धर्म क्या कह रहा है और धर्म समझपूर्वक सुनेगा कि विज्ञान क्या कह रहा है। और वहां कोई अनाधिकार हस्तक्षेप नहीं होगा, क्योंकि दोनों के क्षेत्र आत्यंतिक रूप से भिन्न हैं। विज्ञान बाहर की ओर जाता है, धर्म भीतर की ओर जाता है।

स्त्रियां अधिक ध्यानपूर्ण हैं, पुरुष अधिक मननशील हैं। वे बेहतर ढंग से विचार कर सकते हैं। अच्छी बात है, जब सोच—विचार की आवश्यकता हो, पुरुष की सुनो। स्त्रियां बेहतर ढंग से अनुभूति कर सकती हैं। जहां अनुभूति की आवश्यकता हो, स्त्री की सुनो। और अनुभूति तथा विचार दोनों मिल कर जीवन को संपूर्ण बनाते हैं। इसलिए यदि तुम वास्तव में प्रेम में हो तो तुम यिन—यांग प्रतीक बन जाओगी। क्या तुमने चीन का यिन—यांग प्रतीक देखा है? दो मछलियां परस्पर मिल रही हैं और करीब—करीब एक— दूसरे में विलीन हुई जा रही हैं, वे एक गहरी गतिशीलता में हैं और ऊर्जा का वर्तुल पूर्ण कर रही हैं। स्त्री और पुरुष, मादा और नर, रात और दिन, विश्राम और श्रम, विचार और अनुभूति ये सभी एक—दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं है, वे पूरक हैं। और यदि तुम किसी स्त्री के या पुरुष के साथ प्रेम में हो तो तुम दोनों के अपने अस्तित्वों में आत्यंतिक रूप से वृद्धि होती है। तुम पूर्ण हो जाते हो।

यही कारण है कि मैं कहता हूं कि परमात्मा की हिंदुओं की अवधारणा ईसाई, यहूदी, इस्लामी या जैन अवधारणाओं की तुलना में अधिक परिपूर्ण है; किंतु दोनों अवधारणाएं ही हैं। महावीर अकेले खड़े हैं; उनके चारों और कोई स्त्री नहीं दिखती। यह बस एक पुरुष का मन है, अकेला; पूरक वहां नहीं है। वर्तुल में केवल एक ही मछली है, दूसरी मछली वहां नहीं है। यह आधा वर्तुल है। और आधा वर्तुल तो वर्तुल है ही नहीं क्योंकि किसी वर्तुल को आधा कहना करीब—करीब बेतुकी बात है। वर्तुल को पूरा होना चाहिए केवल तब ही यह वर्तुल है। वरना यह वर्तुल जरा भी नहीं है।

ईसाई परमात्मा अकेला है; उसके पास किसी स्त्री की अवधारणा नहीं है। कुछ चूक रहा है। इसीलिए ईसाई या यहूदी ईश्वर इतना अधिक पुरुष—सम प्रतिशोधपूर्ण, क्रोधित, छोटे—छोटे पापों के लिए विध्वंस करने को तत्पर, लोगों को हमेशा के लिए नरक में डाल देने को आतुर है। उसमें कोई करुणा नहीं है, बहुत कठोर, चट्टान जैसा है वह। परमात्मा की हिंदू अवधारणा वास्तविकता के अधिक निकट है; यह एक वर्तुल है। राम को तुम सीता के साथ देखोगी, शिव को तुम देवी के साथ देखोगी, विष्णु को तुम लक्ष्मी के साथ देखोगी, पूरक सदैव वहां होता है। दूसरे देवताओं की तुलना में जो करीब—करीब अमानवीय हैं, हिंदू देवता अधिक मानवीय हैं। हिंदू देवता लगभग ऐसे ही हैं जैसे कि वे तुम्हारे बीच से बिलकुल तुममें से ही आए हों, ठीक तुम्हारी तरह अधिक शुद्ध, अधिक पूर्ण, लेकिन तुमसे जुड़े हुए। वे असंबधित नहीं हैं, वे तुम्हारे जीवन के अनुभवों से जुडे हुए हैं।

प्रेम को अपनी प्रार्थना भी बन जाने दो। निरीक्षण करो, अपने भीतर के घड़ियाल का निरीक्षण करो और इसको त्याग दो, क्योंकि यह घड़ियाल तुमको गहन प्रेम में खिलने नहीं देगा। यह तुम्हें विनष्ट कर डालेगा और विध्वंस कभी किसी को परितृप्त नहीं करता। विध्वंस हताश करता है। परितृप्ति केवल गहरी सृजनात्मकता से फलित होती है।

एक विनम्र छोटा आदमी अपनी पत्नी के अंतिम संस्कार से लौट कर बस अपने घर आ रहा था। जैसे ही वह अपने घर के सामने वाले दरवाजे पर पहुंचा घर की छत से चिमनी टूट कर नीचे आई और उसकी पीठ पर धड़ाम से गिर पडी। ऊपर देखता हुआ वह बड़बड़ाया, आह.. .वह वापस लौट आईं। जो तुमको प्रेम करता है, उसकी अपने मन में ऐसी छवि मत निर्मित करो।

और पुरुष को विकसित होने के लिए स्त्री से बहुत कुछ चाहिए—उसका प्रेम, उसकी करुणा, उसकी— उष्णता। पुरुष और स्त्री के बारे में पूर्वीय समझ यह है कि स्त्री मूलत एक मां है। एक छोटी सी बच्ची भी अनिवार्यत: एक मां है, एक विकसित होती हुई मां। मातृत्व कोई ऐसी बात नहीं है जो आकस्मिक घटना की भांति घटती हो, यह स्त्री में होने वाला विकास है। पितृत्व बस एक सामाजिक औपचारिकता है; यह अनिवार्य नहीं है। वस्तुत: स्वाभाविक नहीं है यह। इसका अस्तित्व केवल मानव समाज में है, इसे मनुष्य ने निर्मित किया है। यह एक संस्था है। मातृत्व कोई संस्था नहीं है, पितृत्व है। पुरुष में पिता बनने के लिए कोई आंतरिक अनिवार्यता की अनुभूति नहीं होती।

जब कोई पुरुष किसी स्त्री के प्रेम में पड़ता है तो वह प्रेमिका खोज रहा है, जब कोई स्त्री किसी पुरुष के प्रेम में पड़ती है तो वह किसी ऐसे को खोज रही है जो उसको मां बना देगा। वह किसी ऐसे को खोज रही है जो उसके बच्चों का पिता बनना चाहेगा। यही कारण है कि जब कोई स्त्री किसी पुरुष को पाने का प्रयास करती है तो उसकी कसौटी अलग ढंग की होती है। शक्तिशाली, क्योंकि उसे सुरक्षा की आवश्यकता होगी और उसके बच्चों को सुरक्षा की आवश्यकता पड़ेगी। धनवान, क्योंकि उसको सुरक्षा की आवश्यकता होगी और बच्चों को सुरक्षा की आवश्यकता होगी। जब कोई पुरुष किसी स्त्री की खोज करता है तो उसको केवल पत्नी की चाहत होती है। उसे केवल एक सुंदर स्त्री की अभिलाषा होती है जिसके साथ वह आनंदित हो सके और रह सके। उसको पिता होने की कोई बहुत फिकर नहीं रहती। यदि वह पिता बन जाता है तो यह आकस्मिक घटना है। यदि वह इसे भी पसंद करने लगता है तो ऐसा भी अकस्मात होता है क्योंकि वह उस स्त्री को प्रेम करता है, और बच्चों का आगमन उसी के माध्यम से हुआ है। वह बच्चों को स्त्री के माध्यम से प्रेम करता है, और स्त्री पुरुष को बच्चों के माध्यम से प्रेम करती है। निःसंदेह ऐसा ही होना चाहिए; वर्तुल पूरा हो जाता है। एक स्त्री बुनियादी रूप से एक मां है, मां होने की खोज में है।

इसलिए पूर्वीय अवधारणा यह है कि स्त्री मां होने की खोज में है और पुरुष कहीं गहरे में अपनी खोई हुई मां की खोज में है। उसने मां के गर्भ को, मां की उष्णता को, मां के प्रेम को खो दिया है। वह पुन: उस स्त्री को खोज रहा है जो उसकी मां बन सके।

पुरुष आधारभूत रूप से एक बच्चा है। एक सत्तर वर्ष या नब्बे वर्ष की आयु का का पुरुष भी एक बच्चा है। और एक बहुत छोटी बच्ची भी मूलत: एक मां है। इसी भांति वर्तुल पूर्ण हो जाता है।

पूरब में, उपनिषदों के दिनों में, ऋषिगण नव—दंपति को एक नितांत असंगत विचार के साथ आशीष दिया करते थे। पश्चिम की दृष्टि को अतर्क्य दिखेगा यह। वे कहा करते थे, परमात्मा तुम्हें दस बच्चे प्रदान करे और अंत में तुम्हें अपने पति की मां बनने का चरम सौभाग्य भी प्राप्त हो। इस प्रकार कुल ग्यारह बच्चे; दस बच्चे पति के द्वारा और अंततः पति भी तुम्हारे लिए एक बच्चा बन जाए—ग्यारह संताने हों तुम्हारी। एक स्त्री तभी परितृप्त होती है जब उसका पति भी उसके लिए बच्चा बन जाता है।

पुरुष अपनी मां की खोज करता रहता है। जब कोई पुरुष किसी स्त्री के प्रेम में पड़ता है तो वह पुन: अपनी मां के प्रेम में पड़ता है। किसी भी भांति यह स्त्री उसे उसकी मां का प्रतिभास देती है। उसके चलने का ढंग, उसका चेहरा, उसकी आंखों का रंग या उसके बालों का रंग, या उसकी आवाज, कुछ ऐसी बात जो उसको पुन: उसकी मां का खयाल दे देती है। उसके शरीर की उष्णता, उसकी कुशलता की चिंता, जो वह उसके बारे में प्रदर्शित करती है, यही उसकी खोई हुई मां की तलाश है। यह गर्भ की खोज है।

मनोविश्लेषकों का कहना है कि स्त्री के शरीर में प्रवेश की पुरुष की जो अभिलाषा है वह और कुछ नहीं वरन पुन: गर्भ में पहुंच जाने की कामना है। यह अर्थपूर्ण है। पुरुष के द्वारा स्त्री की देह के भीतर प्रविष्ट हो जाने का कुल प्रयास और कुछ नहीं बल्कि गर्भ तक पहुंचने का प्रयास है। एक बार तुम समझ लो कि तुम्हारी ऊर्जा और तुम्हारे पुरुष साथी की ऊर्जा के मध्य क्या घटित हो रहा है, वास्तव में क्या चल रहा है, इसका निरीक्षण करो। धीरे— धीरे ऊर्जा एक वर्तुल में घूमना आरंभ कर देगी।

और एक—दूसरे की सहायता करो। हम एक—दूसरे की सहायता करने के लिए ही, एक—दूसरे को प्रसन्न और आनंदित बनाने को, और अंत में स्त्री और पुरुष के सम्मिलन के माध्यम से परमात्मा को घटित होने का अवसर दिए जाने के लिए ही साथ—साथ हैं। प्रेम परिपूर्ण ही तभी होता है जब यह समाधि बन जाए। यदि अभी तक यह समाधि नहीं है और कलह और संघर्ष और छिद्रान्वेषण जारी रहता है, और लड़ाई—झगडा और क्रोध, और यह और वह, तब तुम्हारा प्रेम कभी लयबद्ध समग्रता नहीं बनेगा। तुम्हें परमात्मा कभी नहीं मिलेगा, उसको केवल प्रेम में ही पाया जा सकता है।

चौथा प्रश्न:

परस्पर निर्भरता एक उत्तम अवधारणा है, किंतु जब आप हम सभी को पूर्ण स्‍वार्थी होने के लिए प्रोत्‍साहित करते है तब यह किस भांति संभव है?

पहली बात, परस्पर निर्भरता उत्तम नहीं है, और यह कोई अवधारणा भी नहीं है।

यह उत्तम तो जरा भी नहीं है। स्वनिर्भरता उत्तम अनुभव होती है, परनिर्भरता बहुत, बहुत कड्वी मालूम देती है; परस्पर निर्भरता न तो उत्तम है और न कड्वी। यह बहुत संतुलन बनाने वाली चीज है; न इस ओर और न उस ओर। यह किसी ओर नहीं झुकती, यह एक प्रशांति है। और यह कोई अवधारणा नहीं है, यह एक वास्तविकता है। इसी भांति है यह। जीवन को जरा देखो तो, और तुम्हें कभी कोई ऐसी वस्तु न मिलेगी जो परस्पर निर्भर नहीं है। प्रत्येक वह वस्तु जो अस्तित्व में है परस्पर निर्भरता के सागर में ही उसका अस्तित्व है। यह कोई अवधारणा नहीं है, यह कोई सिद्धांत नहीं है। तुम बस सारे सिद्धांतों, सारे पूर्वाग्रहों को छोड़ दो और जीवन को देखो।

एक छोटे से वृक्ष को, एक गुलाब की झाड़ी को देखो और तुम देखोगे कि उस में सारा अस्तित्व समाहित हो गया है। पृथ्वी द्वारा यह सारे अस्तित्व से संबंधित है। पृथ्वी के बिना यह वहां न होती। यह वायु में श्वास लेती रहती है, यह वायुमंडल से संबंधित है। सूर्य से इसे ऊर्जा मिलती रहती है। गुलाब का गुलाबपन सूर्य के कारण है, और ये बहुत स्पष्ट दीखने वाली बाते हैं। वे लोग जो इस मामले में गहरी छान—बीन करने के लिए कठिन परिश्रम कर रहे हैं, उनका कहना है कि कुछ अदृश्य प्रभाव भी पड़ते हैं। उनका कहना है कि केवल यही बात नहीं है कि सूर्य गुलाब को ऊर्जा दे रहा है, क्योंकि जीवन में कुछ भी एकतरफा नहीं हो सकता। वरना यह बहुत अन्यायपूर्ण जीवन होगा। गुलाब लेता जा रहा है और कुछ दे नहीं रहा है। नहीं, ऐसा होना ही चाहिए कि गुलाब भी सूर्य को कुछ दे रहा हो। गुलाब के बिना सूर्य भी किसी बात से चूक जाएगा। इसकी खोज अभी भी विज्ञान द्वारा की जानी शेष है, लेकिन गुह्य विज्ञान वादियों ने सदैव अनुभव किया है कि जीवन एक आदान—प्रदान है। यह एकपक्षीय नहीं हो सकता है, अन्यथा सारा संतुलन खो जाएगा। गुलाब अवश्य ही कुछ दे रहा होगा, शायद एक विशेष आह्लाद। निश्चित रूप से यह वायु को सुगंध देता है, और तय बात है कि यह कुछ सृजनात्मकता, पृथ्वी के लिए सृजनात्मक होने का एक अवसर अवश्य प्रदान करता है। इसके माध्यम से पृथ्वी अवश्य ही प्रसन्नता का अनुभव कर रही होगी कि उसने एक गुलाब का सृजन किया है। यह अवश्य ही परिपूर्णता अनुभव कर रही होगी। पृथ्वी को एक गहरी परितृप्ति और संतुष्टि की अनुभूति अवश्य हो रही होगी।

प्रत्येक वस्तु संयुक्त है। यहां पर कुछ भी पृथक नहीं है। इसलिए जब मैं कहता हूं परस्पर निर्भरता, तो मेरा यह अभिप्राय नहीं है कि यह एक अवधारणा है, एक सिद्धांत है, नहीं।

स्व निर्भरता एक अवधारणा है, क्योंकि यह आत्यंतिक रूप से झूठ है। कभी किसी ने कोई स्व निर्भर चीज नहीं देखी। परम निर्भरता भी झूठ है, क्योंकि किसी ने कभी परम निर्भर चीज नहीं देखी है।

एक बच्चे का जन्म होता है, तुम सोचते हो कि वह पूर्णत: असहाय और मां पर निर्भर है? क्या तुमको दिखाई नहीं पड़ता कि मां को भी उससे बहुत कुछ मिल रहा है? वास्तव में जिस दिन बच्चे का जन्म होता है, तभी मां का भी एक मां के रूप में जन्म होता है। इसके पूर्व वह एक साधारण स्त्री थी। अब बच्चे के जन्म के साथ ही उसके साथ कुछ आत्यंतिक रूप से नया घटित हो गया है। उसने मातृत्व उपलब्ध कर लिया है। केवल ऐसा नहीं है कि बच्चा मां पर निर्भर है, मां भी बच्चे पर निर्भर है। जब कोई स्त्री मां बनती है तो तुमको उसमें घटित होती हुई एक विशेष प्रकार की आभा, उसमें घटित होती हुई एक विशेष प्रकार की लयबद्धता, दिखाई पड़ेगी। यदि मां की मृत्यु हो जाती है, तो निःसंदेह बच्चा जीवित नहीं रह सकेगा। किंतु यदि बच्चे की मृत्यु हो जाए, तो क्या तुम सोचते हो कि मां बचने में समर्थ हो पाएगी? नहीं, मां मर जाएगी। पुन: स्त्री शेष बच रहेगी, मातृत्व बच्चे के साथ खो जाएगा। और यह स्त्री उससे कुछ कमतर होगी जैसी वह बच्चे के जन्म से पूर्व थी। वह सदैव किसी बात से चूकती रहेगी, बच्चे के साथ उसके अस्तित्व का एक भाग खो गया है। वह खोया हुआ भाग लगातार एक घाव की भांति पीड़ा देता रहेगा।

प्रत्येक चीज परस्पर निर्भर है।

वृक्ष पृथ्वी से पोषित होता रहता है, वह तुम्हें फल दिए चला जाता है, तुम फल खाते रहते हो। फिर तुम्हारा देहावसान हो जाता है और पृथ्वी तुम्हें अवशोषित कर लेती है, और पुन: वृक्ष पृथ्वी से आहार लेता है। और फल? तुम्हारे बच्चों के बच्चे वृक्ष के माध्यम से तुमको खा रहे होंगे। प्रत्येक चीज एक चक्र में घूम रही है। जिस समय तुम एक सेब खा रहे हो तो कौन जानता है? तुम्हारे दादा, तुम्हारी दादी या तुम्हारे पर—परदादा उसी सेब में हों; भलीभांति चबा लो, अच्छी तरह पचा लो, वरना वयोवृद्ध परदादा को अच्छा

नहीं लगेगा। उन्हें पुन: अपने अस्तित्व का हिस्सा बन जाने दो। वे सेब के माध्यम से तुमको खोज रहे हैं। वे पुन: वापस लौट आए हैं।

प्रत्येक चीज परस्पर निर्भर है। इसलिए उत्तम नहीं है यह, यह कड़वा भी नहीं है; यह एक साधारण तथ्य है। तुम इसका मूल्यांकन नहीं कर सकते, क्योंकि उत्तम और कडुवापन हमारे मूल्यांकन हैं, व्याख्याएं हैं। और यह कोई अवधारणा नहीं है, यह एक वास्तविकता है।

‘किंतु जब आप हम सभी को पूर्ण स्वार्थी होने के लिए प्रोत्साहन करते हैं तब यह किस भांति संभव है?’

हां, यह केवल तभी संभव है यदि तुम पूर्ण स्वार्थी हो। यदि तुम पूर्ण स्वार्थी हो तो ही तुम यह देख पाओगे कि यदि तुम वास्तव में प्रसन्न होना चाहते हो तो तुमको दूसरों को प्रसन्न करना पडेगा, क्योंकि जीवन एक परस्पर निर्भरता है। जब मैं कहता हू स्वार्थी बनो, तो मैं कह रहा हूं जरा अपनी प्रसन्नता के बारे में सोचो। किंतु उस प्रसन्नता में बहुत कुछ सम्मिलित है। यदि तुम स्वस्थ होना चाहते हो, तो तुमको स्वस्थ लोगों के साथ रहना पड़ता है। यदि तुम स्वच्छतापूर्वक रहना चाहते हो, तो तुमको साफ—सुथरे पड़ोस में रहना पड़ता है। तुम एक द्वीप की भांति नहीं रह सकते। यदि तुम प्रसन्न होना चाहते हो, तो तुमको अपनी प्रसन्नता चारों और बांटनी पड़ेगी। ऐसा संभव ही नहीं है कि चारों और पीड़ा का सागर हो और तुम एक द्वीप की भांति प्रसन्न रहो, असंभव। तुम केवल एक प्रसन्न संसार में ही प्रसन्न रह सकते हो, तुम केवल प्रसन्नतापूर्ण संबंधों में प्रसन्न रह सकते हो; तुम सुंदर लोगों के मध्य में रह कर ही सुंदर हो सकते हो। इसलिए यदि तुम वास्तव में सुंदर होने में रुचि रखते हो तो अपने चारों ओर सौंदर्य निर्मित करो।

वह व्यक्ति जो वास्तव में स्वार्थी है, परोपकारी बन जाता है। वास्तविक रूप से स्वार्थी होना स्व के पार जाना है। वास्तविक स्वार्थी होना बुद्ध, जीसस बन जाना है। ये लोग नितांत स्वार्थी लोग हैं, क्योंकि वे केवल आनंद के बारे में सोचते हैं। किंतु अपने आनंद के बारे में सोचते हुए उनको दूसरों के आनंद के बारे में भी सोचना पड़ता है। मैं नितांत स्वार्थी हूं। मैंने कभी अपने स्वयं के स्व के अतिरिक्त किसी के बारे में कुछ नहीं सोचा। लेकिन इसी सोच में पिछले दरवाजे से प्रत्येक बात आ जाती है।

मेरी रुचि तुम्हारी प्रसन्नता में, तुम्हारे आनंद में है। मैं आनंदित लोगों का एक समुदाय निर्मित करने में उत्सुक हूं। मैं सुंदर लोगों का एक उपवन निर्मित करने को उत्सुक हूं क्योंकि यदि तुम प्रसन्न और आनंदित और सुंदर हो तो मैं आत्यंतिक रूप से आनंदित और प्रसन्न हो जाऊंगा।

आनंद बांटने से बढ़ता है। यदि तुम अपना आनंद न बांटो तो यह मर जाएगा, यदि तुम अपनी समाधि को नहीं बांटते तो शीघ्र ही तुम पाओगे कि तुम्हारे हाथ रिक्त हैं। इसलिए जब मैं कहता हूं पूरी तरह स्वार्थी हो जाओ, तो मेरा अभिप्राय है, यदि तुम समझने का प्रयास करते हो कि तुम्हारा स्व क्या है, तुम्हारा स्वार्थ क्या है, तो तुम देखोगे कि इसमें प्रत्येक व्यक्ति सम्मिलित है, संलग्न है। और तुम्हारी संलग्नता महत् से महत्तर, विशाल से विशालतर हो जाती है। एक क्षण आता है जब तुम इसको एक तथ्य की भांति देख सकते हो कि समग्र इसमें संलग्न है।

बुद्ध के बारे में एक सुंदर कहानी है।

वे मोक्ष के द्वार पर पहुंच गए। द्वार खोल दिया गया, किंतु उन्होंने भीतर प्रवेश नहीं किया। द्वारपाल ने कहा : सारी तैयारियां हो गई हैं, और हम लाखों वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे। अब आप आ गए हैं। यह बहुत दुर्लभ घटना है कि कोई व्यक्ति बुद्ध हो जाता है। पधारिए। आप वहां क्यों खड़े हैं? और आप इतने उदास क्यों दिखाई पड़ रहे हैं? बुद्ध ने कहा : मैं कैसे भीतर आ सकता हूं? क्योंकि लाखों लोग अभी भी रास्ते पर संघर्षरत हैं। लाखों लोग हैं जो अभी भी पीड़ा में हैं। मैं केवल तब प्रवेश करूंगा जब अन्य सभी लोग प्रविष्ट हो चुके होंगे। मैं यहीं खड़ा रहूंगा और प्रतीक्षा करूंगा।

अब इस कहानी में अनेक अर्थ हैं। एक अर्थ यह है कि जब तक कि समग्र ब्रह्मांड ज्ञान को

उपल्यब्ध नहीं हो जाता कोई कैसे ज्ञानोपलब्ध हो सकता है? क्योंकि हम एक—दूसरे के हिस्से हैं, एक—दूसरे के साथ संयुक्त हैं, एक—दूसरे के भाग हैं। तुम मुझमें हो, मैं तुममें हूं, इसलिए मैं अपने आप को अलग कैसे कर सकता हूं? यह असंभव है। यह कहानी आत्यंतिक रूप से अर्थपूर्ण और सच्ची है। समग्र को ज्ञानोपलब्ध होना पड़ेगा।

निःसंदेह, व्यक्ति एक विशेष समझ पा सकता है, लेकिन इस समझ से उदघाटित होगा कि दूसरे भी सम्मिलित हैं, और चेतना एक ही है। स्वार्थी होना समग्र में पूरी तरह से विलीन हो जाना है, क्योंकि केवल मूर्ख लोग ही स्वयं को बचाने की चेष्टा करते रहते हैं। और स्वयं को बचाने की चेष्टा में वे स्वयं को विनष्ट करते हैं। जीसस कहते है : स्वयं को बचाओ और तुम खो जाओगे। स्वयं को खो द्रो। स्वयं को बचाओ और तुम खो जाओगे! वे तुमको स्वार्थी होने की सर्वश्रेष्ठ विधियों में से एक प्रदान कर रहे हैं. स्वयं को खो दो और तुमको मिलता है। स्वयं को खोकर तुम्हें मिलता है। चारों ओर प्रसन्नता को फैला कर तुम प्रसन्न हो जाते हो; चारों ओर शांति फैला कर तुम शांतिपूर्ण हो जाते हो।

‘किंतु जब आप हम सभी को पूर्ण स्वार्थी होने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, तब यह किस भांति संभव है।’

यह केवल तब ही संभव है जब तुम पूर्ण स्वार्थी हो। तब तुम सदा मतलब की बात देख लोगे। यदि तुम एक परिवार में रहते हो, यदि तुम पत्नी या पति हो, तो तुम यह देख पाओगे कि यह तुम्हारे पक्ष में है कि पति या पत्नी प्रसन्न हो। बस यह स्वार्थ ही है कि पति प्रसन्न, गीत गाता हुआ और आह्लादित रहे, क्योंकि यदि वह उदास, अवसादग्रस्त, क्रोधित हो जाता है, तब तुम भी लंबे समय तक प्रसन्न नहीं रह सकोगी। वह तुमको प्रभावित करेगा। सभी कुछ संक्रामक होता है। यदि तुम प्रसन्न होना चाहते हो, तो तुम यही पसंद करोगे कि तुम्हारे बच्चे भी प्रसन्न और नृत्य मग्न रहें, क्योंकि यही एकमात्र उपाय है जिससे तुम्हारी ऊर्जा नृत्यमग्न होगी। यदि वे सभी उदास हैं, बीमार हैं, और अपने कोने में आभाहीन हुए बैठे हैं, तो तुम्हारी ऊर्जा तुरंत निम्नतर हो जाएगी। जरा निरीक्षण करो। जब तुम ऐसे लोगों के साथ उठते—बैठते हो जो प्रसन्न हैं तो अचानक तुम्हारी उदासी खो जाती है, विलीन हो जाती है! जब तुम ऐसे लोगों के साथ उठते—बैठते हो जो उदास हैं, तो अचानक तुम्हारी ऊर्जा मंद हो जाती है।

फिर यह गणित आसान है। यदि तुम प्रसन्न होना चाहते हो, लोगों को प्रसन्न करो। यदि तुम वास्तव में ज्ञानोपलब्ध होना चाहते हो, तो लोगों की ज्ञानोपलब्ध होने में सहायता करो। यदि तुम ध्यानपूर्ण होना चाहते हो, तो एक ध्यानमय संसार का सृजन करो। यही कारण है कि बुद्ध ने संन्यासियों का विराट संघ, एक महासागर जैसा वातावरण, जहां लोग आकर स्वयं को डुबा सकें, निर्मित किया।

अभी उस रात्रि. को एक संन्यासी मेरे पास आया और वह बोला, मैं संन्यास के साथ बहुत असहज अनुभव कद रहा हूं क्योंकि मुझको लगता है कि मैं बस किसी झुंड का एक भाग बन गया हूं। अब यह बहुत अहंपूर्ण दृष्टिकोण है। बस भीड़ का एक भाग? हर व्यक्ति अलग होना चाहता है, हर व्यक्ति स्व—निर्भर, स्वयं वही, एक शिखर की भांति अकेला, असंबंधित होना चाहता है। यही तो है अहंकार की दौड। मैं तुम्हें गैरिक वस्त्र देता हूं तुम्हारे नाम परिवर्तित कर देता हूं और धीरे— धीरे तुम एक सागर में खो जाते हो जहां तुम्हारा अलग से कोई अस्तित्व नहीं रहता। तुम स्वयं को दूसरों के साथ विलीन करना आरंभ कर देते हो। निःसंदेह अहंकार आहत, असहज, असुविधापूर्ण अनुभव करेगा। लेकिन तुम्हारा रोग अहंकार है; इसे छोड देना पड़ेगा। और व्यक्ति को अन—अस्तित्व में: होने का, इतना सामान्य, इतना घुला—मिला होने का, आनंद लेने में समर्थ होना चाहिए कि आने वाला कोई भी व्यक्ति यह न जान पाए कि तुम दूसरों से अलग हो, भिन्न हो। किंतु अहंकार के पास बस एक ही विचार होता है. किस भांति भिन्न और अलग हुआ जाए।

मैंने उस संन्यासी से कहा नहीं। मैं उससे कहना तो चाहता था, परंतु मैंने सोचा कि शायद यह बात उसे बुरी लगे। ऐसा अहंकारी जो सोचता है कि बस गैरिक में होना बहुत असहज लगता है, वह किसी झुंड का हिस्सा हो गया है। मैं उससे कहना चाहता था कि बेहतर यही रहेगा कि तुम अपनी आधी मूंछ, आधी दाढ़ी और सिर के आधे बाल साफ करा लो, जिससे तुम जहां कहीं भी जाओ तुम अलग रहोगे। और अपने मस्तक पर गोदने गुदवा लो, और ऐसे कार्य करो जो कोई नहीं कर रहा है। तुम सदैव अच्छा और बहुत सुविधापूर्ण अनुभव करोगे। अहंकार वही कर रहा है।

मैंने एक व्यक्ति के बारे में सुना है जो बहुत प्रसिद्ध होना चाहता था, जो समाचार पत्रों में अपनी तस्वीरें देखना चाहता था। उसने अपने सिर के आधे भाग के बालों, आधी मूंछें, आधी दाढ़ी साफ कर डाली, और वह नगर में पैदल घूमने लगा। तीन दिन के भीतर वह नगर का सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति हो गया। सभी समाचार पत्रों ने उसकी तस्वीरें प्रकाशित कर दीं, और उसके चारों ओर बच्चे शोर मचाते और चिल्लाते हुए दौड़ने लगे, और उसने इस सबका बहुत मजा लिया। तुम भी उसी ढंग से वही कर सकते हो।

अहंकार भिन्न होना चाहता है; और इसीलिए अहंकार झूठा है, क्योंकि भिन्नता झूठी है। साथ—साथ होना सच्चाई है। प्रत्येक विभाजन झूठा और भ्रम है, और मिल—जुल कर रहना सदैव सच्चा और वास्तविक है।

पांचवा प्रश्न :

प्रवचन के दौरान आप ‘प्रसन्‍नता प्राप्‍त करना’ वाक्‍यांश का प्रयोग करते है, और मेरा मन बीच में कूद पड़ता है, और अधिक कार्य करो, और कठोर श्रम करो। किंतु मैं समर्पण के लिए किस भांति कार्य कर सकती हूं? वह दीवानापन लगता है।

यह प्रश्न अमिदा ने पूछा है।

उसके पास एक बहुत बड़ा कार्य—उन्मुख मन है। कार्य मूल्यवान है, खेल मूल्यहीन है; और जो कुछ भी उपलब्ध किया जाना है उसे कार्य के माध्यम से ही उपलब्ध करना पड़ता है। उसके मन में यह स्थायी आदत बन चुकी है। किंतु प्रत्येक व्यक्ति को यही सिखाया गया है। सारा संसार कार्य के इसी नीतिशास्त्र के अनुसार जीया करता है। खेल को तो अधिक से. अधिक बस सह लिया जाता है। कार्य की प्रशंसा की जाती है।

इसलिए यहां भी जब मैं समर्पण के बारे में बात कर रहा हूं जब मैं ग्रहणशील और स्त्रैण होने की बात कर रहा हूं तुम्हारा कार्य—उन्मुख मन बार—बार उठ खड़ा होता। जब कभी इसे थोड़ी सी भी सहायता मिलती है यह तुरंत उठ खड़ा होता है और कहता है, ही। इस शब्द ‘उपलब्धि’ ने तुम्हारे भीतर विचारों की श्रृंखला आरंभ कर दी : उपलब्धि? —कार्य, कठोर श्रम करना पड़ेगा। बस एक शब्द ने विचारों की श्रृंखला को उद्दीप्त कर दिया, जैसे कि मन बस निरीक्षण कर रहा था और किसी ऐसी बात की प्रतीक्षा में था जिस पर कूदने से इस को सातत्य मिल सके।

इसी प्रकार से तुम मुझको सुनते हो। मुझे शब्दों का उपयोग करना पड़ता है, शब्द जो तुम्हारे अर्थों से भरे हुए हैं, वे शब्द जिनको तुमने विभिन्न ढंगों से समझ रखा है, वे शब्द जिनके तुम्हारे साथ विभिन्न साहचर्य हैं, संबंध हैं, जिनके तुम्हारे लिए अर्थ भिन्न हैं। मुझको भाषा का उपयोग करना पड़ता है, और भाषा बहुत खतरनाक चीज है। बस उपलब्धि शब्द को सुन कर ही पूरा कार्य—उन्मुख मन सक्रिय हो जाता है। तब तुम मुझे नहीं सुनते, वह नहीं सुनते जो मैं कह रहा हूं। मैं कह रहा हूं कि उपलब्धि केवल तभी संभव है जब तुम उपलब्धि का प्रयास नहीं करते हो। उपलब्धि केवल तभी संभव है जब उपलब्ध करने का सारा प्रयास त्याग दिया जाता है, क्योंकि जिसको तुम उपलब्ध करने का प्रयास कर रहे हो वह पहले से ही वहां है। इसे उपलब्ध नहीं किया जा सकता। इसको उपलब्ध करने का प्रयास ही तुम और तुम्हारी वास्तविकता के मध्य अवरोध निर्मित करना जारी रखेगा। किंतु मन निरीक्षण करता रहता है और अपने लिए कोई भी सहारा पाने के लिए सदैव तत्पर रहता है।

मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं।

एक छोटे से गांव में एक पुलिसवाला पिछले बीस वर्षों से कार्यरत था और स्थानीय निवासियों में वह कोई खास लोकप्रिय नहीं था। स्थानीय गांव का प्रिय निवासी बनने के स्थान पर, जैसे कि वहां का कसाई या वहां का डाकिया था, वह स्वयं को किसी फिल्मी नगर प्रमुख की भांति समझता था और बहुत छोटे से मामले को भी ऐसे निबटाता था जैसे कि यह स्काटलैंड यार्ड की कोई गुत्थी हो। उसका अपनी नौकरी के प्रति लगाव का परिणाम यह था कि गांव के प्रत्येक निवासी को कोई न कोई अभियोग पत्र मिलना सिपाही की शेखी और गर्व का विषय था। एक समय ऐसा आया जब उसे पता लगा कि उसके गांव के साथ जिसे वह अपनी जागीर समझा करता था, छह गांवों की चौकसी के लिए वैकल्पिक व्यवस्था कर दी गई है, एक पुलिस कार वहां आ रही है। उसे अचानक स्मरण हो आया कि उसने अभी तक स्थानीय पादरी के खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज नहीं किया है। और उसका घमंड उसे इस बात की अनुमति नहीं देता था कि इस पादरी को न्यायपीठ के सम्मुख लाए बिना वह अपनी नौकरी से अवकाश ग्रहण कर ले। उसका परिश्रम व्यर्थ जा रहा था। लेकिन जैसे ही उसने पादरी को साइकिल से गांव में भ्रमण करते हुए देखा, तो उसने एक जबरदस्त योजना बनाई। गांव की एक मात्र पहाड़ी की तलहटी में खड़े हुए उसने साइकिल चला रहे पादरी को ऊपर से आते हुए देखो। जब पादरी उससे मात्र एक गज दूर रह गया तभी सिपाही अचानक उसके सामने आ खड़ा हुआ, वह सोच रहा था, यह मेरे पैर पर साइकिल अवश्य चढ़ा देगा। मुझे चोट लग जाएगी और मैं साइकिल के ब्रेक ठीक न होने का आरोप उस पर लगा दूंगा। पादरी ने सामने खड़ी समस्या को भांप कर ब्रेक लगा दिए और पुलिस वाले के बूटों से ठीक आठ इंच पहले उसकी साइकिल रुक गई। पुलिसवाले ने हिचकिचाते हुए अपनी पराजय स्वीकार कर ली और कहा, मैंने सोचा था कि तुम्हें इस बार फंसा ही लूंगा, पादरी।

पादरी ने कहा : जी ही, किंतु परमात्मा मेरे साथ था।

अब पकड़े गए तुम पुलिसवाले ने कहा, एक साइकिल पर दो सवारी।

इसी तरह मन चलता चला जाता है—सतत निरीक्षण। कोई भी बहाना, तर्कयुक्त, तर्क रहित, कोई बहाना, कोई भी असंगति और मन अचानक कूद पड़ता है और पुराने ढांचे को जारी रखने का प्रयास करता है। मैं तुमसे बहुत सी बातें कह रहा हूं और निःसंदेह मुझको भाषा का प्रयोग करना पड़ता है। सजग हो जाओ, इस चालाक मन के प्रति सजग हो जाओ जो ठीक तुम्हारे पीछे छिपा हुआ है, और बस किसी ऐसी बात की प्रतीक्षा कर रहा है जो इसके और सबल होने का बहाना बन सके।

कार्य अच्छा है, किंतु कार्य कार्य की भांति कुरूप है, अच्छा नहीं है। कार्य अच्छा है यदि यह भी एक खेल हो। कार्य अच्छा है यदि इसमें कोई आंतरिक मूल्य निहित हो। तुम चित्रकारी करते हो क्योंकि तुमको चित्रांकन से प्रेम है, क्योंकि तुम चित्रकला से आनंदित होते हो। निःसंदेह यदि यह चित्र बिक जाता है और तुमको कुछ धन प्राप्त हो जाता है तो वह गौण बात है, वह महत्वपूर्ण नहीं है, वह मुख्य बात नहीं है। यदि तुमको धन मिल जाता है, अच्छी बात है, यदि तुमको धन नहीं मिलता, तो तुम्हारा कुछ खो भी नहीं रहा है, क्योंकि चित्रकारी करते समय तुम कितने आह्लादित हो जाते हो। तुम करीब—करीब पुरस्कृत हो जाते हो। तुम अपने(प्रयास से कहीं अधिक पुरस्कृत हो जाते हो। यदि चित्र बिक सके तो एक और पुरस्कार, तुम पर परमात्मा अधिक दयालु हो रहा है। लेकिन जहां तक तुम्हारे पुरस्कार का प्रश्न है, तुमको यह पहले ही मिल चुका है। जब तुम अपना चित्र बनाते हो, जब तुम अपना गीत लिखते हो, जब तुम बगीचे में कार्य करते हो और धूप में पसीना बहाते हो, तुमको तुम्हारा पुरस्कार मिल चुका है।

खेल की भांति कार्य करो, आनंद की भांति कार्य करो, पूजा की भांति कार्य करो, तभी यह सुंदर हो जाता है, इसमें आह्लाद होता है। एक आर्थिक गतिविधि की भांति कार्य करना कुरूप है। तब तुम बाजार का एक हिस्सा बन जाते हो। तब तुम केवल इसी बारे में सोचते हो कि ऐसा करके तुमको क्या मिलने जा रहा है। तब तुम कभी—अभी और यहीं नहीं होते। तब तुम सदैव परिणाम में होते हो, और परिणाम भविष्य में होता है। कभी परिणाम उन्मुख मत रहो, मनुष्य के मन का संताप यही है, वर्तमान उन्‍मुख रहो। और कार्य के माध्यम से तुमको अपना अंतर्तम अस्तित्व नहीं मिलने जा रहा है। तुमको यह वर्तमान में होकर सजग होकर मिलने जा रहा है। इसलिए अपने कार्य का भी एक परिस्थिति की भांति उपयोग करो।

लेकिन क्या होता है? तुम मुझे सुनते हो, तुम अपने मन के भीतर जो मैं कह रहा हूं उसे संजो कर रखते जाते हो। तुम मुझे वास्तव में नहीं सुनते। तुम संकेत संकलित करते रहते हो। तुम समझ का संग्रह नहीं करते, तुम संकेतों का संकलन करते हो, और यही वह बात है जो समस्याएं उत्पन्न करती है।

मैं तुम्हें एक कहानी और सुनाता हूं।

पुराने समय में चिकित्सक लोग रोगी देखने जाते समय अपने सहायक को भी साथ ले जाया करते थे। उस आयरिश रोगी का चेहरा लाल था और उसका बुखार बहुत तेज था। डाक्टर ने उस रोगी की पीठ थपथपाई, उठ खड़े होओ, और थोड़ी गोभी के साथ कॉर्न्‍ड बीफ खा लो, उसने रोगी से कहा। अगले दिन वह आयरिश व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ होकर वापस काम करने लगा। सहायक ने नोट कर लिया : लाल चेहरा, तेज बुखार, कॉर्न्‍ड बीफ और गोभी।

इसके थोड़े से समय के बाद ही उस डाक्टर की अनुपस्थिति में एक जर्मन रोगी को देखने के लिए इस नवयुवक सहायक को बुलाया गया, इस रोगी का चेहरा लाल था और उसे तेज बुखार था। सहायक ने उसे कॉर्न्‍ड बीफ और गोभी खाने की सलाह दी। ठीक अगले दिन ही सहायक को बताया गया कि जर्मन रोगी का निधन हो गया है। उसने अपनी नोट बुक में तब यह बात लिखी : कॉन्‍र्ड बीफ और गोभी आयरिश व्यक्ति के लिए अच्छे हैं, जर्मनों को मार डालते हैं।

यही है जो तुम मेरे साथ कर रहे हो—संकेतों का संकलन। जरा समझने का प्रयास करो कि मैं क्या कह रहा हूं। संकेतों का संकलन मत करो। बस मुझको देखो, मैं यहां क्या कर रहा हूं। मेरे और तुम्हारे मध्य यहां ठीक इसी क्षण में क्या आदान—प्रदान हो रहा है; अभी इसी क्षण में तुम्हारे और मेरे मध्य ऊर्जा का कैसा विनिमय चल रहा है; इसका निरीक्षण करो, इसको अनुभव करो और इसे अपने अस्तित्व में घुल—मिल जाने दो। नोट्स मत बनाओ, वरना तुम सदैव परेशानी में रहोगे।

अंतिम प्रश्न….

और यह बहुत गंभीर प्रश्‍न है, कृपा करके इसे मजाक की तरह मत लेना।

चितानंद ने पूछा है: यहां पर केवल आप ही एक मात्र व्‍यक्‍ति है जो विक्षिप्‍त नहीं है। आपने बच्‍चों को जन्‍म क्‍यों नहीं दिया? क्‍या परम ज्ञान को उपलब्‍ध व्‍यक्‍ति भी कभी—कभार बच्‍चों को जन्‍म देते है?

मैंने इसके बारे में कभी सोचा नहीं।

भले ही तुम मेरे उत्तरों से कुछ न सीखो, किंतु मैं तुम्हारे उत्तरों से कुछ न कुछ सीखता रहता हूं बहुत अच्छा खयाल है यह। मैं इसको स्मरण रखूंगा। लेकिन एक व्यवहारिक समस्या है : एक ऐसी स्त्री पाना जो अ—विक्षिप्त हो, बहुत कठिन है।

पहली बात, एक ऐसा व्यक्ति पाना ही कठिन है जो विक्षिप्त न हो और फिर एक स्त्री? करीब—करीब असंभव है। कठिनाई बहुगुणित हो जाती है।

मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं।

एक बहुत धनवान महाजनी का व्यवसायी स्टॉक एक्सचेंज में एक सफल उद्यमी के रूप में प्रतिष्ठित था, लेकिन गोल्फ के मैदान में बहुत फिसड्डी था। वह अपनी खराब मनोदशा के लिए अपनी कैडी को कोसा करता था। और एक सुबह एक खराब खेल के बाद वह चिल्लाया, तुम्हें तो संसार की सबसे बुरी कैडी होना चाहिए। ओह नहीं, महोदय, कैंडी ने उत्तर दिया, यह केवल संयोग हो सकता है। एक सबसे खराब गोल्फ का खिलाड़ी और संसार की सबसे बुरी कैडी? यह एक दुर्लभ संयोग है।

एक ऐसी स्त्री को खोज पाना बहुत दुर्लभ संयोग होगा। ऐसा पहले कभी हुआ नहीं। और मैं नहीं सोचता कि ऐसा भी हो सकता है। ऐसा कभी पता नहीं लगा कि किसी— परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति ने बच्चों को जन्म दिया हो। हां, तुमने सुन रखा होगा कि बुद्ध के एक पुत्र था, किंतु ऐसा तब हुआ था जब वे परम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए थे।

महावीर के एक पुत्री थी, किंतु वह भी उनके परम शान को उपलब्ध होने से पूर्व की थी। गुरजिएफ के कई स्त्रियों से अनेक बच्चे थे, किंतु यह भी उसके परम शान को उपलब्ध होने से पूर्व घटित हुआ था। और तुम्हें भलीभांति ज्ञात होना चाहिए कि वे बच्चे, यहां तक कि बुद्ध का पुत्र राहुल भी, स्वयं को बुद्ध का पुत्र सिद्ध न कर सका। महावीर की पुत्री ने किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं किया कि वह महावीर की पुत्री है, वह सामान्य सिद्ध हुई। वह इतनी सामान्य थी कि जैनों का एक संप्रदाय यह विश्वास करता है कि यह एक पौराणिक आख्यान है : महावीर का कभी विवाह नहीं हुआ और उनके घर में कभी कोई संतान नहीं हुई। वह पुत्री इतनी सामान्य थी जैसे कि वह है ही नहीं। क्या तुमने कभी किसी परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति के पुत्र या पुत्री को परम शान को उपलब्ध होते सुना है? यह संयोग एक बहुत दुर्लभ संयोग है।

और इसमें एक और बात भी जुड़ी हुई है। पहली, एक अविक्षिप्त व्यक्ति एक अविक्षिप्त स्त्री को पा ले, फिर वे दोनों मिल कर जन्म लेने के लिए एक अविक्षिप्त आत्मा की खोज करें। यह समस्या बहुत जटिल है, क्योंकि तुम स्त्री की खोज इसलिए करते हो क्योंकि तुम विक्षिप्त हो। क्योंकि अभी तक तुम अपने भीतर की स्त्री से नहीं मिले हो, इसलिए तुम स्त्री की खोज करते हो। स्त्री एक पुरुष की खोज करती है, क्योंकि वह अभी तक अपने भीतर के पुरुष से नहीं मिली है। क्योंकि तुम अपने भीतर एक परिपूर्ण समग्र नहीं हो इसलिए तुम बाहर खोजने जाते हो।

पहली बात, जिस क्षण तुम अपने भीतर समग्र हो जाते हो—होली, पवित्र व्यक्ति होने का यही अर्थ है। वह व्यक्ति जो समग्र हो गया है—फिर तुम बाहर नहीं खोजते। कोई आवश्यकता न रही। तुम भागते भी नहीं यदि कोई स्त्री तुम्हारे सामने आ जाती है, तो तुम दूर नहीं भागते और तुम पुलिस को खबर नहीं करते कि एक स्त्री सामने आ रही है। यह भी अच्छा है। यदि कोई स्त्री सामने आ जाती है, बिलकुल ठीक हैं। यदि वह दूर चली जाती है, यह भी एकदम सही है।

और तुम बच्चों को जन्म देते हो; यह भी विक्षिप्तता का कृत्य है, क्योंकि तुमको सदैव उलझाव चाहिए, उलझने के लिए कुछ तो चाहिए। तुम्हारा मूलभूत उलझाव भविष्य के साथ है, और बच्चे तुम्हारे लिए भविष्य को उपलब्ध करवा देते हैं। उनके माध्यम से तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं गतिशील होने में समर्थ हो जाएंगी। जब तुम इस संसार से विदा हो चुके होंगे तब तुम्हारे बच्चे यहां होगे। तुम प्रधानमंत्री होने का प्रयास कर रहे थे और तुम बन न सके तो तुम्हारे बच्चे बन जाएंगे। उनको तुम तैयार करोगे और सातत्य चलता रहेगा।

जब कोई मरता है, और अपने पीछे कोई संतान नहीं छोडता, तो उसे लगता है कि सब कुछ समाप्त हो गया है, परम अंत आ गया है। किंतु जब तुम अपने पीछे बच्चे छोड़ जाते हो, तो तुम्हें उनके माध्यम से एक प्रकार की अमरत्व की अनुभूइत होती है : यह ठीक है; मैं मर रहा हूं चिंता करने की कोई बात नहीं है। लेकिन मेरा एक भाग मेरे बच्चे के माध्यम से जीता रहेगा। लोग बच्चों में बहुत अधिक उत्सुक हैं क्योंकि वे मृत्यु से बहुत अधिक भयभीत हैं। बच्चे तुम्हें अमरत्व का एक झूठा आभास, एक प्रकार का सातत्य दे देते हैं। एक अविक्षिप्त व्यक्ति कभी बच्चों में उत्सुक नहीं होता, उसे किसी प्रकार के सातत्य में उत्सुकता नहीं होती। उसने शाश्वत को पा लिया है, और वह मृत्यु के बारे में चिंतित नहीं है।.

एक अविक्षिप्त स्त्री को पाना क्यों इतना असंभव है, इस बारे में कुछ कहानियां…….मैं कुछ नहीं कहूंगा, मैं तो बस कुछ किस्से पढ़ दूंगा।

श्रीमान कोहेन कुछ धन खर्च करना चाहते थे, और उन्होंने एक आंतरिक सज्जाकार से अपने मकान की पुनर्सज्जा के लिए कहा। सज्जाकार श्री जोंस ने पूछा, श्रीमान कोहेन, आपका कार्य करके मुझे प्रसन्नता होगी। क्या आप अपनी पसंद की कोई रूप—रेखा बता सकते हैं? क्या आपको आधुनिक सज्जा पसंद है? नहीं।

स्वीडन की शैली?

नहीं।

इटली की प्रांतीय शैली?

नहीं।

मूर शैली? स्पैनिश शैली?

नहीं।

ठीक है, श्रीमान कोहेन, आपको मुझे अपनी पसंद की शैली का थोड़ा सा संकेत तो देना ही पड़ेगा, अन्यथा मैं तो अपना कार्य आरंभ तक नहीं कर पाऊंगा। आपके मन में असल में है क्या?

श्रीमान सज्जाकार, जो मैं चाहता हूं वह यह है कि जब मेरे मित्र यहां आएं तो इसकी सज्जा पर एक नजर डालें और कुढ़ कर मर जाएं।

दूसरी : एक युवा जोड़ा होटल के एक कमरे में बेहद रोमांटिक मूड में आलिंगनबद्ध था कि सामने वाले दरवाजे के ताले में चाबी घुमाने की आवाज आई। युवती अचानक चौंक कर आलिंगन से निकली और आगामी खतरे को भांप कर घबड़ाहट की मुद्रा में उसकी आंखें फैल गईं। हाय राम, वह चिल्लाई, यह मेरे पति हैं। जल्दी करो, खिड़की से बाहर कूद पड़ो।

युवक भी उतना ही घबडा कर खिड़की की ओर लपका, फिर गंभीरता से बोला, मैं कूद नहीं सकता! हम तेरहवीं मंजिल पर हैं!

भगवान के लिए, युवती क्रोध से चिल्ला कर बोली, क्या यह बहस करने का वक्त है?

तीसरी : पत्नी एक नया हैट पहने हुए वापस लौटी। तुमको यह हैट कहां मिल गया? उसके पति ने पूछा, क्लीयरेंस सेल में।

इसमें जरा भी हैरानी की बात नहीं है कि वे इसे क्यों बेच डालना चाहते थे, उसने कहा, इसे लगा कर तुम बेवकूफ जैसी दिखाई पड़ती हो।

मुझे पता है।

फिर तुमने इसको क्यों खरीद लिया? उसने जिज्ञासा की।

बताऊंगी मैं तुम्हें, वह बोली, जब मैंने इसको लगाया और स्वयं .को दर्पण में देखा तो सेल्समैन से विवाद करने के लिए मैं स्वयं को ही काफी बेवकूफ लगी। इसलिए हैट लेकर मैं खामोशी से चली आई।

चौथी : मुल्ला नसरुद्दीन मुझको बता रहा था कि विवाह उस प्रकार के पुरुष की खोज की प्रक्रिया है जिस प्रकार का पुरुष तुम्हारी पत्नी ने पसंद किया होता। इसी सुबह मेरी पत्नी ने मुझसे कहा, यदि तुमने मुझसे वास्तव में प्रेम किया होता तो तुमने किसी और से विवाह कर लिया होता। मैंने उसको भरोसा दिलाया कि उसके साथ विवाह करके मैं बहुत प्रसन्न हूं और मैंने कहा, यदि मुझको अपने स्थान पर रिचार्ड बर्टन को लाना हो तो भी मैं ऐसा न करूं। उसने कहा : मैं जानती हूं कि तुम ऐसा नहीं करोगे, मुझे खुश रखने के लिए तुम कभी कुछ नहीं करते हो।

आज इतना ही।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–15)

February 22, 2015, 5:00 am

अनंत सागर-रूप चेतना के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक 2 अक्‍टूबर, 1970;

सांध्‍या, मनाली (कुलू)

“भगवान श्री, श्री अरविंद के कृष्ण-दर्शन के बारे में कुछ कहने को बाकी रह गया था। आपने अहमदाबाद में बताया था कि वह बहुत हद तक मानसिक प्रक्षेपण हो सकता है। तो अरविंद का कृष्ण-दर्शन क्या मानसिक प्रक्षेपण है या “मिस्टिक’ अनुभूति है?

एक दूसरा प्रश्न भी है–अर्जुन यदि सिर्फ निमित्त मात्र हैं, तो वे यंत्रमात्र रह जाते हैं। उनकी “इंडिविजुअलिटी’ का क्या होगा?’

कृष्ण-दर्शन, या क्राइस्ट का दर्शन, या बुद्ध या महावीर का दो प्रकार से संभव है। एक, जिसको “मेंटल प्रोजेक्शन’ कहें, मानसिक प्रक्षेपण कहें; जबकि वस्तुतः कोई सामने नहीं होता लेकिन हमारे मन की वृत्ति ही आकार लेती है। जबकि वस्तुतः हमारा विचार ही आकर लेता है। जबकि वस्तुतः हम ही बाहर भी रूप के निर्माता होते हैं। मानसिक प्रक्षेपण, “मेंटल प्रोजेक्शन’ से मतलब यह है कि वस्तुतः उस प्रक्षेपण, उस रूप, उस आकृति के पीछे कोई भी नहीं होता। मन की यह भी क्षमता है। मन की यह भी शक्ति है। जैसे रात हम स्वप्न देखते हैं, ऐसे ही हम खुली आंख से भी सपने देख सकते हैं। तो एक तो यह संभावना है।

दूसरी संभावना, कृष्ण-दर्शन की, कृष्ण-रूप के दर्शन की संभावना नहीं है, कृष्ण-आकृति के दर्शन की संभावना नहीं है, दूसरी संभावना कृष्ण-चेतना में डूबे होने की, कृष्ण-चेतना के विस्तार के अनुभव की, कृष्ण-चेतना के साक्षात्कार की संभावना है। जैसा मैंने कल कहा था कि एक तो सागर-रूप कृष्ण और एक लहर-रूप कृष्ण। लहर-रूप कृष्ण का उपयोग उनके सागर-रूप अनुभव के लिए किया जा सकता है। उनके चित्र, उनके प्रतीक, उनकी मूर्ति का उपयोग उनके सागर-रूप दर्शन के लिए किया जा सकता है। लेकिन जब उनका सागर-रूप दर्शन हुआ तब कृष्ण की प्रतिमा विदा हो जाएगी, विलीन हो जाएगी। और कृष्ण की आकृति खो जाएगी, शून्य हो जाएगी। कृष्ण की प्रतिमा का उपयोग हो सकता है उनके विराट दर्शन के प्राथमिक बिंदु की तरह। लेकिन अगर किसी को विराट का तो दर्शन नहीं होता, कृष्ण की प्रतिमा का ही दर्शन होता है, कृष्ण की आकृति का ही दर्शन होता है, तो वह सिर्फ मानसिक प्रक्षेपण है।

तो जिसको कृष्ण-चेतना का दर्शन होगा, उस चेतना का अनुभव आकृति का अनुभव नहीं है। उस चेतना का अनुभव रूप का अनुभव नहीं है। यह सिर्फ नाम की बात होगी कि वैसा आदमी चूंकि कृष्ण को प्रेम करता है, या कृष्ण की आकृति से उसने यात्रा की है, इसलिए इस अनुभव को कृष्ण-चेतना का अनुभव कहेगा। अगर किसी दूसरे आदमी को यही अनुभव हुआ हो–यही होगा अनुभव; बुद्ध की आकृति से भी हो जाएगी, जीसस की आकृति से भी हो जाएगा–तो जीसस से चलने वाला इसको क्राइस्ट का अनुभव कहेगा, कृष्ण से चलने वाला कृष्ण का अनुभव कहेगा, लेकिन यह अनुभव सागर-रूप का है। अरविंद जिस अनुभव की बात कर रहे हैं वह कृष्ण की आकृति और कृष्ण के व्यक्तित्व के अनुभव की बात कर रहे हैं। वे कहते हैं, कृष्ण ही उनके सामने साकार खड़े हैं। ऐसा अनुभव प्रक्षेपण है। “मेंटल प्रोजेक्शन’ है। इसका बड़ा सुख है। इसका बड़ा रस है, लेकिन है यह हमारे मन का विस्तार। यह हमारे मन ने ही चाहा है, यह हमारे मन का ही खेल है, यह हमारे मन ने ही फैलाया और जाना है।

मन से हम शुरू कर सकते हैं, अंत नहीं होना चाहिए। मन से हम शुरू करेंगे ही, लेकिन अंत तो अ-मन पर, “नो माइंड’ पर होना चाहिए। यह बड़े मजे की बात है कि जहां तक रूप है, वहां तक मन होता है। जहां तक आकृति है, वहां तक मन होता है। जहां तक रूप है, वहां तक मन होता है। जहां रूप और आकृति नहीं होती, वहां मन खो जाता है, वहां मन के होने का उपाय नहीं है। मन का भोजन है आकृति, रूप, सगुणता। अगर सगुण खो जाए तो मन भी खो जाता है। और जिस कृष्ण के दर्शन की मैं बात कर रहा हूं, वह मन के रहते नहीं होगा, वह मन के खोने पर होता है।

तो जिसने भी कभी कहा हो कि हां, मैंने कृष्ण को व्यक्तिरूप में जाना और पहचाना और देखा और मिले, यह वे विराट चेतना के पर्दे पर अपने मन की आकृति को “प्रोजेक्ट’ कर रहे हैं। जैसे रात फिल्म के पर्दे पर पीछे “प्रोजेक्टर’ होता है, और फिल्म के पर्दे पर चीजें दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं जो वहां नहीं हैं, वहां सिर्फ कोरा पर्दा है। ऐसे ही हमारे मन का उपयोग हम “प्रोजेक्टर’ की भांति कर सकते हैं, करते हैं। लेकिन यह अनुभव आध्यात्मिक अनुभव नहीं है, यह अनुभव “सॉइकिक एक्सपीरियेंस’ है, मानसिक अनुभव है। सुख इससे मिलेगा, क्योंकि कृष्ण को जानना, कृष्ण को देख लेना बड़ा तृप्तिदायी होगा। लेकिन यह सुख ही है, यह आनंद नहीं है। और न सत्य की अनुभूति है।

अरविंद पंडित थे, इसलिए अगर मैं कह रहा होऊं कि उनका जो अनुभव है वह “प्रोजेक्शन’ है, ऐसी बात नहीं है, अनुभव का जो ढंग है वह “प्रोजेक्शन’ का है। अनुभव का जो वे चित्रण कर रहे हैं, जो वर्णन कर रहे हैं, वह “प्रोजेक्शन’ का है। और अगर सागर-रूप कृष्ण का अनुभव हो–या सागर-रूप क्राइस्ट का, उसमें बहुत फर्क नहीं पड़ता–तो वह अनुभव कभी खोयेगा नहीं। वह एक बार हुआ कि हुआ। इसके बाद उसके अतिरिक्त कोई अनुभव ही नहीं बचेगा। इसके बाद वृक्षों में, पौधों में, पत्थर में, लोगों में, सब तरफ कृष्ण ही दिखाई पड़ने लगेंगे। लेकिन “प्रोजेक्शन’ तो आएगा और चला जाएगा। वह एक क्षण ऊगेगा और खो जाएगा।

यह भी ध्यान लेने जैसी बात है कि “प्रोजेक्शन’ का जो अनुभव है, मानसिक चित्रों का जो देख लेना है, उसे अरविंद पंडित होने की वजह से नहीं देख पा रहे हैं। क्योंकि पंडित चित्रों को देखने में असमर्थ होता है। अरविंद की एक और दिशा भी है, वह काव्य की दिशा है। अरविंद पंडित ही नहीं, महाकवि भी हैं। और रवींद्रनाथ से कम हैसियत के कवि नहीं हैं अरविंद। और अगर “नोबल प्राइज’ उन्हें नहीं मिल सका तो इसका कारण यह नहीं है कि उन्होंने रवींद्रनाथ से कम हैसियत की कविता लिखी, उसका कुल कारण यह है कि उनकी कविता दुरूह है और समझ में नहीं आ सकी। “सावित्री’ दुनिया के श्रेष्ठतम महाकाव्यों में एक है। दस-पांच महाकाव्य उसकी कोटि के महाकाव्य हैं। पंडित तो नहीं देख सकता “प्रोजेक्शन’, लेकिन अरविंद का कवि देख सकता है। और अरविंद के भीतर जो कवि की क्षमता है, वही आसान कर देगी उन्हें कि वे कृष्ण को देख लें। उनका कवि-हृदय ही “प्रोजेक्शन’ कर पाता है। प्रक्षेपण जो है, वह कवि-हृदय के लिए आसान है। शुष्क तर्क अकेला अगर उनके जीवन में हो तो यह प्रक्षेपण भी नहीं हो सकता। उन्होंने जो अभिव्यक्ति की है अति बुद्धिवादी शब्दों में, इस कारण नहीं कह रहा हूं कि वे सिर्फ जानकार हैं–क्योंकि अभिव्यक्ति तो तर्क के और बुद्धि के शब्दों में करनी ही होती है–लेकिन ये शब्द किसी पार की कोई खबर नहीं लाते, किसी “ट्रांसेंडेंस’ की कोई खबर नहीं लाते।

हम शब्दों का प्रयोग दो तरह से कर सकते हैं। एक तो शब्दों का प्रयोग हम ऐसा कर सकते हैं जब कि शब्दों का अर्थ शब्द की सीमा के भीतर होता है। जितना बड़ा शब्द होता है उतना ही बड़ा अर्थ होता है। एक शब्द का प्रयोग हम ऐसा कर सकते हैं, जो कभी-कभी करते हैं, जबकि अर्थ तो बड़ा होता है और शब्द छोटा होता है। अरविंद के साथ उलटा मामला है। उनके शब्द बहुत बड़े हैं, अर्थ बहुत छोटा है। अरविंद बहुत बड़े शब्दों का उपयोग करते हैं। लंबे-लंबे शब्दों का उपयोग करते हैं। शब्द से अर्थ अगर ज्यादा हो, तो “ट्रांसेंड’ करता है और “मिस्ट्री’ में प्रवेश कर जाता है। और अगर शब्द अर्थ से बहुत बड़ा हो, तो ज्यादा-से-ज्यादा “फिलासफी’ में, बल्कि “फिलासफी’ भी न कहकर “फिलालाजी’ में–दर्शन में भी नहीं, भाषा-शास्त्र में प्रवेश कर जाता है। शब्द से बड़ा अर्थ जब शब्द लेकर चलता है तो गर्भित हो जाता है, “प्रेग्नेंट’ हो जाता है। अरविंद का कोई शब्द “प्रेग्नेंट’ नहीं है, उसमें कुछ गर्भ नहीं है। उसके पार जाने वाला उसमें कोई सूचक “ऐरो’ नहीं है। ऐसा नहीं है कि शब्द हर क्षण शब्द के पार की सूचना दे रहा हो। अरविंद के शब्दों का सारा उपयोग ऐसा है कि शब्द पूरी सूचना दे रहा है जितना उसमें अर्थ है, बल्कि अर्थ से भी ज्यादा। और कारण हैं उसके।

जैसा मैंने सुबह आपसे कहा कि अरविंद का सारा शिक्षण जहां हुआ वहां उन दिनों जैसा विज्ञान पर डार्विन हावी था, ठीक वैसे “फिलासफी’ पर हीगल हावी था। हीगल ने बड़े-बड़े शब्दों का प्रयोग किया है, जिनमें अर्थ उतना नहीं है। लेकिन इतने जटिल और बड़े शब्दों का उपयोग किया है कि हीगल को पढ़ते वक्त पहला जो असर पड़ता है वह बहुत “प्रोफाउंडिटी’ का है। वह ऐसा लगता है कि बड़ी गहरी बात कही जा रही है। क्योंकि अक्सर हमें जो बात समझ में नहीं आती उसे हम गहरा समझ लेते हैं। वह जरूरी रूप से सच नहीं होती। जो बात समझ में नहीं आती वह जरूरी रूप से गहरी नहीं होती। हालांकि यह जरूर सच है कि जो गहरी होती है, वह आसानी से समझ में नहीं आती। लेकिन इसमें उलटा खेल चल जाता है। तो हीगल ने बड़े कठिन और बड़े दुरूह और लंबे शब्दों का प्रयोग किया है, और जिसको कहना चाहिए बहुत “ब्रेकेटेड लैंग्वेज’ का उपयोग किया है। बड़े कोष्ठक पर कोष्ठक लगाए हैं भाषा में। उसकी वजह से बहुत जाल हो गया है और समझना मुश्किल हो गया है। लेकिन जैसे-जैसे “स्कालरशिप’ आगे बढ़ी वैसे-वैसे हीगल की प्रतिमा छोटी होने लगी, क्योंकि जितना ही समझ में आया उतना ही पाया कि इस आदमी को कहना बहुत कम है, लेकिन कहता बहुत लंबे रास्तों से है। अरविंद का भी कहने का ढंग हीगलियन है। वे हीगल जैसे ही “सिस्टम मेकर’ हैं। तो वह कहते तो बहुत कम हैं, शब्द बड़े उपयोग करते हैं, लंबे उपयोग करते हैं, बहुत लंबा चक्कर लेते हैं।

अभिव्यक्ति तो बुद्धिगत रूप से करनी पड़ेगी, लेकिन अभिव्यक्ति निरंतर ही अपने से पार का इशारा बनती हो तो इस बात की खबर लाती है कि उस आदमी ने शब्दों के पार भी कुछ जाना है। लेकिन सब शब्दों में समा जाता हो, तो इस बात की खबर नहीं मिलती। और फिर, सारा अरविंद को पढ़ जाने के बाद मुंह में जो स्वाद छूट जाता है, वह सिर्फ शब्दों का है। मुंह में जो स्वाद छूट जाता है, वह अनुभव का जरा भी नहीं है। कई बार कोई आदमी बिलकुल न बोले, तो उसकी मौजूदगी भी मुंह में अनुभूति का स्वाद छोड़ सकती है। कई बार कोई बहुत बोले, तो भी मुंह में सिर्फ शब्दों का स्वाद छूट जाता है, अनुभव का कोई स्वाद नहीं छूट पाता है। अभिव्यक्ति तो बुद्धिगत होगी ही, लेकिन जब अनुभूति की अभिव्यक्ति होगी तो वह साथ-साथ बुद्धि को अतीत और अतिक्रमण करने वाली भी होती है। वह हर बार सूचना कर जाती है कि कुछ कहने योग्य था जो नहीं कहा जा सकता है। अरविंद को देखकर ऐसा लगेगा कि जो भी कहने योग्य था जो नहीं कहा जा सकता है। अरविंद को देखकर ऐसा लगेगा कि जो भी कहने योग्य था उससे भी ज्यादा अरविंद कह सके हैं। इससे तो रवींद्रनाथ का मुझे एक स्मरण आता है, उससे आपकी समझ में आए।

रवींद्रनाथ के मरने के कुछ घड़ियों पहले एक मित्र ने रवींद्रनाथ को कहा कि तुमने तो गा लिया जो तुम्हें गाना था, अब तुम शांति से, सुख से, परमात्मा को धन्यवाद देते हुए विदा हो सकते हो। तुम्हें जो करना था वह तुम कर चुके पृथ्वी पर। रवींद्रनाथ ने आंख खोली और कहा कि कैसी गलत बात कह रहे हो! मैं तो यह प्रार्थना कर रहा हूं परमात्मा से कि अभी तो मैं साज जमा पाया था, बिठा पाया था, ठोंक-पीटकर मृदंग को, सितार को तैयार कर पाया था, और यह विदा होने का वक्त आ गया। अभी मैंने गया कहां? अभी जिसको लोगों ने मेरे गीत समझे हैं, वह केवल साज का ठोंकना-पीटना था। अब साज तैयार हो गया और मेरे जाने का क्षण आ गया। अभी मैं वह कह कहां पाया जो मुझे कहना था!

लेकिन अगर कोई अरविंद से कहे, तो अरविंद यह न कह सकेंगे। अरविंद बिलकुल कह चुके हैं जो उन्हें कहना था। बड़े ढंग से और व्यवस्था से कह चुके हैं। अरविंद और रवीन्द्र में मैं कहूंगा कि रवीन्द्र कहीं ज्यादा “मिस्टिक’ हैं बजाय अरविंद के। ज्यादा रहस्य की तरफ उनके इशारे हैं। अरविंद के इशारे बहुत साफ हैं, “नान-मिस्टिक’ हैं, रहस्य की तरफ नहीं हैं।

एक बात और पूछी है। वह यह पूछी है कि अगर अर्जुन सिर्फ निमित्त मात्र है, और जो होना था वह होना है, जो हो चुका है वही होना है, तो फिर अर्जुन के व्यक्तित्व का क्या होगा? वह तो फिर एक “इन्स्ट्रूमेंट’, एक साधन रह जाएगा?

इसे समझने की कोशिश करेंगे तो बड़ी सरलता से कुछ सत्य दिखाई पड़ेंगे। अगर किसी को “इन्स्ट्रूमेंट’ बनाया जाए, तो उसका व्यक्तित्व नष्ट होता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति “इन्स्ट्रूमेंट’ बन जाए तो उसका व्यक्तित्व खिलता है, नष्ट नहीं होता। अगर कोई दबाव डालकर किसी आदमी को साधन बना दे, तो उस आदमी की आत्मा मर जाती है। लेकिन अगर कोई अपने ही हाथ से समर्पण कर दे और सब छोड़ दे और साधन बन जाए, तो उसकी आत्मा पूरी तरह खिल जाती है। उसका व्यक्तित्व नष्ट नहीं होगा, “फुलफिल्ड’ हो जाता है। जो फर्क है असल में वह यह नहीं है। फर्क इतना ही है कि अगर मेरे ऊपर जबर्दस्ती आप हथकड़ियां डाल दें तो मैं गुलाम हो जाता हूं। और अगर मैं हथकड़ियां उठाकर आपको दे दूं और कहूं कि मेरे हाथ में डाल दें, तो मैं गुलामी का भी नियंता हो जाता हूं। मैं अपनी गुलामी का भी निर्धारक हो जाता हूं। मैं निरंतर डायोजनीज की कहानी कहता हूं, वह आपको कहना अच्छा होगा।

डायोजनीज गुजरता है एक जंगल से। नंगा फकीर, अलमस्त आदमी है। कुछ लोग जा रहे हैं गुलामों को बेचने बाजार। उन्होंने देखा इस डायोजनीज को। सोचा कि यह आदमी पकड़ में आ जाए तो दाम अच्छे मिल सकते हैं। और ऐसा गुलाम कभी बाजार में बिका भी नहीं है। बड़ा शानदार है! ठीक महावीर जैसा शरीर अगर किसी आदमी के पास था दूसरे फकीरों में, तो वह डायोजनीज के पास था। मैं तो यह निरंतर कहता ही हूं कि महावीर नग्न इसलिए खड़े हो सके कि वे इतने सुंदर थे कि ढांकने योग्य कुछ था नहीं। बहुत सुंदर व्यक्तित्व था। वैसा डायोजनीज का भी व्यक्तित्व था। गुलामों ने लेकिन सोचा कि हम हैं तो आठ, लेकिन इसको पकड़ेंगे कैसे! यह हम आठ की भी मिट्टी कर दे सकता है। यह अकेला काफी है। मगर फिर भी उन्होंने सोचा कि हिम्मत बांधो। और ध्यान रहे, जो दूसरे को दबाने जाता है वह हमेशा भीतर अपने को कमजोर समझता ही है। वह सदा भयभीत होता है। ध्यान रखें, जो दूसरे को भयभीत करता है, वह भीतर भयभीत होता ही है। सिर्फ वे ही दूसरे को भयभीत करने से बच सकते हैं, जो अभय हैं। अन्यथा कोई उपाय नहीं। असल में वह दूसरे को भयभीत ही इसलिए करता है कि कहीं यह हमें भयभीत न कर दे। मेक्याबेली ने लिखा है, इसके पहले कि कोई तुम पर आक्रमण करे, तुम आक्रमण कर देना; यही सुरक्षा का श्रेष्ठतम उपाय है। तो डरा हुआ आदमी।

वे आठों डर गए। बड़ी गोष्ठी करके, बड़ा पक्का निर्णय करके, चर्चा करके वे आठों एकदम से हमला करते हैं डायोजनीज पर। लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। अगर डायोजनीज उनके हमले का जवाब देता तो वह मुश्किल में न पड़ते। क्योंकि उनकी योजना में इसकी चर्चा हो गई थी। डायोजनीज उनके बीच में आंख बंद करके हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है और कहता है, क्या इरादे हैं? क्या खेल खेलने का इरादा है? वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं कि अब इससे क्या कहें! उन्होंने कहा कि माफ करें, हम आपको गुलाम बनाना चाहते हैं। डायोजनीज ने कहा, इतने जोर से कूदने-फांदने की क्या जरूरत है! नासमझो, निवेदन कर देते, हम राजी हो जाते। इसमें इतना उछल-कूद, इतना छिपना-छिपाना यह सब क्या कर रहे हो? बंद करो यह सब। कहां हैं तुम्हारी जंजीरें? वे तो बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। क्योंकि ऐसा आदमी कभी नहीं देखा था जो कहे–कहां हैं तुम्हारी जंजीरें? और इतने डांटकर वह पूछता है जैसे मालिक वह है और गुलाम ये हैं। जंजीरें उन्होंने निकालीं। डरते हुए दे दीं। उसने हाथ बढ़ा दिए और कहा कि बंद करो। और वे कहने लगे, आप यह क्या कर रहे हैं, हम आपको गुलाम बनाने आए थे, आप बने जा रहे हैं। डायोजनीज ने कहा कि हम यह राज समझ गए हैं कि इस जगत में स्वतंत्र होने का एक ही उपाय है और वह यह कि गुलामी के लिए भी दिल से राजी हो जाए। अब हमें कोई गुलाम बना नहीं सकता है। अब उपाय ही न रहा तुम्हारे पास। अब तुम कुछ न कर सकोगे।

फिर वे डरे हुए उसको बांधकर चलने लगे, तो डायोजनीज ने कहा कि नाहक तुम्हें यह जंजीरों का बोझ ढोना पड़ रहा है। क्योंकि उन जंजीरों को उन्हें पकड़कर उन्हें रखना पड़ रहा है। डायोजनीज ने कहा उतारकर फेंक दो। मैं तो तुम्हारे साथ चल ही रहा हूं। एक ही बात का खयाल रखें कि तुम समय के पहले मत भाग जाना, मैं भागने वाला नहीं हूं। तो उन्होंने जंजीरें उतारकर रख दीं, क्योंकि आदमी तो ऐसा ही मालूम हो रहा था। जिसने अपने हाथ में जंजीरें पहनवा दीं, उसको अब और जंजीर बांधकर ले जाने का क्या मतलब था? फिर जहां से भी वे निकलते हैं तो डायोजनीज शान से चल रहा है और जिन्होंने गुलाम बनाया है, वे बड़े डरे हुए चल रहे हैं कि पता नहीं, कोई उपद्रव न कर दे यह किसी जगह पर, कोई सड़क पर, किसी गांव में। और जगह-जगह जो भी देखता है वह डायोजनीज को देखता है और डायोजनीज कहता है, क्या देख रहे हो? ये मेरे गुलाम हैं। ये मुझे छोड़कर नहीं भाग सकते। वह जगह-जगह यह कहता फिरता है कि ये मुझे छोड़कर नहीं भाग सकते, ये मुझसे बंधे हैं। और वे बेचारे बड़े हतप्रभ हुए जा रहे हैं। किसी तरह वह बाजार आ जाए!

वह बाजार आ गया। उन्होंने जाकर किसी से गुफ्तगू की, जो बेचने वाला था, उससे बातचीत की। कहा कि जल्दी नीलाम पर इस आदमी को चढ़ा दो, क्योंकि इसकी वजह से हम बड़ी मुसीबत में पड़े हुए हैं। और भीड़ लग जाती है और लोगों से यह कहता है कि ये मेरे गुलाम हैं, अच्छा, ये मुझे छोड़कर नहीं भाग सकते। अगर हों मालिक, भाग जाएं। तो इसको छोड़कर कहां भागें हम, कीमती आदमी है और पैसा अच्छा मिल जाएगा। तो उसे टिकटी पर खड़ा किया जाता है और नीलाम करने वाला जोर से चिल्लाता है कि एक बहुत शानदार गुलाम बिकने आया है, कोई खरीदार है? तो डायोजनीज जोर से चिल्लाकर कहता है कि चुप, नासमझ! अगर तुझे आवाज लगाना नहीं आता है तो आवाज हम लगा देंगे। वह घबड़ा जाता है, क्योंकि किसी गुलाम ने कभी उस नीलाम करने वाले को इस तरह नहीं डांटा था। और डायोजनीज चिल्लाकर कहता है कि आज एक मालिक इस बाजार में बिकने आया है, किसी को खरीदना हो तो खरीद ले।

जिस “इन्स्ट्रूमेंटालिटी’ में, जिस यांत्रिकता में हम यंत्र बनाए जाते हैं, जहां हमारी मजबूरी है, जहां हम गुलाम की तरह हैं, वहां तो व्यक्तित्व मरता है। लेकिन कृष्ण अर्जुन से यह नहीं कह रहे हैं कि तू यंत्रवत बन जा। कृष्ण अर्जुन से यह कह रहे हैं कि तू समझ। इस जगत की धारा में तू व्यर्थ ही लड़ मत। इस धारा को समझ, इसमें आड़े मत पड़, इसमें बह। और तब तू पूरा खिल जाएगा। अगर कोई आदमी अपने ही हाथ से समर्पित हो गया है इस जगत के प्रति, सत्य के प्रति, इस विश्वयात्रा के प्रति, तो वह यंत्रवत नहीं है, वही आत्मवान है। क्योंकि समर्पण से बड़ी और कोई घोषणा अपी मालकियत की इस जगत में नहीं है।

इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लेना।

समर्पण से बड़ी घोषणा इस जगत में अपनी मालकियत की और दूसरी नहीं है। क्योंकि अगर मैं समर्पित करता हूं तो इसका मतलब ही यह है कि मैं अपना मालिक हूं और समर्पित कर सकता हूं। तो इससे अर्जुन यंत्रवत नहीं हो जाता, इससे अर्जुन आत्मवान हो जाता है। और उसका व्यक्तित्व पहली दफे पूरी निश्चेष्टा में, “एफर्टलेसली’ खिलता है।

“भगवान श्री, हम फिर लौटकर अरविंद के कृष्ण-दर्शन पर आ रहे हैं। आपने बताया कि वह उनका आत्मप्रक्षेपण लगता है। लेकिन, आपने एक बार बताया था कि आज भी लामा-पद्धति के अनुसार एक ऐसा दिन आता है जबकि कुछ अधिकारी लामा बुद्ध के साथ आज भी संपर्क स्थापित करते हैं। एक बार और भी जब आप गांधी पर बोल रहे थे, तब किसी ने आपसे प्रश्न किया था कि ऐसी बात गांधी के संबंध में कैसे कहते हैं? क्या गांधी ने ऐसा कहा? तो आपने कहा था कि मैं यह बात गांधी से पूछकर कह रहा हूं। तीसरी बात और। लामा-पद्धति के बारे में ऐसा भी पढ़ने में आया है कि अब भी तिब्बत में कुछ वर्ष पूर्व तक ऐसे लामा थे जो कि जीवित अवस्था में भी सूक्ष्म-शरीर से दूसरे स्थान पर पहुंचकर स्थूल-रूप से अपने दर्शन देते थे और वापस अपने स्थान पर आ जाया करते थे। इन बातों के बारे में मैं आपसे कुछ जानना चाहता हूं।’

इस संबंध में दोत्तीन बातें समझ लें।

एक तो, ऐसा मैंने कहा है कि बुद्धपूर्णिमा के दिन, जिस हिमालय की शृंखलाओं में हम बैठे हैं, इसी हिमालय के किसी शिखर पर बुद्धपूर्णिमा के दिन एक विशेष घड़ी में बुद्ध के व्यक्तित्व का दर्शन होता है। पांच सौ लामाओं से ज्यादा उस पर्वत शिखर पर कभी नहीं हुए हैं। उन पांच सौ लामाओं में से जब एक कम होता है, तभी एक नए लामा को जगह मिलती है। लेकिन इसमें और कृष्ण के दर्शन में, जो अरविंद को हुए, तभी एक नए लामा को जगह मिलती है। लेकिन इसमें और कृष्ण के दर्शन में, जो अरविंद को हुए, बुनियादी फर्क है। कृष्ण के दर्शन में अरविंद चेष्टारत हैं। इस दर्शन में बुद्ध चेष्टारत हैं, लामा नहीं। लामा सिर्फ मौजूद होते हैं।

इस फर्क को बहुत ठीक से समझ लेना चाहिए।

यह बुद्ध का आश्वासन है कि बुद्धपूर्णिमा के दिन फलां-फलां पर्वत पर रात्रि के इतने क्षणों में वे प्रगट होंगे। यह बुद्ध का सागर-रूप जो है, इस रात की इस घड़ी में फिर लहर बनेगा। लेकिन इसमें लामा कुछ भी नहीं कर रहे हैं। उनका कोई “पार्ट’ नहीं है इसमें। एक फर्क।

दूसरा फर्क, अरविंद का दर्शन अकेले में हुआ दर्शन है। “प्रोजेक्शन’ में और इसमें बुनियादी फर्क है। ये पांच सौ लोग इकट्ठा दर्शन करते हैं। “प्रोजेक्शन’ हमेशा “पर्सनल’ होता है। उसमें दूसरे आदमी को “पार्टिसिपेट’ नहीं करवाया जा सकता। अगर अरविंद को जिस कृष्ण के दर्शन हो रहे हैं, आप कहें कि हम भी इस कमरे में आ जाएं और हमको भी करवा दें, तो वह कहेंगे, यह नहीं हो सकता। यह मुझको ही होता है, इसको दूसरे आदमी के साथ भागीदारी में नहीं देखा जा सकता। लेकिन पांच सौ व्यक्तियों के सामने जब कोई चीज प्रगट होती है, तो इसको व्यक्ति-मन का “प्रोजेक्शन’ नहीं कह सकते। और दूसरी बात यह कि पांच सौ लोग “टैली’ करते हैं कि हां ठीक, ठीक घड़ी पर, ठीक समय पर जो दिखाई पड़ा है वह, जो सुनाई पड़ा है वह, इसके पांच सौ गवाह होते हैं। अरविंद के अकेले वह खुद ही गवाह हैं। उससे भी पहले जो मैंने बात कही, उस कृष्ण-दर्शन में अरविंद की सतत चेष्टा है। उसमें पूरा प्रयास है कि कृष्ण का दर्शन कैसे हो! इसमें कोई चेष्टा नहीं है। इसमें एक घड़ी पर एक आश्वासन है, जो पूरा होता है। एक लहर जो पीछे सागर में उठी थी, वायदा कर गई है कि फलां-फलां घड़ी तुम इस तट पर इकट्ठे हो जाना, मैं फिर उठूंगी।

“वह “कलेक्टिव आटो-सजेशन’ हो सकता है।’

इसके कई कारण हैं कि नहीं हो सकता। क्योंकि यह जो पांच सौ की सीमित संख्या है, इसमें हर व्यक्ति प्रवेश नहीं पाता। और सिर्फ वे ही लोग प्रवेश पाते हैं जो अपने अचेतन चित्त को जानने में समर्थ हो गए हैं। वह उसकी पात्रता का नियम है। जब तक अचेतन चित्त पर हमारी अपनी सामर्थ्य नहीं है, तब तक “कलेक्टिवली’ हम “हिप्नोटाइज्ड’ हो सकते हैं। लेकिन जिस दिन मेरे अपने अचेतन चित्त का मुझे पता हो गया, उस दिन मुझे “हिप्नोटाइज्ड’ नहीं किया जा सकता। उस दिन कोई उपाय नहीं, क्योंकि मेरे भीतर वह कोई हिस्सा नहीं रहा जहां सुझाव डालकर और मेरे सामने कोई “प्रोजेक्शन’ करवाया जा सके। इसलिए एक लामा के हटने पर ही दूसरा लामा चुना जाता है। और वह चुनाव भी बड़ी मुश्किल का चुनाव है।

लामा का चुनाव बड़ी मुश्किल का चुनाव है और उसके बड़े अजीब नियम हैं। एक लामा मरता भी है…अभी यह दलाई लामा जो आज हैं, यह पिछले दलाई लामा की ही आत्मा हैं…पिछला दलाई लामा जब मरता है, एक दलाई लामा जब मरता है तो वह अपना वक्तव्य छोड़ जाता है कि अगली बार इस-इस शरीर के ढंग में मैं प्रकट होऊंगा, तुम खोज लेना। और एक अजीब बात है कि एक छोटा-सा सूत्र छोड़ जाता है। उस सूत्र की पूरे तिब्बत के गांव-गांव में बैंड पीटकर घोषणा की जाती है। उस सूत्र का जो बच्चा जवाब दे देता है–बहुत मुश्किल है वह। दलाई लामा एक मरेगा, तो कितने वर्ष बाद तिब्बत के गांव-गांव में वह सूत्र घुमाया जाए, इसकी वह सूचना कर जाएगा। क्या-क्या चिह्न उस लड़के पर होंगे, इसकी सूचना कर जाएगा। और इसका उत्तर सिवाय इस दलाई लामा के किसी को भी पता नहीं है। वह उत्तर लिखकर रख जाएगा, वह सब “सील्ड’ होगा। और जब कोई बच्चा उसका उत्तर दे देगा और सारे चिह्न मिल जाएंगे, तब वह “सील्ड’ उत्तर खोला जाएगा। अगर वह उत्तर वही है जो इस बच्चे ने दिया है, तो गवाही होगी कि यह दलाई लामा के योग्य हो गया, इसको दलाई लामा की जगह पर बिठा दिया जाए। यह उसकी ही आत्मा, जो उत्तर लिखकर गई थी, उत्तर दे रही है। तो तिब्बती लामाओं की परंपरा के अपने बड़े अजीब सूत्र हैं। यह जो एक आदमी खाली हो जाएगा, इस खाली आदमी को खोजने के नियम हैं। और इस पर सब तरह के प्रयोग करके यह जांचने की कोशिश की जाएगी कि यह आदमी “हिप्नोटाइज्ड’ तो नहीं हो सकता। अगर यह हो जाता है, तो यह पात्र नहीं होगा। इसलिए “कलेक्टिव हिप्नोसिस’ का कोई उपाय नहीं है।

फिर कुछ भी किया नहीं जाता। सिर्फ ये पांच सौ लामा एक खास घड़ी में, एक खास क्षण में मौन चुपचाप खड़े हो जाते हैं और घटना घटती है। न कोई सुझाव दिया जाता, न कोई बात की जाती, न कोई चीत की जाती है। यह बहुत भिन्न मामला है। यह अरविंद के कृष्ण-दर्शन का मामला नहीं है।

दूसरी बात, जैसा मैंने कहा कि उन आत्माओं से जिनके शरीर तो छूट गए लेकिन जो अभी सागर-रूप नहीं हो गई हैं, संबंध स्थापित किए जा सकते हैं। जो आत्माएं शरीर तो छोड़ चुकी हैं, लेकिन अभी सागर-रूप में खो नहीं गई हैं, अशरीरी जिनका व्यक्तित्व है, उनसे संबंध स्थापित किए जा सकते हैं। उसमें कोई कठिनाई नहीं है। उसमें जरा भी कठिनाई नहीं है।

कृष्ण अशरीरी आत्मा नहीं हैं, सागर-रूप हो गए हैं। गांधी अशरीरी आत्मा हैं। साधारण रूप से जो लोग भी मर जाते हैं, इन सबसे संबंध स्थापित किए जा सकते हैं। उसके अपने नियम, अपनी विधि, अपने “टेक्नीक’ हैं। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। यह बड़ी सरल-सी बात है। कई बार ऐसी आत्माएं अपने स्वजनों से खुद भी संबंध स्थापित करने की चेष्टा करती हैं। हम घबड़ा जाते हैं उससे, हम परेशान हो जाते हैं उससे। जिनको हमने बहुत प्रेम किया है, उनको भी हम अशरीर देखकर प्रेम करने को राजी न होंगे। जिन्हें हमने बहुत चाहा है, वे भी कल अगर शरीर के बिना हमारे द्वार पर उपस्थित हो जाएं तो हम दरवाजा बंद करके पुलिस को चिल्लाएंगे कि हमें बचाओ! क्योंकि हमने शरीर को ही पहचाना है। उससे गहरी तो हमारी कोई पहचान नहीं है।

जो आत्माएं शरीर के बाहर हैं, लेकिन नए जन्मों की तलाश में हैं, उनसे संबंध स्थापित करना बहुत सरल-सी बात है। न उसमें “प्रोजेक्शन’ का सवाल है, न उसमें उनके प्रकट होने का सवाल है, सिर्फ उनके पास शरीररूपी यंत्र नहीं रहा, बाकी उनके पास सारे यंत्र हैं। इसलिए आपको उनसे संबंध स्थापित करने का थोड़ा-सा खयाल हो तो बड़ी आसानी से कर सकते हैं। यहां हम इतने लोग बैठे हैं, यहां ऐसा नहीं है कि हम इतने ही लोग बैठे हैं। जितने दिखाई पड़ते हैं, उतने तो बैठे ही हैं, जो नहीं दिखाई पड़ते हैं वे भी मौजूद हैं, और उनसे अभी तत्काल, अभी संबंध स्थापित किया जा सकता है। सिर्फ आपको “रिसेप्टिव’ होने की जरूरत है। कमरा बंद कर लें और तीन आदमी कमरे में सिर्फ आंख बंद करके, तीनों हाथ जोड़कर बैठ जाएं, और इतनी ही प्रार्थना कर लें कि इस कमरे में कोई आत्मा हो तो वह अपनी सूचनाएं दे। आप जो सूचनाएं उसको कह दें, वह देना शुरू कर देगी। आप इतना ही कह दें कि यह टेबल पर जो पेपरवेट रखा है, यह उछलकर जवाब देने लगे, तो आप दो-चार दिन में पाएंगे कि आपका पेपरवेट उछलकर जवाब देने लगा। आप यह कह सकते हैं कि दरवाजे पर खटखट करके आवाज दे वह आत्मा, तो दरवाजे पर आवाज हो जाएगी। फिर इसको आप आगे बढ़ा सकते हैं। यह बहुत कठिन नहीं है। क्योंकि आत्माएं चौबीस घंटे चारों तरफ मौजूद हैं। और ऐसी आत्माएं भी चारों तरफ मौजूद हैं जो हमेशा “विलिंग’ हैं, जो अगर आप कुछ कहें तो करने को सदा तत्पर हैं। जो बड़ी उत्सुक हैं कि आप किसी तरह का संबंध उनसे स्थापित करें। जो “कम्यूनिकेशन’ के लिए बड़ी आतुर हैं। जो कुछ कहना चाहती हैं, लेकिन उनको कहने का उपाय नहीं मिल रहा है। क्योंकि उनके और आपके बीच शरीर का ही “कम्यूनिकेशन’ का माध्यम था, वह टूट गया है और दूसरे माध्यम का हमें कोई पता नहीं है। इसमें अड़चन नहीं है। यह बहुत सीधी-सी, सरल-सी, प्रेतात्म-विद्या का हिस्सा है।

यह जो पूछा गया है कि क्या, जैसा कहा जाता है, एक शरीर से आत्मा दूर जाकर वापस लौट आ सकती है? बिलकुल ही लौट आ सकती है। जा भी सकती है। क्योंकि शरीर से हमारा होना, शरीर में हमारा होना है। उससे बाहर की यात्रा सदा संभव है। उसके अपने मार्ग, अपनी विधियां हैं। शरीर के बाहर हुआ जा सकता है, यात्रा की जा सकती है, दूर तक जाया जा सकता है, वापस लौटा जा सकता है। कई बार आकस्मिक रूप से भी वैसा हो जाता है। जो आपको कुछ पता नहीं होता। ध्यान के किसी गहरे क्षण में आप अचानक कई बार ऐसा अनुभव कर पाएंगे कि आपको लगेगा आप शरीर के बाहर हो गए हैं और अपने ही शरीर को देख रहे हैं। फिर उस सबके विस्तार हैं, पर वह अलग बात है। उस पर कभी अलग ही हम इकट्ठे मिलें, तो प्रेतात्म-विद्या पर सारी बात की जा सकती है।

“भगवान श्री, रहस्य-विद्या के अतिरिक्त बौद्धिक स्तर पर भी आत्मा को समझने का और पुनर्जन्म का कोई प्रमाण है? यानी दार्शनिक रूप से भी क्या हम इसे सिद्ध कर सकते हैं, बिना साधना में गए, कि आत्मा है और पुनर्जन्म होता है?

भगवान श्री, जो आत्मा होश में मरती है, उनको भी पता रहता है पूर्व-जन्म का। इन प्रेतात्माओं को जो पता चलता है अपने पूर्वजन्म का, तो क्या ये सब होश में मरे हुए होते हैं?’

जो व्यक्ति मरता है, उसका सिर्फ शरीर ही मरता है, उसका चित्त नहीं मरता। उसका मन नहीं मरता, वह उसके साथ जाता है। और थोड़े समय तक, जैसे हम सुबह जब स्वप्न से जागते हैं तो थोड़े समय तक स्वप्न याद रहता है, दोपहर होते-होते तिरोहित हो जाता है। सांझ होते-होते कुछ याद नहीं रहती कि क्या स्वप्न था। जब लेकिन स्वप्न से हम एकदम उठते हैं तब स्वप्न का पिछला हिस्सा थोड़ा-सा हमें याद होता है, हालांकि स्वप्न हमने बेहोशी में देखा है। स्वप्न हमने होश में नहीं देखा। लेकिन जब नींद टूटने के करीब होती है तो थोड़ा-सा होश आने लगता है। और उस होश में जितना स्वप्न का अंकन, जितने भी संस्कार छूट जाते हैं, वे हमें जागने पर याद रहते हैं। लेकिन दोपहर होते-होते दोपहर की धूप खिलते-खिलते वे सब विदा हो जाते हैं, सांझ को हमें कोई स्वप्न याद नहीं रह जाता।

प्रेतात्मा, जैसे ही कोई व्यक्ति शरीर को छोड़ता है, थोड़े समय तक–और यह प्रत्येक व्यक्ति की याददाश्त का समय भिन्न-भिन्न होगा–उसे थोड़े समय तक अपने स्वजन, अपने प्रियजन याद रहते हैं। इन स्वजन और प्रियजनों को भुलाने के लिए बहुत उपाय किए गए हैं। आदमी मरा नहीं कि हम उसकी लाश को तत्काल मरघट ले जाना चाहते हैं। हम उसकी “आइडेंटिटी’ को तत्काल नष्ट करना चाहते हैं। क्योंकि अब कोई अर्थ नहीं है कि वह हमें याद रखे। और यह शरीर जितनी देर रखा जा सके, उतनी देर तक वह हमें याद रख सकेगा, क्योंकि इसी शरीर के माध्यम से उसकी सारी स्मृतियां हमसे हैं। यह शरीर बीच का जोड़ है। इसको हम ले जाते हैं। एकदम से आदमी मरता है तो थोड़ी देर तक तो उसे पता ही नहीं चलता है कि मैं मर गया हूं। क्योंकि भीतर तो कुछ मरता नहीं। थोड़ी देर तक तो उसे ऐसा ही अनुभव होता है कि क्या कुछ गड़बड़ हो गई, शरीर अलग मालूम पड़ रहा है, मैं अलग हो गया हूं! हां, जो लोग ध्यान में गए हैं, उन्हें यह तकलीफ नहीं होती है, क्योंकि इस अनुभव से वह पहले गुजर गए होते हैं। मरने पर अधिकतम लोगों को बड़ी बिबूचन पैदा होती है। पहली बिबूचल यही पैदा होती है कि यह मामला क्या है! ये लोग रो क्यों रहे हैं, ये चिल्ला क्यों रहे हैं कि मैं मर गया, क्योंकि मैं तो हूं। सिर्फ इतना ही मालूम होता है कि शरीर अलग पड़ा है जो मेरा था, और मैं जरा अलग मालूम पड़ रहा हूं, और तो कुछ मर नहीं गया है।

इसी शरीर के माध्यम से हमारा सारा “एसोसिएशन’ है स्मृतियों का, इसलिए हम तत्काल मरघट ले जाते हैं और शरीर को जला देते हैं या गड़ा देते हैं। उस शरीर के टूटते ही उस आदमी के स्मृतियों के जाल हमसे एकदम विच्छिन्न हो जाते हैं। और जैसे स्वप्न से उठा आदमी थोड़ी देर में स्वप्न भूल जाता है, ऐसा मृत्यु से उठा आदमी या जिसे हम जीवन कहते हैं उससे उठा हुआ आदमी थोड़ी देर में सब भूल जाता है। वह कितनी देर में भूल जाता है उसके हिसाब से हमने दिन तय किए हैं। जिनकी स्मृति बहुत कमजोर है वे तीन दिन में भूल जाते हैं। जिनकी स्मृति बहुत अच्छी है, वे तेरह दिन में भूल जाते हैं। यह बहुत सामान्य हिसाब से तय किए हुए दिन हैं कि तीन दिन में भूल जाएंगे कि तेरह दिन में भूल जाएंगे, लेकिन यह आमतौर से है। लेकिन प्रगाढ़ से प्रगाढ़ स्मृति का आदमी एक वर्ष में भूल जाता है। इसलिए एक वर्ष तक मृतक के कुछ संस्कार हम जारी रखते हैं। वह एक वर्ष तक हम उसके साथ थोड़ा-सा संबंध जारी रखते हैं, क्योंकि रह सकता है संबंध। लेकिन सामान्यतया ऐसा नहीं होता है। तीन दिन में सब टूट जाता है। कुछ का तो और भी जल्दी टूट जाता है। वह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर होगा। साल भर बहुत कम आत्माएं बचती भी हैं आत्मा रूप में। बहुत जल्दी शीघ्र नए जन्म ग्रहण कर लेती हैं।

होश में जो मरता है, वह तो कभी मरता ही नहीं, पहली बात। जो मरते वक्त पूरे होश में है, वह तो कभी मरता ही नहीं, क्योंकि वह जानता है कि सिर्फ शरीर छूटा। और जो इतने होश में है, उसका कोई न स्वजन है, न कोई प्रियजन है, न कोई पराया जन है। जो इतने होश में है, वह स्मृतियों के बोझ से लदता नहीं। जो इतने होश में है, उसकी तो बात ही नहीं है। और जो मृत्यु में होश से मरता है, वह अगले जन्म को होश से पा लेता है। जैसे मैंने कहा कि मृत्यु के बाद भी थोड़े दिन तक हमें स्मरण होता है जहां से हम आए, जन्म के बाद भी बच्चे को थोड़े दिन स्मरण होता है जहां से वह आया। यह प्रेतात्म-जीवन का जो अनुभव बीच में गुजरा, उसकी स्मृतियां उसके पास होती हैं। लेकिन वह धीरे-धीरे खो जाती हैं। और इसके पहले कि वाणी उसे उपलब्ध होती है, खो जाती हैं। कभी-कभी बहुत ही तीव्र स्मृति वाले बच्चों को वे स्मृतियां शेष रह जाती हैं, जो कि उसके बोलने के बाद भी जारी रहती हैं। वह “रेयर’ घटना है। स्मृति की बहुत ही अनूठी संभावना के कारण ऐसा होता है।

एक सवाल इस संबंध में पूछा गया है कि क्या रहस्यात्मक अनुभूति के अतिरिक्त भी पुनर्जन्म का कोई दार्शनिक प्रमाण है?

दार्शनिक प्रमाण तो सिर्फ तार्किक होते हैं। तर्क के आधार पर होते हैं। और तर्क की एक खराबी है कि जितने वजन का तर्क पक्ष में दिया जा सकता है, ठीक उतने ही वजन का तर्क विपक्ष में दिया जा सकता है। तर्क जो हैं, उसको अगर ठीक से कहें तो जो जानते हैं वे तर्क को वेश्या कहते हैं, किसी के भी साथ खड़ा हो सकता है। उसका कोई अपना निजी मंतव्य तर्क का नहीं है।

तो जिन लोगों ने तर्क और दर्शन से सिद्ध करने की कोशिश की है कि पुनर्जन्म है, उनके विपरीत ठीक उतने ही वजन के तर्कों से सिद्ध किया जा सका है कि पुनर्जन्म नहीं है। तर्क जो है वह “सॉफिस्ट्री’ है। “साफिस्ट्री’ का मतलब कि तर्क जो है वह वकील की तरह है। उसका कोई अपना कोई हिसाब नहीं है। किसने उसको किया हुआ है अपनी तरफ, उसकी तरफ वह बोलता है। वह अपनी पूरी ताकत लगाता है। इसलिए तर्क से कभी कोई निष्कर्ष निष्पन्न नहीं होता। बहुत निष्कर्ष निष्पन्न होते हुए मालूम होते हैं, होता कभी नहीं। क्योंकि ठीक विपरीत तर्क से इतने दूर तक पक्ष में जाता है तो उतनी ही दूर तक विपक्ष में जा सकता है। इसलिए दर्शनशास्त्र कभी तय नहीं कर पाएगा कि पुनर्जन्म है या नहीं। बातें कर पाएगा। हजारों साल तक बातें कर पाएगा, लेकिन कुछ सिद्ध नहीं होगा।

तर्क के साथ एक और मजा है कि जिसे आप सिद्ध करते हैं, उसे आप पहले ही माने होते हैं। तर्क के साथ एक मजा है कि जिसे आप सिद्ध करते हैं, उसे आपने पहले ही माना होता है, तर्क तो आप पीछे उपयोग में करते हैं। “एज्यूम’ किया होता है, वह आपका “प्री-सपोजीशन’ होता है।

एक मित्र हैं, वे एक बड़े प्रोफेसर हैं और किसी विश्वविद्यालय में पुनर्जन्म पर खोज का कार्य करते हैं। कोई मुझसे उनको मिलाने लिवा आया। और उन्होंने मुझसे मिलते ही कहा कि मैं वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है। तो मैंने उनसे कहा कि यह तो फिर वैज्ञानिक न हो पाएगा, क्योंकि क्या सिद्ध करना चाहते हैं यह आपने पहले ही पक्का किया हुआ है। वैज्ञानिक का मतलब यह होता है कि आप ऐसा कहिए कि मैं जानना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है या नहीं। आप कहते हैं, मैं सिद्ध करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है। तो सिद्ध होना तो पहले ही है आपके मन में। पुनर्जन्म है, यह तो पक्का ही है। अब रह गया यह कि दलीलें इकट्ठी करनी हैं, तो दलीलें इकट्ठी की जा सकती हैं। एक आदमी सिद्ध करना चाहता है कि पुनर्जन्म नहीं है। यह तो पक्का ही है। अब रह गईं दलीलें, दलीलें इकट्ठी की जा सकती हैं। और यह जगत इतना अदभुत है और इतना जटिल है कि यहां सब तरह के पक्षों के लिए दलीलें उपलब्ध हो जाती हैं। इसमें कोई कठिनाई नहीं है।

दर्शन कभी सिद्ध नहीं कर पाएगा कि पुनर्जन्म है या नहीं है। तो आपके सवाल को थोड़ा और हटाकर कहें। ऐसा पूछें कि क्या विज्ञान कुछ कह सकता है कि पुनर्जन्म है या नहीं?

दर्शन तो कभी नहीं कह पाएगा। वह कह रहा है पांच हजार साल से, उससे कुछ हल नहीं होता। जो मानते हैं, है, वे माने चले जाते हैं। जो मानते हैं, नहीं है, वे नहीं मानते चले जाते हैं। और वह वाला कभी नहीं है वाले को “कनविंस’ नहीं कर पाता। नहीं है वाला कभी है वाले को “कनविंस’ नहीं कर पाता। यह बड़े मजे की बात है कि जो “कनविंस’ पहले से ही नहीं है वह कभी “कनविंस’ होता ही नहीं। तर्क के साथ तर्क की यह नपुंसकता है, तर्क की यह “इमपोटेंस’ है कि आप सिर्फ उसी को “कनविंस’ कर सकते हैं जो “कनविंस’ था ही। अब उसका कोई मतलब ही नहीं है। एक हिंदू को आप “कनविंस’ कर सकते हैं कि पुनर्जन्म है, क्योंकि वह “कनविंस’ है। एक मुसलमान को “कनविंस’ करने जाइए तब पता चलता है। एक ईसाई को आप “कनविंस’ कर सकते हैं कि पुनर्जन्म नहीं है, एक हिंदू को “कनविंस’ करने जरा जाइए तो पता चलता है। जो पहले से ही राजी है किसी सिद्धांत के लिए, तर्क बस उसी के लिए खेल कर पाता है और कुछ नहीं कर पाता है। नहीं, सवाल को कुछ और तरह से पूछिए कि क्या वैज्ञानिक ढंग से कुछ कहा जा सकता है कि पुनर्जन्म है या नहीं?

हां, विज्ञान कोई पक्ष लेकर नहीं चलता। दर्शन पक्ष लेकर चलता रहता है, तर्क पक्ष लेकर चलता रहता है। असल में वैज्ञानिक चित्त का मतलब ही यह है कि जो निष्पक्ष है और जिसके लिए दोनों “आल्टरनेटिव’ खुले हैं, जिसने कभी “क्लोज नहीं किया। जो कहता है कि यह भी हो सकता है, वह भी हो सकता है, हम खोजते चलते हैं। तो विज्ञान जब से खोज करना शुरू किया है–ज्यादा देर नहीं हुई, अभी थोड़े ही दिन हुए कोई पचास साल, जब यूरोप और अमरीका में “साइकिक सोसाइटीज’ निर्मित हुई और उन्होंने थोड़ा-सा काम करना शुरू किया। अभी कोई पचास साल ही हुए जबकि कुछ थोड़े-से बुद्धिमान लोग, जिनके पास वैज्ञानिक की बुद्धि है–रहस्यवादी का नहीं सवाल–रहस्यवादी तो बहुत दिन से कहता है कि है और रहस्यवादी लेकिन प्रमाण नहीं दे पाता, क्योंकि वह कहता है मैं जानता हूं; तुम भी जान सकते हो, लेकिन मैं तुम्हें नहीं जना सकता। तो रहस्यवादी कहता है कि मेरे सिर के दर्द जैसा है, मुझे पता है कि है। तुम्हारे सिर में दर्द होगा, तुम्हें पता चल जाएगा। लेकिन मेरे सिरदर्द का पता तुम्हें नहीं चल सकता। और मैं कितनी ही चेहरे की आकृतियां बनाऊं, छाती पीटकर रोऊं, तुम फिर भी कह सकते हो कि पता नहीं बनकर कर रहे हो कि सच में दर्द हो रहा है? इसको हमेशा कहा जा सकता है।

पिछले पचास वर्षों में यूरोप में कुछ थोड़े-से लोग हुए–ओलिवर लाज, ब्रॉड, राइन–और इन सारे लोगों ने कुछ दिशाएं खोजनी शुरू कीं। ये सारे वैज्ञानिक चित्त के लोग हैं, जिनकी कोई मान्यता नहीं है। इन्होंने कुछ काम करना शुरू किया है, वह काम धीरे-धीरे प्रामाणिक होता जा रहा है। इन्होंने जो काम किया है, उसकी निष्पत्तियां गहरी हैं; और उसकी निष्पत्तियां पुनर्जन्म होता है, इस दिशा में प्रगाढ़ होती जाती हैं, नहीं होता है, इस दिशा में क्षीण होती जाती हैं। जैसे एक तो प्रेतात्माओं से संबंध स्थापित किए जा सके हैं बड़ी तरकीबों से, बड़ी व्यवस्थाओं से और सब तरह के वैज्ञानिक ढंगों से कोशिश की जा सकी है कि कोई धोखा नहीं। बहुत-से मामले धोखे के सिद्ध हुए हैं। लेकिन उनका कोई सवाल नहीं है। अगर एक मामला भी धोखे का सिद्ध नहीं होता, तो भी प्रामाणिक है।

तो प्रेतात्माओं से संबंध स्थापित किए गए हैं वैज्ञानिक ढंग से और उन संबंधों के आधार पर सूचना मिलनी शुरू हो गई कि आत्मा शरीरों को बदलती है। कुछ “साइकिक सोसाइटीज’ के सदस्यों ने जिंदगी भर काम किया, मरते वक्त वह वायदा करके गए कि मरने के बाद हम पूरी कोशिश करेंगे सूचना देने की। उसमें दो-एक लोग सफल हो सके। और मरने के बाद उन्होंने कुछ निश्चित सूचनाएं दीं, जिसका वायदा उन्होंने मरने के पहले किया था। उनसे कुछ प्रमाण इकट्ठे हुए हैं।

और, मनुष्य के व्यक्तित्व में कुछ और नई दिशाओं का अनुभव, जैसे “टैलीपैथी’ का, “क्लरवायंस’ का, दूर-श्रवण का, दूर-दृष्टि का और दूर-संवाद का, इस पर काफी काम हुआ है। हजार मील दूर बैठे हुए आदमी को भी मैं यहां बैठकर संदेश भेज सकता हूं, बिना किसी बाह्य उपकरण का उपयोग किए। तब इसका मतलब यह होता है कि शरीर ही नहीं, अशरीरी ढंग से भी संवाद संभव है।

“यह मन ही हो, आत्मा न हो, इसकी भी तो संभावना है!’

उसकी बात करते हैं। वह मन भी हो, तो भी शरीर से भिन्न कुछ होना शुरू हो जाता है। और शरीर से भिन्न होना एक बार विज्ञान के खयाल में आना शुरू हुआ, तो बहुत दूर नहीं है आत्मा का होना। क्योंकि झगड़ा जो है वह यही है कि शरीर से भिन्न भीतर कुछ है? एक बार इतना भी तय हो जाए कि शरीर के भीतर शरीर से भिन्न मन भी है, तो भी यात्रा शुरू हो गई। और विज्ञान की यात्रा ऐसे ही शुरू होगी। पहले मन ही होगा, फिर धीरे-धीरे ही हम आत्मा तक विज्ञान को ले जा सकें, इशारे करवा सकें। लेकिन मन है।

अभी एक आदमी है, टेड नाम का एक व्यक्ति है। जिसके बड़े अनूठे अनुभव “साइकिक सोसाइटीज’ में हुए हैं। अनूठे अनुभव उसके ये हैं कि वह आदमी अगर न्यूयार्क में बैठा है, उसने मुझे कभी नहीं देखा, मेरा कोई चित्र नहीं देखा, मेरे संबंध में कभी सुना नहीं, लेकिन आप अगर उससे कहें कि वह मेरे संबंध में सोचे, विचार करे, तो वह आंख बंद कर लेगा और वह मेरे संबंध में ध्यान करेगा और जब आधे घंटे बाद वह आंख खोलेगा, तो उसकी आंख में से मेरा चित्र उतारा जा सकता है। उसकी आंख से, कैमरा उसकी आंख से मेरा चित्र उतार लेगा। और इस तरह के हजारों चित्र उतारे गए हैं और फिर मेरे असली चित्र से जब मिलाया जाता है तब बड़ी हैरानी होती है। करीब-करीब, बस “फेंटनेसस’ का फर्क होता है, इससे ज्यादा फर्क नहीं होगा। इतना साफ नहीं होता, लेकिन होता यही है।

इसका मतलब क्या है?

इसका मतलब यह है कि उसकी आंख किसी-न-किसी तरह मुझे देखने में समर्थ हो गई है। न केवल देखने में समर्थ हो गई है, बल्कि जैसा मेरे सामने आप मुझे देखें तो आपकी आंख में मेरा चित्र बनता है, ऐसे ही हजारों मील फासले पर अज्ञात अपरिचित आदमी का चित्र भी उसकी आंख में बन गया है। इसके हजारों प्रयोग हुए हैं और हजारों चित्र हजारों तरह के उस आदमी की आंख में पकड़े गए हैं।

“टेलीपैथी’ के तो बहुत प्रयोग हो गए हैं। और अभी चूंकि “स्पेस ट्रेवेल’ शुरू हुई, और चांद पर जाना है–चांद पर तो हम चले गए–कल मंगल पर जाना है, और फिर लंबी यात्राएं शुरू होंगी, जिनमें यात्री वर्षों के लिए जाएंगे और वर्षों बाद लौटेंगे। मंगल पर भी एक वर्ष लगेगा आने-जाने में। इस एक वर्ष की लंबी यात्रा में अगर यंत्रों ने जरा-सी भी चूक कर दी, तो फिर हमें उन यात्रियों से कभी कोई संबंध नहीं हो सकेगा कि वे कहां गए और क्या हुआ! बचे कि नहीं बचे! अनंत काल तक फिर हमें उनका कोई पता नहीं चलेगा। वे हमसे किसी तरह का “कम्यूनिकेशन’ नहीं कर पाएंगे। इसीलिए रूस और अमरीका दोनों, जहां अंतरिक्ष की यात्रा पर गहन शोध चलती है, “टेलीपैथी’ में उत्सुक हो गए हैं। क्योंकि अगर किसी दिन स्पेस यात्री का यंत्र खराब हो जाएगा और वह रेडियो यंत्रों के द्वारा हमें खबर न दे पाए, तो “टेलीपैथी’ से खबर दे सके। एक “आल्टरनेटिव’ चाहिए। नहीं तो, यंत्र का कोई भरोसा ही नहीं है।…इधर हम “आल्टरनेटिव’ रखे हैं न, यह बैटरी सेट रखे हुए हैं। यंत्र का कोई भरोसा नहीं है। वह कभी भी…।

लेकिन अभी साधारण यंत्र का भरोसा न भी हो तो कोई खतरा नहीं है, लेकिन यात्री जो अंतरिक्ष में गया है, अगर उसके यंत्र हमें खबर न दे पाएं, या हम उसे खबर न दे पाएं, हमारा संबंध एक बार टूट जाए, तो फिर हमें कुछ पता नहीं चलेगा कि वह कहां गया? है भी अब जगत में या नहीं है? वह अश्वत्थामा की कथा हो जाएगी, उसका फिर कभी पता नहीं चलेगा। वह फिर कभी मरेगा भी नहीं। उसके बाबत हम फिर कुछ भी नहीं जान सकेंगे, कभी। तो वह कोई खबर दे सके यंत्र के अतिरिक्त। इसलिए रूस और अमरीका दोनों ही “टेलीपैथी’ में भारी उत्सुक हैं। और दोनों ने गहरे प्रयोग किए हैं।

रूस में एक आदमी है फयादेव। उस आदमी ने हजारों मील दूर तक संदेश पहुंचाने का प्रयोग सफलता से किया। बैठकर वह संदेश भेजेगा किसी व्यक्ति विशेष को और उस व्यक्ति विशेष को उसके भीतर से संदेश आता हुआ मालूम पड़ेगा।

तो विज्ञान धीरे-धीरे आदमी शरीर ही नहीं है, उसके भीतर कुछ अशरीरी भी है, इस दिशा में कदम उठा रहा है। और एक बार यह तय हो जाए कि आदमी के भीतर कुछ अशरीरी भी है, तो पुनर्जन्म का द्वार खुल जाएगा। दर्शन से जो नहीं संभव हो सका, रहस्यवादी जो संभव नहीं कर सके सबको समझाना, वह विज्ञान संभव कर पाएगा। वह संभव हो सकता है। वह होता जा रहा है।

“भगवान श्री, ऐसा प्रयोग हुआ है कि “ग्लॉस कास्केट’ में मरते हुए आदमी को सुलाया गया। इस पर आप कुछ कहने जैसा मानते हैं?’

ऐसा प्रयोग बहुत जगह करने की कोशिश की गई, लेकिन परिणामकारी नहीं हुआ। ऐसा खयाल है–स्वाभाविक है, क्योंकि विज्ञान जब सोचता है तो पदार्थ की भाषा में सोचता है–अगर एक आदमी मरता है और शरीर के अतिरिक्त कुछ और है और वह निकल जाता है, तो “वेट’ कम हो जाना चाहिए। लेकिन यह हो सकता है कि जो निकल जाता है वह “वेटलेस’ हो। उसका “वेट’ होना ही चाहिए! या वह इतने कम “वेट’ का हो कि हमारे पास कोई मानदंड न हो। जैसे कि सूरज की किरणें हैं, इसमें कोई “वेट’ है? है “वेट’। सूरज की किरणें हैं ये। इनको तराजू पर तौलिए। एक तराजू पर अंधेरा रखिए, एक पलड़े पर रोशनी रखिए। उसको थोड़ा नीचे जाना चाहिए, अगर सूरज की किरणें हैं। वह नहीं जाता। सूरज की किरणें नहीं होनी चाहिए, क्योंकि “वेट’ नहीं है। लेकिन उनमें “वेट’ है। अगर एक वर्गमील की सब सूरज किरणें इकट्ठी की जाएं, तो एक तोले का “वेट’ देती हैं। लेकिन वह बड़ा मुश्किल मामला है! अब कितनी आत्मा में कितना “वेट’ होगा, अभी देर है।

तो वह प्रयोग किया गया, प्रयोग कई जगह किया गया, क्योंकि स्वाभाविक हमारा खयाल है कि आदमी मरता है, तो मरते आदमी को कांच के “कास्केट’ में बंद कर दिया सब तरफ से, कोई रंध्र, द्वार नहीं रहने दिया, वह मर गया! जितना वजन जिंदा में था उससे कुछ तो कम हो ही जाना चाहिए, अगर कुछ उसमें से निकल गया, एक। दूसरा, जो निकला है, उसके निकलने के लिए भी कांच टूट जाना चाहिए, क्योंकि कोई रंध्र, द्वार नहीं है। मगर दोनों संभव नहीं हुए। न तो कांच टूटा, क्योंकि सभी चीजों के निकलने के लिए कांच बाधा नहीं है। सूरज निकल जाता है, किरणें निकल जाती हैं। हड्डी और लोहा भी बाधा नहीं है, “एक्स-रे’ की किरण निकल जाती है। तो आदमी को क्यों झंझट डालते हो कि उसको निकलने को कोई चीज तोड़नी पड़े। अब “एक्स-रे’ की किरण आपकी हड्डी और छाती के भीतर चली जाती है, हड्डी को पार करके चित्र ले आती है और कहीं कुछ टूटता नहीं, कहीं कोई छेद नहीं हो जाता। तो जब “एक्स-रे’ की बहुत स्थूल किरण भी कांच को बिना तोड़े, हड्डी को बिना तोड़े, लोहे की सींखचों को बिना तोड़े, लोहे की दीवाल को पार कर लेती है, तो आत्मा को ही कौन-सी कठिनाई हो सकती है। “लाजिकली’ कोई कठिनाई नहीं मालूम पड़ती। और जगत में बहुत कुछ “वेटलेस’ है। असल बात यह है कि जिसको हम “वेट’ कहते हैं, वह बहुत गहरे में हम समझें तो “वेट’ नहीं है, सिर्फ “ग्रेवीटेशन’ है। मगर इसको जरा गणित की तरह समझना पड़ेगा।

आपका वजन है यहां समझ लीजिए कि चालीस किलो, तो चांद पर आपका वजन चालीस किलो नहीं होगा। आप बिलकुल यही होंगे। चांद पर आपका वजन आठ गुना कम हो जाएगा। इसलिए आप अगर यहां छः फीट ऊंचे कूद सकते हैं, तो चांद पर आठ गुना ज्यादा कूद सकेंगे। क्योंकि चांद की जो कोशिश है, “ग्रेवीटेशन’ है, वह पृथ्वी से आठ गुना कम है। और सब वजन जमीन के खिंचाव का वजन है। अब यह हो सकता है कि जमीन आत्मा को न खींच पाती हो। यह कोई जरूरी नहीं है कि “ग्रेवीटेशन’ जो है वह आत्मा को खींचता हो। तो फिर वजन नहीं होगा। अगर हम कभी किसी दिन ऐसी जगह बना लें जो “नॉन-ग्रेवीटेशनल’ हो, वहां किसी का वजन नहीं होगा।

चांद पर भी जो यात्री जा रहे हैं, उनको जो सबसे महंगा और खतरनाक अनुभव होता है, वह “वेटलेसनेस’ का है। जैसे ही पृथ्वी का घेरा छूटता है–दो सौ मील तक पृथ्वी खींचती है, दो सौ मील तक पृथ्वी की “ग्रेवीटेशनल फील्ड’ है, दो सौ मील तक पृथ्वी की कशिश आदमी को खींचती है, दो सौ मील के बाद पृथ्वी के खींचने का घेरा समाप्त हो जाता है–उसके बाद आदमी एकदम “वेटलेस’ हो जाता है। इसलिए अंतरिक्ष में जाने वाले यात्री को अगर जरा भी उसका पट्टा छूट गया जो कमर से बंधा है, तो वह फुग्गे की तरह यान में लटकेगा। फुग्गे की तरह वह, सिर उसका ऊपर जाकर यान के छत से लग जाएगा। और फिर उसको नीचे आना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि नीचे “ग्रेवीटेशन’ के बिना आना बहुत मुश्किल है, उसको खींचना पड़ेगा।

तो आत्मा पर “ग्रेवीटेशन’ लागू होता ही हो तो, तो ये प्रयोग ठीक हैं, पेरिस या कहीं भी किए जाते हैं, अन्यथा ठीक नहीं हैं। मेरी अपनी समझ यह है कि पदार्थ पर जो नियम काम करते हैं, वह पदार्थ की सघनता के कारण ही करते हैं। आत्मा को अगर हम ठीक से समझें तो विरलता का अंत है वह। इसलिए उस पर कोई नियम काम नहीं करते। वह नियम के बाहर हो जाती है। और जब तक हम नए नियम से उस पर खोजने नहीं जाते, जब तक हम पदार्थ के नियमों को ही आधार बनाकर आत्मा के संबंध में खोज करते रहेंगे, तब तक विज्ञान का उत्तर आत्मा के संबंध में इनकार का रहेगा। वह कहेगा, नहीं है। लेकिन यह जो “साइकिक सोसाइटीज’ की मैंने बात की, यह जो राइन और मायर्स के प्रयोग की मैंने बात की, यह जो ओलिवर, लाज और ब्रॉड की चर्चा की, ये सारे लोग विज्ञान की प्रतिष्ठित पदार्थ को नापने की पद्धति को छोड़कर आत्मा के अज्ञात मापदंडों की खोज कर रहे हैं। इनसे आशा बंधती है कि कुछ सूत्र धीरे-धीरे निःसृत होंगे और विज्ञान उस बात की गवाही दे पाएगा, जिस बात की गवाही रहस्यवादियों ने सदा से दी है लेकिन प्रमाण नहीं दे पाए हैं।

“आपने कहा कि अर्जुन कृष्ण के प्रति समर्पित हुए इसलिए यंत्रवत न होकर स्वतंत्र हुए। विवेकानंद रामकृष्ण के प्रति समर्पित होकर भी यंत्रवत रहे, आत्मवान न हो पाए, इसका क्या कारण है?’

इसके कारण हैं। रामकृष्ण और विवेकानंद के बीच का जो संबंध है, पहली तो बात गुरु और शिष्य के बीच का संबंध है। कृष्ण और अर्जुन के बीच जो संबंध है, वह गुरु-शिष्य का संबंध नहीं। दूसरी बात, कृष्ण की पूरी चेष्टा अर्जुन के द्वारा जगत को कोई संदेश देने की नहीं, विवेकानंद के द्वारा जगत तक संदेश पहुंचाने की है। कृष्ण को तो पता भी नहीं है कि वह जो कह रहे हैं वह गीता बन जाएगी। यह आकस्मिक घटना है कि वह बन गई। कृष्ण ने तो सहज ही युद्ध के स्थल पर खड़े होकर कहा होगा। यह तो पता भी नहीं होगा कि यह वक्तव्य जो है, इतना कीमती हो जाएगा और सदियों तक आदमी इस पर सोचेंगे। यह कहा तो गया था सिर्फ अर्जुन के लिए निपट, उसके सोचने के लिए था। यह नहीं था कि यह दुनिया को जाकर कहेगा। यह अर्जुन को बदलने के लिए थी यह खबर। यह उसके लिए ही था निपट। यह बड़ी “इंटीमेट’ चर्चा थी। यह दो व्यक्तियों के बीच सहज व्यक्तिगत बातचीत थी। और मेरा अपना अनुभव यह है कि इस जगत में जितना भी महत्वपूर्ण है, वह सदा “इंटीमेट डायलाग’ है। सदा। इसलिए लिखनेवाला कभी उस गहराई को उपलब्ध नहीं होता जो बोलनेवाला होता है। इसलिए दुनिया में जो भी श्रेष्ठ है, वह बोला गया है।

इधर आप हम सुबह बात करते थे–अरविंद ने कुछ भी नहीं बोला है, सब लिखा है। कृष्ण ने, क्राइस्ट ने, बुद्ध ने, महावीर ने, रमण ने, कृष्णमूर्ति ने सब बोला है। बोलने का माध्यम “पर्सनल’ है, लिखने का माध्यम “इम्पर्सनल’ है। लिखते हम किसी के लिए नहीं–पत्रों को छोड़कर। बाकी सब हम किसी के लिए नहीं लिखते। कौन है “रिसीवर’ उसका कोई पता नहीं होता। “एब्सट्रैक्ट’ है। लेकिन बोलने का माध्यम तो बड़ा व्यक्तिगत है, निजी है–हम किसी से बोलते हैं। तो कृष्ण तो अर्जुन से बोल रहे हैं सीधे। जगत का कोई सवाल नहीं है यहां। यहां दो मित्रों के बीच एक बात हो रही है। रामकृष्ण के साथ स्थिति और है। और कारण है स्थिति का। जैसा मैंने सुबह कहा, उसे थोड़ा खयाल में लेंगे तो समझ में आ जाएगा।

रामकृष्ण को अनुभव तो हुआ, लेकिन रामकृष्ण के पास वाणी बिलकुल नहीं थी। और रामकृष्ण को जीवन भर यही पीड़ा थी कि कोई मुझे मिल जाए जो वाणी दे दे। जो वह जानते थे, वह बोल नहीं सकते थे। रामकृष्ण एकदम अशिक्षित, अपढ़, शायद दूसरी बंगाली क्लॉस पता नहीं पास कि फेल। इतना उनका शिक्षण है। जान तो लिया उन्होंने बहुत, लेकिन इसको कहें कैसे! इसके लिए उनके पास शब्द नहीं, सुविधा नहीं, व्यवस्था नहीं। तो कोई चाहिए जिसके पास शब्द हों, सुविधा हो, व्यवस्था हो। विवेकानंद के पास तर्क है, वाणी है, अभिव्यक्ति है। रामकृष्ण के पास अनुभव है, तर्क नहीं है, वाणी नहीं है, अभिव्यक्ति नहीं है। रामकृष्ण के जो वक्तव्य भी हमें उपलब्ध हैं आज, वे बहुत काट-छांटकर और सुधार कर किए गए हैं। क्योंकि रामकृष्ण तो देहाती आदमी थे, वह बोलने में गाली भी दे देते थे। गाली भी बक देते थे। वह तो देहात के आदमी थे! जैसा देहात में सहज आदमी बोलता है वैसा बोलते थे। वे सब गालियां काटनी पड़ीं। मैं तो नहीं मानता कि ठीक हुआ, उनको होना चाहिए। “आथेंटिक’ होनी चाहिए “रिपोर्ट’। जो उन्होंने कहा था वैसी होनी चाहिए थी। ठीक है, वह देते थे गाली, इसकी क्या बात है! और गाली ऐसी क्या बुरी है, होना चाहिए वहां। लेकिन हमारे मन में डर लगेगा कि साधु और गाली दे रहा हो, परमहंस! उसको अलग कर दें। इसलिए बहुत काट-छांटकर रामकृष्ण को पेश करना पड़ा है।

रामकृष्ण के पास संदेश के लिए कोई सुविधा नहीं थी। इसलिए रामकृष्ण बिलकुल गूंगे थे। विवेकानंद जब रामकृष्ण के पास आए तो रामकृष्ण को आशा बंधी के यह व्यक्ति जो मेरे भीतर घटा है उसे दुनिया तक कह सकेगा। इसलिए विवेकानंद को “इन्स्ट्रूमेंट’ बनना पड़ा।

और एक घटना आपको कहूं जिससे खयाल में आ जाए।

विवेकानंद को समाधि की बड़ी आकांक्षा थी। तो रामकृष्ण ने उन्हें समाधि का प्रयोग समझाया, करवाया। रामकृष्ण महिमाशाली थे, उनकी मौजूदगी भी किसी के लिए समाधि बन सकती थी। उनके स्पर्श से भी बहुत कुछ हो सकता था। उतना जीवंत व्यक्तित्व था। जिस दिन पहली दफे विवेकानंद को समाधि का अनुभव हुआ, विवेकानंद ने क्या किया? उस आश्रम में कालू नाम का एक आदमी था। यह दक्षिणेश्वर के मंदिर के पास ही रहता था। बहुत भोला-भाला आदमी था। मंदिरों के पास जब तक भोले-भाले आदमी रहें, तभी तक मंदिरों की सुरक्षा है। जिस दिन वहां चालाक आदमी पहुंचते हैं उस दिन तो सब खराब हो जाता है। वह कालू बड़ा भोला-भाला आदमी था। उसको दिन भर पूजा में लग जाता था, क्योंकि उसके कमरे में जमाने भर के देवी-देवता थे–एकाध-दो नहीं थे। जो भी देवी-देवता मिलते थे, कालू उनको ले आते थे। उसके कमरे में कालू के लिए जगह ही नहीं बची थी, वह बाहर सोते थे। जो भी भगवान के चक्कर में पड़ेगा, एक दिन बाहर सोना पड़ेगा, क्योंकि भगवान भीतर सब जगह घेर लेता है। तो वह इतनी दिक्कत में पड़ गया था कि उसके पास सैकड?ो भगवान थे। तरहत्तरह के भगवान थे। जहां जो भगवान मिले, ले आए। अब वह सुबह से पूजा शुरू करता तो सांझ हो जाती, क्योंकि सभी की पूजा करनी पड़ती थी।

विवेकानंद ने उसे कई दफे समझाया कि कालू, तू बड़ा नासमझ है, फेंक इन सबको। भगवान तो अदृश्य है। वह तो सब जगह मौजूद है। वह कहता होगा, पहले हम अपने कोठे से निपट लें। बाकी वह बेचारा सीधा-साधा आदमी था। विवेकानंद ने बहुत उसको तर्क दिए। लेकिन सीधे-सादे आदमी को तर्क भी नहीं दिए जा सकते। वह हंसता था, वह कहता था ठीक कहते हो, लेकिन अब जिनको ले ही आए, अब इनका स्वागत-सत्कार तो करना ही पड़ेगा। कई दफे उसको कहा कि फेंक, ये कहां के अत्थर-पत्थर इकट्ठे कर रखे हैं–कहीं छोटे शंकर, बड़े शंकर, न-मालूम क्या-क्या, यह क्या तूने किया है? और दिन भर इसी में गंवाता है, किसी को टीका लगता है, कभी घंटा बजाता है, तेरा समय इसमें जाया हो रहा है। वह कालू कहता कि औरों का समय जिसमें जाया हो रहा है, मेरा इसमें जाया हो रहा है, और तो कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा है। बाकी हर्ज क्या रहेगा आखिर में!

जिस दिन विवेकानंद को पहला दफा समाधि लगी, अचानक भीतर शक्ति की ऊर्जा का जन्म हुआ और विवेकानंद को जो पहला खयाल आया वह यह आया कि अगर इस ऊर्जा के क्षण मैं कह दूं कालू को कि फेंक अपने भगवानों को, तो रोक नहीं सकेगा। “टेलीपैथिक’ हुआ। उन्होंने ऐसा सोचा, उधर बेचारे कालू, सीधे-सादे आदमी को संदेश मिल गया। उसने बांधी पोटली अपने सब भगवानों की और चला गंगा की तरफ फेंकने। यह तो मन में ही सोचा था विवेकानंद ने, यह तो अपने कमरे में बंद थे, लेकिन जब ऊर्जा जगी–तो यह समझ ही लेना कि जब ऊर्जा जगे, तो भूलकर भी उसका उपयोग मत करना। अन्यथा भारी नुकसान होता है। उसे जगने देना, बस उसका जगना ही उसका उपयोग है। उसका कोई उपयोग मत करना। विवेकानंद ने तत्काल उपयोग किया और जिस कालू को वह तर्क से नहीं समझा सके थे, उसके साथ पीछे के रास्ते से उपद्रव किया। उनको खयाल भी नहीं था, उन्होंने सिर्फ सोचा ही कि अगर इस वक्त मैं कालू को कह दूं कि उठ कालू और फेंक सब, तो इतनी ऊर्जा मेरे भीतर है कि अब कालू बच नहीं सकेगा। यह उन्होंने सोचा ही। उधर कालू ने अपना पूजा-मूजा कर रहा था, उसने सब पोटली बांधी, सब भगवानों को कंधे पर टांगकर वह बाहर निकला। रामकृष्ण ने उसे कहा कि पागल, अंदर ले जा। उसने कहा कि सब बेकार है। रामकृष्ण ने कहा, कालू, यह तू नहीं बोलता है। यह कोई और बोल रहा है। तू भीतर चल। मैं उसको देखता हूं शैतान को जो बोल रहा है।

वह भागे गए, दरवाजा तोड़ा और विवेकानंद को हिलाया और कहा कि बस, यह तुम्हारी आखिरी समाधि हुई, अब आगे तुम्हें समाधि की अभी जरूरत नहीं है। और यह कुंजी मैं अपने पास रखे लेता हूं। यह तुम्हारी समाधि की चाभी मैं अपने पास रखे लेता हूं। मरने के तीन दिन पहले लौटा दूंगा। विवेकानंद बहुत चिल्लाए और रोए कि आप यह क्या करते हैं, मुझे समाधि दें। रामकृष्ण ने कहा कि अभी तुझसे और बहुत काम लेने हैं। अभी तू समाधि में गया तो बिलकुल चला जाएगा। और वह काम जो चाहिए वह नहीं हो पाएगा। अभी तुझे मैंने जाना है वह सारी दुनिया तक पहुंचाना है। और तू मोह मत कर और तू स्वार्थी मत बन। तुझे एक और वृक्ष बनना है, वट वृक्ष, जिसके नीचे हजारों लोगों को विश्राम मिल सके और छाया मिल सके। इसलिए तेरी चाबी अपने पास रखे लेता हूं। यह चाबी पास रख ली गई। मरने के तीन दिन पहले यह विवेकानंद को वापिस मिली। मरने के तीन दिन पहले उनको दुबारा समाधि उपलब्ध हुई।

लेकिन इसमें जो मैं कहना चाहता हूं वह यह कि जिस समाधि की चाबी रखी जा सके, वह समाधि “साइकिक’ से ज्यादा नहीं हो सकती। जो समाधि किसी दूसरे के हां या ना कहने पर निर्भर हो, वह गहरे मनस से ज्यादा नहीं हो सकती, मनस-पार नहीं हो सकती। मन के पार की नहीं हो सकती। और जिस समाधि में कालू को मूर्तियां फेंकने का खयाल आ जाए, वह समाधि बहुत आत्मिक नहीं हो सकती। उसका कोई कारण नहीं है आने का।

तो विवेकानंद को जो समाधि घटी, वह मानसिक है। शरीर से बहुत ऊपर है, लेकिन आत्मा से बहुत नीचे है। और फिर रामकृष्ण की जो तकलीफ थी, उसकी वजह से विवेकानंद को रोकना जरूरी था कि वह और गहरे न चले जाएं, अन्यथा कौन उस संदेश को लेकर जाता। आज रामकृष्ण को हम जानते हैं तो सिर्फ विवेकानंद की वजह से। लेकिन विवेकानंद को बड़ी कुर्बानी करनी पड़ी। लेकिन इस विराट जगत के लिए वैसी कुर्बानी अर्थपूर्ण है। और रामकृष्ण को विवेकानंद को रोकना पड़ा “साइकिक’ पर कि वह आगे न चले जाएं, अन्यथा फिर विवेकानंद को राजी नहीं किया जा सकता था। और रामकृष्ण की दुविधा यही थी कि बुद्ध को जो दोनों एक साथ मिले हैं, वह रामकृष्ण को–अकेले हैं वह, जानना तो मिल गया है, बताना नहीं है उनके पास। वह उसे नहीं बता सकते। इसलिए किसी और आदमी के कंधे का सहारा लेना पड़ा। रामकृष्ण विवेकानंद के कंधों पर बैठकर ही यात्रा किए हैं। इसलिए इसमें मैं मानता हूं कि विवेकानंद “इन्स्ट्रूमेंट’ बने, बनाए गए। लेकिन कृष्ण अर्जुन को “इन्स्ट्रूमेंट’ नहीं बना रहे हैं। कोई बात ही नहीं है उसमें, वह सिर्फ कह रहे हैं, उसको प्रकट कर रहे हैं।

फिर अब हम ध्यान के लिए बैठें।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–16)

February 24, 2015, 4:47 am

सीखने की सहजता के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—सोलहवां)

 दिनांक 3 अक्‍टूबर, 1970;

प्रात:, मनाली (कुलू)

“अरविंद को कृष्ण-दर्शन हुए। वे योगी लेले के संपर्क में भी तो आए थे। और पांडिचेरी को प्रयोग का निर्णय क्या भविष्य की पीढ़ियां ही नहीं करेंगी?

एलिसबेली के विषय में आपका क्या खयाल है, जब उसका कहना है कि उसे संदेश मिलते हैं। ये संदेश कौन देता है, कैसे देता है? क्या आपका भी ऐसे किसी मास्टर या गुरु से संबंध है?’

अरविंद का कृष्ण-दर्शन जेल की दीवालों में, सींकचों में, जेलर में, स्वयं में है। अगर कृष्ण का दर्शन है, तो किसको पता लगता है कि कृष्ण दिखाई पड़ रहे हैं? अगर पहचानने वाला पीछे बच जाता है, तो “प्रोजेक्शन’ है, तो प्रक्षेपण है। अगर कोई कहता है, मुझ कृष्ण के दर्शन हुए, तो कम-से-कम मैं कृष्ण नहीं हूं, इतना पक्का है। जिसे दर्शन होंगे, वह तो भिन्न हो जाता है।

नहीं, जिस विराट सागर-रूप कृष्ण की मैंने बात की है, वह ऐसा नहीं है कि मुझे कृष्ण के दर्शन हुए, वह ऐसा ही है कि मैं नहीं रहा और फिर जो बच गया है वह कृष्ण है। उसे कृष्ण कहें, क्राइस्ट कहें, बुद्ध कहें, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। यह हमारी पारिभाषिक शब्दावली की बात होगी कि कौन-सी शब्दावली में हम जन्मे हैं। फिर एक बार कृष्ण के दर्शन हो जाएं और अगर दर्शन प्रक्षेपण न हो, “प्रोजेक्शन’ न हो, तो दुबारा लौटना असंभव है। फिर उस दर्शन का खो जाना असंभव है। और, बड़े मजे की बात यह है कि अरविंद की सारी साधना उसके बाद शुरू होती है। जिस योगी लेले की बात उठाई है, उस योगी लेले से वह बाद में मिलते हैं। यह जो योगी लेले से उनका बाद में मिलना है और ध्यान सीखना है–और लेले से उन्होंने ध्यान सीखा–जिस व्यक्ति को अभी ध्यान भी सीखने को बाकी हो उसको कृष्ण के विराट दर्शन हो गए हों, यह नहीं माना जा सकता। और कृष्ण के ही दर्शन हो गए हों तो अब ध्यान सीखकर क्या करियेगा? किसके पास सीखने जाइएगा?

फिर बड़े मजे की बात है कि लेले से उन्होंने जो ध्यान सीखा, वह बहुत छोटी-सी प्रक्रिया थी। बहुत छोटी-सी प्रक्रिया, जिसमें कुछ बड़ा गहरा नहीं था। और यह भी आप जान लें कि उसके बाद ध्यान में उनकी कोई गति नहीं हुई, जितना उन्होंने लेले से सीखा, वह आखिरी चरण था। कुल तीन दिनों वे लेले के साथ ध्यान के लिए बैठे थे, और एक बहुत छोटा-सा प्रयोग था “विटनेसिंग’ का, साक्षीभाव का। जिसमें लेले ने कहा कि आप बस बैठ जाएं और अपने विचारों को देखें। उन्होंने विचार देखना शुरू किया, लेकिन भयंकर विचारों का जाल मन पर उतरा। वे बहुत घबड़ाए। लेले ने उन्हें इतना ही कहा कि आप विचारों को ऐसे ही समझें जैसे आपके मस्तिष्क के चारों ओर मक्खियां चक्कर लगा रही हैं और आप बीच में बैठे देखते रहें और उन मक्खियों को चक्कर लगाने दें। तीन दिन सतत वे विचारों का दर्शन करते रहे–कोई भी करे, और सिर्फ देखता रहे तो विचार क्षीण हो जाते हैं, शांत हो जाते हैं। मन निर्विचार हो जाता है। इसके बाद उन्होंने फिर कोई बात लेले से नहीं सीखी। और इसको उन्होंने आखिरी बात समझ ली। और अरविंद की बड़ी-से-बड़ी भूल यहीं हो गई। यह बिलकुल प्राथमिक चरण था। साक्षीभाव पहला चरण है। साक्षीभाव अद्वैतभाव नहीं है। साक्षीभाव के माध्यम से अंततः अद्वैतभाव की उपलब्धि होती है। पर और कदम आगे बढ़ाने पड़ते हैं। साक्षीभाव भी मिट जाना चाहिए, क्योंकि जब तक मैं साक्षी हूं और किसी का साक्षी हूं, तब तक द्वैत बना रहता है। एक घड़ी आनी चाहिए कि न मैं बचूं, न वह बचे जिसका मैं साक्षी हूं। एक घड़ी चाहिए जब शुद्ध चेतना बच जाए और उस चेतना में तय करना मुश्किल हो जाए कि कौन “सब्जेक्ट’ है, कौन “आब्जेक्ट’ है; कौन जान रहा है, कौन जाना जा रहा है। जब तक यह साफ है कि कौन जान रहा है और किसको जान रहा है, तब तक द्वैत जारी रहता है। और तब तक मन के बाहर जाना नहीं होता। तब तक मन का अतिक्रमण नहीं होता है। तब तक मन की “ट्रांसेंडेंस’ नहीं होती। तो न तो मैं कहूंगा कि अरविंद का अनुभव वास्तविक अनुभव था, क्योंकि जो आए और चला जाए, वह वास्तविक नहीं है। वह स्वप्नवत है। वह “प्रोजेक्शन’ है। जो आए और आ ही जाए और फिर जाने का उपाय न हो, वही वास्तविक अनुभव है। जो आए और खो जाए, वह मन का खेल है, मन की लीला है।

ध्यान के संबंध में भी साक्षीभाव की साधना से ऊपर वे कभी नहीं गए। और जिस व्यक्ति से उन्होंने सीखा था, उस व्यक्ति से पीछे उन्होंने कोई संबंध नहीं रखे। उस व्यक्ति के पास संभावना और भी थी आगे ले जाने की, लेकिन जब दुबारा लेले से अरविंद का मिलना हुआ तो अरविंद खुद गुरु हो चुके थे। और लेले से उनका जो दूसरा मिलन है, उसमें उनका जो व्यवहार है, वह बड़ी हैरानी का है। उनकी पूरी चेष्टा ऐसी रही जैसे यह बात भुलाई जा सके कि इस आदमी से कुछ सीखा है। और बहुत थोड़ा सीखा था, बहुत ज्यादा सीखा नहीं था।

मगर बहुत बार ऐसा हुआ है। अरविंद के साथ ही ऐसा हुआ हो, ऐसा नहीं, बहुत बार ऐसा हुआ है कि थोड़ा-सा अनुभव भी रोकने वाला सिद्ध हो जाता है। आनंदपूर्ण होता है और फिर मन वहां ठहर जाता है। इसलिए आध्यात्मिक साधना में सबसे बड़ी कठिनाइयां न तो बाहर के धन से आती हैं, न बाहर के संबंधों से आती हैं, आध्यात्मिक साधना में सबसे बड़ी कठिनाइयां भीतर के प्राथमिक अनुभवों से आती हैं। वे इतने सुखद हैं, इतने आनंदपूर्ण हैं, इतने “ब्लिसफुल’ हैं कि मन होता है यहां ठहर जाओ। और पड़ाव को मुकाम समझ लेने की भूल अरविंद के साथ नहीं, हजारों लोगों के साथ हुई है। पड़ाव को मुकाम समझ लेना बहुत आसान है। सुखद हो पड़ाव, तो मंजिल मान लेने का मन होता है।

और अरविंद ने फिर जितनी भी साधना दूसरों को बताई है, वह लेले की बताई गई साधना से इंच भर आगे नहीं गई है। जिंदगी भर जिन-जिन साधकों को उन्होंने सलाह दी है, उन साधकों को दी गई सलाह में लेले ने उन्हें जो तीन दिन में सिखाया था, उससे इंच भर आगे एक भी बात नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं कि उस साधना के आगे वे कभी गए नहीं। क्योंकि उन्होंने कभी किसी को उसके आगे कोई बात नहीं कही है। बस, वह उतनी ही बात। लेकिन, लेले बेचारा सीधा-सादा आदमी था, उसने दो शब्दों में कह दिया था। अरविंद जटिल चित्त के, बुद्धि के ठीक, निष्णात व्यक्ति हैं, वह उसी बात को हजारों पृष्ठ में रंगते रहे। लेकिन लेले ने जो बताया था उससे इंच भर आगे उन्होंने बताया हो अपनी किसी किताब में, किसी वक्तव्य में, ऐसा नहीं है। उससे ज्यादा वे कुछ बता नहीं पाए। इसलिए मैं कहता हूं, लेले ने तीन दिन में जो उन्हें सिखाया था, उससे आगे वे कभी भी नहीं गए। उनका एक वक्तव्य भी उससे आगे नहीं जाता। साक्षीभाव से ज्यादा कुछ भी फलित नहीं हुआ।

और मैं मानता हूं कि वह भी उन्होंने खो दिया है। क्योंकि फिर वे जिस जाल में लग गए…यह भी जानकर आपको हैरानी होगी कि लेले ने खुद क्या कहा है अरविंद से बाद में? लेले ने कहा है कि तू भ्रष्ट हो गया है। आप जानकर हैरान होंगे। और लेले ने कहा है कि जो तुझे मिला था, वह तूने खो दिया है और तू बकवास में लग गया। और तू सिद्धांतवादी बातों में पड़ा हुआ है। इनसे कोई संबंध अनुभव का नहीं है। लेले का यह वक्तव्य बड़ा अदभुत है। लेकिन अरविंद को मानने वाले इस वक्तव्य की इधर-उधर चर्चा नहीं करते। क्योंकि यह वक्तव्य तो बहुत हैरान करने वाला है। जिस आदमी से सीखा था, उस आदमी का यह वक्तव्य है। यह वक्तव्य बहुत सूचक है। लेले अरविंद को मिला और उसने कहा है कि कृपा करके इस लिखने-पढ़ने के जाल में मत उलझो, अभी तुम पहुंचे नहीं वहां जिसकी तुमने बात शुरू कर दी। लेकिन लेले की इस बात पर भी अरविंद ने कोई ध्यान नहीं दिया है। और जब अरविंद ने ही नहीं दिया है तो अरविंद-भक्त क्यों देने लगे!

यह जो मैंने कहा कि मौलिक बात की खोज तो व्यक्ति से होती है, इसलिए उसके भूल भरे होने की संभावना ज्यादा होती है। इसका यह मतलब नहीं है कि वह भूल ही होती है। भूल की संभावना ज्यादा होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह भूल ही होती है, भूल की संभावना ज्यादा होती है। दूसरी बात भी मैंने कही है कि परंपरा से जो बात आती है, उसके सड़ने, गलने की, गंदे हो जाने की संभावना बहुत होती है, लेकिन उसकी सारी सड़ांध और गलन के पीछे भी कहीं किसी सत्य का होना बहुत संभावी है। क्योंकि हजारों-हजारों साल तक लोग अकारण ही, बिलकुल अकारण ही किसी गंदगी को ढो नहीं सकते। हां, किसी हीरे की वजह से कंकड़-पत्थरों को भी ढो सकते हैं, लेकिन हो सकता है वह हीरा कहीं बिलकुल खो गया हो और कंकड़-पत्थर ही दिखाई पड़ते हों।

जो मैंने यह कहा, उसी के कारण दूसरी बात आपको समझाना चाहूंगा। अरविंद कहते हैं, “सुपरामेंटल’ की, उस अतिमानस की जो वे बात कर रहे हैं, उसके संकेत वेद में उपलब्ध हैं। इस मुल्क में एक बड़ा अनैतिक कृत्य चलता रहा है। और यह अनैतिक कृत्य चलता रहा है। और यह अनैतिक कृत्य यह है कि इस मुल्क में जो लोग कोई नई बातें खोजते हैं, वे भी साहस नहीं जुटा पाते यह कहने का कि यह नई बात मेरी है। क्यों? क्योंकि इस मुल्क को पता है कि नई बातों के गलत होने की संभावना है। इसलिए इस मुल्क की लंबी परंपरा में एक व्यवस्था बन गई है कि कितनी ही नई बात खोजो, किसी पुराने शास्त्र को आधार बनाओ। सदा यह बताओ कि वह वेद में है, सदा बताओ कि वह उपनिषद में है। सदा बताओ कि ब्रह्मसूत्र में है। इसीलिए वेद, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र का अपना क्या अर्थ है, यह तय करना ही मुश्किल हो गया है। क्योंकि हर आदमी अपने को उनमें थोप कर बताता है। यह पुरानी दुकान की “क्रेडिट’ के लाभ लेने के उपाय हैं, और कुछ भी नहीं है। वेद में है या नहीं, इसका सवाल नहीं है। लेकिन दयानंद उसी सूत्र में कुछ और दिखाएंगे, जो उनको सिद्ध करना है। अरविंद उसी सूत्र में कुछ और दिखाएंगे, जो उनको सिद्ध करना है। शंकर कुछ और दिखाएंगे, जो उनको सिद्ध करना है। उस सूत्र की गति हो गई, उसकी बिलकुल मिट्टी पलीद कर दी है। वेदों की, ब्रह्मसूत्र की और उपनिषद की, इन तीनों की इस बुरी तरह से कठिनाई हमने खड़ी की है–और वही हाल गीता का भी किया है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति यह सिद्ध करने की कोशिश करेगा कि वह जो कह रहा है, वह वही है जो उपनिषद भी कहते हैं, गीता भी कहती है, वेद भी कहते हैं। इसलिए एक बहुत ही अजीब-सी मानसिक व्यभिचार की स्थिति इस देश में पैदा हुई। एक बौद्धिक-व्यभिचार पैदा हुआ है, एक “इंटलेक्चुअल प्रॉस्टिटयूशन’ पैदा हुआ है। चीजों को सीधे न कहकर थोपने का आग्रह इतना ज्यादा हो गया, क्योंकि उसी के बल खड़े हो सकते हैं। मैं मानता हूं यह भी आत्मविश्वास की कमी है। अगर अरविंद को कोई सत्य का अनुभव हुआ है, तो वेद उससे उलटा भी कहते हों तो वह भाड़ में जाए, वेद से क्या लेना-देना है? अगर अरविंद को कोई सत्य दिखाई पड़ा है, तो वह निपट निजता में कह सकते हैं कि यह सत्य है। यह मैंने देखा और जाना। लेकिन, भीतर अगर संदेह है, तो फिर वेद का सहारा लिए बिना कोई रास्ता नहीं है। वेद के कंधे पर बैठना पड़ेगा। फिर गीता के कंधे पर बैठना पड़ेगा, फिर उपनिषद के कंधे पर बैठना पड़ेगा। और फिर सबको अपने पीछे खड़ा करके दिखाना पड़ेगा कि जो मैंने जाना, वही जाना।

यह भी ध्यान रहे कि वेद का ऋषि किसी का सहारा नहीं खोजता। उपनिषद का ऋषि किसी का सहारा नहीं खोजता। उसके वक्तव्य सीधे हैं। ब्रह्मसूत्र का ऋषि किसी का सहारा नहीं खोजता, उसके वक्तव्य सीधे हैं। वह कहता है, ऐसा है। लेकिन फिर भारत में एक बौद्धिक पतन की लंबी कहानी है, जिसमें फिर कोई कहने की हिम्मत नहीं जुटाता कि ऐसा है, ऐसा मैं जानता हूं। फिर वे सब कहते हैं, ऐसा है, क्योंकि वेद ऐसा कहते हैं, और जो वेद कहते हैं, वही मैं भी जानता हूं। लेकिन, सीधा वक्तव्य खोता चला गया। अरविंद उस कड़ी में आखिरी हिस्से हैं।

इससे मैं कहता हूं कि रमण ज्यादा ईमानदार आदमी हैं। इससे मैं कहता हूं, कृष्णमूर्ति ज्यादा ईमानदार आदमी हैं। अगर गलती भी करनी है तो भी वेद पर मत थोपो, खुद ही अपने ऊपर लो। अगर ठीक भी खोजना है तो खुद ही अपने ऊपर लो। निर्णय तो हो सके, कल तय तो हो सके कि तुमने जो जाना था उसमें कुछ सार था कि नहीं था। लेकिन उस सबको “कन्फ्यूजन’ में डाल दिया जाता है। सारी गवाहियां खड़ी कर दी जाती हैं।

इसलिए मैं मानता हूं कि भारत में दर्शन का वैसा “आनेस्ट’, ईमानदार विकास नहीं हो सका जैसा पश्चिम में दर्शन का ईमानदार विकास हुआ है। क्योंकि सुकरात अगर कहता है तो खुद “अथॉरिटी’ है, खुद अधिकारी है। अगर कान्ट कुछ कहता है तो खुद अधिकारी है। अगर विट्गिंस्टीन कुछ कहता है तो खुद अधिकारी है। इनमें से कोई भी दूसरे पर अधिकार नहीं खोजने जाता है। कोई भी यह कहने नहीं जाता कि मैं जो कहता हूं वह ठीक है क्योंकि सुकरात भी ऐसा कहता है। इसलिए पश्चिम में एक ईमानदारी दर्शन की पैदा हुई और उसी ईमानदारी से विज्ञान पैदा हुआ है–उसी ईमानदारी का परिणाम विज्ञान है। क्योंकि विज्ञान बेईमानी से पैदा नहीं हो सकता। हिंदुस्तान में विज्ञान पैदा नहीं हो सका, क्योंकि एक बहुत गहरी बौद्धिक बेईमानी में हम फंसे हैं। यहां यह तय करना ही मुश्किल है कि कौन आदमी क्या कह रहा है। क्योंकि हर आदमी दूसरे की वाणी बोल रहा है। और हर आदमी दूसरे के शब्दों से जी रहा है। और हर आदमी दूसरे शास्त्रों पर खड़ा हुआ है।

मैं तो कहूंगा कि अरविंद का यह आग्रह कि वेद में भी यही है, एक आत्महीनता के बोध से पैदा होता है। इसमें बहुत अनुभव की बात नहीं है, इसमें बहुत आसान सहारे खोजने की बात है। और इस मुल्क का मन है, जो वेद से प्रभावित है; इस मुल्क का मन है जो महावीर से प्रभावित है, बुद्ध से प्रभावित है; इस मुल्क का मन परंपरानुगत है। इसलिए जब एक दफे कोई आदमी सिद्ध कर दे इतनी-सी बात कि ऐसा ही वेद में कहा है, तो हम उसे स्वीकार कर लेते हैं। इस आदमी को अलग से जांचने की फिर हमें कोई जरूरत नहीं रह जाती। इसलिए वेद की आड़ में यह आदमी स्वीकृत हो जाता है। लेकिन आड़ ही क्यों लेनी? सत्य को किस आड़ की जरूरत है? अगर मुझे कुछ दिखाई पड़ता है तो मैं कहूंगा, ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है। और अगर वेद के ऋषियों को भी ऐसा दिखाई पड़ा होगा तो वे ठीक थे और नहीं दिखाई पड़ा होगा तो वे गलत थे। पर मेरा दिखाई पड़ना मेरे आत्मविश्वास की बात है। मैं वेद की वजह से गलत और सही नहीं हो सकता हूं। मेरे लिए तो मेरी वजह से वेद सही और गलत हो सकते हैं, वह दूसरी बात है। अगर मुझे कोई आकर कहता है कि आप ऐसा कहते हैं और महावीर ने ऐसा कहा है, तो मैं कहता हूं कि अगर महावीर ने ऐसा ही कहा होगा तो वे गलत होंगे। क्योंकि मैं कैसे पक्का करूं कि महावीर ने ऐसा कहा है कि नहीं, इतना मैं दिखाई पड़ता है, तो मैं कहूंगा कि सारी दुनिया गलत होगी लेकिन मुझे जो दिखाई पड़ता है वह ऐसा है। और मैं सिर्फ अपने ही दिखाई पड़ने के लिए गवाह हो सकता हूं। दुनिया भर के दिखाई पड़ने के लिए गवाह नहीं हो सकता हूं।

लेकिन यह तरकीब बड़ी आसान है। यह बड़ी सुविधापूर्ण है। अपने व्यक्तित्व को सीधा-का-सीधा सत्य के सामने आमने-सामने खड़े कर लेने में हजारों साल लगेंगे इतिहास को तय करने में कि आपको मिला कुछ कि नहीं मिला। लेकिन वेद की आड़ में खड़े कर लेने में बड़ी आसानी है। वेद सही, फिर आप भी सही हैं। क्योंकि जो आप कहते हैं, वही वेद में कहा हुआ है। और यह “ट्रिक’ बड़ी आसान है। मैं एक छोटी-सी कहानी से समझाऊं–

एकफ्रेंच काउंटेस, शाही परिवार की औरत, और बड़ी “कस्टीडियस’, सब चीजों में अपने ढंग से जीने की आदी है। एक “एशट्रे’ खरीद लाई थी चीन से। “एशट्रे’ पर जो रंग था, उसने कहा कि यही रंग मेरे बैठकखाने में होना चाहिए। बड़े-बड़े चित्रकार बुलाए गए, लेकिन रंग में कुछ फर्क पड़ जाता। वह “एशट्रे’ का रंग ठीक-ठीक दीवाल पर न आ पाता। वे चीनी रंग थे, वे रंग भी उपलब्ध न थे। और कितनी ही कोशिश की जाए, ठीक “एशट्रे’ के रंगों का तालमेल दीवालों पर नहीं बैठता। बड़े-बड़े चित्रकार आए और हारकर चले गए। फिर एक चित्रकार ने कहा कि मैं यह रंग कर दूंगा, लेकिन एक शर्त पर कि एक महीने तक इस कमरे के भीतर कोई प्रवेश नहीं कर सकेगा। उसने कहा, राजी। किसी भी शर्त पर राजी हूं। वह एक महीने के लिए दरवाजा बंद करके अंदर चला जाता, ताला लगा लेता, कुछ करता रहता, फिर बाहर निकल आता। महीने भर के बाद उसने उसको कहा कि अब आप अंदर आ जाएं। अंदर आकर देखा तो ठीक “एशट्रे’ के कलर की सारी दीवालें हो गई हैं। और उस महिला ने उसे लाखों रुपये इनाम दिए। मरते वक्त उस चित्रकार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक ही रास्ता था कि पहले मैंने दीवालें पोत दीं और फिर उसी रंग में “एशट्रे’ पोत दी। तब मेल बिलकुल बैठ गया।

यह अरविंद और दयानंद और सब पहले दीवालें पोतते हैं, फिर “एशट्रे’ पोतते हैं। पहले अपना सिद्धांत बना लेते हैं, फिर वेद पर पोत देते हैं। फिर उसमें से सब निकाल लेते हैं। फिर संस्कृत और ग्रीक और लैटिन और अरबी, जितनी भी पुरानी भाषाएं हैं वे सब काव्य-भाषाएं हैं, विज्ञान-भाषाएं नहीं हैं। काव्य-भाषाओं में एक खतरा यह है कि एक-एक शब्द चूंकि अनेकार्थी होते हैं, इसलिए कभी तय नहीं किया जा सकता कि मूलरूप से जिस आदमी ने उन शब्दों का प्रयोग किया था, उसका क्या अर्थ है। एक-एक शब्द के दस-दस, बारह-बारह अर्थ होते हैं। और आज किस हिसाब से हम तय करें कि जिस आदमी ने यह वक्तव्य दिया था उसका इन दस-बारह अर्थों में कौन-सा अर्थ है? काव्य के लिए बड़ी अच्छी हैं ये भाषाएं। क्योंकि काव्य में एक शब्द जितना अर्थी हो, उतने रंग आ जाते हैं। कविता की दो कड़ियों में जितने रंग आ जाएं, उतनी कविता गहरी हो जाती है। और हर पढ़ने वाला अपना अर्थ निकाल सकता है। और ढंग-ढंग के लोग प्रभावित हो सकते हैं। लेकिन विज्ञान ऐसे नहीं चलता। विज्ञान में तो भाषा “एक्जेक्ट’ होनी चाहिए। और “अ’ का अर्थ “अ’ ही होना चाहिए। तो पुरानी कोई भाषा वैज्ञानिक नहीं है, क्योंकि विज्ञान पुरानी भाषा में पैदा नहीं हुआ था। और इसलिए विज्ञान अब रोज नई भाषा पैदा करता जा रहा है।

आप जानकर हैरान होंगे कि फिजिक्स जो कि इस समय सर्वाधिक विकसित विज्ञान है, उसने तो धीरे-धीरे भाषा के शब्दों का उपयोग बंद कर दिया और गणित के फार्मूलों का उपयोग शुरू कर दिया। क्योंकि गणित का फार्मूला “एक्जेक्ट’ हो सकता है। आदमी के प्रयोग किए गए शब्दों की “एक्ज़ेक्टनेस’ संदिग्ध है। उसमें कोई अर्थ हो सकते हैं और हर उपयोग करने वाले का अपना अर्थ हो सकता है। इसलिए आइंस्टीन की किताब सिर्फ वही आदमी समझ सकता है, जिसने बहुत “हायर मैथेमेटिक्स’ को समझा हो। आइंस्टीन की किताब को समझने के लिए भाषा का ज्ञान पर्याप्त नहीं रहा, गणित का ज्ञान अनिवार्य हो गया। क्योंकि भाषा गणित बन रही है। और आइंस्टीन जैसे लोगों का खयाल है कि भविष्य की जो विज्ञान की भाषा होगी, वह शब्द को छोड़कर “सिंबल’ को ले लेगी गणित के, क्योंकि उसी में ठीक बात कही जा सकती है, अन्यथा कोई भी कुछ अर्थ कर सकता है।

तो यह जो, यह सुविधा जो है इस देश में–यह सब जगह है जहां-जहां पुराने ग्रंथ हैं, और सब पुराने ग्रंथ पुरानी भाषाओं में हैं, और पुरानी भाषाएं काव्य के आसपास निर्मित हुई थीं। इसलिए जानकर हैरानी होगी कि हिंदुस्तान में वैद्यक के ग्रंथ भी कविता में लिखे हुए उपलब्ध हैं। थोड़ा सोचने जैसा मामला है। असल में कविता ही लिखने का ढंग थी, बोलने का। उसके कारण थे। उसके कारण थे, क्योंकि लिखना बहुत बाद में आया और याददाश्त रखकर ही शास्त्रों को मन में रखना पड?ता था। कविता को याद रखना आसान है। गद्य को याद रखना मुश्किल है, पद्य को याद रखना आसान है। उसमें एक तुक के कारण सुविधा है, वह याददाश्त में रह जाती है। इसलिए सब वेद, सब उपनिषद, सब गीताएं, सब पुराण काव्य की भाषा में पद्यबद्ध हैं। ताकि उन्हें याद रखना आसान हो। हजारों साल तक याद रखना पड़ा, लिखने का उपाय न था। मगर उस याद रखने के लिए कविता ने सुविधा दी, लेकिन अर्थ की सुविधा खो गई। इसलिए अब हर आदमी को सुविधा है कि जो अर्थ वेद में करना चाहे, कर ले। मगर अब मैं मानता हूं कि किसी भी आदमी को ऐसा अर्थ करने नहीं जाना चाहिए। नहीं जाना चाहिए इसलिए कि यह बहुत बचकाना खेल हो गया, इसमें कोई बहुत प्रयोजन नहीं है। और क्यों सहारा खोजा जाए! क्यों न ऐसा कहा जाए कि मुझे ऐसा दिखाई पड़ता है। हो सकता है वेद भी ऐसा कहते हों। कहते हों तो ठीक होंगे, न कहते हों तो गलत होंगे। कोई वेद ने ठेका ले रखा है सदा के लिए ठीक होने का? कि पीछे के लोगों को सिर्फ सिद्ध करना होगा कि जो वेद ने कहा है, वह ठीक कहा है। मुझे नहीं दिखाई पड़ता।

और जो मैंने कहा कि पांडिचेरी में जो प्रयोग हो रहा है वह व्यर्थतम प्रयोग हैं अध्यात्म के क्षेत्र में, इसको भविष्य को तय करने की जरूरत नहीं है। यह तो अध्यात्म की प्रक्रिया को समझ कर आज तय किया जा सकता है। अगर एक आदमी पानी को गरम कर रहा है नीचे आग जला कर, तो यह भविष्य के बच्चे तय नहीं करेंगे कि यह भाप बनेगा, यह हम अभी तय कर सकते हैं कि भाप बन जाएगा। लेकिन अगर चूल्हे में आग की जगह बर्फ रखी जा रही है, तो यह कोई भविष्य के बच्चे तय नहीं करेंगे कि पानी भाप नहीं बनेगा, बर्फ बन जाएगा, यह हम तय कर सकते हैं। भविष्य के बच्चों पर छोड़ने का कोई खास सवाल नहीं है। अध्यात्म भी एक विज्ञान है। अध्यात्म कोई ज्योतिष-शास्त्र नहीं है, कोई हस्तरेखा-विज्ञान नहीं है, कोई सामुद्रिक नहीं है। अध्यात्म के अपने गणित के सूत्र हैं। इसलिए उलटी प्रक्रियाओं से कुछ हल होने वाला नहीं है, यह आज कहा जा सकता है। और भविष्य अगर तय करेगा तो इतना ही तय करेगा कि मैंने जो कहा था वह ठीक था, कि अरविंद ने जो किया था वह ठीक था। भविष्य और कुछ तय नहीं करेगा।

जगत में समस्त विकास वैयक्तिक है। जगत में समस्त विकास वैयक्तिक है, “इंडिविजुअल’ है। उपलब्धि “काज्मिक’ है, उपलब्धि ब्रह्मांडगत है। लेकिन गति, विकास व्यक्तिगत है। जगत में समस्त चेतना की अभिव्यक्ति व्यक्तिगत है। मूल स्रोत समष्टिगत है, अभिव्यक्ति व्यक्तिगत है। सागर समष्टि है, लहर सदा व्यक्ति है। चेतना जहां भी दिखाई पड़ेगी हमें, व्यक्ति दिखाई पड़ेगी। हां, जब व्यक्ति की चेतना को खोएंगे तो समष्टि की चेतना का अनुभव शुरू होगा। लेकिन मैं अपनी चेतना को खोकर अनुभव करूंगा। मेरे अनुभव के साथ आपका अनुभव नहीं हो जाएगा।

एक पुराना सूत्र खयाल में लेना जरूरी है।

जिन लोगों ने सबसे पहले कहा कि एक ही आत्मा है सबमें, तो जो मानते थे कि अनेक आत्माएं हैं, उन्होंने कहा, तब तो एक आदमी मरे तो सबको मर जाना चाहिए। और एक आदमी दुखी हो तो सबको दुखी हो जाना चाहिए। ठीक कहते हैं, उनकी दलील दुरुस्त है। अगर चेतना एक ही है हम सबके भीतर, जैसे कि घर में बिजली एक ही है, अगर ऐसी चेतना हममें सब एक ही है और उसके बीच कहीं कोई दीवालें नहीं हैं, व्यक्ति और व्यक्ति में टूट नहीं गई है चेतना, तो मैं जब दुखी होऊंगा तो आप कैसे सुखी रह सकेंगे? अगर मेरी चेतना जुड़ी हुई है आपसे, तो मेरा दुख आप में प्रवेश कर जाएगा और जब मैं मरूंगा तो आप कैसे जिंदा रह सकेंगे? मैं मरूंगा तो आपको मरना पड़ेगा। इस तर्क के आधार पर वे लोग मानते रहे कि आत्मा एक नहीं है, सबमें अलग-अलग हैं। मैं उनके तर्क को बहुत ठीक नहीं मानता। क्योंकि यह मानता हूं कि बिजली एक घर में सारे बल्बों में एक है, लेकिन अगर एक बल्ब को फोड़ दें तो सब बल्ब नहीं फूट जाएंगे। हालांकि सारी बिजली को हटा लें, तो सब बल्ब बंद हो जाएंगे। “मेन स्विच आफ’ कर दें, तो सब बल्ब बुझ जाएंगे। लेकिन एक-एक बल्ब का अपना “स्विच’ भी है। और एक-एक “स्विच’ को बंद करते रहें तो एक-एक बल्ब बंद होता रहेगा। और बिना “स्विच’ के भी एक बल्ब को फोड़ दें तो वह तो खो जाएगा।

लहरें सब अलग हैं, उनके नीचे जुड़ा हुआ सागर एक है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जब एक लहर गिरेगी तो सब लहरों को गिरना चाहिए और जब एक लहर उठे तो सब लहरों को उठना चाहिए। एक लहर गिरेगी तो एक लहर गिरेगी। बाकी लहरें उठ सकती हैं, कोई रोकने वाला नहीं है। अगर हम ऐसा इसके विपरीत सोचते हुए चलें कि समष्टि-चेतना, ब्रह्म-चेतना, परमात्मा उतर आए, तो मुझमें और आप में क्या फर्क कर पाएगा फिर! “मेन स्विच आफ’ हो गया।

इसलिए अरविंद जो कल्पना कर रहे हैं–कल्पना कहता हूं–कल्पना सुखद है। बहुत कल्पनाएं सुखद होती हैं, लेकिन सुखद होने से कल्पनाएं सही नहीं हो जाती हैं। यह बड़ी सुखद कल्पना है कि परमात्मा हम सब पर अवतरित हो जाए। लेकिन अगर मैं अज्ञानी रहने का तय किए हुए हूं, तो अरविंद की कोई ताकत नहीं है कि मुझ पर परमात्मा को उतरवा दें, न परमात्मा की खुद की कोई ताकत है कि मुझ पर उतर आए। इतनी स्वतंत्रता तो मुझे देंगे न कि मैं अज्ञानी रह सकूं। और जिस दिन अज्ञानी रहने की स्वतंत्रता न रह जाएगी, उस दिन ज्ञान का कितना मूल्य होगा? उस दिन तो ज्ञान एक परवशता होगी, ज्ञान भी एक गुलामी होगी, जो आपकी छाती पर सवार हो जाएगा।

अरविंद की जो कल्पना है, देखने में सुखद, भीतर बहुत भयावह है। नहीं, मैं ऐसा नहीं देखता हूं। आज तक की मनुष्यजाति का इतिहास ऐसा नहीं कहता। आज तक की मनुष्य जाति का इतिहास यही कहता है कि व्यक्ति-चेतना उठती है और परमात्म-चेतना में लीन हो जाती है। जब लीन होती है तो उसमें परमात्म-चेतना भी उतर जाती है। फिर तय करना मुश्किल होता है कि बूंद सागर में गिरी कि सागर बूंद में गिर गया, एक दफा बूंद गिरे। लेकिन गिरती सदा बूंद ही है, अब तक सागर को बूंद में गिरते नहीं देखा गया है। गिर जाने के बाद तय करना मुश्किल है कि कौन किसमें गिरा! एक दफा बूंद गिर जाए सागर में, तो फिर तय करना मुश्किल है कि सागर बूंद से मिला कि बूंद सागर से मिली। मिल जाने के बाद तो तय करना मुश्किल है कि कौन किससे मिला, कौन किसमें गिरा, लेकिन मिलने के पहले ऐसा कभी नहीं हुआ है कि सागर बूंद में गिरा हो। अरविंद इसकी कामना कर रहे हैं कि सागर बूंद में गिर जाए। लेकिन किसी दिन अगर सागर बूंद पर गिरेगा, तो मैं मानता हूं, बूंद इनकार ही करेगी। बूंद को बूंद होने का हक है। सागर इनकार नहीं करता है बूंद को गिरने से, क्योंकि बूंद गिरने से सागर का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, कुछ कम-ज्यादा नहीं होता। सागर को पता ही नहीं चलता बूंद के गिरने से। बूंद को ही पता चलता है, जब वह सागर में गिरती है कि मैं सागर में गिरी, बूंद को ही पता चलता है कि मैं सागर से एक हो गई, मैं सागर हो गई। सागर ने कभी ऐसा वक्तव्य नहीं दिया कि मैं बूंद से एक हो गया। कभी परमात्मा का कोई वक्तव्य नहीं है कि मैं व्यक्ति से एक हो गया। सब वक्तव्य व्यक्तियों के हैं कि मैं परमात्मा से एक हो गया। लेकिन सागर अगर बूंद पर गिरे तो बूंद कह भी सकती है कि कृपा करो, तुम मुझे मिटा ही दोगे! और तुम्हारा गिरना मुझ पर भारी हो जाएगा।

तो मैं मानने को राजी नहीं हूं कि “काज्म?िक कांशसनेस’, ब्रह्मांड-चेतना व्यक्ति के ऊपर गिरेगी, जैसा अरविंद का खयाल है। और समस्त मनुष्य जाति के अनुभव के विपरीत है वह बात इसलिए भविष्य को नहीं छोडूंगा। और फिर अरविंद एक अर्थ में अतीत हो गए। अब वह नहीं हैं जमीन पर। अरविंद ने और भी वक्तव्य दिए थे जो निपट नासमझी के सिद्ध हुए हैं।

अरविंद ने कहा था कि मैं “फिजिकली इम्मार्टल’ हूं, मैं शरीर रूप से अमृत हूं। और मजा यह है कि वह अंधे भक्त जो अभी भी आशा कर रहे हैं कि परमात्म-चेतना उन पर उतर आएगी, वे यह भी माने बैठे हुए थे कि अरविंद “फिजिकली’, शरीरगत रूप से अमर हैं, उनकी मृत्यु नहीं हो सकती। और जिस आदमी में परमात्मा उतर आया हो–और अरविंद का खयाल यह था कि परमात्मा आत्मा तक ही नहीं उतरेगा, “फिजिकल बॉडी’ तक उतरेगा। ये जो भौतिक शरीर के अणु हैं, यह भी परमात्मरूप हो जाएंगे जब वह उतरेगा; तो फिर मृत्यु कैसे घटित हो सकती है? तो तर्क तो ठीक ही था, इसी के संदर्भ में था तर्क कि जब परमात्मा उतर ही आएगा और शरीर के कण तक उतर जाएगा, “मैटर’ तक उतर जाएगा, प्रकृति तक उतर जाएगा, तो फिर मृत्यु का क्या सवाल है? इसलिए अमृत्यु की बहुत लोगों ने बातें की हैं, लेकिन वह आत्मिक अमरत्व की बातें की हैं, अरविंद पहले आदमी हैं पृथ्वी पर जो भौतिक अमरत्व की, “फिजिकल इम्मार्टलिटी’ की बात करते थे।

लेकिन इस तरह की बात करने में एक बड़ा फायदा है कि जब तक मैं नहीं मरा हूं, तब तब आप मुझे हरा नहीं सकते। और जब मैं मर ही गया तो मुझे आप क्या हराइयेगा। जब तक अरविंद जिंदा थे, दलील सही थी। कैसे सिद्ध करियेगा कि यह बात गलत होगी! और जब मर गए, तो अब किसके सामने सिद्ध करने जाइएगा? लेकिन आश्चर्य यह नहीं है कि अरविंद मर गए। अरविंद के मरने के चौबीस घंटे तक जो मां नाम की महिला उस आश्रम में हैं, उन्होंने मानने से…राजी नहीं हुई वह कि वह मर सकते हैं। उन्होंने यही माना कि वह गहरी समाधि में चले गए हैं। और तीन दिन तक शरीर को बचाने की कोशिश की, इस आशा में, क्योंकि इस मुल्क की एक पुरानी धारणा है कि योगी का शरीर “डिसइंटीग्रेट’ नहीं होता है। योगी का शरीर, मरने के बाद सड़ता नहीं। लेकिन तीन दिन बाद जब अरविंद के शरीर से बदबू छूटने लगी तब बड़ी मुश्किल हुई। फिर इसको जल्दी से दफनाना पड़ा। क्योंकि वह खबर अगर सब जगह पहुंच जाए, तो जैसा अभी पूछा गया कि यह मुल्क बहुत समझदार है और हर किसी को योगी नहीं कह देता, तो यह मुल्क मानता है कि योगी मर जाए तो उसके शरीर से बास नहीं आनी चाहिए, तो फिर क्या होगा? फिर जब बास आने लगेगी तो यह मुल्क कहेगा कि अरे, हम बड़ी गलती में थे, यह आदमी योगी नहीं है। तो इसको जल्दी दफनाओ और यह खबर मत फैलने दो। और आज भी अरविंद आश्रम में बैठे हुए नासमझों में बहुत ऐसे हैं जो मानते हैं कि वह वापिस लौट आएंगे, क्योंकि वह “फिजिकली इम्मार्टल’ हैं।

ये जो नासमझियां हैं, हमारे ये जो अंध-विश्वास हैं, ये बड़े विचारणीय हैं। हम क्या-क्या पागलपन की बातें करते हैं! मैं न तो मानता हूं कि योगी के शरीर में कोई विशेषता हो जाती है कि उसमें सड़ांध न आए। सड़ेगा। ऐसा नहीं है कि नहीं सड़ेगा। क्योंकि जिस योगी का शरीर सड़ेगा ही नहीं, वह मरेगा ही किसलिए? आखिर सड़ने से तो मरना आता है। हमारी मृत्यु जो है, बुढ़ापा जो है, वह “डिसइंटीग्रेशन’ की शुरुआत है। जब योगी बूढ़ा हो जाएगा, और जब योगी का शरीर बाकी सब नियम पालन करेगा, बचपन से जवानी में जाएगा, जवानी से बुढ़ापे में जाएगा, बुढ़ापे से मौत में जाएगा, तो सिर्फ एक नियम चूक जाएगा उसका कि मरने के बाद उसका शरीर सड़ेगा नहीं? सड़ेगा। इससे कोई संबंध नहीं है। उसके भीतर की आत्मा ज्ञान को उपलब्ध हुई थी कि ज्ञान को नहीं उपलब्ध हुई थी, इससे उसके शरीर के सड़ने-न सड़ने का कोई भी संबंध नहीं है। कोई “रेलिवेंस’ नहीं है। और आत्मा तो दोनों हालत में आपके भीतर है, चाहे आप योगी हैं, चाहे आप योगी नहीं हैं। आत्मा की मौजूदगी में तो कोई फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ आत्मा के बोध में फर्क पड़ता है कि योगी जानता है कि मैं आत्मा हूं, और आप नहीं जानते। लेकिन इस बोध से शरीर के सड़ने-न सड़ने का कोई भी संबंध नहीं है। फिर योगी बीमार भी पड़ता है। फिर हमें झूठी कहानियां गढ़नी पड़ती हैं, फिर हमें परेशानियां होती हैं।

महावीर को मरने के पहले छः महीने पेचिश की बीमारी थी। अब जैनियों को कहानियां गढ़नी पड़ीं, क्योंकि महायोगी को पेचिश की बीमारी हो जाए! और वह भी उसको जिसने महा-उपवास किए हों! उसका तो पेट कम-से-कम बिलकुल ठीक ही होना चाहिए। पेचिश और महावीर को! तो फिर हम सबका क्या होगा? महावीर तो खाते-पीते ही नहीं। कथा तो यह है कि बारह साल में उन्होंने तीन सौ पैंसठ दिन खाना खाया–कभी तीन महीने छोड़कर, कभी दो महीने छोड़कर, कभी चार महीने छोड़कर एक दिन खाना खाया। अब इस आदमी को कभी पेचिश हो जाए! हालांकि मेरे हिसाब से इस आदमी को ही होनी चाहिए। क्योंकि यह जो खाने के साथ अनाचार होगा, तो पेट को नुकसान पहुंचेंगे। तो मेरे लिए तो संगतिपूर्ण है। यानी मैं मानता हूं कि इसमें संगति है कि पेचिश हुई छः महीने। लेकिन महावीर को महायोगी मानकर जो चल रहा है उसकी बड़ी दिक्कत है, क्योंकि वह साथ में यह मानता है। मेरे लिए कोई दिक्कत नहीं आती, महायोगी होने से पेचिश होने की कोई बाधा मुझे नहीं पड़ती। मैं महायोगी को इतना बड़ा मानता हूं कि पेचिश से कोई खास नुकसान नहीं हो जाता। लेकिन कुछ हैं, जिनके लिए पेचिश हो गई तो महायोगी कैसे! तो उनको कहानी गढ़नी पड़ी कि यह पेचिश साधारण नहीं है, यह गोशालक के द्वारा मंत्र द्वारा फेंकी गई पेचिश है, जिसको महावीर ने झेल लिया है। करुणावश पी गए हैं और उसको झेल रहे हैं। जब योगी बीमार पड़ता है तो हमें कहना पड़ता है, यह किसी की ली गई बीमारी है। बड़ा मजा यह है कि योगी को आप खुद बीमार तक न होने देंगे! तो वे यह कहेंगे कि किसी की ली गई बीमारी है–कोई बीमार था, योगी ने उसकी बीमारी ले ली।

हम कैसी नालायकी की बातों में पड़े हुए हैं! इसका कोई मतलब नहीं है! अरविंद मरे, शरीर सड़ा, “फिजिकल इम्मार्टलिटी’ की बात बेमानी हो गई–पहले ही बेमानी थी। लेकिन पहले यह कहा जाता है कि अभी आप कैसे कह सकते हैं, अभी तो अरविंद जिंदा हैं। लेकिन तब भी हम कह सकते थे, क्योंकि आज तक पृथ्वी पर “फिजिकल इम्मार्टलिटी’ संभव नहीं हुई। उसके कारण हैं। उसके कारण हैं, कि जो भी चीज…जैसे बुद्ध ने कहा है–ठीक कहा है–कि जो भी चीज जोड़ से बनती है वह टूटेगी, क्योंकि सब जोड़ों की सीमा है। एक पत्थर को मैं फेंकूंगा, तो वह गिरेगा, क्योंकि मेरे हाथ की ताकत है फेंकने के लिए। वह ताकत जब चुक जाएगी और “रेसिस्टेंस’ टूट जाएगा, तो पत्थर गिर जाएगा। ऐसा कोई पत्थर नहीं हो सकता कि मैं फेंकूं और फिर गिरे ही न। दूरी बढ़ सकती है, लेकिन गिरेगा। जन्म होगा, मृत्यु होगी। हां, ऐसा योगी “फिजिकल इम्मार्टलिटी’ को उपलब्ध हो सकता है जो जन्म ही न ले। एकदम “फिजिकली’ मौजूद हो जाए पृथ्वी पर–स्वयंभू–खड़ा हो जाए एकदम जमीन पर आकर। किसी माता-पिता से जन्म न ले। अब बड़ा मजा यह है कि एक छोर को तो आप मानते हैं कि माता-पिता से जन्म लेंगे और दूसरे छोर को नहीं मानते कि मृत्यु होगी। इस जगत में दोनों छोर सदा साथ हैं। जो माता-पिता से जन्मेगा, वह मरेगा। क्योंकि माता-पिता “इम्मार्टल’ को पैदा नहीं कर सकते। दो शरीर ही हैं वे बेचारे, दो शरीर जो पैदा करेंगे वह शरीर के नियमों से चलेगा। और शरीर के नियमों से मरेगा। यह इतना सीधा-सा गणित भी, लेकिन हम कहेंगे जब तक अरविंद नहीं मरते तब तक आप कुछ नहीं कह सकते।

मैं कहता हूं, मैं कह सकता हूं। उनके मरने के लिए राह देखने की जरूरत नहीं है। क्योंकि यह सीधा गणित और विज्ञान का सूत्र है। इसमें उनकी कल्पनाओं से बाधा नहीं पड़ती, इसमें उनके अनुमानों से कोई अर्थ नहीं है। और फिर मजा यह है कि मर जाने के बाद किससे कहियेगा? अब वह मर गए, अब किससे कहियेगा? अब अरविंद से कोई विवाद का उपाय न रहा। और आप कहते हैं कि पांडिचेरी में जो हो रहा है वह बाद की पीढ़ियां तय करेंगी। तो यह पीढ़ी तो मूढ़ बन ही जाएगी वहां जाकर। इसका क्या होगा? इस पीढ़ी का क्या होगा जो वहां बैठकर मूढ़ता कर लेगी? इसको बनने दें? भविष्य की पीढ़ियां तय करेंगी, लेकिन यह पीढ़ी मर जाएगी।

नहीं, भविष्य के लिए नहीं रुका जा सकता है। ये भी आदमी कीमती हैं जो वहां बैठकर काम में लगे हैं। इनको भी खबर पहुंचानी जरूरी है कि तुम जो कर रहे हो, उसे एक दफा पुनर्विचार कर लो। परमात्मा कभी नहीं उतरता व्यक्ति तक, व्यक्ति ही परमात्मा तक जाता है। लेकिन जाकर जो अनुभव होता है, वे ऐसे ही होता है कि परमात्मा ही उतर आया, वह बिलकुल दूसरी बात है। उसका इससे कोई लेना-देना नहीं है।

एलिस बेली के संबंध में एक सवाल पूछा है। एलिस बेली का खयाल है कि कोई मास्टर “के’ तिब्बत की किन्हीं गुफाओं, हिमालय की किन्हीं कंदराओं से उसे संदेश देते रहे।

इसकी बहुत संभावना है। इसमें बहुत सच्चाइयां हैं।

असल में ऐसी आत्माएं हैं, शरीर से हट गई हैं लेकिन जिनकी अनुकंपा इस जगत से नहीं हट गई है। ऐसी आत्माएं हैं, जो अपने अशरीरी जगत से भी इस जगत के लिए निरंतर संदेश भेजने की कोशिश करती हैं। और कभी अगर उन्हें “मीडियम’ उपलब्ध हो जाए, कोई माध्यम उपलब्ध हो जाए, तो उसका उपयोग करती हैं।

ऐसा कोई बेली के साथ पहली दफा हुआ हो, ऐसा नहीं है। ए.पी.सिनेट ने भी ठीक वैसे ही माध्यम का काम इसके पहले किया था। उसके पहले लीडबीटर ने भी, कर्नल अल्काट ने भी, एनीबेसेंट ने भी, ब्लावट्स्की ने भी, इन सबने भी इस तरह के माध्यम के काम किए थे। इसका एक लंबा इतिहास है। ऐसी आत्माओं से संबंधित होकर, जो आत्मिक विकास के दौर में हमसे आगे की सीढ़ियों पर हैं, बहुत कुछ जाना जा सकता है और बहुत कुछ संदेशित किया जा सकता है, “कम्यूनिकेट’ किया जा सकता है।

ठीक इसी तरह का बहुत बड़ा प्रयोग, जो असफल हुआ, वह ब्रह्मवादियों ने जे.कृष्णमूर्ति के साथ करना चाहा था। बड़ी व्यवस्था की थी कि कृष्णमूर्ति को उन आत्माओं के निकट संपर्क में लाया जाए जो संदेश देने को आतुर हैं, लेकिन जिनके लिए माध्यम नहीं मिलते। और कृष्णमूर्ति की पहली किताबें, “एट द फीट आफ द मास्टर’, या “लाइव्स आफ अलक्यानी’, उन्हीं दिनों की किताबें हैं। इसलिए जे.कृष्णमूर्ति उनके लेखक होने से इनकार कर सकते हैं, करते हैं। वे उन्होंने अपने होश में नहीं लिखी हैं। “एट द फीट आफ द मास्टर’–“गुरुचरणों में’–बड़ी अदभुत किताब है। लेकिन कृष्णमूर्ति उसके लेखक नहीं हैं। सिर्फ माध्यम हैं। किसी आत्मा के द्वारा दिए गए संदेश उसमें संगृहीत हैं।

बेली का भी दावा यही है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक इसे इनकार करेंगे। क्योंकि मनोविज्ञान के पास अभी कोई उपाय नहीं है जहां से वह स्वीकार कर सके। पश्चिम के मनोविज्ञान को अभी कुछ भी पता नहीं है कि मनुष्य के इस शरीर के बाद और शरीर भी हैं। पश्चिम के मनोविज्ञान को अभी यह भी बहुत स्पष्ट पता नहीं हो पा रहा है–मैं मनोविज्ञान कह रहा हूं, “साइकिक साइंसेज’ की बात नहीं कर रहा हूं, “साइकोलॉजी’ की बात कर रहा हूं। पश्चिम का जिसको हमें कहना चाहिए ऑफिसियल साइकोलॉजी, आक्सफर्ड, कैंब्रिज और हार्वर्ड में जो पढ़ाई जाती है विद्यार्थी को, वह जो मनोविज्ञान है–उस मनोविज्ञान को अभी इन सबका कोई भी पता नहीं है कि मनुष्य अशरीरी स्थिति में भी रह सकता है। और अशरीरी स्थितियों से भी संदेश दिए जा सकते हैं। और ऐसी बहुत-सी आत्माएं हैं जो निरंतर संदेश देती रही हैं, इस सदी में ही नहीं।

महावीर के जीवन में बहुत उल्लेख हैं। महावीर एक गांव के किनारे खड़े हैं–मौन हैं। एक ग्वाला अपनी गायों को उनके पास छोड़कर और यह कहर कि मैं थोड़ी देर में आता हूं, जरा मेरी गायों को देखते रहना, गांव वापस चला गया। महावीर मौन खड़े हैं इसलिए हां भी नहीं भर सकते, ना भी नहीं कर सकते। कुछ नहीं कहा है, वह जल्दी में यह सोचकर कि देखता रहेगा यह आदमी, कुछ काम भी नहीं कर रहा है, नंगा खड़ा है गांव के किनारे, वह अंदर चला गया है। लौट कर जब आया है, तब तक गायें चल पड़ी हैं और जंगल के अंदर खो गई हैं। उस आदमी ने समझा कि यह बड़ा बेईमान आदमी मालूम पड़ता है, गायें चोरी करवा दीं इसने, गायें चोरी हो गईं। तो उसने मारा, पीटा, ठोंका; उनके कान में कील ठोंक दिए। और कहा, बहरे हो! लेकिन वह फिर भी चुप रहे, क्योंकि वे चुप ही खड़े हैं।

तो एक कथा है कि इंद्र ने आकर महावीर को कहा कि मैं आपकी रक्षा का कोई उपाय करूं? अब यह इंद्र कोई व्यक्ति नहीं है। यह इंद्र अशरीरी एक आत्मा है, जो इतने निरीह, निपट सरल आदमी पर हुए व्यर्थ के अनाचार से पीड़ित हो गई है। लेकिन महावीर ने कहा, नहीं। अब यह बड़े मजे की बात है कि महावीर ग्वाले से नहीं बोले और इंद्र से कहा, नहीं। तो निश्चित ही यह “नहीं’ भीतर कहा गया है, बाहर नहीं कहा गया है। नहीं तो ग्वाले से ही बोल देते। इसमें क्या कठिनाई थी? इसलिए यह इंद्र से जो बात है, यह “इनर’ है, यह भीतरी है, यह “साइकिक’ है, “एस्ट्रल’ है। यह महावीर ने ओंठ नहीं खोले हैं अभी भी, उनके ओंठ बंद ही हैं। यह बात किसी और तल पर हुई है, नहीं तो महावीर का मौन टूट गया–वह बारह साल के लिए मौन हैं–यह मौन नहीं टूटा। इस पर महावीर के पीछे चलने वालों को बड़ी कठिनाई आती है कि इसको कैसे हल करें, क्योंकि अगर यह इंद्र कोई आदमी है तो फिर यह महावीर बोल गए और मौन टूट गया। और जब इंद्र ही से तोड़ दिया, तो गरीब ग्वाले ने क्या बिगाड़ा था, उससे ही तोड़ लेते! लेकिन न तो मौन टूटा, क्योंकि ऐसे मार्ग हैं जहां बिना वाणी के वाणी संभव है, जहां बिना शब्द के बोला जा सकता है और जहां बिना कानों के सुना जा सकता है, और ऐसे व्यक्तित्व हैं जो अशरीरी हैं।

महावीर ने कहा, नहीं; क्योंकि तुम्हारे द्वारा रक्षित होकर मैं परतंत्र हो जाऊंगा। मुझे असुरक्षित ही रहने दो, लेकिन वह मेरी स्वतंत्रता तो है। अगर तुमसे मैंने रक्षा ली, तो मैं तुमसे बंध जाऊंगा। तो मुझे असुरक्षित रहने दो। असल में महावीर यह कह रहे हैं कि ग्वाला मुझे इतना नुकसान नहीं पहुंचा सकता, जितना तुमसे सुरक्षा लेकर मुझे पहुंच जाएगा। उसे माने दो, उससे कुछ हर्जा नहीं होगा; बाकी तुमसे रक्षा लेकर तो मैं गया, तब तो तुम मेरी “सिक्योरिटी’ बन गए, तुम मेरी सुरक्षा बन गए।

बुद्ध को जब पहली दफा ज्ञान हुआ, तो देवताओं के आने की कथा है कि देवता आए और बुद्ध से प्रार्थना करने लगे–क्योंकि बुद्ध सतत सात दिन तक बोले ही नहीं ज्ञान के बाद। उन्हें ज्ञान हो गया लेकिन वाणी खो गई। अक्सर ऐसा होगा ही। जब ज्ञान होगा, वाणी खो जाएगी। अज्ञान में बोलना बहुत आसान है। क्योंकि कोई डर ही नहीं है कि क्या बोल रहे हैं। जिसका हमें पता नहीं है, उस संबंध में बोलना बहुत सुविधापूर्ण है। क्योंकि भूल होने का भी कोई डर नहीं है। बुद्ध को ज्ञान हुआ, वाणी खो गई, सात दिन वे चुप बैठे रहे, देवता उनके आसपास हाथ जोड़े खड़े रहे और प्रार्थना करते रहे, बोलो। सात दिन बाद वे सुन पाए। देवताओं ने प्रार्थना की कि आप नहीं बोलेंगे तो जगत का बड़ा अहित होगा। लाखों वर्षों में ऐसा व्यक्ति पैदा होता है। तो आप चुप न रहें, आप बोलें!

ये देवता कोई व्यक्ति नहीं हैं। ये वे आत्मायें हैं, जो आतुर हैं कि एक व्यक्ति को उपलब्ध हो गया है। जो वे खुद कहना चाहती हों आत्मायें जगत से, लेकिन उनके पास अब शरीर नहीं है, इस व्यक्ति के पास अभी शरीर है और यह कह सकता है, और इसको वह मिल गया है जो कहा जाने योग्य है, और पृथ्वी पर ऐसी घटना मुश्किल से, मुश्किल से कभी-कभी घटती है। तो वे आत्मायें प्रार्थना करती हैं कि आप कहें। आप कहें। बुद्ध को बामुश्किल राजी कर पाती हैं कहने को। लेकिन बुद्ध का वे माध्यम की तरह उपयोग नहीं कर रही हैं। संदेश उनका और बुद्ध की वाणी नहीं है। बुद्ध का अपना नहीं संदेश है, अपनी ही वाणी है।

एलिस बेली जैसे व्यक्ति गलत नहीं कह रहे हैं। लेकिन वे सही कह रहे हैं, इसको सिद्ध करना उनके लिए बहुत मुश्किल मामला है। वे केवल माध्यम हैं। माध्यम इतना ही कह सकता है कि मुझे ऐसा सुनाई पड़ता है, यह सही है? यह मेरे ही मन का खेल नहीं है, वह कैसे सिद्ध करेगा? यह मेरा ही “अनकांशस’ नहीं बोलता है, यह कैसे सिद्ध करेगा? यह मैं ही अपने को किसी “डिसेप्शन’ में नहीं डाल रहा हूं, यह कैसे सिद्ध करेगा? बहुत मुश्किल है। माध्यम को सिद्ध करना मुश्किल है। इसलिए बेली को मनोवैज्ञानिक हरा सकते हैं।

और आखिरी सवाल पूछा है कि क्या मेरा किसी इस तरह के मास्टर या ऐसे किसी गुरु से संबंध है?

नहीं, उधार काम मैं करता ही नहीं। मेरा संबंध सिर्फ मुझसे है। तो जो भी मैं कह रहा हूं वह मैं ही कह रहा हूं। उसकी भूल-चूक, उसके सही-गलत होने का सारा जिम्मा मुझ पर है। किसी “मास्टर’ से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। और अगर मैं किसी को “मास्टर’ बनाऊं, तो डर यह है कि फिर मैं किसी का “मास्टर’ बन सकता हूं। वह काम मैं करता नहीं। न मैं किसी का शिष्य हूं, न किसी को शिष्य बनाने का सवाल है। निपट जो सीधा मुझे दिखाई पड़ रहा है, वह मैं कह रहा हूं, इसलिए मुझे कोई सिद्ध करने जाने की जरूरत नहीं है कि “मास्टर’ होते हैं कि नहीं होते हैं। मैंने सिर्फ बात कही है आपसे। वे होते हैं कि नहीं होते हैं, इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है। इतना मैं कहता हूं कि शरीर छूट जाने के बाद बुरी आत्मायें भी बच जाती हैं, जिन्हें हम प्रेत कहते हैं। अच्छी आत्मायें भी बच जाती हैं, जिन्हें हम देवता कहते हैं। इन देवताओं के लिए पश्चिम में जो नया शब्द है “मास्टर’ का, वह पकड़ गया है। इन देवताओं ने सदा संदेश भेजे हैं। वे आज भी संदेश भेजने के लिए सदा उत्सुक हैं। प्रेतात्माओं ने भी, बुरी आत्माओं ने भी संदेश भेजे हैं। अगर आपके मन की स्थिति ऐसी हो कि प्रेतात्मा आपको संदेश दे सके, तो बराबर देगी। और बहुत बार आदमियों ने ऐसे काम किए हैं जो उन्होंने नहीं किए हैं, किसी ने उनसे करवाए हैं। बुरे आदमियों ने भी करवाए हैं। बुरी आत्मायें भी आपसे काम करवा लेती हैं, जो आपने नहीं किया है। इसलिए जरूरी नहीं है कि जब अदालत में एक आदमी कहता है कि यह हत्या मैंने नहीं की, मेरे बावजूद हो गई है, तो पक्का नहीं है कि वह आदमी झूठ ही कहता हो। यह हो सकता है। ऐसी आत्मायें हैं, जिन्होंने निरंतर हत्यायें करवाई हैं। ऐसे घर हैं जमीन पर जिन पर उन आत्माओं का वास है कि उस घर में जो भी रहेगा, वे उनसे हत्या करवा लेंगी। बदले हैं लंबे भी; पीढ़ियों ही नहीं चलते झगड़े, जन्मों भी चलते हैं।

एक व्यक्ति को मेरे पास लाया गया–एक युवक को मेरे पास लाया गया। जिस मकान में वह रह रहा है, अभी कोई दो साल पहले, तीन साल पहले वह उस मकान को खरीदे और उसमें आए, तब से उस लड़के में कुछ गड़बड़ होनी शुरू हो गई। और उसका सारा व्यक्तित्व बदल गया। वह सौम्य था, विनम्र था, वह सब खो गया। वह दंभी, अहंकारी, हिंसक, हर चीज की तोड़-फोड़ में उत्सुक, जरा-सी बात में लड़ने को आतुर हो गया–अचानक जिस दिन घर में वह आया। अगर यह धीरे-धीरे होता तो पता भी न चलता। एकदम से “पर्सनैलिटी चेंज’ हुई, एकदम से व्यक्तित्व बदला। वह मेरे पास लाए। उन्होंने कहा कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। और जैसे ही उसको घर के बाहर ले जाते हैं, वह फिर ठीक हो जाता है। जब मेरे पास लाए तो वह ठीक था। वह कहने लगा, मैं खुद ही मुश्किल में हूं। अब अभी मैं बिलकुल ठीक हूं। लेकिन न-मालूम उस घर में जाकर क्या होता है कि मैं एकदम गड़बड़ हो जाता हूं।

उसको बेहोश किया, उसको सम्मोहित किया और उससे पूछा। तो ग्यारह सौ साल लंबी कहानी! कोई आदमी ग्यारह सौ साल पहले उस खेत का मालिक था, जहां वह मकान है। और ग्यारह सौ साल से वह निरंतर कोई पैंतीस हत्यायें करवा चुका। उसने सब वक्तव्य दिया कि मैं तो इससे जब तक हत्या न करवा लूं, तक तक छोड़ने वाला नहीं हूं। और ग्यारह सौ साल से निरंतर वह उस परिवार के लोगों की हत्या करवा रहा है, जिसके द्वारा उसकी हत्या ग्यारह सौ साल पहले की गई थी। उसकी हत्या की गई थी। और तब से वह प्रेत है और उस जगह बैठा है। और जिसने उसकी हत्या की थी, जिस परिवार ने, जिस दस-पंद्रह लोगों ने उसकी हत्या में हाथ बंटाया था, निरंतर उनकी हत्या में वह संलग्न है, वे किसी रूप में, वे कहीं पैदा हों, वह उनकी हत्या करवा रहा है।

बुरी आत्मायें भी अपने संदेश पहुंचाने की चेष्टा करती हैं। बहुत बार आप इस खयाल में होंगे कि आप कर रहे हज, आप नहीं कर रहे होते। बहुत बार आपसे ऐसा अच्छा कृत्य हो जाता है जो कि आप खुद ही नहीं सोच सकते कि मैं कर सकता था! दूसरे की बात छोड़ें, दूसरा तो मानता ही नहीं कि किसी ने अच्छा किया, आप खुद भी नहीं मान पाते कि इतना अच्छा मैं कर सकता था जो मैंने किया। उसमें भी कोई संदेश काम करते चले जाते हैं।

बेली के वक्तव्य में कोई गलती नहीं है, लेकिन बेली अपने वक्तव्यों को सिद्ध न कर पाएगा। कोई नहीं कर पाता। ब्लावट्स्की नहीं कर पाई अपने वक्तव्यों को सिद्ध। और मैंने इस बीच एक बात कही, उसको थोड़ा और समझा दूं। मैंने कहा कि कृष्णमूर्ति के साथ एक बहुत बड़ा प्रयोग किया जा रहा था, जो असफल गया। एक बहुत बड़ा प्रयोग था कि जिनको हम देवलोग की आत्मायें कहें, उनमें बहुत-सी आत्मायें एक-साथ उत्सुक होकर इस व्यक्ति में एक ऐसी चेतना को जन्माना चाहती थीं जैसा कि बुद्ध, महावीर या कृष्ण, इस तरह की बड़ी चेतना इस व्यक्ति के भीतर प्रवेश कर जाए। ऐसी कोई चेतना आतुर है। असल में बुद्ध का ही एक आश्वासन अभी प्रतीक्षा कर रहा है। बुद्ध का एक आश्वासन है कि ठीक समझना कि मैं ही मैत्रेय के नाम से एक बौर और लौट आऊंगा। तो मैत्रेय नाम का बुद्ध-अवतार आतुर है, लेकिन उसके योग्य शरीर उपलब्ध नहीं हो रहा है। उसके योग्य ठीक संस्थान और “मीडियम’ उपलब्ध नहीं हो रहा है। “थियोसॉफी’ का सारा-का-सारा आयोजन, कोई सौ वर्ष की निरंतर श्रम-व्यवस्था एक ऐसे व्यक्ति को खोजने के लिए थी, जिसमें मैत्रेय की आत्मा प्रवेश कर जाए। इसलिए तीन-चार व्यक्तियों पर मेहनत उन्होंने शुरू की, लेकिन सभी असफल हुआ। सर्वाधिक मेहनत कृष्णमूर्ति पर की गई थी, लेकिन वह नहीं हो सका। और नहीं होने के कारण में, अति मेहनत ही कारण बनी। सारे लोग इतने चेष्टारत हो गए, चारों तरफ से इतना दबाव डाला गया कि स्वभावतः कृष्णमूर्ति का अपना व्यक्तित्व विद्रोही और बगावती हो गया। वह “रिएक्ट’ कर गया। उसने अंततः इनकार कर दिया कि–नहीं!

और उसके बाद चालीस साल हो गए, लेकिन कृष्णमूर्ति “रिएक्शन’ से पूरी तरह मुक्त नहीं हैं। वह अभी भी उन्हीं के खिलाफ बोले चले जा रहे हैं। वह कुछ भी बोलते हैं, उसमें उनकी खिलाफत मौजूद है ही। बहुत गहरे में वह पीड़ा अभी भी मौजूद है, वह घाव एकदम भर नहीं गया। लेकिन, थोड़ी गलती हो गई। कृष्णमूर्ति की हैसियत के आदमी को दूसरे की आत्मा के प्रवेश के लिए राजी नहीं किया जा सकता। थोड़ी और कमजोर आत्मा चुननी थी। फिर उन्होंने कृष्णमूर्ति से कमजोर आत्मायें चुनीं लेकिन उसकी भी तकलीफ है। उतनी कमजोर आत्मा उस आत्मा के प्रवेश के योग्य नहीं बन पाती। वह पात्र छोटा पड़ जाता है। और मैत्रेय की आत्मा उसमें प्रवेश न कर पाए। और जो पात्र बड़ा पड़ सकता है, वह खुद अपनी आत्मा में इतना गहरा है कि वह किसी आत्मा के प्रवेश के लिए राजी क्यों हो? इसलिए बचपन में तो कृष्णमूर्ति को उन्होंने किसी तरह राजी रखा, लेकिन जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ी और उनकी “अवेयरनेस’ बढ़ी और उनकी खुद की चेतना का जन्म हुआ, वैसे-वैसे इनकार बढ़ता चला गया। एक बहुत बड़ा प्रयोग सफल नहीं हो सका और मैत्रेय की आत्मा आज भी भटकती है।

लेकिन कठिनाई बड़ी है, और कठिनाई यही है कि जो राजी हो सकते हैं उसके लिए, वह योग्य नहीं है और जो योग्य हैं, वह राजी नहीं हो सकते। इसलिए कहा नहीं जा सकता कि कितनी देर लगेगी मैत्रेय के व्यक्तित्व को उतरने में। उतर भी सकेगा जल्दी, यह भी संभावना रोज सिकुड़ती जाती है। क्योंकि अब तो कोई बड़ा आयोजन भी नहीं है उसकी तैयारी के लिए। अब तो आकस्मिक आयोजन ही काम कर सकता है। वैसा ही आयोजन सदा काम किया है, अतीत में। कोई बुद्ध के लिए किसी व्यक्ति को राजी नहीं करना पड़ा। एक गर्भ उपलब्ध हो गया और बुद्ध प्रवेश कर गए। और महावीर के लिए किसी को राजी नहीं करना पड़ा, एक गर्भ उपलब्ध हो गया और महावीर प्रवेश हो गए। लेकिन उतने श्रेष्ठ गर्भ उपलब्ध होने मुश्किल होते चले गए हैं।

“गीता के सात सौ एक श्लोकों का परायण करने में कम-से-कम चार घंटे लग जाते हैं। तो क्या कुरुक्षेत्र के रण-मैदान में दोनों सेनाओं के मध्य में जब श्रीकृष्णार्जुन-संवाद हुआ, उस दरम्यान चार घंटे तक युद्ध स्थगित कर दिया गया?’

बिलकुल ठीक है। बैठिये।

“आपने कहा था कि ज्यादा-से-ज्यादा एक साल तक शरीर छोड़ने के बाद आत्मा दूसरा जन्म ले लेती है। आज कहा कि ग्यारह सौ साल तक खून करवाती रही एक प्रेतात्मा?’

हां, ये विशेष स्मृति वाले लोग हैं। साधारण स्मृति की बात कर रहा था मैं, ये विशेष स्मृति वाले लोग हैं। और हमारे बीच विशेष स्मृति वाले लोग भी हैं।

कर्जन ने अपने संस्मरणों में एक घटना लिखी है। कर्जन ने लिखा है कि उसके पास एक विशेष स्मृति का आदमी राजस्थान से लाया गया। विशेष शब्द भी छोटा पड़ जाता है उसकी स्मृति के लिए। वह सिर्फ राजस्थानी के अतिरिक्त कोई भी भाषा नहीं जानता है। तीस भाषा बोलने वाले लोग लार्ड कर्जन के वाइसराय-भवन में बिठाए गए–तीस भाषा बोलने वाले लोग। और उन तीसों से कहा गया कि वे एक-एक वाक्य अपनी-अपनी भाषा को खयाल में ले लें। फिर वह राजस्थानी, ठेठ गंवार, गांव का आदमी पहले आदमी के पास गया और वह अपनी भाषा के वाक्य का पहला शब्द उसे बताएगा, फिर एक जोर का घंटा बजाया जाएगा। फिर वह दूसरे के पास जाएगा, वह अपनी भाषा के अपने वाक्यों का पहला शब्द उसे बताएगा। फिर जोर से घंटा बजाया जाएगा। ऐसा वह तीस लोगों के तीस वाक्यों का पहला शब्द लेकर पहले आदमी के पास वापिस लौटेगा। अब वह दूसरा शब्द बताएगा, फिर घंटा, और ऐसा चलेगा। ऐसा घंटों की लंबी यात्रा में वे तीस आदमी अपने तीस वाक्य बता पाएंगे, और हर शब्द के बाद तीस शब्दों का अंतराल होगा। और बाद में उस आदमी ने तीसों आदमियों के तीसों वाक्य अलग-अलग बता दिए कि इस आदमी का पूरा वाक्य यह है, इस आदमी का पूरा वाक्य यह है, इस आदमी का पूरा वाक्य यह है। अब ऐसा आदमी अगर प्रेत हो जाए, तो ग्यारह सौ साल बहुत कम हैं। ऐसे आदमी के लिए ग्यारह सौ साल बहुत कम हैं, यह ग्यारह लाख साल तक भी याद रख सकता है। विशेष स्मृति की बात है।

और आप जो पूछते हैं, वह बहुत कीमती सवाल है। ठीक पूछते हैं। चार घंटे लग गए! अगर हम गीता को पढ़ें तो चार घंटे लगते हुए मालूम पड़ते हैं। चार घंटे तक युद्ध रुका रहा होगा? संभव नहीं मालूम होता। कोई तो सवाल उठाता कि यह क्या हो रहा है? हम यहां युद्ध करने आए, हम कोई यह लंबा गीता का पाठ सुनने नहीं आए, यह कोई गीता-ज्ञान यज्ञ नहीं है कि यहां चार घंटे तक गीता का पाठ चले।

चार घंटे विचारणीय हैं।

अगर हम इतिहासज्ञ से पूछेंगे, तो वह कहेगा कि कुछ बात ऐसी होगी कि गीता तो थोड़े में कही गई होगी, फिर बाद में उसका विस्तार किया गया। अगर हम महाभारत के जानकारों से पूछें, तो वे कहेंगे गीता जो है, वह प्रक्षिप्त है। यह जगह मौजूं है ही नहीं। ऐसा मालूम होता है कि महाभारत पहले लिखा गया और फिर किसी कवि ने इस मौके को चुनकर अपनी पूरी कविता इसमें डाल दी, लेकिन यह जगह मौजूं नहीं मालूम पड़ती। युद्ध के स्थल पर इतने बड़े संदेश देने का कोई अवसर नहीं है, कोई उपाय नहीं है।

मैं क्या कहूंगा? न तो मैं मानता हूं कि प्रक्षिप्त है गीता, न मैं मानता हूं कि पहले संक्षिप्त में कही गई और फिर बड़े में कही गई। एक छोटे-से उदाहरण से समझाऊं तब खयाल में आ जाए।

विवेकानंद जर्मनी गए और डयूसन के घर मेहमान हुए। और डयूसन पश्चिम में उन दिनों “इंडोलाजी’ का, भारतीय ज्ञान का बड़े-से-बड़ा पंडित था। उस कोटि के एक ही दो आदमी, जैसे मेक्समूलर का नाम गिना सकते हैं। फिर भी कई मामलों में मेक्समूलर से भी डयूसन की अंतर्दृष्टि गहरी है। उपनिषदों को पश्चिम में समझने वाला वह पहला आदमी है। गीता को समझने वाला भी पश्चिम में वह ठीक पहला आदमी है। डयूसन का अनुवाद ही लेकर शापेनहॉर सड़क पर नाचा था। गीता का अनुवाद डयूसन का जब शापेनहॉर ने पहली दफा पढ़ा, तो सिर पर रखकर वह बाजार में नाचने लगा। और उसने कहा, यह किताब पढ़ने जैसी नहीं है, नाचने जैसी है। और शापेनहॉर साधारण आदमी नहीं था, असाधारण रूप से उदास आदमी था। उसकी जिंदगी में नाच बहुत मुश्किल बात है। एकदम उदास है, उदास और दुखवादी था। “पेसिमिस्ट’ था। मानता ही यह था कि जिंदगी दुख है। और सुख सिर्फ आगे आने वाले दुख में डालने की तरकीब है। जैसे कि हम मछली को आटा लगाकर कांटा डाल देते हैं। बस, आटा है सुख। असली चीज कांटा है, जो दुख है। आटे में फंस जाओगे, कांटा चुभ जाएगा। तो सुख का इतना ही मूल्य मानता था, जितना मछली के लिए आटा मानता है। वह शापेनहॉर डयूसन का अनुवाद लेकर नाचा था। उस डयूसन के घर विवेकानंद मेहमान थे।

डयूसन ने जर्मन भाषा में लिखी एक किताब जिसे वह पढ़ रहा था, कई दिन से मेहनत कर रहा था। आधी पढ़ चुका था। जब विवेकानंद उसके पास गए थे तो वह आधी पढ़ रहा था। उसने कहा, यह बड़ी अदभुत किताब है। विवेकानंद ने कहा कि घंटे भर के लिए मुझे भी दे दो। पर उसने कहा, आप तो ज्यादा जर्मन जानते नहीं। तो विवेकानंद ने कहा कि जो ज्यादा जर्मन जानते हैं क्या वे समझ ही लेंगे? उसने कहा, यह जरूरी नहीं है। तो विवेकानंद ने कहा, उलटा भी हो सकता है कि जो कम जर्मन जानता हो, वह भी समझ ले। खैर, मुझे दो। पर डयूसन ने कहा, आप दोत्तीन दिन ही तो यहां मेहमान होंगे, पंद्रह दिन तो मैं मेहनत कर चुका, अभी आधी ही पढ़ पाया हूं। विवेकानंद ने कहा कि मैं डयूसन नहीं हूं, मैं विवेकानंद हूं। खैर, वह किताब दे दी गई और घंटे भर बाद विवेकानंद ने वह किताब वापस कर दी। डयूसन ने कहा कि क्या! किताब पढ़ गए! विवेकानंद ने कहा, पढ़ ही नहीं गए, समझ भी गए। डयूसन ऐसे छोड़ने वाला आदमी न था। उसने दस-पांच प्रश्न पूछे, जो हिस्सा वह पढ़ चुका था उस बाबत, और विवेकानंद ने जो समझाया तो डयूसन तो दंग रह गया। उसने कहा कि आप समझ भी गए! कैसे यह हुआ, यह चमत्कार कैसे हुआ? विवेकानंद ने कहा, पढ़ने के साधारण ढंग भी हैं, असाधारण ढंग भी हैं।

हम सब साधारण ढंग से पढ़ते हैं, इसलिए जिंदगी में दस-पांच किताबें भी पढ़ पाएं, समझ पाएं, तो बहुत है। और ढंग भी हैं। और असाधारण ढंगों की बड़ी सीढ़ियां हैं। ऐसे लोग भी हैं जो किताब को हाथ में रखें और आंखें बंद करें और किताब फेंक दें। लेकिन वे “साइकिक’ ढंग हैं, वे बहुत आंतरिक ढंग हैं।

तो मेरा अपना मानना जो है वह मैं आपको कहूं, कृष्ण ने यह गीता कोई प्रकट वाणी में अर्जुन से नहीं कही है। यह बड़ा “साइकिक कम्यूनिकेशन’ है, इसका किसी को पता ही नहीं चला है। यह आसपास जो युद्ध में खड़े हुए लोग हैं, उन्होंने यह नहीं सुनी है। नहीं तो भीड़ लग जाती वहां। वहां सभी इकट्ठे हो जाते, कम-से-कम पांडव तो इकट्ठे हो ही जाते। चार घंटे गीता चलती, उधर कुछ भी हो सकता था; नहीं इस चार घंटे में कम-से-कम कृष्ण जैसा आदमी बोलता हो तो कम-से-कम पांडव तो सब इकट्ठे हो ही जाते। कौरव भी इकट्ठे हो सकते थे। कुछ भी हो सकता था, हमला भी हो सकता था, कुछ भी हो सकता था। लेकिन नहीं, यह कृष्ण और अर्जुन के बीच “इनर कम्यूनिकेशन’ है। वह “साइकिक कम्यूनिकेशन’ है। यह ठीक शब्दों में बाहर कहा नहीं गया, यह भीतर बोला गया है, भीतर पूछा गया है। और इसकी खबर सबसे पहले आसपास खड़े लोगों को नहीं चली। सबसे पहले संजय को पता चला।

अब यह भी बड़े मजे की बात है कि वह इतने दूर बैठा है संजय और अंधे धृतराष्ट्र से कहता है। अंधा धृतराष्ट्र पूछता है कि मेरे बेटे क्या कर रहे हैं युद्ध में? कौरव-पांडवों के बीच जो चल रहा है वहां, क्या हो रहा है? ये बहुत मीलों का फासला है। संजय उस कथा को कहता है कि वहां वे धर्म के क्षेत्र में, कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हो गए हैं। वहां यह सब हो रहा है। वहां अर्जुन दुविधा में पड़ गया है। वहां अर्जुन जिज्ञासा कर रहा है। वहां कृष्ण ऐसा समझा रहे हैं। यह भी “टेलिपैथिक कम्यूनिकेशन’ है। यह संजय के पास कोई उपाय नहीं है, कुरुक्षेत्र में क्या हो रहा है उसको कहने का। तो दो आदमियों ने गीता सुनी सबसे पहले। पहले सुनी अर्जुन ने, उसके साथ सुनी संजय ने, उसके बाद सुनी धृतराष्ट्र ने, उसके बाद सुनी जगत ने। फिर उसके बाद सब फैलाव हुआ। बाकी यह कोई बाहर कही गई बात नहीं है। इसलिए चार घंटे हमें लगते हैं गीता को पढ़ने में क्योंकि हम बाहर पढ़ते हैं। चार क्षण में भी हो गई हो, यह भी संभव है। एक क्षण भी न लगा हो, यह भी संभव है।

“भगवान श्री, जैन-इतिहास के आधार पर जैनों के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई थे। घोर तपश्चर्या के बाद वे ही हिंदुओं के घोर अंगिरस ऋषि के नाम से प्रचलित हुए। और अध्यात्म ज्ञान की परंपरा में गुहय-ज्ञान के क्षेत्र में वे श्रीकृष्ण के “लिंक’ रहे। आपकी इस संबंध में क्या दृष्टि है? क्या ऐसा संबंध होता है? क्योंकि आपने ही कहा कि कृष्ण का होना आंतरिक कारणों पर अवलंबित था। वे आंतरिक कारण क्या थे–गुहयज्ञान के संदर्भ में?’

नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई हैं। और यह उन दिनों की कथा है, जब हिंदू और जैन दो धारायें नहीं बने थे। हिंदू और जैन महावीर के बाद स्पष्ट रूप से टूटे और अलग धारायें बने। नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई हैं और जैनों के बाईसवें तीर्थंकर हैं। लेकिन नेमिनाथ और कृष्ण के बीच किसी तरह का कोई “इज़ोटेरिक’ संबंध नहीं है। किसी तरह का कोई गुहय-ज्ञान का संबंध नहीं है। उसका कारण है। क्योंकि नेमिनाथ एक बहुत ही विभिन्न प्रकार की “वन डायमेंशनल’ परंपरा के हकदार हैं। नेमिनाथ, जैनों की जो चौबीस तीर्थंकरों की परंपरा है जिसने संभवतः त्याग की “डायमेंशन’ में इस “पृथ्वी पर सर्वाधिक प्रयोग किया है। इस पृथ्वी पर इतनी लंबी परंपरा और इतने अदभुत व्यक्तियों की इतनी बड़ी कड़ी कहीं भी नहीं हुई है।

जैनों के पहले तीर्थंकर ऋग्वेद के समकालीन, या थोड़े-से पूर्वकालीन हैं। क्योंकि ऋग्वेद में पहले तीर्थंकर के प्रति इतने सम्मानवादी शब्द हैं, जो कि समकालीन लोग समकालीन के प्रति इतनी शिष्टता कभी नहीं दिखलाते। वे शब्द इतने आदरपूर्ण हैं कि ऐसा लगता है कि यह आदमी आदृत तब तक हो चुका होगा। थोड़ा-सा वक्त बीत गया होगा। क्योंकि समकालीन आदमी के प्रति इतने सम्मानजनक शब्द–अभी तक मनुष्य इतना सभ्य नहीं हो पाया है! पर इतना तो पक्का है कि वह समकालीन हैं, क्योंकि उनका नाम उपलब्ध है, और आदर से उपलब्ध है। वेद से लेकर महावीर तक हजारों साल का फासला है। इतिहास निर्णय नहीं कर पाता कि वे हजार साल कितने हैं। पश्चिम के नाप-जोख के जो ढंग हैं उस नाप-जोख के ढंग से पहले तो वे हजार-डेढ़ हजार साल से ज्यादा फासला नहीं जोड़ पाते थे, क्योंकि “क्रिश्चियनिटी’ एक बहुत गहरे पक्षपात से भरी है कि पृथ्वी को बने ही…जीसस के चार हजार साल पहले सृष्टि ही बनी। तो अब वह कोई छः ही हजार साल ही जगत की सृष्टि के हुए, तो इसमें हिंदुओं की और जैनों की काल-गणना का तो उपाय ही नहीं है। क्योंकि जब सृष्टि ही केवल छः हजार साल पहले बनी हो, तो वह लाखों साल के लंबे हिसाब का कहां हिसाब होगा।

तो इसलिए जिन लोगों ने पहली दफा पश्चिम की काल-गणना के हिसाब से यहां सोचना शुरू किया, उन्होंने हजार-डेढ़ हजार साल के “स्पैन’ में सारी बातों को बिठाने की कोशिश की, लेकिन वह सच नहीं है। और अब तो “क्रिश्चियनिटी’ को अपनी काल-गणना का ढंग छोड़ देना पड़ा है। लेकिन बड़े मजेदार लोग हैं, अंधविश्वास भी बड़े मुश्किल से छूटते हैं। अब तो जमीन में ऐसी हड्डियां मिल गईं, जो लाखों साल पुरानी हैं। लेकिन एक मजे की बात आपसे कहूं–अंधविश्वासियों को कोई प्रमाण डिगा नहीं सकता। एक ईसाई “थियोलॉजियन’ ने, जब ये हजारों-लाखों साल पुरानी, तीनत्तीन, चार-चार, पांच-पांच लाख साल पुरानी हड्डियों का आविष्कार हुआ और जमीन से मिलीं, तो क्या कहा? उसने कहा, कि भगवान के लिए सब कुछ संभव है। जब उसने पृथ्वी बनाई, तो उसमें ऐसी हड्डियां भी उसने डाल दीं जो पांच लाख साल पुरानी मालूम पड़ सकती हैं। आदमी का मन!

लेकिन अब विज्ञान की काल-गणना लंबी हुई है। तिलक ने तो तय किया वेद को कम-से-कम नब्बे हजार-वर्ष–कम-से-कम। नब्बे न भी हों, तो भी लंबा काल है। हजारों साल तक वेद सिर्फ स्मरण रखे गए हैं। फिर हजारों साल से लिखे हुए हैं। और जितना काल उनका लिखे हुए बीता है, उससे भी बहुत बड़ा काल उनका अनलिखा बीता है। उसमें ऋग्वेद में जैनों का पहला तीर्थंकर मौजूद है। और चौबीसवां तीर्थंकर तो बहुत ही ऐतिहासिक प्रमाणों से पच्चीस सौ साल पुराना है। यह जो चौबीस तीर्थंकरों की लंबी परंपरा है, यह पृथ्वी पर त्याग के “डायमेंशन’ में सबसे बड़ी परंपरा है। इसका कोई मुकाबला पृथ्वी पर कहीं भी नहीं है। और भविष्य में भी कहीं हो सकेगा, बहुत मुश्किल है। क्योंकि अब वह “डायमेंशन’ ही धीरे-धीरे क्षीण होती चली गई। इसलिए यह बात बहुत सार्थक मालूम पड़ती है कि चौबीसवें तीर्थंकर के बाद पच्चीसवां तीर्थंकर नहीं होगा। क्योंकि त्याग का “डायमेंशन’ जो है, वह सूख गया। अब उस त्याग के “डायमेंशन’ की कोई सार्थकता नहीं रही भविष्य के लिए। लेकिन अतीत में वह बड़ा सार्थक “डायमेंशन’ था। नेमिनाथ उसमें बाईसवीं कड़ी हैं। कृष्ण के वे चचेरे भाई हैं। कभी-कभी कृष्ण का उनसे मिलना भी होता है। गांव से नेमिनाथ निकलते हैं, तो कृष्ण उनको सम्मान देने जाते हैं। यह भी बड़े मजे की बात है। नेमिनाथ गांव से निकलते हैं तो कृष्ण सम्मान देने जाते हैं। नेमिनाथ कभी कृष्ण को सम्मान देने नहीं गए।

त्यागी किसी को सम्मान दे, यह बड़ा मुश्किल है। बहुत कठिन है। त्यागी बड़ा कठोर हो जाता है, बड़ा पथरीला हो जाता है। उसके लिए व्यक्ति-संबंध और राग का कोई मूल्य नहीं रह जाता। तो ऐसा समझें कि कृष्ण की तरफ से नेमिनाथ चचेरे भाई हैं, नेमिनाथ की तरफ से कोई भाई-वाई नहीं है। क्योंकि नेमिनाथ कभी कुशल-क्षेम पूछने भी नहीं गए। उससे कोई संबंध नहीं है। वह तो राग की दुनिया के बाहर हैं, विराग का “डायमेंशन’ है, जहां सब संबंध छोड़ देने हैं, असंग हो जाना है; जहां कोई अपना नहीं है, जहां कोई है ही नहीं जिससे कोई संबंध जोड़ने की बात हो। लेकिन अगर कोई सोचता हो कि नेमिनाथ से कोई “इज़ोटेरिक’ बात, कोई गुहय-बात कृष्ण को मिली हो, ऐसा नहीं है। क्योंकि नेमिनाथ कृष्ण को कुछ भी नहीं दे सकते हैं। चाहते तो कृष्ण से कुछ ले सकते थे। उसके कारण हैं। क्योंकि कृष्ण “मल्टी-डायमेंशनल’ हैं। कृष्ण बहुत कुछ जानते हैं जो नेमिनाथ नहीं जानते–नहीं जान सकते। नेमिनाथ जो जानते हैं, उसे कृष्ण जान सकते हैं, पहचान सकते हैं। उसमें कोई कठिनाई नहीं है।

कृष्ण का व्यक्तित्व समग्र को आच्छादित करता है। नेमिनाथ का व्यक्तित्व एक दिशा को पूरा-का-पूरा जीता है। इसलिए नेमिनाथ कीमती व्यक्ति थे कृष्ण के युग में, लेकिन इतिहास पर उनकी कोई छाप नहीं छूट जाती। त्यागी की कोई छाप इतिहास पर नहीं छूट सकती। इतिहास पर त्यागी की क्या छाप छूटेगी? उसकी एक ही कथा है कि उसने छोड़ दिया। एक ही घटना है जो इतिहास अंकित करेगा कि उसने सब छोड़ दिया। कृष्ण का व्यक्तित्व सारे हिंदुस्तान पर छा गया। सच तो ऐसा है कि कृष्ण के साथ हिंदुस्तान ने जिस ऊंचाई को देखा, फिर वह दुबारा नहीं देख पाया। कृष्ण के साथ उसने जो युद्ध लड़ा, महाभारत, फिर वैसा युद्ध नहीं लड़ पाया। फिर हम छोटी-मोटी लड़ाइयों में, टुच्ची लड़ाइयों में उलझे रहे।

महाभारत जैसा युद्ध कृष्ण के साथ संभव हो सका। और ध्यान रहे, साधारणतः लोग सोचते हैं कि युद्ध लोगों को नष्ट कर जाते हैं। लेकिन हिंदुस्तान ने तो कृष्ण के बाद, महाभारत के बाद कोई बड़ा युद्ध नहीं लड़ा। हिंदुस्तान को तो सबसे ज्यादा समृद्ध होना चाहिए था, नष्ट होने का कोई कारण नहीं। लेकिन आज पृथ्वी पर वे ही कौमें समृद्ध हैं, जो बड़े युद्धों से गुजरी हैं। युद्ध नष्ट नहीं कर जाते, युद्ध सोई हुई ऊर्जा को जगा जाते हैं। असल में युद्ध के क्षणों में ही कोई कौम अपनी चेतना के, अपने होने के, अपने अस्तित्व के शिखरों को छूती हैं। चुनौती के क्षण में ही हम पूरे जगते हैं। तो महाभारत के बाद ऐसे जागरण का कोई क्षण नहीं आया जब हमने पूरी तरह अपने को जाना हो।

पिछले दो महायुद्ध जहां गुजरे हैं, एक कथा है उनकी कि वे टूटे और मिटे। लेकिन वह अधूरी है कथा। जापान नष्ट हो गया था बुरी तरह। लेकिन सिर्फ बीस साल में, जैसा जापान कभी नहीं था, वैसा फिर प्रगट हो गया। जर्मनी टूट कर बिखर गया था। दो युद्ध गुजरे उसकी छाती पर। लेकिन पहला युद्ध उन्नीस सौ चौदह में गुजरा और बीस साल बाद वह फिर दूसरा युद्ध लड़ने के योग्य हो गया। और कोई नहीं कह सकता कि दस-पांच वर्षों में वह फिर तीसरा युद्ध लड़ने के योग्य नहीं हो जाएगा। यह बड़ी आश्चर्य की बात है कि हमने युद्ध का एक ही पहलू देखा है कि वह नष्ट कर जाता है। हमने दूसरा पहलू नहीं देखा कि वह हमारी सोयी हुई प्रसुप्त चेतना को जगा जाता है। और हमने यह नहीं देखा कि उसकी चुनौती में हमारे वे जो अंश बेकाम पड़े रहते हैं, सक्रिय हो उठते हैं। “क्रिएटिव’ हो उठते हैं। असल में विध्वंस की छाया में, विध्वंस के साथ सृजन की क्षमता और आत्मा भी पैदा होती है। वे भी जीवन के दो पहलू हैं, इकट्ठे। और कृष्ण, जो इतने रागरंजित हैं, जो इतने नृत्य-गान में मस्त हैं, जो गीत और बांसुरी में जिए हैं, वे उस युद्ध को स्वीकार कर लेते हैं। इस स्वीकृति में कोई विरोध नहीं पड़ता। और इतने बड़े युद्ध के वे कारण बन जाते हैं।

नेमिनाथ जैसे व्यक्ति इतिहास पर कोई रेखा नहीं छोड़ जाते। इसलिए बहुत मजे की बात है कि जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में पहले तीर्थंकर का उल्लेख हिंदू ग्रंथों में है। फिर पार्श्वनाथ का थोड़ा-सा उल्लेख हिंदू ग्रंथों में है, तेईसवें तीर्थंकर का। और बाईसवें तीर्थंकर का अनुमान किया जाता है कि घोर अंगिरस के नाम से जिस व्यक्ति का उल्लेख है, वह नेमिनाथ है। महावीर तक का उल्लेख हिंदू ग्रंथों में नहीं है। इतने प्रभावी व्यक्ति, लेकिन इतिहास पर कोई रेखा नहीं छोड़ जाते। असल में “रिनंसिएशन’ का मतलब ही यह है, त्याग का मतलब ही यह है कि हम इतिहास से विदा होते हैं। हम उस घटनाक्रम से विदा होते हैं जहां चीजें घटती हैं, बनती हैं, बिगड़ती हैं। हम उस तरफ जाते हैं जहां न कुछ बनता है, न कुछ बिगड़ता है, जहां सब शून्य है।

कृष्ण से सीखने को हो सकता है नेमिनाथ के लिए, लेकिन नेमिनाथ सीखेंगे नहीं। कोई जरूरत नहीं है। कोई प्रयोजन नहीं है। और नेमिनाथ के पास एक धरोहर है। उनके पीछे इक्कीस तीर्थंकरों की एक बड़ी धरोहर है, एक बड़े अनुभव का सार उनके पास है। और उस यात्रा-पथ पर जहां वे चल रहे हैं, उस यात्रा-पथ पर उनके पास पर्याप्त पाथेय है। उनको कुछ सीखने की कहीं कोई जरूरत नहीं है। इसलिए नमस्कार वगैरह होता है, कुछ लेन-देन नहीं होता, कुछ आदान-प्रदान नहीं होता। ऐसे कृष्ण कभी नेमिनाथ बोलते हैं तो वहां भी सुनने चले जाते हैं। इससे कृष्ण की गरिमा ही प्रगट होती है। इससे महिमा ही प्रगट होती है, सीखने की सहजता ही प्रगट होती है। नहीं, कृष्ण ही वह कर सकते हैं। क्योंकि जिसे जीवन के सब पहलुओं में रस हो, वह कहीं भी सीखने जा सकता है। वह किसी को भी गुरु बना सकता है। वह किसी से भी सीख ले सकता है। लेकिन, नेमिनाथ से कुछ कृष्ण को अंतस्तल पर उपलब्ध होता हो, ऐसी कोई जरूरत ही नहीं है। ऐसा कोई कारण ही नहीं है।

“कृष्ण ने किस नास्तिकता से गुजर कर इतनी गहरी आस्तिकता पायी?’

जो गहरा आस्तिक है, वह गहरा नास्तिक होता ही है। सिर्फ उथले आस्तिक उथले नास्तिकों के विरोध में होते हैं। झगड़ा सदा उथलेपन का है। गहरे में कोई झगड़ा नहीं है। झगड़ा सिर्फ नासमझ आस्तिकों का नासमझ नास्तिकों से है। समझदार आस्तिक नास्तिक से झगड़ने नहीं जाएगा। समझदार नास्तिक आस्तिक से झगड़ने नहीं जाएगा। क्योंकि समझ कहीं से भी आ जाए, एक पर पहुंच जाती है। आस्तिक कहता क्या है? आस्तिक इतना ही कहता है कि परमात्मा है। लेकिन जब आस्तिकता की गहराई बढ़ती है तो परमात्मा दूसरा नहीं रह जाता। मैं ही परमात्मा हो जाता हूं। नासमझ आस्तिक कहता है, वहां है परमात्मा; कहीं और। समझदार आस्तिक कहता है, यहीं है परमात्मा; यहीं। नास्तिक कहता है, कहीं कोई परमात्मा नहीं है। अगर नास्तिक और गहरी समझ में जाए तो उसका भी मतलब यही है कि कहीं कोई परमात्मा नहीं है। मतलब, जो है, उसके अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं है, जो है, वही है। वह उसे प्रकृति का नाम देता है।

नीत्से का एक वचन है, और नीत्से गहरे-से-गहरे नास्तिकों में एक है। उतना ही गहरा, जितना कोई आस्तिक कभी गहरा होता है। नीत्से का एक वचन है कि यदि कहीं भी कोई परमात्मा है तो मैं बर्दाश्त न कर पाऊंगा, क्योंकि फिर मेरा क्या होगा? यानी वह यह कह रहा है कि अगर कहीं भी कोई परमात्मा है, मैं बर्दाश्त न कर पाऊंगा, मेरा क्या होगा? तब मैं कहां खड़ा होता हूं फिर? और अगर किसी को परमात्मा होना ही है, तो मेरे होने में हर्ज क्या है? मैं ही परमात्मा हो जाऊंगा। अब यह घोर नास्तिक है। यह कहता है, कोई परमात्मा नहीं है, क्योंकि मतलब यह है कि जो है वही परमात्मा है। यह अतिरिक्त परमात्मा को सोचने की बात गलत है। गहरा आस्तिक भी यही कहता है कि अतिरिक्त परमात्मा नहीं है। जो है वही परमात्मा है।

मैंने गहरी आस्तिकता और गहरी नास्तिकता में कभी कोई फर्क नहीं देखा। असल में आस्तिक विधेयवाची शब्दों का प्रयोग करता है, इतना ही फर्क है। और नास्तिक निषेधवाची शब्दों का प्रयोग करता है, इतना ही फर्क है। इसलिए जो विधेयवादी आस्तिक था उसने बुद्ध को, महावीर को नास्तिक कहा है। बुद्ध और महावीर राजी नहीं हैं नास्तिक मानने को अपने को। सांख्य या योग उथले आस्तिक को नास्तिक दिखाई पड़ते हैं। लेकिन सांख्य और योग नास्तिक नहीं हैं। नास्तिक उस अर्थों में नहीं हैं जिस अर्थों में दिखाई पड़ते हैं। सिर्फ वे जो शब्द का प्रयोग करते हैं, वह निषेध का है। कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति उथले आस्तिकों को नास्तिक मालूम पड़ सकते हैं, क्योंकि वह जो शब्द का प्रयोग करते हैं वह “निगेटिविटी’ के शब्द हैं, वह “निगेटिव माइंड’ पर उनका जोर है। और मुसीबत यह है कि कोई भी शब्द का हम उपयोग करें, दो ही उपाय हैं–या तो “पाजिटिव’ शब्द का उपयोग करें, या “निगेटिव’ शब्द का उपयोग करें।

आस्तिक कह रहा है, जो है, वह ईश्वर है। वह विधेयात्मक वक्तव्य दे रहा है। नास्तिक कह रहा है, जो है, वह ईश्वर नहीं है। वह निषेधात्मक वक्तव्य दे रहा है। ऐसे भी लोग हुए हैं जो इन दोनों गहराइयों को स्पर्श करते हैं। जैसे उपनिषद कहते हैं, नेति-नेति। उपनिषद कहते हैं, यह भी नहीं है, वह भी नहीं है। और जो है, वह कहा नहीं गया है। ऐसे नास्तिक भी आधा कहता है, आस्तिक भी आधा कहता है। “नीदर दिस, नॉर दैट’। न यह, न वह। दोनों ही आधी-आधी बातें कहते हैं। हम पूरी कहते हैं, और पूरी कही नहीं जा सकती है। इसलिए हम चुप रह जाते हैं। वे लोग भी। कृष्ण को किसी नास्तिकता से गुजरने का कारण नहीं है, क्योंकि कृष्ण किसी उथली आस्तिकता को पकड़ने के लिए आतुर भी नहीं हैं। असल में कृष्ण जो है उसका इतने गहनता में स्वीकार करते हैं कि उसे क्या नाम दिया जाता है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसे ईश्वर कहो, उसे प्रकृति कहो–उसे अनीश्वर कहो तो भी क्या फर्क पड़ता है! जो है वह है। ये पौधे फिर भी हंसेंगे, ये फूल फिर भी खिलेंगे, ये बादल फिर भी चलेंगे, यह पृथ्वी फिर भी होती रहेगी, ये चांदत्तारे घूमते रहेंगे, यह जीवन उतरेगा और विदा होगा, लहरें बनेंगी और मिटेंगी। ईश्वर है या नहीं, यह सिर्फ नासमझों का विवाद है। जो है, उसे क्या फर्क पड़ता है, “दैट व्हिच इज’, उसमें क्या फर्क पड़ता है।

मैं एक गांव में ठहरा हुआ था और उस गांव के दो बूढ़े आदमी मेरे पास आए। एक उसमें जैन था और एक उसमें ब्राह्मण था। वे दोनों पड़ोसी थे। दोनों बूढ़े, और उनका विवाद लंबा था। असल में सब विवाद लंबे होते हैं, क्योंकि विवाद में कोई अंत तो आता नहीं। वे लंबे होते चले जाते हैं। आदमी चुक जाते हैं और विवाद चलते जाते हैं। उन दोनों का विवाद लंबा था। कोई साठ साल के ऊपर दोनों की उम्र थी। वे मुझसे मिलने आए और उन्होंने कहा कि हम एक सवाल लेकर आए हैं जो कि हमारे बीच कोई पचास साल से चलता है। मैं ईश्वर को नहीं मानता हूं, यह सज्जन ईश्वर को मानते हैं। आपका क्या कहना है? मैंने कहा, आपने विवाद पूरा कर लिया, तीसरे के लिए उपाय कहां है? आधा-आधा आप बांट चुके हैं। अब मैं कहां खड़ा होऊं? फिर मैंने उनसे पूछा कि चालीस-पचास साल से आप विवाद करते हैं, कुछ तय नहीं हो पाता? मेरी दलीलें मुझे ठीक लगती हैं, इनकी दलीलें इन्हें ठीक लगती हैं। न मैं इनको गलत कर पाता, न यह मुझे गलत कर पाते। तो मैंने उनसे कहा कि आपको पता है, यह आपकी जिंदगी में चालीस-पचास साल चला, मनुष्य की जिंदगी में कितना लंबा है यह विवाद? आज तक कोई आस्तिक किसी नास्तिक को समझा पाया? कोई नास्तिक किसी आस्तिक को समझा पाया? क्या इससे यह पता नहीं चलता कि दोनों के पास कहीं आधी-आधी दलीलें तो नहीं हैं। क्योंकि दोनों अपनी-अपनी दलील पर मजबूत हैं। और कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्य का आधा-आधा छोर पकड़े हुए हैं? इसलिए दोनों को हाथ में छोर दिखाई पड़ता है। और उससे विपरीत छोर को वे कैसे मान सकते हैं कि वह भी होगा!

मैंने कहा कि मैं तुम्हारे विवाद में न पड़ूं, तो सहयोगी हो सकता हूं। क्योंकि अगर मैं विवाद में पड़ जाऊं तो ज्यादा-से-ज्यादा यही होगा कि मैं एक पक्ष में खड़े होकर दलीलें दूं। क्या उससे कोई अंतर पड़ेगा? तो मैं तुमसे यह कहता हूं कि अब तुम दोनों जाओ और इस बात को देखने की कोशिश करो कि दूसरा जो कह रहा है, क्या उसमें भी सत्य हो सकता है? अब तुम इसकी फिक्र छोड़ दो कि मैं जो कह रहा हूं उसमें सत्य है–उसमें है ही। उसके लिए मैं राजी हूं, तुम जो कह रहे हो उसमें सत्य है। अब रह गया इतना कि दूसरा जो कह रहा है उसे असत्य मानकर ही मत चलो, उसमें भी खोजो कि क्या सत्य है? फिर मैंने उनसे कहा कि और अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर है, पक्का हो जाए, “गारंटीड’, कोई लिखकर दे दे, और यह निर्णय हो जाए कि ईश्वर है, तो तुम क्या करोगे? उन्होंने कहा, करना क्या है? मैंने कहा और अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर नहीं है, तो तुम क्या करोगे? उन्होंने कहा, नहीं, करना क्या है? तो फिर मैंने कहा कि इस व्यर्थ विवाद में क्यों पड़े हो? तुम ईश्वर नहीं है तो भी श्वास लेते हो। इनका ईश्वर है, तो भी यह श्वास लेते हैं। तुम ईश्वर को नहीं मानते तो भी प्रेम करते हो। यह ईश्वर को मानते हैं तो भी प्रेम करते हैं। तुम ईश्वर को नहीं मानते तो ईश्वर तुम्हें दुनिया के बाहर निकाल कर नहीं कर देता, तुम्हें स्वीकार करता है। यह ईश्वर को मानते हैं तो इनको किसी सिंहासन पर नहीं बिठा दिया है उसने। वह इनकी भी फिक्र नहीं करता है। अब जब ऐसी स्थिति हो, तो इस विवाद का कितना अर्थ है!

नहीं, ईश्वर और अनीश्वर को लेकर, आस्तिक और नास्तिक को लेकर “लिंग्विस्टिक’ भूल हो गई है। सिर्फ भाषा की भूल हो गई है। और हमारी अधिक “फिलासफी’, तत्त्वचिंतन जिसे हम कहते हैं, तत्त्वचिंतन नहीं है, “फिलालाजी’ में की गई भूलें हैं, भाषाशास्त्र में की गई भूलें हैं। और भाषाशास्त्र की भूलें ऐसी हैं कि अगर उनको हम सत्य मानकर चल पड़ें, तो बड़े उपद्रव बन जाते हैं। समझ लो कि एक गूंगा आदमी है और नास्तिक है, और एक गूंगा आदमी है और आस्तिक है। इनके बीच विवाद कैसे चलेगा? ये क्या करेंगे जिससे कि ये कहें कि मैं आस्तिक हूं और एक कहे कि मैं नास्तिक हूं? एक दिन को सोचें कि चौबीस घंटे के लिए हमारी भाषा खो जाए, तो हमारे विवाद कहां होंगे? चौबीस घंटे के लिए आपकी भाषा छीन ली जाए, बस, धर्म वगैरह नहीं। धर्म वगैरह आप सम्हालकर रखिये। शास्त्र वगैरह नहीं, बिलकुल छाती से लगा रखिये। सिद्धांत वगैरह नहीं, आपको जो मानना हो तो मानते रहिये। चौबीस घंटे के लिए अगर आपकी भाषा छीन ली जाए, तो कहां होगा हिंदू, कहां होगा मुसलमान, कहां होगा आस्तिक, कहां होगा नास्तिक? और आप तो होंगे फिर भी भाषा के बिना। वह क्या होंगे आप? वह होना ही धार्मिक होना है।

एक छोटी-सी घटना और अपनी बात मैं बंद करूं। मैंने सुना है, मार्क ट्वेन एक मजाक किया करता था। वह मजाक किया करता था कि एक बार ऐसा हुआ कि सारी पृथ्वी के लोगों ने तय किया कि अगर हम सब मिलकर किसी एक क्षण में जोर से चिल्लाएं तो चांद तक आवाज पहुंच सकती है। और अगर चांद पर कोई होगा तो सुन लेगा और जवाब भी आ सकता है, वे लोग अगर इकट्ठे होकर जवाब दें। क्योंकि चांद पर आदमी की आंखें बहुत दिन से गड़ी हैं। चांद से संबंध जोड़ने का मन बड़ा पुराना है। बच्चा पैदा नहीं होता और चांद से संबंध जोड़ना शुरू कर देता है। तो सारी पृथ्वी के लोगों ने एक खास दिन नियत किया और ठीक बारह बजे दोपहर सारी दुनिया के लोग जोर से हुंकार करेंगे–हूऽऽ की आवाज करेंगे, इकट्ठे। चांद तक आवाज पहुंच जाएगी, शायद उत्तर मिल सकेगा, अगर कोई वहां होगा तो सुनाई पड़ जाएगा।

फिर यह हुआ, वह दिन आ गया। और बारह बजे की आतुरता से लोगों ने सड़कों पर और गांवों में फैलकर प्रतीक्षा की। पहाड़ों पर, चोटियों पर, सब तरफ लोग फैल गए पूरी पृथ्वी पर। ठीक बारह बजे और एकदम सन्नाटा छा गया, कोई चिल्लाया नहीं। क्योंकि सबने सोचा कि मैं सुन तो लूं कि हूऽऽ की आवाज! सारी पृथ्वी चिल्लाएगी तो एक मौका मैं न चूकूं चिल्लाने में, मैं सुन लूं। तो उस दिन बारह बजे जैसा सन्नाटा हुआ पृथ्वी पर, ऐसा कभी नहीं हुआ था।

अगर ऐसा सन्नाटा कभी हो जाए, तो जो दिखाई पड़ता है वह सत्य है। ऐसा सन्नाटा अगर भीतर हो जाए और भाषा और शब्द सब खो जाएं, तो जो दिखाई पड़ता है वह सत्य है।

सत्य का आधा हिस्सा आस्तिकों के पास है, सत्य का आधा हिस्सा नास्तिकों के पास है। और आधा सत्य असत्य से सदा बदतर होता है। क्योंकि असत्य को छोड़ा भी जा सकता है, आधे सत्य को छोड़ा भी नहीं जा सकता। वह सत्य मालूम पड़ता है। और ध्यान रहे, सत्य तोड़ा नहीं जा सकता, काटा नहीं जा सकता। इसलिए अगर आपके पास आधा सत्य है, तो सिर्फ आधे सत्य का सिद्धांत हो सकता है। सिद्धांत काटा जा सकता है, सत्य को काटने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए न नास्तिक सत्य है, न आस्तिक सत्य है। दोनों आधे-आधे सत्यों के शब्दों को पकड़कर लड़ते रहते हैं।

कृष्ण को पूरा ही स्वीकार है। इसलिए कृष्ण को आस्तिक कहें, तो गलती हो जाएगी। कृष्ण को नास्तिक कहें, तो गलती हो जाएगी। कृष्ण को क्या कहें बिना गलती किए, कहना मुश्किल है।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–95

February 24, 2015, 4:55 am

यही है यह—(प्रवचन—पंद्रहवां)

योग—सूत्र

(कैवल्‍यपाद)

हेतुफलाश्रयालम्बुत्रैं संगृहीत्‍त्‍वादेषमभावे तदभाक:।। 11।।

प्रभाव के कारण पर अवलंबित होने से, कारणों के मिटते ही प्रभाव तिरोहित हो जाते हैं।

अतीतानागतं स्वरूपतोऽख्यध्यभेदाद्धर्माणाम्।। 12।।

अतीत और भविष्य का अस्तित्व वर्तमान में है, किंतु वर्तमान में उनकी अनुभूति नहीं हो पाती है, क्योंकि वे विभिन्न तलों पर होते हैं।

ते व्यक्तसूक्ष्‍मा गुणात्मान:।। 13।।

वे व्यक्त हों या अव्यक्त अतीत, वर्तमान और भविष्‍य सत, रज और तम गुणों की प्रकृति हैं।

परिणामैकत्‍वाद्वस्‍तुतत्‍वम्।। 14।।

किसी वस्‍तु का सारतत्‍व, इन्‍हीं तीन गुणों के अनुपातों के अनूठेपन में निहित होता है।

वस्‍तुसाम्‍ये चित्रदात्‍तयोर्विभिक्‍त: पन्‍था:।। 15।।

भिन्‍न—भिन्‍न मनों के द्वारा एक ही वस्‍तु विभिन्‍न ढंगों से देखी जाती है।

तदुपरागापेक्षित्याच्चित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातम्।। 17।।

वस्तु का ज्ञान या अज्ञान इस पर निर्भर होता है कि मन उसके रंग में रंगा है या नहीं।

पहल सूत्र——

‘प्रभाव के कारण पर अवलंबित होने से, कारणों के मिटते ही प्रभाव तिरोहित हो जाते हैं।’

अविद्या, अपने स्वयं के अस्तित्व का अज्ञान, इस संसार का आधारभूत कारण है। एक बार अविद्या, अपने स्वयं के अस्तित्व का अज्ञान मिट जाए, यह, संसार भी विलीन हो जाता है—वस्तुओं का संसार नहीं, बल्कि इच्छाओं का संसार, वह संसार नहीं जो तुम्हारे बाहर है, बल्कि वह संसार जिसे तुम भीतर से सतत आरोपित करते रहे हो। जिस क्षण तुम्हारे भीतर से अज्ञान मिटता है उसी क्षण तुम्हारे स्वप्नों, भ्रमों, प्रक्षेपणों का संसार तिरोहित हो जाता है।

इसे समझ लेना चाहिए, बस ज्ञान का अभाव अजान नहीं है, इसलिए तुम ज्ञान का संकलन करते रह सकते हो, किंतु इस ढंग से अज्ञान नहीं मिटेगा। तुम बहुत ज्ञानवान हो सकते हो, किंतु फिर भी तुम अज्ञानी बने रहोगे। वास्तव में जानकारी अज्ञान के लिए सुरक्षा का कार्य करती है। अज्ञान को जानकारी से नष्ट नहीं किया जा सकता। बल्कि इसके विपरीत इस अज्ञान की इस जानकारी से रक्षा होती है। जानकारी एकत्रित करने की, जानकारी संचित करने की इच्छा अपने स्वयं के अज्ञान को छिपाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। जितना अधिक तुम जानते हो उतना ही अधिक तुम सोचते हो कि तुम अब अज्ञानी नहीं रहे।

तिब्बत में एक कहावत है : ‘जो अज्ञानी हैं वे सौभाग्यशाली हैं, क्योंकि वे यह सोच कर प्रसन्न हैं कि वे सब कुछ जानते हैं।’

प्रत्येक बात को जान लेने के प्रयास से कोई सहायता नहीं मिलने जा रही है, यह सारे मामले से चूक जाना है। अपने स्व को जान लेने का प्रयास पर्याप्त है। यदि तुम अपने स्वयं के अस्तित्व को जान सको तो तुमने सभी कुछ जान लिया है, क्योंकि अब तुम समग्र के साथ भागीदारी करते हो, तुम्हारा स्वभाव समग्र का स्वभाव है।

तुम पानी की एक बूंद के समान हो। यदि तुम पानी की एक बूंद को जान लो तो तुमने अतीत, वर्तमान और भविष्य के सभी महासागरों को जान लिया है। पानी की एक बूंद में ही सागर का पूरा स्वभाव उपस्थित है।

वह व्यक्ति जो जानकारी के पीछे पड़ जाता है, लगातार स्वयं को भूलता रहता है और सूचनाओं का संचय करता चला जाता है। संभवत: वह बहुत अधिक जानता है, लेकिन फिर भी वह अज्ञानी बना रहेगा। इसलिए अज्ञान जानकारी का विरोधी नहीं है, अज्ञान को जानकारी से नहीं मिटाया जा सकता है। तब अज्ञान को मिटाने का क्या उपाय है? योग कहता है : सजगता, न कि जानकारी, जानना नहीं, स्वयं को बाहर केंद्रित नहीं करना बल्कि ज्ञान के अंतस्रोत पर केंद्रित कर देना।

जब बच्चा मां के गर्भ में होता है तो वह पूर्ण सुप्तावस्था में होता है। मां के गर्भ में आरंभ के महीने गहन निद्रा, जिसे योग सुषुप्ति, स्वप्न विहीन निद्रा कहता है, के होते हैं। फिर लगभग छठे माह के अंत या सातवें माह के आरंभ में बच्चा थोड़े बहुत स्वप्न देखना शुरू कर देता है। निद्रा में बाधा पड़ने लगती है, यह पूर्ण नहीं रह पाती। बाहर कुछ होता हैं—जरा सा शोर और बच्चे की निद्रा बाधित हो जाती है। बाहर उत्पन्न कंपन उस तक पहुंच जाते हैं और उसकी गहन निद्रा में विक्षेप उत्पन्न हो जाता है और वह स्वप्न देखना आरंभ कर देता है। स्वप्न की पहली तरंगिकाए उठती हैं। स्वप्न विहीन निद्रा चेतना की पहली अवस्था है।

दूसरी अवस्था है : निद्रा और स्वप्न। दूसरी अवस्था में निद्रा बनी रहती है लेकिन एक नया आयाम सक्रिय हो जाता है : स्वप्न देखने का आयाम। फिर बच्चे का जन्म हो जाता है तो एक तीसरे आयाम का उदय होता है, जिसे हम सामान्यत: जागृति की अवस्था कहते हैं। यह वास्तव में जागृति की अवस्था नहीं है बल्कि एक नया आयाम सक्रिय हो जाता है और वह आयाम है विचार का। बच्चा सोचना आरंभ कर देता है।

पहली अवस्था स्वप्न रहित निद्रा की थी, दूसरी अवस्था थी निद्रा और स्वप्न, तीसरी अवस्था है निद्रा, और स्वप्न, और विचार, किंतु निद्रा अब भी रहती है। निद्रा पूरी तरह टूट नहीं गई है। तुम अपने सोचने के समय भी निद्रा में बने रहते हो। तुम्हारा सोचना और कुछ नहीं बल्कि स्वप्न देखने का एक और ढंग है, निद्रा बाधित नहीं होती है। ये सामान्य अवस्थाएं हैं। कभी कोई बिरला व्यक्ति ही तीसरी, सोचने की अवस्था से ऊपर उठ पाता है। और योग का लक्ष्य यही है—शुद्ध जागरूकता की अवस्था, जो इतनी शुद्ध है जितनी कि पहली अवस्था पर पहुंचना। पहली अवस्था शुद्ध निद्रा की है और अंतिम अवस्था शुद्ध जागरूकता, शुद्ध जागृति की है। एक बार तुम्हारी जागरूकता उतनी शुद्ध हो जाए जितनी कि तुम्हारी गहन निद्रा है, तुम बुद्ध बन जाते हो, तुमने पा लिया है, तुम घर लौट आए हो।

पतंजलि कहते हैं : समाधि जागरूकता की परम अवस्था, बस सुषुप्ति की भांति है; किंतु एक अंतर है। यह उतनी ही शांत और विश्रांत है जैसी कि निद्रा, उतनी ही मौन, निद्रा की भांति बाधाहीन, उतनी ही समग्र और आनंददायी जैसी कि निद्रा होती है, लेकिन एक अंतर के साथ, यह पूरी तरह सजग है। ये विकास के सोपान हैं। सामान्यत: हम तीसरी अवस्था पर रहते हैं। गहराई में निंद्रा जारी रहती है; इसके ऊपर स्वप्नों की परत है, उसके ऊपर विचार प्रक्रिया की एक अन्य परत है, किंतु निद्रा भंग नहीं हुई है। और तुम इसको देख सकते हो, यह कोई सिद्धांत नहीं है। इसकी वास्तविकता को तुम देख सकते हो।

किसी भी क्षण अपनी आंखें बंद कर लो, पहले तुम विचारों को देखोगे अपने चारों ओर, विचारों की एक परत, तरंगित होते हुए विचार—स्व आ रहा है, एक जा रहा है—एक भीड़, एक यातायात। कुछ क्षणों के लिए मौन रहो और अचानक तुम देखोगे कि अब वहां विचार—प्रक्रिया न रही बल्कि स्वप्न देखना आरंभ हो गया है। तुम स्वप्न देख रहे हो कि तुम देश के राष्ट्रपति हो गए हो या तुम्हें सड़क पर सोने की एक ईंट मिल गई है, या तुम्हें कोई सुंदर स्त्री या पुरुष मिल गया है, और अचानक तुम कल्पनाओं का प्रक्षेपण आरंभ कर देते हो; स्वप्न सक्रिय हो जाते हैं। यदि तुम लंबे समय तक स्वप्न देखना जारी रखो तो एक क्षण ऐसा आएगा जब तुम सो जाओगे—सोचना, स्वप्न देखना, सो जाना और निद्रा, पुन, स्वप्न देखना और सोचना—इसी भांति तुम्हारा सारा जीवन—चक्र घूमता है। वास्तविक जागरूकता अभी जानी नहीं गई है, और यही वह जागरूकता है जिसके लिए पतंजलि कहते हैं कि यह अज्ञान को नष्ट कर देगी— जानकारी नहीं, बल्कि जागरूकता अज्ञान को नष्ट कर देगी। हम बस स्वयं को और अन्य लोगों को मूर्ख बनाने के लिए जानकारी एकत्रित करते हैं।

मैंने सुना है, एक छोटे से विद्यालय में ऐसा हुआ कि कक्षा में आकर विद्यालय निरीक्षक ने पूछा, जेरिको की दीवाल किसने गिराई? और विद्यार्थियों में से एक लड़के ने जिसका नाम बिली ग्रीन था, तुरंत उत्तर दिया, श्रीमान, मैंने यह नहीं किया है। निरीक्षक अनभिज्ञता के इस प्रदर्शन पर हैरान रह गया और अपने निरीक्षण के समापन पर उसने सारा मामला प्रधानाध्यापक को बताया। क्या आप जानते हैं, उसने कहा, मैंने कक्षा में जाकर पूछा, जेरिको की दीवाल किसने गिराई, और एक छात्र बिली ग्रीन ने कहा कि यह उसने नहीं किया है। प्रधानाध्यापक ने कहा : बिली ग्रीन? ओह, अच्छा.. .मुझे यह कहना पड़ रहा है कि मैंने ड़स लड़के को सदैव ईमानदार और भरोसे लायक पाया है, और यदि वह कहता है कि उसने ऐसा’ नहीं किया है, तो उसने ऐसा नहीं किया है।

निरीक्षक कोई और टिप्पणी किए बिना विद्यालय से चला गया, किंतु बिना कोई समय गंवाए उसने घटनाओं का पूरा क्रम लिखित रूप में शिक्षा मंत्रालय को भेज दिया। कुछ समय बाद उसे यह उत्तर प्राप्त हुआ, महोदय, जेरिको की दीवाल के संदर्भ में प्राप्त आपके पत्र के बारे में हमें सूचित करना है कि यह लोकनिर्माण मंत्रालय का मामला है, इसलिए उनके ध्यानाकर्षण हेतु आपका पत्र उनके पास भेज दिया गया है।

किंतु कोई भी इस साधारण तथ्य को नहीं पहचानना चाहता है कि वे नहीं जानते। प्रत्येक व्यक्ति प्रयास करता है, चाहे प्रश्न जो भी हो, प्रत्येक व्यक्ति उत्तर देने का प्रयास करता है। यदि तुम प्रयास करो तो अनेक बार तुम स्वयं को ऐसा करते हुए रंगे हाथ पकड़ लोगे। कोई व्यक्ति कुछ पूछता है, कोई व्यक्ति कुछ ऐसी बात करता है जिसके बारे में तुम नहीं जानते, किंतु तुम टिप्पणी करना, राय देना या कुछ ऐसी बात या ऐसा कुछ कहना आरंभ कर देते हो जिससे तुमको अज्ञानी न समझा जाए, कोई यह न सोचे कि तुम अज्ञानी हो। किंतु जागरूकता का प्रथम आरंभ इस प्रत्यभिज्ञा से होता है कि तुम अज्ञानी हो। अज्ञान को नष्ट तो किया जा सकता है लेकिन इसको पहचाने बिना नहीं।

जब जॉर्ज गुरजिएफ का महान शिष्य पी. डी. आस्पेंस्की पहली बार अपने सदगुरु से मिला, तो वह पहले से ही बहुत प्रसिद्ध, संसार का सुपरिचित व्यक्ति था। गुरजिएफ प्रसिद्ध नहीं था, आस्पेंस्की पहले से ही बहुत विख्यात था। वह इस बीसवीं सदी की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में से एक ‘टर्शियम आर्गानम’ को लिख चुका था। यह वास्तव में एक साहसिक प्रयास है। वास्तव में इस सदी में किसी अन्य व्यक्ति ने ऐसा साहसपूर्ण अवलोकन करने का प्रयास नहीं किया। हिम्मत के साथ आस्पेंस्की ने अपनी पुस्तक को ज्ञान की तीसरी शाखा के रूप में वर्णित किया : टर्शियम आर्गानम, ज्ञान का तीसरा सिद्धात। पहला अरस्तू द्वारा लिखा गया आर्गानम; दूसरा बेकन द्वारा लिखा गया नोवम आर्गानम। और उसने कहा, मैं ज्ञान का तीसरा सिद्धात लिखता हूं। उसने कहा, पहला और दूसरा तीसरे के सामने कुछ भी नहीं हैं। तीसरे का अस्तित्व पहले के पूर्व था। यह वास्तव में एक साहसिक प्रयास था, और केवल अहकारपूर्ण प्रयास नहीं था यह, उसका दावा करीब—करीब सच था।

जब आस्पेंस्की गुरजिएफ के पास गया, गुरजिएफ ने उसकी ओर देखा। उसने उस पांडित्य से भरे व्यक्ति को देखा जो बहुत कुछ जानता था, जो यह भी जानता था कि दूसरे भी जानते हैं कि वह बहुत कुछ जानता है—सूक्ष्म अहंकार। गुरजिएफ ने उसको एक कागज दिया, कागज का एक कोरा पृष्ठ और उससे? कहा कि वह बगल के कमरे में चला जाए और जो कुछ भी वह जानता है उसे एक ओर लिख दे और कागज के दूसरी ओर वह सब लिख दे जो उसे नहीं पता है। क्योंकि कार्य केवल तभी आरंभ किया जा सकता है जब आस्पेंस्की को स्पष्ट रूप से पता हो कि वह क्या जानता है और क्या नहीं जानता है। गुरजिएफ ने कहा. याद रखो, जो कुछ भी तुम लिख लाओगे कि तुम्हें पता है, उसको मैं स्वीकार कर लूंगा, और हम इसके बारे में दुबारा कभी बात नहीं करेंगे। यह मामला समाप्त

हो गया, तुम इसे जानते ही हो। जो कुछ भी तुम लिख दोगे कि तुम नहीं जानते, उस पर हम कार्य करेंगे। और गुरजिएफ ने जो पहली बात कही वह थी यह जान लेना कि तुमको क्या पता है और तुमको क्या पता नहीं है।

आस्पेंस्की कमरे में चला गया। उसने सोचना आरंभ किया कि वह क्या जानता है, और उसके जीवन में पहली बार ऐसा हुआ कि कागज पर वह एक बात भी नहीं लिख सका। उसने प्रयास किया—परमात्मा, स्व, संसार, मन, जागरूकता, इन सबके बारे में वह क्या जानता है? पहली बार यह प्रश्न प्रमाणिकता पूर्वक पूछा गया था। परमात्मा के बारे में उसे अनेक बातें पता थीं, और वह आत्मा के बारे में बहुत सी बातें जानता था; और जागरूकता के बारे. में उसे कई बातें पता थीं, किंतु वास्तव में ईश्वर के बारे में वह एक चीज भी नहीं जानता था। ये सभी सूचनाएं थीं, यह उसका अनुभव नहीं था। और जब तक किसी चीज का अनुभव तुम्हें न हुआ हो तुम कैसे कह सकते हो कि तुम इसे जानते हो?

तुम प्रेम के बारे में जान सकते हो, लेकिन वास्तव में यह प्रेम का ज्ञान नहीं है। तुम्हें प्रेम से होकर गुजरना पड़ेगा, तुम्हें प्रेम की अग्नि से होकर गुजरना पड़ेगा। तुम्हें जलना पडेगा, तुम्हें चुनौती पर खरा उतरना पड़ेगा, और जब तुम प्रेम से बाहर निकल कर आओगे तो तुम पूर्णत: भिन्न होओगे, उस व्यक्ति से पूर्णत: भिन्न होओगे जो भीतर गया था। प्रेम रूपांतरण करता है। सूचना तुम्हारा रूपांतरण कभी नहीं .करती। सूचना एक लत बनती चली जाती है, जो कुछ भी तुम हो यह उसी में कुछ और जोडती चली जाती है। यह तुम्हारे लिए खजाने की तरह हो जाती है, किंतु तुम जैसे थे वैसे ही रहते हो। अनुभव तुमको रूपांतरित कर देता है। वास्तविक जान कोई संचय नहीं है, यह रूपांतरण है, एक उत्काति—पुराना मर जाता है और नये का जन्म होता है। कठिन है यह…

आस्पेंस्की ने जितना संभव हो सकता था उतना भरपूर प्रयास किया कि कम से कम कुछ बातें तो खोज ले जिन्हें वह जानता है, क्योंकि कुछ भी न लिखना उसके अहंकार के नितांत विपरीत हुआ जा रहा था। वह यह भी न लिख सका कि मैं अपने आपको जानता हूं। यदि तुमने आधारभूत इकाई, अपने आप को भी नहीं जाना, तो और क्या तुम जानते हो? यह सर्दी की एक रात थी और उसको पसीना छूटने लगा। अभी बस एक क्षण पूर्व ही वह सर्दी से कांप रहा था। उसका सारा अस्तित्व दांव पर लगा हुआ था। उसे चक्कर आने लगे, जैसे कि वह चक्कर खाकर गिरने वाला हो या उसे दौरा पड़ने वाला हो। घंटों बीत गए, तब गुरजिएफ ने द्वार खटखटाया और कहा ‘क्या तुमने कुछ किया है?’ और गुरजिएफ देख पाया कि यह आदमी बदल गया है। बस कोरे कागज का एक पन्ना हाथ में लिए वहां बैठा हुआ है। यह बैठना एक श्रेष्ठ ध्यान झाझेन बन गया था। उसने रिक्त, कोरा कागज गुरजिएफ को दे दिया और कहा : मैं कुछ नहीं जानता हूं। मैं नितांत अज्ञानी हूं। मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करें। गुरजिएफ ने कहा : फिर तो तुम मेरा शिष्य हो पाने के लिए तैयार हो…..यह जान

लेना कि व्यक्ति अज्ञानी है बुद्धिमत्ता की ओर पहला कदम है।

‘प्रभाव के कारण पर अवलंबित होने से, कारणों के मिटते ही प्रभाव तिरोहित हो जाते हैं।’

पतंजलि कहते हैं कि तुम अनैतिक हो, किंतु यह एक प्रभाव है। तुम लोभी हो, किंतु यह एक प्रभाव है। तुमको क्रोध की अनुभूति होती है, यह एक प्रभाव है। कारण को खोज लो। प्रभावों से संघर्ष. मत करते रहो क्योंकि इससे कोई सहायता नहीं मिलने वाली है। तुम अपने लोभ से संघर्ष कर सकते हो और यह कहीं और से पुन: प्रकट हो जाएगा। तुम अपने क्रोध से संघर्ष कर सकते हो, यह दमित हो जाएगा और कहीं और से फूट पड़ेगा। प्रभावों से संघर्ष करके प्रभावों को विनष्ट नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि योग नैतिकता की कोई व्यवस्था नहीं है, यह जागरूकता की विधि है। असली कारण की खोज करनी पड़ती है। यदि तुम किसी वृक्ष की पत्तियां काटते और छांटते चले जाओ तो इससे वृक्ष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने जा रहा है। नयी पत्तियां निकल आएंगी। तुमको वास्तविक कारण, जड़ को खोज निकालना पड़ेगा। यदि तुम वृक्ष को नष्ट करना चाहते हो तो तुमको जड़ों को नष्ट करना पड़ेगा। जड़ों के नष्ट होने के साथ वृक्ष मिट जाएगा। किंतु तुम शाखाओं को काटते रह सकते हो, इससे वृक्ष नष्ट नहीं होगा। वास्तव में होगा तो यह कि जहां पर तुम एक शाखा काटते हो वहां पर तीन शाखाएं निकल आती हैं। एक वृक्ष की पत्तियों को छांट दो और यह अधिक सघन और अधिक मोटा हो जाएगा। जड़ों को काट दो और वृक्ष मिट जाता है।

योग कहता है : नैतिकता प्रभावों से संघर्ष करती चली जाती है।

‘तुम लोभी हो; तुम निर्लोभी होने का प्रयास करते हो, लेकिन क्या होता है? तुम निर्लोभी केवल तभी हो सकते हो जब तुम्हारे लोभ को निर्लोभ की ओर मोड़ दिया जाए। यदि कोई कहता है कि यदि तुम निर्लोभी हो जाओ तो तुम स्वर्ग चले जाओगे, और यदि तुम लोभी बने रहे तो तुम नरक में जाओगे, अब वह क्या कर रहा है? वह तुम्हारे लोभ के लिए एक नया विषय दे रहा है। वह कह रहा है, निर्लोभी हो जाओ और तुम स्वर्ग उपलब्ध कर लोगे और वहां पर तुम सदा और सदैव के लिए खुश रहोगे। अब लोभी व्यक्ति यह सोचने लगेगा कि निर्लोभ का अभ्यास कैसे किया जाए जिससे वह स्वर्ग पहुंच सके।

तुम भयभीत हो; भय वहां है। भय से कैसे मुक्त हुआ जाए? तुमको और अधिक भयभीत बनाया जा सकता है, और भय के बारे में तुम्हारे भीतर इतना भय निर्मित किया जा सकता है कि तुम इसको दमित करना आरंभ कर दो। यह तुमको निर्भय बनाने नहीं जा रहा है, तुम बस और अधिक भयभीत हो जाओगे। एक नया भय उठ खड़ा होगा, भय का भय।

तुम क्रोधित होते हो। तुम्हारे लिए क्रोधित होना सरल है, और मन की इस वृत्ति का प्रतिरोध करना भी बहुत कठिन है। अब कुछ किया जा सकता है। तुम क्रोधित क्यों होते हो? जब कभी तुम्हारा अहंकार आहत होता है तुम क्रोधित हो जाते हो। अब तुमको यह सिखाया जा सकता है कि वह व्यक्ति जो नियंत्रण में रहता है, समाज में सम्मान पाता। वह व्यक्ति अपना क्रोध इतनी आसानी से प्रदर्शित नहीं करता उसे महान व्यक्ति समझा जाता है। तब तुम्हारा अहंकार बढ़ाया जा रहा है; अधिक अनुशासित और नियंत्रित हो जाओ, और इतनी जल्दी क्रोधित होने के लिए व्याकुल मत हो जाओ। तुम्हारा अहंकार नष्ट नहीं होता, बल्कि यह और ताकतवर हो जाता है। रोग अपना रूप, नाम बदल सकता है लेकिन रोग रहेगा। इसे स्मरण रखो, योग नैतिकता की कोई व्यवस्था नहीं है क्योंकि यह प्रभावों की चिंता जरा भी नहीं लेता है। यही कारण है कि दस आज्ञाओं जैसी कोई बात यहां योग—सूत्र में नहीं है।

लोग मूलभूत कारण को जाने बिना एक—दूसरे को सिखाए चले जाते है, और जब तक मूलभूत कारण को न जान लिया जाए कुछ भी नहीं किया जा सकता है, मनुष्य का व्यक्तित्व वही रहता है, यहां— वहां शायद थोड़ी सी लीपा—पोती, यहां—वहां थोड़ी सी बदलाहट।

मैंने सुना है, एक पोलिश व्यक्ति आंखों की जांच करवाने के लिए नेत्र चिकित्सालय में गया। जांच के लिए चिकित्सक ने उसे सामने दिख रहे चार्ट की पंक्तियों को एक—एक करके पढ़ने को कहा। उसने नीचे वाली पंक्ति को देखा. सी एस वी ई एन सी जे डब्लू वह थोड़ा सा हिचकिचाया। डाक्टर ने उससे कहा : तुम चिंतित क्यों लग रहे हो। यदि तुम इनको नहीं पढ़ पा रहे हो तो अपनी ओर से भरपूर प्रयास तो करो। पोलिश व्यक्ति ने कहा : इसे पढ लूं? मैं इस आदमी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं।

यह स्वीकार करना अत्यंत कठिन है कि तुम नहीं जानते, कि तुमको नहीं पता कि तुम इतने अहंकारी क्यों हो। तुम नहीं जानते कि तुम इतनी आसानी से क्रोधित क्यों हो जाते हो। तुम नहीं जानते कि वहां तुम्हारे भीतर लोभ क्यों है। तुम नहीं जानते कि वहां वासना क्यो है, वहां भय क्यों है। कारण को जाने बिना तुम प्रभावों से संघर्ष करना आरंभ कर देते हो। तुम मान लेते हो कि तुम जानते हो। अनेक लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, किसी भी तरह हम क्रोध से छुटकारा पाना चाहते हैं। मै उनसे पूछता हूं क्या तुमको कारण पता है? वे अपने कंधे उचका देते हैं। वे कहते हैं, बस क्रोध है, और मैं बहुत आसानी से क्रोधित हो जाता हूं और यह मुझको विचलित कर देता है, मेरे संबधों को खराब कर देता है, मुझको और तनावग्रस्त कर देता है, चिंता, पश्चात्ताप और अपराध— बोध निर्मित कर देता है। किंतु ये सभी प्रभाव हैं।

पहली बात, क्रोध उठता ही क्यों है? कोई पूछता नहीं। और इसका सौंदर्य यही है, यदि तुम कारण के बारे में पूछो, तुम्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि कारण एक ही है। प्रभाव तो लाखों हो सकते हैं परंतु कारण एक है, जड़ एक है। क्रोध, लोभ, अहंकार, वासना, भय, घृणा, ईर्ष्या, शत्रुता, हिंसा, चाहे जो भी प्रभाव हो, कारण एक ही है। और कारण है कि तुम पर्याप्त जागरूक नहीं हो। तुम क्रोध को काबू कर. सकते हो, किंतु. इससे तुम्हें सहायता नहीं मिलेगी। यह तुम्हारे भीतर के रोग को बस नियंत्रण में करना है, उसे पकड़ कर रखना है। यह तुमको स्वस्थ नहीं कर देगा। बल्कि यह तुम्हें और अस्वस्थ बना सकता है। इसे तुम देख सकते हो—एक व्यक्ति जो सरलता से क्रोधित हो जाता है वह कभी बहुत खतरनाक नहीं होता। उसके बारे में तुम निश्चित हो सकते हो कि वह कभी हत्या नहीं करेगा। वह कभी इतना क्रोध एकत्रित नहीं कर लेगा जिससे वह हत्यारा बन जाए। प्रत्येक दिन वह रेचन कर देता है। किसी भी उद्दीपन से, सरलतापूर्वक वह क्रोधित हो जाता है। इसका अर्थ है बहुत देर तक उसकी भाप उसके भीतर एकत्रित नहीं रह पाती। उसका पात्र रिसता रहता है।. जब कभी भी बहुत अधिक भाप हो जाती है वह उसको निकल जाने देता है। वह व्यक्ति जो बहुत अधिक नियंत्रित है, एक खतरनाक व्यक्ति है। वह अपने भीतर भाप रोकता चला जाता है, उसकी ऊर्जाएं बंध जाती हैं, रुक जाती हैं। आज नहीं तो कल उसकी ऊर्जाएं उसके नियंत्रण से अधिक बलशाली सिद्ध हो जाएंगी। तब उसका विस्फोट हो जाएगा, फिर कुछ ऐसा करेगा जो वास्तव में संगीन अपराध होगा। वह व्यक्ति जो सरलता से क्रोधित हो जाता है, सरलता से शांत भी हो जाता है।

मैंने सुना है, ‘मुझे अफसोस है श्रीमान’, क्लर्क ने कहा, ‘लेकिन मैं त्यागपत्र देना चाहता हूं।’ ‘लेकिन क्यों?’ बीस ने हैरानी से पूछा।

‘ठीक है, श्रीमान, आपको सच बता ही देता हूं आपके जल्दी से क्रोधित होने वाले स्वभाव के कारण मैं यहां रुक नहीं सकता हूं।’

अरे अब मान भी जाओ भाई’, बीस ने समझाया, ‘मैं जानता हूं कि कभी—कभी मैं थोड़ा सा बदमिजाज हो जाता हूं लेकिन यह तो तुमको मानना ही पड़ेगा कि मेरा दिमाग बहुत जल्दी ठंडा हो जाता है।’

‘यह सच है श्रीमान, लेकिन यह भी सच है कि जैसे ही यह ठंडा होता है वैसे ही तुरंत गर्म होने लगता है।’

लेकिन इस प्रकार का व्यक्ति कभी हत्यारा नहीं हो सकता। वह कभी उतनी भाप एकत्रित नहीं करता। वे लोग जो जल्दी से भावुक हो जाते हैं भले लोग होते हैं। वे बहुत नियंत्रित नहीं हो सकते हैं, वे चीख सकते हैं और रो सकते हैं और हंस सकते हैं, किंतु वे भले लोग हैं। उनके साथ रहना

किसी धार्मिक व्यक्ति, नैतिक, शुद्धतावादी, बहुत सम्हालने वाले नियंत्रित व्यक्ति से कहीं अधिक बेहतर है। वह व्यक्ति खतरनाक होता है।

अभी कुछ दिन पहले ही तीर्थ के एनकाउंटर—ग्रुप, समूह—चिकित्सा में एक युवक भागीदारी कर रहा था। उसने कई वर्ष अकीदो का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। अब अकीदो, को, कराटे और जुजुत्सु की सभी विधियां नियंत्रण की शिक्षाएं हैं। तुम्हें अपने आपको इस कदर नियंत्रण में रखना पड़ता है कि तुम लगभग एक मूर्ति जैसे हो जाते हो, इतने नियंत्रित कि तुम्हें कोई उत्तेजित नहीं कर सकता। अब इस युवक ने एनकाउंटर—ग्रुप में भाग लिया।

अब एनकाउंटर—मूप का विधि—विज्ञान पूर्णत: भिन्न है। जो कुछ भी तुम्हारे भीतर है उसे बाहर निकालना है। कभी इसको संचित मत करो। अभिव्यक्त करो, निकल जाने दो, रेचन कर दो। एनकाउंटर और अकीदो, दो पूर्णत: परम विरोधी बातें हैं। अकीदो कहता है : नियंत्रण करो, क्योंकि अकीदो का प्रशिक्षण योद्धा बनाने के लिए प्रशिक्षण है। सभी जापानी प्रशिक्षण तुमको महान योद्धा बनाने के लिए हैं, और निश्चित रूप से उन्होंने ऐसी विधियां विकसित कर ली हैं जो आत्यंतिक रूप से खतरनाक हैं। लेकिन उनको ऐसा होना ही था, क्योंकि जापानी बहुत छोटे लोग हैं। उनकी लंबाई बहुत कम होती है, और उन्हें ऐसे लोगों से संघर्ष काना पड़ा जो उनसे डीलडौल में कहीं अधिक बड़े थे। उन्हें ऐसे उपाय निर्मित करने पड़े जिनके द्वारा वे स्वयं को स्वयं से अधिक बडे लोगों, शक्तिशाली लोगों से अधिक बलशाली सिद्ध कर सकें, और उन्होंने वास्तव में ऐसे उपाय खोज लिए। तुम्हारे भीतर की प्रत्येक ऊर्जा को नियंत्रण में कर लेना एक उपाय है। ऐसा करने से ऊर्जा संगृहीत हो जाती है। इसलिए जापानी और चीनी लोग बहुत नियंत्रण और अनुशासन में जीते रहे हैं। वे खतरनाक हैं। एक बार वे तुम्हारे ऊपर आक्रमण कर दें, फिर वे तुमको जिंदा नहीं छोड़ेंगे। सामान्यत: वे तुम पर आक्रमण नहीं करेगे, किंतु एक बार वे तुम पर आक्रमण कर दें, तो तुम यह निश्चित मान सकते हो कि वे तुमको मार डालेंगे।

तो यह व्यक्ति जो अकीदो में गहनता से संलग्न रहा था, अब एनकाउंटर—ग्रुप में था, और तीथ भीतर छिपी हुई चीजों को बाहर लाने के लिए उससे आग्रह कर रहा था, और वह ऐसा नहीं करेगा। उसका सारा प्रशिक्षण उसे यह नहीं करने दे रहा था, बाद में उस युवक ने मुझसे कहा, मेरा साराप्रशिक्षण नियंत्रित बने रहने का है। अब उस समूह की सहभागी एक युवती ने उसको पीटना आरंभ कर दिया। वह अपने क्रोध को बाहर निकाल रही थी, और वह युवक मूर्तिवत खड़ा रहा, क्योंकि उसका प्रशिक्षण कोई कृत्य भी नहीं करने का है। वह बुद्ध की भांति बना रहा, वास्तव में बुद्ध नहीं, क्योंकि बुद्ध जागरूक होता है, नियंत्रित नहीं। बाहर से तो वे दोनों एक जैसे दिखाई पड़ सकते हैं। वह व्यक्ति जो नियंत्रित है और वह व्यक्ति जो सजग है, एक जैसे दीख सकते हैं, किंतु भीतर गहराई में वे पूर्णत: भिन्न होते हैं। उनकी ऊर्जा गुणवत्ता के स्तर पर पूर्णत: भिन्न होती हैं।

वह अपने भीतर और और क्रोधित होता रहा, और साथ ही साथ और नियंत्रित भी होता चला गया, क्योंकि उसका सारा प्रशिक्षण दांव पर लगा था। फिर उसने उस लड़की के ऊपर एक तकिया फेंक दिया, और अकीदो में प्रशिक्षण लेने वाले व्यक्ति के द्वारा फेंका गया तकिया भी खतरनाक हो सकता है। वह तुमको ऐसे कोमल बिंदु पर, इतनी ताकत से आघात पहुंचा सकता है कि तकिए की चोट से मृत्यु तक हो सकती है। अकीदो का पूरा प्रशिक्षण यही है, सीखने में व्यक्ति को बरसों लग जाते हैं, एक छोटा सा आघात, किंतु अत्यंत कोमल स्थानों पर।

जापानियों ने इसको जान लिया है कि कहां पर बहुत आहिस्ते से आघात किया जाए, और व्यक्ति के प्राण निकल जाएं। बस केवल एक अंगुली से वे शत्रु को पराजित कर सकते हैं। उन्होंने आघात करने के लिए नाजुक स्थानों की खोज कर ली है, और साथ ही साथ यह खोज भी की है कि कैसे आघात किया जाए और कब आघात किया जाए।

किंतु फिर वह स्वयं ही भयभीत हो गया, भयग्रस्त हुआ कि उसके द्वारा इस प्रकार तकिए के प्रहार से उस युवती की हत्या भी हो सकती थी। वह इतना भयाक्रांत हो गया कि वह इस समूह—चिकित्सा को छोड़ कर भाग गया और वह मेरे पास आया और उसने शिकायत की। वह बोला, आश्रम में इस प्रकार की समूह—चिकित्साओं की अनुमति नहीं होनी चाहिए। अन्यथा किसी दिन कोई किसी की ‘ हत्या कर सकता है। वह ठीक कह रहा है, क्योंकि वहां उसके भीतर हत्यारा छिपा है। उसका भय उचित है, यह उसके स्वयं के बारे में सही है। वह एक हत्यारा हो सकता है। वास्तव में इस प्रकार के प्रशिक्षण तुम्हें मानव—हंता, योद्धा बनाने के लिए प्रशिक्षण हैं।

याद रखो, यदि तुम क्रोध, लोभ और इस प्रकार के मनोभावों पर नियंत्रण करोगे तो वे तुम्हारे अस्तित्व के तलघर में एकत्रित होते चले जाएंगे और तुम एक ज्वालामुखी पर बैठे होगे। योग का दमन से कुछ भी लेना—देना नहीं है। योग का विश्वास जागरूकता में है।

‘प्रभाव के कारण पर अवलंबित होने से, कारणों के मिटते ही प्रभाव तिरोहित हो जाते हैं।’

कारण को खोज लो, और कारण एक ही है। और चीजें सरल हो जाती हैं, क्योंकि तुमको अनेक प्रभावों से संघर्ष नहीं करना है। तुम तो बस एक जड़, मुख्य जड़ को काट देते हो, और एक हजार एक शाखाओं वाला वृक्ष बस खो जाता है, विदा हो जाता है। और जागरूक हो जाओ।

निद्रा से स्वप्नावस्था उठ खड़ी होती है, स्वप्न तैरना आरंभ कर देते हैं। क्या तुमने देखा है, कभी—कभी स्वप्न में भी तुम यह स्वप्न देखते हो कि तुम जागे हुए हो? बिलकुल ठीक यही घट रहा है : विचार करते समय तुम सोचते हो कि तुम जागे हुए हो—लेकिन तुम जागे हुए नहीं हो। वास्तविक जागृति केवल तभी —घटित होती है जब सारे विचार खो चुके हैं—तुम्हारे भीतर कोई बादल नहीं है, एक विचार भी नहीं तैर रहा हैं, मात्र शुद्ध तुम। यह मात्र एक शुद्धता है, प्रत्‍यक्षीकरण की स्पष्टता, मात्र दृष्टि जिसमें तुम्हारी दृष्टि में कुछ भी नहीं है, सारा आकाश रिक्त। यदि तुम किसी चीज को देखो, तो तुम्हारे भीतर कोई शब्द नहीं उमड़ता। तुम एक गुलाब का फूल देखते हो : तुम्हारे भीतर इतना विचार तक नहीं उठता कि यह एक खूबसूरत पुष्प है। तुम बस देखते हो गुलाब वहां, तुम यहां, और तुम दोनों के मध्य कोई शब्दीकरण नहीं। उस मौन में पहली बार तुम जानते कि जागरूक होना क्या है, जागृति की अवस्था क्या है, और यह जड़ को काट देता है। अब अनेक उपायों से इसका प्रयास करो।

एक उपाय है, जब तुम क्रोधित हो जाओ तब सजग होने का प्रयास करो। अचानक तुम देखोगे कि या तो तुम क्रोधित हो सकते हो या तुम सजग हो सकते हो; तुम दोनों एक साथ नहीं हो सकते हो। जब कामवासना उठती है, सजग होने का प्रयास करो। अचानक तुम देखोगे कि या तो तुम सजग हो सकते हो या तुम कामुक हो सकते हो, तुम एक साथ दोनों नहीं हो सकते हो। यह तुमको इस तथ्य को देखने में मदद करेगा कि सजगता प्रति—विष है, नियंत्रण नहीं। यदि तुम और और सजग होते चले जाओ तो ऊर्जा एक नितांत भिन्न आयाम में गतिशील होना आरंभ कर देती है। वही ऊर्जा जो क्रोध में, लोभ में, कामवासना में जा रही थी मुक्त हो जाती है, तुम्हारे भीतर प्रकाश के एक स्तंभ की भांति गतिमान होने लगती है। और यह जागरूकता मानव विकास की उच्चतम अवस्था है। जब व्यक्ति सजग होता है तो वह परमात्मा बन जाता है। जब तक तुम उसे उपलब्ध न कर लो, तुम्हारा जीवन एक व्यर्थता रहता है। हम ऐसे जीते हैं जैसे कि हम नशे में हों।

मैं तुमसे एक कहानी कहता हूं :

पुराने मैक्सिको में एक हंगामेदार रात के बाद अत्यधिक शराब पीकर होने वाले तेज ‘ से पीड़ित पर्यटक जब सोकर उठा तो उसके मन में पिछली रात की कुछ धुंधली सी याद बच थी। उसने देखा कि उसके बिस्तर पर एक भद्दी, कुरूप, झुर्रीदार और दंतविहीन की महिला सो है। उस पर घृणा भरी दृष्टि डाल कर उबकाई रोकता हुआ वह स्नानागार की ओर दौड़ा, जहां छ बाहर निकलती हुई सुंदर युवा मैक्सिकन लड़की से टकराया। क्यों, क्या पिछली रात को मैं नशे में था. उसने युवती से पूछा। मेरा विचार है कि तुम्हें नशे में होना चाहिए, उत्तर आया, वरना तुमने मेरी मां ‘ शादी न कर ली होती।

अब तक तुमने जो कुछ भी किया है, एक दिन अचानक तुम देखोगे कि सब कुछ गलत हो चुका है तुम्हारा जीवन अब तक जिससे भी प्रेरित होता रहा हो, चाहे जिसके साथ भी तुम्हारा विवाह हुआ हो, अब तक तुम्हारी जो भी इच्छा रही हो, एक दिन तुम जागरूक हो जाओगे और देखोगे कि यह सभी कुछ उस तरह था जैसे कि तुम नशे में थे।

जॉन स्मिथ एक मशहूर शराबी था। एक शाम को पीकर, वह शहर के कब्रिस्तान के मध्य से निकलने वाले छोटे रास्ते द्वारा रात में, घर लौट रहा था कि एक पत्थर से टकरा कर वह औंधे मुंह जमीन पर गिर पड़ा। अगली सुबह तक उसे होश नहीं आया, और जब सुबह उसकी आख खुली तो पहली चीज जो उसने देखी वह था कब का पत्थर। जॉन स्मिथ तो एक आम प्रचलित नाम है, और जिस कब पर वह लेटा हुआ था वह उसी के नाम वाले एक अन्य व्यक्ति की थी। जैसे ही उसकी निगाह में ये शब्द आए, जॉन स्मिथ की पवित्र स्मृति में, उसने बड़बड़ा कर अपने आप से कहा, अच्छा, ठीक, तो यह मेरी कब है, लेकिन मुझे अपने अंतिम संस्कार के बारे में एक जरा सी बात तक याद नहीं आ रही है।

जब कोई व्यक्ति ध्यान करना आरंभ करता है, तो वह अनेक जन्मों के लंबे नशे से बाहर आ रहा होता है। पहली बार, व्यक्ति विश्वास तक नहीं कर पाता कि अब तक वह किस भांति जीता रहा है। यह एक दुख स्वप्न जैसा प्रतीत होता है—भयावह। इसीलिए लोग सजग होने का प्रयास भी नहीं करते, क्योंकि जागरूकता की पहली झलक उनके उस जीवन को छिन्न—भिन्न, विनष्ट करने जा रही है—जिसे वे अभी तक किसी अर्थ से भरा हुआ सोचते थे। उनका सारा जीवन अर्थहीन, महत्वहीन होने जा रहा है। सजगता का भय यही है कि यह तुम्हारे सारे जीवन को गलत सिद्ध कर सकती है। यही कारण है कि बेहद हिम्मतवर लोग ही ध्यान करने का, सजग होने का प्रयास करते हैं। वरना लोग बस उन्हीं इच्छाओं और उन्हीं स्वप्‍नों और उन्हीं विचारों के दुचक्र में घूमते चले जाते हैं, और वे बार—बार लौट कर जीवन में आते हैं और पुन: मर जाते हैं—पालने से कब तक

जरा थोड़ा सा सोचना आरंभ करो, जो तुम अब तक करते रहे हो—कुछ अचेतन इच्छाओं को दोहराते रहना, कुछ ऐसा दोहराते जाना जो तुम्हें कभी आनंद नहीं देता, जो तुमको सदैव हताश करता है, उसके बारे में थोड़ा मनन करो। फिर भी तुम ऐसे जीते हो जैसे कि तुम्हें सम्मोहित कर दिया गया हो। वास्तव में योग यही कहता है कि हम एक गहरे सम्मोहन में जीते हैं। हमको किसी और ने सम्मोहित नहीं किया है, हम अपने स्वयं के मनों के द्वारा सम्मोहित कर लिए गए हैं, किंतु हम एक सम्मोहन में जीते हैं।

मैंने सुना है, एक शराबी लड़खडाता हुआ जैसे ही अपने घर पहुंचा, उसने अपनी ऐसी दशा को अपनी पत्नी से छिपाने के लिए अपना दिमाग दौड़ाया। अंततः उसे एक बढ़िया विचार सूझ गया,

वह जाएगा और एक पुस्तक उठा लेगा।’आखिरकार’ उसने सोचा ‘कभी किसी पियक्कड़ को किसी ने पुस्तक पढ़ते सुना है?’ अपनी योजना को मूर्तमान करते हुए वह अपने घर में चला गया, सीधा शयनकक्ष में पहुंचा और वहां जाकर बैठ गया। एक मिनट बाद उसकी पत्नी सीढ़ियों से धम— धम करती नीचे उतर कर आई और द्वार से ही उसे घूरने लगी। जो तुम इस समय कर रहे हो उस बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? उसने पूछा। शराबी ने उत्तर दिया, बस पढ़ रहा हूं प्रिये। तुम नशेबाज मूर्ख, तुम फिर से पीकर अंधे हो गए, उसकी पत्नी क्रोध से चिल्लाई। अब सूटकेस बंद करो और पलंग पर आकर लेटो।

जो कुछ भी तुम अपनी अचेतन अवस्था में कर रहे हो, चाहे वह जो कुछ भी हो, मैं बिना किसी शर्त के यह कह सकता हूं कि यह मूर्खतापूर्ण होने जा रहा है। कभी—कभी तुम्हें भी ऐसा ही लगता है, किंतु तुम बार—बार विषय को छोड़ देते हो। तुम लंबे समय तक इसको स्मरण नहीं रखते, क्योंकि इससे भी खतरा हो सकता है।

तुम एक स्त्री को प्रेम करते हो, यदि तुम सजग हो जाओ तो प्रेम खो भी सकता है, क्योंकि तुम्हारा प्रेम मात्र एक सम्मोहन भी हो सकता है—जैसा कि यह सामान्यत: होता है। तुम महत्वाकांक्षी हो, तुम राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हो पाने के लिए राजधानी पहुंचने का प्रयास कर रहे हो, अब तुम सजग होने से भयभीत हो जाओगे, क्योंकि यदि तुम सजग हो गए तो सारी बात मूढ़तापूर्ण दिखाई पड़ेगी, और तुमने इसके लिए अपना सारा जीवन दांव पर लगा दिया है।

अभी उसी दिन मैंने सीनेटर (अमरीकी सांसद) हम्फ्री की रोती हुई तस्वीर अखबार में देखी, क्योंकि वे अपने सारे जीवन अमरीका का राष्ट्रपति बनने का प्रयास करते रहे थे, और यह उनका अंतिम अवसर था, और अब कोई संभावना दिखाई भी नहीं पड़ती। इसलिए अपने प्रशंसकों के सामने खड़े होकर उन्होंने रोना आरंभ कर दिया। उनकी आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने कहा, अब मैं वृद्ध हो गया हूं और यह मेरा आखिरी मौका मालूम पड़ता है; अब मैं पुन: राष्ट्रपति पद के लिए कभी खड़ा नहीं हो पाऊंगा। एक छोटे बच्चे की भांति रोते हुए.. .तुम्हारे राजनेता बस छोटे बच्चे हैं, जो एक—दूसरे के साथ खेलते और लड़ते रहते हैं।

यदि तुम सजग हो जाओ तो अपने प्रयासों की सारी मूढ़ता तुम्हें अचानक दिखाई पड़ सकती है। तुम ठहर सकते हो—और तुम्हारे भीतर कहीं गहरे में यह अनुभव सदा होता रहता है। तुम धन के पीछे दौड़ रहे हो…

एक बार ऐसा हुआ, एक बहुत धनवान व्यक्ति मुझे सुनने आया करता था। अचानक उसने आना बंद कर दिया। कई माह बाद उससे सुबह टहलते समय मेरी अचानक भेंट हो गई। मैंने उससे पूछा, कहां रह गए थे आप? आप अचानक गायब हो गए? उसने कहा, ऐसा अचानक नहीं हुआ, लेकिन धीरे—धीरे मैं भयभीत हो गया। मैं आपको सुनने आऊंगा, लेकिन अभी वह समय नहीं है। मैं युवा हूं और आपको सुनते हुए मैं धीरे— धीरे और—और कम महत्वाकांक्षी होने लगा, अभी यह खतरनाक होगा। पहले मुझे अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना है। अपने बाद के वर्षों में जब मैं वृद्ध हो चुका होऊंगा, तब मैं ध्यान करुंगा, लेकिन अभी मेरे लिए यह ध्यान करने का समय नहीं है। पहले मैं आपके पास कौतुहलवश आ गया था, लेकिन धीरे— धीरे मैं इसमें फंसने लगा। मैंने स्वयं को रोका। रुकना कठिन था, लेकिन मैं भी दृढ़ इच्छा शक्ति वाला व्यक्ति हूं।

तुम सजग नहीं हो सकते क्योंकि तुमने अपनी मूर्खता में, अपने अज्ञान में, अपनी मूर्च्छा में बहुत योगदान दिया हुआ है। इस निद्रा में, इस सुप्तावस्था में तुमने अपना जीवन और अनेक चीजें अर्पित कर रखी हैं। अब सजगता की पहली किरण आई और तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारा सारा जीवन एक व्यर्थता रहा है। फिर भी तुम साहसी नहीं हो। इसीलिए लोग प्रभावों को बदलते चले जाते हैं, क्योंकि फिर वहां कोई खतरा नहीं है। और वे जड़ को कभी स्पर्श नहीं करते।

एक बार ऐसा हुआ, मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ यात्रा कर रहा था। अचानक उसे पता लगा कि उसका टिकट खो गया है। उसने अपनी सारी जेबों में—कोट की, शर्ट की, पेंट की, सभी में देखा—लेकिन मैं उसको देख रहा था, वह अपनी एक जेब में नहीं देख रहा था। इसलिए मैंने उससे कहा : तुम प्रत्येक जेब में देख रहे हों—सूटकेस में, बैग में और सारे सामान में, लेकिन तुम इस जेब में क्यों नहीं देखते? उसने कहा : मैं डरा हुआ हूं यदि टिकट वहां नहीं हुआ तो मैं मर जाऊंगा। मैं इसको इसीलिए छोड़ रहा हूं ताकि आशा बंधी रहे कि यदि टिकट कहीं और नहीं है तो कम से कम यह जेब तो बची हुई है, हो सकता है कि टिकट वहां हो? यदि मैं इसमें देख लूं और यह वहां न हुआ तो मैं मुर्दा होकर गिर जाऊंगा।

तुम जानते हो कि देखना कहां है लेकिन फिर भी तुम भयभीत हो। तब तुम इसे अन्य स्थानों पर, बस उलझे रहने के लिए देखते रहते हो:। तुम धन में, शक्ति में, प्रतिष्ठा में, इसमें और उसमें देखते चले जाते हो, किंतु कभी भीतर, कभी अपने आंतरिक अस्तित्व में नहीं देखते हो। तुम भयभीत हो, ऐसा लगता है कि यदि तुम वहां देखो और कुछ न मिला तो तुम मुर्दा होकर गिर पड़ोगे। लेकिन वे लोग जिन्होंने वहां देखा है सदैव पाया है। एक भी अपवाद अभी तक नहीं हुआ है कि वह जो भीतर गया है उसको खजाना नहीं मिला हो। यह सर्वाधिक सार्वभौम तथ्यों में से एक है। वैज्ञानिक तथ्य तक इतने सार्वभौमिक नहीं होते; यह तथ्य बिना अपवाद का है। जब कहीं, और जहां कहीं किसी देश में, किसी शताब्दी में किसी स्त्री या किसी पुरुष ने अपने भीतर झांक कर देखा है, उनको खजाना मिल गया है। किंतु व्यक्ति को भीतर देखना पड़ता है, और इसके लिए बहुत साहस की आवश्यकता है। तुमने अपने से बाहर अपना संसार व्यवस्थित कर लिया है। तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी शक्ति, तुम्हारा धन, तुम्हारा यश, तुम्हारा नाम, सभी कुछ तुमसे बाहर हैं। वह व्यक्ति जो भीतर जाना चाहता है उसको इन चीजों को छोड़ना पड़ेगा, अपनी आंखों को बंद करना पड़ेगा, और व्यक्ति अंत तक इन सभी से चिपकता है।

जीवन तुम्हें हताश करता चला जाता है, यह एक आशीष है। जीवन तुमको बार—बार हताश करता चला जाता है; जीवन कह रहा है, भीतर जाओ। सभी हताशाएं बस संकेत हैं कि तुम गलत दिशा में देख रहे हो। परितृप्ति केवल ठीक दिशा से ही संभव है। जीवन तुम्हें हताश करता है क्योंकि जीवन एक परम आशीष है। यदि तुम बाहर से संतुष्ट हो गए तो तुम सदा के लिए भटक जाओगे; फिर तुम कभी भीतर नहीं देखोगे। किंतु इन सभी हताशाओ के बावजूद तुम आशा लगाए चले जाते हो।

मैंने एक व्यक्ति के बारे में सुना है, तुमने अपनी पिछली नौकरी क्यों छोड़ दी? मेरे बीस ने कहा कि मैं नौकरी से निकाल दिया गया हूं लेकिन मैंने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे तो ऐसा सदा कहते रहते थे। इसलिए अगले दिन मैं आफिस चला गया और देखा कि मेरा सारा सामान आफिस से हटा दिया गया। फिर मैं अगले दिन गया, तो मेरी नाम पट्टिका दरवाजे से हट चुकी थी, और अगले दिन मैंने अपनी कुर्सी पर किसी और को बैठे देखा। यह बहुत अधिक है! मैनें अपने आप से कहा, इसलिए मैंने त्यागपत्र दे दिया।

किंतु तुम्हारे लिए यह भी बहुत अधिक नहीं है। प्रत्येक दिन तुमको इनकार किया जाता है, प्रत्येक दिन तुमको निकाला जाता है, हर दिन; हर पल तुम हताश होते हो। जो भी व्यवस्थाएं तुम बनाते हो हर क्षण नष्ट कर दी जाती हैं, तुम्हारा उद्देश्य चाहे जो भी हो, रह हो जाता है। तुम्हारी सभी आशाएं बस निराशाए सिद्ध होती हैं, तुम्हारे सभी स्वप्न मिट्टी हो जाते हैं और मुंह में बहुत कडुवा स्वाद छोड़ जाते हैं। तुमको लगातार मितली अनुभव होती है, किंतु फिर भी तुम चिपकते चले जाते हो, शायद किसी दिन, कहीं से हो सकता कि तुम्हारे स्वप्न पूरे हो जाएं। तुम अपने प्रक्षेपणों के काल्पनिक संसार में इसी भांति झूलते रहते हो। जब तक कि तुम सजग न हो जाओ और अपनी आशाओं की निराशाओं को न देखो, जब तक तुम सभी आशाओं को न छोड़ दो, तुम भीतर नहीं मुडोगे, और तुम कारण को नष्ट कर पाने में सक्षम नहीं हो पाओगे।

‘अतीत और भविष्य का अस्तित्व वर्तमान में है, किंतु वर्तमान में उनकी अनुभूति नहीं हो पाती है, क्योंकि वे विभिन्न तलों पर होते हैं।’

योग का विश्वास शाश्वतता में है, समय में नहीं। योग कहता है : सभी सदा हैं—अतीत अब भा ह वर्तमान में छिपा है और भविष्य भी यहीं है वर्तमान में छिपा हुआ, क्योंकि अतीत बस मिट नहीं सकता

और भविष्य ना—कुछ पन से बस प्रकट नहीं हो सकता। भूत, वर्तमान, भविष्य, तीनों अभी और यहीं हैं। हमारे लिए वे विभाजित हैं, क्योंकि हम समग्रता को नहीं देख सकते हैं। यथार्थ को देखने के लिए हमारी ज्ञानेंद्रियों, हमारी आंखों की क्षमताएं बहुत सीमित हैं। हम विभाजित करते हैं।

यदि हमारी चेतना शुद्ध है और इसमें कोई भी बादल नहीं है, तब हम शाश्वतता को जैसी यह है वैसी ही देख लेंगे। वहां कोई अतीत नहीं होगा और वहां कोई भविष्य नहीं होगा। वहां केवल यही क्षण होगा शाश्वत रूप से यही क्षण।

एक महान झेन सदगुरु बोकोजू मर रहा था, और उसके शिष्य एकत्रित हो गए। मुख्य शिष्य ने पूछा, प्यारे सदगुरु आप हमें छोड़ कर जा रहे हैं, जब आप विदा हो चुकेंगे तो लोग हमसे पूछेंगे कि आपका संदेश क्या था। यद्यपि आप हमें सदैव और हमेशा सिखाते रहे हैं, आपने अनेक बातें सिखाई हैं और हम अज्ञानी लोग हैं, हम लोगों के लिए आपके संदेश को संक्षिप्त कर पाना कठिन होगा, इसलिए कृपया, इसके पूर्व कि आप विदा हों, अपनी देशना का परम सार बस एक वाक्य में कह दें। बोकोजू ने अपनी आंखें खोलीं और जोर से कहा : ‘यही है यह!’ अपनी आंखें बंद कीं और मर गया। अब उसके बाद शताब्दियों से लोग यही पूछते रहे हैं की उसका अभिप्राय क्या था, यही है यह? उसने सभी कुछ कह दिया था।

यही.. .है……यह…

उसने सारा संदेश दे दिया था, यही क्षण ही सब कुछ है। यही क्षण सारा अतीत, सारा वर्तमान, सारा भविष्य, इसी क्षण में समाहित है। किंतु तुम इसको इसकी संपूर्णता में नहीं देख सकते, क्योंकि तुम्हारा मन, विचारों, स्वप्नों, निद्रा से, इतना धूमिल, इतना मेघाच्छादित है, इतने अधिक सम्मोहन, इच्छाएं उद्देश्य हैं कि तुम नहीं देख पाते। तुम संपूर्ण नहीं हो, तुम्हारी दृष्टि संपूर्ण नहीं है। एक बार दृष्टि संपूर्ण हो जाए, पतंजलि कहते हैं, ‘तो अतीत और भविष्य का अस्तित्व वर्तमान में है, किंतु वर्तमान में उनकी अनुभूति नहीं हो पाती है, क्योंकि वे विभिन्न तलों पर होते हैं।’ अतीत एक भिन्न तल पर चला गया है। यह तुम्हारा अवचेतन बन गया है और तुम अपने अवचेतन में नहीं जा सकते, इसलिए तुम अपने अतीत को नहीं जान सकते। भविष्य का अस्तित्व एक अलग तल पर है, इसका अस्तित्व तुम्हारे पराचेतन में है। किंतु क्योंकि तुम अपने पराचेतन में नहीं जा सकते हो इसलिए तुम अपना भविष्य नहीं जान सकते। तुम अपनी छोटी सी, बहुत आशिक चेतना में बंद हो। तुम एक हिमशैल के अग्रभाग की भांति हो, गहराई में बहुत कुछ छिपा है, तुम्हारे ठीक नीचे, और तुम्हारे ठीक ऊपर बहुत कुछ छिपा है। ठीक नीचे और ऊपर और सारी वास्तविकता तुम्हारे चारों ओर है, लेकिन तुम एक बहुत छोटी सी चेतना से आसक्त हो। इस चेतना को विराटतर और विशालतर बनाओ।

ध्यान यही सब कुछ तो है—तुम्हारी चेतना को किस भांति विराटतर बनाया जाए, तुम्हारी चेतना को किस प्रकार असीम बनाया जाए। तुम उतनी ही वास्तविकता को जान पाने में समर्थ हो पाओगे, उसी अनुपात में तुम वास्तविकता को जान लोगे जैसी चेतना तुम्हारे पास है। यदि तुम्हारे पास अनंत चेतना है, तो तुम असीम को जान लोगे। यदि तुम्हारे पास क्षणिक चेतना है, तो तुम क्षण को जानोगे। प्रत्येक बात तुम्हारी चेतना पर निर्भर है।

‘वे व्यक्त हों या अव्यक्त, अतीत, वर्तमान और भविष्य सत, रज और तम गुणों की प्रकृति हैं।’

पहले भी हम तीन गुणों—सत्व अर्थात स्थायित्व, रजस अर्थात सक्रियता, और तमस अर्थात जड़त्व की चर्चा कर चुके हैं। अब पतंजलि अतीत, वर्तमान और भविष्य को इन तीन गुणों से जोड़ रहे हैं। पतंजलि के लिए जीवन और अस्तित्व की हरेक बात किसी भी प्रकार से इन तीन गुणों से, इन तीन गुणधर्मों से संयुक्त है। पतंजलि की त्रिमूर्ति यही है, प्रत्येक चीज में तीन चीजें निहित हैं। स्थायित्व; अतीत एक स्थायित्व है। यही कारण है कि तुम अपने अतीत को बदल नहीं सकते, यह करीब—करीब स्थायी बन चुका है। अब तुम इसको परिवर्तित नहीं कर सकते। इसको बदलने का कोई उपाय नहीं है। यह स्थायी हो चुका है। वर्तमान सक्रियता है, रजस। वर्तमान एक सतत प्रक्रिया, गतिशीलता है। वर्तमान सक्रियता है और भविष्य जड़ है। अभी भी यह बीज में है, गहरी निद्रा में। बीज में वृक्ष सोया हुआ है, जड़त्व में है।

भविष्य एक संभावना है, अतीत एक वास्तविकता है, और वर्तमान वास्तविकता की संभावना की ओर गतिशीलता है। अतीत वह है जो हो चुका है, भविष्य वह है जो होने जा रहा है, और वर्तमान दोनों के मध्य यात्रा—पथ है। वर्तमान भविष्य के अतीत बन जाने का, बीज के वृक्ष बन जाने का रास्ता है।’किसी वस्तु का सार—तत्व, इन्हीं तीन गुणों के अनुपातों के अनूठेपन में निहित होता है।’

अब भौतिकविदों का कहना है कि इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटीन मूल तत्व हैं, और प्रत्येक वस्तु इन्हीं से बनी है। प्रत्येक वस्तु इन्हीं तीन धनात्मक, उदासीन और ऋणात्मक कणों से बनी है। सत्व, रजस और तमस का ठीक यही अभिप्राय है. धनात्मक, उदासीन और ऋणात्मक और प्रत्येक वस्तु इन्हीं तीन से बनी है। बस अनुपातों में भेद है, अन्यथा ये ही वे मूलभूत तत्व हैं जिन से मिल कर सारा संसार बना है।

‘भिन्न—भिन्न मनों के द्वारा एक ही वस्तु विभिन्न ढंगों से देखी जाती है’.. .किंतु भिन्न प्रकार का मन एक ही वस्तु को भिन्न ढंग से देखता है।

उदाहरण के लिए बगीचे में एक लकड़हारा आता है—वह पुष्पों को नहीं देखेगा, वह हरियाली की ओर नहीं देखेगा, वह लकड़ी की ओर—और इस लकडी से क्या बन सकता है, इसकी संभावना

की ओर—कौन सा वृक्ष सुंदर मेज बन सकता है, कौन सा वृक्ष द्वार बन सकता है—बस यही देख रहा होगा। उसके लिए वृक्षों का अस्तित्व फर्नीचर बनाने की सामग्री के रूप में है। संभावित फर्नीचर, यही है जिसे वह देखेगा। और यदि कोई चित्रकार वहां आता है, तो वह फर्नीचर के बारे में जरा भी नहीं सोचेगा। एक क्षण के लिए भी फर्नीचर उसकी चेतना में नहीं आएगा। वह चित्र के बारे में, इन रंगों को कैनवास पर लाने के बारे में, विचार करेगा। यदि कोई कवि आता है, तो वह चित्रकारी के बारे में नहीं सोचेगा, वह कुछ और सोचेगा। एक दर्शनशास्त्री आता है, तो और वह किसी अन्य के बारे में सोचेगा। यह मन पर निर्भर करता है। वस्तु सदैव मन के माध्यम से देखी जाती है. मन इसे रंग प्रदान करता है।

मैं तुमसे कुछ कहानियां कहता हूं :

एक आवास आदमी किसी भद्र पुरुष से मिलने गया। मैं तुमसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं उस व्यक्ति ने पूछा। क्या तुम शराब पीते हो? इसके पहले कि मैं उत्तर दूं आवारा ने कहा, मैं जानना चाहता हूं कि यह पूछताछ है या निमंत्रण।

यह निर्भर करता है…….उत्तर प्रश्न पर निर्भर करेगा। वह आवारा आदमी आश्वस्त होना चाह रहा है कि यह निमंत्रण है या पूछताछ। उसकी हां और न इस पर निर्भर करेगी कि यह प्रश्न क्या है। जब तुम किसी खास वस्तु को देखते हो तो तुम उसको वैसा नहीं देखते जैसी कि वह है।.

इमैनुअल कांट ने लिखा है कि किसी वस्तु को जैसी कि वह है उस रूप में नहीं जाना जा सकता, और एक प्रकार से वह सही है। वह ठीक कहता है, क्योंकि जब कभी भी तुम किसी वस्तु को जानते हो, तुम्हारा मन, तुम्हारा पूर्वाग्रह, तुम्हारा लोभ, तुम्हारी अवधारणा, तुम्हारी संस्कृति ये सभी उस वस्तु को देख रहे हैं। किंतु इमैनुअल कांट आत्यंतिक रूप से सत्य नहीं है क्योंकि वस्तु को मन के बिना भी देखने का एक उपाय है। लेकिन उसको ध्यान के बारे में जरा भी पता नहीं था।

पाश्चात्य दर्शनशास्त्र और भारतीय दर्शन के मध्य यह अंतर है। पाश्चात्य दर्शनशास्त्र मन के द्वारा विचार किए चला जाता है और पूर्व का कुल प्रयास यही है कि मन को किस भांति गिरा दिया जाए और तब वस्तुओं को देखा जाए, क्योंकि तब वस्तुएं अपने स्वयं के आलोक में, अपने आंतरिक गुणों के साथ प्रकट हो जाती हैं। तब तुम उन पर कुछ भी आरोपित नहीं करते हो।

वह पूरे नगर का सर्वाधिक आलसी व्यक्ति था। दुर्भाग्यवश उसके साथ एक बुरी दुर्घटना हो गई, वह अपने घर में ही सोफे से नीचे गिर पड़ा। एक चिकित्सक ने उसकी जांच की और कहा, मुझे भय है कि मेरे पास आपके लिए एक बुरी खबर है, महोदय। अब आप पुन: कभी अपने हाथों से कोई काम नहीं कर पाएंगे। धन्यवाद, डाक्टर साहब, उस आलसी ने कहा, अब बताएं कि बुरी खबर क्या है?

एक आलसी व्यक्ति के लिए यह कोई बुरी खबर नहीं है कि अब वह जीवन भर कोई काम नहीं कर सकेगा। उसके लिए यह अच्छी खबर है, यह तुम्हारी व्याख्या पर निर्भर करता है। और सदैव स्मरण रखो कि सारी व्याख्या भ्रामक है, क्योंकि यह वास्तविकता का मिथ्याकरण कर देती है।

मनोचिकित्सक के कोच पर लेटा हुआ व्यक्ति मानसिक तनाव की अवस्था में था। मुझे यह भयानक दुख स्वप्न बार—बार आता रहता है, उसने मनोचिकित्सक से कहा। इस स्वप्न में मैं अपनी सास को एक नरभक्षी घड़ियाल को पट्टे से बांधे हुए अपना पीछा करते हुए देखता हूं। यह वास्तव में भयावह है। मुझे उसकी पीली आंखें, सूखी सिन्नेदार खाल, पीले सड़ते हुए और उस्तरे से तेज दांत दिखाई पड़ते हैं, और उसकी गंदी, भारी श्वास की बू आती है।

यह किस कदर गंदा लगता है, मनोचिकित्सक ने सहानुभूतिपूर्वक कहा।

यह तो कुछ भी नहीं है डाक्टर साहब, उस आदमी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, जब तक मैं उस नरभक्षी के बारे में आपको पूरी बात न बता दूं जरा रुकिए फिर अपनी राय दीजिएगा।

तुम्हारा मन लगातार कुछ न कुछ आरोपित करता चला जाता है। वास्तविकता एक पर्दे की भांति कार्य करती है और तुम चलचित्र प्रक्षेपक की भांति कार्य करते रहते हो। वह व्यक्ति जो सीख रहा है कि सजग किस प्रकार से हुआ जाए, सीख लेगा कि अपने प्रक्षेपणों को किस भांति गिरा दिया जाए और तथ्यों को उसी प्रकार से देखा जाए जैसे कि वे हैं। अपने मन को बीच में मत लाओ, अन्यथा तुम कभी भी सच्चाई को जान पाने में समर्थ नहीं हो पाओगे। तुम अपनी व्याख्याओं के घेरे में बंद रहोगे।

‘भिन्न—भिन्न मनों के द्वारा एक ही वस्तु विभिन्न ढंगों से देखी जाती है।’

‘वस्तु एक मन पर ही निर्भर—नहीं है।’

लेकिन फिर भी पतंजलि वे ही बातें नहीं कह रहे हैं जो बिशप बर्कले ने कही हैं। बर्कले का कहना है कि वस्तुओं का ज्ञान पूरी तरह से मन पर निर्भर है। उसका कहना है कि जब आप कमरे से बाहर चले जाते हैं तो कमरे के भीतर की प्रत्येक वस्तु तिरोहित हो जाती है। यदि उनको देखने वाला कोई न हो तो वस्तुओं का अस्तित्व कैसे संभव है? और एक प्रकार से उसकी बात काट पाना कठिन है, क्योंकि वह कहता है, जब आप कमरे में पुन: वापस लौटते हैं तो वस्तुएं प्रकट हो जाती हैं, जब आप बाहर निकल जाते हैं वे लुप्त हो जाती हैं; क्योंकि उनको अर्थ प्रदान करने के लिए एक मन की आवश्यकता होती है। बर्कले कह रहा है कि वस्तुएं और कुछ नहीं वरन व्याख्याएं हैं। इसलिए जब तुम बाहर जाते हो तो निःसंदेह तुम्हारी व्याख्याएं तुम्हारे साथ चली जाती हैं और कमरे में कुछ भी शेष नहीं रहता। यह सिद्ध करना बहुत कठिन है कि वह गलत है, क्योंकि यदि तुम सिद्ध करने के लिए कमरे में लौट कर आते हो तो तुम वापस लौट आए हो, इसलिए वस्तुएं प्रकट हो गई हैं। लेकिन लोगों ने प्रयास किए हैं। एक व्यक्ति ने कुछ ऐसी वस्तुएं खोजने का प्रयास किया है जिनको मानने के लिए बिशप बर्कले को भी बाध्य होना पड़ेगा।

तुम एक रेलगाड़ी में बैठे हुए हो और रेलगाड़ी चल रही है और तुम इसके पहियों को नहीं देख रहे हो, लेकिन फिर भी वे हैं, क्योंकि रेलगाड़ी चल रही है। पहियों को कोई भी नहीं देख रहा है, किंतु तुम उनके होने से इनकार नहीं कर सकते, वरना तुम एक स्टेशन से दूसरे तक नहीं पहुंचोगे। और सारे यात्री रेलगाड़ी के भीतर हैं लेकिन पहियों को कोई भी नहीं देख रहा है, किंतु पहिए हैं। निःसंदेह वह भी वस्तुओं के बारे चिंतित था क्योंकि यदि सभी वस्तुएं खो जाएं तब वे पुन: वापस किस प्रकार से आएंगी? अंततः उसने यह तय किया कि उनका अस्तित्व ईश्वर के मन में है, इसलिए भले ही तुम वहा नहीं हो फिर भी ईश्वर तुम्हारे फर्नीचर को देख रहा है। यही कारण है कि वह बना रहता है; अन्यथा तो यह खो जाएगा।

एक ढंग से बर्कले का दर्शनशास्त्र बहुत तर्कयुक्त है। उसका भरोसा मन में है और वह पदार्थ में विश्वास नहीं करता है। वह कहता है कि पदार्थ का अस्तित्व उसी प्रकार से है जैसा कि तुम्हारे स्वप्नों में होता है। तुम अपने स्वप्न में एक महल देखते हो, वहां यह उतना ही असली होता है जैसी कि कोई भी अन्य वस्तु जो तुमने देख रखी है। फिर सुबह होने पर जब तुम अपनी आंखें खोलते हो तो यह चला जाता है। किंतु जब तुम पुन: स्वप्‍न देखते हो तो पुन: यह वहां होता है। वह एक पूर्ण मायावादी, भ्रम में पूरा विश्वास करने वाला है, कि यह संसार भ्रम है।

लेकिन पतंजलि बहुत वैज्ञानिक ढंग के व्यक्ति हैं। वे कहते हैं कि किसी वस्तु का अस्तित्व में होना तुम्हारी व्याख्या नहीं है, यद्यपि तुम उस वस्तु के बारे में जो कुछ भी सोचते हो वह तुम्हारी व्याख्या है। वस्तु का अपने आप में ही अस्तित्व है। जब बगीचे में कोई भी नहीं आता है—बढ़ई, लकड़हारा, चित्रकार, कवि, दर्शनशास्त्री; कोई भी बगीचे में नहीं आता है—फिर भी पुष्प खिलते हैं, किंतु बिना किसी व्याख्या के। कोई कहता नहीं कि वे सुंदर हैं—इसलिए वे सुंदर नहीं हैं, वे कुरूप नहीं हैं। कोई नहीं कहता कि वे लाल हैं या सफेद—इसलिए लाल या सफेद नहीं हैं, किंतु फिर भी वे हैं।

वस्तुओं का अस्तित्व उन्हीं में है, किंतु हम वस्तुओं को यर्थाथत: केवल तभी जान सकते हैं जब हमने अपने मनों को गिरा दिया हो। अन्यथा हमारे मन छल करते चले जाते हैं। हम उन वस्तुओं को देखते रहते हैं जिन्हें हम चाहते हैं। हम केवल वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। यह यहां प्रतिदिन हुआ करता है। मैं तुमसे बोलता हूं तुम वही सुनते हो जो तुम सुनना चाहते हो। तुम उसे चुन लेते हो जो तुम्हारी सहायता करता है। इससे तुम्हारा अपना मन सबल हो जाता है। यदि मैं कुछ ऐसा कहता हूं जो तुम्हारे विरुद्ध जाता है, तो इस बात की पूरी संभावना है कि तुम उसको नहीं सुनोगे। या यदि तुम इसको सुन भी लो तो तुम इसकी इस ढंग से व्याख्या कर लोगे कि यह तुम्हारे मन में कोई बेचैनी उत्पन्न न करे, कि यह आत्मसात हो जाए, कि तुम इसको अपने मन का एक हिस्सा .बगलो, जो कुछ भी तुम सुनते हो उसे तुम्हारी व्याख्या बन जाना पड़ता है, क्योंकि तुम मन के माध्यम से सुनते हो।

पतंजलि कहते हैं. सम्यक श्रवण का अभिप्राय है मन के बिना सुना जाना; सम्यक दर्शन का अभिप्राय है मन के बिना देखा जाना—बस तुम सजग हो।

‘वस्तु का ज्ञान या अज्ञान इस पर निर्भर होता है कि मन उसके रंग में रंगा है या नहीं।’

अब एक और बात, जब तुम किसी वस्तु को देखते हो तो तुम्हारा मन उस वस्तु को रंग देता है और वह वस्तु तुम्हारे मन को रंग देती है। इसी प्रकार से वस्तुएं शांत या अशांत होती हैं। जब तुम एक फूल पर दृष्टिपात करते हो, तो तुम कहते हो, सुंदर। तुमने फूल पर कुछ आरोपित कर दिया है। फूल भी अपने आप को तुम्हारे मन में प्रक्षेपित कर रहा है, उसका रंग उसका रूप। तुम्हारा मन फूल के रंग और रूप के साथ लय में आ जाता है; तुम्हारा मन फूल के द्वारा रंग दिया जाता है। किसी वस्तु को जानने का यही एक मात्र उपाय है। यदि तुम फूल के द्वारा नहीं रंगे गए होते तो फूल वहां होता लेकिन तुमने उसको नहीं जाना होता।

क्या कभी तुमने गौर किया है? —तुम बाजार में हो और कोई कहता है, तुम्हारे घर में आग लग गई है। तुम दौड़ना आरंभ कर देते हो, तुम्हारे पास से होकर अनेक लोग गुजरते हैं। कोई व्यक्ति कहता है, अरे, आप कहां दौड़े जा रहे हैं? किंतु तुम नहीं सुनते। किसी और दिन, किसी और समय पर तुमने सुन लिया होता, किंतु इस समय तुम्हारे घर में आग लगी हुई है, तुम्हारा मन पूरी तरह से तुम्हारे घर की ओर लगा हुआ है, इस वक्त तुम्हारा अवधान यहां नहीं है। तुम यहां घटने वाली घटनाओं से अभिरंजित नहीं हो रहे हो। तुम एक सुंदर फूल के निकट से होकर गुजरते हो लेकिन इस समय तुम नहीं कहोगे सुंदर, तुम तो यह पहचान भी न सकोगे कि वहां कोई फूल भी है—असंभव।

मैंने एक व्यक्ति, एक बहुत बड़े दर्शनशास्त्री के बारे में सुना है, उनका नाम ईश्वर चंद्र विद्यासागर था। उनकी सेवाओं, उनकी विद्वत्ता, उनके ज्ञान के लिए भारत का गर्वनर जनरल उनको एक पुरस्कार देने जा रहा था। वे कलकत्ता में रहने वाले एक निर्धन बंगाली थे, और उनके वस्त्र ऐसे नहीं थे कि वे उन वस्त्रों को पहन कर उस समय जाएं जब वह पुरस्कार उनको दिया जा रहा हो। इसल्रिए उनके मित्र उनके पास आए और उन्होंने कहा, आप चिंता न करें, हम लोगों ने आपके लिए सुंदर वस्त्रों की व्यवस्था कर दी है। लेकिन वे विद्यासागर बोले, मैंने कभी इन वस्त्रों से अधिक कीमती वस्त्र नहीं पहने। बस एक पुरस्कार लेने के लिए क्या मैं अपने जीवन का सारा ढंग बदल लूं? किंतु मित्रों ने उनको समझा लिया और वे तैयार हो गए। उसी शाम जब वे बाजार से घर लौट रहे थे, बस एक मुस्लिम सज्जन के पीछे चलते हुए आ रहे थे, जो बहुत शानदार ढंग से चल रहे थे—बहुत धीरे, प्रसादपूर्ण ढंग से—एक बहुत सुंदर व्यक्ति थे वे, और तभी एक नौकर उन मुस्लिम सज्जन के पास भागता हुआ आया और बोला, हुजूर, आपके घर में आग लग गई है, लेकिन उन मुस्लिम सज्जन ने उसी प्रकार चलना जारी रखा। नौकर ने कहा. आपने मेरी बात सुन ली या नहीं? आपके घर में आग लग गई है, हर चीज जल रही है! उन मुस्लिम सज्जन ने कहा : मैंने तुम्हारी बात सुन ली है, लेकिन बस, क्योंकि घर में आग लग गई है इसलिए मैं अपने चलने का ढंग नहीं बदल सकता। और यदि मैं दौड़ पडूं तो भी मकान को मैं नहीं बचा सकता, इसलिए चाल बदलने से भी क्या हो जाएगा?

ईश्वरचंद्र ने नौकर और मालिक के मध्य होने वाला यह वार्तालाप सुन लिया। उनको अपनी आंखों पर भरोसा न हुआ, वे अपने कानों पर विश्वास न कर सके कि ये सज्जन क्या कह रहे हैं? और फिर उनको स्मरण हो आया, मैं तो बस अपने वस्त्र बदलने ही वाला था, मात्र एक पुरस्कार प्राप्त करने की खातिर, मैं तो उधार मांगे हुए वस्त्र पहन कर जाने वाला था? उन्होने यह विचार त्याग दिया। अगले दिन वे अपने उन्हीं सामान्य वस्त्रों में पहुंच गए। गर्वनर जनरल ने पूछा, मित्रों ने पूछा, तब उन्होंने यह कहानी सुना दी।

अब इन मुसलमान सज्जन में एक विशेष सजगता है, एक ऐसी विशिष्ट सजगता जिसको किसी चीज के द्वारा धुंधला नहीं किया जा सकता, एक खास किस्म की जागृति जिसको आसानी से विचलित नहीं किया जा सकता। सामान्यत: प्रत्येक वस्तु तुम्हारे मन को रंग देती है और तुम प्रत्येक वस्तु को रंग देते हो। जब यह रंगा जाना रुक जाता है, यह उभयपक्षीय रंगना रुक जाता है, तभी वस्तुएं अपने सच्चे अस्तित्व में प्रकट होना आरंभ कर देती हैं। तब तुम वास्तविकता को उसी प्रकार से देख लेते हो जैसी कि वह है। तब तुम जान जाते हो. यही है यह। तब तुम उसको जान लेते हो जो है।

ये सूत्र मात्र संकेत देते हैं कि जब तक अ—मन की अवस्था उपलब्ध नहीं कर ली जाती अज्ञान को विनष्ट नहीं जा सकता है। जागरूकता अज्ञान के विरोध में है, जानकारी अज्ञान के विरोध में नहीं है। इसलिए तोते मत बन जाओ, मात्र याददाश्त पर ही भरोसा मत रखो। सूचनाओं से मन को मत भरो, देखने का प्रयास करो। वस्तुओं को जैसी वे हैं वैसी ही देखने का प्रयास करो। वेदों, उपनिषदों, कुरान, बाइबिल से सहायता नहीं मिल सकती। तुम महान ज्ञानवान, विद्वान बन सकते हो, किंतु कहीं गहरे में तुम बस मूर्ख ही बने रहोगे। और जब अज्ञान की सजावट जानकारी से हो जाती है तो व्यक्ति इससे आसक्त हो जाता है। व्यक्ति इसको नष्ट करना नहीं चाहता। वास्तव में अहंकार को अत्यधिक प्रसन्नता अनुभव होती है।

तुम्हें चुनाव करना पड़ेगा। यदि तुम अहंकार को चुनते हो, तो तुम अज्ञानी बने रहोगे। यदि तुम सजगता चाहते हो, तो तुम्हें अहंकार की उन चालबाजियों के प्रति जागरूक होना पड़ेगा जो वह तुम्हारे साथ खेलता है।

इसी सुबह, मनन करो कि तुम क्या जानते हो और तुम क्या नहीं जानते, और सरलता से संतुष्ट मत हो जाओ। तुम क्या जानते हो और क्या नहीं जानते, इसमें जितना हो सके उतनी गहराई तक उतर जाओ। यदि तुम यह निर्णय कर सको कि यह तुम जानते हो और यह नहीं जानते हो, तो तुमने एक बड़ा कदम उठा लिया है। और यह कदम, यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण कदम है जो एक व्यक्ति कभी भी उठा सकता है, क्योंकि तभी तीर्थयात्रा, सत्यता की ओर की तीर्थयात्रा का आरंभ होता है। यदि तुम यह विश्वास करते चले जाओ कि तुम अनेक बातों को जानते हो और तुम उन्हें नहीं जानते, तब तुम स्वयं को धोखा दे रहे हो, तुम अपनी जानकारी से सणोहित रहोगे। तुम अपना सारा जीवन नशे में बरबाद कर दोगे। सामान्यत: लोग बस ऐसे जीते हैं जैसे कि वे गहरी निद्रा में हों, अपनी निद्रा में चल रहे हों, अपनी निद्रा में सारे कार्य कर रहे हों, सोमनैमबुलिस्ट, निद्राचारी हों।

गुरजिएफ आस्पेंस्की और अपने तीस शिष्यों को एक बहुत दूरस्थ स्थान पर ले गया। और उसने अपने तीसों शिष्यों से तीन माह तक पूर्णत: मौन रहने को कहा, उसने उनसे इतना मौन हो जाने को कहा कि वे नेत्रों या मुख—मुद्राओं द्वारा भी संवाद न करें। और तीस लोगों को एक छोटे से बंगले में इस भांति रहना था जैसे कि वहां तीस लोग नहीं थे, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही रह रहा था। कुछ दिनों बाद कुछ लोग छोड़ कर भाग गए, क्योंकि यह नियम बहुत अधिक कठोर था, असंभव था इस भांति रह पाना। और गुरजिएफ अत्यधिक कठोरता से काम लिया करता था। यदि वह किसी को किसी अन्य व्यक्ति की ओर मुस्कुराते हुए देख लेता तो उसे तुरंत निकाल देता, क्योंकि उसने संवाद कर लिया था, मौन तोड़ दिया गया था। उसने कहा था. इस मकान में इस भांति रहो जैसे कि तुम अकेले हो। यहां पर उनतीस अन्य व्यक्ति हैं, किंतु तुम्हारा उनसे कोई सरोकार नहीं है—जैसे कि वे नहीं हैं। जब तीन माह का समय पूरा हुआ, तो मात्र तीन व्यक्ति बचे; सत्ताइस लोग छोड़ कर जा चुके थे। आस्पेंस्की उन तीन व्यक्तियों में से एक था। वे तीन लोग इतने मौन हो गए कि गुरजिएफ उनको बंगले से बाहर नगर में ले गया, उनको बाजार में घुमाया, और आस्पेंस्की अपनी डायरी में लिखता है, पहली बार मैं देख सका कि सारी मानव—जाति निद्रा में चल रही है। लोग अपनी निद्रा में बातचीत कर रहे हैं। दुकानदार सामान बेच रहे हैं, ग्राहक सामान खरीद रहे हैं, बड़ी भीड़ें इधर—उधर जा रही हैं, और उस क्षण में मैं देख सका कि प्रत्येक व्यक्ति गहरी निद्रा में है, कोई भी सजग नहीं है। उसने कहा, उस विक्षिप्त स्थान में हमें इतना असहज लगा कि हमने गुरजिएफ से हम लोगों को बंगले में वापस ले चलने के लिए कहा। किंतु वह बोला, वह बंगला तुमको मनुष्यता की असलियत दिखाने के लिए मात्र एक प्रयोग था, तुम भी इसी प्रकार से जीते रहे हो। क्योंकि अब तुम मौन हो और तुम देख सकते हो कि लोग बस बेहोश, अचेतन हैं, वास्तव में जी नहीं रहे हैं, बस बिना जाने क्यों, बिना जाने किसलिए, चलते चले जा रहे हैं।

स्वयं का निरीक्षण करो, इस पर ध्यान करो, और देखो क्या तुम निद्रा में जी रहे हो? यदि तुम निद्रा में जी रहे हो, तो इससे बाहर निकलो।

ध्यान और कुछ नहीं बल्कि उस जरा सी चेतना को जो तुम्हारे पास है, एक साथ एकत्रित करने का प्रयास है, इसे एक साथ एकत्रित कर लेना, इसको संकेंद्रित करना, इसको और—और बढ़ाने, और अचेतनता को घटाने के लिए हर प्रकार के उपाय करने का प्रयास है। धीरे— धीरे चेतना ऊंची और ऊंची होती जाती है, कम से कम स्वप्न चलते हैं, तुमको कम से कम विचार आते हैं, और मौन के अधिक और अधिक अंतराल आते हैं। इन अंतरालों के माध्यम से दिव्यता के झरोखे खुल जाएंगे। एक दिन जब तुम वास्तव में समर्थ हो चुके होते हो और तुम यह कह सको कि मैं कुछ मिनट तक बिना किसी विचार या स्वप्न द्वारा मुझको विचलित किए बिना रह सकता हूं तो पहली बार तुम जानोगे। उद्देश्य पूरा हो गया है। गहन निद्रा से तुम गहन जागरूकता में आ चुके हो। जब गहन निद्रा और गहन जागरूकता का मिलन होता है, तो वर्तुल पूरा हो जाता है।

यही है समाधि। पतंजलि इसको कैवल्य, शुद्ध चेतना, एकांत कहते हैं; इतनी शुद्ध, इतनी एकाकी कि और किसी का अस्तित्व रहता ही नहीं। सिर्फ इस एकाकीपन में ही व्यक्ति आनंदित हो जाता है। केवल इस एकांत में ही व्यक्ति जान लेता है कि सत्य क्या है। सत्य तुम्हारा होना है। यह वहीं है लेकिन तुम सोए हुए हो।

जागो।

आज इतना ही।

Filed under: पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–17)

February 25, 2015, 6:17 am

स्वभाव की पूर्ण खिलावट के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—सत्रहवां)

दिनांक 3 अक्‍टूबर, 1970;

संध्‍या, मनाली (कुलू)

“भगवान श्री, आपकी प्रवचन-धारा ज्यों-ज्यों बहने लगी है त्यों-त्यों आपके साथ, आपके वाक्-प्रवाह के साथ बहते-बहते हम दिक्कत में पड़ जाते हैं। तकलीफ यह है कि आपके द्वारा कथित उस तिनके की भांति हम लड़ते नहीं, बहने को हम भी हाथ-पांव पसारते हैं, मगर आपका जोश इतना है कि हम बह नहीं सकते।

सुबह आज श्री अरविंद के बारे में बातचीत हुई। “द वे आफ व्हाइट क्लॉउड‘ में एक जगह लिखा है–“समटाइम्स आइ टेक अवे द मैन, द सब्जेक्ट, बट डू नाट टेक अवे द सरकामस्टांसेज, दैट इज आब्जेक्ट। समटाइम्स आइ टेक अवे द सरकमस्टांसेज, बट डू नाट टेक अवे द मैन। समटाइम्स आइ टेक अवे बोथ, द मैन एंड द सरकमस्टांसेज, एंड समटाइम्स आइ टेक अवे नीदर द मैन नॉर द सरकमस्टांसेज।’

श्री अरविंद की बात करते-करते प्रश्न यह उठता है मन में, कई बार, कि आप जैसा पांडिचेरी के बारे में कहते हैं वैसा मैं भी मानता हूं, मगर जो “इंटरप्रेटीशन’ मिला आपसे, उससे ऐसा महसूस हुआ कि अरविंद के साक्षात्कार के बारे में अन्य किसी भी से क्यों पूछा जाए?

मैं यहां आया था तब मुझे ऐसा लगा था कि मैं निरहंकारी रजनीश जी के पास जा रहा हूं और मेरा अहंकार विगलित हो जाएगा। मेरा अहंकार यहां आकर इतना छोटा हो गया, क्योंकि मैंने देखा कि यहां तो निश्चय ही छोटा मालूम पड़ जाएगा। मगर कृष्ण ऐसे नहीं हैं। कृष्ण तो कहते हैं कि अनादिकाल से प्राप्त जो ज्ञान है, वह ज्ञान मैं तुमको देता हूं। वह कृष्ण की बात है।

और आपकी शैली में भी कुछ तकलीफें पड़ती हैं कि तर्क को छोड़कर आप जब तथ्यों में आ जाते हैं तब सब कुछ बहने लगता है, हम भी बहने लगते हैं, ऐसी अनुभूति होती है।

और वेद-उपनिषद के बारे में आपने सुबह जो कहा कि यह बेमानी है उद्धृत करना कि ऐसा ही वेद में कहा गया है, ऐसा ही उपनिषद में कहा गया है, क्योंकि यह आत्महीनता का अनुभव ही है।

इसी संदर्भ में, प्रथम उपनिषद में और बाद में श्रीमद्भगवद्गीता में “निर्वाण’ शब्द का विन्यास हो चुका था। वही भाव बुद्धोक्त “निर्वाण’ शब्द में भी मिलता है। फिर भी इस परंपरा की देन को बुद्ध ने स्वीकार नहीं किया। कृष्णावतार अनादिकाल से प्राप्त ज्ञान को पृथ्वी पर ले आने का दावा करता है। मगर बुद्ध का निजी प्रतीति पर आधार रखते हुए भी डा.राधाकृष्णन के अनुसार उपनिषदों के सिद्धांत का ही बुद्ध के प्रवचनों में अवतरण है। तो किसकी बौद्धिक प्रामाणिकता विश्वस्त कही जाए, कृपया शंकाओं का निवारण करें।’

सत्य तो अनादि है।

अनादि का अर्थ पुराना नहीं। अनादि का अर्थ है, जिसका कोई प्रारंभ नहीं है। अनादि का अर्थ है, “बिगिनिंगलेस’। अनादि का अर्थ “एनशियेंट’ नहीं है। पुराने का तो प्रारंभ होता है। सत्य का कभी प्रारंभ नहीं होता। और जो पुराना पड़ गया, वह सत्य नहीं हो सकता। क्योंकि सत्य तो अभी भी है, इस क्षण भी है। तो सत्य न तो नया होता है, न पुराना होता है। जो सत्य कहता है कि नया है, वह कल पुराना पड़ जाएगा। सब जिनको हम पुराना कहते हैं वह कभी नए थे और जिनको हम आज नया कहते हैं, कल पुराने हो जाएंगे। नया तो पुराना हो जाता है, पुराना कभी नया था। सत्य न तो नया है, न पुराना है। सत्य तो वही है जो सदा है। अनादि का अर्थ यह है। अनादि का अर्थ पुराना, प्राचीन नहीं है।

तो यदि कृष्ण कहते हैं कि मैं वही सत्य कह रहा हूं जो अनादि है, तब आप यह मत समझ लेना कि कृष्ण कह रहे हैं, मैं वही सत्य कह रहा हूं जो पुराना है। कृष्ण कह रहे हैं कि मैं वही सत्य कहता हूं, जो है। अनादि का मतलब इतना ही होता है–मैं वही कहता हूं, जो है। जिन्होंने पहले जाना होगा, अगर सत्य जाना है तो यही जाना होगा। जो आज जान रहे हैं, यदि सत्य जानेंगे तो यही जानेंगे। जो कल जानेंगे, यदि सत्य जानेंगे तो यही जानेंगे। सिर्फ असत्य नए और पुराने हो सकते हैं। सत्य पुराना और नया नहीं हो सकता। इसलिए सत्य की घोषणा दो प्रकार से हो सकती है।

बुद्ध उन सारे पुराने लोगों की बात नहीं करते जिन्होंने सत्य जाना है। कोई कारण नहीं है। क्योंकि जब बुद्ध स्वयं ही सत्य जान रहे हैं, तब और गवाहियां जुड़ाने से कुछ ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला है। जो वह जान रहे हैं, उसमें कुछ जुड़ेगा नहीं। कि किन-किन ने जाना, इससे सत्य में कुछ जुड़ेगा नहीं। बुद्ध ने जितना सत्य जाना है, जो जाना है, इसमें और हजार लोगों ने भी जाना हो उनका नाम लेने से कुछ “एडीशन’ होने वाला नहीं है। इस सत्य की गरिमा में कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। इस सत्य की प्रतिष्ठा में कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। इसलिए बुद्ध सीधे निपट कहते हैं कि ऐसा जो मैंने जाना, तुमसे कहता हूं।

और जानकार ही वे पुराने लोगों का नाम नहीं लेते, क्योंकि पुराने लोगों के साथ, पुराने लोगों का नाम लेने के साथ बुद्ध के समय तक बड़ा खतरा हो चुका है। क्योंकि बुद्ध अपने सुनने वालों को यह भी कहते हैं कि तुम इसलिए मत मान लेना कि मैं कहता हूं, तुम इसलिए मत मान लेना कि बुद्ध ने ऐसा जाना है, जब तक तुम न जान लो, तब तक तुम किसने कहा, किसने जाना, इससे कुछ प्रमाण मत जुटा लेना। तो बुद्ध जिनसे बोल रहे हैं, वे साधक हैं। बुद्ध जिनसे बोल रहे हैं, वे सत्य की खोज पर निकले हुए लोग हैं। बुद्ध के सामने जो सुनने वाला है वह बहुत भिन्न है, कृष्ण के सामने जो सुनने वाला है उससे। बुद्ध के सामने जो लोग हैं, वे वे हज जो सत्य को खोजने निकले हैं। सत्य को खोजने जो लोग निकले हैं, उनसे यह कहना ही होगा कि तुम मेरी मत मान लेना। क्योंकि फिर तुम खोज पर कैसे जाओगे! और अगर बुद्ध अपने पिछले प्रमाणों को दोहराएं, तो फिर वे रास्ता बन रहे हैं अपने से पीछे आने वालों के लिए कि वे बुद्ध के प्रमाण को दोहराएं। इसलिए बुद्ध निपट रूप से पिछले सारे संबंधों की बात ही नहीं करते। वे कहते हैं, ऐसा मैंने जाना है, यह सत्य मैंने देखा है, यह मैं तुमसे कहता हूं। और तुम भी जान न लो, तब तक बुद्ध ने कहा है इसलिए मत मान लेना।

लेकिन कृष्ण के सामने बहुत दूसरे तरह का आदमी है, वह कोई साधक नहीं है, वह कोई सत्य की खोज पर निकला हुआ व्यक्ति नहीं है। जो व्यक्ति कृष्ण के सामने है, वह बुद्ध के सामने वाला व्यक्ति नहीं है। कृष्ण के सामने जो व्यक्ति खड़ा है उसकी सत्य की कोई खोज नहीं है। वह सिर्फ मोहग्रस्त हुआ है। वह सिर्फ विभ्रमित हुआ है, वह सिर्फ “कन्फ्यूज्ड’ हो गया है, स्थिति ने उसे भयभीत कर दिया है। इसलिए कृष्ण उसके सामने सत्य का अनावरण करने को उतने उत्सुक नहीं हैं, जितना सत्य क्या है यह कहने को उत्सुक हैं। वह अनावरण करने के लिए आया भी नहीं है। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि जो मैं तुझसे कह रहा हूं, यह मैं ही तुझसे कह रहा हूं ऐसा नहीं है, यह और भी पहले औरों ने औरों से कहा है। अगर अर्जुन एक साधक हो, तब तो उसे ही सत्य के साक्षात्कार के लिए कहा जा सकता है। वह कोई साधक नहीं है। वह सिर्फ समझने के लिए आतुर है कि सत्य क्या है, खोजने का कोई सवाल नहीं है अर्जुन के लिए। वह कोई आश्रम में, किसी पहाड़ की कंदरा में, किसी गुरु के पास बैठकर सत्य सीखने नहीं गया है। वह सत्य की खोज में आया ही नहीं है, आया तो वह युद्ध करने है और युद्ध की स्थिति ने उसे भयभीत और डांवाडोल कर दिया है। तो कृष्ण उससे कहते हैं कि जो मैं कह रहा हूं, यह मैं ही तुझसे कह रहा हूं ऐसा नहीं है, यह मुझसे पहले औरों ने भी औरों से कहा है। वह जो अनादि है, जो सदा कहा गया है, वही मैं तुमसे कह रहा हूं। अर्जुन के लिए इसमें अर्थ है। अर्जुन खुद खोजने जाता तो बात और हो जाती, अर्जुन खुद खोजने नहीं जा रहा है। इसलिए कृष्ण केवल सत्य की लंबी धारा की बात उससे कह रहे हैं। वे अर्जुन के मन पर एक चीज साफ करना चाहते हैं कि वे ही उससे नहीं कह रहे हैं।

और इसमें और भी कारण हैं।

बुद्ध के पास जो व्यक्ति आया है, वह बुद्ध की शरण होकर आया है। अर्जुन तो मित्र है, वह अभी कृष्ण की शरण नहीं है वहां। और कई बार ऐसा होता है कि बुद्ध के भिक्षुओं ने बुद्ध की बात मान ली, लेकिन बुद्ध की पत्नी ने नहीं मानी। और जब वह बुद्ध गांव वापिस लौटे और पत्नी उनसे मिली बारह साल के बाद, जबकि वे जगत, दूर-दूर तक सत्य के उद्घोषा हो गए थे, दूर-दूर से लोग उनके चरणों में सत्य की तलाश के लिए आने लगे थे, सारी दुनिया के लिए वे बुद्ध हो गए थे, तब भी जब वे घर लौटे तो उनकी पत्नी के लिए बुद्ध नहीं थे। उनकी पत्नी ने वही बात शुरू की जो बारह वर्ष पहले जब वे घर से गए थे तब की होगी। वह उसी तरह नाराज थी और कहने लगी कि तुमने मुझे धोखा दिया, तुम मुझे छोड़कर भाग गए।

बुद्ध की पत्नी का अपना कोण है। और जगह बुद्ध की पत्नी को कहें कि मैं बुद्ध हूं तो वह कहेगी, छोड़ो ये बात! कोई बुद्ध नहीं है और तुम वही-के-वही हो। बुद्ध की पत्नी के लिए बुद्ध को और तरह बात करनी पड़ेगी। बुद्ध की पत्नी का एक दृष्टिकोण है। एक बहुत मीठी कथा इससे जुड़ी है।

आनंद जब दीक्षित हुआ तो बुद्ध का बड़ा चचेरा भाई था। दीक्षा लेते समय उसने कहा कि मैं कुछ वचनबद्धता आपसे करवा लेना चाहता हूं, क्योंकि दीक्षा लेने के बाद तो मैं छोटा हो जाऊंगा। अभी मैं बड़ा भाई हूं और अभी तुम छोटे भाई की हैसियत से मुझे कुछ वचन दे दो, जो बाद में मैं नहीं ले सकूंगा। दीक्षा लेने के ही साथ तो मैं छोटा हो जाऊंगा। तो अभी मैं बड़ा भाई हूं और तुम छोटे भाई हो, इसलिए अभी मैं तुमसे कुछ वचन ले लूं। वे तीन वचन उसने लिए। उसने कहा एक वचन तो यह कि मैं सदा तुम्हारे साथ रहूंगा। तुम कभी यह न कह सकोगे कि जाओ विहार करो, उस जगह चले जाओ, इस जगह चले जाओ। मैं सदा तुम्हारे साथ रहूंगा। दूसरा वचन मैं तुमसे यह ले लेता हूं कि कभी भी मैं किसी को मिलाना चाहूंगा, चाहे आधी रात हो, तो तुम्हें मिलना पड़ेगा। और कोई भी प्रश्न मैं पूछना चाहूंगा, पुछवाना चाहूंगा, तो आप किसी तरह टाल न सकोगे, उस प्रश्न का उत्तर देना ही पड़ेगा। और तीसरी बात, कितनी ही निजी चर्चा किसी से हो रही हो, अगर मैं वहां मौजूद रहना चाहूंगा तो मुझे रोका नहीं जा सकेगा। ऐसे तीन वचन उसने बुद्ध से दीक्षा के पहले ले लिए। और छोटे भाई थे, इसलिए इस खेल को उन्होंने निभा दिया। उन्होंने कहा कि ठीक है। अब वह कोई ज्यादा मांग भी नहीं रहा था, दे दिया।

लेकिन बड़ी कठिनाई आई, बुद्ध को खयाल में न था, जब वह पत्नी से मिलने गए तब आनंद ने कहा कि मैं साथ नहीं छोड़ सकता। बुद्ध ने कहा, तू बड़ा पागल है, तू थोड़ा तो सोच क्योंकि मैं उसके लिए कोई गौतम बुद्ध नहीं हूं, मैं उसका पति हूं। उसके लिए तो अभी भी पति हूं। और अगर तू मेरे साथ गया तो वह बहुत मानिनी है और बहुत नाराज हो जाएगी कि तुम आए भी बारह साल बाद तो एक आदमी को साथ लेकर आए हो! यानी मुझे थोड़ा मौका दो कि मैं एकांत में बारह साल का सब दुख, पीड़ा, सारा क्रोध निकाल लूं। तो आनंद से कहा कि माना कि मैंने तुझे वचन दिया था, लेकिन तुझसे प्रार्थना करता हूं कि तू इस बार कृपा करके उस वचन का आग्रह मत कर।

अब यह तुम्हारे सोचने जैसा है कि बुद्ध का कहना अति मानवीय है, अदभुत है। आनंद कहा भी है कि आपके लिए भी क्या कोई पत्नी है? बुद्ध कहते हैं, मेरे लिए नहीं, लेकिन उसके लिए मैं पति हूं, इसको अभी कैसे मिटाऊं? यह मेरे हाथ में नहीं है। ठीक, आनंद दूर खड़ा रह गया और बुद्ध पत्नी के पास गए और उसने चिल्लाना शुरू किया। बारह साल की लंबी बात थी, बहुत पीड़ाएं थीं, अचानक रात में बिना कहे उसको छोड़कर भाग गए थे, उसका दुख बिलकुल स्वाभाविक है। बुद्ध चुपचाप खड़े हैं। वह उसकी सारी बात सुन लेते हैं। फिर वह आंसू पोंछती है और बुद्ध उससे कहते हैं कि तू ठीक से देख, मैं वहां नहीं हूं जो गया था। अब मैं तेरे पति की तरह नहीं आया हूं, तेरा पति मर चुका। मैं कोई और ही हूं। अब तू मुझसे बात कर, अब तू किससे बात कर रही है?

तो कृष्ण और अर्जुन के बीच भेद-स्थिति बहुत और है। अर्जुन मित्र है, गले में हाथ डालकर घूमे हैं, खेले हैं, गपशप किए हैं। यहां कृष्ण सिर्फ इतना ही कहें कि मैंने जो सत्य जाना है वह मैं तुमसे कहता हूं, तो वह कहेगा कि जानते हैं हम आपको और आपके सत्य को! तो कृष्ण उससे कहते हैं कि और भी पहले इस सत्य को औरों ने भी औरों से कहा है, वही मैं तुझसे कह रहा हूं। मुझे मित्र मानकर तू कहीं इस खयाल में मत पड़ जाना। इसलिए एक “पर्टिकुलर सिचुएशन’ की बात है, और वह चूक जाए खयाल से तो आप गलती में पड़ेंगे। बुद्ध वैसी स्थिति में नहीं हैं। बुद्ध कह सकते हैं यह मैं कह रहा हूं, और किसी ने किसी से कहा हो या न कहा हो, इससे मुझे प्रयोजन नहीं है। और तुमसे मैं यह कह देता हूं कि मेरे कहने से तुम मत मान लेना। इसलिए बुद्ध कोई अहंकार की घोषणा कर रहे हों, ऐसा नहीं मालूम होता। क्योंकि अहंकारी यह कहेगा कि मैं कहता हूं, इसलिए मान लो। बुद्ध तो निपट निजता की बात कर रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि मैं कहता हूं, इससे तुम मान मत लेना, लेकिन कहता मैं ही हूं।

हम जानते हैं कि बुद्ध जो कह रहे हैं वह औरों ने भी कहा है। हम जानते हैं कि बुद्ध जो कह रहे हैं वह उपनिषदों ने भी कहा है। हम जानते हैं कि बुद्ध जो कह रहे हैं वह वेदों ने भी कहा है। लेकिन बुद्ध क्यों जोर देते हैं इस बात पर? अगर कोई बुद्ध से कहे भी कि यह वेदों में कहा है, उपनिषद में कहा है, तो बुद्ध कहेंगे कि नहीं, यह मैं तुमसे कह रहा हूं। इसके भी कारण हैं, “सरकमस्टेंशियल’। क्योंकि बुद्ध के समय तक वेद और उपनिषद की परंपरा बिलकुल सड़ गई थी। और वेद-उपनिषद के पक्ष में एक बात भी कहनी उस पूरी परंपरा को सहारा देना था जो बुरी तरह सड़ गई थी। यह जानते हुए भलीभांति कि बुद्ध जो कह रहे हैं सारभूत, वही वेद-उपनिषद में कहा गया है। लेकिन फिर भी वेद-उपनिषद को सहारा नहीं दिया जा सकता, क्योंकि उस सहारे पर एक बहुत बड़ा पाखंड का जाल खड़ा हो गया था, जो जनता को लूट रहा है, खसोट रहा है, गलत रास्तों पर भटका रहा है, अंधविश्वास में डुबा रहा है। इसलिए वेद और उपनिषद के पक्ष में वह बिलकुल चुप रह जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि बुद्ध को यह बोध नहीं होता है, कि खयाल नहीं होता है। लेकिन कई बार इतिहास में ऐसा वक्त आ जाता है कि कल के सत्यों को आज के सत्यवादी को उखाड़कर फेंकना पड़ता है। क्योंकि कल के सत्य के होने की वजह से असत्यों के साथ इस बुरी तरह घुल-मिल जाते हैं कि अब उनको साथ देना उन असत्यों को भी साथ देना है जिनके साथ उनका जोड़ और गठबंधन हो गया होता है। कृष्ण के सामने वैसा सवाल नहीं था। कृष्ण के सामने वेद और उपनिषद की परंपरा जरा भी अशुद्ध नहीं हुई थी, वह अपनी ऊंचाई पर थी, शिखर पर थी। सच तो यह है, इसीलिए हम गीता को कह सके कि वह समस्त वेदों और समस्त उपनिषदों का सार है। असल में हम कृष्ण को कह सकते हैं कि उपनिषद ने जो संस्कृति पैदा की थी, उसके वह सारभूत हैं। जो “एसेंशियल’ था उस संस्कृति में, वह सब कृष्ण से प्रगट हो गया है। तो कृष्ण तो उस संस्कृति के शिखर पर पैदा हुए और बुद्ध उस संस्कृति के बिलकुल पतन के गर्त में पैदा हुए। वही संस्कृति थी, लेकिन बुद्ध उसकी शिखर की अवस्था में पैदा नहीं हुए हैं, बुद्ध उसकी पतन की अवस्था में पैदा हुए हैं, जब वह संस्कृति बिलकुल धूल-धूसरित हो गई थी और सब सड़ गया था। और ब्राह्मण ब्रह्मज्ञानी नहीं रह गया था, ब्राह्मण सिर्फ ब्रह्म के नाम पर शोषक हो गया था। और ब्राह्मण ब्रह्मज्ञानी नहीं रह गया था, ब्राह्मण सिर्फ ब्रह्म के नाम पर शोषक हो गया था। और उस संस्कृति के साथ सब कुछ गंदा जुड़ गया था जो कि धर्म का जिससे कोई नाता नहीं है।

इसलिए कृष्ण तो “पीक’ पर पैदा होते हैं। उपनिषद अपनी कीर्ति के शिखर पर हैं। उपनिषद में जो ज्ञान प्रगट हुआ था, उसकी किरणें चारों ओर व्याप्त हैं। हवा और कण-कण में उनकी खबर है। और कृष्ण के लिए उपनिषद कोई मरी हुई बात नहीं है। कण-कण में, हवा-हवा में, फूल-फूल में, आकाश की बदलियों में, सब तरफ उपनिषद की गूंज है। उस वक्त जब वह कह सकते हैं, वह कहते हैं, तो वह किसी पुराने की गवाही नहीं दे रहे हैं। वह जो मौजूद ही है पूरी तरह, उसकी गवाही दे रहे हैं। लेकिन बुद्ध के वक्त तक यह सब सड़ गया और नष्ट हो गया और लाश पड़ी रह गई थी। उस लाश की गवाही बुद्ध नहीं दे सकते। इस कारण।

न कोई बुद्ध का अहंकार है और न कोई कृष्ण का अहंकार है कि वह पुराने का समर्थन खोजते हैं। न बुद्ध का अहंकार है कि वह अपनी घोषणा करते हैं।

“भगवान श्री, कृष्ण ने गीता के अध्याय दस में अपने घोड़ों में उच्चैःश्रवा, हाथियों में ऐरावत, गौवों में कामधेनु, सर्पों में वासुकि, पशुओं में सिंह, पक्षियों में गरुड़, नदियों में गंगा, ऋतुओं में वसंत आदि बताया है। अर्थात अपने को सर्वश्रेष्ठ बताने का प्रयत्न किया है। तो क्या वे निकृष्ट वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते? क्या निकृष्ट वर्ग कृष्ण का रूप नहीं था? उन्होंने निकृष्ट और साधारण का जिक्र क्यों नहीं किया?’

यह बड़ा मजेदार सूत्र है। इस सूत्र में दो बातें हैं।

पहली बात तो यह है कि कृष्ण इसमें अपने को सभी में श्रेष्ठ घोषित करते हैं–ऋतुओं में वसंत कहते हैं, हाथियों में ऐरावत कहते हैं, गायों में कामधेनु कहते हैं। लेकिन दूसरी मजे की बात यह भी है कि गाय और घोड़े जैसे निम्नतम प्राणियों में भी वे अपनी तुलना खोजते हैं। ये दो बातें एकसाथ हैं। ये दो बातें एकसाथ हैं! इधर वह हर जाति में अपने को श्रेष्ठ घोषित करते हैं, लेकिन इसकी जरा भी फिक्र नहीं करते कि जाति किसकी है। आखिर ऐरावत भी होंगे तो हाथियों में ही होंगे न, और कामधेनु होंगे तो गायों में ही होंगे न, और वसंत होंगे तो ऋतुओं में ही होंगे न!

ये दो बातें एकसाथ हैं। निम्नतम में भी जो श्रेष्ठतम है, उसकी वे घोषणा करते हैं। कारण हैं। इस श्रेष्ठतम की घोषणा क्यों की जा रही है? ऊपर से देखने पर लगेगा कि अहंकार की बात है–क्योंकि हमें सिवाय अहंकार के कुछ और लगता ही नहीं। भीतर से देखने पर पता चलेगा कि जब प्रत्येक जाति में, प्रत्येक वर्ग में श्रेष्ठतम की बात कही जा रही है, तो उसका कुल मतलब ही इतना है कि जब वह कहते हैं हाथियों में ऐरावत हैं, तो वह यह कहते हैं कि जो हाथी ऐरावत नहीं हो पाए, वे अपने स्वभाव से च्युत रह गए हैं। ऐसे तो हर हाथी ऐरावत होने को पैदा हुआ है। जो ऋतु वसंत नहीं हो पाई, वह ऋतु होने से च्युत हो गई, उसके स्वभाव से च्युत हो गई। ऐसे तो हर ऋतु वसंत होने को पैदा हुई है। जो गाय कामधेनु नहीं हो पाई, वह असल में ठीक अर्थों में गाय ही नहीं हो पाई है, वह अपने स्वभाव से च्युत हो गई है। कृष्ण इस घोषणा में सिर्फ इतना ही कहते हैं कि मैं प्रत्येक स्वभाव की सिद्धि हूं। जो जो हो सकता है चरम शिखर पर, वह मैं हूं। इसका मतलब आप समझे?

इसका मतलब यह हुआ कि जो हाथी ऐरावत नहीं है वह कृष्ण नहीं है, ऐसा नहीं, वह भी कृष्ण है, लेकिन पिछड़ा हुआ कृष्ण है; वह ऐरावत नहीं हो पाया, जो कि हो सकता है, जो कि वह “पोंटेंशियली’ है। कृष्ण यह कह रहे हैं कि सबके भीतर जो “पोंटेंशियली’ है, वह मैं हूं। इसको अगर पूरे सार में हम रखें, तो इसका मतलब हुआ कि सबके भीतर जो बीजरूप संभावना है, जो अंतिम उत्कर्ष की संभावना है, जो अंतिम विकास का शिखर है, वह मैं हूं। और जो इससे जरा भी पीछे छूट जाता है, वह अपने स्वभाव के शिखर से च्युत हो जाता है। वह अपने को पाने से वंचित रह गया है। इसमें कहीं कोई–कहीं भूलकर भी कोई अहंकार की घोषणा नहीं है। इसका सीधा और साफ मतलब इतना ही है कि तुम जब तक हाथियों में ऐरावत न हो जाओ, तब तक तुम मुझे न पा सकोगे। तुम जब तक ऋतुओं में वसंत न हो जाओ, तब तक तुम मुझे न पा सकोगे। तुम अपने पूरे खिलने में, अपनी पूरी “फ्लावरिंग’ में ही मुझे पाते हो। वह अर्जुन को यही समझा रहे हैं, वह उसको यही कह रहे हैं कि क्षत्रियों में तू पूरा श्रेष्ठ हो जा तो तू कृष्ण हो जाएगा।

अगर कृष्ण कभी हजार-दो हजार साल बाद आते, तो वह जरूर कहते कि क्षत्रियों में मैं अर्जुन हूं। मगर हजार-दो हजार साल बाद। तो वह जरूर कहते कि क्षत्रियों में मैं अर्जुन हूं। जब कृष्ण अपने होने की यह घोषणा कर रहे हैं, तो यह श्रेष्ठता का दावा नहीं है। क्योंकि श्रेष्ठता का दावा करने के लिए घोड़ों और हाथियों में जाना पड़ेगा? गायों-बैलों में जाना पड़ेगा? श्रेष्ठता का दावा तो सीधा ही हो सकता है, पर वह सीधा नहीं कर रहे हैं। असल में वह श्रेष्ठता का दावा ही नहीं कर रहे हैं। वह एक जागतिक विकास की बात कर रहे हैं कि जब तुम अपने श्रेष्ठतम रूप में प्रकट होते हो, तब तुम प्रभु हो जाते हो।

शब्द है हमारे पास, ईश्वर। ईश्वर शब्द बनता है ऐश्वर्य से ही। जब तुम अपने पूरे ऐश्वर्य में प्रकट होते हो, तो ईश्वर हो जाते हो। ईश्वर तो ऐश्वर्य का ही रूप है। लेकिन हमने कभी सोचा नहीं। ईश्वर का मतलब ही यह है कि गायों में कामधेनु और हाथियों में ऐरावत, और ऋतुओं में वसंत। जब भी कोई अपने पूरे ऐश्वर्य में प्रकट होता है तो वह ईश्वर हो जाता है। ईश्वर का मतलब ही यह है कि जिसकी “पोटेंशियलिटी’ और “एक्चुअलिटी’ में फर्क नहीं है। जिसकी वास्तविकता में और जिसकी संभावना में कोई फर्क नहीं है। जिसके जीवन में संभावना और वास्तविकता एक ही हो गई है। जो संभावना थी वह पूरी-की-पूरी वास्तविकता बन गई है, वह ईश्वर है। जिसकी संभावना और वास्तविकता में अंतर है, “डिस्टेंस’ है, वह अभी ईश्वर की तरफ यात्रा कर रहा है। तो जो मेरे भीतर छिपा है, जिस दिन पूरी तरह प्रकट हो जाएगा, उस दिन मैं अपने ईश्वर को उपलब्ध हो जाता हूं। लेकिन अभी, जो मेरे भीतर छिपा है, वह थोड़ा-थोड़ा प्रकट होता है। वह पूरा वसंत नहीं बन पाता है। वह सरकता रहता है, वसंत की तरफ सरकता है लेकिन वसंत नहीं हो पाता है। फूल पूरा नहीं खिल पाता है। अगर कृष्ण इस बगिया में आएं और वह कहें कि इन फूलों में मैं सबसे ज्यादा खिला हुआ फूल हूं, तो क्या मतलब होगा? उसका मतलब यह हुआ कि दूसरे फूल भी इतने ही खिल सकते थे, नहीं खिल पाए हैं। और उचित ही है कि कृष्ण अधखिले फूल से अपने को नहीं जोड़ते हैं। उचित ही है कि जो अभी कली में बंद है, उससे नहीं जोड़ते। उचित ही है कि जो अभी शाखाओं में छिपा है, उससे नहीं जोड़ते। उचित ही है कि जो बीज में पड़ा है उससे नहीं जोड़ते। वे उससे जोड़ते हैं जो पूरा खिला है, क्योंकि जिससे वह बात कर रहे हैं उसको पूरे खिलाने की ही बात कर रहे हैं कि तू पूरा खिल जा, तू क्षत्रियत्व का पूरा फूल बन जा, तू वसंत हो जा क्षत्रियत्व का। तो तू मुझे पा सकेगा। मुझे पा सकेगा से मतलब, कि तू अपने ईश्वर को पा सकता है।

यहां कृष्ण पूरे समय दोहरा काम कर रहे हैं। कृष्ण का पूरा “रोल डबल’ है। इधर वह अर्जुन के साथी हैं, उसके मित्र हैं और इसलिए अर्जुन पर ज्यादा डांट-डपट नहीं कर पाते हैं, उससे मित्रता की भाषा बोलते हैं, लेकिन साथ-ही-साथ पूरे समय खिले फूल भी हैं। और उनकी इस मित्रता के बीच-बीच में उनकी पूर्णता की घोषणायें जगह-जगह से फूट पड़ती हैं और अर्जुन तक पहुंच जाती हैं। और ये दोनों जरूरी हैं। अगर वह निपट मित्र रह जाएं, तो किसी काम के नहीं रहेंगे, और अगर वह निपट परमात्मा हो जाएं तो अर्जुन कहेगा कि क्षमा करो, अपनी दोस्ती समाप्त! इन दोनों के बीच उनको पूरे वक्त तालमेल बिठालना पड़ रहा है। वह अर्जुन के मित्र भी बने रहते हैं और परमात्मा होने की घोषणा भी बीच-बीच में कर जाते हैं। जब-जब भी उन्हें लगता है कि अर्जुन जरा राजी दिखता है, तबत्तब वह परमात्मा होने की घोषणा करते हैं, हे महाबाहो! तब वे फिर उससे मित्रता की बातें करने लगते हैं–हे भारत, हे महाबाहो! फिर उससे मित्रता की बातें करने लगते हैं, उनका काम बड़ा “डेलिकेट’ और बड़ा नाजुक है। ऐसा नाजुक मौका बहुत कम आया है।

बुद्ध के पास ऐसा नाजुक मौका नहीं है। क्योंकि जो आया है, वह निश्चित है कि कौन है; जो बैठा है, वह निश्चित है कि कौन है, बात सीधी-साफ होती है। महावीर को ऐसा मौका नहीं आता, क्योंकि बातें साफ-सुथरी हैं, सीधा “डायलाग’ है। उसमें कुछ दोहरे “रोल’ का काम नहीं है। कृष्ण के साथ बड़ी कठिनाई है, वहां “रोल’ बड़ा दोहरा है। मित्र के गुरु होना बड़ी कठिन बात है। मित्र को उपदेश देना बड़ी कठिन बात है। मित्र को सलाह देना बड़ी कठिन बात है। क्योंकि वह जो मित्र है, वह कहेगा कि बस बंद करो, ज्यादा ज्ञान मत बघारो, अर्जुन कह सकता है कि ज्यादा ज्ञान मत बघारो! मेरे ही साथ खेले, मेरे साथ बड़े हुए, इतना ज्ञान मत बघारो। अगर ज्यादा ज्ञान दिखाई पड़े तो अर्जुन छूट जाएगा बाहर। तो कृष्ण पूरे वक्त दोनों काम कर रहे हैं, उसे थपथपाते भी जाते हैं कि हे महाबाहो, और फिर उससे कहते भी चले जाते हैं कि तू अज्ञानी है रे! तू पहचान नहीं पा रहा है कि असली बात क्या है! ये दोनों बातें साथ चल रही हैं, इसको खयाल में लेंगे तो सरलता हो सकती है।

“भगवान श्री, लगभग सभी महापुरुषों का कुछ तो चरित्र वैयक्तिक होता है, और कुछ होता है समष्टिगत। अभी पिछले दिनों में कृष्ण के जीवन पर चर्चा रही, उसमें बहुत कुछ वैयक्तिक विशेषताएं भी थीं जो कि आज के युग में मुमकिन है कि यदि हम उनका थोड़ा-सा भी अनुकरण करने लगें तो पिट जाने की ही संभावना है और तो कोई दूसरी बात दिखाई नहीं पड़ती। आज हम किसी की दधि और दूध की मटकी को कंकड़ी मारकर फोड़ नहीं सकते हैं। आज हम कहीं स्नान करती हुई किन्हीं बालाओं के वस्त्र उठाकर भाग नहीं सकते हैं। और तो और, किसी राधा के साथ चाहते हुए भी हम प्रेम नहीं कर सकते हैं। कृष्ण में और चीजें भी हैं जो समष्टिगत हैं; कृष्ण ने जो कुछ भी कहा है उसका अतीत, वर्तमान और भविष्य के लिए महत्व है, ऐसा आपने बताया। इसी संदर्भ में अब हम चाहते हैं कि कृष्ण ने गीता में जो कर्मयोग की बात कही है, अनासक्त योग की बात कही है, उनका जो यह जीवनदर्शन हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है, जो जीवन जीने की कला सिखाता है, जीवन का एक नया मार्ग हमें देता है और हम जीवन के हर क्षण में उसे व्यवहार रूप में उतार भी सकते हैं, उनके इस जीवनदर्शन पर विशद रूप से कुछ बातें हमारे सम्मुख प्रस्तुत करें, ताकि हम उनका अनुसरण कर सकें।’

पहली बात तो यह खयाल लेनी चाहिए कि आज कृष्ण का होना कठिन हो गया है, ऐसा नहीं है। उस दिन भी आसान नहीं था। अन्यथा बहुत कृष्ण हो जाते। और आपको कठिन मालूम होता है कृष्ण होना। उस दिन भी इतना कठिन मालूम होता–आपको। कृष्ण आज पैदा हों तो आज भी उतना ही सरल होगा–कृष्ण को। लेकिन यह भ्रांति वहां से शुरू होती है जहां से हम अनुकरण का खयाल लेते हैं, वहां से उपद्रव शुरू होता है। न तो आप उस दिन कृष्ण का अनुकरण कर सकते थे, न आज कर सकते हैं। कर ही नहीं सकते हैं। और करेंगे तो ठीक कहते हैं कि मुसीबत में पड़ेंगे।

जो सारी उनके जीवन पर चर्चा हुई है, वह इसलिए नहीं कि आप अनुकरण करेंगे, बल्कि इसलिए ही कि इस कृष्ण के व्यक्तित्व के अगर पूरे जीवन को हम समझ पाएं, तो शायद अपने-अपने जीवन को समझने के लिए सुविधा हो। अनुकरण के लिए नहीं। अगर कृष्ण के व्यक्तित्व का–जो कि बड़ा विराट, बहु-आयामी है–पूरा खुलाव हो जाए, तो हम अपने व्यक्तित्व को भी खोलने की कुंजी पा सकते हैं। लेकिन अगर आप अनुकरण की भाषा में सोचेंगे, तो आप कृष्ण को नहीं समझ पाएंगे, समझना मुश्किल हो जाएगा। जिसका भी हम अनुकरण करना चाहते हैं, उसे हम समझना तो चाहते ही नहीं। और अनुकरण करना ही हम इसलिए चाहते हैं कि हम अपने को भी समझना नहीं चाहते। किसी को अपने ऊपर आरोपित करके जी लेंगे तो सुविधा होगी, समझने की झंझट से बच जाएंगे। समझने का काम तो वहीं से शुरू होता है जहां से हम न किसी का अनुकरण करना चाहते हैं, न किसी जैसे होना चाहते हैं, बल्कि इस बात का पता लगाना चाहते हैं कि मैं क्या हूं, और क्या हो सकता हूं। तो जिन लोगों ने अपनी जिंदगी में पूरी तरह खुलाव से अपने को प्रगट कर किया है, उनकी जिंदगी को समझने से अपनी जिंदगी को समझने का रास्ता सुगम हो जाता है। इससे जिंदगियां एक नहीं हो जाएंगी, जिंदगी तो अलग-अलग ही होंगी, अलग-अलग होनी ही चाहिए, कोई होने का उपाय भी नहीं है कि वह एक जैसी हो जाएं।

तो अगर इतनी सारी चर्चाओं में कहीं भूलकर भी आपके मन में अनुकरण का खयाल रहा है, जैसा कि प्रश्न से लगता है कि रहा होगा, तो आप कृष्ण को नहीं समझ पाएंगे; और कृष्ण को तो समझ ही नहीं पाएंगे, अपने को भी समझना मुश्किल हो जाता है।

दूसरी बात, कृष्ण के विचार, उनके वे सत्य, जो सदा उपयोग के लिए हो सकते हैं; लेकिन उनमें भी मैं आपसे यही कहना चाहूंगा कि वे भी अनुकरणीय नहीं हैं। क्योंकि जब कृष्ण का जीवंत व्यक्तित्व अनुकरण नहीं किया जा सकता, तो शब्दों में प्रगट सिद्धांत और सत्य कैसे अनुकरण किए जा सकते हैं! नहीं, वह भी नहीं किया जा सकता। वह भी समझा ही जा सकता है। हां, उसके समझने की प्रक्रिया में आपकी समझ बढ़ती है, और वह समझ आपके काम आ सकती है। सिद्धांत काम नहीं आएंगे, समझ ही काम आएगी। लेकिन हम हर हालत में अनुकरण हमारी मांग होती है। या तो हम जीवन का अनुकरण करें, या सिद्धांतों का अनुकरण करें, लेकिन अनुकरण हम करेंगे ही।

तो पहली बात आपसे उनके सिद्धांत के संबंध में बात करने के पहले यह कह देनी जरूरी है कि जीवन अनुकरणीय नहीं है, इसलिए नहीं कि आज मटकी नहीं फोड़ी जा सकती, इसलिए भी नहीं कि आज प्रेम नहीं किया जा सकता, इसलिए भी नहीं कि आज बांसुरी नहीं बजाई जा सकती, सब किया जा सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। मटकी फोड?ने से उस दिन भी तकलीफ आती थी, आज भी आएगी। बांसुरी बजाने से उस दिन भी आदमी मुश्किल में पड़ता था, आज भी पड़ेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। थोड़े-बहुत भेद होंगे, कोई बहुत बुनियादी फर्क नहीं पड़ता है। इसलिए नहीं कह रहा हूं कि अनुकरण नहीं किया जा सकता क्योंकि बहुत बुनियादी फर्क नहीं पड़ता है। इसलिए नहीं कह रहा हूं कि अनुकरण नहीं किया जा सकता क्योंकि परिस्थिति बदल गई है, अनुकरण ही गलत है–परिस्थिति बिलकुल वही हो तो भी। अनुकरण मात्र आत्मघात है। “सूसाइडल’ है। अपने को मारना हो, तो ही अनुकरण ठीक है।

कृष्ण किसका अनुकरण करते हैं? कोई व्यक्तित्व दिखाई नहीं पड़ता कृष्ण ने जिसका अनुकरण किया हो। बुद्ध किसका अनुकरण करते हैं? कोई व्यक्तित्व दिखाई नहीं पड़ता जिसका बुद्ध ने अनुकरण किया हो। क्राइस्ट किसका अनुकरण करते हैं? कोई दिखाई नहीं पड़ता। बड़े मजे की और बड़े रहस्य की बात है कि उन्हीं लोगों का हम अनुकरण करते हैं जिन्होंने कभी किसी का अनुकरण नहीं किया। यह बड़ी “एब्सर्ड’ बात है। अगर हम उनको समझें तो एक बात तो हमें यह समझ लेनी चाहिए कि ये लोग किसी का अनुकरण नहीं करते हैं। ये सारे-के-सारे अपनी निजता के फूल हैं। और हम? हम किसी और के फूल के ढंग से खिलना चाहेंगे तो कठिनाई में पड़ जाएंगे। और यह कठिनाई मटकी फोड़ने की कठिनाई, राधा से प्रेम की कठिनाई नहीं है, यह बहुत गहरी कठिनाई है। वे तो बहुत छोटी कठिनाइयां हैं। और उनमें तो आप रोज पड़ते रहते हैं, कोई रुकता नहीं। कोई दूसरों की स्त्रियों से प्रेम करने से रुकता हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। कोई अपनी पत्नियों से डर का दूसरे की पत्नियों का नाम न लेता हो, ऐसा भी दिखाई नहीं पड़ता। पत्नियां डराए चली जाती हैं, पति डरे चले जाते हैं; पति डराए चले जाते हैं, पत्नियां डरी चली जाती हैं, यह कोई आज की बात नहीं, वह सदा की बात है। असल में जब तक पति और पत्नी रहेंगे तब तक डर रहेगा। पति-पत्नी न हों, इसमें भी बड़ा डर लगता है। आदमी जैसा है वह चूंकि डरा हुआ है, इसलिए उसकी सारी व्यवस्था में डर व्याप्त हो जाता है।

नहीं, यह सवाल नहीं है कि अनुकरण में यह भय है। अनुकरण में जो बुनियादी भय है वह मैं आपसे कह दूं, फिर कल सुबह से आप प्रश्न उठाइये जीवन-सत्यों के संबंध में। क्योंकि जीवन के संबंध में मैं चर्चा नहीं कर रहा था, आप प्रश्न उठा रहे थे। कल सुबह से आप प्रश्न उठाइये उनके दर्शन और सत्यों के संबंध में, उसकी चर्चा कर लूंगा। जो अनुकरण का बुनियादी भय है, वह यह है कि इस जगत में दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हैं, न हो सकते हैं। बेजोड़ हैं, अद्वितीय सब हैं। कोई तुलना का उपाय नहीं। बस आप आप ही हैं, और आप जैसा पहले कभी नहीं हुआ और आप जैसा बाद में कभी नहीं होगा। असल में आपका कोई सांचा भगवान के पास नहीं है, जिस सांचे में और लोग ढाले जा सकें। और जब भी आप अपनी इस निजता को अस्वीकार कर देंगे और किसी जैसा होने की कोशिश करेंगे, तो जो भूल भगवान ने नहीं की, वह आप करेंगे। उसने आपको बनाया व्यक्ति, और आप “कॉपी’ बनने की कोशिश में लग जाएंगे। उसने आपको दी निजता और आप पराए को ओढ़ने में लग जाएंगे। वह कठिनाई है।

लेकिन अब तक सभी धर्म अनुकरण पर जोर देते रहे हैं। सभी सारी दुनिया में मां-बाप, शिक्षक-गुरु सिखाते रहे हैं, किसी जैसे हो जाओ, बस अपने जैसे भर मत होना! एक भूल भर मत करना, बाकी सब करना! कृष्ण जैसे हो जाना, राम जैसे हो जाना, बुद्ध जैसे हो जाना, बस एक भूल भर मत करना, अपने जैसे मत हो जाना। क्या कारण है? ये सारी दुनिया की शिक्षाएं किसी आदमी को यह नहीं कहती कि अपने जैसे हो जाओ। कुछ कारण है।

बड़ा कारण तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अगर अपने जैसा हो जाए, तो खतरा है, समाज को, गुरुओं को, मां-बाप को, व्यवस्थाओं को, सबको खतरा है। क्योंकि कौन कैसा हो जाएगा, इसके बाबत पहले से सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता। लेकिन राम जैसे हो जाओ, इसमें खतरा नहीं है। राम के बाबत हम सुनिश्चित हैं, हमें पता है पक्का कि राम क्या करते हैं। ऐसा ही तुम भी करो, ताकि तुम खतरनाक न रह जाओ। तुम्हारे बाबत “प्रेडिक्शन’ हो सके, तुम्हारे बाबत घोषणा हो सके कि तुम ऐसा करोगे। और जिस दिन तुम न करो, तो हम तुम्हें अपराधी ठहरा पाएं। अगर प्रत्येक व्यक्ति अपने जैसा हो, तो बहुत मुश्किल हो जाएगा तय करना कि क्या अपराध है और क्या अपराध नहीं है। क्या पाप है, क्या पुण्य है; क्या ठीक है, क्या गलत है; बहुत मुश्किल हो जाएगा। इसलिए समाज की जड़ व्यवस्था को इसी में सुविधा है कि सब साफ-सुथरी रेखाएं रहें, चाहे जिंदगी कट जाए और लोग मर जाएं, और चाहे उनके व्यक्तित्व समाप्त हो जाएं और उनकी आत्माएं दीन हो जाएं, इसकी कोई चिंता नहीं, लेकिन व्यवस्था!

ऐसा मालूम होता है कि मनुष्य समाज के लिए जी रहा है, समाज मनुष्य के लिए नहीं जी रहा। शिक्षा मनुष्य के लिए नहीं है, मनुष्य इसलिए पैदा हुआ है कि लोग उसको शिक्षा दे सकें। सिद्धांत मनुष्य के काम में आएं इसलिए नहीं हैं, मनुष्य इसलिए पैदा किया गया है कि सिद्धांतों के काम में आ सके। धर्म मनुष्य के लिए नहीं है, मनुष्य धर्म के लिए है। मनुष्य को नीचे रखते हैं, साधन बनाते हैं और मनुष्य के ऊपर सब चीजों को थोप देते हैं। खतरा यह है। अनुकरण का खतरा परिस्थितिगत खतरा नहीं है, आत्मगत खतरा है। अनुकरण का खतरा अपने को धीरे-धीरे मारने और “पायज़निंग’ का खतरा है, अपने को धीरे-धीरे जहर देने का खतरा है; और उस जहर पर आपने कृष्ण का “लेबल’ लगा रखा है, कि बुद्ध का, कि महावीर का, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

दुनिया में कोई “टाइप’ नहीं है जिसमें सबको ढलना है। प्रत्येक को अपने जैसा होना है। इसलिए कृष्ण पर जो मैं बात कर रहा हूं, कोई भूलकर यह न समझ ले कि मैं आपसे कह रहा हूं आप कृष्ण जैसे हो जाएं। नहीं, बाहर से जो मुसीबतें आएंगी वे गौण हैं, भीतर से जो मुसीबत आएगी वही असली है। आप बिना मुर्दा हुए कृष्ण जैसे नहीं हो सकते। और मुर्दे अगर पिट जाएं, तो आश्चर्य है कुछ! मुर्दे पिटेंगे ही। वह जो डर है पिटाई का, वह मुर्दा होने का डर है। जिंदा आदमी तो जैसा होता है, होता है। और जितना जिंदा आदमी होता है, उतना ही जैसा होता है वैसा ही होता है।

और बड़े मजे की बात है कि जो समाज जिंदा आदमी की निंदा से शुरू करती है यात्रा, वह प्रशंसा पर पूरी करती है। सदा ऐसा हुआ है। जिंदा आदमी को गाली से हम प्रारंभ करते हैं, उसकी निंदा से शुरू करते हैं और आखिर में पूजा पर अंत होता है। यह हमारा ढंग है। यह बात दूसरी है कि वह जिंदा आदमी पूरा जिंदा न हो, बीच से लौट जाए, यह बात दूसरी है। अगर वह जिंदा आदमी पूरा है, तो तो आपकी गाली पूजा तक पहुंचेगी ही, सदा पहुंचती रही है। उसका अपना “लाजिक’ है। हां, अगर वह मुर्दा आदमी है तो डर जाएगा, गाली से लौट जाएगा, पूजा तक नहीं पहुंच पाएगा। यह उसका कसूर है। इसमें आपकी कोई गलती नहीं है। आपने तो ठीक शुरुआत की थी, वह बीच से भाग गया।

कृष्ण को इससे कोई फिक्र नहीं पैदा होती। क्या आप सोचते हैं कृष्ण भगवान की तरह स्वीकृत हो गए थे उस दिन? नहीं; कृष्ण पर सब दोषारोपण थे। और आज भी अगर आप अपनी आंख बचाकर ही चलें तो ही दोषारोपण से बच सकते हैं कृष्ण पर, अन्यथा बहुत मुश्किल है मामला! सब दोषारोपण थे। और जीसस को जब सूली दी गई, तो जिन लोगों ने सूली दी थी उन्होंने एक आवारा आदमी को सूली दी थी। तीन “क्रास’ खड? किए थे, बीच में जीसस को लटकाया था, दोनों तरफ दो चोर भी लटकाए थे। इस बात की सूचना के लिए जीसस की हैसियत हम चोरों से ज्यादा नहीं समझते हैं। और मजे की बात यह है कि और लोगों ने मजाक किया हो किया हो, एक चोर ने भी मरते वक्त आखिरी समय जीसस से मजाक किया था। और उस चोर ने भी कहा था कि अब तो हम साथ ही मर रहे हैं, बड़ा संबंध हो गया, अगर तुम्हारे प्रभु के राज्य में जाऊं तो जरा जगह मेरे लिए बना देना! वह भी संदिग्ध है कि कहां का प्रभु का राज्य और कहां का क्या! चोर ज्यादा आश्वस्त था। वे लोग जो सूली पर लटका रहे थे, वे ही नहीं निश्चित थे कि यह आदमी आवारा और फिजूल है, वे चोर भी यही समझ रहे थे–तुमसे बेहतर तो हमीं हैं। कुछ करके मर रहे हैं, तुम बिना ही किए मरे जा रहे हो।

कृष्ण या क्राइस्ट को, या महावीर या बुद्ध को उनका समाज एकदम से उन्हें भगवान नहीं कह देता है। गालियों से शुरू करता है। पर वे जिंदा आदमी हैं, वे गालियां पिये चले जाते हैं, फिर कब तक आप गालियां देंगे? और जो आदमी गालियां पिये ही चला जाता है, फिर धीरे-धीरे आप उसका सम्मान करने लगते हैं। फिर वह सम्मान को भी पीता चला जाता है, वह उससे भी प्रभावित नहीं होता है, तब फिर आप उसको भगवान बनाने में लग जाते हैं।

कृष्ण की चर्चा मेरे लिए इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि आप उनका अनुकरण करने जाएं, इसलिए महत्वपूर्ण है कि ऐसा व्यक्ति, इतना “मल्टी-डायमेंशनल’ व्यक्ति पृथ्वी पर नहीं हुआ। इस बहु-आयामी व्यक्तित्व के अगर सारे खजाने आपके सामने खुल जाएं, तो आपको अपने खजाने खोलने का खयाल आ सकता है। बस, इससे ज्यादा नहीं। आपके खजाने आपके होंगे, और कोई नहीं कह सकता कि आपके खजाने कृष्ण से ज्यादा गहरे और ज्यादा समृद्ध नहीं होंगे। यह कोई सवाल नहीं है। लेकिन जो कृष्ण के भीतर घटित हुआ, वह किसी और के भीतर भी घटित हो सकता है इसका स्मरण ही काफी है। उस स्मरण के लिए ही सारी चर्चा है।

लेकिन आप पूछते हैं कि जीवन-सिद्धांत। हमारा मन होता है कि कोई सिद्धांत मिल जाएं तो उनको आरोपण करना आसान होगा। उनके सिद्धांतों की कल सुबह से हम चर्चा करेंगे, लेकिन वह भी आरोपण के लिए नहीं। वह भी जिंदगी को समझने के लिए। कृष्ण जैसे लोग जब पैदा होते हैं, तो जिंदगी को बड़ी गहराई से देखते हैं, और गलती होगी यह कि हम उनकी आंख में आंख डालकर थोड़ी देर जिंदगी को न देखें। उनकी आंख में आंख डालकर जिंदगी को देख लेने से हमारी भी देखने की क्षमता, हमारा “पर्सपेक्टिव’ बदलता है। यह मनाली आप आए हैं। ये चारों तरफ पहाड़ हैं, लेकिन आपके पास जितनी आंख है और जितना “पर्सपेक्टिव’ है उतना सौंदर्य ही तो इन पहाड़ों में दिखाई पड़ेगा? यहीं निकोलस रोरिक भी था, उसके चित्र आप देख आएंगे तो ये पहाड़ कुछ और कहते हुए मालूम पड़ने लगेंगे, तत्काल, क्योंकि उसकी आंख में से आपने आंख डालकर देखना शुरू कर दिया। और वह निकोलस रोरिक ठेठ रूस से यात्रा करके इन पहाड़ों में आ गया था। और आज तो रास्ता है, तब तो रास्ता भी नहीं था, और तब फिर वह जिंदगी भर यहीं रह गया था। इस हिमालय ने उसे बिलकुल ही पागल कर दिया था। जहां तक मेरा खयाल है, आपको काफी दिन हो गए हिमालय में आए और अब शायद ही आपको पहाड़ियां दिखाई पड़ती होंगी। पहले दिन दिखाई पड़ी होंगी–थोड़ी बहुत देर–अब नहीं दिखाई पड़ती होंगी। अब बात खत्म हो गई है। पहाड़ हैं, ठीक है, बात खतम हो गई।

लेकिन निकोलस जिंदगी भर लगा रहा यहां। और एक ही पहाड़ों को पोतता रहा, रंगता रहा, जिंदगी भर। और पहाड़ नहीं चुके, और निकोलस का मन नहीं चुका। तो निकोलस से अगर आप देख पाएंगे एक दफा, तो ये पहाड़ आपको कुछ और कहते दिखाई पड़ने लगेंगे। एक आदमी ने जिंदगी भर इन्हीं को देखने में लगाया। और हजार रंगों में, कभी सूरज में, कभी वर्षा में, कभी बर्फ में, कभी धूप में। और हजार रंगों में इन पहाड़ों को देखा। सैकड़ों ढंगों से इन पहाड़ों को देखा–कभी चांद में, कभी अंधेरे में, कभी सूरज में, कभी वर्षा में, कभी बर्फ में, कभी धूप में। और उस आदमी ने अपने भी हजार रंगों में इन पहाड़ों को देखा। और जिंदगी भर बस इन पहाड़ों को ही रंगता रहा। आखिरी वक्त, मरते वक्त भी इन पहाड़ों को ही रंग रहा था। इस आदमी से अगर आप थोड़ा परिचित हो लेंगे, इन पहाड़ों के बीच में खड़े होकर आपको इन पहाड़ों में कुछ और दिखाई पड़ने की संभावना शुरू होती है। मैं नहीं कहता कि निकोलस ने जैसा देखा वैसा आप देखना–आप देख भी नहीं सकते, उपाय भी नहीं है–लेकिन निकोलस को जानने के बाद ये पहाड़ सिर्फ साधारण पहाड़ नहीं रह जाएंगे, जो एक दफे देखकर चुक जाते हैं।

प्रेम तो बहुत लोगों ने किया है, लेकिन कभी फरहाद और मजनूं को पढ़ लेना उपयोगी है। हमारा प्रेम जल्दी चुक जाता है। पता ही नहीं चलता कब चुक गया। ठीक से याद भी नहीं कर सकते कि कभी था। सब रूखा-सूखा रह जाता है भीतर। नदी आने के पहले ही विदा हो जाती है और मरुस्थल हो जाता है। लेकिन कुछ ऐसे भी लोग रहे हैं जो कि जिंदगी भर प्रेम किए ही चले गए हैं। और इनके प्रेम का कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। अगर इन प्रेम करने वालों से आप थोड़े परिचित हुए तो अपने प्रेम को समझने में बड़ी सुविधा हो जाएगी और हो सकता है कि आपके भीतर भी कोई धारा अंतर्गर्भ में बहती हो और उसका स्मरण आ जाए। ऐसा नहीं कि आप मजनूं हो जाएंगे। उसका कोई उपाय नहीं है। होना भी नहीं है। और हुआ हुआ मजनूं क्या मजनूं हो सकता है? बाल वगैरह लटका लेगा मजनूं की तरह, कपड़े-लत्ते पहन लेगा मजनूं की तरह, सड़क पर गुजरने लगेगा, चिल्लाने लगेगा–लैला, लैला; नहीं, सब बेकार होगा। उसमें कोई मतलब नहीं होगा। उसके भीतर से तो कहीं कुछ आएगा नहीं।

लेकिन, आपका भी अपना प्रेम है जो मजनूं और फरहाद के प्रेम से शायद सजग हो जाए, सुलग जाए। शायद बारूद आग पकड़ जाए और आपको भी पता चले कि मैं भी ऐसे ही चुक जाने वाला नहीं हूं, मेरे भीतर भी कोई धारा है। उसी अर्थ में कह रहा हूं। बहुत लोगों ने गीत लिखे हैं, लेकिन कालिदास या रवींद्रनाथ का गीत पढ़कर आपको पहली दफा कुछ दिखाई पड़ना शुरू होता है, जो आपको शायद कभी दिखाई नहीं पड़ा था। वह आपकी भी संभावना थी। लेकिन प्रसुप्त थी।

तो कृष्ण के सिद्धांतों की कल सुबह से हम बात करेंगे, इस आशा में नहीं कि आप उनको मानकर और सिद्धांतवादी हो जाएं–कृष्ण जैसा गैर-सिद्धांतवादी आदमी नहीं है; इसलिए इस उपद्रव में पड़ना ही नहीं। कृष्ण को समझने का कुल मतलब इतना है कि जब ऐसा महिमा का पूरा खिला हुआ आदमी जगत को देखता है, तो वह क्या कह जाता है, उसकी “वर्डिक्ट’ क्या है, क्या कह जाता है इस जगत के बाबत? इस आदमी के चित्त की गहराइयों के बाबत वह क्या खबर दे जाता है? इस आदमी के खिलने के संबंध में वह क्या सूचनाएं दे जाता है? वे सूचनाएं शायद आपके अंतर्गर्भ में पड़ी हुई किन्हीं धाराओं को छू दें; तो ऐसा नहीं है कि फिर आप कृष्णवादी हो जाएंगे, बस ऐसा ही है कि आप अपने होने की यात्रा पर निकल जाएंगे। तभी आप समझ पाएंगे कि यह आदमी, जो स्वधर्म में मर जाने को कहता है, यह आदमी आपके ऊपर सिद्धांत थोपने वाला आदमी नहीं हो सकता है।

तो कल से आप पूछें। जो आप पूछ लेंगे, उसकी मैं बात कर लूंगा। मुझे इसमें सुविधा पड़ती है कि आप पूछ लेते हैं। क्योंकि इसमें मुझे सोच-विचार की झंझट नहीं रह जाती। नहीं तो मुझे सबसे बड़ी दिक्कत यही हो जाती है कि क्या कहूं? ऐसे जब तक आपसे बोलता हूं, तभी तक शब्द और विचार मेरे साथ होते हैं। जब नहीं बोल रहा हूं तब मैं खाली हो जाता हूं। तो मुझे बड़ी कठिनाई होती है, कि कहूं क्या? आप कुछ पूछ लेते हैं, खूंटी बन जाते हैं, मुझे टांगने की सुविधा हो जाती है। तो मुझे बहुत ही कठिन मामला है वह कुछ बोलना। उसके लिए बड़ी मुश्किल होता जा रहा है। इधर मित्रों ने, बहुत मित्रों ने कहा है कि आप कुछ स्वतंत्र रूप से बोल दें। वह मेरे लिए मुश्किल होता जा रहा है। और ज्यादा दिन अब मैं स्वतंत्र रूप से नहीं बोल सकूंगा, उसमें बहुत कठिनाई पड़ती है। क्योंकि मुझे समझ ही नहीं पड़ता है, समझ ही खो गई है। आप पूछ लेते हैं, तो कोई उपाय नहीं रह जाता, मुझे “रिसपांड’ करना पड़ता है। आप नहीं पूछते हैं, तो मेरे पास कोई उपाय नहीं कि क्या बोलना है, बोलने को क्या है! अपनी तरफ से मैं अब चुप हूं, आपकी तरफ से ही बोल रहा हूं। इसलिए कल सवाल उठा लेंगे। जो सवाल आप उठा लेंगे, उनकी हम बात कर लेंगे।

अब हम ध्यान के लिए बैठेंगे।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–96

February 25, 2015, 6:23 am

बिना तुम्‍हारे किसी निजी चुनाव के—(प्रवचन—सौलहवां)

प्रश्‍नसार:

1—मैं आपके और रूडोल्फ स्टींनंरं के उपायों के बीच बंट गया हूं?

2—प्रकृति के सान्निध्य में ठीक लगता है, लोगों के साथ नहीं, यह विभाजन क्यों?

3—स्त्री के रूप मैं मेरे लिए संबोधि क्या है?

4—क्या हम वास्तव में अपने जीवन में घटित होने वाली चीजों को चुनते हैं?

पहला प्रश्न:

ओशो, मेरा लालन पालन रूडोल्‍फ स्‍टीनर की शिक्षाओं के बीच हुआ है, किंतु अभी तक मैं उसके प्रति अपने मन के अवरोधो को नहीं तोड़ पाया हूं। यद्यपि मेरा विश्‍वास है कि पश्‍चिम को जो रास्‍ता उसने दिखाया, ‘उचित ढंग से विचार करना खीखना अपने आपको माया से मुक्‍त करने की संभावना है।’ उसका कहना है कि ऐसा करके और ध्‍यान करके हम अपने अहंकारों को खोज और अपने मैं को पाने में समर्थ हो जाते है। उसके लिए केंद्रीय व्‍यक्‍ति क्राइस्‍ट है, जिनको वह जीसस से पूर्णत: भिन्‍न व्‍यक्‍तित्‍व के रूप में अलग कर देता है। आपके उपाय मुझको अलग प्रतीत होते है। क्‍या आप कृपा करके मुझको सलाह दे सकते है? एक प्रकार से मैं तो आपके और उस उपाय के बीच जो स्‍टीनर दिखाता है, बंट जाता है।

रूडोल्फ स्टीनर एक महान मनीषी था, लेकिन तुम ध्यान रखो, मैं कहता हूं एक महान मनीषी, और मन को, जैसा यह है, धर्म से कुछ भी लेना—देना नहीं है। आत्यंतिक रूप से प्रतिभाशाली था वह। वास्तव में रूडोल्फ स्टीनर से तुलना किए जाने के लिए और कोई मनीषी मिल पाना अत्यंत दुर्लभ बात है। वह अनेक दिशाओं और आयामों में इतना प्रतिभावान था कि यह करीब—करीब अतिमानवीय प्रतीत होता है. महान तार्किक, विचारक, महान दर्शनशास्त्री, महान वास्तुविद, महान शिक्षाशास्त्री, और न जाने क्या—क्या। और जिस विषय को भी उसने छू दिया उस विषय में वह बहुत अनूठे विचार ले आया। जिस किसी ओर भी उसने दृष्टिपात किया, उसने विचारों के नये प्रारूप निर्मित कर दिए। वह एक महान व्यक्ति, श्रेष्ठ मन था, लेकिन मन अक्षम हो या सक्षम, चाहे वह जैसा भी हो उसका धर्म से जरा भी लेना—देना नहीं है।

धर्म का उदय अ—मन से होता है। धर्म कोई प्रतिभा नहीं है, यह तुम्हारा स्वभाव है। यदि तुम एक महान चित्रकार बनना चाहते हो, तब तुमको प्रतिभाशाली होना पड़ेगा; यदि तुम एक महान कवि बनना चाहते हो, तब तुमको प्रतिभावान होना पड़ेगा; यदि तुम एक वैज्ञानिक बनना चाहते हो तो निःसंदेह तुमको प्रतिभाशाली होना पड़ेगा, किंतु यदि तुम धार्मिक होना चाहते हो, तो किसी विशेष प्रतिभा की आवश्यकता नहीं है। कोई भी व्यक्ति, चाहे छोटा हो या बड़ा, जो भी मन को गिरा देने की अभीप्सा रखता है, दिव्यता के आयाम में प्रविष्ट हो जाता है। और निःसंदेह महान प्रतिभाशाली मन के लोगों के लिए अपने मनों को गिरा देना बहुत कठिन है, क्योंकि उन्होंने मन में अपना बहुत कुछ लगा रखा है। एक सामान्य व्यक्ति के लिए’ जिसके पास कोई प्रतिभा नहीं है अपने मन को गिरा देना बहुत सरल है। फिर भी यह कितना कठिन प्रतीत होता है। उसके पास खोने के लिए कुछ भी नही है, फिर भी वह मन से चिपके चला जाता है। जब तुम्हारे पास एक प्रतिभाशाली मन हो, जब तुम मेधावी हो, तब निःसंदेह यह कठिनाई बहुगुणित हो जाती है। तब तुम्हारा सारा अहंकार तुम्हारे मन में ही निवेशित हो गया है। तुम उसे गिरा नहीं सकते।

रूडोल्फ स्टीनर ने थियोसॉफी के विरोध में एथोपोसॉफी नाम से एक नये आंदोलन की आधारशिला रखी। आरंभ में वह थियोसॉफिस्ट था, फिर आंदोलन में सम्मिलित अन्य अहंकारों से उसके अहंकार ने संघर्ष करना आरंभ कर दिया। वह उसका शीर्षस्थ अधिकारी, संसार भर के थियोसॉफिस्ट आंदोलन का सर्वोच्च, वैश्विक अध्यक्ष बनना चाहता था। यह संभव न था, वहां बहुत से अन्य अहंकार भी थे। और सबसे बड़ी समस्या जे. कृष्णमूर्ति—जों अहंकार तो जरा भी नहीं थे— की ओर से आ रही थी। और निःसंदेह थियोसॉफिस्ट लोग कृष्णमूर्ति की ओर उन्मुख होने के बारे में और—और सोच रहे थे। धीरे— धीरे वे मसीहा बनते जा रहे थे। इसी बात ने रूडोल्फ स्टीनर के मन में चिंता उत्पन्न कर दी। उसने आंदोलन से नाता तोड़ लिया। थियोसॉफी आंदोलन की पूरी जर्मन शाखा उसके साथ ही अलग हो गई। वास्तव में वह अत्यंत प्रभावशाली वक्ता, एक प्रभावशाली लेखक था, उसने लोगों को अपनी बात मानने के लिए राजी कर लिया। उसने थियोसॉफी को बहुत बुरी तरह से नष्ट कर दिया उसने इसे विभाजित कर दिया। और इसके बाद से थियोसॉफी आंदोलन कभी संपूर्ण और समग्र नहीं हो सका।

स्कोल्फ स्टीनर के पास पश्चिमी मन के लिए एक आकर्षण है, और यही खतरा है—क्योंकि पश्चिमी मन मूलतः तर्क उन्मुख है, तर्क रखना, विचार करना, व्यवस्थित अध्ययन करना। वह इसी के बारे में बात करता है, और वह कहता है, ‘पश्चिमी मन के लिए यही ढंग है।’ नहीं, पूर्वीय हो या पाश्चात्य, मन तो मन है, और अ—मन है इसे गिराने का उपाय। यदि तुम पूर्वीय हो, तो तुमको पूर्वीय मन को गिराना पड़ेगा।

यदि तुम पाश्चात्य हो, तो तुम्हें पश्चिमी मन को गिराना पडेगा। ध्यान में गति करने के लिए मन को जैसा वह है उसी रूप में गिरा देना पड़ता है। यदि तुम ईसाई हो, तो तुम्हें ईसाई मन गिराना पड़ेगा। यदि तुम हिंदू हो, तो तुम को हिंदू मन को गिराना पड़ेगा। ध्यान को ईसाई, हिंदू पूर्वीय, पाश्चात्य, भारतीय या जर्मन, इन सभी से कोई सरोकार नहीं है।

मन क्या है? समाज के द्वारा तुम्हें दी गई संस्कारिता का नाम मन है। यह उस मौलिक मन के ऊपर अध्यारोपण है, जिसको हम अ—मन कहते हैं। बस जरा भी संशयग्रस्त मत होओ, पूरा मन, चाहे यह जैसा भी है, को गिरा देना पड़ता है। दिव्यता के तुम्हारे भीतर प्रवेश करने के लिए रास्ता पूरी तरह खाली होना चाहिए। विचार करना ध्यान नहीं है। यहां तक कि सम्यक विचार भी ध्यान नहीं है। उचित हो या अनुचित विचार करने को गिरा देना पड़ता है। जब तुम्हारे भीतर कोई विचार न हो, विचार—प्रक्रिया की कोई धुंध तुम्हारे भीतर न हो, तब अहंकार मिट जाता है। और स्मरण रखो, जब अहंकार मिट जाता है, तो मैं भी नहीं मिलता। प्रश्नकर्त्ता ने कहा, कि रूडोल्फ स्टीनर कहता है, ‘जब अहंकार मिट जाता है तो ‘मैं’ मिलता है।’ नहीं, जब अहंकार खो जाता है तो मैं नहीं मिलता। कुछ भी नहीं मिलता। ही, बिलकुल ठीक, कुछ नहीं.. .मिलता है।

अभी उस रात्रि को मैं महान झेन मास्टर तो—सान की एक कथा सुना रहा था। वह रिक्त हो गया, वह सबुद्ध हो गया—वह अनस्तित्व, जिसको बौद्ध अनत्ता, अ—मन कहते हैं, वही हो गया। यह खबर देवताओं तक पहुंच गई कि कोई व्यक्ति पुन: सबुद्ध हो गया है। और, निःसंदेह जब कोई व्यक्ति सबुद्ध हो जाता है, तो देवतागण उसका चेहरा, चेहरे का सौंदर्य, मौलिकता का सौंदर्य, उसका कुंवारापन देखना चाहते हैं। देवतागण नीचे उतर कर उस आश्रम में आए जिसमें तो—सान रहता था। उन्होंने यहां देखा और वहां देखा, और उन लोगों ने कोशिश की, और वे उसके भीतर एक ओर से प्रविष्ट होते और दूसरी ओर से बाहर निकल जाते, और तो—सान के भीतर उनको कोई न मिलता। बहुत हताश हो गए थे वे सभी। वे चेहरा, मौलिक चेहरा देखना चाहते थे, और वहां भीतर कोई नहीं था। उन्होंने अनेक उपाय करके देखे। और फिर एक बहुत चालाक, चतुर देवता ने कहा, एक काम करो—वह आश्रम के चौके में दौड़ कर गया, वह एक मुट्ठी चावल और गेहूं लेकर आया। तो—सान अपनी सुबह की सैर करके वापस लौट रहा था, और उस देवता ने ये अनाज उसके रास्ते में बिखेर दिए।

झेन आश्रम में प्रत्येक वस्तु का आत्यंतिक सम्मान किया जाता है, चावल और गेहूं पत्थर तक, प्रत्येक वस्तु का सम्मान किया जाता है। व्यक्ति को सतत सावधान और जागरूक रहना पड़ता है। झेन आश्रम में तुम अनाज का एक दाना भी यहां—वहां पड़ा हुआ नहीं देख सकते हो, तुमको सम्मानपूर्ण होना पड़ता है। और याद रहे, इस सम्मान का गांधी के अर्थशास्त्र से कोई संबंध नहीं है। यहां कोई अर्थशास्त्र का प्रश्न नहीं है, क्योंकि गांधीवादी अर्थशास्त्र तर्कयुक्त कंजूसी के सिवाय और कुछ भी नहीं। क्योंकि इस झेन दृष्टिकोण का कंजूसी से कुछ भी लेना—देना नहीं है। यह प्रत्येक वस्तु के प्रति सम्मान, आत्यंतिक सम्मान है। अनाज को इस भांति फेंक देना, असम्मानजनक था यह। यह वही मूल विचार था जिसे उपनिषद में ऋषियों ने कहा था, ‘अन्नम् ब्रह्म’ —भोजन परमात्मा है—क्योंकि भोजन तुमको जीवन देता है, भोजन तुम्हारी ऊर्जा है। परमात्मा तुम्हारे शरीर में भोजन के माध्यम से आता है, तुम्हारा रक्त, तुम्हारी अस्थियां बन जाता है। इसलिए परमात्मा को परमात्मा की तरह समझना चाहिए। जब इन देवताओं ने उस रास्ते पर गेहूं और चावल के दाने बिखेर दिए, जहां से तो—सान आने वाला था, तो यह देख कर वह विश्वास न कर सका, ‘यह किसने किया है? कौन इतना लापरवाह हो गया है?’ उसने मन में एक विचार उठा, और कथा यह है कि तभी एक क्षण के लिए देवतागण उसका चेहरा देख सके, क्योंकि उस एक क्षण के लिए एक बहुत सूक्ष्म ढंग से ‘मैं’ उठ खड़ा हुआ था, ‘यह किसने किया है? कुछ गलत हो गया है।’

और जब कभी तुम यह निर्णय लेते हों—क्या उचित है और क्या अनुचित, उस समय तुम वहां उपस्थित होते हो। उचित और अनुचित के मध्य अहंकार का अस्तित्व होता है। एक विचार और दूसरे विचार के मध्य अहंकार का अस्तित्व होता है। प्रत्येक विचार अपना स्वयं का अहं लेकर आता है। एक पल के लिए तो—सान की चेतना में एक बादल उठ गया— ‘यह किसने किया है?’ — एक तनाव। प्रत्येक विचार एक तनाव है। यहां तक कि बहुत सामान्य, बहुत मासूम दीखने वाले विचार भी तनाव हैं।

तुम देखते हो—उपवन सुंदर है, सूर्योदय हो रहा है और पक्षी चहचहा रहे हैं, और एक विचार उठता है, ‘कितना सुंदर!’ यह भी, यह भी एक तनाव है। इसीलिए यदि तुम्हारे साथ कोई चल रहा है, तो तुरंत तुम उससे कहोगे, ‘देखो कितनी खूबसूरत सुबह है!’ तुम क्या कर रहे हो? तुम बस उस तनाव को निकाल रहे हो जो उस विचार के माध्यम से आ गया है। सुंदर सुबह.. .एक विचार आ गया, इसने तुम्हारे चारों ओर एक तनाव निर्मित कर दिया है। अब तुम्हारा अस्तित्व तनावरहित नहीं रहा। इस तनाव को निकालना पड़ेगा, इसलिए तुमने दूसरे व्यक्ति से कह दिया। अर्थहीन है यह कहना, क्योंकि वह भी वहीं खड़ा है जहां तुम खड़े हो। वह भी पक्षियों के गीतों को सुन रहा है, वह भी सूर्य को उदित होते हुए देख रहा है, वह भी पुष्पों को देख रहा है, इसलिए इस प्रकार की बात कहने में कि ‘यह सुंदर है’ क्या सार है? क्या वह अंधा है? किंतु वह बात नहीं है। तुम उस तक कोई संदेश पहुंचा नहीं रहे हो। संदेश उसके लिए भी उतना ही स्पष्ट है जितना कि तुम्हारे लिए। वास्तव में तुम अपने आपको उस तनाव से मुक्त कर रहे हो इस बात को कह कर। वह विचार वातावरण में विसर्जित हो गया, तुम एक बोझ से निर्भार हो गए।

तो—सान के मन में एक विचार उठा, एक बादल संघनित हो गया, और उस बादल के माध्यम से देवतागण उसका चेहरा देख पाने में समर्थ हो सके, बस एक झलक। पुन: वह बादल मिट गया, पुन: वहां कोई तो—सान न रहा।

स्मरण रखो, ध्यान बस यही कुछ है : तुमको इस परिपूर्णता से विनष्ट कर देना कि यदि देवतागण भी आएं तो वे तुमको खोज न सकें, उनको तुम मिल न सकी। तुमने स्वयं भी देखा होगा कि जब ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं कि देवता भी तुमको नहीं पा सकते, तब भीतर मिलने के लिए कोई नहीं होता। वह ‘कुछ होने की मनो—दशा’ तनाव का एक ढंग है। इसीलिए वे लोग जो सोचते हैं कि वे कुछ हैं अधिक तनावग्रस्त रहते हैं। वे लोग जो सोचते हैं कि वे ना—कुछ हैं, कम तनावग्रस्त रहते हैं। वे लोग जो पूरी तरह से भूल चुके हैं कि वे हैं, तनाव—शून्य हैं। इसलिए स्मरण रखो, जब अहंकार खो जाता है, तब मैं नहीं मिलता। जब अहंकार खो जाता है, तो मिलता कुछ भी नहीं है। वह ना—कुछपन, वह कुछ न होने की शुद्धता तुम्हारा अस्तित्व, तुम्हारा अंतर्तम केंद्र, तुम्हारा परम स्वभाव, तुम्हारा बुद्ध—स्वभाव, तुम्हारी जागरूकता है—ऐसे विराट आकाश की भांति जिसमें कोई भी बादल नहीं तैर रहा है।

अब प्रश्न को दुबारा सुनो।

‘मेरा लालन—पालन स्कोल्फ स्टीनर की शिक्षाओं के बीच हुआ है।’

हां, वे शिक्षाएं हैं। और मैं यहां जो कर रहा हूं वह तुम्हें कुछ शिक्षा देना नहीं है, बल्कि इसके विपरीत मैं तुमसे सारी शिक्षाएं छीने ले रहा हूं। मैं कोई शिक्षक नहीं हूं। मैं तुम पर कोई जानकारी आरोपित नहीं कर रहा हूं। मेरा सारा प्रयास तो उसे नष्ट करने का है जिसे तुम सोचते हो कि तुम जानते हो। मेरा सारा प्रयास तुमसे सारी जानकारी छीन लेने का है। मैं यहां तुम्हारी अनसीखा होने में सहायता करने के लिए हूं।

‘मेरा लालन—पालन स्कोल्फ स्टीनर की शिक्षाओं के बीच हुआ है, किंतु अभी तक मैं उसके प्रति अपने मन के अवरोधों को तोड़ नहीं पाया हूं।’

कोई भी उस व्यक्ति के प्रति अपने अवरोधों को तोड़ पाने में समर्थ नहीं हो पाता जो स्वयं ही अहंकार उन्मुख हो। ऐसे व्यक्ति के प्रति अपने मन के अवरोधों को तोड़ पाना कठिन है जो मिट चुका है। फिर भी अपने अवरोध तोड़ पाना कितना कठिन है, क्योंकि तुम्हारा अहंकार प्रतिरोध करता है। किंतु जब तुम किसी ऐसे शिक्षक के आस—पास हो जिसकी स्वयं की अहंकार—यात्रा अभी तक चल रही है, अभी तक जो, जो अभी तक कुछ होने के प्रयास में संलग्न है, जो अभी भी तनावग्रस्त है, तो तुम्हारा अहंकार गिर पाना असंभव है।

‘यद्यपि मेरा विश्वास है कि पश्चिम को जो रास्ता उसने दिखाया, उचित ढंग से विचार करना सीखना अपने आपको माया से मुक्त करने की संभावना है।’

नहीं, पूरब के लिए या पश्चिम के लिए उपाय यही है : किस भांति विचार करने को अनसीखा किया जाए; किस भांति विचार न किया जाए—बस हुआ जाए। और पूरब के बजाय पश्चिम को इसकी अधिक आवश्यकता है, क्योंकि अरस्तु के बाद की दो सहस्राब्दियों से पश्चिम में तुम्हारी सीख सोचने, सोचने और सोचने की ही रही है। सोचना ही लक्ष्य रहा — है। पश्चिम में विचारक मन लक्ष्य रहा है; किस प्रकार से अपनी विचार—प्रक्रिया में और अधिक ठीक और वैज्ञानिक हुआ जाए। विज्ञान का पूरा का पूरा संसार इसी प्रयास से उठ कर खड़ा हुआ है, क्योंकि जब तुम एक वैज्ञानिक के रूप में कार्य कर रहे हो तो तुमको सोचना पड़ता है। वस्तुगत संसार में तुमको कार्य करना पड़ता है और तुमको विचार करने के और उचित, ठीक और प्रमाणिक उपायों की खोज करनी पड़ती है। और इसने अत्यधिक लाभांवित किया है। विज्ञान एक बड़ी सफलता बन चुका है। इसलिए निःसंदेह लोग सोचते हैं कि जब तुम भीतर जाते हो तब वही विधि—विज्ञान सहायक होगा। रूडोल्फ स्टीनर की भ्रांति यही है।

वह सोचता है कि जिस प्रकार से हम पदार्थ के ‘भीतर प्रवेश करने में सफल हो चुके हैं, वही उपाय भीतर प्रवेश जाने में सहायता करेगा। यह उपाय सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि भीतर जाने के लिए व्यक्ति को विपरीत दिशा, ठीक उलटी दिशा में जाना पड़ता है। यदि विचार करना पदार्थ को जानने में सहायता करता है, तो निर्विचार रहना तुम्हारी स्वयं को जानने में सहायता करेगा। यदि तर्क पदार्थ को जानने में सहायता करता है, तो झेन कोऑन जैसा कुछ, कुछ असंगत, अतर्क्य तुमको अंदर जाने में सहायता करेगा; भीतर जाने के लिए, विश्वास, श्रद्धा, प्रेम तो कम पड़ सकते हैं, किंतु तर्क कभी काम न आएगा। संसार को बेहतर ढंग से जानने में जिस किसी साधन से तुमको सहायता मिली है, वह भीतर की ओर जाने में अवरोध होने जा रहा है। और यही बाहर के संसार के बारे में भी सत्य है; जो कुछ भी तुमको अपने आपको जानने में सहायता करता है, वह पदार्थ को जान लेने में अनिवार्यत: तुम्हारी सहायता नहीं करेगा। यही कारण है कि पूरब विज्ञान को विकसित नहीं कर सका।

विज्ञान की पहली झलकियां पूरब में ही आई थीं, परंतु पूरब इसे विकसित नहीं कर सका। उस दिशा में पूरब गया ही नहीं। प्रारंभिक मूलभूत जानकारी पूरब में विकसित हुई थी।

उदाहरण के लिए, गणितीय प्रतीक, एक से दस तक के अंक भारत में विकसित हुए। उन्होंने गणित को संभव बनाया। यह एक महान खोज थी, किंतु यह वहीं रुक गई। आरंभ तो हो गया, लेकिन पूरब उस दिशा में बहुत दूर नहीं जा सका। उसके कारण विश्व की सभी भाषाओं में अंक गणितीय संख्याओं के नाम का मूल संस्कृत से आया है।

उदाहरण के लिए, संस्कृत में दो, द्व है, यह ट्वा बन गया, और तब टू। तीन संस्कृत में त्रि है, यह थ्री बन गया। छह संस्कृत का षष्ठ है, यह सिक्स बन गया। सात संस्कृत में सप्त है, यह सेवेन बन गया। आठ संस्कृत का अष्ट है, यह एट बन गया। नौ संस्कृत का नव है, यह नाइन बन गया। मूलभूत खोज भारतीय है, किंतु फिर यह वहीं ठहर गई।

चीन में उन्होंने पहली बार, करीब—करीब पांच हजार वर्ष पूरब ही बारूद का विकास कर लिया था, लेकिन उन्होंने इससे कभी कोई बम नहीं बनाए। उन्होंने केवल आतिशबाजियां बनाईं। उन्होंने इसका आनंद उठाया, उन्होंने इसको प्रेम किया, वे इसके साथ खेले, लेकिन उनके लिए यह एक खिलौना ही था। उन्होंने इसके द्वारा कभी किसी की हत्या नहीं की। वे इसके साथ बहुत दूर तक नहीं गए।

पूरब ने अनेक आधारभूत वस्तुएं खोज लीं, लेकिन वह इनके भीतर गहरा नहीं उतरा। यह वस्तुओं के भीतर गहराई तक जा भी नहीं सकता, क्योंकि पूरब का सारा प्रयास भीतर जाने का है। विज्ञान पाश्चात्य प्रयास है, धर्म पूर्वीय प्रयास है,। पश्चिम में धर्म तक वैज्ञानिक होने का प्रयास करता है, यही तो है जो स्कोल्फ स्टीनर कर रहा था; धार्मिक ढंग को और—और वैज्ञानिक बनाने का प्रयास, क्योंकि पश्चिम में विज्ञान ही मूल्यवान है। यदि तुम सिद्ध कर सको कि धर्म भी वैज्ञानिक है, तब धर्म भी एक दूसरे रास्ते से, अप्रत्यक्ष रूप से मूल्यवान हो जाता है। इसलिए पश्चिम में प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति यह सिद्ध करने का प्रयास करता रहता है कि विज्ञान ही एकमात्र वितान नहीं है, धर्म भी एक विज्ञान है। पूरब में हमने इसकी जरा भी चिंता नहीं ली है। बल्कि यहां तो दूसरे ढंग का प्रयास किया गया है, यदि कोई वैज्ञानिक खोज हुई तो जिन लोगों ने इसे खोजा उनको यह सिद्ध करना पड़ा कि इसका कोई धार्मिक महत्व है। अन्यथा यह अर्थहीन था।

‘उसका कहना है कि ऐसा करके और ध्यान करके हम अपने अहंकार को खोने और अपने ‘मैं’ को पाने में समर्थ हो जाते हैं।’

रूडोल्फ स्टीनर को नहीं शांत है कि ध्यान क्या है, और जिसको वह ध्यान कहता है वह एकाग्रता है। वह पूर्णत: संशयग्रस्त है : वह एकाग्रता को ध्यान कहता है। एकाग्रता ध्यान नहीं है। एकाग्रता तो वैज्ञानिक विचारणा के लिए एक अत्यधिक उपयोगी माध्यम है। यह मन को एकाग्र करना, मन को संकुचित करना, मन को किसी विशेष वस्तु पर केंद्रित करना है। किंतु मन रहता है, और संकेंद्रित हो जाता है, और —समग्र हो जाता है।

ध्यान किसी पर एकाग्रता करना नहीं है। वास्तव में यह विश्रांत हो जाना है, संकुचित होना नहीं है।

एकाग्रता में एक लक्ष्य होता है। ध्यान में कोई भी लक्ष्य नहीं होता जिस पर हमें ध्यान लगाना है। तुम बस एक लक्ष्य—मुक्त चैतन्य में, चेतना के विस्तार में खो जाते हो। एकाग्रता में किसी एक पर ही सारा अवधान रहता है और दूसरी सभी वस्तुओं से सरोकार नहीं रहता। यह केवल एक वस्तु को अपने अवधान में सम्मिलित करती है, यह प्रत्येक अन्य वस्तु को बहिष्कृत कर देती है।

उदाहरण के लिए, यदि तुम मुझे सुन रहे हो, तो तुम मुझको दो उपायों से सुन सकते हो : तुम एकाग्रता के द्वारा सुन सकते हो; तब तुम तनाव में होओगे, और तुम जो मैं कह रहा हूं उस पर केंद्रित रहोगे। फिर पक्षी गा रहे होंगे, किंतु तुम उनको नहीं सुनोगे। तुम सोचोगे कि यह एक व्यवधान है।

एकाग्रता के लिए किए जाने वाले तुम्हारे प्रयास से ही व्यवधान का जन्म होता है। व्यवधान एकाग्रता का सह—उत्पाद है। तुम मुझको ध्यानपूर्ण ढंग से भी सुन सकते हो, तब तुम मात्र खुले हुए हो—उपलब्ध— तुम मुझे सुनते हो और तुम पक्षियों को भी सुनते हो, और वृक्षों से होकर हवा बहती है, .और एक ध्वनि निर्मित करती है; उसे भी तुम सुनते हो—तब यहां पर पूरी तरह से उपस्थित हो। फिर जो कुछ भी यहां पर घटित हो रहा है उसके लिए तुम बिना अपने किसी निजी मन के हस्तक्षेप के, बिना तुम्हारे किसी निजी चुनाव के तुम उपलब्ध रहते हो। तुम यह नहीं कहते कि मैं केवल इसी को सुनूंगा और मैं उसको नहीं सुनूंगा। नहीं, तुम सारे अस्तित्व को सुनते हो। फिर पक्षी और मैं और हवा तीन भिन्न वस्तुएं नहीं हैं। वे अलग—अलग नहीं हैं। वे उसी क्षण में साथ—साथ, एक संग घटित हो रहे हैं। निःसंदेह तब तुम्हारी समझ आत्यंतिक रूप से समृद्ध हो जाएगी, क्योंकि पक्षी भी अपने ढंग से उसी बात को कह रहे हैं, हवा भी उसी संदेश को अपने ढंग से संवाहित कर रही है, और मैं भी उसी बात को भाषा के रूप में कह रहा हूं जिससे कि तुम इसको और अधिक समझ सको। अन्यथा संदेश तो वही है। माध्यम भिन्न होते हैं किंतु संदेश एक ही है, क्योंकि परमात्मा ही संदेश है।

जब कोई कोयल दीवानगी से भर उठती है, तो यह परमात्मा ही दीवाना हो रहा है। इनकार मत करो, उसको अस्वीकार मत करो, ऐसा करके तुम परमात्मा को बाहर कर रहे होंगे। किसी वस्तु को निष्कासित मत करो, सभी को समाहित कर लो।

चेतना का संकुचित हो जाना एकाग्रता है, ध्यान है चेतना का विस्तीर्ण हो जाना, सभी द्वार खुले हैं, सारी खिड़कियां खुली हैं, और तुम कोई चुनाव नहीं कर रहे हो। निःसंदेह जब तुम चुनाव नहीं करते तब तुम्हें कोई व्यवधान भी नहीं पड़ता। ध्यान का सौंदर्य यही है. ध्यान करने वाले के लिए कुछ भी व्यवधान नहीं बन सकता। और इसी को कसौटी बन जाने दो। यदि तुम्हें व्यवधान होता है तो जान लो कि तुम एकाग्रता का अभ्यास कर रहे हो, ध्यान नहीं। कोई कुत्ता भौंकना आरंभ कर देता है—ध्यान करने वाले को बाधा नहीं पड़ती। वह इसे भी स्वीकार कर लेता है, वह इसका भी मजा लेता है। तब वह कहता है, देखो……तो परमात्मा कुत्ते के माध्यम से भौंक रहा है। बिलकुल ठीक। मेरे ध्यान करते समय भौंकने के लिए आपका धन्यवाद। इस तरह आप अनेक उपायों से मेरा ध्यान रखते हैं, लेकिन कोई तनाव नहीं उठता। वह यह नहीं कहता, यह कुत्ता मेरा विरोधी है। वह मेरी एकाग्रता भंग करने का प्रयास कर रहा है। मैं इतना धार्मिक, गंभीर व्यक्ति हूं और यह बेवकूफ कुत्ता.. .यह यहां कर क्या रहा है? फिर शत्रुता उठ खड़ी होती है, क्रोध जाग जाता है। और तुम सोचते हो कि यह ध्यान है? नहीं, किसी कीमत का भी नहीं है यह, यदि तुम एक कुत्ते पर, बेचारे कुत्ते पर क्रोधित हो उठते हो, जो कि केवल अपना स्वयं का काम कर रहा है। वह तुम्हारी एकाग्रता या तुम्हारे ध्यान या किसी भी चीज को नष्ट नहीं कर रहा है। वह तुम्हारे धर्म के बारे में, तुम्हारे बारे में, जरा भी चिंतित नहीं है। हो सकता है कि उसे पता भी न हो कि तुम क्या मूर्खता कर रहे हो। वह तो बस अपने जीवन का अपने ढंग से मजा ले रहा है। नहीं, वह तुम्हारा शत्रु नहीं है।

जरा निरीक्षण करना. .घर में यदि एक व्यक्ति धार्मिक हो जाता है, तो सारा घर मुसीबत में पड़ जाता है, क्योंकि वह व्यक्ति लगातार विचलित होने की सीमा रेखा पर रहता है। वह प्रार्थना कर रहा है; कोई जरा भी आवाज न करे। वह ध्यान कर रहा है; बच्चों को खामोश रहना चाहिए, कोई भी खेलेगा नहीं। तुम अस्तित्व पर अनावश्यक शर्तें थोप रहे हो। और तब यदि तुम विचलित हो जाते हो और तुमको व्यवधान अनुभव होता है, तो केवल तुम ही उत्तरदायी हो। केवल तुम पर ही आरोप लगाया जाना चाहिए, किसी और पर नहीं।

जिसे रूडोल्फ स्टीनर ध्यान कहता है वह एकाग्रता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और एकाग्रता के द्वारा तुम अहंकार खो सकते हो और तुमको ‘मैं’ मिल जाएगा और यह ‘मैं’ एक बहुत सूक्ष्म अहंकार के सिवाय और कुछ भी नहीं होगा। तुम एक पवित्र अहक़ारी बन जाओगे, तुम्हारा अहंकार धर्म की भाषा से अलंकृत हो जाएगा, किंतु यह वहीं होगा।

‘उसके लिए केंद्रीय व्यक्तित्व क्राइस्ट हैं, जिनको वह जीसस से पूर्णत: भिन्न व्यक्तित्व के रूप में अलग कर देता है।’

अब ध्यान करने वाले के लिए केंद्रीय व्यक्तित्व कोई हो ही नहीं सकता, उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। किंतु जो एकाग्रता करता है उसे एकाग्र होने के लिए किसी की आवश्यकता पड़ती है। रूडोल्फ स्टीनर कहता है कि क्राइस्ट केंद्रीय व्यक्तित्व हैं। बुद्ध क्यों नहीं हैं? पतंजलि क्यों नहीं है? महावीर क्यों नहीं हैं? क्राइस्ट क्यों? बौद्धों के लिए बुद्ध केंद्रीय व्यक्तित्व हैं, क्राइस्ट नहीं। उन सभी को

एकाग्रता साधने के लिए, कोई ऐसी वस्तु जिस पर वे अपने मन को केंद्रित कर सकें, कुछ चाहिए। धार्मिक व्यक्ति के लिए कोई केंद्रीय व्यक्तित्व नहीं होता। यदि तुम्हारा स्वयं का केंद्रीय अहंकार खो चुका है या खो रहा है, तो तुम्हें इसको सहारा देने के बाहर किसी अन्य अहंकार की जरा भी आवश्यकता नहीं है। वह क्राइस्ट या वह बुद्ध, पुन: कहीं और का एक अहंकार है। तुम एक मैं—तू की ध्रुवीयता निर्मित कर रहे हो। तुम कहते हो, क्राइस्ट, आप मेरे मालिक हैं, किंतु यह कहेगा कौन? यह कहने के लिए एक ‘मैं’ की आवश्यकता है। देखो, झेन बौद्धों की सुनो। वे कहते हैं, यदि रास्ते में तुम्हारा बुद्ध से मिलना हो जाए, तो तुरंत उनको मार डालो। यदि रास्ते में तुम्हारा बुद्ध से मिलना हो जाए तो, तुरंत उनको मार डालो, अन्यथा वे तुमको मार डालेंगे। उनको एक मौका भी मत दो, अन्यथा वे तुम पर हावी हो जाएंगे, और वे, केंद्रीय व्यक्तित्व बन जाएंगे। उनके चारों ओर पुन: तुम्हारा मन उठ खड़ा होगा। तुम एक बौद्ध का मन बन जाओगे। तुम एक ईसाई का मन हो जाओगे। एक विशेष प्रकार के मन के लिए एक विशेष केंद्रीय व्यक्तित्व की आवश्यकता पड़ती है।

और वह निःसंदेह जीसस की तुलना में क्राइस्ट के पक्ष में अधिक है। इसको भी समझ लेना पड़ेगा। पवित्र अहंकार ऐसे ही तो उठ खड़ा होता है। जीसस ठीक हम लोगों की भांति हैं एक इनसान जिसके पास शरीर है, सामान्य जीवन है, नितांत मानवीय हैं जीसस। एक बहुत बड़े अहंकारी के लिए अब इससे काम नहीं चलेगा। उसको एक अत्यधिक परिशोधित व्यक्तित्व की आवश्यकता है। क्राइस्ट परिशोधित जीसस के सिवाय कुछ और नहीं हैं। यह बस ऐसा ही है कि तुम दूध का दही जमा लो फिर इससे मक्खन निकाल लो, और फिर उस मक्खन से घी निकाल लो। वह घी दूध का शुद्धतम अवयव, सर्वाधिक आवश्यक तत्व है। अब तुम घी से और कुछ नहीं बना सकते। घी अंतिम परिशोधन है। सफेद पेट्रोल की तरह : मिट्टी के तेल से पेट्रोल; पेट्रोल से सफेद पेट्रोल। अब और नहीं, परिशोधन का अंत हो गया। क्राइस्ट तो बस परिशोधित जीसस हैं। रूडोल्फ स्टीनर के लिए जीसस को स्वीकार कर पाना कठिन है, और सभी अहंकारियों के लिए यह कठिन है। वे कई उपायों से अस्वीकृत करने का प्रयास करते हैं।

उदाहरण के लिए, ईसाई कहते हैं, उनका जन्म एक कुंवारी मां से हुआ। मूलभूत समस्या यह है कि ईसाई लोग यह स्वीकार नहीं कर सकते कि जीसस का जन्म हम सामान्य इनसानों की भांति हुआ था। फिर वे भी सामान्य दिखाई पड़ेंगे। उनको विशिष्ट होना पड़ेगा, और हमें विशेष गुरु का शिष्य होना चाहिए। बुद्ध की भांति नहीं, जिनका जन्म आम मानवीय प्रेम संबंध से, सामान्य मानवीय काम—संभोग से हुआ है, नहीं—जीसस विशिष्ट हैं। विशिष्ट लोगों को विशिष्ट पैगंबर की जरूरत होती है, जो कुंआरी मां से जन्मा हो! और वे ईश्वर के एकमात्र पुत्र हैं, एकमात्र, क्योंकि यदि और पुत्र हो तो वे विशिष्ट नहीं रह पाएंगे। वे एक मात्र मसीहा हैं, एकमात्र जिनको ईश्वर ने इस कार्य हेतु स्वयं सत्तारूढ़ किया है। सभी दूसरे, अधिक से अधिक संदेशवाहक हो सकते हैं, लेकिन उस तल और उस स्तर के नहीं हो सकते जो क्राइस्ट का है। ईसाइयों ने इस बात को अपने ढंग से कह दिया है, किंतु मैं चाहूंगा कि क्राइस्ट से अधिक तुम जीसस को समझो—क्योंकि जीसस को समझना और अधिक आनददायी रहेगा, उनको समझना और अधिक शांतिदायी रहेगा, और इस पथ पर अत्यधिक सहायक होगा। क्योंकि तुम जीसस होने की स्थिति में हो, क्राइस्ट होना बस एक स्वप्न है।

पहले तुमको जीसस होने से गुजरना पड़ेगा, और केवल तब किसी दिन तुम्हारे भीतर क्राइस्ट जाग जाएगा। क्राइस्ट तो अस्तित्व की मात्र एक अवस्था है, जैसे कि बुद्ध अस्तित्व की मात्र एक अवस्था हैं। गौतम बुद्ध बन गए, जीसस क्राइस्ट बन गए। तुम भी क्राइस्ट बन सकते हो, लेकिन ठीक इस समय क्राइस्ट बहुत दूर है। तुम उसके बारे में विचार कर सकते हो, और इसके बारे में दर्शनशास्त्रों और धर्म— विज्ञानों का निर्माण कर सकते हो, लेकिन इससे कोई सहायता नहीं मिलने जा रही है। ठीक अभी जीसस को समझ लेना बेहतर है, क्योंकि यही वह अवस्था है जहां तुम हो। यही वह बिंदु है जहां से यात्रा को आरंभ किया जाना है। जीसस से प्रेम करो, क्योंकि जीसस को प्रेम करने के माध्यम से तुम अपनी इनसानियत को प्रेम करोगे। जीसस को, और विरोधाभास को समझने का प्रयास करो, और उस विरोधाभास के माध्यम से तुम स्वयं को कम दोषी अनुभव करने में समर्थ हो सकोगे। जीसस के प्रति अपनी समझ के माध्यम से तुम स्वयं को और अधिक प्रेम कर पाओगे।

अब ईसाई लोग जीसस के जीवन के विरोधाभास को, क्राइस्ट की अवधारणा के द्वारा किसी भांति छिपाने का प्रयास करते रहते हैं। उदाहरण के लिए ऐसे क्षण भी हैं जब जीसस क्रोध में हैं, अब यह एक समस्या है, क्या किया जाए? इस तथ्य को छिपाना बेहद कठिन है, क्योंकि अनेक बार वे क्रोधित होते हैं, यह उनकी शिक्षाओं के विरोध में जाता है। वे लगातार प्रेम के बारे में बात करते रहते हैं, और स्वयं ही क्रोधित हैं। और वे अपने शत्रुओं को क्षमा करने की बात करते है—न केवल यह, बल्कि अपने शत्रुओं को प्रेम करने की बात करते हैं—लेकिन वे स्वयं अपने क्रोध में कोड़े बरसाते हैं। जेरुसलम के मंदिर में उन्होंने कोड़ा उठा लिया और सूदखोरों को पीटना आरंभ कर दिया, और अकेले ही उनको मंदिर के बाहर धकेल दिया। वह तो अवश्य ही वास्तविक रोष में, आक्रोश में, लगभग विक्षिप्त अवस्था में होंगे। अब यह घटना.. .इसको किस भांति समझाया जाए? इसकी व्याख्या करने के लिए ईसाइयों ने जो उपाय खोजा है—और रूडोल्फ स्टीनर ने अपनी विचारधारा का आधार इसी बात पर रखा है—वह है क्राइस्ट को निर्मित करना, जिसको पूरी तरह समझाया जा सकता है। जीसस के बारे में सब कुछ भूल जाओ, क्राइस्ट की एक शुद्ध अवधारणा प्रस्तुत करो। उस क्षण के लिए तुम कह सकते हो, ‘जब वे क्रोध में थे, उस समय वे जीसस थे।’ और जब क्रास पर, सूली चढ़ाए जाते समय उन्होंने कहा, ‘हे प्रभु, मेरे पिता, इन लोगों को क्षमा कर दे, क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं।’ उस समय वे क्राइस्ट थे। अब इस विरोधाभास की व्याख्या की जा सकती है। जब वे किसी स्त्री के साथ जा रहे हैं, तब वे जीसस हैं; जब उन्होंने मेरी मेग्दलीन से कहा कि वह उनको न छुए, तब वे जीसस थे। इन दो अवधारणाओं ने घटनाओं को समझाने में सहायता की—किंतु ऐसा करके तुम जीसस का सौंदर्य नष्ट कर देते हो, क्योंकि उनका सारा सौंदर्य इसी विरोधाभास में है।

उन्हें संबंधित करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जीसस के अस्तित्व की गहराई में वे अंतर— संबंधित हैं। वास्तव में वे इसीलिए क्रोधित हो पाए, क्योंकि उन्होंने अत्यधिक प्रेम किया था। उन्होंने इतने आत्यंतिक रूप से प्रेम किया था, इसलिए वे क्रोधित हो पाए। उनका क्रोध घृणा का भाग नहीं था, यह उनके प्रेम का एक अंग था। क्या कभी तुमने प्रेम से जन्मे क्रोध को नहीं देखा है? तब समस्या कहां है? तुम अपने बच्चे को प्रेम करते हो; कभी तुम बच्चे को थप्पड़ मार देते हो, तुम बच्चे को पीट देते हो, कभी तो तुम करीब—करीब क्रोध के पागलपन में हो जाते हो, लेकिन यह सब प्रेम के कारण होता है। ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि तुम घृणा करते हो। वे इतना अधिक प्रेम करते थें—जीसस के बारे में मेरी समझ यही है—कि वे इतना प्रेम करते थे कि वे क्रोध में सभी कुछ भूल गए और वे क्रोधित हो उठे। उनका प्रेम बहुत अधिक था। वे मात्र एक मुर्दा संत नहीं थे, वे एक जीवित व्यक्ति थे, और उनका प्रेम मात्र दर्शनशास्त्र नहीं था, यह एक वास्तविकता था। जब प्रेम वास्तविकता होता है तो कभी—कभी प्रेम क्रोध भी बन जाता है।

वे उतने ही मनुष्य थे जितने कि तुम हो। ही, वे वहीं समाप्त नहीं हो गए। वे एक मनुष्य से कुछ और अधिक भी थे, लेकिन प्राथमिक और आधारभूत रूप से वे मनुष्य, मनुष्य से अधिक थे। ईसाई लोग यह सिद्ध करने का प्रयास करते रहे हैं कि वे अति मानव थे और उनकी मानवता मात्र एक आकस्मिक घटना थी, एक अनिवार्य बुराई थी, क्योंकि उनको शरीर धारण करना पड़ा था। यही कारण था कि वे क्रोधित हुए थे। अन्यथा वे तो मात्र एक शुद्धता थे। लेकिन मेरे अनुसार ऐसी शुद्धता मुर्दा होगी।

यदि शुद्धता वास्तविक और प्रमाणिक है, तो यह अशुद्धता से भय नहीं खाती है। यदि प्रेम सच्चा हो तो यह क्रोध से भयभीत नहीं होता; यदि प्रेम असली हो, इसे लड़ने—झगड़ने से जरा भी भय नहीं होता। इससे यह प्रदर्शित होता है कि लड़ाई—झगड़ा भी इसे नष्ट नहीं कर सकता, यह जीवित रहेगा। ऐसे भी संत हुए हैं जिन्होंने मानवता को प्रेम करने की बातें की हैं, लेकिन वे एक मनुष्य तक को प्रेम न कर सके। मानवता को प्रेम करना बहुत सरल है। इस बात को सदैव स्मरण रखो, यदि तुम प्रेम नहीं कर सकते हो तो तुम मानवता को प्रेम करने लगते हो। यह बहुत सरल है, क्योंकि मानवता से तुम्हारी कभी भेंट तक नहीं होती; और मानवता तुम्हारे लिण्र कोई झंझट भी नहीं खड़ी करने वाली है। केवल एक ही मनुष्य बहुत सी, और भी बहुत सी झंझटें खडी कर देगा। और तुम्हें बहुत ही अच्छा लग सकता है कि तुम मानवता को प्रेम करते हो। तुम किसी व्यक्ति को कैसे प्रेम कर सकते है? तुम तो मानवता को प्रेम करते हो। तुम तो विराट हो, तुम्हारा प्रेम महान है। लेकिन मैं तुमसे कहूंगा : किसी मनुष्य से प्रेम करो; मानवता को प्रेम करने के लिए यही आधारभूत तैयारी है। यह कठिन होने वाला है, और यह एक बड़ी झंझट, एक लगातार चलने वाली झंझट और चुनौती होने जा रहा है। यदि तुम इसके पार जा सको, और तुम कठिनाइयों के कारण प्रेम को नष्ट न करो, और तुम अपने प्रेम को सशक्त बनाते चले जाओ, जिससे कि यह सभी—संभव, असंभव कठिनाइयों का सामना कर सके— तभी तुम समग्र हो पाओगे। क्राइस्ट ने मनुष्य को प्रेम किया था, और बहुत अधिक प्रेम किया था, और उनका प्रेम इतना विराट था कि यह मनुष्यों का अतिक्रमण कर गया और समूची मानवता के प्रति प्रेम बन गया। फिर इस प्रेम ने मानवता का भी अतिक्रमण कर लिया, यह अस्तित्व के प्रति प्रेम बन गया। यह प्रभु के प्रति प्रेम है।

‘आपके उपाय मुझको अलग प्रतीत होते हैं।’

मेरे उपाय न केवल अलग हैं, बल्कि नितांत विपरीत हैं। पहली बात तो यह है कि यह उपाय तो जरा भी नहीं है। यह कोई पथ नहीं है; या यदि तुमको पथ शब्द से लगाव है तो इसे पथ—विहीन—पथ, द्वार— विहीन—द्वार कह सकते हो। किंतु यह पथ नहीं है, क्योंकि किसी पथ या रास्ते की आवश्यकता तभी पड़ती है जब तुम्हारी वास्तविकता तुमसे बहुत अधिक दूर हो। तब इससे रास्ते के माध्यम से जुड़ना पड़ता है। लेकिन मेरा पूरा जोर इसी बात पर है कि तुम्हारी वास्तविकता तुम्हें ठीक अभी, यहीं उपलब्ध है। यह तो बस तुम्हारे भीतर है। इस तक पहुंचने के लिए पथ की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में यदि तुम सारे रास्तों को छोड़ दो, तब अचानक तुम स्वयं को लक्ष्य पर खड़ा हुआ पाओगे। तुम जितने अधिक रास्तों पर चलते हो, उतना ही तुम स्वयं से दूर हो जाते हो। रास्ते भटकाते हैं, दिग्भ्रमित करते हैं, क्योंकि तुम पहले से ही वह हो जिसको तुम खोज रहे हो। इसलिए रास्तों की आवश्यकता नहीं है, किंतु तुम्हारा प्रशिक्षण इसी भांति सोचने के लिए हुआ है, तब मैं कहूंगा कि मेरा उपाय नितांत विपरीत है। स्टीनर कहता है, उचित ढंग से विचार करना, और मैं कहता हूं उचित हो या अनुचित, विचार करते रहना ही गलत है। विचार करना गलत है; निर्विचार होना सही है।

‘क्या आप कृपा करके मुझको सलाह दे सकते हैं? एक प्रकार से मैं तो आपके और उस उपाय के बीच जो स्टीनर दिखाता है, बंट गया हूं।’

नहीं, तुमको कुछ दिनों के लिए तनाव की अवस्था में रहना पड़ेगा। मैं कोई सलाह नहीं दूंगा और कोई सहायता भी नहीं करूंगा। क्योंकि यदि मैं सलाह देता हूं और मैं तुम्हारी सहायता करता हूं तो तुम मेरी ओर आ सकते हो और मेरी ओर झुक सकते हो; लेकिन यह अपरिपक्वता हो सकती है। इसके पहले कि तुम मेरे पास आ सको तुमको स्टीनर से जम कर संघर्ष करना पड़ेगा, और वह स्टीनर निश्चित रूप से तुमको कड़ी टक्कर देगा। तुमको वह इतनी आसानी से छोड़ने वाला नहीं है। और मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं करने वाला हूं ताकि तुम अपने आप से आ सको। केवल तभी तुम मेरे पास तक आते हो, जब तुम अपने आप से आते हो। जब कोई फल पक जाता है तो यह स्वत: ही गिर पड़ता है। नहीं, मैं इस फल पर जरा सी ककड़ी तक नहीं मारूंगा, क्योंकि हो सकता है कि फल न पका हो और ककड़ी इसे नीचे गिरा दे… और इस तरह अधपके फल का नीचे गिर जाना यह एक आपदा बन जाएगा। तुम अपने मन की बंटी हुई अवस्था में बने रहोगे।

तुमको निर्णय लेना पडेगा, क्योंकि कोई भी लंबे समय तक मन की बंटी हुई अवस्था में नहीं रह सकता। एक बिंदु ऐसा आता है जब व्यक्ति को निर्णय लेना पड़ता है। और यदि मैं तुम्हारी सहायता करता हूं तो यह रूडोल्फ स्टीनर के प्रति न्याय नहीं होगा। उसका देहावसान हो चुका है, वह मेरे साथ संघर्ष नहीं कर सकता। उसकी तुलना में मेरे लिए तुमको अपनी ओर खींचना अधिक सरल है। इसलिए उसके प्रति भी न्याय करने के लिए यही बेहतर है कि मैं इसे तुम पर छोड़ दूं। तुम तो बस उससे संघर्ष करते रहो। या तुम मुझको छोड़ दोगे.. .वह भी एक उपलब्धि होगी, क्योंकि फिर तुम रूडोल्फ स्टीनर का और समग्रता से अनुगमन कर पाओगे।

लेकिन मैं नहीं सोचता कि यह अभी संभव है.. .मेरे संक्रमण का विष तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो चुका है। अब यह बस कुछ समय की बात रह गई है।

दूसरा प्रश्न :

जब मैं पौधों, नदियों, पर्वतों, पशुओं, पक्षियों और आकाश के सान्‍निघ्‍य में होता हूं, तो मुझको ठीक लगता है। किंतु जब मैं लोगों के मध्‍य आ जाता हूं, तो मुझको ऐसा लगता है, जैसे कि मैं किसी पागलखाने में आ गया हूं, यह विभाजन क्‍यो है?

जब तुम वृक्षों के, आकाश के, नदी के, चट्टानों के, फूलों के साथ होते हो और तुमको ठीक लगता है, तो तुमसे इसका जरा भी लेना—देना नहीं है। इसका संबंध वृक्षों से, नदियों से और चट्टानों से है। यह ठीकपन उनके मौन से आता है। जब तुम मनुष्यों के निकट आते हो, तब तुम्हें पागलपन लगने लगता है, जैसे कि तुम पागलखाने में आ गए हो। क्योंकि लोग तो दर्पण हैं, वे तुमको प्रतिबिंबित करते हैं। तब तो तुमको ही पागल होना चाहिए, इसीलिए जब तुम लोगों के साथ होते हो उस समय तुमको लगता है जैसे कि तुम किसी पागलखाने में हो। मुझको ऐसा अनुभव कभी नहीं हुआ। यहां तक कि तुम जैसे पागल लोगों के साथ भी मुझे ऐसा अनुभव कभी नहीं हुआ।

यह उन मूलभूत समस्याओं में से एक है जिसका सामना धर्म का प्रत्येक खोजी करता है।

जब तुम अकेले होते हो तो सभी कुछ ठीक—ठाक लगता है, क्योंकि वहां पर शांति भंग करने के लिए कोई नहीं होता। कोई तुम्हें विचलित होने का अवसर प्रदान नहीं करता। सभी कुछ शांत है, इसलिए तुम भी एक विशेष शांति अनुभव करते हो, लेकिन यह मौन प्राकृतिक है। इसमें आध्यात्मिकता जरा भी नहीं है। यह प्रकृति का मौन है। यदि तुम हिमालय पर, हिमालय के शिखरों की शीतलता और उनके सन्नाटे में चले जाओ, तो तुमको शांति अनुभव होगी। लेकिन इसका श्रेय हिमालय को जाता है, तुमको नहीं। जब तुम वापस लौटोगे तो तुम उसी व्यक्ति की भांति लौट कर आओगे जो गया था। तुम अपने भीतर हिमालय को नहीं ला पाओगे। इसीलिए अनेक लोग वहां गए, और यह सोच कर गए कि अब यदि वे संसार में वापस चले जाते हैं तो जो कुछ उन्होंने अर्जित किया है उसको वे खो देंगे, वे सदा के लिए वहीं रह गए। उनको कुछ भी उपलब्ध नहीं हुआ है। क्योंकि एक बार तुम इसे अर्जित कर लो, तो यह खो नहीं सकती; और संसार इसी की परीक्षा है। इसलिए जब कोई मनुष्य नहीं होता, और तब तुमको अच्छा लगता है, यह बस इतनी सी बात प्रदर्शित करता है कि लोगों के बीच तुम्हारा भीतरी पागलपन सक्रिय हो जाता है। इसलिए पलायनवादी मत बनो, और समाज को, लोगों को, भीड़ को दोषी मत ठहराओ। ऐसा मत कहो कि यह पागलखाना है। बल्कि यह सोचना आरंभ करो कि अवश्य ही तुम विक्षिप्तता की मनोवृत्तियां अपने भीतर लिए घूम रहे हो, जो जब तुम लोगों से संबंधित होते हो तो प्रकट हो जाती हैं।

एक सड़क पर दो मनोवैज्ञानिक मिल गए। एक ने कहा : ‘हैलो।’

दूसरे ने कहा : ‘मैं हैरान हूं कि इस बात से उसका क्या आशय है?’

बस एक जरा सी बात कि कोई हैलो कर रहा है और समस्या उठ खड़ी होती है… ‘मैं हैरान हूं कि इस बात से उसका क्या आशय है?’

रोगी ने डाक्टर को बताया कि उसको अपनी आंखों के सामने धब्बे दिखाई पड़ते रहते हैं। डाक्टर ने उसे चितकबरी त्वचा वाली महिलाओं के साथ घूमना—फिरना बंद करने के लिए कहा। जब वह बाहर जाने लगा तो डाक्टर ने उसे जीभ बाहर निकाले हुए जाने को कहा। ऐसा किसलिए? रोगी ने पूछा। क्योंकि मैं अपनी बाहर बैठी हुई नर्स से घृणा करता हूं डाक्टर ने कहा।

रोगी और डाक्टर दोनों एक ही नाव में सवार हैं।

निःसंदेह जब तुम लोगों के बीच आते हो जब तुम अपने जैसे लोगों के बीच आते हो, तो अचानक तुम्हारे भीतर कुछ प्रतिसंवेदित होने लगता है। वे विक्षिप्त हैं, तुम भी विक्षिप्त हो—जिस क्षण तुम उनके निकट आते हो ऊर्जा का एक सूक्ष्म संवाद घटित होने लगता है। तुम्हारी विक्षिप्तता उनकी विक्षिप्तता को बाहर ले आती है, उनकी विक्षिप्तता तुम्हारी विक्षिप्तता को बाहर लाती है। यदि तुम अकेले रहते हो, तब तुम प्रसन्न रहते हो।

मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे कह रहा था, मैं और मेरी पत्नी पच्चीस वर्षों तक बहुत प्रसन्नतापूर्वक जीए। मैंने पूछा, फिर क्या हो गया? उसने कहा : फिर हमारी मुलाकात हो गई, तब से जरा भी प्रसन्नता नहीं है। यहां तक कि दो प्रसन्न व्यक्ति मिलते हैं और तुरंत अप्रसन्नता शुरू हो जाती है। तुम अपने भीतर अप्रसन्नता के सूक्ष्म बीज लिए घूम रहे हो। ठीक मौका मिला और वे अंकुरित हो जाते हैं। और निसंदेह मनुष्य में उसकी सभी संभावनाओं को साकार करने के लिए मानवीय वातावरण की आवश्यकता होती है। तुम्हारे वातावरण का निर्माण वृक्षों से नहीं होता। तुम एक वृक्ष के पास पहुंच सकते हो और वहां चुप होकर बैठ सकते हो, या तुम कुछ भी चाहो कर सकते हो, किंतु तुम वृक्ष से असंबंधित रहोगे। तुम्हारे और वृक्ष के मध्य कोई संवाद, कोई भाषा नहीं होती। वृक्ष अपने स्वयं के अस्तित्व में जीए चला जाता है और तुम अपने स्वयं के अस्तित्व में जीए चले जाते हो। दोनों के मस्त कोई सेतु नहीं है। नदी एक नदी है, तुम्हारे और नदी के मध्य कोई सेतु नहीं है। जब तुम किसी मनुष्य के निकट आते हो अचानक तुम पाते हो कि सेतु बन गया है, और वह सेतु तुरंत ही इस ओर से उस ओर, उस ओर से इस ओर मनोभावनाओं का स्थानांतरण आरंभ कर देता है।

लेकिन आधारभूत रूप से इसका कारण तुम ही हो, इसलिए समाज पर आरोपित मत करो, लोगों पर दोषारोपण मत करो। वे तो बस तुम्हें अनावृत करते हैं। और यदि तुम जरा भी समझपूर्ण हो तो तुम उन्हें तुम्हारे प्रति एक महान कार्य के लिए धन्यवाद दोगे। वे तुम्हें अनावृत करते हैं, वे दिखा देते हैं कि तुम कौन हो, तुम कहां हो, तुम क्या हो। यदि तुम विक्षिप्त हो, तो तुम्हारी विक्षिप्तता प्रदर्शित करते हैं। यदि तुम बुद्ध हो, तो वे तुम्हारे बुद्धत्व को प्रदर्शित करते हैं। अकेले तुम्हारे पास कोई संदर्भ नहीं होता। अकेले तुम्हारे पास कोई पृष्ठभूमि नहीं होती। अकेले में तुम नहीं जान सकते कि तुम कौन हो।

मैं तुमको एक सुंदर कहानी, एक दुखांत कहानी सुनाता हूं।

यह कोई असाधारण परिस्थिति नहीं थी। एक बड़ी और लाभ कमाती हुई फर्म के बॉस ने एक सुंदर युवती को नौकरी पर रखा। बीस चालीस वर्ष से कुछ अधिक आयु का अविवाहित व्यक्ति था। उसके पास एक बड़ी कार, एक शानदार फ्लैट था, और उसे संग—साथ के लिए महिलाओं की कोई कमी न थी। लेकिन उसको अपना जोड़ा इस सुंदर सचिव में दिखा। उस युवती ने बॉस के लंच या डिनर के सभी प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिए, और बॉस के मंहगे उपहार और वेतनवृद्धि के प्रलोभन भी उसी गरिमा और शालीनता से अस्वीकृत कर दिए। उस युवती की नौकरी के आरंभिक सप्ताहों में बॉस ने अपने मन में राय बनाई कि वह संबंध बनाने के प्रति अनिच्छा का बस अभिनय कर रही है। इन कुछ महीनों में बॉस ने अपना साबुन, अपना टूथपेस्ट, अपना आफ्टर शेव सभी कुछ बदल डाला, किंतु कोई लाभ नहीं हुआ। अंत्ततः उसने अपने आप को यह मानने के लिए राजी कर लिया कि वह सुंदर है और अत्यधिक कार्यकुशल है, लेकिन उसके साथ किसी भी प्रकार के व्यक्तिगत संबध बन पाने की जरा भी संभावना नहीं है। फिर उस दिन वह यह देख कर बहुत हैरान हुआ कि सुबह जब वह अपने कार्यालय पहुंचा, तो उसने अपनी सचिव को अपनी मेज पर फूल सजाते हुए देखा, और इससे भी अधिक आश्चर्य तो तब हुआ जब सचिव ने उसको गंभीरतापूर्वक देखा और बोली, जन्म—दिन मुबारक हो, सर। उसने धीमे स्वर में सचिव को धन्यवाद दिया और शेष सारे दिन पूरी तरह से चकित— भ्रमित रहा। जैसे ही घड़ी की सुइयां पांच पर पहुंची, सचिव कार्यालय में आई और उसने स्वीकार किया कि बॉस का जन्म—दिन उसने स्टाफ फाइलों से पता लगाया था। मैं आशा करती हूं कि आप बुरा नहीं मानेंगे, उसने बात पूरी की। बॉस ने उत्तर दिया कि उसने इस बात का जरा भी बुरा नहीं माना है, तो सचिव ने राहत की श्वास ली। तब ऐसा है सर, उसने बात को जारी रखते हुए कहा, यदि आप आज रात लगभग नौ बजे मेरे घर पधार सकें तो मुझे बेहद खुशी होगी। आपके लिए मेरे पास एक छोटा सा आश्चर्य है, जो मैं सोचती हूं किए आपको बहुत अच्छा लगेगा। बॉस ने अपने आप को इस बात के लिए मानसिक रूप से बधाई दी कि अंततः युवती ने मान ही लिया कि वह उसकी ओर आकर्षित है, और बॉस ने पूरे दिन सामान्य दिखने का प्रयास किया।

रात को ठीक नौ बजे हाथ में शैम्पेन की बोतल लिए हुए बॉस सचिव के फ्लैट पर पहुंचा। वह उस समय बहुत प्यारी दीख रही थी। और जब उसने स्कॉच का एक बड़ा पैग बना कर बॉस को दिया तो बॉस ने सोचा, कहीं युवती उसके जोरों से धड़कते हुए दिल की आवाज न सुन ले, युवती ने उससे कहा कि वह आराम से बैठे। यदि आपको अधिक गर्मी लग रही है तो अपने कपड़े ढीले कर लें, वह बोली, मैं तैयार होने के लिए जरा शयनकक्ष में जा रही हूं। जब मैं वहां से आपको बुलाऊं तो कृपया आप आ जाएं। यह तो कमाल ही हो गया। वह भी मेरे लिए उतनी ही उत्सुक है जितना कि मैं उसके लिए था, बॉस ने अपनी उपलब्धि पर प्रसन्न होते हुए सोचा। अब आप अंदर आ सकते हैं, अंततः युवती की पुकार आई, लेकिन सावधानी से आइएगा जिससे कि आप गिर न पड़े। यहां की सारी रोशनियां बुझी हुई हैं। हमारे हीरो बॉस ने इसे एक इशारा समझा। जल्दी से अपने सारे वस्त्र उतार कर वह अंधेरे कमरे में प्रविष्ट हो गया, और

अपने पीछे का द्वार जिससे वह भीतर आया था, बंद कर दिया। जैसे ही उसने ऐसा किया कि कमरा रोशनी से जगमगा उठा और उसने देखा कि उसके कार्यालय का सारा स्टॉफ कमरे के मध्य में खड़ा है और गा रहा है : ‘आपको जन्म—दिन मुबारक हो…।’

लोग केवल उसी बात को प्रकट करते हैं जिसे तुम अपने भीतर छिपाए हुए हो। यदि तुमको अनुभव होता है कि तुम पागलखाने में हो, तो निस्संदेह तुम पागल हो। पुरुषों के साथ और अधिक रहने का प्रयास करो, महिलाओं के साथ और अधिक रहने का प्रयास करो, लोगों के साथ और अधिक रहने का प्रयास करो। और अधिक संबंधों का प्रयास करो। यदि तुम मनुष्यों के साथ प्रसन्न नहीं रह सकते तो तुम्हारे लिए किसी वृक्ष या किसी नदी के साथ प्रसन्न रह पाना संभव नहीं है—असंभव है यह। यदि तुम एक मनुष्य को नहीं समझ सकते जो कि तुम्हारे इतना निकट है, तुमसे इतना मिलता—जुलता है, तो तुम यह आशा कैसे लगा सकते हो कि तुम किसी वृक्ष, किसी नदी, किसी पर्वत को समझने में समर्थ हो पाओगे जो इतने दूर हैं? एक पर्वत और तुम्हारे बीच में लाखों वर्ष की दूरी है। कभी लाखों जन्म पहले तुम पर्वत रहे होंगे लेकिन अब तुम वह भाषा पूरी तरह भूल चुके हो और पर्वत तुम्हारी भाषा नहीं समझ सकता। पर्वत को अभी मनुष्य होना है, उसे दीर्घ काल के विकास की आवश्यकता है। तुम्हारे और पर्वत के मध्य एक विशाल खाई है। यदि तुम अपने आप को मनुष्यों से, जो इतने पास, इतने समीप हैं, नहीं जोड़ सके; तो तुम्हारे लिए अपने आप को किसी और से जोड़ पाना असंभव है।

पहले अपने आपको मनुष्यों से जोडो। धीरे— धीरे तुम मनुष्यों को जितना अधिक समझ पाने में समर्थ हो जाओगे उतना ही अधिक तुम भीतरी संवाद, लय और सुसंगति के योग्य होते चले जाओगे। फिर तुम क्रमश: आगे बढ़ जाते हो। फिर पशुओं की ओर बढ़ो, यह दूसरा कदम है। फिर पक्षियों की ओर जाओ, फिर वृक्षों की ओर बढ़ो, फिर चट्टानों की ओर जाओ, और केवल तब तुम शुद्ध अस्तित्व की ओर जा सकते हो, क्योंकि स्रोत वही है। और हम उस स्रोत से इतने अधिक समय से दूर हैं कि हम पूरी तरह से भूल गए हैं कि कभी हम इससे संबंधित रहे थे या यह हमसे संबंधित था।

तीसरा प्रश्न:

प्‍यारे ओशो, मैं आपको, आपके शब्‍दों के पीछे, एक स्‍त्री के एक रूप में आपके प्रति आपकी प्रेमपूर्ण करूणा को, सुनती हूं, यह कभी—कभी मुझे आंदोलित कर देती है, और मैं यह भी अनुभव करती हूं कि संबोधि के आनंद को अनुभव करने के लिए मेरा स्‍त्रीपन मुख्‍य बाधा है। क्‍योंकि सभी संबुद्ध व्‍यक्‍ति जिनको आप बात करते है, पुरूष है, और शायद यह इसलिए है क्‍योंकि आपके निजी अनुभव भी एक पुरूष के रूप में है। एक स्‍त्री के रूप में मेरे लिए संबोधि क्‍या है, कृपा इसके बारे में आप कुछ कहना चाहेंगे।

पहली बात, समझ पाने के लिए स्त्री होना कभी अवरोध नहीं होता है। वस्तुत: मुझको समझ पाने का इससे बेहतर अवसर तुमको नहीं मिल सकता। पुरुष के लिए समझ पाना कठिन है क्योंकि पुरुष के पास आक्रामक मन है। पुरुष आसानी से वैज्ञानिक बन जाता है, लेकिन उसके लिए एक धार्मिक व्यक्ति बन पाना बहुत कठिन है, क्योंकि धर्म को ग्रहणशीलता की, चेतना की एक निष्क्रिय अवस्था की आवश्यकता होती है, जिसमें तुम आक्रमण न करो, आमंत्रित करो। समझने के लिए, शिष्य होने के लिए स्त्रैण मन बिलकुल उचित मन है। पुरुष मन को भी स्त्रैण मन बनना पड़ता है। इसलिए इसे एक अवरोध की भांति मत समझो, यह रुकावट नहीं है।

दूसरी बात, यह वास्तव में एक बड़ी समस्या है, क्योंकि हम इसको नहीं समझते। समस्याएं केवल इसीलिए हैं क्योंकि हम उन्हें समझते नहीं हैं। बार—बार यह मुझसे पूछा जाता है कि मैं सदैव उन पुरुषों के बारे में क्यों बोलता हूं जो सबुद्ध हुए, लेकिन सबुद्ध स्त्रियों के बारे में क्यों नहीं बोलता हूं। अनेक स्त्रियां ज्ञानोपलब्ध हुई हैं, जितने पुरुष उतनी स्त्रियां। प्रकृति एक विशेष संतुलन बना कर रखती है। देखो.. .संसार में स्त्रियों और पुरुषों की संख्या करीब—करीब एक सी रहती है। ऐसा होना तो नहीं चाहिए, लेकिन प्रकृति संतुलन बना कर रखती है। हो सकता है कि एक व्यक्ति के घर में केवल लडकों का ही, दस लड़कों का जन्म हो; किसी और के घर में शायद केवल एक ही लड़के का जन्म हो, किसी और के घर में केवल एक लड़की का जन्म हो—लेकिन पूरे संसार में प्रकृति सदैव संतुलन बना कर रखती है। यहां पर उतने ही पुरुष हैं जितनी कि स्त्रियां हैं। न केवल यही, बल्कि स्त्री पुरुष की तुलना में अधिक शक्तिशाली होती है—अपनी प्रतिरोधक क्षमता, स्थायित्व, समायोजन की क्षमता में, लोचपूर्ण होने में, वह अधिक बलशाली है—सौ लड़कियों पर एक सौ पंद्रह लड़कों का जन्म होता है। लेकिन जिस समय तक वे लड़कियां विवाह योग्य होती हैं वे पंद्रह लड़के विदा हो चुके होते हैं। लड़कियों की तुलना में अधिक लड़कों की मृत्यु होती है। प्रकृति यह व्यवस्था भी करती है। सौ लडकियां और एक सौ पंद्रह लड़कों का जन्म होता है, फिर विवाह योग्य अवस्था आते—आते पंद्रह लड़के काल के गाल में समा जाते हैं। संतुलन को पूरी तरह बना कर रखा जाता है। न केवल यही, बल्कि जब युद्ध के समय में अधिक पुरुष मरते हैं तब भी संतुलन बना दिया जाता है।

प्रथम विश्वयुद्ध ने मनोवैज्ञानिकों, जीववैज्ञानिकों के सम्मुख एक समस्या खड़ी कर दी। उनको विश्वास नहीं हो सका कि क्या हो गया है। युद्ध में अधिक पुरुष मरते हैं, लेकिन युद्ध के तुंरत बाद अधिक लड़कों का जन्म होता है और लड़कियों का जन्म कम होता है। पुन: संतुलन बना दिया जाता है। प्रथम विश्वयुद्ध में यही हुआ। इसका कारण उस समय जरा भी समझ में नहीं आया। यह बस एक रहस्य था। द्वितीय विश्वयुद्ध में पुन: यही हुआ। युद्ध के बाद जन्म लेने वाले लड़कों की संख्या बढ़ गई। मरे हुए पुरुषों के स्थानापन्न के रूप में अधिक लड़कों का जन्म हुआ और कम लड़कियां जन्मी, क्योंकि वहां पहले से ही अधिक महिलाएं जीवित थीं। जब युद्ध समाप्त हो गया तो पुन: संतुलन उपलब्ध कर लिया गया, और लड़कों और लड़कियों की संख्या पुन: पुराने ढांचे पर वापस लौट आई—सौ लड़कियां और एक सौ पंद्रह लड़के—क्योंकि पंद्रह लड़के मर जाएंगे।

लड़के लड़कियों की तुलना में कम ताकतवर होते है। स्त्रियों की तुलना में पुरुष पांच वर्ष कम जीवित रहते हैं। यही कारण है कि संसार में तुम्हें वृद्धों की तुलना में वृद्धाएं, विधुरों की तुलना में विधवाएं सदैव अधिक मिलेंगी। यदि स्त्री के लिए औसत आयु अस्सी वर्ष हो, तो पुरुष के लिए यह औसत पचहत्तर वर्ष है। यह पांच वर्ष अधिक है। लेकिन क्यों, स्त्रियां पांच वर्ष अधिक क्यों जीवित रहती हैं? यह भी कहीं न कहीं एक महत आंतरिक संतुलन प्रतीत होता है। स्त्री पुरुष की तुलना में स्वीकार करने में अधिक समर्थ होती है। यदि पुरुष की मृत्यु पहले हो जाती है, तो स्त्री रोकी, चिल्लाकी, दुखी होगी, किंतु इस तथ्य को स्वीकार करने में समर्थ रहेगी। वह पुन संतुलन प्राप्त कर लेगी। किंतु यदि स्त्री मर जाती है, तो पुरुष पुन: संतुलन नहीं पा सकता। संतुलन पा लेने का जो एकमात्र उपाय उसे पता है वह है पुन: विवाह कर लेना, पुन: एक अन्य स्त्री को पा लेना, वह अकेला नहीं जी सकता। स्त्री की तुलना में वह अधिक असहाय है।

सामान्यत: सारे संसार में विवाह योग्य आयु अप्राकृतिक है। हर कहीं पुरुष ने एक व्यवस्था थोप दी जो अप्राकृतिक, प्रकृति के विपरीत है। यदि लड़की की आयु बीस वर्ष है तो हम सोचते हैं कि जो लड़का उसके साथ विवाह करने जा रहा है उसकी आयु पच्चीस या छब्बीस वर्ष होनी चाहिए। इसे तो बिलकुल विपरीत हो जाना चाहिए, क्योंकि बाद में लड़कियां पांच वर्ष अधिक जीने वाली हैं। इसलिए यदि विवाह के लिए लड़कों की आयु बीस वर्ष हो तो लड़कियों की आयु सीमा पच्चीस वर्ष होनी चाहिए। प्रत्येक पुरुष को उस स्त्री से विवाह .करना चाहिए जो आयु में उससे कम से कम पांच वर्ष बड़ी हो। तब संतुलन ठीक होगा। तब उनकी मृत्यु एक—दूसरे से लगभग छह माह के अंतराल पर होगी, और तब संसार में पीड़ाएं और कम हो जाएंगी।

लेकिन ऐसा हो क्यों नहीं पाया है ?—क्योंकि विवाह कोई प्राकृतिक बात नहीं है। अन्यथा प्रकृति ने उसे इसी ढंग से व्यवस्थित कर लिया होता। यह पुरुष निर्मित संस्था है। और पुरुष, यदि वह किसी ऐसी स्त्री के साथ विवाह करने जाए जो आयु में बड़ी है, अधिक अनुभवी है, उसकी तुलना में अधिक जानकारी रखती है, तो उसे जरा कमजोरी अनुभव होती है। वह अपना पुरुष श्रेष्ठता का अहंकार, कि वह प्रत्येक प्रकार से श्रेष्ठ है, कायम रखना चाहता है। कोई पुरुष ऐसी स्त्री से विवाह नहीं करना चाहता जो उससे लंबाई में ज्यादा हो। मूर्खतापूर्ण है यह सब। क्या अर्थ है इसमें? उस स्त्री से विवाह क्यों नहीं करते जो तुमसे लंबी है? लेकिन पुरुष का अहंकार स्वयं से अधिक लंबी स्त्री के साथ घूमने—फिरने में आहत अनुभव करता है। हो सकता है यही कारण है कि इसीलिए स्त्रियां इतनी लंबी नहीं होतीं—क्योंकि स्त्री के शरीर ने इस बात को सीख लिया है। उन्होंने उपाय सीख लिया है, क्योंकि उनको जरा सा छोटा ही बना रहना है, वरना उनको अपने लिए कभी कोई पुरुष नहीं मिल पाएगा। यही योग्यतम की उत्तरजीविता है। उनका समायोजन तभी हो पाएगा जब वे अधिक लंबी न हों। कोई बहुत लंबी स्त्री.. .जरा एक सात फीट लंबी स्त्री के बारे में सोचो; उसे पति नहीं मिल पाएगा। वह बिना पति के ही मर जाएगी। और वह बच्चों को जन्म भी नहीं देगी, वह खो जाएगी। एक स्त्री जो पांच फीट लंबी है, उसे पुरुष सरलता से मिल जाएगा। बची रहेगी वह; उसका पति होगा, उसके बच्चे होंगे। निस्संदेह अधिक लंबी स्त्रियां धीरे— धीरे मिट जाएंगी, क्योंकि उनमें उत्तरजीविता की योग्यता नहीं होगी। यही कारण है कि धीरे— धीरे संसार से कुरूप स्त्रियां खो जाएंगी, क्योंकि वे बची नहीं रह सकतीं। संसार उनकी सहायता करता है जो बच सकते हैं, और जो बच नहीं सकते वे मिट जाते हैं। पुरुष और लंबा, और शक्तिशाली हो गया, क्योंकि वह हर ढंग से स्वयं को स्त्रियों से कुछ ऊंचा बनाए रखना चाहता है। वह सदैव हर चीज के शिखर पर रहना चाहता है।

पश्चिम तक में, लोगों ने पूरब आकर वात्मायन के काम—सूत्रों की जानकारी से पहले, कभी सुना तक नहीं था कि स्त्री पुरुष के ऊपर होकर संभोग कर सकती है। पश्चिम इसको जानता ही नहीं था। और तुमको यह जान कर हैरानी हो सकती है कि स्त्री के ऊपर से पुरुष द्वारा संभोग करते समय की मुद्रा को पूरब में मिशनरी आसन कहा जाता है, क्योंकि पूरब ने इसे पहली बार ईसाई मिशनरियी के द्वारा जाना। यह मिशनरी आसन है। पुरुष को हर तरह से शीर्ष पर होना चाहिए, संभोग करते समय भी। उसकी लंबाई अधिक होनी चाहिए, शिक्षा अधिक होना चाहिए। यदि तुम किसी ऐसी स्त्री से विवाह करने जा रहे हो जो पीएचडी. है, तो यदि तुम पीएचडी. नहीं हो तो तुमको थोड़ी सी बेचैनी अनुभव होगी। तुम्हें कम से कम डीलिट तो होना चाहिए, केवल तभी तुम पीएचडी. स्त्री से विवाह कर सकते हो। अन्यथा प्राकृतिक रूप से तो स्त्री को पुरुष से पांच वर्ष बड़ा होना चाहिए। और यह बिलकुल उचित व्यवस्था प्रतीत होती है, क्योंकि स्त्री को अधिक अनुभवी होना चाहिए। वह मां बनने जा रही है, न केवल अपने बच्चों की मां बल्कि अपने पति की भी मां बनने जा रही है। और पुरुष बचकाना बना रहता है। चाहे उसकी आयु जो भी हो, वह पुन बच्चा बनने को लालायित रहता है। वह सदैव थोड़ा सा किशोरवय बना रहता है।

अब संबोधि के साथ भी यही हो गया है—प्रकृति ठीक संतुलन बना कर रखती है। लेकिन यह सच है कि हमने बहुत सी सबुद्ध स्त्रियों के बारे में नहीं सुना हैं—क्योंकि समाज पुरुषों का है। वे स्‍त्रीयों के बारे में कोई खास अभिलेख नहीं रखते हैं। वे गौतम बुद्ध के बारे में बहुत कुछ अभिलेखित करते हैं, लेकिन वे सहजो के बारे में अधिक अभिलेखन नहीं करते। वे मोहम्मद के बारे में बहुत कुछ

अभिलेखित करते हैं, किंतु वे राबिया के बारे में कोई बहुत अधिक अभिलेखन नहीं करते। वे इस ढंग से अभिलेखन करते हैं कि पुरुष बहुत प्रभावशाली प्रतीत होते हैं। भारत में ऐसा हुआ है : एक जैन तीर्थंकर, एक जैन सदगुरु, एक सबुद्ध व्यक्ति पुरुष नहीं था, वह स्त्री थी। उसका नाम मल्ली बाई था, लेकिन जैन धर्म के अनुयायियों के एक बड़े समुदाय ने उसका नाम परिवर्तित कर दिया। वे उसको मल्ली बाई नहीं, मल्ली नाथ कहते हैं।’बाई’ यह प्रदर्शित करता है कि वह स्त्री थी; ‘नाथ’ यह प्रदर्शित करता है कि वह पुरुष था।

जैनों के दो पंथ हैं : श्वेतांबर और दिगंबर। दिगंबरों का कहना है कि वह स्त्री नहीं थी, मल्लीनाथ। उन्होंने उसका नाम तक बदल डाला। यह बात पुरुष अहंकार के प्रतिकूल प्रतीत होती है कि एक स्त्री तीर्थंकर, एक महान सदगुरु, सबुद्ध, धर्म की संस्थापक, दिव्यता की ओर जाने वाले पथ की प्रणेता बन जाए? नहीं, संभव नहीं है यह। उन्होंने नाम ही बदल डाला है।

इतिहास का अभिलेखन पुरुषों द्वारा किया गया है, और स्त्रियों को घटनाओं के अभिलेखन में जरा भी रस नहीं है। वे उनको जीने और अनुभव करने में अधिक उत्सुक हैं. एक बात तो यही है। दूसरी बात यह है कि स्त्री के लिए शिष्य बन जाना सरल है, शिष्य बन पाना स्त्री के लिए अत्यधिक सरल है, क्योंकि वह ग्रहणशील है। पुरुष के लिए शिष्य बन पाना कठिन है क्योंकि उसे समर्पण करना पड़ता है, और यही उसकी परेशानी है। वह संघर्ष कर सकता है लेकिन वह समर्पण नहीं कर सकता। इसलिए जब शिष्यत्व की बात आती है तो इसके लिए स्त्रियां बिलकुल उचित पात्र हैं। लेकिन जब तुमको सदगुरु बनना हो तो बिलकुल विपरीत घटता है।

एक पुरुष आसानी से सदगुरु बन सकता है। स्त्री के लिए सदगुरु हो जाना बहुत कठिन लगता है। क्योंकि सदगुरु हो पाने के लिए तुमको वास्तव में आक्रामक होना पड़ता है। तुमको बाहर निकल कर दूसरों की मानसिक संरचनाएं नष्ट करनी पड़ती हैं। तुम्हें करीब—करीब हिंसक हो जाना पड़ता है, तुमको अपने शिष्यों को मारना पड़ता है। तुमको उनके मन को साफ करना पड़ता है। इसलिए स्त्री को सदगुरु होना कठिन लगता है, पुरुष को शिष्य हो पाना कठिन लगता है। लेकिन पुन: वहां एक संतुलन है, स्त्रियों को शिष्य बन जाना सरलतर लगता है, और शिष्य बन कर वे सबुद्ध हो जाती हैं, लेकिन वे सदगुरु कभी नहीं बनतीं। पुरुष के लिए शिष्य बन पाना कठिन है, लेकिन एक बार वह शिष्य बन जाए, सबुद्ध हो जाए, तो उसके लिए सदगुरु बन जाना बहुत सरल है, यह उसके लिए बहुत आसान है, सरलतर है। यही कारण है कि तुमने कभी स्त्री सदगुरु के बारे में नहीं सुना है.. .लेकिन उसकी चिंता में मत पड़ो।

तुम्हारे स्वयं के अनुभव एक स्त्री की भांति हैं। स्मरण रखो, परम के अनुभव को स्त्री या पुरुष से कुछ भी लेना—देना नहीं है। परम का अनुभव इस द्वैत के परे है। इसलिए जब तुम्हें संबोधि घटित होती है, उस क्षण में तुम न पुरुष होते हो और न स्त्री। उस पल में तुम सारे द्वैत का अतिक्रमण कर जाते हो। तुम एक पूर्ण वर्तुल बन चुके हो, किसी विभाजन का अस्तित्व नहीं रहा है। इसलिए जब मैं तुमसे बात कर रहा हूं तो मैं एक पुरुष की भांति, संबोधि के बारे में, नहीं बोल रहा हूं। कोई भी संबोधि के बारे में एक पुरुष की भांति नहीं बोल सकता, क्योंकि संबोधि न पुरुष है और न स्त्री। भारत में परम सत्ता न तो स्त्री है, न पुरुष, वह उभयलिंगी है।

तुम .कठिनाई में पड़ जाओगी. पश्चिम मन में ईश्वर पुरुष है। महिला मुक्ति आंदोलन की स्त्रियों के अतिरिक्त, जिन्होंने ईश्वर को ‘शी’ कहना आरंभ कर दिया है, तुम ईश्वर के लिए ‘ही’ का प्रयोग करते हो। वरना ईश्वर के लिए कोई भी ‘शी’ का प्रयोग नहीं करता; तुम ‘ही’ प्रयोग करते हो। और मैं भी सोचता हूं कि— ‘शी’ बेहतर रहेगा।’शी’ में ‘ही’ सम्मिलित है— ‘एस’ के बाद वहां ‘ही’ हैं—लेकिन ‘ही’ में ‘एस’ शामिल नहीं है। यह बेहतर है, यह ईश्वर को थोड़ा बड़ा कर देता है।’ही’ से ‘शी’ बडा है; इसमें कुछ भी गलत नहीं है।

लेकिन पश्चिम के मन में ईश्वर ‘ही’ है। पश्चिम की भाषाओं में केवल दो ही लिंग होते हैं स्त्रीलिंग और पुरुषलिग। भारतीय भाषाओं में, विशेषतौर से संस्कृत में हमारे पास तीन लिंग होते हैं : स्त्रीलिंग, पुरुषलिग और उभयलिग। ईश्वर उभयलिंगी है। वह न ही पुरुष है और न ही स्त्री, वह दोनों ही नहीं है। वह यह है, तत, वह है—व्यक्तित्व खो चुका है। वह अवैयक्तिक है, मात्र ऊर्जा है। इसलिए इसके बारे में जरा भी चिंता मत करो।

‘एक स्त्री के रूप में मेरे लिए संबोधि क्या है, कृपया इसके बारे में आप कुछ कहना चाहेंगे।

स्वयं को एक स्त्री के रूप में सोचना बंद कर दो, वरना तुम स्त्रैण मन से चिपक जाओगी। पुरुष या स्त्री, सभी मनों का त्याग करना पड़ेगा। गहन ध्यान में तुम स्त्री या पुरुष दोनों में से कुछ भी नहीं होते। गहरे प्रेम में भी तुम स्त्री या पुरुष कुछ नहीं होते। क्या तुमने कभी इसे देखा है?

यदि तुमने किसी स्त्री या पुरुष के साथ प्रेममय संभोग किया है, और तुम्हारा प्रेम वास्तव में परिपूर्ण और चरम था तो तुम भूल जाते हो कि तुम कौन हो, पुरुष या स्त्री? यह मन को हतप्रभ करने वाला अनुभव है। तुम बस जानते ही नहीं कि तुम कौन हो। काम— भोग की गहराई में, उत्कर्ष के किसी क्षण में एकात्मता घटित हो जाती है। तंत्र का पूरा प्रयास यही है. काम— भोग को एकात्मता की अनुभुति में रूपांतरित कर देना—क्योंकि तुम्हारे लिए यह एकात्म होने का पहला अनुभव होगा, और संबोधि एकात्म होने का अंतिम अनुभव है। गहरे संभोग में तुम मिट जाते हों—पुरुष स्त्री की भांति हो जाता है, स्त्री पुरुष की भांति हो जाती है, और अनेक बार वे अपनी भूमिकाएं बदल लेते हैं। और फिर एक पल आता है जब तुम दोनों एक परिपूर्ण लयबद्धता में हो जाते हो, तब ऊर्जा का एक वर्तुल उठ जाता है, वह दोनों नहीं होता। उसको अपना पहला अनुभव बन जाने दो। संबोधि का आधारभूत अनुभव पहली झलक प्रेम है। फिर एक दिन जब तुम और समग्र गहन प्रेमालिंगन में मिलते हो, यही समाधि, एक्सटैसी है। तब तुम स्त्री या पुरुष नहीं रह जाते। इसलिए बिलकुल आरंभ से ही विभाजन को गिराना आरंभ कर दो।

पश्चिम की चेतना में यह विभाजन बहुत, बहुत ही मजबूत बन चुका है, क्योंकि पुरुष ने स्त्री का इतना अधिक दमन किया है कि स्त्री को प्रतिरोध करना पड़ता है। और वह प्रतिरोध तभी कर सकती है जब वह अपने स्त्री होने के प्रति और— और चेतन होती चली जाए। पश्चिम से तुम जब मेरे पास आते हो तो तुम्हारे लिए यह समझना कठिन हो जाता है, किंतु तुमको इस बात को समझना पड़ेगा और स्त्री—पुरुष के विभाजन को छोड़ना पडेगा। बस मनुष्य बन कर रहो। और यहां मेरा पूरा प्रयास तुम्हें तुम्हारा मौलिक अस्तित्व बना देना हैं, जो स्त्री या पुरुष कुछ भी नहीं है।

अंतिम प्रश्न:

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे कि आपके पास आने में मेरा कोई चुनाव नहीं था। क्‍या कभी हम वास्‍तव उन चीजों को चून लेते है जो हमारे जीवन में घटित होती है?

सामान्यत: नहीं। आमतौर से तुम रोबोट, एक यांत्रिक वस्तु की भांति आकस्मिक ढंग से चलते— फिरते हो। जब तक कि तुम पूर्णत: जाग्रत न हो जाओ तुम चुनाव नहीं कर सकते। और यहां एक विरोधाभास आता है तुम जागरूक तभी हो सकते हो जब तुम चुनाव—शून्य हो जाओ; और तुम जागरूक हो जाओ, तो तुम चुनाव करने में समर्थ हो जाते हो। तुम चुनाव कर सकते हो—क्योंकि जब तुम जागरूक हो तभी तुम निर्णय कर सकते हो कि क्या करना है और क्या नहीं करना है। आमतौर पर तुम करीब—करीब नशे की अवस्था में रहते हों—एक निद्रागामी, जो कि तुम हो।

मैं तुमको कुछ कहानियां सुनाता हूं।

एक पादरी अपने मित्र से निराशापूर्वक कह रहा था कि उसकी साइकिल चोरी हो गई है।

मित्र ने कहा. ठीक है, तुम आगामी रविवार को अपने उपदेश के लिए ‘दस आशाओं’ को विषय के रूप में क्यों नहीं चुनते? उनको श्रद्धालुओं के सम्मुख पढ़ कर सुना देना। जब तुम उस आशा को पढो जो कहती है. तुमको चोरी नहीं करना चाहिए, तब रुक जाना और धर्मसभा पर एक दृष्टि डालना, और यदि वह चोर वहां उपस्थित होगा तो शायद उसके चेहरे के भावों से वह पहचान में आ जाएगा।

अगले सप्ताह उसी मित्र ने पादरी को गांव में साइकिल पर भ्रमण करते हुए देखा और उसको रोक लिया, मैं देख रहा हूं कि तुम्हारी साइकिल वापस मिल गई है। क्या मेरी राय से काम बन गया?

ठीक है, पूरी तरह से तो नहीं, पादरी ने कहा, मैंने दस आशाओं पर बोलना आरंभ कर दिया था लेकिन जब मैंने पढ़ा : तुमको वेश्यागमन नहीं करना चाहिए, तब मुझे याद आ गया कि मैं अपनी साइकिल कहां छोड़ आया था।

एक दूसरी कहानी :

एक प्रतिष्ठित व्यवसायी चिकित्सक के पास गया, डाक्टर साहब, उसने कहा. मुझको आपसे अपने पुत्र के बारे में बात करनी है। मुझे विश्वास है कि उसको खसरा हो गया है।

आजकल इस बीमारी का प्रकोप बहुत अधिक है, डाक्टर ने कहा. लगता है कोई भी परिवार इससे बच नहीं पा रहा है।

लेकिन डाक्टर साहब, उसने कहना जारी रखा, मेरा लड़का कहता है कि उसे यह बीमारी नौकरानी का चुंबन लेने से लगी है। और आपको सच्ची बात बता दूं मुझको भय है कि मुझको इसी बीमारी का खतरा है.। और बुरी बात तो यह है कि प्रत्येक रात्रि को मैं अपनी पत्नी का चुंबन लिया करता हूं इसलिए उसे भी बीमारी हो जाने का खतरा है।

ओह मेरे भगवान! डाक्टर ने कहा. मुझे क्षमा करें महोदय, मुझे तुंरत जाना है और अपने गले की जांच करवानी है।

समझ गए?

प्रत्येक व्यक्ति अचेतनता के एक वर्तुल में घूम रहा है, और लोग अपनी बीमारियों, रोगों, अपनी बेहोशियों का लेन—देन कर रहे हैं, एक—दूसरे के साथ केवल अपनी अचेतनता बांट रहे हैं।

आमतौर से तुम इस भांति जीते हो जैसे कि तुम सोए हुए हो। जब तुम सोए हुए हो तब तुम निर्णय नहीं ले सकते। कैसे निर्णय लोगे तुम?

बुद्ध के पास एक व्यक्ति आया और उसने कहा, ‘मैं मानवता की सेवा करना चाहता हूं।’ अवश्य ही वह बहुत लोकोपकारी व्यक्ति रहा होगा। बुद्ध ने उसकी ओर देखा, और कहा जाता है कि बुद्ध की आंखों से आंसू छलक पड़े। यह विचित्र बात थी। बुद्ध रो रहे हैं।—किसलिए? उस व्यक्ति को बहुत बेचैनी अनुभव हुई। उसने कहा : आप किसलिए रो रहे हैं? क्या मैंने कुछ गलत कह दिया है? बुद्ध ने कहा नहीं, कुछ गलत नहीं कहा। लेकिन तुम मानवता की सेवा किस प्रकार कर सकते हो? —अभी तो तुम हो ही नहीं। मुझको दिखाई पड़ रहा है कि तुम गहन निद्रा में हो; मैं तुम्हारे खर्राटे भी सुन सकता हूं। यही कारण है कि मैं रो रहा हूं। और तुम मानवता की सेवा करना चाहते हो? पहली: बात है, जागरूक, सजग हो जाना। पहली बात है, होना।

एक बॉस अपनी सुंदर किंतु बहरी सचिव से बहुत परेशान था, एक सुबह तो वह अपना आपा खो बैठा। तुम फिर से देर से आई हो। वह गरज कर बोला, तुम उस अलार्म घड़ी का प्रयोग क्यों नहीं करती जो मैंने तुमको खरीद कर दी थी?

लेकिन मैं सदैव उसका प्रयोग करती हूं। उसने विनम्रतापूर्वक कहा, हर रात्रि अलार्म लगा कर सोया करती हूं।

ठीक है, बॉस ने कहा, जब अलार्म बजता है तो तुम जागती क्यों नही?

लेकिन वह सदैव उसी समय बोलता है जब मैं सो रही होती हूं।

जो हो रहा है वह यही तो है। तुम सो रहे हो, और जब तुम सो रहे हो तो अलार्म घडी भी कुछ कर नहीं सकती है। क्या तुमने कभी यह बात नहीं देखी है कि यदि तुम सो रहे और अलार्म घड़ी बजने लगे तो तुम कोई स्वप्न देखने लगते हो ऐसा स्वप्न कि तुम एक मंदिर में हो और मंदिर की घंटियां बज रही हैं? इस तथ्य से बचाव करने के लिए कि अलार्म घड़ी बज रही है, तुम इसके चारों ओर एक स्वप्न निर्मित कर लेते हो। और तब निःसंदेह तुम सोना जारी रखते हो, अब वहां कोई अलार्म घड़ी नहीं है। यही तो है जो तुम्हारे साथ लगातार घट रहा है। तुम मुझको सुनते रहते हो, लेकिन मैं जानता हूं कि तुम इसके चारों ओर एक स्वप्न निर्मित कर लोगे। यदि तुम मुझे सुनते हो तो तुम्हें जागना पड़ता है, लेकिन समस्या यह है कि क्या तुम मुझको सुनोगे? या क्या जो मैं कहता हूं तुम उसके चारों ओर कोई स्वप्न निर्मित कर लोगे?

और तुम स्वप्न निर्मित करते हो। तुम समाधि के बारे में भी स्वप्न निर्मित कर सकते हो। तुम समाधि के बारे में स्वप्न देखना आरंभ कर सकते हो, तुम मुझसे चूक गए हो। और लोग चूकते चले जाते हैं। संदेश की व्याख्या तुम्हें करनी पड़ती है, यही समस्या है।

मैंने सुना है, एक बड़ी कंपनी के मालिक ने एक सूचना—पट खरीदा, जिस पर लिखा था ‘इसे अभी कर लो।’ और उसने इस सूचना—पट को कार्यालय में इस आशा में लटका दिया कि इससे ‘उसके कर्मचारियों को काम त्वरित ढंग से निपटाने में प्रेरणा मिलेगी। कुछ दिन बाद उसके एक’ मित्र ने पूछा कि क्या उस सूचना—पट को कोई प्रभाव पड़ा? उस ढंग से तो नहीं जिस ढंग से मैंने सोच रखा था, बॉस ने स्वीकार किया। कैशियर दस हजार डालर लेकर भाग गया— ‘इसे अभी कर लो’,—मुख्य अभिलेख अधीक्षक मेरी निजी सचिव को लेकर भाग गया— ‘इसे अभी कर लो’ —तीनों लिपिकों ने वेतन वृद्धि की मांग कर दी है, टाइप करने वाली ने अपना पुराना टाइपराइटर खिड़की से बाहर फेंक दिया है— ‘इसे अभी कर लो’ —और चपरासी ने लगता है कि.. .मेरी कॉफी में… आह.. .जहर मिला दिया… आह!

तुम अपनी निद्रा की अवस्था के माध्यम से सुनते हो, तुम अपने स्वयं के ढंग से इसक्तई व्याख्या कर लोगे। इसलिए यदि तुम वास्तव में मुझे सुनना चाहते हो, तो व्याख्या मत करो।

अभी उस रात को ही, एक नये आए हुए युवक ने संन्यास लिया, मैंने उससे कहा, कुछ दिन के लिए यहां रहो। उसने कहा लेकिन मैं तो दो या तीन दिन में जा रहा हूं। मैंने कहा लेकिन यह ठीक नहीं है। बहुत कुछ किया जाना शेष है, और तुम तो बस अभी आए हो। अभी तो तुम्हारा मुझसे संपर्क भी नहीं हो पाया है। इसलिए कम से कम आगामी ध्यान शिविर तक तो रुको और कुछ दिन और ठहरो। वह बोला, मैं इसके बारे में विचार करूंगा। तब मैंने उससे कहा फिर तो विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम चले जाओ। क्योंकि तुम जो कुछ भी सोचोगे वह गलत ही होने वाला है। और संन्यास की पूरी बात यही है कि तुम मेरी बात को, इसके बारे में सोचे—विचारे बिना सुनना आरंभ कर दो। सारी बात यही है कि मैं तुमसे जो कुछ भी कहूं वह तुम्हारे लिए तुम्हारे स्वयं के मन से अधिक महत्वपूर्ण बन जाए। संन्यास का सारा अभिप्राय यही है। अब यदि, जो मैं कहता हूं और तुम्हारे मन के बीच कोई संघर्ष हो तो तुम अपने मन को छोड़ दोगे और तुम मुझको सुन लोगे। यही तो खतरा है। यदि तुम लगातार यह निश्चित करने के लिए कि जो मैं कह रहा हूं उसे किया जाना है या नहीं, अपने मन का उपयोग किए चले जाते हो, तो तुम जैसे तुम थे वैसे ही बने रहते हो। तुम बाहर नहीं निकलते। तुम अपना हाथ मेरे निकट नहीं लाते, ताकि मैं उसे थाम सकूं।

आमतौर से सभी कुछ तुम्हारे साथ घट रहा है, तुमने कुछ भी नहीं किया है।

‘मुझे ऐसा अनुभव होता है जैसे कि आपके पास आने में मेरा कोई चुनाव नहीं था।’

बिलकुल सच है यह बात। तुम किसी तरह से भटकते हुए आ गए हो। कोई मित्र मेरे पास आ रहा था और उसने तुमसे साथ चलने के लिए कह दिया, या तुम बस किसी पुस्तकों की दुकान में गए थे और वहा तुमको मेरी कोई पुस्तक मिल गई।

एक संन्यासी आया और मैंने उससे पूछा, तुम मुझसे मिलने किस प्रकार से आए? पहली बार मुझमें तुम्हारी रुचि कैसे जाग्रत हुई? उसने कहा मैं गोआ में समुद्र—तट पर बैठा हुआ था, और बस रेत में मुझे संन्यास पत्रिका पड़ी हुई दिखाई दी, कोई व्यक्ति उसे वहां छोड़ गया था। अब करने को कुछ था भी नहीं सो मैंने उसे पढ़ना शुरू कर दिया। इस प्रकार से मैं यहां पर आ गया। आकस्मिक ढंग से

तुम मेरे पास आकस्मिक ढंग से आ गए हो, लेकिन अब मेरे साथ सजगतापूर्वक रहने का, मेरे साथ पूरे होश से रहने का यह एक अवसर है। यह शुभ है कि तुम आकस्मिक रूप से मेरे पास आ गए हो लेकिन यहां पर आकस्मिक ढंग से मत रहो। अब इस आकस्मिकपन को छोड़ दो। अब अपनी जागरूकता का स्वामी बनना आरंभ करो। अन्यथा फिर कोई और पुन: तुम्हें आकस्मिक ढंग से कहीं और ले जाएगा।

पुन: तुम भटकते हुए मुझसे दूर हो जाओगे—क्योंकि जो यूं ही भटकता हुआ आ गया है उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। वह पुन: भटक जाएगा, कुछ और घटित हो जाएगा। कोई नेपाल जा रहा है, और यह खयाल’ —तुमको आएगा—क्यों न नेपाल चला जाए? और तुम नेपाल चले जाते हो। और वहां तुम्हें कोई गर्लफ्रेंड मिल जाती है, जो कि संन्यास के विरोध में है, अब क्या किया जाए? तुमको अपना संन्यास छोड़ना पड़ता है।

अब जब कि तुम यहां हो, तो इस अवसर का उपयोग कर लो, लोग अवसरों का नितांत अचेतन ढंग से भी उपयोग कर लेते हैं। इसका चेतन ढंग से उपयोग कर लो।

मजिस्ट्रेट ने पूछा : किस बात ने तुमको पत्नी को चोट पहुंचाने के लिए उकसाया था?

पति ने कहा : योर ऑनर, उसकी पीठ मेरी ओर थी, फ्राइंगपैन हलका था, पिछला दरवाजा खुला हुआ था, और मैं हलके नशे में था, इसलिए मैंने सोचा कि मैं एक कोशिश करूंगा।

लोग अपने अवसरों का अचेतन ढंग से प्रयोग कर लेते हैं। इस अवसर का चेतन ढंग से उपयोग कर लो, क्योंकि यह अवसर ऐसा है कि इसका प्रयोग केवल चैतन्यतापूर्वक ही किया जा सकता है।

आज इतना ही।

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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–97

February 26, 2015, 5:08 am

साक्षी स्‍वप्रकाशित है—(प्रवचन—सत्रहवां)

योग—सूत्र

(कैवल्‍यपाद)

सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तह्मभो: पुरुषस्यपिम्णामित्वात्।। 18।।

मन की वृत्तियों का ज्ञान सदैव इसके प्रभु, पुरुष, को शुद्ध चेतना के सातत्य के कारण होता है।

न तत्‍स्‍वाभासं दृश्यत्यात्।। 19।।

मन स्व प्रकाशित नहीं है, क्योंकि स्वयं इसका प्रत्यक्षीकरण हो जाता है।

एकसमये चोभयानवधारणमू।। 20।।

मन के लिए अपने आप को और किसी अन्य वस्तु को उसी समय में जानना असंभव है।

चित्तान्तरदृश्ये बुद्धिबुद्धेरतिप्रसङ्ग: स्मृतिसंकरश्च।। 21।।

यदि यह मान लिया जाए कि दूसरा मन पहले मन को प्रकाशित करता है, तो बोध के बोध की कल्पना करनी पड़ेगी, और इससे स्मृतियों का संशय उत्पन्न होगा।

चितेखतिसंक्रमायास्तदाकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनमू।। 22।।

आत्म—बोध से अपनी स्वयं की प्रकृति का ज्ञान मिल जाता है, और जब चेतना इस रूप में आ जाती है तो यह एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं जाती।

द्रष्ट्रदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम्।। 23।।

जब मन ज्ञाता और ज्ञेय के रग में रंग जाता है, तब यह सर्वज्ञ हो जाता है।

तदसंख्येयवासनाभिश्चित्रमपि परार्थं संहत्यकारित्वात्।। 24।।

यद्यपि मन असंख्य वासनाओं के रंग में रंगता है, फिर भी मन लगातार उनकी पूर्ति हेतु कार्य करता है, इसके लिए यह सहयोग से कार्य करता है।

पहला सूत्र——

‘मन की वृत्तियों का ज्ञान सदैव इसके प्रभु, पुरुष, को शुद्ध चेतना के सातत्य के कारण होता है।’

पतंजलि मनुष्य के अस्तित्व की सारी जटिलता को खयाल में रखते हैं, इसको समझ लेना चाहिए। न कभी उनसे पहले और न कभी उनके बाद ऐसा व्यापक निर्देश—तंत्र विकसित किया गया। मनुष्य कोई सरल अस्तित्व नहीं है। मनुष्य एक अत्यंत जटिल संरचना है। एक चट्टान सरल है, क्योंकि चट्टान के पास केवल एक परत है—देह की परत। यही है जिसको पतंजलि अन्नमय कोष : सर्वाधिक स्थूल, मात्र एक परत, कहते हैं। तुम चट्टान के भीतर जा सकते हो, तुम्हें चट्टान की परतें मिलेंगी, लेकिन और कुछ नहीं मिलेगा। एक वृक्ष को देखो और तुम देह के अतिरिक्त कुछ और भी पाओगे। वृक्ष मात्र एक शरीर ही नहीं है। सूक्ष्म जगत का भी कुछ इसके साथ घटित हुआ है। यह उतना मुर्दा नहीं है जितनी कि चट्टान है; यह अधिक जीवित है—इसके भीतर एक सूक्ष्म शरीर अस्तित्व मे आ चुका है। यदि तुम वृक्ष के साथ एक चट्टान जैसा व्यवहार करते हो, तो तुम इसके साथ दुर्व्यवहार करते हो। तब तुमने उस सूक्ष्म विकास को खयाल में नहीं रखा है जो चट्टान से वृक्ष के अंतराल में हो चुका है। वृक्ष उच्च विकसित है। यह अधिक जटिल है। फिर किसी पशु को खयाल में लो—और अधिक जटिल। सूक्ष्म शरीर की एक और परत विकसित हो चुकी है।

मनुष्य के पांच शरीर, पांच बीज होते हैं, इसलिए यदि तुम मनुष्य और उसके मन को वास्तव में समझना चाहते हो—और यदि तुम सारी जटिलता को नहीं समझते तो इसके पार जाने का कोई उपाय नहीं है—तब हमको बहुत धैर्यवान और सावधान होना पड़ेगा। यदि तुम एक कदम भी चूक गए तो तुम अपने अस्तित्व के अंतर्तम तल तक पहुंचने में समर्थ नहीं हो पाओगे। वह शरीर जिसे तुम दर्पण में देख सकते हो तुम्हारे अस्तित्व का बाह्यतम खोल है। अनेक लोगों ने गलती से इसी को सब कुछ समझ लिया है।

मनोविज्ञान में ‘व्यवहारवाद’ नाम का आंदोलन है, जो सोचता है कि मनुष्य एक शरीर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। ऐसे लोगों से सदैव सचेत रहो जो ‘इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं’ की बात करते हैं। मनुष्य सदा से किसी ‘इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं’ से अधिक रहा है। व्यवहारवादी लोग : पावलफ, बीफ. स्किनर और उनके साथी सोचते हैं कि मनुष्य केवल एक शरीर हैं—ऐसा नहीं है कि तुम्हारे पास शरीर है, ऐसा नहीं है कि तुम शरीर में हो, बल्कि केवल यही कि तुम शरीर हो। तब मनुष्य को उसकी निम्नतम पायदान तक नीचे गिरा दिया जाता है। और निःसंदेह वे इसको सिद्ध कर सकते हैं। वे इस बात को सिद्ध कर सकते हैं क्योंकि मनुष्य का अधिकतम स्थूल भाग वैज्ञानिक प्रयोग के लिए सरलता से उपलब्ध है। मनुष्य के अस्तित्व की सूक्ष्म परतें वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए इतनी सरलता से उपलब्ध नहीं हैं। या दूसरे शब्दों में कहा जाए कि वैज्ञानिक उपकरण अब तक इतने सूक्ष्मग्राही नहीं हो पाए हैं। ये उपकरण मनुष्य की सूक्ष्म परतों को स्पर्श नहीं कर सकते हैं।

फ्रायड, एडलर मनुष्य के भीतर थोड़ा गहरे उतरते हैं। फिर मनुष्य मात्र एक शरीर ही नहीं रहता। वे दूसरे —शरीर को थोड़ा बहुत स्पर्श करते हैं, जिसको पतंजलि प्राणमय कोष, जीवंत शरीर, ऊर्जा शरीर कहते हैं। लेकिन फ्रायड और एडलर ने इसका एक बहुत छोटा हिस्सा ख्युा है—एक भाग का स्पर्श फ्रायड ने किया है और दूसरे भाग का एडलर ने।

फ्रायड मनुष्य को मात्र कामुकता के तल पर गिरा देता है। यह भी मनुष्य में है, लेकिन यही पूरी कथा नहीं है। एडलर मनुष्य को केवल महत्वाकांक्षा, शक्ति की अभीप्सा के तल तक नीचे ले आता है। मनुष्य में वह भी है। मनुष्य बहुत विराट है, बहुत जटिल है। मनुष्य वाद्ययंत्रों का एक समूह है, इसमें अनेक वाद्ययंत्र सम्मिलित हैं।

लेकिन सदा से ऐसा हुआ है। यह एक विपदा है, लेकिन ऐसा सदा ही हुआ है : जब किसी को कुछ मिल जाता है तो वह अपनी इस खोज से एक पूरा दर्शनशास्त्र बनाने का प्रयास करता है। इसके प्रति एक गहरा प्रलोभन होता है। फ्रायड को संयोगवश कामवासना मिल गई, और वह भी पूरी की पूरी कामवासना नहीं। उसको केवल दमित कामवासना मिली। उसका सामना दमित लोगों से हुआ। ईसाई धर्म द्वारा सिखाए गए दमन ने मनुष्य में अनेक अवरोध निर्मित कर दिए, जहां पर ऊर्जा अपनें भीतर वर्तुल बना कर अटक गई, अवरुद्ध हो गई, अब वह प्रवाहमान न रही। उसे मनुष्य की ऊर्जा की धारा में ये चट्टान जैसे अवरोध मिले, और उसने सोचा—और अहंकार सदैव इसी ढंग से सोचता है—कि उसने परम सत्य को पा लिया है। एडलर को, जो कि दूसरे ढंग से कार्य कर रहा था, ऊर्जा का दूसरा अवरोध शारि।’ अभीप्सा, मिल गया। फिर उसने इससे एक पूरा दर्शनशास्त्र निर्मित कर दिया।

मनुष्य को खंडों में समझा गया है। इस संपूर्ण अस्तित्व में योग एक मात्र दर्शनशास्त्र है जो मनुष्‍य की संपूर्णता को खयाल में रखता है। जुग थोड़ा सा और आगे, और गहराई में गया। मनुष्य के तीसरे शरीर—मनोमय कोष का एक अंश उसे मिल गया, और उसने इसके आधार पर एक पूरे दर्शनशास्‍त्र का निर्माण कर दिया। समस्त भौतिक शरीर की व्यापक व्याख्या कर पाना अभी तक संभव नहीं हो पाया है, क्‍योंकि यह शरीर अपने आप में अत्यंत जटिल है. लाखों कोशिकाएं एक गहन लयबद्धता में एक आश्‍चर्यजनक ढंग से कार्य कर रही हैं। जब अपनी मां के गर्भ में तुम्हारा सृजन हुआ था, तो तुम मात्र एक छोटी सी कोशिका थे। उस एक कोशिका में से दूसरी कोशिका जन्मी। कोशिका विकसित होती है और दो में विभाजित हो जाती है, और फिर ये दो कोशिकाएं विकसित होती हैं और चार में बंट जाता है। एक विभाजन के द्वारा—और यह विभाजन बढ़ता चला जाता है—तुम्हारे पास लाखों कोशिकाएं हैं। और ये सारी कोशिकाएं एक गहरे सहयोग में कार्य करती हैं, जैसे कि किसी ने उनको सम्हाल रखा हो। यह कोई अव्यवस्था नहीं है, तुम एक सुव्यवस्था हो।

और फिर कुछ कोशिकाएं तुम्हारी आंखें बन जाती हैं, कुछ कोशिकाएं तुम्हारे कान बन जाता है, कुछ कोशिकाएं तुम्हारे जनन अंग बन जाती हैं, कुछ कोशिकाएं तुम्हारी त्वचा बन जाती हैं, कुछ कोशिकाएं तुम्हारी अस्थियां, कुछ कोशिकाएं तुम्हारा मस्तिष्क, कुछ कोशिकाएं तुम्हारे नाखून और और वे सभी उसी एक कोशिका से आ रही हैं। वे सभी एक सी हैं। उनमें कोई गुणात्मक भेद नहीं है, किंतु वे कितनी भिन्नतापूर्वक कार्य करती हैं। आंखें देख सकती हैं, कान देख नहीं सकते, कान सुन सकते है, किंतु सूंघ नहीं सकते। इसलिए वे कोशिकाएं न केवल लयबद्धता से कार्य करती हैं बल्कि वे विशेषज्ञ हो जाती हैं। वे एक निश्चित विशेषज्ञता उपलब्ध कर लेती हैं। कुछ कोशिकाएं आंखें बन जाती है। क्‍या घटित हो गया है? किस प्रकार का प्रशिक्षण चल रहा है? एक विशेष प्रकार की कोशिकएं ही क्‍यों आंखें बन जाती हैं, और दूसरे विशेष प्रकार की कोशिकाएं ही क्यों कान बन जाती हैं, और फिर कुछ अन्‍य विशेष प्रकार की कोशिकाएं तुम्हारी नाक बन जाती हैं, और वे सभी एक सी हैं? भीतर अवश्‍य एक प्रशिक्षण होना. चाहिए—कोई अज्ञात शक्ति उनको एक विशेष उद्देश्य के लिए प्रशिक्षित कर रही है।

और स्मरण रखना, जब वे कोशिकाएं देखने के लिए तैयार हो रही होती हैं तो उन्होंने कुछ भी देखा नहीं होता है। जब बच्चा गर्भ में होता है उस समय वह पूरी तरह से अंधा बना रहता है। उसने जरा भी प्रकाश नहीं देखा होता है, उसकी आंखें बंद हैं। एक चमत्कार है यह देखने का कोई प्रशिक्षण नहीं हुआ है और आंखें देखने के लिए तैयार हैं र देखने की कोई संभावना नहीं है और आंखें देखने के लिए तैयार है।

बच्चा अपने फेफड़ों से श्वास नहीं लेता है, उसने तो जाना भी नहीं कि श्वास लेना क्या है, लेकिन फेफड़े श्वसन क्रिया के लिए तैयार हैं। इससे पहले कि बच्चा संसार में प्रवेश हेतु जाए और श्वास ले, वे तैयार हैं। इससे पहले कि बच्चा संसार में प्रवेश हेतु जाए और देखे, आंखें तैयार हैं। सभी कुछ तैयार है। जब बच्चे का जन्म होता है तो वह परम जटिलता, विशेषज्ञता और सूक्ष्मता वाला पूर्ण मनुष्य होता है। और उसका कोई प्रशिक्षण, कोई पूर्व तैयारी नहीं हुई है। बच्चे ने कभी एक श्वास तक नहीं ली होती है, लेकिन मां के गर्भ से बाहर आते ही वह चीखता है और अपनी पहली श्वास लेता है। इसके पूर्व कि कोई प्रशिक्षण दिया जाए उसकी दैहिक व्यवस्था तैयार है। कोई परम शक्ति है, कोई शक्ति है जो भविष्य की सारी संभावनाओं का लेखा—जोखा रखती है, कोई शक्ति है जो बच्चे को जीवन और भविष्य की सभी संभावनाओं का सामना करने में समर्थ होने के लिए तैयार कर रही है, जो भीतर गहरे में कार्यरत है।

इस शरीर तक को अभी तक नहीं समझा गया है। हमारी सारी समझ आशिक है। अभी तक मनुष्य का वितान अस्तित्व में नहीं आ पाया है। इस संदर्भ में पतंजलि का योग कभी भी किए गए प्रयासों में मनुष्य के निकटतम है। वे शरीर को पांच परतों में, या पांच शरीरों में विभाजित करते हैं। तुम्हारे पास एक ही शरीर नहीं है, तुम्हारे पास पांच शरीर हैं, और इन पांच शरीरों के पीछे तुम्हारा अस्तित्व है। यही मनोविज्ञान में घटित हुआ है, और यही चिकित्साशास्त्र में हो गया है। एलोपैथी केवल भौतिक शरीर में, स्थूल शरीर में भरोसा करती है। यह व्यवहारवाद की भांति है। एलोपैथी स्थूलतम औषधि है। यही कारण है कि यह वैज्ञानिक हो गई है, क्योंकि वैज्ञानिक उपकरण अभी तक स्थूल को ही पकड़ पाने में समर्थ हैं। और गहराई में जाओ।

चीनी औषधि—विज्ञान एक्युपंक्चर एक और परत में प्रवेश करता है। यह प्राण शरीर, प्राणमय कोष पर कार्य करता है। यदि भौतिक शरीर में कुछ गलत हो जाता है तो एक्युपंक्यर भौतिक शरीर को जरा भी नहीं छूता। यह प्राण शरीर पर कार्य करने का प्रयास करता है। यह जैव ऊर्जा, बायो—प्लाज्मा पर कार्य करने का प्रयास करता है। उस तल पर वहां यह किसी चीज को समायोजित कर देता है, और भौतिक शरीर तुरत ही भली प्रकार से कार्य करना आरंभ कर देता है। यदि प्राण शरीर में कुछ गड़बड़ हो जाती है तो एलोपैथी इसी शरीर भौतिक शरीर पर कार्य करती है। निःसंदेह एलोपैथी के लिए यह चढ़ाई चढ़ने जैसा है। एक्युपंक्चर के लिए यह चढ़ाई से नीचे आने जैसा काम है। एक्युपंक्यर के लिए यह अधिक सरल है क्योंकि प्राण शरीर भौतिक शरीर से थोड़ा ऊंचे तल पर है। यदि प्राण शरीर को संतुलित कर दिया जाए, तो भौतिक शरीर तो बस उसका अनुसरण करता है, क्योंकि क्यू—प्रिंट तो प्राण शरीर में ही होता है। भौतिक शरीर तो प्राण शरीर का कार्यकारी उपकरण मात्र है।

अब एक्युपंक्चर को धीरे:— धीरे प्रतिष्ठा प्राप्त हो रही है, क्योंकि सोवियत रूस में एक बहुत संवेदनशील फोटोग्राफी, किरलियान फोटोग्राफी ने मनुष्य के शरीर में प्राण—ऊर्जा के सात सौ बिंदु खोज निकाले हैं, जिनकी घोषणा पिछले पांच हजार वर्षों से एक्युपक्चर—विद सदा से करते आ रहे थे। शरीर में वे प्राण— ऊर्जा के बिंदु कहां हैं उनको जान पाने के कोई उपकरण उनके पास नहीं थे। लेकिन सदियों से, धीरे— धीरे प्रयास और भूल के द्वारा उन्होंने सात सौ बिंदु खोज निकाले थे। अब किरलियान ने भी वही सात सौ बिंदु वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा खोज निकाले। और किरलियान फोटोग्राफी ने एक बात सिद्ध कर दी कि प्राण शरीर को भौतिक शरीर के द्वारा बदलने का प्रयास असंगत है। यह नौकर को बदल कर मालिक को बदलने का प्रयास करना है करीब—करीब असंभव है यह, क्योंकि मालिक नौकर की जरा भी नहीं सुनेगा। यदि तुम नौकर को बदलना चाहते हो मालिक को बदल दो। तुरंत नौकर भी बदल जाता है। प्रत्येक सैनिक को बदलने के स्थान पर बेहतर यही रहेगा कि सेनापति को बदल दो। शरीर के पास लाखों सिपाही, कोशिकाएं हैं जो बस किसी आदेश के अनुरूप, किसी अनुशासन के अनुसार कार्य करने में संलग्न हैं। अनुशास्ता को बदल लो और शरीर का सारा प्रारूप बदल जाता है।

होम्योपैथी और अधिक गहराई में जाती है। यह मनोमय कोष, मनस शरीर पर कार्य करती है। होम्योपैथी के संस्थापक हैनिमैन ने सर्वकालिक महानतम खोजों में से एक खोज की और वह थी औषधि की मात्रा जितनी सूक्ष्मतर होती जाती है उतनी ही वह और गहराई में पहुंच जाती है। उन्होंने होम्योपैथी की औषधि को बनाने की इस विधि को ‘शक्तिकरण’ कहा। वे औषधि की मात्रा कम करते चले जाते हैं। वह इस ढंग से कार्य करेगा वह औषधि की एक निश्चित मात्रा लेगा और इसे दस गुना मिल्क शुगर या पानी के साथ मिश्रित करेगा। एक भाग औषधि और दस भाग पानी, वह इनको मिला देगा। फिर पुन: वह इस नये मिश्रण का एक भाग लेगा और पुन: वह इसको नौ गुने पानी या मिल्क शुगर के साथ मिला देगा। इसी ढंग से वह आगे बढ़ेगा; पुन: वह नये घोल से एक भाग लेगा और उसे नौ गुने पानी में मिला देगा। वह ऐसा करेगा और औषधि की शक्ति बढ़ेगी। धीरे— धीरे औषधि परमाणु के तल पर पहुंच जाएगी। यह इतनी सूक्ष्म हो जाएगी कि तुम विश्वास ही नहीं कर सकते कि यह कार्य कर सकती है; यह करीब—करीब मिट चुकी होती है। यही है जो होम्योपैथिक औषधियों पर लिखा होता है. शक्ति, दस शक्ति, बीस शक्ति, एक सौ शक्ति, एक हजार शक्ति। जितनी बड़ी शक्ति होगी औषधि की मात्रा उतनी ही कम होगी। दस लाख शक्ति का अर्थ है : मूल औषधि का दस लाखवां भाग ही शेष बचा है, लगभग ना—कुछ अंश है उसमें। वह करीब—करीब मिट चुकी है, लेकिन तब यह मनोमय की सर्वाधिक गहरी परत में प्रविष्ट हो जाती है। यह तुम्हारे मनस शरीर में प्रविष्ट हो जाती है। यह एक्युपंक्यर से अधिक गहराई में जाती है। यह करीब—करीब ऐसा ही है जैसे कि तुम परमाणु के तल पर या परमाणु से भी सूक्ष्म स्तर पर पहुंच गए हो। तब यह तुम्हारे शरीर को स्पर्श नहीं करती है, तब यह तुम्हारे प्राण शरीर को स्पर्श नहीं करती, यह तो बस भीतर प्रविष्ट हो जाती है। यह इतनी सूक्ष्म है और इतनी छोटी कि इसके रास्ते में कोई अवरोध नहीं आता। यह तो बस मनोमय कोष, मनस शरीर में प्रविष्ट हो जाती है और वहां से यह कार्य करना आरंभ कर देती है। अब तुमको प्राणमय कोष से भी बड़ा अधिष्ठाता मिल गया है।

भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद इन तीनों का संश्लेषण है। औषधियों में यह सर्वाधिक संश्लेषणात्मक

सम्मोहन चिकित्सा और अधिक गहराई में जाती है। यह विज्ञानमय कोष, चौथे शरीर, चेतना के शरीर को स्पर्श करती है। यह औषधियों का प्रयोग नहीं करती है। यह किसी भी वस्तु का प्रयोग नहीं करती। यह तो केवल सुझावों का उपयोग करती है, बस इतना ही। यह तुम्हारे मन में बस सुझाव रख देती है—चाहे इसको जीवधारियों का चुंबकत्व कहो, या मेस्मैरिज्म, सम्मोहन या जो कुछ भी तुम इसे कहना चाहो—लेकिन यह विचार की शक्ति है, पदार्थ की शक्ति नहीं है। होम्योपैथी भी पदार्थ की अत्यधिक सूक्ष्म मात्रा की शक्ति है। सम्मोहन चिकित्सा पूरी तरह से पदार्थ से छुटकारा पा लेती है, क्योंकि भले ही कितना सूक्ष्म हो, यह है तो पदार्थ ही। दस हजार शक्ति है लेकिन फिर भी यह पदार्थ की ही शक्ति है। यह बस विचार ऊर्जा, विज्ञानमय कोष चेतना के शरीर पर छलांग लगा देती है। यदि तुम्हारी चेतना बस एक विशेष विचार को स्वीकार कर ले तो यह सक्रिय हो जाता है।

सम्मोहन चिकित्सा, हिम्मोथेरेपी का भविष्य उज्जवल है। यह भविष्य की औषधि बनने जा रही है, क्योंकि बस तुम्हारे विचारों के प्रारूप को बदल देने से ही तुम्हारे मन को परिवर्तित किया जा सकता है, तुम्हारे मन के माध्यम से तुम्हारे प्राण शरीर और प्राण शरीर के माध्यम से तुम्हारे स्थूल शरीर को बदला जा सकता है। तब औषधि के रूप में विष की चिंता क्यों की जाए, स्थूल औषधियों की फिकर में क्या पड़ना? क्यों न इस कार्य को विचार शक्ति से कर लिया जाए? क्या तुमने कभी किसी सम्मोहन—विद को किसी माध्यम पर कार्य करते हुए देखा है? यदि तुमने नहीं देखा है, तो यह देखने लायक घटना है। यह तुमको एक विशेष अंतर्दृष्टि देगा।

शायद तुमने सुना हो या शायद तुमने देखा भी हों—भारत में यह होता है; तुमने आग पर चलने वालों को अवश्य देखा होगा। यह और कुछ नहीं वरन हिप्नोथेरैपी है। यह विचार कि वे किसी विशिष्ट देवता या किसी विशिष्ट देवी से आविष्ट हो गए हैं और अब उनको कोई आग नहीं जला सकती, बस यह विचार ही पर्याप्त है। यह विचार उनके शरीरों के सामान्य क्रियाकलापों का नियंत्रण और रूपांतरण कर देता है।

वे तैयारी किए हुए होते हैं. चौबीस घंटे पहले से वे उपवास करते हैं। जब तुम उपवास कर रहे हो तो तुम्हारा पूरा शरीर शुद्ध है और इसके भीतर मल नहीं रहा, तब तुम्हारे और स्थूल शरीर के मध्य का सेतु गिर जाता है। चौबीस घंटे तक वे किसी मंदिर में या मस्जिद में स्तुति गाते हुए, नाचते हुए परमात्मा से लय मिलाते हुए रहते हैं। फिर वह क्षण आता है जब वे आग पर चलते हैं। वे नृत्य करते हुए आविष्ट की भाव—दशा में आते हैं। वे पूरी श्रद्धा से आते हैं कि उनको आग जला नहीं सकती, बस यही है; और कुछ भी नहीं है इसमें। प्रश्न यही है कि श्रद्धा किस भांति निर्मित की जाए। फिर वे आग पर नृत्य कर लेते हैं और आग नहीं जलाती।

ऐसा अनेक बार हो गया है कि कोई व्यक्ति जो बस एक दर्शक था वह तक आविष्ट हो गया। बीस लोग आग पर चल रहे हैं और जले नहीं, और कोई व्यक्ति अचानक इतना आश्वस्त हो गया है : ‘यदि ये लोग आग पर चल रहे हैं तो मैं क्यों नहीं चल सकता?’ और वह भीतर कूद पड़ा और आग ने उसको नहीं जलाया। उसी क्षण में अचानक एक श्रद्धा जाग उठी। कभी—कभी ऐसा हो गया कि जो लोग तैयारी करके आए थे, जल गए। कभी—कभी कोई बिना तैयारी किया हुआ दर्शक आग पर चल गया और नहीं जला। क्या हो गया ?—जिन लोगों ने तैयारी की थी उनमें कहीं कोई संदेह अवश्य रहा होगा। वे यह अवश्य सोच रहे होंगे कि ऐसा होने जा रहा है या नहीं। उनकी चेतना में, विज्ञानमय कोष में एक सूक्ष्म संदेह अवश्य रहा होगा। यह संपूर्ण श्रद्धा नहीं थी। इसलिए वे आए थे, लेकिन संदेह के साथ। उस संदेह के कारण शरीर उच्चतर आत्मा से संदेश ग्रहण नहीं कर सका। दोनों के मध्य में संदेह आ खड़ा हुआ और शरीर ने सामान्य ढंग से कार्य करना जारी रखा; वह जल गया। यही कारण है कि सभी धर्म श्रद्धा पर बल दिया करते हैं। सम्मोहन चिकित्सा है श्रद्धा। श्रद्धा के बिना तुम अपने अस्तित्व के सूक्ष्म भागों में प्रविष्ट नहीं हो सकते, क्यौंकि एक जरा सा संदेह और तुमको वापस स्थूल पर फेंक दिया जाता है। विज्ञान संदेह के साथ कार्य करता है। संदेह वितान की विधि है, क्योंकि विज्ञान स्थूल के साथ कार्य करता है। तुम संदेह करते हो या नहीं, एक एलौपैथ चिकित्सक को चिंता नहीं होती। वह तुमसे अपनी औषधि में भरोसा करने के लिए नहीं कहता, वह तो बस तुमको दवा दे देता है। लेकिन एक होम्योपैथ चिकित्सक पूछेगा, क्या तुमको भरोसा है, क्योंकि किसी होम्योपैथ के लिए तुम्हारे विश्वास के बिना तुम पर कार्य कर पाना अधिक कठिन होगा। और एक सम्मोहन—विद पूर्ण समर्पण के लिए कहेगा। वरना कुछ नहीं किया जा सकता है।

धर्म है समर्पण। धर्म है सम्मोहन चिकित्सा। लेकिन अभी एक और शरीर है, वह है आनंदमय कोष : आनंद का शरीर। सम्मोहन चिकित्सा चौथे शरीर तक जाती है। ध्यान पांचवें शरीर तक जाता है।’मेडिटेशन’ यह शब्द ही सुंदर है क्योंकि इसका मूल वही है जो मेडिसिन का है। दोनों एक ही मूल से आते हैं। मेडिसिन और मेडिटेशन एक ही शब्द की व्युत्पत्तियां है वह जो स्वस्थ करता है, वह जो तुमको स्वस्थ और समग्र बनाता है, मेडिसिन (औषधि) है और गहनतम तल पर यही मेडिटेशन (ध्यान) है।

ध्यान तुमको सुझाव तक नहीं देता, क्योंकि सुझाव बाहर से दिए जाते हैं। किसी और को तुम्हें सुझाव देना पड़ता है। सुझावों का अभिप्राय है कि तुम किसी और पर निर्भर हो। वे तुमको पूरी तरह से चैतन्य नहीं बना सकते क्योंकि दूसरे की आवश्यकता पड़ेगी, और तुम्हारे अस्तित्व पर उसकी एक छाया पड जाएगी। ध्यान तुमको पूरी तरह से चैतन्य बना देता है—किसी छाया के बिना—बिना अंधकार के परिपूर्ण प्रकाश। अब सुझाव भी एक स्थूल चीज समझा जाता है। कोई सुझाव देता है—इसका अर्थ है कि कोई चीज बाहर से आती है, और जो कुछ भी बाहर से आता है, .विश्लेषण की परम सूक्ष्मता में वह भौतिक है। केवल पदार्थ ही नहीं बल्कि वह सभी जो बाहर से आता है भौतिक है। एक विचार तक पदार्थ का सूक्ष्म रूप है। सम्मोहन चिकित्सा भी भौतिकवादी है।

ध्यान सारी संभावनाएं, सभी सहारे गिरा देता है। यही कारण है कि ध्यान को समझ पाना संसार का सर्वाधिक कठिन कार्य है, क्योंकि बचता कुछ भी नहीं है—बस एक शुद्ध समझ, एक साक्षीभाव। पहला सूत्र यही कह रहा है।

‘मन की वृत्तियों का ज्ञान सदैव इसके प्रभु……..’

तुम्हारे भीतर प्रभु कौन है? उस प्रभु को खोजना पड़ता है।

‘मन की वृत्तियों का ज्ञान सदैव इसके प्रभु, पुरुष, को शुद्ध चेतना के सातत्य के कारण होता है।’ तुम्हारे भीतर दो बातें घट रही हैं। पहली है विचारों, भावनाओं, इच्छाओं का झंझावात—तुम्हारे चारों ओर विराट भंवर है, सतत परिवर्तनशील, अपने आप को लगातार परिवर्तित करता हुआ, लगातार गतिशील। यह एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के पीछे तुम्हारी साक्षी आत्मा है—शाश्वत, स्थायी, जरा भी न बदली हुई। यह कभी नहीं बदली है। यह शाश्वत आकाश जैसी है मेघ आते हैं और चले जाते हैं, एकत्रित होते हैं, बिखर जाते हैं… आकाश अस्पर्शित, अप्रभावित बिना किसी छाप के मौजूद रहता है। यह शुद्ध और कुंवारा बना रहता है। तुम्हारे भीतर शाश्वत, प्रभु यही है।

मन बदलता रहता है। अभी एक क्षण पूर्व तुम्हारे पास एक मन था, एक क्षण बाद तुम्हारे पास दूसरा मन होता है। अभी कुछ मिनट पहले तुम क्रोधित थे, और अब तुम हंस रहे हो। अभी कुछ मिनट पहले तुम प्रसन्न थे, अब तुम उदास हो। मनोवृत्तियां, परिवर्तन, लगातार ऊपर और नीचे तरंगित होते रहते हैं, जैसे कि यो—यो का खेल चलता रहता है। लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ शाश्वत है : वह जो इस खेल को, तमाशे को देखता रहता है। वही साक्षी, प्रभु है। यदि तुम साक्षी होना आरंभ कर देते हो, तो तुम धीरे— धीरे प्रभु से निकटतर और निकटतर हो जाओगे।

वस्तुओं का साक्षी होना आरंभ करो। तुम एक वृक्ष को देखते हो, तुम वृक्ष को देखते हो लेकिन तुम इसके प्रति सजग नहीं हो कि तुम इसको देख रहे हो, तब तुम साक्षी नहीं हो। तुम एक वृक्ष को देखते हो, और उसी समय तुम देखते हो कि तुम देख रहे हो, तब तुम साक्षी हो। चेतना को दो नोकों वाला तीर बनना पड़ता है : एक तीर वृक्ष की ओर जा रहा है, दूसरा तुम्हारे कर्त्तापन की ओर जा रहा है।

कठिन है यह, क्योंकि जब तुम अपने प्रति सजग हो जाते हो तो तुम वृक्ष को भूल जाते हो और जब तुम वृक्ष के प्रति सजग होते हो तो तुम स्वयं को भूल जाते हो। लेकिन धीरे— धीरे व्यक्ति संतुलन बनाना सीख लेता है, ठीक वैसे ही जैसे तनी हुई रस्सी पर चलने वाला व्यक्ति संतुलन सीख लेता है। आरंभ में यह कठिन, खतरनाक, संकटपूर्ण होता है, किंतु धीरे— धीरे व्यक्ति संतुलन बनाना सीख लेता है। बस प्रयास करते चले जाओ। जब कभी तुमको साक्षी होने का अवसर मिले इसको गवाओ मत, क्योंकि साक्षीभाव से अधिक मूल्यवान और कुछ भी नहीं है। किसी कृत्य को करते हुए, चलते हुए या भोजन करते हुए या स्थान करते हुए साक्षी भी हो जाओ। फव्वारे से अपने ऊपर पानी गिरने दो, किंतु तुम भीतर सजग बने रहो और देखो कि क्या घटित हो रहा है—पानी का ठंडापन और सारे शरीर में सनसनाहट की अनुभूति, तुमको घेरता हुआ एक विशेष प्रकार का मौन, तुम्हारे भीतर एक अच्छेपन की भावना का उदय होना—लेकिन साक्षी बने रहना जारी रखो। तुमको प्रसन्नता अनुभव हो रही है, बस प्रसन्न अनुभव करना पर्याप्त नहीं है—साक्षी हो जाओ। बस देखते रहो—मैं प्रसन्नता अनुभव कर रहा हूं.. मैं उदासी अनुभव कर रहा हूं — मैं भूखा अनुभव कर रहा हूं—देखते चले जाओ। धीरे— धीरे तुम देख लोगे कि प्रसन्नता तुमसे अलग है, अप्रसन्नता भी तुमसे अलग है। वह सभी कुछ जिसके तुम साक्षी हो सकते हो, तुमसे भिन्न है। तुम साक्षी के साक्षी नहीं हो सकते, वही प्रभु है। तुम प्रभु से परे नहीं जा सकते, तुम ही प्रभु हो। अस्तित्व का परम केंद्र तुम ही हो।

‘मन स्व प्रकाशित नहीं है, क्योंकि स्वयं इसका प्रत्यक्षीकरण हो जाता है।’

स्वयं मन को देखा जा सकता है। यह विषय बन सकता है। इसका प्रत्यक्षीकरण किया जा सकता है, इसलिए यह प्रत्यक्षीकरण करने वाला नहीं है। सामान्यत: हम सोचते हैं कि यह मन ही है जो फूल को देख रहा है। नहीं, तुम मन के पार जा सकते हो और तुम मन को देख सकते हो, ठीक उसी प्रकार से जैसे कि मन फूल को देख रहा है) तुम जितनी गहराई में उतरते हो उतना ही अधिक तुमको यह पता लगेगा कि देखने वाला स्वयं ही दिखाई पड़ने लगता है। यही कारण है कि कृष्णमूर्ति बार—बार कहे चले जाते हैं, ‘देखने वाला ही देखा जाता है। प्रत्यक्षीकरण करने वाले का प्रत्यक्षीकरण किया जाता है।’ जब तुम गहराई में उतरते हो तो पहले तुम वृक्षों को और गुलाब को और सितारों को देखते हो और तुम सोचते हो कि मन साक्षी हो रहा है। फिर अपनी आंखें बंद कर लो, अब मन में इनकी छवियों को देखो गुलाबों की, सितारों की, वृक्षों की। अब शांता कौन है? शांता जरा गहराई में चला गया है। मन स्वय ही एक विषय बन चुका है।

ये पांचों कोष, ये पांचों बीज, वे पांच स्थान हैं जहां शांता बार—बार गेय बन जाता है। जब तुम स्थूल शरीर, भोजन निर्मित शरीर, अन्नमय कोष से प्राण शरीर की ओर जाते हो, तो तुरंत ही प्राण शरीर से तुम देख लेते हो कि स्थूल शरीर को एक विषय की भांति देखा जा सकता है। यह प्राण शरीर के बाहर है, ठीक उसी तरह जैसे कि मकान तुम्हारे बाहर है, जब तुम प्राण शरीर में खड़े होते तो तुम्हारा अपना शरीर ठीक तुम्हारे चारों ओर की दीवार की भांति होता है। पुन: तुम प्राण शरीर से मनोमय कोष, मनस शरीर में जाते हो तो ठीक यही घटित होता है। अब प्राण शरीर भी तुमसे बाहर है, तुम्हारे चारों ओर एक बाड़ की तरह; और इसी तरह यह सिलसिला चलता चलौ जाता है। यह उस परम बिंदु तक जाता है जहां केवल साक्षी बचता है। तब तुम स्वयं को इस भांति नहीं देखते, ‘मैं आनंदित हूं ‘ तुम स्वयं को आनंद के साक्षी की भांति देखते हो।

अंतिम शरीर आनंद शरीर है। इसका विभेद कर पाना अत्यधिक कठिन है, क्योंकि यह प्रभु के बेहद निकट है। यह प्रभु को करीब—करीब ऐसे घेरे हुए है जैसे कि वातावरण ने तुमको घेरा हुआ है। लेकिन इसको जानना पड़ता है। इस अंतिम पड़ाव पर भी जब तुम आह्लाद से ओत—प्रोत हो, फिर भी तुमको चरम प्रयास, विभेद का अंतिम प्रयास, और यह देखने का प्रयास कि आनंद तुमसे भिन्न है, करना पड़ता है।

यही है मुक्ति, कैवल्य। फिर तुम अकेले बच जाते हो, बस साक्षीमात्र, और प्रत्येक वस्तु—शरीर, मन, ऊर्जा को विषयों में परिवर्तित किया जा चुका है। यहां तक कि आनंद, यहां तक कि समाधि, यहां तक कि ध्यान भी वहां शेष नहीं बचता। जब ध्यान पूर्ण हो जाता है तो अब वह ध्यान नहीं रहता। जब ध्यान करने वाले ने वास्तव में लक्ष्य पा लिया हो तो वह ध्यान नहीं करता। वह ध्यान नहीं कर सकता क्योंकि अब यह भी—चलने की, भोजन करने की भांति एक कृत्य है। वह प्रत्येक चीज से भिन्न हो चुका है। ध्यान और समाधि के मध्य यही अंतर है। ध्यान पांचवें शरीर, आनंद शरीर का है। अभी भी यह एक चिकित्सा, एक औषधि है। अभी भी तुम थोड़े से रुग्ण हो, रुग्ण हो क्योंकि तुम अपने आप का तादात्म्य किसी ऐसी बात के साथ कर रहे हो जो तुम नहीं हो। तादात्म्य ही सारी बीमारी है, और परम स्वाथ्य अ— तादात्म्य के माध्यम से उपलब्ध होता है। समाधि तभी है जब ध्यान तक पीछे छूट चुका हो।

मैं एडवर्ड डी बोनो द्वारा लिखी गई एक पुस्तक पढ़ रहा था। उसने चीन में घटी एक बहुत प्राचीन घटना के बारे में लिखा है।

प्राचीनकाल में चीन में एक पगोडा में, एक चीनी मंदिर में आग लग गई। खोजियों को पगोडा की राख में से उठती हुई विचित्र और भूख बढ़ाने वाली गंध ने, एक अभागे सुअर की ओर आकर्षित किया जो ज्वाला मैं फंस गया था और अग्नि में भुन गया था। इसके बाद से चीन में भुना हुआ सुअर एक सुरुचिपूर्ण भोजन बन गया। आकस्मिक रूप से यह खोज लिया गया, क्योंकि पगोडा में आग लग गई थी और एक सुअर उसमें जल कर भुन गया था। लेकिन फिर लोगों ने सोचा कि हो न हो इसका पगोडा से कोई संबंध है, वरना सुअर इतना स्वादिष्ट किस प्रकार हो सकता है? इसलिए चीन में सदियों से यह जारी रहा कि जब भी उनको भुना हुआ सुअर खाना हो, तो पहले वे एक पगोडा बनाते थे, फिर उसके भीतर एक सुअर को बंद करके उसमें आग लगा देते थे। बहुत महंगा था यह, किंतु यह उनको बहुत वैज्ञानिक प्रतीत होता था। अनेक शताब्दियों के बाद यह उनको पता लगा कि यह मूर्खतापूर्ण था। सुअर को पगोडा जलाए बिना भी भूना जा सकता है। इसके लिए पगोडा अनिवार्य नहीं है।

लेकिन मनुष्य का मन इसी भांति कार्य करता है, क्योंकि सबसे पहले तुम अपने शरीर के प्रति सजग हुए थे और हर बात इससे संबंधित हो जाती है। जब तुमको एक खास किस्म के अच्छेपन, अपने चारों ओर एक आनंद की अनुभूति होती है, तो निःसंदेह तुमको यह लगता है कि इस शरीर के कारण हो रहा है, क्योंकि, ‘मैं स्वस्थ अनुभव कर रहा हूं न कोई रुग्णता, न कोई बीमारी। इसीलिए यह वहां है।’ तब तुम शरीर को युवा, स्वस्थ रखने का प्रयास करते हो। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन यह अच्छापन तुम्हारे भीतर कहीं गहराई से आता है। ही, एक स्वस्थ शरीर की आवश्यकता होती है, वरना वे गहरे जलस्रोत सक्रिय नहीं हो पाएंगे। तुम्हारे अंतर्तम केंद्र से अच्छेपन की अनुभूति को बाहर लाने के लिए स्वस्थ शरीर एक वाहन का कार्य करता है, लेकिन यह स्थूल शरीर स्वयं मूल कारण नहीं है।

मैं तुमको कुछ कहानियां सुनाता हूं कि मन किस प्रकार से बहुत तर्कयुक्त प्रतीत होता है उर लेकिन कहीं गहराई में बहुत असंगत परिणाम हुआ करते हैं।

एक बार एक प्रोफेसर ने सौ पिस्सुओं को जब उनको वह उचित आदेश दे तब उछलने के लिए प्रशिक्षित किया। जब एक बार उन्होंने संतोषजनक ढंग से यह कार्य कर लिया तो उसने एक कैंची ली और उनके पैर काट दिए। जैसे ही उसको यह पता लगा कि उसके द्वारा कूदने के लिए दिए जाने वाले आदेश का पालन एक भी पिस्सू नहीं कर रहा है, तो उसने अपनी शोध की घोषणा विज्ञान जगत में इस प्रकार से की कि सज्जनों मेरे पास इस बात के अकाट्य प्रमाण हैं कि पिस्सू के कान उनकी टांगों में होते हैं।

मानव विचार के पूरे इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ है. टांगें काट दीं, अब वे नहीं कूदते, वे आदेश को नहीं सुनते है। तो निस्संदेह, स्वभावत: पिस्सुओं के कान उनकी टांगो मैं हैं।

तर्क नितांत तर्कविहीन निष्कर्षों पर पहुंच सकता है। तर्क नितांत तर्कहीन निष्कर्षों का निष्पादन कर सकता है। शरीर सर्वाधिक स्थूल, सरलतापूर्वक समझ लेने योग्य भाग है, तुम इसको पकड़ सकते हो, तुम इसे प्रशिक्षित कर सकते हो, इसको भोजन और पोषण देकर तुम इसे अधिक स्वस्थ कमा सकते हो। तुम इसे भूखा रख कर इसे मार सकते हो। यह पकड़ में आ जाता है। शरीर से— परे ज्ञानातीत का संसार आरंभ होता है।

वैज्ञानिक ज्ञानातीत संसार में जाने से जरा भयभीत हैं, क्योंकि वहां पर उनकी कसौटी सही प्रकार से काम नहीं करती है। तब प्रत्येक बात धुंधली से और धुंधली होती चली जाती है। निःसंदेह वे वहीं ठहरते हैं जहां पर प्रकाश है।

राबिया— अल— अदाबिया के बारे में एक प्रसिद्ध कथा है। एक संध्या वह गली में किसी वस्तु को खोज रही थी। किसी ने पूछा, तुम क्या खोज रही हो? उसने कहा मेरी सुई खो गई है। इसलिए उन लोगों ने, दयालु लोगों ने उसकी मदद करना आरंभ कर दी। वृद्ध स्त्री, निर्धन स्त्री, बेचारी से उसकी, सुई खो गई; प्रत्येक व्यक्ति ने मदद करने का प्रयास किया। लेकिन फिर किसी को खयाल आया कि सुई तो बहुत ही छोटी वस्तु है, ठीक—ठीक कहां पर गिरी है यह? गली तो बहुत बड़ी है। यदि हम इस प्रकार से खोजते रहे तो सदियां लग जाएंगी। इसलिए उन्होंने पूछा, सुई ठीक किस स्थान पर गिरी थी, जिससे हम केवल उसी स्थान पर उसे खोज सकें? राबिया ने कहा यह मत पूछो, क्योंकि सुई तो भीतर मेरे घर में गिरी थी। वे सभी उठ खड़े हुए और बोले, क्या तुम पागल हो गई हो! यदि सुई घर के भीतर गिरी है तो उसको वहीं पर खोजो! राबिया ने कहा लेकिन वहां रोशनी नहीं है। यहा गली में अभी तक रोशनी है। सूर्य अभी तक अस्त नहीं हुआ है। समय मत गंवाओ। मदद करो, क्योंकि शीघ्र ही सूर्य अस्त हो जाएगा और गली में अंधकार हो जाएगा।

एक ढंग से यह अतर्क्य प्रतीत होता है; दूसरे ढंग से यह बहुत तर्कपूर्ण लगता है। यही तो विज्ञान कर रहा है। यह भौतिक शरीर तुम्हारा एक मात्र प्रकाशित भाग प्रतीत होता है, शेष सब कुछ तो अंधकार में है। जितनी गहराई में तुम जाते हो, उतना ही अधिक अंधकार। तुम जितनी गहराई में उतरते हो, उतना ही दिशा—बोध खोने लगता है। तुम गहराई में जाते हो, वह सभी कुछ जो स्पष्ट दिखाई दिया था, अब नहीं दिखाई पड़ता। प्रत्येक वस्तु एक चरम संशय में प्रतीत होती है। इसलिए बेहतर है कि प्रकाशित भाग पर रुको, वहीं बने रहो। स्थूल शरीर के साथ कुछ किया जा सकता है, क्योंकि शरीर को समायोजित किया जा सकता है।

लेकिन इस डग से कुछ अत्यधिक मूल्यवान है जिसे खोया जा रहा है, धीरे— धीरे मानव—जाति शरीर पर बहुत केंद्रित हो चुकी है। और यह शरीर बस तुम्हारा बाह्य आवरण है।

एक कारागृह में ऐसा हुआ, जो नाम के व्यक्ति को डकैती में शामिल होने पर बीस वर्ष के कारावास का दड मिला। कारावास की अवधि आरंभ होने के कुछ समय बाद ही उसे अपने बालों में एक पिस्सू मिला, कुछ करने के लिए था भी नहीं, तो जो ने उसको प्रशिक्षित करना आरंभ कर दिया। सबसे पहले जो ने उस पिस्सू को आदेश दिए जाने पर उछलना सिखाया, फिर क्रमश: उस पिस्सू की होशियारिया और—और जटिल होती गईं। प्रत्येक सप्ताह के प्रत्येक दिन लगातार अभ्यास और धैर्यपूर्वक प्रशिक्षण जारी रखा, इसलिए जब उसके जेल से छूटने का समय आया, तब तक उसने उस पिस्सू को उन कारनामों को भी करना सिखा दिया था जो नितांत अविश्सवनीय थे। जैसे ही जो कारागृह के द्वार से बाहर आया वह विश्व के विशालतम सर्कस में दौड़ कर पहुंच गया। शीघ्रतापूर्वक मैनेजर के तंबू में पहुंच कर जो ने पिस्सू को अपनी ऊपर वाली जेब से निकाला और उसे मेज पर रख दिया, जरा इसको देखिए, जो ने मैनेजर से कहा। हां, मैनेजर ने कहा। और वैसे ही उसने बड़ा भारा? ऐशट्रे पिस्‍सू पर दे मारा। उपद्रव हैं ये कीडे, हैं न?

उसने पिस्‍सू को मार डाला, और अब बेचारे जो के पास यह सिद्ध करने का कोई उपाय ही न रहा कि उसने पिस्‍सू को करीब—करीब आश्चर्यजनक कार्य, अविश्वसनीय कार्य करने में प्रशिक्षित कर दिया था। अब इसको सिद्ध करने का कोई उपाय न रहा।

यही वह स्थूल सोच है जो मनुष्य—जाति के प्रति हो गई है, इसने भीतर के रहस्य को मार डाला है। इसने लोगों को भौतिक शरीर के प्रति इतना आसक्त बना दिया है कि वे अपने भीतरी संसार को भूल चुके हैं। अब तो इसकी सत्ता को सिद्ध करना असंभव हो गया है। बुद्ध, कृष्‍ण और जीसस जैसे लोग पागल दिखाई पड़ते हैं। अंग्रेजी भाषा तथा अन्य पश्चिमी भाषाओं मे ऐसी पुस्तकें हैं जो सिद्ध करती हैं कि जीसस विक्षिप्त हैं। निःसंदेह यदि तुमने भीतरी संसार का कुछ नहीं जाना है तो वे विक्षिप्त दिखाई पड़ते हैं। यदि तुम भीतरी संसार के बारे में कुछ नहीं जानते हो तो वे विक्षिप्त हैं। तब वे पागल आदमी जैसे प्रतीत होते हैं, क्योंकि कभी—कभी वे परमात्मा से बातें करते हैं, और वे घोषणा करते हैं कि उनको उत्तर भी मिलते हैं। और तुम भीतर के संसार से सारा संपर्क खो चुके हो, इसलिए एक पागल आदमी और उनके बीच में क्या अंतर है? पागल आदमी भी आवाजें सुनता है। तुम इसे देख सकते हो; पागलखाने में चले जाओ और तुम देख सकते हो कि पागल लोग अकेले बैठे हैं और इतनी तन्मयता से बातें कर रहे हैं जैसे कि कोई वहां उपस्थित हो। भेद क्या है? जब गेथसेमाने के बाग में जीसस ने प्रार्थना की, आकाश की ओर अपने हाथ उठाए और परमात्मा से बातें करना आरंभ कर दी, तब क्या भेद है? ऐसा प्रतीत होता है कि वहां कोई नहीं है, जीसस भी उतने ही पागल हैं जितना कोई और पागल। जब सूली पर उन्होंने रोना और परमात्मा से बातें करना शुरू कर दिया, तो क्या अंतर है? क्योंकि वहां कई हजार लोग इकट्ठे हो गए थे, उनको वहां कोई भी नहीं दिखाई पड़ा। और जीसस ने कहा, पिता इन लोगों को क्षमा कर दो, क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। वे पागल हैं। वे किसके साथ बातें कर रहे हैं? वे अपने होशोहवास में नहीं हैं। धीरे— धीरे यदि तुम्हारा अंतर्तम संसार अपूर्ण है और तुम इसके साथ संपर्क खो चुके हो, तो तुम जीसस, कृष्ण, बुद्ध या पतंजलि में विश्वास नहीं कर सकते हो। वे किसके बारे में बात कर रहे हैं। और तुम, जो बहुत चतुर लोग हो, अपने स्‍वप्‍नों के बारे में बहुत वैज्ञानिक ढंग से बात किए चले जाते हो।

अनेक पागल लोग बहुत, बहुत तर्कयुक्त होते हैं। यदि तुम पागल लोगों की बातें सुनो तो तुम हैरान हो जाओगे। वे बहुत तर्कनिष्ठ, बहुत तर्कपूर्ण होते हैं, और एक सीमा तक तो तुम उनसे करीब—करीब राजी भी हो जाओगे।

मैंने एक व्यक्ति के बारे में सुना है, जो अपने किसी ऐसे संबंधी से मिलने गया था जो पागलखाने में था। उसी कोठरी में एक दूसरा रोगी भी था, और यह दूसरा व्यक्ति इतना भला आदमी, इतना आह्लादित दिख रहा था और वह इतनी गरिमा के साथ बैठा हुआ समाचार पत्र पढ़ रहा था कि इस मुलाकाती ने उससे पूछा, आप तो जरा भी पागल नहीं लगते। उसने इस आदमी से बातचीत की और वह पूरी तरह से तर्कयुक्त, नितांत सामान्य था। मुलाकात करने आया व्यक्ति तो हैरान था। तुमको यहां पर क्यों रख दिया गया है? उसने बताया, मुझको अपने रिश्तदारों की वजह से यहां रखा गया है, वे मुझे यहां भेज देना चाहते थे क्योंकि वे उस सारी संपत्ति पर कब्जा जमाना चाहते थे जो मेरे पास है, और इसका यही एकमात्र उपाय था या तो मुझको मार डालों या मुझको पागलखाने में डाल दो। और मैं भी राजी हो गया। यह बेहतर है। कम से कम मैं जीवित तो हूं। वरना उन्होंने तो मुझे मार ही डाला होता। मेरे पास बहुत अधिक धन है।

और सब कुछ इतना सामान्य और तर्कपूर्ण था कि इस व्यक्ति ने कहा, तुम चिंता मत करो। मैं गवर्नर को जानता हूं और मैं उनके पास जाऊंगा और पूरी बात बता दूंगा। उस पागल आदमी ने कहा. कृपा करें, यदि आप कुछ कर सकते हैं तो कीजिए। जब वह व्यक्ति बस बाहर निकल ही रहा था, अचानक इस पागल आदमी ने उछल कर उसके सर पर जोर से प्रहार किया। उस व्यक्ति ने पूछा, अरे, तुम यह क्या कर रहे हो? इस पागल ने कहा : बस आपको याद दिलाने के लिए…गवर्नर के पास जाना मत भूलिएगा। अब आप नहीं भूलेंगे।

कहीं न कहीं सभी कुछ तर्कयुक्त था, लेकिन पागल आदमी और रहस्यदर्शी के बीच अंतर कैसे किया जाए? क्योंकि रहस्यदर्शी में भी एक निश्चित सीमा तक सभी कुछ तर्कपूर्ण प्रतीत होता है। फिर अचानक वह किसी ऐसी चीज के बारे में बात करने लगता है जिसका तुम्हें कभी अनुभव नहीं हुआ था। तब तुम डर जाते हो, और स्वयं को भय से बचाने के लिए तुम अपने भय को तर्क द्वारा समझाने का प्रयास करते हो।

‘मन के लिए अपने आप को और किसी अन्य वस्तु को उसी समय में जानना असंभव है।’

ये सूत्र साक्षीभाव के बारे में हैं। पतंजलि क्रमबद्ध रूप से यह कह रहे हैं कि मन के लिए दो कार्य एक साथ कर पाना असंभव है, ज्ञेय हो जाए और शांता भी बन जाए। या तो वह जान सकता है या उसके बारे में जाना जा सकता है। इसलिए जब तुम अपने मन के साक्षी हो सकते हो तो यह बात आत्यंतिक रूप से सिद्ध कर देती है कि मन ज्ञाता नहीं है। तुम ज्ञाता हो। तुम शरीर नहीं हो; तुम मन भी नहीं हो। सारा जोर इस बात पर है. जो तुम नहीं हो उससे अंतर करने में तुम्हारी सहायता किस भांति की जाए।

‘यदि यह मान लिया जाए कि दूसरा मन पहले मन को .प्रकाशित करता है, तो बोध के बोध की कल्पना करनी पड़ेगी, और इससे स्मृतियों का संशय उत्पन्न होगा।’

लेकिन ऐसे भी दर्शनशास्त्री हुए हैं जिनका कहना है कि साक्षी को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, हम एक और मन को मान सकते है : पहले मन को दूसरे मन के द्वारा जान लिया जाता है। यही वह बात है जिससे मनोवैज्ञानिक भी सहमत होंगे, क्योंकि किसी नितांत अज्ञात वस्तु को क्यों महत्व देना? मन का स्वय मन के द्वारा, एक सूक्ष्म मन द्वारा निरीक्षण किया जाता है। लेकिन पतंजलि इस दृष्टिकोण का एक तहत तर्कपूर्ण खंडन प्रस्तुत करते है। वे कहते हैं, यदि तुम यह मान लो कि पहले मन का ज्ञान दूसरे मन द्वारा होता है, तो दूसरे मन का ज्ञान कि सकी होता है? फिर तीसरा मन, फिर तीसरे मन का ज्ञान किसको होता है? फिर इससे संशय निर्मित होगा। यह पीछे लौटते जाने की एक अंतहीन प्रक्रिया होगी। फिर तुम बढ़ते चले जाओ अनंत तक और पुन: यदि तुम कहते हो, एक हजारवा मन, लेकिन फिर भी समस्ता वही बनी रहती है। फिर तुमको पुन: एक हजारवें मन के पीछे एक हजार एकवें मन की कल्पना करनी पड़ेगी—और यह आगे और आगे चलता चला जाएगा।

नहीं, व्‍यक्‍ति को किसी ऐसी बात को समझना पड़ता है जो नितांत भीतर है जिससे परे कुछ भी नहीं है। वरना स्मृति ये। का संशय होगा, वरना उलझन होगी। शरीर, मन और साक्षी साक्षी परम है। लेकिन साक्षी का ज्ञान किसको होता है? साक्षी को कौन जानता है? और तब हम योग की सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिकल्पनाओं में से एक पर आ जाते हैं।

‘आत्म—बोध से अपनी स्वयं की प्रकृति का ज्ञान मिल जाता है, और जब चेतना इस रूप में आ जाती है तो यह एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं जाती।’

योग का मानना है कि साक्षी एक स्व प्रकाशमान घटना है। यह बस प्रकाश की भांति है। तुम्हारे कमरे में एक छोटी सी मोमबत्ती है, यह मोमबत्ती पूरे कमरे को—फर्नीचर को, दीवारों को, दीवार पर लगी पेटिंग को, प्रकाशित कर देती है। मोमबत्ती को कौन प्रकाशित करता है? तुमको इस मोमबत्ती की खोज करने के लिए एक अन्य मोमबत्ती की आवश्यकता नहीं होती; यह मोमबत्ती स्वयं प्रकाशित हो रही है। यह दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित करती है और साथ ही साथ यह अपने आप को भी प्रकाशित करती है। स्वबुद्धिसवेदनम—अंतर्तम चेतना स्व प्रकाशित है। यह प्रकाश की प्रकृति है। सूर्य सौरमंडल की प्रत्येक वस्तु को प्रकाशित करता है—और साथ ही साथ यह अपने आप को भी प्रकाशित करता है। साक्षी उस प्रत्येक बात का साक्षी है जो इन पांच बीजों और इस संसार में उसके चारों ओर चल रही है, ठीक उसी समय यह अपने आप को भी प्रकाशित करता है। यह पूर्णत: तर्कयुक्त लगता है। कहीं न कहीं हमें सागर में उतरते चले जाएं तो चट्टानी तलहटी पर आना पड़ता है। वरना हम और—और आगे बढ़ते चले जाएंगे— और इससे सहायता नहीं मिलेगी, और समस्या वैसी ही बनी रहती है।

‘आत्म—बोध से अपनी स्वयं की प्रकृति का ज्ञान मिल जाता है, और जब चेतना इस रूप में आ जाती है तो यह एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं जाती।’

जब तुम्हारी आंतरिक चेतना अ—गति के क्षण में आ चुकी है, जब यह गहनता से केंद्रित हो चुकी है और दृढ़ता से स्थापित हो चुकी है, जब यह कंपित नहीं हो रही है, जब यह सजगता की अनवरत अग्निशिखा बन चुकी है, तब यह अपने आप को प्रकाशित करती है।

‘जब मन ज्ञाता और ज्ञेय के रंग में रंग जाता है तब यह सर्वज्ञ हो जाता है।’

मन तुम्हारे और संसार के ठीक मध्य में है। तुम्हारे और संसार के मध्य में, साक्षी और साक्षित्व के विषय के मध्य में, मन सेतु है। मन एक सेतु है। और मन यदि वस्तुओं के रंग में रंग जाता है, और साक्षी के द्वारा भी रंग जाता है, तब यह सर्वज्ञ हो जाता है। यह ज्ञान का प्रचंड उपकरण बन जाता है। लेकिन दो प्रकार से रंगे जाने की आवश्यकता है। एक, इसको उन वस्तुओं के द्वारा रंगा जाना चाहिए जिनको यह देखता है और दूसरा इसको साक्षी द्वारा रंग दिया जाना चाहिए। साक्षी को अपनी ऊर्जा मन की ओर प्रवाहित कर देना चाहिए, केवल तभी मन वस्तुओं को जान सकता है।

उदाहरण के लिए, एक वैज्ञानिक कार्यरत है, उसने एक व्यक्ति के शरीर का विच्छेदन किया हुआ है और वह बहुत बारीकी से, उतनी सूक्ष्मता से जितनी उपकरणों द्वारा संभव है, निरीक्षण कर रहा है। वह आत्मा को खोज रहा है, और उसे कोई आत्मा नहीं मिलती, बस पदार्थ ही पदार्थ मिलता है। अधिक से अधिक उसे कुछ ऐसा मिल सकता है जो भौतिक विज्ञान के संसार से संबद्ध हो या रसायन विज्ञान के संसार से जुड़ा हो, लेकिन ऐसा कुछ नहीं मिलता है जो चेतना के संसार से संबंधित हो। और वह प्रयोगशाला से बाहर आता है और वह कहता है, ‘वहां कोई चेतना नहीं है।’ अब वह एक बात से चूक गया है। मृत शरीर में कौन देख रहा था, अपने आप को वह पूरी तरह से भूल चुका था। वैज्ञानिक विषय को देख रहा है, लेकिन वह अपने स्वयं के अस्तित्व को पूरी तरह से भूल गया है। वैज्ञानिक चेतना को बाहर खोजने का प्रयास कर रहा है, लेकिन वह उसको पूरी तरह से भूल चुका है जो प्रयासरत है, वही चेतना है। खोजने वाला ही खोजा जाने वाला है, वह विषयवस्तु पर अत्यधिक केंद्रित हो चुका है और विषयी, कर्त्ता भुला दिया गया है।

विज्ञान वस्तु पर अत्यधिक केंद्रित है, और तथाकथित धर्म विषयी पर अत्यधिक केंद्रित हैं। लेकिन योग का कहना है : एकपक्षीय होने की कोई आवश्यकता नहीं है। स्मरण रखो कि संसार वहां है और यह भी स्मरण रखो कि तुम हो। विषय और विषयी दोनों की अपनी स्मृति को पूर्ण और समग्र होने दो। जब तुम्हारा मन तुम्हारी चेतना से प्रेरित होता है और वस्तुगत संसार से ओत—प्रोत होता है तब वहां पर सर्वज्ञता घटित हो जाती है।

और पतंजलि कहते हैं : ‘जब मन ज्ञाता और ज्ञेय के रंग में रंग जाता है, तब यह सर्वज्ञ हो जाता है।’

यह उस सभी कुछ को जान सकता है जिसे जाना जा सकता है। जिसे जाना जा सकता है उस सभी को यह जान सकता है। फिर मन से कुछ भी छिप नहीं पाता। एक धार्मिक मन जिसे हम अंतर्मुखी मन कह सकते हैं—क्रमश: केवल अपने विषयी रूप को जान लेता है और यह कहना शुरू कर देता है कि संसार माया है, भ्रम है, एक स्वप्न है, जो उसी पदार्थ से बना है जिससे स्वप्न बनते हैं। एक वैज्ञानिक जो वस्तुओं पर बहुत अधिक केंद्रित है वस्तुगत जगत में विश्वास करना आरंभ कर देता है और कहता है कि केवल पदार्थ का ही अस्तित्व है; चेतना केवल एक काव्य मात्र है, स्वप्‍नदर्शियों की बातचीत है, अच्छी है, मनोहारी है, किंतु यह वास्तविकता नहीं है। वैज्ञानिक का कहना है कि चेतना एक भ्रांति है। बहिर्मुखी कहता है कि चेतना भ्रम है, अंतर्मुखी कहता है कि संसार भ्रम है।

लेकिन योग सर्वोच्च विज्ञान है। पतंजलि कहते है ‘दोनों यथार्थ हैं।’ वास्तविकता के दो आयाम होते हैं. बाह्य पक्ष और भीतरी पक्ष। और स्मरण रखो, भीतरी पक्ष कैसे हो सकता है, बाह्य पक्ष के बिना इसका होना किस भांति संभव है? क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि केवल भीतरी पक्ष का अस्तित्व है और बाह्य पक्ष भ्रम है? यदि बाह्य पक्ष भ्रम है तो भीतरी पक्ष स्वत: ही भ्रम हो जाएगा। यदि तुम्हारे मकान का भीतरी भाग वास्तविक है और बाहरी भाग अवास्तविक, तो तुम उनके मध्य अंतर किस प्रकार से करोगे? कहां पर वास्तविकता समाप्त होती है और भ्रम आरंभ हो जाता है? और एक ऐसा बाह्य पक्ष जो भ्रामक हो उसका भीतरी पक्ष यथार्थ कैसे हो सकता है? एक अवास्तविक शरीर में एक अवास्तविक मन होगा, एक अवास्तविक मन के पास एक अवास्तविक चेतना होगी। असली चेतना के लिए एक असली मन चाहिए, एक असली मन के लिए वास्तविक शरीर चाहिए, वास्तविक शरीर के लिए यथार्थ संसार चाहिए।

योग किसी चीज से इनकार नहीं करता। योग नितांत यथार्थवादी है, अनुभवात्मक है। यह विज्ञान से अधिक वैज्ञानिक है, और धर्मों से अधिक धार्मिक है, क्योंकि यह अंतस और बाह्य का एक महत्तर संश्लेषण निर्मित करता है।

‘यद्यपि मन असंख्य वासनाओं के रंग में रंगता है, फिर भी मन लगातार उनकी पूर्ति हेतु कार्य करता है, इसके लिए यह सहयोग से कार्य करता है।’

मन लगातार कार्य करता चला जाता है, किंतु यह अपने लिए कार्य नहीं कर रहा है। इसके पास प्रबंधकीय पद है, मालिक पीछे छिपा हुआ है। यह मालिक के साथ सहयोग करता है। अब इसको गहराई से समझ लेना पड़ेगा।

यदि मन मालिक के साथ सहयोग करता है तो तुम स्वस्थ एवं पूर्ण हो। यदि मन भटक जाता है, मालिक के विरोध में हो जाता है, तो तुम रुग्ण और अस्वस्थ हो। यदि नौकर मालिक का छाया की भांति अनुसरण करता है, तो सभी कुछ ठीक है। यदि मालिक कहता है, बाईं ओर जाओ और नौकर दाईं ओर चला जाता है, तो कुछ गड़बड़ हो गई है। यदि तुम चाहो कि तुम्हारा शरीर दौड़े और शरीर कहता है, मैं नहीं दौड़ सकता, तब तुम पंगु हो। यदि तुम कुछ करना चाहते हो और शरीर और मन कहते हैं, नहीं, या वे कुछ ऐसा किए चले जाते हैं जिसको तुम नहीं करना चाहते, तब तुम एक बडे संशय में घिर जाते हो। इसी प्रकार से सारी मनुष्य—जाति जी रही है।

योग ने इसे एक लक्ष्य बना रखा है कि तुम्हारे मन को तुम्हारे प्रभु, अंतर्तम आत्मा के अनुसार कार्य करना चाहिए। तुम्हारे शरीर को तुम्हारे मन के अनुरूप कार्य करना चाहिए, और तुमको अपने चारों ओर एक ऐसा संसार निर्मित करना है जो सहयोग में हो। जब प्रत्येक वस्तु सहयोग में हो—निम्नतर सदैव उच्चतर के सहयोग में है, उच्चतर सदा उच्चतम के सहयोग में है, और उच्चतम आत्यंतिक परम सत्ता के सहयोग में है—तब तुम्हारा जीवन एक लयबद्धता है। तब तुम एक योगी हो। फिर तुम एक हो जाते हो, किंतु इस अर्थ में नहीं कि केवल एक का ही अस्तित्व रहता है, अब तुम एक स्वर के अर्थ में एक हो गए हो। तुम एक आर्केस्ट्रा के अर्थ में: वाद्यर्यत्र अनेक हैं, लेकिन संगीत एक ही है, तुम एक हो गए हो— अनेक शरीर, लाखों विषय—वासनाएं, महत्वाकांक्षाएं, भाव—दशाएं, शिखर और घाटियां, असफलताएं और सफलताएं, एक विराट विविधता, लेकिन सभी कुछ एक स्वर में, लयबद्धता में हैं। तुम एक वाद्य— समूह बन गए हो। प्रत्येक अन्य सभी के साथ सहयोग कर रहा है, और अंतत: सभी तुम्हारे अस्तित्व के परम केंद्र के साथ सहयोग कर रहे हैं।

यही कारण है कि भारत में हमने संन्यासियों को ‘स्वामी’ कहा है। स्वामी का अर्थ है. प्रभु, जिसका स्वयं पर प्रभुत्व है। तुम स्वामी केवल तब बनते हो जब तुमने इस लयबद्धता को उपलब्ध कर लिया है जिसकी बात पतंजलि कर रहे हैं। चाहे वह जो कुछ भी हो पतंजलि किसी चीज के भी विरोध में नहीं हैं; वे लयबद्धता के पक्ष में हैं। वे नकार के विरोध में हैं। वे किसी चीज के विरोध में नहीं हैं, वे शरीर के विरोध में नहीं हैं, वे देह विरोधी व्यक्ति नहीं .हैं, वे संसार के विरोधी नहीं हैं, जीवन—निषेधक नहीं हैं वे, वे सभी कुछ आत्मसात कर लेते हैं। और इस भांति आत्मसात करके वे उच्चतर संश्लेषण का सृजन करते हैं। और परम संश्लेषण तब होता है जब हर चीज सहशोग में हो, जहां एक भी स्वर लयविहीन न हो।

मैंने एक कथा सुनी है, एक बबून का पाच वर्षीय बच्चा जन्म से अभी तक एक शब्द भी नहीं बोला था। उसके माता—पिता को विश्वास हो चुका था कि उनका बच्चा गूंगा है, जब तक कि एक रात उसने केला नहीं खाया। अचानक उसने अपनी मां की ओर निगाह उठाई और स्पष्ट रूप से कहा, ‘मुझे सड़ा केला खिला दिया, कैसी घटिया बात थी यह। माता बबून अतिहर्षित हो गई और उस ने अपने बच्चे से पूछा कि इसके पहले वह कभी क्यों नहीं बोला। ठीक है, छोटे बस्त ने कहा, अब तक भोजन ठीक जो था।

यदि तुम लयबद्धता में हो तो तुम संसार के बारे में शिकायत नहीं करोगे, तुम किसी चीज के बारे मैं शिकायत नहीं करोगे। शिकायत कर्ता मन तो बस यह दिखा रहा है कि भीतर चीजें लयबद्धता में नहीं हैं : जब सभी कुछ लयबद्धता में हो तो कोई शिकायत नहीं होती है। अब तुम अपने तथाकथित संतों के पास चले जाओ, प्रत्येक व्यक्ति शिकायत कर रहा है—संसार की शिकायत, अभिलाषाओं की शिकायत) शरीर की शिकायत, इसकी और उसकी शिकायत। प्रत्येक व्यक्ति शिकायतों में जीता है, कुछ गड़बड़ है। संपूर्ण व्यक्ति वह है जिसके पास कोई शिकायतें नहीं हैं। वह व्यक्ति परमात्म—पुरुष है जिसने प्रत्येक चीज को स्वीकार कर लिया है, आत्मसात कर लिया है और ब्रह्मांड बन गया है, अब उसके भीतर कुछ भी. उपद्रव नहीं रह गया है।

एक और कहानी। जिस ढंग से उसने अपने बोलने वाले तोते को प्रशिक्षित किया था, उस पर इस वृद्ध महिला को गर्व था, और वह इसे पादरी को दिखा रही थी. यदि आप इसका बायां पैर खींचते हैं तो यह परमेश्वर की स्तुति बोलता है और यदि आप इसका दायां पैर खींचते हैं तो यह भजन दोहराता है, उसने समझाया।

यदि दोनों पैर एक साथ खींच लो तो क्या होगा? पादरी ने पूछा।

मैं पीठ के बल लुढुक जाऊंगा, मूर्ख बुड्डे! मुंहतोड़ जवाब देते हुए तोते ने कहा।

और मनुष्य के साथ भी यही हो गया है। यदि तुम एक टांग खींचो तो ठीक है; यदि तुम दूसरी टांग खींचो तो यह भी सही है; लेकिन यदि तुम दोनों पैर खींच लो तो प्रत्येक चीज को नीचे लुढ़क ही जाना है, यही तो मनुष्य के साथ हो गया है। उसके पूरे अस्तित्व को नीचे खींच लिया गया है। धर्म उसके शरीर को नीचे खींचने का प्रयास करते रहे हैं। उसके शरीर के प्रति वे बहुत अधिक भयभीत, बहुत अपराध—बोध से भरे हुए हैं। वे लगातार शरीर को विनष्ट करने का और उसको विषाक्त करने का प्रयास करते रहे हैं। वे तुमको प्रेतों की भांति शरीरविहीन देखना चाहेंगे। उनका खयाल यही है कि शरीर अपने अंतर्तम से ही गलत है, कि शरीर पाप—काया है। इसलिए तुमको आत्माओं की भांति होना चाहिए, शरीर के बिना, देहविहीन।

अब भौतिकवादी, साम्यवादी, मार्क्सवादी, वैज्ञानिक दूसरे ढंग से प्रयास कर रहे हैं। वे दूसरी टाँग को खींचने का प्रयास कर रहे हैं। वे कहते हैं कि चेतना जैसी कोई चीज नहीं होती; आत्मा नहीं है। यह भौतिक और रासायनिक वस्तुओं का संयोजन मात्र है, जो तुम हो। तुमको शरीर ही होना चाहिए और कुछ भी नहीं। अब दोनों ने एक साथ दोनों टांगें खीच ली हैं, और पूरा का पूरा मनुष्य ही एक पीड़ित जीव, एक रोग, एक दुविधा बन चुका है।

पतंजलि कहते हैं : ‘हर वस्तु को स्वीकार करो, इसका प्रयोग करो, इसके बारे में सृजनात्मक बनो, निषेध मत करो।’ इनकार उनका ढंग नहीं है, बल्कि स्वीकार है उनका उपाय। यही कारण है कि पतंजलि ने शरीर पर, भोजन पर, योगासनों पर, प्राणायाम पर, इतना अधिक कार्य किया है। ये सभी प्रयास लयबद्धता निर्मित करने के लिए हैं; शरीर के लिए सम्यक आहार, शरीर के लिए सम्यक आसन, प्राण शरीर के लिए लयबद्ध श्वसन क्रिया। अधिक प्राण, अधिक जीवंतता को आत्मसात करना पड़ेगा। ऐसे ढंग और उपाय खोजने पड़ते हैं जिससे तुम कभी सतत ऊर्जा विहीनता से पीड़ित न रहो, बल्कि ऊर्जा के अतिरेक में रहो।

मन के साथ भी प्रत्याहार, मन एक सेतु है; तुम सेतु से बाहर की ओर जा सकते हो, तुम उसी पुल पर चल सकते हो और भीतर जा सकते हो। जब तुम बाहर की ओर जाते हो तो वस्तुएं, इच्छाएं, तुमको प्रभावित करती हैं। जब तुम भीतर की ओर जाते हो तो इच्छाविहीनता, जागरूकता, साक्षीभाव तुम्हारे ऊपर प्रभाव डालते हैं, लेकिन सेतु वही है। इसका प्रयोग करना पड़ता है, इसको तोड़ कर फेंक नहीं देना है, इसकी विनष्ट नहीं कर देना है, क्योंकि यह वही सेतु है जिससे तुम संसार में आए हो और जिससे होकर ही तुमको पुन: आंतरिक स्वभाव में लौटना पड़ता है, और इसी प्रकार इसे किया जा सकता है।

पतंजलि प्रत्येक वस्तु का उपयोग किए चले जाते हैं। उनका धर्म भय का नहीं बल्कि समझ का धर्म है। उनका धर्म परमात्मा के लिए, और संसार के विरोध में नही है। उनका धर्म संसार के माध्यम से परमात्मा के लिए है, क्योंकि परमात्मा और संसार दो नहीं है। संसार परमात्मा का सृजन है। यह संसार उसकी सृजनात्मकता है, उसकी अभिव्यक्ति है, यह संसार उसका काव्य है। यदि तुम काव्य के विरोध में हो तो, तुम कवि के समर्थन में किस भांति हो सकते हो? काव्य की निंदा करने में तुमने कवि की निंदा कर ही दी है। निस्‍संदेह, काव्य ही लक्ष्य नहीं है, तुमको कवि की खोज भी करनी पड़ेगी। लेकिन कवि तक पहुंचने के रास्ते में तुम काव्य का आनंद भी उठा सकते हो, इसमें कुछ भी गलत नहीं है।

एक मेथोडिस्ट धर्म प्रचारक वायुयान से अमरीका जा रहा था, जब एअर होस्टेस ने पूछा कि क्या वह बार से कोई पेय लेना चाहेगा, तो उसने पूछा, हम कितनी ऊंचाई पर उड़ रहे हैं? जब यह बताया गया कि तीस हजार फीट, तो उसने उत्तर दिया, नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए……मुख्यालय के इतने पास नहीं पियूंगा। भय, धार्मिक लोग लगातार भय से ग्रसित हैं। लेकिन भय तुम्हें ईश्वर की कृपा नहीं दे सकता, तुमको गरिमा नहीं दे सकता। भय पंगु बना देता है, अपंग कर देता है, विकृत कर डालता है। भय के कारण धर्म करीब—करीब एक रोग बन चुका है। यह तुमको असामान्य बना देता है, यह तुम्हें स्वस्थ नहीं करता, यह तुमको जीने से और—और भयभीत कर देता है, नरक है, और तुम जो कुछ भी करते हो ऐसा लगता है कि तुम कुछ गलत कर रहे हो। तुम प्रेम करते हो और यह गलत है, तुम आनंद लेते हो और यह गलत है। प्रसन्नता को अपराध—बोध से जोड़ दिया गया है। केवल गलत लोग ही प्रसन्न मालूम पड़ते हैं। भले लोग सदा गंभीर रहते हैं और कभी प्रसन्न नहीं होते। यदि तुम स्वर्ग जाना चाहते हो तो तुमको गंभीर और अप्रसन्न और उदास और संतापग्रस्त होना पड़ता है। तुमको तपस्वी होना पड़ता है। यदि तुम नरक जाना चाहते हो, तो प्रसन्न हो जाओ और नृत्य करो और आनंद लो। किंतु स्मरण रखना, उमर खय्याम ने कहीं पर कहा है, ‘मुझे सदैव एक बात के बारे में चिंता रहती है : यदि ये सारे अप्रसन्न लोग स्वर्ग जा रहे हैं तो वहां पर वे करेंगे क्या? वे नृत्य नहीं कर सकते, वे गीत नहीं गा सकते, वे पी नहीं सकते, वे आनंद नहीं उठा सकते, वे प्रेम नहीं कर सकते। सारा मौका इन मूढ़ लोगों पर गंवा दिया जाएगा। वे लोग जो आनंद उठा सकते हैं नरक में भेज दिए जाते हैं। वास्तव में उनको स्वर्ग में होना चाहिए।’ यह अधिक तर्कपूर्ण प्रतीत होता है। उमर खय्याम का कहना है, ‘यदि तुम वास्तव में स्वर्ग जाना चाहते हो तो यहीं पर स्वर्ग सा जीवन जीयो ताकि तुम तैयार रही।’

पतंजलि चाहेंगे कि तुम जीवन से आलोकित रहो, अज्ञात से स्पंदित रहो। वे किसी चीज के विरोध में नहीं हैं। यदि तुम प्रेम में हो, तो वे कहते हैं, अपने प्रेम को थोड़ा और गहराओ। तुम्हारे लिए अधिक बड़े खजाने प्रतीक्षा कर रहे हैं। ये खजाने अच्छे हैं, ये वृक्ष, ये पुष्प अच्छे हैं। फिर पुरुष, स्त्री, वे सुंदर और अच्छे हैं, क्योंकि किसी भी तरह से, भले ही कितनी दूर हो फिर भी परमात्मा उनके माध्यम से तुम तक आज्ज है। हो सकता है वहां अनेक पर्दे हों। जब तुम किसी स्त्री या पुरुष से मिलते हो तो अनेक पर्दे और परतें हों, लेकिन फिर भी जो प्रकाश है वह परमात्मा का है। शायद यह अनेक अवरोधों से होकर गुजरा हो, यह विकृत हो सकता है, लेकिन फिर भी यह प्रकाश परमात्मा का है।

पतंजलि कहते हैं : ‘इस संसार के विरोध में मत होओ। बल्कि संसार के माध्यम से खोज करो। एक उपाय खोज लो ताकि तुम प्रकाश के मूलस्रोत, शुद्ध, अस्पर्शित प्रकाश को उपलब्ध कर सको।’

ऐसे लोग हैं जो केवल भोजन के लिए जीते हैं, और ऐसे लोग हैं जो भोजन के विरोध में चले जाते हैं—दोनों ही गलत हैं। जीसस कहते हैं : मनुष्य केवल रोटी के सहारे नहीं जी सकता, सच है, पूरी तरह से सच है—लेकिन क्या मनुष्य रोटी के बिना जी सकता है? इसको याद रखना चाहिए। मनुष्य केवल रोटी से जीवित नहीं रह सकता, ठीक; लेकिन मनुष्य रोटी के बिना भी नहीं जी सकता।

मैं एक छोटी सी कहानी पढ़ रहा था।

पालतू पक्षियों की दुकान से एक महिला ने इस आश्वासन पर एक तोता खरीदा कि वह बात करेगा। दो सप्ताह बाद वह शिकायत करने के लिए दुकान पर आई। उसके खेलने के लिए एक छोटी सी घंटी खरीद लीजिए, दुकानदार ने सलाह दी। इससे उसको बोलने में अक्सर सहायता मिलती है। उस महिला ने घंटी खरीद ली और चली गई; एक सप्ताह बाद वह यह कहने के लिए आई कि पक्षी ने अभी तक एक भी शब्द नहीं बोला है। दुकानदार ने राय दी कि वह एक दर्पण खरीद ले, जो कि पक्षियों को बोलने के लिए उकसाने का अचूक उपाय है। उसने दर्पण ले लिया और चली गई। केवल तीन दिन बाद ही वह वापस लौट आई। इस बार दुकानदार ने उसे एक छोटी सी प्लास्टिक की चिड़िया बेच दी, जिसके बारे में उसने बताया कि यह तोते को कुछ बातचीत करने के लिए अवसर देगी। एक सप्ताह और बीत गया और महिला यह बताने के लिए आई कि तोता अब मर गया है।

क्या वह बिना बोले ही मर गया.? दुकानदार ने पूछा।

अरे नहीं, उस महिला ने उत्तर दिया। उसने मरने के ठीक पहले एक बात कही थी।

क्या कहा था?

खाना! भगवान के लिए मुझको खाना दे दो!

व्यक्ति को बहुत, बहुत ही सजग होना पड़ता है, वरना व्यक्ति बहुत सरलता से विपरीत ध्रुवीयता पर जा सकता है। मन अतिवादी है। मैंने वह निरीक्षण किया है : वे लोग जो केवल भोजन के लिए जीते रहे हैं, जब वे अपनी जीवनशैली से ऊब जाते हैं तो उपवास आरंभ कर देते हैं। तुरंत ही वे दूसरी अति पर चले जाते हैं। मैं कभी भी किसी ऐसे उपवास करने वाले के, जो उपवास को लेकर दीवाना हो, संपर्क में नहीं आया हूं जो इसके पहले भोजन के प्रति अति आसक्त न रहा हो। वे वही लोग हैं। वे लोग जो काम— भोग में बहुत अधिक संलग्न हैं ब्रह्मचारी होना आरंभ कर देते हैं। वे लोग जो अति कंजूस हैं प्रत्येक पदार्थ का त्याग करना आरंभ कर देते हैं। इसी भांति मन एक अति से दूसरी अति में चला जाता है।

पतंजलि तुम्हारे जीवन को संतुलित करना, उसमें एक साम्य लाना चाहेंगे। मध्य में कहीं उस स्थान पर जहां पर तुम भोजन के प्रति दीवाने नहीं हो, और तुम भोजन के विरोध में भी दीवाने नहीं हो, जहां पर न तो तुम स्त्रियों या पुरुषों के पीछे दीवाने हो और तुम उनके विरोध में भी दीवाने नहीं हो, तुम बस संतुलित हो, प्रशांत हो।

एक मनस्विद का कहना है कि हम अपने व्यवहार में कुछ विचित्र हैं। हम सभी अपने व्यवहार में थोडे विचित्र हैं। इस बात को कहने का दूसरा ढंग यह है कि मैं मौलिक हूं तुम सनकी हो, वह मूर्ख है। जब तुम वही कार्य करते हो तो तुम सोचते हो कि तुम मौलिक हो, जब तुम्हारा मित्र वही कार्य कर रहा होता है तो तुम सोचते हो कि वह सनकी है, और तुम्हारा शत्रु जब वही कार्य कर रहा है तो तुम सोचते हो कि वह मूर्ख है। याद रखो, सोचने का यही अहंकारपूर्ण ढंग विकास के सारे अवसरों को नष्ट कर देगा। अपने बारे में बहुत वस्तुनिष्ट हो जाओ। प्रत्येक व्यक्ति में पागलपन की प्रवृति है, क्योंकि लाखों वर्षों से मानव—जाति विक्षिप्त रही है। प्रत्येक व्यक्ति में स्नायु रोगी की प्रवृति है, क्योंकि हमारी सभ्यता अभी तक उस बिंदु पर नहीं आई है जहां पर यह मनुष्य को संपूर्ण क्रियाकलाप की अनुमति दे सके। यह दमनात्मक रही है। इसलिए निरीक्षण करो : यदि तुम विक्षिप्त हो तो तुम बहुत अधिक खा लोगे। तुम दूसरी अति पर जा सकते हों—तुम भोजन करना पूरी तरह से बंद कर सकते हो—लेकिन तुम्हारा पागलपन वैसा ही रहता है। अब पागलपन भोजन के विरोध में है। और ऐसा मत सोचो कि तुम एक महान आध्यात्मिक, बहुत मौलिक कार्य रहे हो।

एक बार वीणा मेरे पास एक लडके को लेकर आई। वस्तुत: उसका मुझसे संबंध ही तब बना। वह किसी और लड़के को लेकर आई थी जो करीब—करीब पागल था। वह मुझसे यह पूछने आया था, ‘क्या मनुष्य केवल पानी पर जी सकता है?’ वह केवल पानी पर जीवित रहना चाहता था। और वह बेहद दुबला और पीला और लगभग मृतप्राय था। जब मैंने कहा, मूर्ख मत बनो, तो वह प्रसन्न नहीं हुआ। उसने कहा, बस मुझको किसी का पता बता दें, कुछ लोग जो मेरी सहायता कर सकें, क्योंकि मैं केवल पानी पर जीना चाहता हूं। प्रत्येक वस्तु अशुद्ध है—केवल पानी ही शुद्ध है।

विक्षिप्त हैं ये लोग। सारे भारत में वे तुमको मिल जाएंगे. आश्रमों में, मठों में। सौ में पिचानबे लोगों को तुम विक्षिप्त पाओगे। और उनको तुम पागल कह नहीं सकते क्योंकि वे लोग योग, आसन, उपवास, प्रार्थना, यह और वह कर रहे हैं। लेकिन उनके पागलपन को तुरंत देखा जा सकता है। किसे पागलपन कह रहा हूं मैं? कोई भी अतिवाद पागलपन है। संतुलित होना ही स्वस्थ होना है, असंतुलित होना विक्षिप्तता है। जब कभी भी तुमको स्वयं के भीतर या किसी और में कहीं असंतुलन दिखाई पड़े, सचेत हो जाओ। वरना तुम परम लयबद्धता से चूक जाओगे। एकागी, असंतुलित होकर तुम उस आकेस्ट्रा का सृजन नहीं कर सकते, जिसकी झलक तुमको देने का प्रयास पंतजलि कर रहे हैं।

‘मन की वृत्तियों का ज्ञान सदैव इसके प्रभु, पुरुष, को शुद्ध चेतना के सातत्य के कारण होता है।’

सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्पभो पुरुषस्यापरिणामित्वात्।

तत्प्रभो:, उस प्रभु की खोज करनी है। वह तुम्हारे भीतर छिपा है, तुम्हें उसकी खोज करनी पड़ेगो। तुम जैसे भी हो, वह उपस्थित है। जो कुछ भी तुम करते हो, उसे करने वाला वही है। जो कुछ भी तुम देखते हो, उसका द्रष्टा वही है। यहां तक कि तुम जो कुछ भी चाह करते हो, यह वही है जिसने चाहा है। प्याज की भांति, परत दर परत, तुमको अपने आप को छीलना पड़ेगा। किंतु अपने आप को क्रोधपूर्वक नहीं बल्कि प्रेमपूर्वक छीलो। स्वयं को बहुत सावधानी पूर्वक, सजगता से छीलो,

क्योंकि जिसे तुम छील रहे हो वही परमात्मा है। बहुत प्रार्थना पूर्वक छीलो। आत्म—पीड़क मत बन जाओ। अपने आपके लिए पीड़ा निर्मित मत करो। पीड़ा का आनंद मत लो। यदि तुमने पीड़ा में आनंद आरंभ कर दिया और तुम स्व—पीड़क बन गए, तो तुम आत्मघातीयात्रा पर जा रहे हो। तुम अपने आप को नष्ट कर लोगे। व्यक्ति को बहुत, बहुत ही चौकन्ना, सावधान और सृजनात्मक रहना पड़ता है। तुम एक पवित्र भूमि पर चल रहे हो।

जब मूसा पर्वत शिखर पर पहुंच गए जहां उनकी भेंट परमात्मा से हुई, तो उन्होंने क्या देखा? उन्होंने एक झाड़ी, एक ज्योति, एक अग्नि को देखा और उन्होंने एक आवाज सुनी : अपने जूते उतार दो, क्योंकि जिस पर तुम चल रहे हो यह पवित्र भूमि है। लेकिन तुम जहां भी चल रहे हो तुम पवित्र भूमि पर ही चल रहे हो। जब तुम अपने शरीर का स्पर्श करते हो तब तुम किसी पवित्र वस्तु का स्पर्श कर रहे हो। जब तुम कुछ खा रहे हो तुम कुछ पवित्र ही खा रहे हो, अन्नम् ब्रह्म:, भोजन परमात्मा है। जब तुम किसी को प्रेम करते हो, तुम दिव्यता को प्रेम कर रहे हो, क्योंकि वही लाखों रूपों में चारों ओर है। यह वही है जो अभिव्यक्त हो रहा है।

इसे सदैव अपने मन में रखना, जिससे कोई विक्षिप्तता तुम पर हावी न हो सके। संतुलित और प्रशांत बने रहो, बस मध्य के मार्ग पर चलते रहो और तुम कभी भटकोगे नहीं, तुम कभी असंतुलित, एकांगी नहीं होओगे।

योग संतुलन है। योग को संतुलन बनना पड़ता है, क्योंकि यह परम एकता का, जो कुछ है उस सभी की, चरम लयबद्धता का मार्ग बनने जा रहा है।

आज इतना ही।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–18)

February 26, 2015, 5:13 am

अभिनय-से जीवन के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—अट्ठारहवां)

दिनांक 4 अक्‍टूबर, 1970;

प्रात:, मनाली (कुलू)

“भगवान श्री, श्रीकृष्ण कहते हैं कि निष्कामता और अनासक्ति से बंधनों का नाश होता है और परमपद की प्राप्ति होती है। कृपया इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए समझाएं कि किस साधना या उपासना से यह उपलब्धि होगी? सामान्यजन के लिए सीधे निष्काम व अनासक्त होना तो संभव नहीं दिखता।’

 सबसे पहले तो अनासक्ति का अर्थ समझ लेना चाहिए। अनासक्ति थोड़े-से अभागे शब्दों में से एक है जिसका अर्थ नहीं समझा जा सका है। अनासक्ति से लोग समझ लेते हैं–विरक्ति। अनासक्ति विरक्ति नहीं है। विरक्ति भी एक प्रकार की आसक्ति है। विरक्ति विपरीत आसक्ति का नाम है। कोई आदमी काम में आसक्त है, वासना में आसक्त है। कोई आदमी काम के विपरीत ब्रह्मचर्य में आसक्त है। कोई आदमी धन में आसक्त है। कोई आदमी धन के त्याग में आसक्त है। कोई आदमी शरीर के शृंगार में आसक्त है, कोई आदमी शरीर को कुरूप करने में आसक्त है। लेकिन शरीर को कुरूप करने वाला विरक्त मालूम पड़ेगा, धन का त्याग करने वाला विरक्त मालूम पड़ेगा, क्योंकि इनकी आसक्तियां “निगेटिव’ हैं, नकारात्मक हैं।

आसक्ति के दो रूप हैं–किसी के पक्ष में आसक्त होना; या किसी के विपक्ष में आसक्त होना। जो विपक्ष में आसक्त है, वह भी उतना ही आसक्त है जितना पक्ष में आसक्त है। अनासक्ति इन दोनों तरह की आसक्तियों से मुक्ति का नाम है। अनासक्ति का अर्थ है, आसक्त भी नहीं, विरक्त भी नहीं। अनासक्ति दोनों का अतिक्रमण है। इसलिए मैंने कहा कि अनासक्ति थोड़े-से अभागे शब्दों में एक है। वह विरक्ति के साथ पर्यायवाची हो गया।

आध्यात्मिक जगत में ऐसे बहुत से शब्द हैं, जो इसी भांति भ्रांत हो गए हैं। वीतराग ऐसा ही शब्द है। वीतराग विराग का पर्यायवाची बन गया है। वीतराग का अर्थ है, राग और विराग दोनों के पार। महावीर की धारा में जो वीतराग का अर्थ है, कृष्ण की धारा में वह अनासक्ति का अर्थ है। अनासक्ति और वीतरागता पर्यायवाची हैं; लेकिन महावीर वीतराग होंगे राग और विराग दोनों को छोड़कर और कृष्ण अनासक्त होंगे दोनों को स्वीकार करके। उतना फर्क है। और ये दो ही ढंग हैं। इसलिए वीतराग और अनासक्ति की परिणति तो एक है, मार्ग भिन्न हैं। वीतराग का मतलब है, जिसने राग भी छोड़ा विराग भी छोड़ा–लेकिन छोड़ने पर जोर है। अनासक्त का अर्थ है, जिसने राग भी स्वीकारा, विराग भी स्वीकारा–स्वीकार पर जोर है। इसलिए बहुत गहरे में वीतराग शब्द भी निषेधात्मक है और अनासक्त शब्द विधेयात्मक है, वह “पाज़िटिव’ बहुत गहरे में।

यह जो अनासक्त चित्त है, जिसने सब स्वीकार किया–और यह बड़े मजे की बात है कि जिसने सब स्वीकार किया, जैसा है वैसे के लिए ही राजी हो गया, ऐसे व्यक्ति के चित्त पर किसी चीज की कोई रेखा नहीं छूटती। हम किसी चीज को जोर से पकड़ें, तो भी रेखा छूटती है चित्त पर, किसी चीज को जोर से छोड़ें तो भी रेखा छूटती है चित्त पर। लेकिन न हम पकड़ें, न हम छोड़ें, चित्त पर कोई रेखा न छूटे, ऐसे चित्त का नाम अनासक्त।

यह अनासक्ति, पूछा है, कैसे साधारणजन को आए? सभी जन साधारण हैं जब तक अनासक्ति न आ जाए। इसलिए ऐसा सवाल नहीं है कि साधारणजन को कैसे आए। अनासक्ति जब तक न आए, तक तक सभी साधारण हैं। अनासक्ति आ जाए तभी असाधारणतया जीवन में फलित होती है। इसलिए ऐसा नहीं है कि साधारणजन के लिए अनासक्ति का और रास्ता होगा, असाधारणजन के लिए और होगा। क्योंकि असाधारण का एक ही अर्थ है कि वह अनासक्ति को उपलब्ध हुआ है। कैसे उपलब्ध हो, ऐसा ही पूछें। यह अनासक्ति कैसे उपलब्ध हो? इसको भी समझने के पहले जरा इसे समझ लें कि यह चूक कैसे गई है–यह अनासक्ति हमसे चूक कैसे रही है?

अनासक्ति कृष्ण की दृष्टि में स्वभाव है। हम चूक कैसे गए हैं स्वभाव से? इसलिए ऐसा नहीं है कि हमें कुछ साधना है अनासक्ति में, इतना ही जानना है कि स्वभाव से हम चूक कैसे गए हैं। हमने अनासक्ति खोई कैसे? कोई व्यक्ति मेरे पास आया और उसने पूछा कि मैं ईश्वर को खोजता हूं। तो मैंने उससे पूछा कि तुमने खोया कब? और अगर खोया हो तो खोज सकते हो। उसने कहा, नहीं, मैंने खोया तो कभी भी नहीं। तो फिर मैंने कहा, खोजना पागलपन है। जिसे खोया ही न हो, उसे खोजा कैसे जा सकता है? इसलिए असली सवाल, मैंने उस व्यक्ति को कहा कि यह नहीं है कि तुम ईश्वर को कैसे खोजो, असली सवाल यह है कि तुम यह खोजो कि तुमने ईश्वर खोया भी है? और अगर तुम्हें, यह पता चल जाए कि मैंने खोया ही नहीं, तो खोज पूरी हो जाती है।

अनासक्ति स्वभाव है। यह बहुत मजे की बात है। चूंकि अनासक्ति हमारा स्वभाव है इसलिए हम आसक्त भी हो सकते हैं और विरक्त भी हो सकते हैं। अगर आसक्ति हमारा स्वभाव हो, तो विरक्त हम कभी भी नहीं हो सकते। अगर विरक्ति हमारा स्वभाव हो, तो हम आसक्त कभी भी नहीं हो सकते। एक वृक्ष की शाखा है। हवा चलती है पश्चिम की तरफ तो शाखा पश्चिम में झुक जाती है। हवा चलती है पूरब की तरफ तो शाखा पूरब में झुक जाती है। वह इसलिए झुक जाती है कि शाखा न पूरब में है, न पश्चिम में है। वह बीच में है। हवाएं जिस तरफ चलती हैं, वह उसी तरफ झुक जाती है। पानी को हम गर्म करते हैं तो गर्म हो जाता है, ठंडा करते हैं तो ठंडा हो जाता है, क्योंकि पानी खुद न ठंडा है, न गरम है। अगर पानी गरम ही हो, तो फिर ठंडा न हो सकेगा; ठंडा ही हो, तो फिर गरम न हो सकेगा। पानी का स्वभाव ठंडे और गरम के पार है। इसलिए दोनों तरफ यात्रा संभव है।

हमारा स्वभाव अगर आसक्ति हो, तो फिर विरक्ति संभव नहीं है। लेकिन हम विरक्त लोगों को देखते हैं। अगर हमारा स्वभाव पकड़ना ही हो, तो फिर त्याग संभव नहीं है, लेकिन हम त्याग करते लोगों को देखते हैं। अगर हमारा स्वभाव त्यागी हो, तो फिर आसक्ति कैसे संभव होगी, हम तो लोगों को जोर से चीजों को पकड़े देखते हैं। इसका अर्थ इतना ही कि हमारा स्वभाव दोनों नहीं है। इसलिए हम जिस तरफ जाना चाहें जा सकते हैं। हमारा स्वभाव दोनों का अतिक्रमण करता है इसलिए हम दोनों तरफ झुक सकते हैं। हम आंख खोल सकते हैं, आंख बंद कर सकते हैं, क्योंकि आंख का स्वभाव न खुला होना है न बंद होना है। अगर आंख का स्वभाव खुला होना हो तो फिर बंद कैसे करियेगा? अगर आंख का स्वभाव बंद होने का अतिक्रमण करती है। दोनों के पार है। खुलना और बंद होना बाहरी घटनाएं हैं। आंख भीतर न खुली है, न बंद है सिर्फ पलक ही झपकते और खुलते हैं। बहुत गहरे में चेतना हमारी अनासक्त है। सिर्फ पलक ही आसक्त होते हैं और विरक्त होते हैं।

तो पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि स्वभाव हमारा अनासक्ति है। और यह भी ध्यान रहे कि जो हमारा स्वभाव है उसे ही पाया जा सकता है, जो हमारा स्वभाव नहीं है उसे हम कभी भी पा न सकेंगे। सिर्फ हम वही पा सकते हैं जो बहुत गहरे में हैं ही। एक बीज फूल बन जाता है, क्योंकि गहरे में वह फूल है ही। एक पत्थर फूल नहीं बन जाता क्योंकि गहरे को छोड़ दे, उथले में भी वह फूल नहीं है। पत्थर को बो दें तो पत्थर ही रह जाता है, क्योंकि बहुत गहरे में वह पत्थर ही है। बीज को बो दें, देखने में दोनों एक से मालूम पड़ते थे–पत्थर का टुकड़ा और बीज–पत्थर की कंकड़ी और बीज, लेकिन जब बोया तब पता चलता है कि बीज पत्थर नहीं था, वह फूल हो गया। अब हम कह सकते हैं कि बीज फूल था ही, इसलिए फूल हो गया। अगर न होता, तो नहीं हो सकता था। जीवन के गहनतम सूत्रों में से एक है कि हम वही हो सकते हैं जो हम हैं ही–किसी गहरे तल पर हैं, फिर हम परिधि पर भी प्रकट हो जाएंगे। अनासक्ति हमारा स्वभाव है। आसक्ति या विरक्ति हमारा स्वभाव नहीं है। इसलिए हम आसक्त और विरक्त हो पाते हैं। और अनासक्ति हमारा स्वभाव है, इसलिए अनासक्ति पाई जा सकती है। जो बीज है, वह फूल बन सकता है।

यह अनासक्ति सभी का स्वभाव है। ऐसा नहीं कि किसी का है और किसी का नहीं। जहां भी चेतना है, चेतना सदा अनासक्त है। हां, चेतना का व्यवहार, पलक का झपना और बंद होना, आसक्त हो जाता है या विरक्त हो जाता है। यह दूसरी बात ठीक से समझ लें–चेतना अनासक्त है, व्यवहार आसक्त या विरक्त है, व्यवहार। अगर मुझे निपट अकेला छोड़ दिया जाए, जहां सिर्फ मेरी चेतना ही है, तो उस क्षण में मैं आसक्त हूं या विरक्त हूं? नहीं, उस क्षण में मैं कोई भी नहीं हूं। आसक्ति या विरक्ति सदा दूसरे के संबंध में पैदा होती है। अगर मैं कहूं कि फलां आदमी आसक्त है, तो आप तत्काल पूछेंगे, किस चीज में? क्योंकि बिना किसी चीज के आसक्त कैसे होगा? अगर मैं कहूं, फलां आदमी विरक्त है, तो आप पूछेंगे, किस संबंध में? क्योंकि अकेली विरक्ति का कोई अर्थ नहीं होता। विरक्ति या आसक्ति, दोनों वस्तुओं या व्यक्तियों, “पर’ से हमारे संबंध हैं, “रिलेशनशिप्स’ हैं। वह हमारा व्यवहार है, वह हमारा “बिहेवियर’ है, वह हम नहीं हैं।

यह दूसरी बात ठीक से समझ लेनी जरूरी है कि आसक्त या विरक्त हमारा व्यवहार है। और इसलिए यह भी सुविधापूर्ण है कि जिसके प्रति आज हम आसक्त हैं, कल विरक्त हो सकते हैं। जिसके प्रति आज विरक्त हैं, कल आसक्त हो सकते हैं। और ऐसा भी नहीं है कि कल ही हों, कभी-कभी तो ऐसा होता है, एक ही क्षण में एक ही आदमी के किसी हिस्से के प्रति हम आसक्त हैं और किसी के प्रति विरक्त होते हैं। एक ही चीज के प्रति भी हमारी दुविधा होती है, द्वंद्व होता है। कहीं से वह पकड़ने योग्य लगती है, कहीं से वह छोड़ने योग्य लगती है, लेकिन एक बात तय है कि विरक्ति और आसक्ति हमारा व्यवहार है, हमारा स्वभाव नहीं। व्यवहार का मतलब है, जिस में “पर’ अनिवार्य है, जो “पर’ के बिना न हो सकेगा। जो अकेले में न हो सकेगा। और स्वभाव का मतलब है, जो निपट अकेले में ही है। अगर मुझे बिलकुल ही अकेला छोड़ दिया जाए सारी वस्तुओं से, सारे लोगों से, सारे विचारों से, मैं निपट अपने अकेलेपन में, “टोटल लोनलीनेस’ में रह जाऊं, तो वहां मैं आसक्त रहूंगा कि विरक्त रहूंगा? नहीं, वहां ये दोनों बातें असंगत होंगी। “रेलिवेंस’ नहीं होगा इनका कोई। वहां मैं कोई भी नहीं होऊंगा, क्योंकि सारे के सारे संबंधों के सूचक शब्द हैं। वहां मैं असंग होऊंगा या वहां मैं अनासक्त होऊंगा। यह मैं समझने के लिए कह रहा हूं कि आप इन शब्दों की पूरी अर्थवत्ता को समझ लें, तो फिर बहुत कठिनाई नहीं रहेगी कि कैसे उपलब्ध हों।

आसक्ति विरक्ति संबंध है, “पर’ अपेक्षित है। “पर’ के बिना नहीं होगा। वह जो “द अदर’ है, वह अनिवार्य है। इसलिए आसक्ति भी गुलामी है और विरक्ति भी गुलामी है। दासता है; क्योंकि जो दूसरे के बिना न हो सके, उसमें हम कभी स्वतंत्र नहीं हो सकते। इसलिए आसक्त भी एक तरह का गुलाम होता और विरक्त भी उलटी तरह का गुलाम होता है। आसक्त के पास तिजोड़ी न हो, तो मुश्किल में पड़ जाता है; विरक्त के कमरे में रात तिजोड़ी रख दो, तो उतनी ही मुश्किल में पड़ जाता है। लेकिन तिजोड़ी से दोनों का बड़ा गहरा संबंध है। आसक्त के पास स्त्री न हो, पुरुष न हो, तो मुश्किल में पड़ जाता है; विरक्त के कमरे में रात स्त्री को ठहरा दो, पुरुष को ठहरा दो, उतनी ही मुश्किल में पड़ जाता है। दोनों गुलाम हैं। दोनों दूसरों पर निर्भर हैं–दूसरे के होने, या न होने पर, इससे फर्क नहीं पड़ता, लेकिन दूसरा उनके होने में अनिवार्य है। वे दूसरे के बिना अपने को नहीं सोच पा सकते। लोभी धन के बिना नहीं सोच पाता, त्यागी धन के बिना नहीं सोच सकता। लेकिन दोनों के केंद्र पर कहीं “पर’ सदा मौजूद रहता है।

यह हमारा व्यवहार ठीक से समझ लें, तो फिर व्यवहार में परिवर्तन से कोई अंतर नहीं पड़ता कि आसक्त विरक्त हो जाए–अक्सर होता रहता है, आसक्त विरक्त हो जाते हैं, विरक्त आसक्त हो जाते हैं। जो लोग घनी आसक्ति में खड़े हैं, जब वे मुझे मिलते हैं तब वे सदा रोते मिलते हैं कि हम बहुत बंधन में पड़े हैं, इससे छुटकारे का उपाय क्या है? जो विरक्त हैं, जब वे मुझे मिलते हैं तो वे कहते हैं, कहीं हमने भूल तो नहीं कर दी? हम जिंदगी से भाग गए। कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिंदगी में कुछ लोगों को मिल रहा हो और वह हमें मिल रहा है? विरक्त को सदा खयाल बना रहता है कि पता नहीं आसक्त तो कुछ नहीं लूट रहा! आसक्त को सदा खयाल बना रहता है कि कहीं विरक्त तो कुछ नहीं लूट रहा है! पता नहीं विरक्त को क्या मिल रहा है, जो आसक्त सोचता रहता है, मुझे नहीं मिल रहा। दोनों की स्थितियां भर अलग हैं, परिस्थितियां भर अलग हैं, मनःस्थितियां अलग नहीं हैं। दोनों की मनःस्थितियां पर-निर्भर हैं। और पर-निर्भरता से न कोई स्वतंत्रता है न कोई सत्य है। पर-निर्भरता से न कोई आनंद है न कोई मुक्ति है। “पर’ ही बंधन है।

लेकिन विरक्त कहता है, तो हम “पर’ को छोड़कर भाग जाते हैं। लेकिन उसे पता नहीं कि जिसे वह छोड़कर भागता है, उससे उसके संबंध नहीं टूटते, सिर्फ भागने के संबंध हो जाते हैं। और जिसे हम छोड़कर भागते हैं वह हमारा पीछा करता है। वह नहीं करता पीछा लेकिन हम छोड़कर भगे हैं, उस कारण ही हम उससे भयभीत हैं, हम उससे डरे हैं, हम उससे चिंतित हैं, वही हमारा पीछा करती है। और फिर “पर’ को छोड़कर जाइयेगा कहां, सब जगह “पर’ मौजूद है। सिर्फ एक जगह को छोड़कर, स्वयं के भीतर को छोड़कर, और तो सब जगह “पर’ मौजूद है। घर छोड़कर जाइयेगा तो आश्रम मौजूद है। पत्नी-पति को छोड़कर जाइयेगा तो शिष्य-शिष्यायें मौजूद हैं। गांव को छोड़कर जाइयेगा तो जंगल मौजूद है। महलों को छोड़कर जाइयेगा तो झोपड़ियां मौजूद हैं। कीमती वस्तु छोड़कर जाइयेगा तो लंगोटियां मौजूद हैं, नंगापन मौजूद है। वह सब मौजूद है। “पर’ को छोड़कर इस जगत में भागा नहीं जा सकता क्योंकि जगत ही “पर’ है; तो भागियेगा कहां? जगत तो होगा। जहां भी जाइयेगा वहां जगत होगा। इसलिए जगत को छोड़कर नहीं भागा जा सकता, इसलिए “पर’ को भी छोड़कर नहीं भागा जा सकता। क्योंकि “पर’ तो रहेगा ही। हां, नये रूपों में प्रगट होगा। नये-नये रूप लेगा, लेकिन नये रूपों से “पर’ नहीं बदलता। हम जहां भी होंगे जगत में, वहां “पर’ होगा, सिर्फ एक जगह को छोड़कर। स्वयं के बहुत गहरे केंद्र पर ही “पर’ नहीं है। लेकिन इसलिए नहीं कि वहां “पर’ प्रवेश नहीं कर सकता, बल्कि इसलिए कि स्वयं के बहुत गहरे केंद्र पर “स्व’ भी मिट जाता है। “मैं’ भी मिट जाता है, इसलिए “पर’ के होने का उपाय मिट जाता है।

इसको अब ऐसे समझिये कि जब “आप’ हैं तब तक “पर’ से नहीं बच सकते हैं। एक मैंने कहा कि जब तक आप जगत में हैं, कहीं भी भागिये “पर’ होगा। अब मैं दूसरी बात आपसे कहता हूं कि जब तक “आप’ हैं, अगर आंख भी बंद कर लीजिये और जगत न हो, तो भी “पर’ होगा। हां, बंद आंख में होगा, सपने में होगा, कामना में होगा, कल्पना में होगा, वासना में होगा, लेकिन “पर’ होगा। जब तक आप हैं तब तक “पर’ भी होगा।

स्वभाव का मतलब है जहां “स्व’ भी मिट जाता है। इसलिए स्वभाव भी अभागे शब्दों में एक है, क्योंकि उसका मतलब होता है, स्वयं का भाव। लेकिन जहां स्वभाव शुरू होता है, वहां “स्व’ मिट जाता है। स्वभाव का स्वयं से कोई संबंध नहीं है। स्वभाव का मतलब ही है कि हमसे होने के पहले था। हमसे होने के बाद होगा; हम हैं तब भी है, हम नहीं हैं तब भी है। अगर मैं बिलकुल भी मिट जाऊं, मेरा “मैं’ बिलकुल भी मिट जाए, तब भी शेष रह जाएगा वह स्वभाव है। स्वभाव में “स्व’ शब्द खतरनाक है। उससे खतरा पैदा होता है, उससे लगता है कि स्वयं का होना। नहीं, स्वभाव का मतलब है, “द नेचर’। स्वभाव का मतलब है, प्रकृति। स्वभाव का मतलब है जो हमारे बिना भी है। जब आप रात सो गए होते हैं तब “स्व’ नहीं होता है, लेकिन स्वभाव होता है। जब गहरी प्रषुप्ति में होते हैं, तब “स्व’ नहीं होता, लेकिन स्वभाव होता है। जब एक आदमी मूर्च्छित पड़ा है? गहरी मूर्च्छा में, “स्व’ नहीं होता, लेकिन स्वभाव होता है। सुषुप्ति और समाधि में इतना ही फर्क है कि सुषुप्ति में मूर्च्छा के कारण “स्व’ नहीं होता, समाधि में अमूर्च्छा के कारण, जागरण के कारण, ज्ञान के कारण, “स्व’ नहीं होता। तो जब तक “जगत’ है, तब तक “पर’ है और जब तक “मैं’ हूं तब तक “पर’ है। अब इसे हम और तरह से भी ले लें। जब तक “मैं’ हूं, तभी तब जो मुझे दिखाई पड़ रहा है वह “जगत’ है। “जगत’ मेरे “मैं’ के बिंदु से देखा गया कोण है। मेरे “मैं’ के बिंदु से देखा गया सत्य है। इसलिए “पर’–अगर मेरा “मैं’ मिट जाए तो “पर’ कोई भी नहीं है, फिर मैं किससे बचूंगा और किससे बंधूंगा? फिर मैं ही हूं।

अनासक्ति स्वभाव है। कैसे चलें इसकी तरफ? जो बड़ी-से-बड़ी भूल है वह यह है कि कोई विरक्ति की तरफ चल पड़े अनासक्ति को पाने के लिए। खयाल रहे, आसक्ति उतना बड़ा खतरा नहीं है अनासक्ति के मार्ग पर, क्योंकि आसक्ति का चेहरा साफ है। कोई भूल नहीं करेगा आसक्ति को अनासक्ति समझने की। कैसे करेगा? कोई भूल नहीं करेगा धन को पकड़ने को अनासक्ति समझने की। लेकिन धन को छोड़ने को अनासक्ति समझने की भूल होती रही है, होती है, हो सकती है। इसलिए बड़ा खतरा अनासक्ति की यात्रा में आसक्ति नहीं है, आसक्ति का चेहरा बिलकुल साफ है, बड़ा खतरा विरक्ति है, विरक्ति के चेहरे पर बुर्का है। विरक्ति को जो न पहचान पाए, वह अनासक्ति के नाम पर विरक्ति का खोटा सिक्का लेकर घूमता रहेगा। इसलिए अनासक्ति की यात्रा में विरक्ति से सावधान रहने की पहली जरूरत है। विरक्ति भी आसक्ति है। इतना समझते ही सावधानी उत्पन्न हो जाती है।

दूसरी बात, “पर’ कहीं भी हम जाएं तो रहेगा। इसलिए हम उसी जगह चलें, जहां “पर’ नहीं रहेगा। हम भीतर चलें। हम स्वयं में चलें। हम अपने एकांत में चलें। हम अपने अकेलेपन में उतरें। लेकिन इसका क्या मतलब है? कि क्या मैं बाहर के जगत से आंख बंद कर लूं तो एकांत में उतर जाऊंगा? अकेला हो जाऊंगा? आंख तो हम रोज बंद करते हैं, लेकिन एकांत नहीं होता। क्योंकि आंख बंद करते ही वे चित्र, वे प्रतिमाएं, वे प्रतीक, “इमेजेज’ जो हमने बाहर से ग्रहण किए थे, भीतर से उठने शुरू हो जाते हैं। विचार आते हैं, कल्पनायें आती हैं, स्वप्न आते हैं, दिवास्वप्न आते हैं और फिर हम जगत को ही देखते रहते हैं। हां, अब जो जगत होता है, वह कल्पित होता है। जो बाहर आंख के था वह वास्तविक था, अब उसकी सिर्फ छायायें होती हैं, अब सिर्फ फिल्म होती है उसकी, अब वह खुद नहीं होता।

हम अपनी आंखों और मन का उपयोग बिलकुल “मूवी’ कैमरे की तरह कर रहे हैं–जो देखते हैं उसे उतारते चले जाते हैं; फिर आंख बंद करके उसको पर्दे पर देखते रहते हैं। फिर वह चलता रहता है, यह भी “पर’ की छाया है। यह भी हट जाए तो हम “स्व’ में उतरते हैं। हट सकती है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। हम इसे चलाते हैं, इसलिए यह चलती है। हम इसे चलाने में उत्सुक न रह जाएं, हमारी रुचि इसके चलाने में न रह जाए तो ये प्रतिमायें तत्काल गिर जाती हैं, इनका कोई अर्थ नहीं रह जाता। हमारा रस ही इन प्रतिमाओं को चलाने का मूल आधार है। विरस भी। ध्यान रहे, रस ही नहीं विरस भी। जिसे हम याद करना चाहते हैं वह भी याद आता है आता है और उससे भी ज्यादा वह याद आता है जिसे हम भूलना चाहते हैं। लेकिन जिसे न हम भूलना चाहते हैं, जिसे न हम याद करना चाहते हैं, वह अचानक गिर जाता है। वह हमारे चित्त से अर्थहीन हो जाता है। वह पर्दे से हट जाता है।

तो इस भीतर चलती हुई फिल्म को अगर साक्षीभाव से देखें–सिर्फ देखें, न रस लें, न विरस लें; न आसक्त हों, न विरक्त हों इस भीतर की फिल्म पर तो थोड़े दिन में यह साक्षी का बोध इस फिल्म को गिराता जाता है। और एक क्षण आता है जब निपट चेतना अकेली रह जाती है और कोई “आब्जेक्ट’, कोई विषय नहीं होता है–निर्विषय चेतना रह जाती है। इस निर्विषय चेतना में जिसका अनुभव होता है, वह अनासक्ति है। इस निर्विषय चेतना से जो व्यवहार निकलता है, उसका नाम अनासक्ति-योग है। निश्चित ही व्यवहार बिलकुल दूसरा होगा।

जिस व्यक्ति ने अपने इस स्वभाव की अनासक्ति को पहचाना, जिसने जाना कि मुट्ठी बांध लेती है, खोल लेती है, लेकिन मुट्ठी के दोनों काम नहीं हैं इसलिए दोनों काम कर पाती है, अब ऐसा व्यक्ति बाहर के जगत में लौटकर, भीतर से बाहर आकर वही नहीं होगा जो बाहर से भीतर जाते वक्त था। अब इसने अपने चेतना के दर्पण को पहचाना, अब यह चित्त का उपयोग कैमरे की तरह नहीं, दर्पण की तरह करेगा। और अब इसके चित्त का संबंध पैदा नहीं होगा। संबंध बनेंगे लेकिन संबंध पैदा नहीं होगा। संबंध होंगे लेकिन असंगता होगी। यह प्रेम भी करेगा ऐसे ही जैसे पानी पर लकीर खींची जाती है। यह लड़ेगा भी जैसे पानी पर लकीर खींची जाती है। इसका दर्पण लड़ने को भी दिखलाएगा और प्रेम को भी दिखलाएगा। और यह दोनों के बाहर, पूरे समय दोनों के बाहर चलता रहेगा। इस व्यक्ति के व्यवहार की स्थिति अभिनय हो जाएगी, “एक्टिंग’ की हो जाएगी। और यह व्यक्ति अब कर्ता नहीं होगा, अभिनेता हो जाएगा।

कृष्ण अगर कुछ हैं, तो अभिनेता हैं। और उनसे कुशल अभिनेता पृथ्वी पर नहीं हुआ है। उन्होंने इस पूरे जगत को मंच बना लिया है। बाकी अभिनेता एक छोटे से मंच को मंच मानते हैं उन्होंने पूरी पृथ्वी को मंच बना लिया। इससे क्या फर्क पड़ता है? दस-पांच तख्त रखकर हम मंच बना दें, फिर उस पर अभिनय चलता है। यह पूरी पृथ्वी मंच क्यों नहीं हो सकती? इस पूरी पृथ्वी पर अभिनय क्यों नहीं चल सकता? और अभिनेता जो है उसे न तो आंसू बांधते हैं, न उसे मुस्कुराहट बांधती है। जब वह रोता है, तब भी रोता नहीं; जब हंसता है, तब भी हंसता नहीं; जब प्रेम करता है तब भी प्रेम करता नहीं, जब लड़ता है तब भी लड़ता नहीं; उसकी मित्रता मित्रता नहीं, उसकी शत्रुता शत्रुता नहीं। तब ऐसे व्यक्ति के जीवन को अगर हम कहें तो एक “ट्राइ-एंगल’ बन जाता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन त्रिभुज बन जाता है। “ट्राइ-एंगल’। हम त्रिभुज नहीं हैं। हमारा तीसरा जो कोण है, वह जो “थर्ड एंगल’ है, अंधेरे में डूबा हुआ है।

हमारे सिर्फ दो कोण हमें दिखाई पड़ते हैं–आसक्ति, विरक्ति। एक तीसरा इन दोनों को जोड़ने वाला “ट्राइ-एंगल’ का तीसरा हिस्सा, वह हमारा अंधेरे में दबा है। अनासक्त व्यक्ति का वह भी प्रकाश में आ जाता है। उसकी पूरी जिंदगी–दोनों कोणों पर वह व्यवहार करता है। लेकिन रहता सदा अपने तीसरे कोण पर। जब भी दूसरों से संबंध होता है तब यह आसक्त दिखाई पड़ता है या विरक्त दिखाई पड़ता है। लेकिन वह सिर्फ दिखाई पड़ना है। वह “एपियरेन्स’ है। रहता सदा अपने तीसरे कोण पर है। इस तीसरे कोण पर, इस “थर्ड एंगल’ पर हो जाने का नाम अनासक्ति है। हम सब के पास तीनों कोण हैं, लेकिन दो कोण हमारे आंखों के सामने और एक कोण हमारी आंख के पीछे है। दो कोण स्पष्ट हैं, बायें और दायें साफ हैं; राग और विराग साफ हैं; इधर कुआं उधर खाई साफ हैं, और एक तीसरा कोण भीतर अंधेरे में डूबा है, वह तो जब अपने भीतर उतरेंगे एकांत में तभी हमें स्पष्ट होगा तभी रोशनी वहां पहुंचेगी। और जिसने अपने तीसरे कोण को पा लिया, उसने कृष्ण को पा लिया। उसने बुद्ध को पा लिया, उसने महावीर को पा लिया, उसको कुछ पाने को बचता नहीं। क्योंकि एक बार उसको यह पता हो गया कि आसक्त होते हुए मैं अनासक्त होता हूं, विरक्त होते हुए मैं अनासक्त होता हूं, तब फिर आसक्ति और विरक्ति खेल हो गए।

एक विचारक ने एक किताब लिखी है, जिसका नाम है–“गेम दैट पीपुल प्ले’, खेल जो लोग खेलते हैं। लेकिन उस बड़ी किताब में उसने सब खेलों की चर्चा की है, बुनियादी खेल की नहीं चर्चा कर पाया। बुनियादी खेल यह है कि अनासक्त रहते हुए आसक्ति और विरक्ति का जो खेल है वह बुनियादी खेल है, वह “अल्टीमेट प्ले’ है। बहुत कम लोग खेल पाते हैं इसलिए उसको पता नहीं होगा, उसने उसकी कोई चर्चा नहीं की।

अनासक्ति भीतर उतरने से उपलब्ध होती है और भीतर उतरना साक्षीभाव से संभव होता है। इसलिए जीवन के किसी भी कोण में साक्षी होना शुरू हो जाएं, आप भीतर पहुंच जाएं। और जिस दिन आप भीतर पहुंच जाएं, उस दिन आप अनासक्त हो जाते हैं।

“भगवान श्री, आसक्ति पर आपने अभी प्रकाश डाला। इसी के साथ गीता में कृष्ण ने दो बातें और कही हैं। कर्म से संन्यास अर्थात संपूर्ण कर्म में कर्तापन का त्याग और निष्काम कर्म अर्थात समत्व बुद्धि से कर्मों का करना। अतएव अनासक्ति, कर्म-संन्यास और निष्काम-कर्म, इन तीनों में क्या रिश्ता या भिन्नता है? इस पर और प्रकाश डालें।’

अनासक्ति योग मूल है। और यह अनासक्ति योग तीसरा कोण है। इस कोण से जीवन के दो कोण निकलेंगे। करते हुए न करना, न करते हुए करना। एक को हम कर्म-संन्यास कहें, एक को हम निष्काम कर्म कहें। निष्काम कर्म का अर्थ है, करते हुए न करना। करते हुए भी करने की वासना जहां नहीं है, करते हुए भी करने का आग्रह जहां नहीं है, करते हुए भी न करना आ जाए तो दुख और पीड़ा जहां नहीं है, करते हुए भी करने का फल न मिले तो कोई विषाद नहीं है, करते हुए भी सब किया हुआ अनकिया हो जाए तो कोई पीड़ा नहीं है, तो यह निष्काम कर्म।

इसको और हम विस्तार से थोड़ा समझेंगे–

न करते हुए भी करते हुए पाना। अब इसे थोड़ा समझना पड़े, यह और भी कठिन है। जिसको संन्यास कहें। न करते हुए करते हुए पाना। मैं कुछ भी नहीं करता, लेकिन आपके द्वार पर भिक्षा तो मांगने आता हूं, और अगर आपने चोरी की है और चोरी का ही अन्न खाते हैं तो मुझे भी चोरी का अन्न देते हैं। अगर व्यक्ति सच में संन्यासी है तो वह कहेगा, मैं भी चोर हूं। अगर सच में संन्यासी नहीं है तो वह कहेगा मुझे क्या मतलब तुम क्या करते हो! मुझे कोई प्रयोजन नहीं। अगर व्यक्ति झूठा संन्यासी है तो वह चोरी की रोटी खाकर चोर नहीं होगा। लेकिन अगर सच्चा संन्यासी है तो वह कहेगा कि नहीं करता हूं मैं चोरी, लेकिन मैं भी भागीदार हूं। लेकिन यह तो मैंने कहा भिक्षा मांगता है तो। ऐसा समझ लें कि भिक्षा भी नहीं मांगता है। ठीक संन्यासी इस पृथ्वी पर है अगर, और वियतनाम में लोग कट रहे हैं, तो वह मानता है कि मैं भी जिम्मेवार हूं। नहीं करता हुआ मैं भी भागीदार हूं। और इस पृथ्वी पर जो चेतना निर्मित हुई है वह मेरे बिना तो नहीं हो सकती है, मैं भी हूं। अगर इस गांव में मैं हूं और इस गांव में हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाए और न मैं हिंदू हूं और न मुसलमान हूं, मैं सिर्फ संन्यासी हूं, तो भी मैं जिम्मेदार हूं। जरूर मैंने भी कुछ ऐसा किया होगा जिसने इस झगड़े को बल दिया। या हो सकता मैंने कुछ भी न किया होगा। मैं खड़ा देखता रहा और मेरा खड़ा देखना भी झगड़े के लिए आधार बन सकता है। संन्यास का अर्थ यह है, न करते हुए भी जानना कि जो भी हो रहा है, चूंकि मैं भी हूं, उससे मैं बच नहीं सकता, उसमें मैं भी भागीदार हूं। होऊंगा ही, क्योंकि मैं एक हिस्सा हूं। और मैं जो भी करूंगा उससे विराट फल आएंगे। अगर हिंदू-मुस्लिम लड़ रहे थे और मैं रास्ते से चुपचाप निकल गया तो कम से कम मैं रोक तो सकता ही था। मैंने नहीं रोका। नहीं रोकना भी मेरा कृत्य है। नहीं रोकने की भी जिम्मेवारी मेरी है।

तो आमतौर से लोग जिसे संन्यास समझते हैं वह संन्यास नहीं है, वह विरक्ति है। कृष्ण जिसे संन्यास समझते हैं वह बहुत कठिन मामला है। वह अनासक्त व्यक्ति की स्थिति है। वह यह कहता है कि जो मैं नहीं कर रहा हूं उसके लिए भी मैं जिम्मेवार हूं क्योंकि मैं भी हूं और चेतना अंततः संयुक्त है, इकट्ठी है।

सागर में आपने लहरें देखी हैं लेकिन शायद ही आपको कभी खयाल आया हो, लहरें आती हुई मालूम पड़ती हैं, आती नहीं। आप कहेंगे, कैसी बात कर रहे हैं, लहरें बराबर आती हैं! लगता है कि एक लहर मील भर दूर से चली आ रही है और आप स्नान भी करते हैं उस लहर में सागर के तट के किनारे बैठकर, तो आप मेरी कैसे मानेंगे कि नहीं आ रही है। लेकिन जो जानते हैं सागर को, वे कहेंगे कि कोई लहर आती नहीं, सिर्फ एक लहर दूसरी लहर को उठाती है। वह मील भर की लहर इस किनारे तक नहीं आती। वह मील भर की लहर जब उठती है तो पड़ोस में गङ्ढा पैदा हो जाता है, उस गङ्ढे की वजह से जहां गङ्ढा खत्म होता है दूसरी लहर पैदा हो जाती है। वह लहर अपने उठने से हजारों लहरों को उठाती है। आती नहीं। उस लहर के हजारों धक्कों का कोई धक्का सिर्फ आता है जब आप सागर के किनारे नहाते हैं, तो वह मील भर से लहर आपके पास नहीं आती है। बस सागर की छाती कंप गई है उसके उठने की वजह से और कंपन आते हैं आपके पास। कंपती हुई जो लहरें आपको दिखाई पड़ती हैं वे इतनी “कंटिन्युअस’ हैं कि आप कभी फर्क नहीं कर पाते कि यह लहर सच में आ रही है? लेकिन अगर इस किनारे से आई हुई लहर में कोई बच्चा डूबकर मर जाए, तो क्या मील भर दूर उठी लहर को जिम्मेवार ठहरा सकेंगे–कि तू जिम्मेवार है? वह कहेगी, मैंने डुबाया नहीं, मैं गई नहीं तट पर कभी। मैं सदा यहीं हूं। मील भर का फासला उस बच्चे के डूबने में और मेरे होने में। न, कृष्ण कहते हैं कि अगर वह लहर संन्यासी है, वह कहेगी कि मैंने डुबाया क्योंकि मैं सागर का हिस्सा हूं। उस तट पर गई या नहीं यह सवाल नहीं। उस तट पर जो गया है उसमें भी मेरा हाथ है।

इस जगत में कहीं भी कुछ घट रहा है, संन्यासी उसमें अपने को कर्ता मानता है जो उसने किया ही नहीं। यह बड़ा कठिन है। कर्म करते हुए अपने को अकर्ता मानना इतना कठिन नहीं है। हालांकि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, लेकिन संन्यासी की यह दृष्टि हमारे खयाल में नहीं है। संन्यास की हमारी कुल इतनी दृष्टि है कि जो छोड़कर चला जाता है, जो कहता है, अब मैंने छोड़ ही दिया तो मेरी क्या जिम्मेवारी है? जब मैंने छोड़ ही दिया तो मेरी क्या जिम्मेवारी है! लेकिन यह जगत पूरा का पूरा सागर की छाती पर उठी हुई लहरों जैसा है। इसमें कोई लहर यह नहीं कह सकती कि मैं जिम्मेवार नहीं हूं जो “पैटर्न’ बन रहा है उसमें। जिंदगी बड़ी जटिल है, उसमें भी चेतना के सागर में लहरें हैं। मैं एक शब्द बोलता हूं, मैं कल नहीं रहूंगा लेकिन उस शब्द के परिणाम अनंत काल तक जगत में आते रहेंगे। कौन होगा जिम्मेवार? मैं नहीं बोलता हूं, चुप खड़ा रह जाता हूं, लेकिन मेरी चुप्पी के परिणाम इस जगत में अनंत काल तक प्रभावी होते रहेंगे। कौन होगा जिम्मेवार? मैं नहीं रहूंगा! यह हो सकता है कि जिस लहर के धक्के से यह किनारे की लहर उठी वह अब न हो, और बच्चा डूबकर मरा तब वह लहर कहेगी कि न तो मैं किनारे गई, और जब बच्चा डूबकर मरा तब तो मैं थी ही नहीं। तो उस लहर को आप किसी अदालत में जिम्मेवार न ठहरा सकेंगे, कोई मुकदमा न चला सकेंगे, लेकिन कृष्ण की अदालत में वह लहर भी मुकदमे में फंस जाएगी। कृष्ण कहेंगे कि तेरा होना या न होना, दोनों अर्थों में इस विराट जाल को पैदा करता है। इसमें तू भागीदार है ही, इसलिए न करते हुए भी जानना कि कर रही है। यह एक पहलू है, इसका अर्थ संन्यास है। ऐसा आदमी संन्यासी नहीं है जो कहता है कि हमारा क्या जुम्मा?

अब हिंदुस्तान में संन्यासी थे हजारों-लाखों की संख्या में। यह मुल्क गुलाम था। वे संन्यासी कहते, हमें क्या मतलब? इस मुल्क की गुलामी का हमें क्या मतलब! हमें तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता, हम तो संन्यासी हैं। लेकिन उन लाखों संन्यासियों का यह भाव भी इस मुल्क को गुलाम बनाने में सहयोगी है। जिम्मेवारी उनकी है, वे भाग नहीं सकते। संन्यासी किसी भी जिम्मेवारी से भागेंगे नहीं। संन्यासी का मतलब ही यह है कि जो दूसरे की जिम्मेवारी है वह भी अपनी है। वह जो दूसरे का पाप है, वह भी अपना है। वह जो दूसरे का पुण्य है, वह भी अपना है। क्योंकि हम अलग-अलग कहां हैं? अगर दूसरा नहीं है तो फिर मैं न करते हुए भी करता हूं।

लेकिन बड़े मजे की बात है। अगर न करते हुए कोई कर्ता हो जाए तो अनासक्त हो जाएगा। क्योंकि अब तो अपना कर्म और पराया कर्म का कोई फासला नहीं रहा। अब मैं किसको छोड़ूं और किससे भागूं? अगर मैं चोरी न करूं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। जमीन पर चोरी चलती रहेगी। मैं चोरी करूं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। तो अब इसको मैं अपना मानूं, इसका कोई अर्थ नहीं रहा है। अगर सभी कुछ का मैं भागीदार हूं, सभी पाप मेरे हैं, सभी युद्ध मेरे, सभी शांतियां मेरी, तो अब, मैं किसको छोड़ूं और किसको पकड़ूं! अब पकड़ने न पकड़ने का कोई सवाल न रहा। सभी हाथ मेरे हैं अगर, तो इन दो हाथों को छोड़कर अगर भाग भी जाऊंगा तो क्या फर्क पड़ता है? और सभी आंखें अगर मेरी हैं तो अगर मैंने अपनी दो आंखें फोड़ भी लीं, तो क्या फर्क पड़ता है? और अगर सभी घर मेरे हैं तो मैं एक घर छोड़कर जंगल चला गया तो क्या फर्क पड़ता है?

संन्यास का अर्थ है कि यह जो कर्म का विराट “पैटर्न’ है, यह जो जाल है, इसमें हम भागीदार हैं, हम इसके हिस्से हैं। इसलिए न करते हुए जानना कि मैं कर रहा हूं। ठीक दूसरा पहलू कृष्ण कहते हैं, करते हुए जानना कि मैं नहीं कर रहा हूं। अब तो वह भी कठिन मालूम पड़ेगा। इस बात को समझने के बाद वह और भी कठिन हो जाएगा। ऐसे साधारणतः वह सरल मालूम पड़ता है। आदमी कहता है कि हम अभिनेता बनकर कर सकते हैं। लेकिन, बड़ी है कठिन बात वह भी। सच तो यह है कि जो अभिनेता होता है वह भी कई बार चूक जाता है और कर्ता हो जाता है। अभिनय करते वक्त भी पच्चीस दफे चूक जाता है और कर्ता हो जाता है। अभिनय जो आदमी करता है वह जब अपने अभिनय में पूरा लीन होता है, तब वह यह भूल जाता है कि अभिनय कर रहा हूं। तब तो वह वही हो जाता है जो वह कर रहा है। तब वह आविष्ट हो जाता है, अध्यास हो जाता है, तब वह वही हो जाता है जो वह कर रहा है।

इस अध्यास को थोड़ा समझना जरूरी है अभिनेता के। क्योंकि जब अभिनेता को अध्यास पकड़ जाता हो, भ्रम पकड़ जाता है कि मैं यही हो गया, तो हम जो जी रहे हैं हम फिर अभिनेता कैसे हो पाएंगे। राम की सीता खोए तो राम अभिनेता कैसे हो पाएंगे? अगर रामलीला में भी सीता खोती हो और रामलीला में बने राम के भी असली आंसू आ जाते हों, आ जाते हैं, कई बार। क्यों न आ जाते होंगे? जब देखने वालों के आ जाते हैं, जो रामलीला देख रहे हैं, जो कि राम भी नहीं बने हैं, जब वे रोने लगते हैं, तो जो सच में राम बना है वहां उसकी स्थिति तो और जरा गहरे में है। वह दर्शक तो नहीं है। कर्ता तो है, अभिनेता ही सही, लेकिन कर रहा है। अगर उसकी सीता खो जाती है और वह रोने लगता हो और वे आंसू थोड़ी देर के लिए असली आंसू हो जाते हों तो हैरानी नहीं है। हो जाता है। अभिनेता भी भूल जाता है उन क्षणों में कि मैं अभिनय कर रहा हूं। तो हम तो जीवन में हैं। वहां यह जानना कि हम अभिनय कर रहे हैं, बड़ी कठिन है, बड़ी “आरडुअस’ बात है। लेकिन, जो हम कर रहे हैं, अगर उसे हम ठीक से पहचान लें, तो तत्काल दिखाई पड़ने लगेगा कि यह हम अभिनय कर रहे हैं! रास्ते पर आप गुजर रहे हैं और किसी ने कहा, कहिये, कैसे हैं, और आप कहते हैं, बिलकुल ठीक हैं! और खयाल में भी नहीं आता कि क्या आप कह रहे हैं। एक क्षण वहीं रुक जाएं और गौर से देखें, बिलकुल ठीक हैं? तो तत्काल पता चलेगा कि जो आपने कहा है, वह अभिनय-वचन था। एक आदमी मिलता है और उसको आप नमस्कार करते हैं और कहते हैं कि देखकर आपको बड़ा आनंद हुआ। रुक जाएं एक क्षण, पीछे लौटकर देखें, आनंद हुआ है? तब दिखाई पड़ जाएगा, अभिनय कर रहे हैं।

जिंदगी के क्षणों और क्षणों में कभी-कभी जब आप कर्ता होते हैं, एक क्षण रुक जाएं और लौटकर पीछे देखें कि जो आप कर रहे हैं, वह है? किसी से कहते हैं कि मेरे प्रेम का तेरे लिए कोई अंत नहीं, तेरे बिना मैं जी न सकूंगा। लेकिन कितने प्रेमी मरे हैं? लौटकर जरा पीछे देखें: नहीं जी सकेंगे? और अभिनय साफ हो जाएगा। जिंदगी में चारों तरफ मौके खोज लें, रुक जाएं, एक क्षण को पीछे देखें, और देखें कि जो आप कह रहे हैं, कर रहे हैं, वह क्या है? अभिनय आप तभी समझ पाएंगे जब अभिनय दिखाई पड़ने लगें।

मैं नसरुद्दीन की कहानी निरंतर कहता रहता हूं। एक सम्राट की पत्नी से उसका प्रेम है। रात चार बजे वह विदा हो जाता है और अब दूसरे गांव जा रहा है। तो वह उससे कहता है कि तेरे बिना मैं कैसे रह सकूंगा! एक-एक पल बिताना मुश्किल हो जाएगा। तुझसे ज्यादा सुंदर, तुझसे ज्यादा प्रेमी कोई भी नहीं है। वह स्त्री उसकी ये बातें सुनकर रोने लगी है। नसरुद्दीन ने लौटकर देखा, उसने कहा कि माफ कर, ये बातें मैंने दूसरी स्त्रियों से भी कही हैं। ये बातें मैंने दूसरी स्त्रियों से भी कही हैं। उनसे भी मैंने यही कहा है कि तेरे बिना पल भर न रह सकूंगा, लेकिन मैं हूं। और मैं रहूंगा, क्योंकि कल मुझे फिर किसी स्त्री से कहने का मौका आ सकता है। और यह तो मैंने सभी स्त्रियों से कहा है कि तुमसे ज्यादा सुंदर कोई भी नहीं है। वह स्त्री बहुत नाराज हो जाती है, वह बहुत दुखी हो जाती है। नसरुद्दीन कहता है, मैं तो सिर्फ मजाक करता हूं। वह फिर खुश हो जाती है।

अब यह जो आदमी है नसरुद्दीन, यह आदमी समझ सकता है कि जिंदगी अभिनय है। यह आदमी पहचान सकता है कि जिंदगी अभिनय है। लेकिन यह स्त्री को पहचानना बड़ा मुश्किल पड़ जाएगा कि जिंदगी अभिनय है। ऐसा नहीं है कि अभिनय होने से जिंदगी कुछ खराब हो जाती है। सच तो यह है कि अभिनय होने से जिंदगी बड़ी कुशल हो जाती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, योग तो कर्म की कुशलता है। असल में जब जिंदगी अभिनय हो जाती है, तो दंश चला जाता है, पीड़ा चली जाती है, कांटा चला जाता है, फूल ही रह जाता है, जब अभिनय ही करना है तो क्रोध का किसलिए करना, पागल हैं? जब अभिनय ही करना है तो प्रेम का ही किया जा सकता है। क्रोध का अभिनय करने का क्या प्रयोजन है? जब अभिनय ही करना है तो फिर क्रोध का सिर्फ पागल अभिनय करेंगे। जब अभिनय ही करना है तो प्रेम का ही हो सकता है। जब सपना ही देखना है तो दीनता-दरिद्रता का क्यों देखना, सम्राट होने का देखा जा सकता है।

अपने कृत्यों को झांक-झांकर देखने से धीरे-धीरे पता चलता है कि मैं अभिनय कर रहा हूं। पिता का अभिनय कर रहा हूं, बेटे का अभिनय कर रहा हूं, मां का अभिनय कर रहा हूं, पत्नी का अभिनय कर हां हूं, पति का अभिनय कर रहा हूं, प्रेमी का अभिनय कर रहा हूं, मित्र का अभिनय कर रहा हूं। यह दिखाई पड़ना चाहिए। इसको आप एक-एक कृत्य को “एटामिकली’, एक-एक को अणु में पकड़ लें, और देखें कि क्या हो रहा है। और आप बहुत हंसेंगे। और हो सकता है, बाहर आंसू गिर रहे हों और भीतर हंसी आनी शुरू हो जाए कि यह मैं क्या कर रहा हूं! हो सकता है, बाहर कुछ और हो रहा हो, भीतर कुछ और होना शुरू हो जाए। और तत्काल आप इस स्थिति को समझ पाने में समर्थ होते चले जाएंगे। जैसे-जैसे यह साफ होगा, वैसे-वैसे जिंदगी अभिनय हो जाएगी।

एक झेन फकीर मर रहा है। मरते वक्त उसने मित्रों से पूछा, कि मुझे जरा कुछ बताओ, क्योंकि मरे तो बहुत लोग हैं, मैं भी मरना चाहता हूं, लेकिन कोई नये ढंग से मरें! कब तक पुराने ढंग से मरते रहेंगे? उन्होंने कहा, आप कैसी बातें कर रहे हैं, मरना कोई मजाक है! उस फकीर ने कहा कि तुमने कभी किसी आदमी को चलते-चलते मरते हुए सुना है? चल रहा हो, और मर गया हो, लोगों ने कहा, ऐसा तो सुना नहीं! फिर भी एक बूढ़े ने कहा कि ऐसी कहानी मैंने पढ़ी है कि एक दफा एक फकीर चलता हुआ मर गया था! उस मरने वाले फकीर ने कहा कि फकीर ही चलते हुए मर सकता है! मर गया होगा! छोड़ो इस ढंग को। तुमने कभी किसी को खड़े-खड़े मरते हुए सुना है? किसी ने कहा कि हां, मुझे ऐसा पता है कि एक आदमी एक बार खड़े-खड़े मर गया था। तो उस फकीर ने कहा कि जो ढंग से जिंदा रहा हो, वह ढंग से मरता है। मर सकता है। अच्छा तुमने कभी यह सुना है कि कोई आदमी शीर्षासन करते हुए मर गया हो? उन्होंने कहा, न सुना, न सोच सकते। शीर्षासन करके कैसे कोई मरेगा! तो उस फकीर ने कहा, फिर यह ढंग अपने लिए ठीक रहेगा। वह शीर्षासन लगाकर खड़ा हो गया और मर गया।

अब बड़ी मुसीबत हुई उस “मॉनस्ट्री’ में। उस आश्रम में बड़ी कठिनाई पड़ गई, क्योंकि इसको उतारें कैसे! बड़े डरने लगे। एक तो यह आदमी खतरनाक मालूम पड़ा कि जो शीर्षासन लगाकर कहे कि अच्छा चलो, शीर्षासन लगाकर मर जाते हैं! यह पता नहीं मरा है कि नहीं मरा? या क्या हो गया है? सब तरफ से जांच-पड़ताल की, पाया कि न श्वास का कोई पता है, न धड़कन का कोई पता है, वह मर ही गया। लेकिन यह शीर्षासन कर रहा हो मुर्दा, तो कौन उतारे! और पीछे कोई झंझट न पड़े। और यह मुर्दा कोई साधारण मालूम होता नहीं। तो वे सब, जिन्होंने कहा था तुम्हारे बिना हम एक क्षण न रह सकेंगे, वे भी उसको उतारने को तैयार नहीं थे। तब किसी ने कहा कि इसकी बहन भी साध्वी है और वह पास की एक “मॉनेस्ट्री’ में रहती है। वह इसकी बड़ी बहन है। और जब भी यह कोई उपद्रव करता था तो उसको लोग बुलाकर लाते थे, इसको ठीक करवाने के लिए। तो अब हम कुछ नहीं समझ सकते, उसको बुला लिया जाए। वह बड़ी बहन कोई नब्बे वर्ष की बूढ़ी औरत, वह आई। उसने अपना डंडा जोर से बजाया और कहा कि जिंदगी भर की मजाक मरते वक्त बैठ गया और उसने कहा कि बाई, नाराज मत हो, हम ढंग से मरे जाते हैं। हमें क्या फर्क पड़ता है! फिर वह आदमी बैठ गया और मर गया। और उसकी बहने ने लौटकर भी नहीं देखा, वह अपना डंडा लेकर वापिस चली गई। उसने कहा कि यह क्या बातचीत कर रखी है कि मरने में तो कम-से-कम परंपरा निभाओ! वह आदमी बैठकर फिर लेट गया और मर गया।

अब यह जो आदमी है, अगर मृत्यु के क्षण में अभिनय कर सकता है, तो इसकी पूरी जिंदगी एक अभिनेता की जिंदगी है। इसको मैं कहूंगा यह निष्काम कर्म है। तब सब खेल हो जाता है। तब जिंदगी एक खेल है। तब हम सारी चीजों को खेल की तरह ले सकते हैं। लेकिन हम पहचानेंगे अपने भीतर के अभिनेता को अपने कृत्यों में, तभी यह हो पाएगा। आप अभिनय कर न सकेंगे। आप अभिनय कर ही रहे हैं, इस सत्य को पहचानना है। तो यह नहीं कहते हैं, कृष्ण कि तुम अभिनय करो। अगर कोई अभिनय करेगा तो अभिनय करने में कर्ता बन जाएगा और गंभीर हो जाएगा, क्योंकि कर्ता तो रहेगा ही वह, अभिनय का कर्ता हो जाएगा। कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि तुम अभिनय करो। कृष्ण यह कह रहे हैं, तुम जो करते हो उसे मैं जानता हूं कि वह अभिनय है। तुम भी जानो। तुम भी पहचानो। तुम भी खोजो। और जिस दिन दिख जाए कि वह अभिनय है, उस दिन तुम करते हुए अकर्ता हो जाओगे। उस दिन ढंग की बात है।

फिर जो दो हिस्से उन्होंने बांट दिए, निष्कामकर्मी का और संन्यास का, वह ढंग की बात है। वह किसकी क्या पसंद है, इसकी बात है। कोई करते हुए न करने वाला हो जाएगा, कोई न करने वाला होते हुए करने वाला हो जाएगा। वह दो तरह के लोग हैं जगत में। वह हमारे “टाइप’ की बात है। जैसे मैं मानता हूं कि पुरुष के लिए आसान पड़ेगा कि वह करते हुए न करने वाला हो जाए। स्त्री के लिए आसान पड़ेगा कि वह न करने वाली होती हुई करने वाली हो जाए। उसके “टाइप’ के फर्क हैं। स्त्री का जो चित्त है, वह “पैसिव’ है। पुरुष का जो चित्त है, वह “एक्टिव’ है। पुरुष का जो चित्त है, वह करने वाले का है। स्त्री का जो चित्त है, वह न करने वाले का है। स्त्री को अगर कुछ करना भी हो, तो वह न करने के ढंग से करती है। पुरुष को कुछ न भी करना हो, तो वह करने वाले की तरह हमला कर देता है। मोटा विभाजन कर रहा हूं। मोटा इसलिए कहता हूं कि पुरुषों में कोई स्त्रैण-चित्त लोग हैं और स्त्रियों में कोई पुरुष-चित्त स्त्रियां हैं। स्त्री कुछ करना भी चाहे, तो उसकी सारी व्यवस्था न-करने की होगी। अगर वह किसी को प्रेम भी करती है। सब तरफ से छिपायेगी, इस प्रेम को वह न-करना बनायेगी। और पुरुष अगर प्रेम न भी करता हो, तो भी वह इतना उपाय करके प्रगट करेगा कि चारों तरफ से घेर लेगा और प्रेम की वर्षा कर देगा कि मैं प्रेम करता हूं। पुरुष और स्त्री-चित्त के कारण ही–और दो ही तरह के चित्त हैं जगत में, स्त्रियां और पुरुष मैं नहीं कह रहा हूं, स्त्री-चित्त और पुरुष-चित्त–ऐसी स्त्रियां भी हैं जो हमला करती हैं प्रेम में और ऐसे पुरुष भी हैं जो प्रतीक्षा करते हैं प्रेम में। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। ये दो चित्त हैं। “फीमेल माइंस–फेमिनिन माइंड’ और “मेल माइंड’। कृष्ण ने इन दो चित्तों को ध्यान में रखकर ही दो हिस्से कर दिए।

संन्यास का तो मतलब एक ही है, हिस्से दो हैं। अगर स्त्रैण-चित्त का प्रतीक्षारत व्यक्तित्व, समर्पण करने वाला, खोने वाला, “पैसिव माइंड’ अगर इस दिशा में जाएगा, तो वह कहेगा कि न-करता हुआ। न करना ही उसकी व्यवस्था होगी, और न-करने के बीच अपने को कर्ता जानना उसका अनुभव होगा। इसलिए स्त्री अगर, कभी “इनशिएटिव’ नहीं लेती–किसी चीज का, कोई पहल नहीं करती। इसलिए पुरुष कई बार धोखे में भी पड़ता है। लेकिन स्त्री बहुत भलीभांति जानती है कि पहल उसने ली है। लेकिन उसकी पहल प्रतीक्षा वाली पहल है। वह एक शब्द न कहेगी प्रेम का। और अगर पुरुष उससे प्रेम के शब्द न कहे, तो वह दुखी हो जाएगी, हालांकि उसने एक शब्द नहीं कहा है। वह दुखी हो जाएगी, क्योंकि उसके न कहने में भी उसकी पहल तो जारी है–बाकी उसकी पहल प्रतीक्षा करने वाली है। अगर पुरुष प्रेम के शब्द न कहे और सीधा प्रेम करने लगे, तो किसी स्त्री को कभी पसंद नहीं आएगा। क्योंकि उसका प्रेम वह स्त्री पहचान ही नहीं पाएगी, जब तक कि वह आक्रामक न हो जाए। जब तक कि पुरुष का प्रेम आक्रमण न करेगा, तब तक स्त्री मान ही नहीं सकेगी कि वह प्रेम कर रहा है। इसलिए बहुत शांत पुरुष, जिसका प्रेम आक्रामक नहीं है, स्त्री को कभी तृप्ति नहीं दे पाता है। और ऐसा व्यक्ति भी, जो उतना कीमती भी नहीं है, उतना अर्थपूर्ण भी नहीं है, लेकिन अगर उसका प्रेम आक्रामक बन जाए तो वह स्त्री के लिए बड़ा रस दे पाता है, क्योंकि उसका आक्रमण बताता है कि वह कितना प्रेम करता है! उसका आक्रामक होना बताता है कि वह कितना चाहता है! स्त्री अगर आक्रामक हो जाए तो किसी पुरुष को कभी तृप्ति नहीं दे पाती, क्योंकि तब वह पुरुष जैसी हो जाती है।

ये जो चित्त के दो विभाजन हैं, इस विभाजन के कारण दो हिस्से हैं–करते हुए न करता हुआ जानना, न करते हुए करता हुआ जानना, ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

“भगवान श्री, एक तकलीफ और पैदा हो गई है। जैसे आज “प्राइवेट सेक्टर’ और “पब्लिक सेक्टर’, दो में इतना अंतर है कि अगर हमने “प्राइवेट सेक्टर’ को नष्ट कर दिया तो “इनशिएटिव’ खत्म हो जाता है। और “इनशिएटिव’ खत्म हो जाने से गति रुक जाती है। तो अनासक्ति में उतर जाने पर या निष्काम में उतर जाने पर या कर्म-संन्यास में उतर जाने पर ऐसा लगता है कि जो पहल है, जो स्फूर्ति है, जो “इनशिएटिव’ है, वह सारी चीज “कन्वर्ट’ हो जाती है निष्क्रियता में। इसकी संभावना तो है।’

ऐसा हो सकता है, अगर उलटा व्यक्तित्व हो। जैसा मैंने कहा, दो तरह के व्यक्तित्व हैं। मैंने कहा, एक व्यक्तित्व जिसको स्त्रैण व्यक्तित्व कहें, जो कि न करते हुए करने वाले का है। अगर स्त्रैण व्यक्तित्व संन्यासी हो जाए, तो निष्क्रियता आ जाएगी। क्योंकि वह उस व्यक्तित्व का स्वभाव नहीं है। दूसरा, जैसा मैंने कहा पुरुष व्यक्तित्व, जो कि करने वाले में ही न करने वाले को जान सकता है; करे, करेगा तो ही, करना तो उसका जीवन ही होगा, अब इस करने के भीतर वह जान सकता है कि मैं अकर्ता हूं। यह जाना जा सकता है। अब अगर ऐसा व्यक्ति, न करने की दुनिया में उतर जाए और फिर जानना चाहे कि मैं कर्ता हूं तो निष्क्रिय हो जाएगा। निष्क्रियता फलित होती है विपरीत व्यक्तित्व के कारण। इसलिए बहुत साफ-साफ चुनाव जरूरी है और प्रत्येक व्यक्ति को समझना जरूरी है कि उसका “टाइप’ क्या है। अपने से उलटे को चुनने से कठिनाइयां पैदा होती हैं। अपने से उलटे को चुनकर सिर्फ एक ही फल हो सकता है कि हमारा समस्त जीवन क्षीण हो जाए। उलटे को भर चुनने की भूल न हो, तो कर्म फैलेगा, बड़ा होगा। तेजी, निखार आएगा, प्रखरता आएगी, निखर जाएगा कर्म। क्योंकि पुरुष-चित्त का कर्म अगर कहीं से भी बाधा पाता है, तो उसके कर्ता होने से बाधा पाता है। अगर कर्ता विदा हो जाए और सिर्फ कर्म ही रह जाए, तो कर्म की गति का अनुमान ही लगाना मुश्किल है। वह पूर्ण गति को उपलब्ध हो जाएगा। क्योंकि कर्ता होने में जितनी शक्ति खर्च होती थी वह भी अब कर्म को मिलेगी और कर्म पूर्ण हो जाएगा, “टोटल ऐक्ट’ पैदा हो जाएगा। स्त्री को कर्म करने में जितनी कठिनाई पड़ती है, वह अगर उससे मुक्ति मिल जाए उसे, और वह अपने अकर्म में पूरी राजी हो जाए, तो उसके अकर्म से, उसके न करने से विराट कर्म का जन्म होगा। क्योंकि सारी शक्ति उसको उपलब्ध हो जाएगी। उसके ढंग में फर्क होंगे। लेकिन हम अक्सर भूल में पड़ जाते हैं। हम अक्सर अपने से विपरीत व्यक्तित्व को चुन लेते हैं। उसका भी कारण आप समझ लें।

हमारी पूरी जिंदगी में आकर्षण विपरीत का होता है–“दि अपोजिट’ का। पूरी जिंदगी में। पुरुष स्त्री को पसंद करता है, स्त्री पुरुष को पसंद करती है। हमारी पूरी जिंदगी जैसी है, उसमें विपरीत आकर्षक होता है। अध्यात्म में यही उपद्रव बन जाता है। उसमें भी हम विपरीत को चुन लेते हैं। अध्यात्म विपरीत की यात्रा नहीं है, अध्यात्म स्वभाव की यात्रा है। अध्यात्म उसका पाना नहीं है, जो आकर्षक है। अध्यात्म उसका पाना है, जो मैं हूं ही। लेकिन जीवन की यात्रा में विपरीत आकर्षक है।

मैंने एक कहानी सुनी है कि एक द्वीप पर–एक छोटे-से द्वीप पर सागर में, अनजान किसी कोने में लोग एक बार बिलकुल निष्क्रिय हो गए और तामसी हो गए। उन्होंने सब काम-धंदा बंद कर दिया। जो मिल जाता, खा-पी लेते और पड़ रहते, सो जाते। उस द्वीप के ऋषि बड़े चिंतित हुए, उन्होंने कहा कि अब क्या करें! लोग सुनते ही नहीं–क्योंकि तामसी हो गए हो, यह भी तो सुनने कोई नहीं आता था। ऋषि बहुत डुंडी भी पीटते तो पीटकर आ जाते, लेकिन कोई आता नहीं सुनने उनको। आलसी हो गए हो, यह सुनने तो वही आएगा न जो थोड़ा बहुत आलसी नहीं है। तो ऋषि बहुत परेशान हुए। कोई रास्ता न सूझे। गांव धीरे-धीरे मरने लगा, सिकुड़ने लगा। तब उन्होंने कहा कि अब बड़ी कठिनाई हो गई! क्या किया जाए, क्या न किया जाए!

तो गांव के एक बहुत वृद्ध आदमी से जाकर उन्होंने सलाह ली, तो उसने कहा, अब एक ही उपाय बचा है कि पास में एक द्वीप है, सब स्त्रियों को उस पर भेज दो, सब पुरुषों को इस पर रहने दो। पर उन्होंने कहा, इससे क्या होगा? उसने कहा, वे जल्दी नाव बनाने में लग जाएंगे। वे स्त्रियां भी जल्दी तैयारी करने में लग जाएंगी। इनको बांटो। अब उनका पास-पास होना ठीक नहीं। विपरीत को विपरीत ही खड़ा कर दो, फिर जल्दी सक्रियता गूंजने लगेगी।

जवानी में आदमी सक्रिय इसीलिए होता है, बुढ़ापे में निष्क्रिय इसीलिए हो जाता है। और कोई कारण नहीं है। जवानी में पूरे पुरजोश उसमें स्त्रीत्व और पुरुषत्व होता है। वे दोनों नाव बनाने में लग जाते हैं और यात्रायें करने में लग जाते हैं। बुढ़ापा आते-आते सब थक जाता है। स्त्री पुरुष को जान लेती है, पुरुष स्त्री को जान लेता है, विपरीतता कम हो जाती है। वह जो “अपोजिट’ का आकर्षण है, परिचित होने से विदा हो जाता है, बुढ़ापे में आदमी शिथिल हो जाता है।

जिंदगी के सहज नियम में विपरीत आकर्षक है, और अध्यात्म के सहज नियम में स्वभाव, विपरीत नहीं। इसीलिए भूल होती है। इसलिए अध्यात्म जिन-जिन मुल्कों में फैलता है वे निष्क्रिय हो जाते हैं। यह मुल्क हमारा निष्क्रिय हुआ। और उसका कुल कारण इतना है कि विपरीत का आकर्षण वहां भी खींचकर ले गए। तो वहां जो पुरुषगत साधना जिसे चुननी चाहिए थी उसने स्त्रीगत साधना चुन ली और जिसे स्त्रीगत साधना चुननी चाहिए थी उसने पुरुषगत साधना चुन ली। वे दोनों मुश्किल में पड़ गए। पूरा मुल्क निष्क्रिय हो गया। जिसको मीरा होना चाहिए था वे महावीर हो गए, जिसको महावीर होना चाहिए था वह झांझ-मंजीरा लेकर मीरा हो गया, वह दिक्कत हो गई। दिक्कत हो ही जाने वाली है।

इसलिए भविष्य के अध्यात्म की जो सबसे बड़ी वैज्ञानिक प्रक्रिया मेरे खयाल में आती है, वह यह है कि हम साफ इस सूत्र को करें कि “बायोलाजी’ का जो नियम है वह “स्प्रीचुअलिटी’ का नियम नहीं है। जीवनशास्त्र जिस आधार से चलता है–वह विपरीत के आकर्षण से चलता है, अध्यात्म विपरीत का आकर्षण नहीं है, स्वभाव में निमज्जन है। वह दूसरे तक पहुंचना नहीं है, अपने तक पहुंचना है। लेकिन जिंदगी भर का अनुभव बाधा डालता है।

मैंने सुना है कि जब पहली दफे बिजली आई, तो फ्रायड के घर एक आदमी मेहमान हुआ। और उसने कभी बिजली नहीं देखी थी। उसने तो हमेशा लालटेन देखी थी, दीया देखा था, वह मेहमान हुआ, उसको सुलाकर फ्रायड कमरे के बाहर चला गया। वह बड़ी मुश्किल में पड़ा, प्रकाश में नींद न आए। तो उसने सीढ़ियां लगाकर, किसी तरह खड़े होकर फूंकने की कोशिश की, लेकिन फूंकने से बिजली बुझे न। अब वह आदमी भी क्या करे, उसकी कोई गलती नहीं! उसका एक ही अनुभव था कि दीये फूंकने से बुझ जाते हैं। उसकी परेशानी का अंत नहीं है। सामने बटन लगी है, लेकिन बटन से कोई संबंध नहीं है। उसके चित्त में बटन कहीं दिखाई ही नहीं पड़ती। आखिर अनुभव ही तो हमें दिखलाता है। उसको बटन भर नहीं दिखाई पड़ती, वह सारे कमरे में सब तरह की खोज करता है कि माजरा क्या है! चढ़कर बल्ब को सब तरफ से देखता है कि कहां से द्वार है इसमें जिसमें से फूंक मार दूं। कहीं कोई फूंक का द्वार नहीं दिखता। नींद आती नहीं, करवट बदलता है, फिर खड़ा होता है, लेकिन पुराने अनुभव से ही जीता है। डर लगता है कि जाकर कहूं तो लोग कहेंगे, कैसे नासमझ, तुम्हें दीया बुझाना भी नहीं आता? तो रात जाता भी नहीं, पूछने में भी भयभीत है। सुबह जब उठता है, और फ्रायड जब कमरे में आता है तो देखता है, बिजली जली है। वह पूछता है, क्या बिजली बुझाई नहीं? उसने कहा, बुझाई तो बहुत, बुझी नहीं। अब तुमने पूछ ही लिया तो अब निवेदन कर दूं। रात भर इसी को बुझाने में गया। क्योंकि इसके जलते नींद नहीं आती और यह है कि बुझती नहीं। फ्रायड ने कहा, पागल हुए हो। यह रही बटन! लेकिन उस आदमी के अनुभव में बटन का कोई सवाल नहीं उठता था। उस आदमी को हम दोषी नहीं ठहरा सकते।

हमारे जिंदगी भर का अनुभव विपरीत के आकर्षण का अनुभव है। इसलिए जब हम अध्यात्म के जगत में पहुंचते हैं, जहां कि यात्रा बिलकुल बदल जाती है, हम उसी अनुभव से दीये फूंकते चले जाते हैं, बटन का हमें खयाल नहीं होता। यह भूल बड़ी लंबी है और पुरानी है। इसलिए जिस मुल्क में अध्यात्म प्रभावी हो जाता है वह निष्क्रिय हो जाता है। और जिस मुल्क में “सेक्स’ प्रभावी होता है वह सक्रिय होता है। इसलिए दुनिया की सभी सक्रिय सभ्यतायें कामुक सभ्यतायें होती हैं। और दुनिया की सभी निष्क्रिय सभ्यतायें आध्यात्मिक होती हैं। ऐसा होना आवश्यक नहीं है। ऐसा अब तक हुआ है।

इसलिए जिस मुल्क में काम मुक्त हो जाएगा, “फ्री सेक्स’ होगा, उस मुल्क की “एक्टिविटी’ एकदम बढ़ जाएगी। उसकी “एक्टिविटी’ का हिसाब नहीं रहेगा! अगर हम प्रकृति में चारों तरफ नजर डालें तो “एक्टिविटी’ “सेक्स’ से ही पैदा होती है। वसंत में फूल खिलने लगते हैं, और किसी कारण से नहीं; पक्षी गीत गाने लगते हैं, और किसी कारण से नहीं; पक्षी घोंसले बनाने लगते हैं, किसी और कारण से नहीं; सबके पीछे काम और “सेक्स’ की ऊर्जा है। पक्षी वह घोंसला बना रहा है जो उसने कभी बनाया नहीं। उस अंडे को रखने की तैयारी कर रही मादा जो उसने कभी रखा नहीं। लेकिन सब तरफ गुनगुन हो गई है, सब तरफ गीत चल रहा है, सब तरफ भारी क्रिया पैदा हो गई है, वह “बायोलाजिकल’ “एक्टिविटी’ है। आदमी भी अभी एक ही तरह की एक्टिविटी जानता है, “बायोलाजिकल’। इसलिए जिन मुल्कों में “सेक्स’ स्वतंत्र है, उन मुल्कों में मकान आकाश को छूने लगेंगे। वह घोंसला बनाने का ही विस्तार है। कोई और बड़ी बात नहीं है। जिन मुल्कों में मुक्त होगा काम, उन मुल्कों में नाच, रंग, गीत पैदा हो जाएंगे; रंग-बिरंगे कपड़े फैल जाएंगे। वह वही पक्षियों के गीत और मोर के पंख, उन्हीं का विस्तार है। कोई बहुत अंतर नहीं है।

जिन मुल्कों में हम कहेंगे कि हम जीवशास्त्र के विपरीत चलते हैं, और नियम जीवशास्त्र का ही मानेंगे–विपरीत से आकर्षित होंगे–वहां सब उदास, शून्य हो जाएगा। वहां मकान झोंपड़े रह जाएंगे, जमीन से लग जाएंगे; वहां सब गतिविधि क्षीण हो जाएगी, वहां कोई गीत नहीं गाएगा, गीत गाता हुआ आदमी अपराधी मालूम पड़ेगा; वहां रंग-बिरंगे कपड़े खो जाएंगे, वहां रंग-रौनक, सौंदर्य खो जाएगा, वहां सब उदास, दीन-हीन और क्षीण हो जाता है।

अब मेरा अपना मानना यह है कि दोनों के अपने नियम हैं, और ठीक पूरी संस्कृति दोनों नियमों पर खड़ी होती है। ठीक संस्कृति काम-मुक्त होगी। काम में आनंद लेगी, काम में उल्लसित होगी, तो क्रिया पैदा होगी। विराट क्रिया का जाल फैलेगा। और ठीक अध्यात्म, ठीक “टाइप’ के चुनाव से अगर होगा, तो आध्यात्मिक क्रिया का जाल फैलेगा। कृष्ण ठीक अपने “टाइप’ में हैं। बुद्ध अपने “टाइप’ में हैं, महावीर अपने “टाइप’ में हैं। इसलिए कृष्ण एक तरह की क्रिया करते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि बुद्ध कोई क्रिया नहीं करते। बुद्ध का जीवन भी क्रिया का विराट जाल है। महावीर भी एक क्षण शांत नहीं बैठे हैं। चालीस वर्ष सतत एक गांव से दूसरे गांव, एक गांव से दूसरे गांव भाग रहे हैं, भाग रहे हैं। अपना ढंग है उनकी क्रिया का। युद्ध पर लड़ने वह नहीं जाते हैं, लेकिन किसी और बड़े विराट युद्ध में वह संलग्न हैं; किसी चीज को तोड़ने, मिटाने, बनाने में संलग्न हैं। बुद्ध बांसुरी नहीं बजाते, लेकिन बुद्ध की वाणी में किसी और बड़ी बांसुरी का स्वर है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन बुद्ध ने अपना “टाइप’ पा लिया। “आथेंटिक’, प्रामाणिक रूप से बुद्ध ने वह पा लिया जो वह हो सकते हैं–वह हो गए हैं। कृष्ण ने पा लिया जो वह हो सकते हैं–वह हो गए हैं। पीछे चलने वाले साधक अक्सर “टाइप’ की भूल में पड़ते हैं। “टाइप’ का “कन्फ्यूजन’, इसकी मैंने पीछे बात की, वह वही मतलब है–“स्वधर्मे निधनम् श्रेयः’। वह अपने निजता में मर जाना श्रेयस्कर, और दूसरे के धर्म को स्वीकार कर लेना भयावह।

“टाइप को कैसे समझें’?

“टाइप’ को समझने में बहुत कठिनाई नहीं है। एक तो रास्ता यह है कि जो तुम्हें आकर्षित करता हो, समझना वह तुम्हारा “टाइप’ नहीं है। सीधा सूत्र, वह तुम्हारा “टाइप’ नहीं है। उससे बचना, उससे सावधान रहना। और जो तुम्हें विकर्षित करता हो, उस पर जरा चिंतन करना, वह तुम्हारा “टाइप’ होगा। अब यह बड़ी मुश्किल की बात है, जो तुम्हें विकर्षित करता हो, “रिपल्सिव’ सिद्ध होता हो, वह तुम्हारा “टाइप’ है। जैसे, पुरुष कैसे पहचाने कि मैं पुरुष हूं? अगर पुरुषों के प्रति उसे कोई प्रेम-लगाव पैदा न होता हो, पहचान ले। और क्या रास्ता है? पुरुष उसे आकर्षित नहीं करते, वह विकर्षक है। स्त्री कैसे समझे कि वह स्त्री है? स्त्री को देखकर ही दिक्कत होती हो, और अड़चन पैदा हो जाती हो। दो स्त्रियों को पास रखना बड़ी कठिन बात है। वह विकर्षक है। वे एक-दूसरे के लिए आकर्षक नहीं हैं, “रिपल्सिव’ हैं। एक-दूसरे को हटाती हैं। एक-दूसरे की तरफ उनकी आकर्षण की धारा नहीं बहती, विकर्षण की धारा बहती है। इसलिए दो स्त्रियों को साथ रखने से बड़ी कठिनाई और कुछ नहीं है।

जो तुम्हें आकर्षित करे, पहला समझ लेना कि यह तुम्हारा “टाइप’ नहीं होगा। जो तुम्हें आकर्षित करे, वह तुम्हारा “टाइप’ होगा। यह बड़ी कठिन और जटिल बात है। और इसलिए बड़े मजे की बात है, आमतौर से जिन चीजों की तुम निंदा करते हो और जिनके तुम खिलाफ हो, वे तुम्हारी होंगी, वे तुम्हारे भीतर होंगी। जो आदमी दिन-रात “सेक्स’ का विरोध करता है, उसकी खबर मिलती है कि उसके भीतर “सेक्सुअलिटी’ होगी। यह बड़ा जटिल है। लेकिन खयाल में ले लिया जाए तो बहुत आसान हो जाएगा। जो आदमी दिन-रात धन की निंदा करता हो, जानना कि वह धन-लोलुप है। जो आदमी संसार से भागता हो, जानना कि संसारी है। मैं यही कह रहा हूं कि आपका विपरीत जो है, वह आपके लिए आकर्षक होता है। इसलिए जो आपको आकर्षित करे, समझना कि वह आपका “टाइप’ नहीं है।

“कभी यह आकर्षित करे, कभी वह आकर्षित करे तो?’

तो उसको समझना कि तुम “कन्फ्यूज्ड टाइप’ हो। समझे न! उसका और कोई मतलब नहीं होता।

“समान व्यसन हों तो पुरुष-पुरुष में मैत्री हो जाती है!’

पूछते हैं कि समान व्यसन हो, तो मैत्री हो जाती है।

बहुत-सी बातें इसमें खयाल लेनी पड़ेंगी। समान व्यसन की जो मैत्री है, वह एक ही “टाइप’ के लोगों में भी हो सकती है। लेकिन समान व्यसन उनकी मैत्री का आधार होगा। उनके बीच कोई मैत्री नहीं होगी, व्यसन ही उनकी मैत्री का सेतु होगा। अगर व्यसन छूट जाए, तो मैत्री तत्काल टूट जाएगी। अगर दो आदमी शराब पीते हैं, तो उनमें मैत्री हो जाती है। शराब पीने के कारण। एक ही काम दोनों करते हैं, इसलिए मैत्री हो जाती है। लेकिन मैत्री नहीं है कोई भी। क्योंकि मैत्री सदा अकारण होती है। मैत्री सदा अकारण होती है। अगर कारण है, तो मैत्री नहीं, सिर्फ “एसोसिएशन’ है, साथ है।

साथ और मैत्री में फर्क है।

हम दो आदमी एक रास्ते पर चल रहे हैं, साथ हो जाता है। यह कोई मैत्री नहीं है। फिर मेरी मंजिल का रास्ता मुड़ जाता है अलग, आपकी मंजिल का अलग, तो हम अपने रास्तों पर चले जाते हैं। एक रास्ते पर चलने वाले दो राहगीर जैसे बीच में साथ हो जाते हैं, ऐसे एक व्यसन पर चलने वाले दो लोग साथ हो जाते हैं। लेकिन यह मैत्री नहीं है। सच तो यह है कि मैत्री सदा विपरीत व्यक्तित्वों में होती है। विपरीत व्यक्तित्वों में मैत्री होती है। इसलिए मैत्री जितनी गहरी होगी, उतने विपरीत व्यक्तित्व होंगे। क्योंकि यह “कांप्लीमेंट्री’ होते हैं। मित्र जो हैं, वे एक-दूसरे को “कांप्लीमेंट्री’ होते हैं, एक-दूसरे के परिपूरक होते हैं। इसलिए अक्सर ऐसा हुआ है कि दो बुद्धिमान लोगों में मैत्री नहीं हो सकेगी। वे “कांप्लीमेंट्री’ नहीं हैं। उनमें कलह हो सकती है, मैत्री नहीं हो सकती। अगर बुद्धिमान से किसी की मैत्री होगी तो वह निर्बुद्धि से होगी, वह “कांप्लीमेंट्री’ है। दो शक्तिशाली व्यक्तियों में मैत्री नहीं हो सकेगी। असल में दो समकक्ष और ठीक एक दिशा से आए हुए व्यक्तियों में मैत्री नहीं हो सकेगी। दो कवियों में मैत्री मुश्किल है। दो चित्रकारों में मैत्री मुश्किल है। और अगर होगी, तो उसके कारण उनके चित्रकार होने से अन्य होंगे। क्योंकि एक व्यक्ति में बहुत-सी बातें हैं। दोनों शराब पीते होंगे, यह हो सकती है मैत्री कि दोनों जुआ खेलते होंगे, यह हो सकती है मैत्री। लेकिन यह संग-साथ है, यह मैत्री नहीं है। मैत्री का नियम भी विपरीत का ही है। मैत्री प्रेम का ही एक रूप है।

इसलिए मनोवैज्ञानिक तो यह कहते हैं कि अगर दो पुरुषों में बहुत गहरी मैत्री है, तो किसी-न-किसी गहरे अर्थों में वे “होमोसेक्सुअल’ होने चाहिए। अगर दो स्त्रियों में बहुत गहरी मैत्री है, तो वह “होमोसेक्सुअल’ होनी चाहिए। एकदम से राजी होना बहुत मुश्किल हो जाता है, लेकिन इसमें सचाइयां हैं। इसलिए आप देखेंगे कि बचपन जैसी मैत्री फिर बाद में कभी निर्मित नहीं होती। क्योंकि बचपन में एक “फेज’ “होमोसेक्सुअलिटी’ का हर आदमी की जिंदगी में आता है। लड़के, इसके पहले कि लड़कियों में उत्सुक हों, लड़कों में उत्सुक होते हैं। लड़कियां, इसके पहले कि लड़कों में उत्सुक हों, पहले लड़कियों में उत्सुक होती हैं। असल में “सेक्स मेच्योरिटी’ होने के पहले, काम की दृष्टि से, यौन की दृष्टि से परिपक्व होने के पहले कोई काम-भेद बुनियादी नहीं होता। लड़के-लड़कों में उत्सुक होते हैं। लड़कियां-लड़कियों में उत्सुक होती हैं। इसलिए बचपन की सहेलियां और बचपन के मित्र चिरस्थायी हो जाते हैं। सेक्स के जन्म के बाद जब सेक्स अपने पूरे प्रभाव में प्रगट होता है, तो जो लोग सहज स्वस्थ हैं, लड़के लड़कियों में उत्सुक होना शुरू हो जाएंगे, लड़कियां लड़कों में उत्सुक होना शुरू हो जाएंगी। पुरानी मित्रताएं और सहेलीपन शिथिल होने लगेंगे। या याददाश्तें रह जाएंगे। धीरे-धीरे नई मैत्रियां बननी शुरू होंगी जो “अपोजिट’ से होंगी, विपरीत से होंगी। हां, कोई पच्चीसत्तीस परसेंट लोग नहीं पार कर पाएंगे इस स्थिति को। इसका मतलब है कि उनकी “मेंटल एज’ पिछड़ गई। उसका मतलब है कि वह मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं।

ऐसा हो सकता है कि एक लड़का अठारह-बीस साल का हो गया, फिर भी लड़कियों में उत्सुक नहीं है और लड़कों में ही उत्सुक है, तो उसकी मानसिक उम्र पिछड़ गई। यह मानसिक रूप से बीमार है, इसकी चिकित्सा की जरूरत है। अगर कोई लड़की पच्चीस साल की होकर भी लड़कियों में ही उत्सुक है, लड़कों में उत्सुक नहीं है, तो उसके मनस के साथ कोई बीमारी हो गई है, कोई दुर्घटना घट गई है, यह स्वस्थ नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि बाद में मित्रतायें नहीं होंगी, बाद में मित्रतायें होंगी, लेकिन वे “एसोसिएशन’ की होंगी। एक ही क्लब में आप ताश खेलते हैं, मित्रता हो जाएगी। एक ही धंदे में काम करते हैं, मित्रता हो जाएगी। एक ही सिद्धांत को मानते हैं, कम्युनिस्ट हैं दोनों, तो मित्रता हो जाएगी। एक ही गुरु के शिष्य हो गए हैं तो मित्रता हो जाएगी। लेकिन ये मित्रतायें वैसी मित्रतायें नहीं हैं जैसा कि यौन-जन्म के पहले एक गहरा प्रगाढ़ मैत्री का संबंध होता है। इसलिए बचपन की मैत्री फिर कभी नहीं लौटती। वह लौट नहीं सकती। उसका आधार खो गया।

और विपरीत में बड़ा गहरा आकर्षण है। अगर आप इसको ऐसा भी समझें तो थोड़ा खयाल में आ जाएगा। आप अक्सर देखेंगे, नंगे फकीर के पास कपड़ों को प्रेम करने वाले लोग पहुंचेंगे। त्यागी के पास भोगी इकट्ठे हो जाएंगे। जो खूब खाने-पीने में मजा लेते हैं वे किसी उपवास करने वाले की पूजा करने लगेंगे। अब यह बड़े मजे की बात है। महावीर नग्न थे और जैन कपड़ा बेचने का ही काम करते हैं! कैसे जैनों ने कपड़े बेचने का काम चुन लिया, थोड़ा सोचने जैसा है। जरूर कपड़े को प्रेम करने वाले लोग महावीर के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए। महावीर सब छोड़कर दीन हो गए, हिंदुस्तान में महावीर को मानने वाले सबसे ज्यादा समृद्ध हैं। यह आकस्मिक नहीं है, “एक्सिडेंटल’ नहीं है, ये घटनायें इनके ऐतिहासिक कारण हैं। असल में महावीर ने जब सब छोड़ा तो जो सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे वे ही होंगे जो सब पकड़े हुए हैं। क्योंकि वे कहेंगे, अरे, हम एक पैसा नहीं छोड़ सकते हैं, और इस आदमी ने तो सब छोड़ दिया, लात मार दी! भगवान है यह आदमी! यह जो उनका आकर्षण है चित्त का, यह उनकी पकड़ की वजह से। त्यागी महावीर से बिलकुल प्रभावित नहीं होगा, वह कहेगा, क्या किया तुमने? इसमें है ही क्या? राख को लात मार दी तो मार दी। इसमें कौन-सी बड़ी बात है। लेकिन जो उस राख को समझता था हीरा है, वह फौरन महावीर के चरणों में सिर रख देगा कि मान गए, आप हैं आदमी! हम एक पैसा नहीं छोड़ सकते और तुमने सब छोड़ दिया। तुम हमारे गुरु हुए।

फिर जो कुछ नहीं छोड़ सकता, उसके मन में छोड़ने की कामना सदा बसती रहती है। जो कुछ नहीं छोड़ सकता है, वह भी सोचता है कि बड़ा दुख झेल रहा हूं पकड़ने से, कब वह दिन आएगा जब सब छोड़ दूं! तो जो सब छोड़ देता है, वह उसका आदर्श बन जाता है फौरन, कि इस आदमी को वह दिन आ गया जिसकी मुझे अभी प्रतीक्षा है। कोई बात नहीं, अभी मैं तो नहीं हो सका, लेकिन तुम हो गए। हम तुम्हें भगवान तो मान ही सकते हैं। इसलिए त्यागियों के पास भोगी इकट्ठे हो जाएंगे। यह बड़ा “मेग्नेटिक’ काम है, जो अपने-आप चलता रहता है। इसको अगर हम पहचान लें तो हम सारी दुनिया की चेतना को “मेग्नेटिक फील्ड्स’ में बांट सकते हैं कि किस तरह दुनिया की चेतना आकर्षित होती रहती है, बनती रहती है, मिटती रहती है। अजीब काम चलता रहता है जो दिखाई नहीं पड़ता ऊपर से।

तो जब भी आप किसी से आकर्षित हों, तो एक बात पक्की समझ लेना कि इस आदमी से बचना। यह आपका “टाइप’ नहीं है, यह उल्टा “टाइप’ है। “कांप्लीमेंट्री’ है। अध्यात्म की यात्रा में सहयोगी न होगा, संसार की यात्रा में साथी हो सकता है। अध्यात्म की यात्रा में आपको अपनी ही खोज करनी पड़ेगी, स्वधर्म की। मैं कौन हूं, उसकी ही खोज करनी पड़ेगी। वह खोज हो जाए, तो आप जीवन को बिना छोड़े, गति को बिना छोड़े, कर्म को बिना छोड़े अकर्म को उपलब्ध हो जाएंगे। संसार को बिना छोड़े सत्य को उपलब्ध हो जाएंगे। सब जैसा है वैसा ही रहेगा, सिर्फ आप बदल जाते हैं। सब जैसा है, ठीक वैसा ही रहेगा। सिर्फ आप बदल जाते हैं। और जिस दिन आप बदल जाते हैं, उस दिन सब बदल जाता है, क्योंकि जो सब दिखाई पड़ता है वह आपकी दृष्टि है।

“भगवान श्री, श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यदि तू सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान समझ कर युद्ध करेगा, तो तू पाप को नहीं, स्वर्ग को उपलब्ध होगा। यह क्यों और कैसे संभव है? क्या हिंसा तब हिंसा की घटना न रह जाएगी?’

इसमें दोत्तीन बातें खयाल लेनी चाहिए।

पहली तो बात यह कि कृष्ण कहते हैं कि हिंसा एक असत्य है, जो हो नहीं सकती। भ्रम है, जो संभव नहीं है। कोई मारा नहीं जा सकता। “न हन्यते हन्यमाने शरीरे’। शरीर को मार डालने से वह नहीं मरता जो पीछे है; और शरीर मरा ही हुआ है। इसलिए शरीर मरता है, यह कहना व्यर्थ है।

कृष्ण पहले तो यह कहते हैं कि हिंसा असंभव है। क्या यह मतलब है कि कोई भी जाए और किसी की हिंसा करे? नहीं, कृष्ण यह कहते हैं कि हिंसा तो असंभव है, लेकिन हिंसक-वृत्ति संभव है। तुम किसी को मारना चाहो, यह संभव है; कोई नहीं मरेगा, यह दूसरी बात है। तुम्हारे मारने से कोई नहीं मरेगा, यह दूसरी बात है। तुम मारना चाहते हो, यह बिलकुल दूसरी बात है। तुम मारना चाहते हो, इसमें पाप है; उसके मरने का तो कोई सवाल नहीं है, वह तो मरेगा नहीं। हिंसा में पाप नहीं है, हिंसकता में पाप है। तुमने तो मारना ही चाहा, वह नहीं मरा यह दूसरी बात है। तुम्हारी चाह तो मारने की है। कोई नहीं बचेगा, इसमें पुण्य नहीं है; कि कोई बचेगा, इसमें पुण्य नहीं है। तुमने बचाना चाहा, इसमें पुण्य है। एक आदमी मर रहा है, सब जानते हुए कि मरेगा, तुम बचाने की कोशिश में लगे हो। यह तुम्हारी बचाने की कोशिश से वह बचेगा नहीं, मर जाएगा कल, लेकिन तुम्हारी बचाने की कोशिश में पुण्य है। पाप दूसरे को नुकसान पहुंचाने की वृत्ति है, पुण्य दूसरे को लाभ पहुंचाने की वृत्ति है।

और कृष्ण तीसरी जो बात कहते हैं, वे कहते हैं कि अगर तू पाप और पुण्य, अगर तू सुख और दुख, दोनों के पार उठ जा, तो फिर न पाप है, फिर न पुण्य है। फिर कुछ भी नहीं है। फिर न हिंसा है, न अहिंसा है, अगर तू इन दोनों के ऊपर उठ जाए और जान ले कि उस तरफ हिंसा नहीं होती, तो मैं नाहक हिंसा करने के खयाल से क्यों भरूं? और उस तरफ कोई बचता नहीं, तो मैं नाहक बचाने के पागलपन में क्यों पड़ूं? अगर तू सत्य को देखकर अपनी वृत्तियों को भी समझ ले कि ये वृत्तियां व्यर्थ हैं–असंभव हैं–अगर तू इन दोनों बातों को ठीक से समझ ले, तो तू स्वर्ग को उपलब्ध हो ही गया। हो जाएगा ऐसा नहीं, हो ही गया। क्योंकि हो जाने का क्या सवाल है? ऐसी स्थिति में, जहां सुख और दुख, लाभ और हानि, जय और पराजय, हिंसा और अहिंसा, सब समान हो गई हैं, समत्व उपलब्ध हुआ, ऐसी स्थिति में स्वर्ग मिल ही गया। अब कुछ स्वर्ग बचा नहीं पाने को । ऐसी स्थिति में, ऐसी समत्व बुद्धि को ही कृष्ण योग कहते हैं।

वह कहते यह हैं कि दो तरह की भ्रांति है। एक भ्रांति तो यह कि कोई मरेगा। और एक भ्रांति यह कि मैं मारूंगा। एक भ्रांति यह कि कोई बचेगा और एक भ्रांति यह कि मैं बचाऊंगा। ये दोनों ही भ्रांतियां हैं। अगर पहली भ्रांति छूट जाए, कि कोई मरता नहीं, कोई बचता नहीं, जो है वह है, अगर यह पहली भ्रांति छूट जाए, तो फिर एक दूसरी भ्रांति बचती है कि कोई नहीं मरता तो भी मैं मारने की कोशिश करता हूं तो पाप है। कोई नहीं बचता तो भी मैं बचाने की कोशिश करता हूं, तो पुण्य है। लेकिन पाप और पुण्य भी अधूरा अज्ञान है। आधा। आधा अज्ञान बच गया। अगर यह भी पता चल जाए कि न मैं किसी को बचाता, न कोई बचता; न मैं किसी को मारता, न कोई मरता; अगर यह पूरा ही चला जाए, तो ज्ञान है। फिर ऐसे ज्ञान वाले व्यक्ति को जो हो रहा है, वह होने देता है। बाहर, भीतर, कहीं भी जो हो रहा है वह होने देता है। क्योंकि अब न होने देने का कोई सवाल नहीं। तब वह “टोटल एक्सेप्टिबिलिटी’ को, समग्र स्वीकार को उपलब्ध हो जाता है।

तो कृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि तू सब देख और स्वीकार कर और जो होता है, होने दे; तू धारा के खिलाफ लड़ मत, तू बह। और फिर तू स्वर्ग को उपलब्ध हो जाता है।

आज इतना ही।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–98

February 27, 2015, 6:29 am

श्रद्धा: किसी के प्रति नहीं होती—(प्रवचन—अट्ठारहवां)

प्रश्‍न—सार:

1—आपके प्रति श्रद्धा रखने और स्वयं में श्रद्धा रखने में क्या विरोधाभास है?

2—बुद्ध को क्या प्रेरित करता है?

3—बच्चे पैदा करने का उचित समय कौन सा है?

4—केवल सेक्स, प्रेम और रोमांस के बारे में सोचना क्या गलत है?

पहला प्रश्न—

आपके प्रवचनों एक प्रवचन में कहीं गई एक बात ने मुझे गहराई तक आंदोलित कर दिया है। यह बात है, ‘आपने आप में श्रद्धा करने और आपमें श्रद्धा रखने में विरोधाभास में भीतर एक भाग है जो कहता है: यदि मैं अपने स्‍वयं के स्‍व में श्रद्धा करता हूं और अपने स्‍वयं के स्‍व का अनुसरण करता हूं, तो मैंने आपके समक्ष समर्पण कर दिया है और आपको हां कह दिया है। लेकिन मैं यह निश्‍चित नहीं कर पा रहा हूं कि क्‍या यह सब बस कोई तर्क द्वारा समझने का प्रयास है जिसे मैने अपने स्‍वयं के लिए निर्मित कर लिया है?’

मन बहुत चालाक है, और इस बात को सदैव स्मरण रखा जाना चाहिए। यही तो है जो मैं तुमसे कहता रहा हूं कि यदि तुम अपने आप पर भरोसा करो तो तुम मुझ पर श्रद्धा करोगे। या दूसरी ओर से कहा जाए, यदि तुम मुझ पर श्रद्धा करते हो तो स्वभावत: तुम स्वयं पर श्रद्धा करोगे। इस बात मैं कोई विरोधाभास नहीं है। मन के कारण विरोधाभास उठ खड़ा होता है। यदि तुम अपने आप में श्रद्धा करते हो तो तुम सभी पर श्रद्धा करते हो, क्यौंकि तुम जीवन पर श्रद्धा करते हो। तुम उन पर भी श्रद्धा करते हो जो तुम्हारे साथ धोखा करेंगे, किंतु यह महत्वपूर्ण नहीं है। यह उनकी समस्या है; यह तुम्हारी समस्या नहीं है। वे तुमको धोखा देते हैं या वै तुमको धोखा नहीं देते, इसका तुम्हारी श्रद्धा से कुछ भी लेना—देना नहीं है। यदि तुम कहते हो, मेरी श्रद्धा केवल इसी शर्त पर रहती है कि कोई मेरे साथ धोखा करने का प्रयास न करे, तब तुम्हारी श्रद्धा नहीं बनी रह सकती, क्योंकि धोखे की प्रत्येक संभावना तुम्हारे भीतर एक हिचकिचाहट को उत्पन्न करेगी—कौन जाने यह व्यक्ति मेरे साथ धोखा करने जा रहा हो? तुम भविष्य को कैसे देख सकते हो? धोखा भविष्य में होगा, यदि यह घटित होता है, या ऐसा नहीं होता है, यह भी भविष्य के गर्भ में है—और श्रद्धा को अभी और यहीं होना है।

और कभी—कभी कोई बहुत भला आदमी भी तुम्हारे साथ धोखा कर सकता है। किसी भी पल एक साधु भी पापी बन सकता है। और कभी—कभी एक बहुत बुरा व्यक्ति बहुत श्रद्धेय बन सकता है। पापी भी आखिरकार साधु बन जाते हैं। लेकिन यह बात भविष्य में है। और तुम अगर अपनी श्रद्धा के लिए शर्त रखते हो तो तुम श्रद्धा नहीं कर सकते। श्रद्धा बेशर्त होती है। यह बस इतना कहना है, मेरे पास वह गुण है जो श्रद्धा करता है। अब यह असंगत है कि मेरी श्रद्धा के साथ क्या होता है—इसको सम्मान मिलता है या नहीं, इसे धोखा मिलता है या नहीं। यह बात तो जरा भी नहीं है। श्रद्धा को श्रद्धा के पात्र से कुछ भी लेना—देना नहीं है, इसका संबंध तो तुम्हारी भीतरी गुणवत्ता से हैं—क्या तुम श्रद्धा कर सकते हो? यदि तुम श्रद्धा कर सकते हो, तो निःसंदेह पहली श्रद्धा तुम पर घटित होगी, तुम अपने आप. पर श्रद्धा करते हो। पहली बात तुम्हारे अस्तित्व के अंतर्तम केंद्र पर घटित होनी चाहिए। यदि तुम स्वयं पर श्रद्धा नहीं करते हो तो सभी कुछ बहुत दूर है। फिर तो मैं तुमसे बहुत दूर हूं। तुम मुझ पर श्रद्धा कैसे कर सकते हो न: तुमने अपने आप पर श्रद्धा नहीं की है जो इतना निकट है। और तुम मेरे ऊपर श्रद्धा कैसे कर सकते हो यदि तुम अपने आप पर श्रद्धा नहीं करते? यदि तुम अपने आप पर श्रद्धा नहीं करते, तो चाहे तुम जो कुछ भी करो, एक गहरी अश्रद्धा, एक अंतरधारा की भांति जारी रहेगी। यदि तुम अपने आप पर श्रद्धा करते हो, तो तुम पूरे जीवन पर श्रद्धा करते हों—केवल मुझमें नहीं, क्योंकि केवल मैं ही क्यों? श्रद्धा सभी को समाहित करती है। श्रद्धा का अर्थ है. जीवन में वह सभी कुछ जो तुम्हारे चारों ओर है, वह सभी कुछ जिससे तुम आए हो, वह सभी कुछ जिसमें एक दिन तुम विलीन हो जाओगे, इस सभी में श्रद्धा रखना।

श्रद्धा का अर्थ बस यही है कि तुमने संदेह के पागलपन को समझ लिया है, कि तुम संदेह की पीड़ा को समझ चुके हो, कि तुम उस नरक को समझ गए हो जो संदेह निर्मित करता है। तुमने संदेह को जान लिया है और इसको जान कर तुमने इसे त्याग दिया है। जब संदेह मिट जाता है तब श्रद्धा का उदय होता है। यह तुम्हारे भीतर के रूपांतरण की, तुम्हारी अभिरुचि, तुम्हारी शैली की कुछ चीज है। श्रद्धा किसी विरोधाभास को नहीं जानती।

प्रश्नकर्ता पूछता है : ‘यह है अपने आप में श्रद्धा करने और आपमें श्रद्धा रखने में विरोधाभास।’ यदि यही विरोधाभास है तो अपने आप पर श्रद्धा करो, यदि तुम स्वयं पर श्रद्धा कर सकते हो तो और किसी की आवश्यक्ता नहीं है। तब तुम अपनी श्रद्धा में गहराई से जड़ें जमाए हुए हो, और जब कोई वृक्ष पृथ्वी में गहराई से जड़ें जमाए हुए होता है तो यह अशांत आकाश में अपनी शाखाएं फैलाता चला जाता है। जब इसने अपनी जड़ें भूमि में जमा ली हैं, तो यह आकाश पर श्रद्धा कर सकता है। जब वृक्ष ने भूमि में जड़ें नहीं जमाई हैं तो यह आकाश पर श्रद्धा नहीं कर सकता है, तब यह सदैव भयभीत रहता है, तूफान से भयभीत, वर्षा से भयभीत, धूप से डरा हुआ, हवा से भयभीत, हर बात से भयभीत। यह भय जडों से आ रहा है। वृक्ष को पता है कि उसकी जड़ें पूर्णत: नहीं जमी हैं। कोई जरा सी दुर्घटना और वह विदा हो जाएगा। वह विदा हो ही चुका है। ऐसा जड़—विहीन, केंद्र—रहित जीवन जरा भी जीवन नहीं है। यह मात्र एक धीमा आत्मघात है। इसलिए यदि तुम अपने आप पर भरोसा करते हो तो मेरे बारे में सभी कुछ भूल जाओ। प्रश्न उठाने तक की आवश्यकता नहीं है। लेकिन तुम जानते हो और मैं जानता हूं कि तुम्हारी स्वयं पर श्रद्धा नहीं है।

मन एक बहुत चालाकी का उपाय निर्मित कर रहा है। मन कह रहा है, किसी पर श्रद्धा मत करो, अपने आप पर श्रद्धा करो, और तुम अपने आप पर श्रद्धा कर नहीं सकते। इसीलिए तुम यहां हो। वरना तुम यहां क्यों होते? जिस व्यक्ति को स्वयं पर श्रद्धा हो उसको कहीं जाने की जरूरत नहीं है, किसी सदगुरु के पास जाने की आवश्यकता नहीं है, सीखने के लिए कहीं—जाने की आवश्यकता नहीं है। जीवन तुम तक लाखों ढंगों से आ रहा है : कहीं और जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।

तुम जहां कही भी हो सत्य घटित हो जाएगा, लेकिन तुम अपने आप पर श्रद्धा नहीं करते हो। और जब मैं कहता हूं मुझ पर श्रद्धा करो, तो यह तुमको श्रद्धा करने में सहायता देने का एक उपाय मात्र है। तुम स्वयं पर श्रद्धा नहीं कर सकते हो? —ठीक है, मुझ पर श्रद्धा कर लो। संभवत: मुझ पर श्रद्धा करना तुमको श्रद्धा का स्वाद दे देगा तब तुम अपने ऊपर श्रद्धा कर सकते हो।

सदगुरु और कुछ नहीं वरन तुम्हारे स्वयं पर आने का एक लंबा मार्ग है, क्योंकि तुम निकटतम रास्ते से नहीं आ सकते हो। अत: तुमको थोड़ा लंबा रास्ता अपनाना पड़ेगा। लेकिन सदगुरु के द्वारा तुम अपने आप पर आते हो। यदि तुम मुझ पर अटक जाते हो तब मैं तुम्हारा शत्रु हूं तब मैं तुम्हारे लिए सहायता नहीं बना हूं। तब मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता, तब मुझमें तुम्हारे प्रति कोई करुणा नहीं है। यदि मुझमें जरा भी करुणा है, तब धीरे— धीरे मैं तुमको तुम्हारी ओर वापस मोड़ दूंगा। इसीलिए मैं कहे चला जाता हूं यदि मार्ग पर तुम्हारा बुद्ध से मिलन होता है, तो उनको मार डालो। यदि तुम मुझसे आसक्ति आरंभ कर देते हो, तो मुझको तुरंत छोड़ दो। मुझे मार दो, मेरे बारे में सभी कुछ भूल जाओ। लेकिन तुम्हारा मन कहेगा, जब आसक्त हो जाने का इतना भय है, तो बेहतर यही है कि यात्रा को कभी आरंभ ही न किया जाए। तब तुम आत्म—अश्रद्धा में बने रहते हो। मैं तो बस तुमको श्रद्धा का स्वाद लेने का एक अवसर प्रदान कर रहा हूं।

जब मैं कह रहा हूं कि सदगुरु से आसक्त मत हो, तो मुझको सुनते समय तुम्हारे अहंकार को बहुत अच्छा अनुभव होने लगता है। यह कहता है, बिलकुल सच है। मुझे क्यों किसी पर श्रद्धा करना चाहिए? मुझको किसी के प्रति समर्पण क्यों करना चाहिए? सही है, यही उचित बात है! यही तो है जो जे. कृष्णमूर्ति के शिष्यों के साथ घटित हो गया है। चालीस, पचास वर्षों से वे सिखा रहे हैं? और ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने अपने पूरे जीवन भर उनको सुना है और कुछ भी नहीं घटा है—क्योंकि वे जोर दिए चले जाते हैं कि

न कोई सदगुरु है, न कोई शिष्य है। वे तुमको तुम्हारे ऊपर फेंकते चले जाते हैं इससे पहले ही कि तुम श्रद्धा का स्वाद ले पाओ, वे तुमको तुम्हारे ऊपर फेंकते चले जाते हैं। इसके पहले कि तुम आसक्त होना आरंभ करो वे सचेत हैं, बहुत सचेत हैं। वे तुमको उनके निकट नहीं पहुंचने देंगे। यह एक अति है। तुम्हारे अहंकार को बहुत अच्छा अनुभव होता है कि तुम्हारा कोई गुरु नहीं है, कि तुम्हें किसी के प्रति समर्पण नहीं करना पड़ता है। तुम और समर्पण करते हुए? यह अच्छा नहीं दिखाई पड़ता, यह तो अपमान जैसा दिखाई पड़ता है। तुम्हें बहुत अच्छा लगता है। कृष्णमूर्ति के पास सभी प्रकार के अहंकारी एक साथ उनके चारों ओर एकत्रित हो गए हैं। यदि तुम सर्वाधिक सुसंस्कृत अहंकारियों को खोजना चाहते हो तो तुमको वे कृष्णमूर्ति के चारों ओर मिल जाएंगे। वे बहुत सुसंस्कृत, परिष्कृत, बहुत बुद्धिजीवी, बहुत चालाक और चतुर, तार्किक, बुद्धिवादी हैं, किंतु उनको कुछ भी नहीं हुआ है। उनमें से अनेक मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, हमें पता है, हम समझते हैं, लेकिन हमारी समझ बौद्धिक बनी हुई है। कुछ भी नहीं हुआ है। हमारा कोई रूपांतरण नहीं हुआ है, इसलिए क्या सार है इस भांति सुनने में? कृष्णमूर्ति कहते हैं, उनसे बंधो मत, लेकिन तुम अपने आप से बंध रहे हो। यदि इस बंधने में कोई चुनाव करना हो तो कृष्णमूर्ति से आसक्त हो जाना अपने आप से बंधने से बेहतर है। कम से कम तुम किसी श्रेष्ठ व्यक्ति से आसक्त हो रहे हो।

फिर एक अन्य अति भी है। ऐसे गुरु हैं जिनका जोर इस बात पर है कि तुमको उनसे बंधे रहना चाहिए। समर्पण साध्य प्रतीत होता है, साधन नहीं। वे कहते हैं, पूरी तरह से मेरे साथ बने रहो। कभी अपने घर वापस मत लौटना। यह भी खतरनाक प्रतीत होता है, क्योंकि तब तुम सदैव रास्ते पर होते हो और मंजिल पर कभी नहीं पहुंचते—क्योंकि मंजिल तो तुम ही हो। मैं एक पथ बन सकता हूं, कृष्‍णमूर्ति तुम्हें उनको पथ बनाने की अनुमति नहीं देंगे। फिर दूसरे लोग हैं जो तुमको लक्ष्य नहीं बनने देंगे। वे कहते हैं, चलते रहो, चलते चले जाओ, चरैवेति—चरैवेति। तुम सदा तीर्थयात्रा करते रहते हो, और तुम पहुंचते कभी नहीं—क्योंकि तुप्तें अपने अंतर्तम अस्तित्व पर ही तो पहुंचना पड़ता है। तुम्हारा आगमन बिंदु मैं नहीं हो सकता। मैं किस भांति तुम्हारा आगमन बिंदु हो सकता हूं? आज नहीं तो कल तुमको मुझे अपना प्रस्थान—बिंदु बनाना पड़ता है।

मैं न तो कृष्णमूर्ति से राजी हूं न ही दूसरे अतिवादियों से। मैं कहता हूं : ‘मेरा एक पथ की भांति प्रयोग कर लो, लेकिन स्मरण रखो, ‘एक पथ की भांति।’ और यदि मैं लक्ष्य बनने लगू तो तुरंत ही मुझे मार डालो—तुरंत मुझे त्‍याग दो क्योंकि अब औषधि रोग की भांति हुई जा रही है। औषधि को प्रयोग किया जाना और भूल जाना चाहिए। तुम्हें अपने साथ लगातार चिकित्सक का परामर्श और दवा की बोतलें लिए—लिए नहीं फिरना है। यह एक साधन, उपकरण था, अब तुम स्वस्थ हो, छोड़ दो इसे, इसके बारे में सभी कुछ भूल जाओ। इसके प्रति आभारी रहो, इसके प्रति अहोभाव से. भरो, लेकिन इसको लिए—लिए नहीं फिरना है।

बुद्ध ने कहा कि पांच मूर्खों ने नदी पार की, फिर उन सभी ने सोचना शुरू कर दिया—मूर्ख तो सदा दार्शनिक होते हैं, और इसका उलटा भी सत्य है—वे सोचने लगे, क्या किया जाए? इस नाव ने हमारी कितनी अधिक सहायता की है, वरना हम तो दूसरे किनारे पर मर ही गए होते। उधर जंगल था, और रात्रि होने वाली थी, और वहां जंगली जानवर और डाकू थे, और कुछ भी बुरा हो सकता था। इस नाव ने हमें बचाया है। हमको सदैव और सदा के लिए इस नाव का, इस नाव के प्रति आभारी होना चाहिए। तब एक मूर्ख ने सुझाव दिया, हां, यह बात ठीक है। अब हमको इस नाव को अपने सिरों पर लेकर चलना चाहिए क्योंकि इस नाव की तो पूजा की जानी चाहिए। तब उन्होंने अपने नगर की ओर जाते समय नाव को सिर पर रख कर चलना आरंभ कर दिया। अनेक लोगों ने पूछा, तुम लोग क्या कर रहे हो? हमने नाव में बैठे हुए लोगों को देखा है, लेकिन हमने कभी नाव को आदमियों के ऊपर सवारी करते हुए नहीं देखा। क्या हो गया है? उन्होंने कहा तुम नहीं जानते, इस नाव ने हमारी जिंदगियों को बचाया है। अब हम यह बात भूल नहीं सकते, और अपने पूरे जीवन भर हम इस नाव को अपने सिरों पर लाद कर घूमने वाले हैं। अj इस नाव ने इनको पूरी तरह से मार डाला है। यही बेहतर रहा होता कि वे नदी के दूसरे किनारे पर ही छू। गए होते। यही बेहतर रहा होता कि इस नाव को सदा के लिए, सदैव ढोने के बजाय उनको जंगली जानवर ने मार डाला होता। यह एक अंतहीन पीड़ा थी। नदी के दूसरे किनारे पर पल भर में ही घटनाएं घट गई होतीं। मामला निबट गया होता। अब वर्षों तक वे लोग इस बोझ, इस भार, इस ऊब को ढोते रहेंगे। और जितना अधिक वे इसको लेकर फिरेंगे उतना ही वे इस बोझ के आदी हो जाएंगे। उस बोझ के बिना उनको अच्छा नहीं लगेगा, उनको असहजता लगेगी। और अब वे कुछ और कर भी नहीं पाएंगे, क्योंकि कुछ और किया भी कैसे जा सकता है? नाव को सिर पर उठाए हुए रहना इतनी सतत व्यस्तता हो जाएगी कि कुछ भी करने में वे करीब—करीब असमर्थ हो जाएंगे।

यही तो अनेक धार्मिक लोगों के साथ हो गया है, वे कुछ भी कर सकने में असमर्थ हो चुके हैं, वे बस अपनी नाव को ढो रहे हैं। जाओ और जैनियों के आश्रमों, कैथेलिक मोनेस्ट्रियों, बौद्धों के आश्रमों में देखो—ये लोग क्या कर रहे हैं? वे बस धर्म कर रहे हैं; सारा जीवन छूट चुका है। वे बस प्रार्थना कर रहे हैं या बस ध्यान कर रहे हैं। क्या कर रहे हैं वे? जीवन उनके द्वारा समृद्ध नहीं किया जा रहा है। सृजनात्मक नहीं हैं वे। वे एक अभिशाप हैं, वरदान नहीं हैं वे। उनके कारण जीवन और अधिक सुंदर नहीं हो जात। है। वे किसी भी भांति सहायता नहीं कर रहे हैं। लेकिन वे बहुत गंभीर लोग हैं, और वे लगातार उलझे हुए हैं, चौबीसों घंटे वे उलझे हुए हैं। वे अपने सिर पर एक नाव ढो रहे हैं। उनके कर्मकांड उनकी नाव हैं।

स्मरण रखो, मेरे पास आओ, मुझ पर श्रद्धा करो। बस सीख लो कि श्रद्धा क्या है। मेरे उद्यान में आओ और वृक्षों के मध्य से प्रवाहित होती हुई हवा की आवाज सुनो, लेकिन बस घर लौट कर अपना एक उद्यान निर्मित करने के लिए। इन पुष्पों के, इन गीत गाते पक्षियों के निकट आओ,. उनका एक गहरा अनुभव प्राप्त करों, फिर वापस लौट जाओ। तब अपना स्वयं का संसार निर्मित करो। बस मेरे झरोखे से एक झलक पा लो। मुझको अपने सम्मुख बिजली की एक कौंध की भांति —चमक जाने दो ताकि तुम जीवन का सभी कुछ देख लो—लेकिन यह बस एक झलक ही होने जा रहा है।

मुझसे आसक्त हो जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तब तुम अपना स्वयं का घर कब बनाओगे, और तुम अपना स्वयं का उद्यान कब बनाओगे, और कब तुम्हारे स्वयं के फूल खिलेंगे, और कब तुम्हारे स्वयं के हृदय के पक्षी गीत गाएंगे? नहीं, तब तो तुम उस नाव को जिसने तुम्हारी उस किनारे पर सहायता की थी ढोते फिरोगे। लेकिन तब यह दूसरा किनारा नष्ट हो गया है क्योंकि तुम अपने सिर पर नाव ढोते फिर रहे होओगे। दूसरे किनारे पर तुम नृत्य कैसे करोगे? उत्सव कैसे मनाओगे तुम? वह नाव एक सतत कारागृह बन जाएगी।

जब मैं तुमसे स्वयं पर श्रद्धा करने को कहता हूं तो मैं बस यही कह रहा हूं कि मुझ पर जो एक विशिष्ट आबोहवा घट चुकी है, इसकी एक झलक पा लो। आओ, और इस आबोहवा को तुमको घेर लेने दो; मुझको अपने .हृदय में स्पंदित होने दो, मुझको अपने चारों ओर धड़कने दो; अपने अस्तित्व के गहनतम तल में मुझे तरंगित होने दो; मुझे अपने भीतर प्रतिध्वनित होने दो। मैं यहां एक गीत गा रहा हूं इसको गंजने दो ताकि तुम जान सको कि हां, गीत संभव है। बुद्ध विदा हो चुके हैं, जीसस भी यहां नहीं हैं यह स्वाभाविक है। जीसस को सुन पाना तुम्हारे लिए संभव नहीं है। तुम बाइबिल पढ़ सकते हो, यह बस किसी ऐसी बात का शब्द—चित्र खींचती है जो कहीं किसी समय में घटित हुई थी, लेकिन तुम इस पर विश्वास नहीं कर सकते। यह बस कोई पुराण—कथा, एक कहानी हो सकती है। बुद्ध मात्र एक काव्यात्मक कल्पना हो सकते हैं, हो सकता है कि उनको कवियों ने रचा हो। कौन जाने? क्योंकि जीवन में तुम्हारा ऐसे व्यक्ति से आमना—सामना नहीं होता। जब तक कि तुम किसी धार्मिक व्यक्ति के संपर्क में नहीं आते, धर्म कहीं एक स्वप्न जैसा बना रहेगा। यह कभी एक वास्तविकता नहीं बनेगा। यदि तुम ऐसे व्यक्ति के संपर्क मे आते हो जिसने सत्य का स्वाद ले लिया है, जो एक भिन्न संसार में और एक भिन्न आयाम में जी चुका है, जिसके लिए परमात्मा घट चुका है, और जिसके लिए परमात्मा मात्र कोई सिद्धात नहीं है, बल्कि श्वास—प्रश्वास की भांति एक यथार्थ है, तब उस पर श्रद्धा करो, उसमें समा जाओ। फिर हिचकिचाओ मत. फिर साहस करो। तब जरा निर्भीक हो जाओ। तब कायर मत बनो और द्वार के बाहर लुका—छिपी मत खेलते रहो, मंदिर में प्रवेश करो। निःसंदेह यह मंदिर तुम्हारे लिए आश्रय नहीं बनने जा रहा है। तुमको अपना स्वयं का मंदिर निर्मित करना पड़ेगा—क्योंकि परमात्मा की उपासना केवल तभी की जा सकती है जब तुमने अपना स्वयं का मंदिर निर्मित कर लिया हो। उधार’ के मंदिर में परमात्मा की उपासना नहीं की जा सकती है। परमात्मा एक सृष्टा है और केवल सृजनात्मकता का सम्मान करता है। और अपना स्वयं का मंदिर निर्मित करना आधारभूत सृजनात्मकता है। नहीं, उधार के मंदिरों से काम नहीं चलने वाला है। लेकिन मंदिर का सृजन किस भांति किया जाए?

पहली बात, यह विश्वास कर पाना करीब—करीब असंभव है कि कभी मंदिरों का अस्तित्व था। जीसस का अस्तित्व संदेहास्पद बना हुआ है, बुद्ध एक पुराण—कथा की भांति दिखाई पड़ते हैं, इतिहास जैसे नहीं, कृष्‍ण तो और भी स्वप्नों के संसार में हैं। इतिहास में तुम जितना पीछे लौटते हो उतनी ही अधिक बातें धूमिल होकर पुराण—कथाओं में बदलती जाती हैं। यथार्थ पर कोई चिह्न शेष नहीं बचा।

जब मैं कहता हूं मुझ पर श्रद्धा करो, तो मेरा अभिप्राय बस यही है : बाहर मत खड़े रहो। यदि तुम मेरे इतने निकट आ गए हो, तो थोड़ा और पास आ जाओ। यदि तुम आ गए हो, तो भीतर आ जाओ। फिर मेरी आबोहवा को तुम्हें घेर लेने दो। वह तुम्हारे लिए एक अस्तित्वगत अनुभव बन जाएगा। मेरी आंखों में देखते हुए, मेरे हृदय में प्रविष्ट होते हुए, तुम्हारे लिए जीसस में अश्रद्धा कर पाना असंभव हो जाएगा। तब तुम्हारे लिए यह कहना कि बुद्ध मात्र एक पुराण—कथा हैं, असंभब होगा, लेकिन फिर भी मैं यही कहे चला जाऊंगा कि यदि बुद्ध आते हैं, रास्ते पर तुम्हें मिल जाते हैं, उनको मार दो।

मेरे माध्यम से आओ, लेकिन वहां रुको मत। अनुभव ग्रहण करो और अपने रास्ते चले जाओ। यदि अनुभव पुन: स्मृतियों में खो जाए और मंद पड़ जाए, तो जब तक मैं यहां उपलब्ध हूं दुबारा मेरे पास आ जाओ। एक और डुबकी मार लो, लेकिन लगातार यह स्मरण रखो कि तुमको अपना स्वयं का कुछ निर्मित करना है। केवल तभी तुम उसके भीतर रह सकते हो। मैं अधिक से अधिक तुम्हारे सामान्य जीवन से अवकाश का एक समय बन सकता हूं लेकिन मैं तुम्हारा जीवन नहीं बन सकता। अपना जीवन तुम्हें ही बदलना पड़ेगा।

अब, मन बहुत चालाक है। यदि मैं कहता हूं मुझ पर श्रद्धा करो, तो मन को यह कठिन लगता है। किसी और व्यक्ति पर श्रद्धा करना बहुत अंहकार—नाशक है। यदि मैं कहूं बस स्वयं पर श्रद्धा करो, तो मन को बहुत. अच्छा लगता है। लेकिन केवल अच्छा लगने से कुछ नहीं होता है। मैं तुमसे कहता हूं अपने आप में श्रद्धा रखो। यदि यह संभव है तब मुझ पर श्रद्धा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि यह संभव न हो, तब पहले विकल्प के लिए प्रयास करो। मन सदा इसी खोज मे संलग्न रहता है कि किस भांति प्रत्येक वस्तु के माध्यम से अपने आप को और बलशाली बनाया जाए।

मैं तुमको एक कहानी सुनाऊंगा।

एक व्यक्ति किसी बड़े शहर में रहने लगा था, और करीब छह माह तक प्रत्येक रविवार को उसने अपने अनुकूल धार्मिक समुदाय पाने के लिए भिन्न—भिन्न चर्चों की धर्म—सभाओं में भागीदारी की। अंततः एक रविवार की सुबह बस वह चर्च में प्रविष्ट हो ही रहा था कि उसने श्रद्धालुओं को धर्मोपदेशक के साथ—साथ बोलते हुए सुना : हमने उन कामों को बिना किए छोड़ दिया है जो हमें करना: चाहिए थे, और हम उन कामों को कर चुके हैं जो हमे नहीं करना चाहिए थे। वह अपने आप से फुसफुसाते हुए, अंततः मुझको मेरा ठिकाना मिल ही गया, राहत और संतोष की श्वास लेकर वहीं पर बैठ गया।

तुम बस किसी ऐसी चीज को पाने का प्रयास कर रहे हो जो तुम्हें बाधा न पहुंचाए। बल्कि इसके विपरीत यह तुम्हारे पुराने मन को सबल बनाए। यह तुमको जैसे तुम हो वैसे ही सशक्त करे। मन का सारा प्रयास यही है : अपने— आप को तैयार करना। तुमको इसके बारे में मननशील होना पड़ेगा। जो कहा गया उसको नहीं, वरन जो यह सुनना चाहता है, मन की उसी को सुनने की प्रवृति है।

हैरी ने अपत्री अधिक उम्र वाली कुरूप पत्नी से केवल उसके धन की खातिर विवाह किया था। निःसंदेह उसके पास इस धन को खर्च करने के अनेक ढंग थे। वह अफ्रीका के जंगलों में घूमने गया हुआ था। तभी दलदल में से एक बड़ा घड़ियाल प्रकट हुआ और उसने उसकी पत्नी को अपने जबड़ों मे दबोच लिया और खींच कर ले जाने लगा, हैरी का रोआं तक नहीं हिला। जल्दी करो! इसे शूट करो! इसे सूट करो! अभागी पत्नी चिल्लाई। हैरी ने कंधे उचकाए, प्रिय, मुझे ऐसा करके अच्छा लगता, लेकिन मेरे कैमरे में फिल्म नहीं है।

मन .में, जो यह सुनना चाहता है, वही सुनने की प्रवृति होती है। ऐसा कभी मत सोचो कि तुम मुझको सुन रहे हो। तुम इसे अनेक ढंगों से बदलते चले जाते हो। जब कोई बात तुम्हारी खोपड़ी में प्रवेश करती है तो तुम इसे सीधे ही. नहीं सुनते। पहले तुम इसको अपने खयालों के साथ मिश्रित कर देते हो, तुम यहां और वहां परिवर्तन कर देते हो। तुम कुछ बातों को छोड़ देते हो, कुछ बातें तुम इसमें जोड़ देते हो। निःसंदेह फिर यह धीरे— धीरे तुम्हारे अनुरूप होने लगता है और तुम अपने आपको समझा लेते हो कि यह वही है जो तुमसे कहा गया था।

लंदन की एक गली में आपाधापी के बीच एक आवारा चकरा कर गिर पडा और तुरंत ही उसके चारों ओर एक भीड़ एकत्रित हो गई।

बेचारे को थोड़ा सी व्हिस्की पिला दो, एक वृद्ध महिला ने कहा।

उसके ऊपर हवा करो, एक व्यक्ति बोला।

उसे थोड़ी सी व्हिस्की पिला दो, बूढी महिला पुन: बोली।

उसे अस्पताल ले जाओ, एक और आवाज आई।

उसे जरा सी व्हिस्की दे दो, बूढ़ी महिला ने दुबारा फिर से कहा।

यह बातचीत इसी तरह तब तक चलती रही जब तक वह उठ कर नहीं बैठ गया और चिल्लाया, क्या आप सब लोग चुप होकर उस की महिला की बात सुनेंगे।

उस समय भी जब तुम बेहोश हो, तुम उस बात को सुन सकते हो जिसको तुम सुनना चाहते थे; और जब तुम होश में हो उस समय भी तुम उस बात को नहीं सुन रहे हो जो तुमसे कही जा रही है।

एक भिखारी यहां मुझको सुनने आता है। उस भिखारी ने मुख्य सड़क पर एक आदमी से कहा : मुझको कॉफी के एक कप के लिए कुछ पैसे दे दो। उस आदमी ने कहा : लेकिन केवल दस मिनट पहले ही मैंने तुम्हें अठन्नी दी थी। उस भिखारी ने कहा : अरे, अतीत में जीना छोड़ भी दो। मैं लगातार तुमको अतीत में जीना छोड़ना सिखा रहा हूं—बिलकुल सही है उसकी बात।

स्मरण रखो, तुम्हारा मन लगातार तुम्हारे साथ चालाकियां खेल रहा है। विरोधाभास जरा भी नहीं है, विरोधाभास तुमने बना लिया है।

अब मैं प्रश्न का शेष भाग पढूंगा—देखो जोर किस बात पर है।

‘मेरे भीतर एक भाग है जो कहता है, यदि मैं अपने स्वयं के स्व में श्रद्धा करता हूं और अपनइ स्वयं के स्व का अनुसरण करता हूं तो मैंने आपके समक्ष समर्पण कर दिया है और आपको हां कह दिया है।’ लेकिन यह केवल एक भाग है; और शेष भाग के बारे में क्या? यदि तुम इस भाग पर भरोसा करो, तो शेष मन कहेगा, तुम क्या कर रहे हो? इसी भांति संदेह उठ खड़ा होता है। यदि तुम प्रश्न के शेष भाग को सुनो, तो यह भाग संदेहों को निर्मित करता चला जाएगा। इसी प्रकार से मन गति करता है—सदा दुविधा में। यह अपने विरोध में अपने आप को विभाजित कर लेता है, और यह लुका—छिपी का खेल खेलता चला जाता है। इसलिए जो कुछ भी तुम करते हो, हताशा आती ही है—जो कुछ भी कर लो। लेकिन हताशा को अवश्य आना है। यदि तुम मुझ पर श्रद्धा करो तो तुम्हारे मन का एक भाग कहता चला जाएगा, तुम यह क्या कर रहे हो? मैं सदा से तुमसे कहता हूं बस अपने ऊपर श्रद्धा करो। यदि तुम मुझ पर श्रद्धा न करो और स्वयं पर श्रद्धा करो, तो मन का दूसरा भाग लगातार हताश होता रहेगा। यह कहेगा, तुम यह क्या कर रहे हो? उन पर श्रद्धा करो। समर्पण कर दो। अब मन के दोहरेपन को देखो।

यदि तुम मन के इस सतत विभाजन को देख सको जो कभी भी पूर्ण निर्णय पर नहीं पहुच पाता, तो धीरे—धीरे तुम्हारे भीतर एक भिन्न प्रकार की चेतना उठ खड़ी होगी जो पूरी तरह से निर्णय कर सकती है। यह निर्णय मन का नहीं है।’ इसीलिए मैं कहता हैं कि समर्पण मन का कृत्य नहीं है। श्रद्धा मन से किया गया कृत्य नहीं है। मन श्रद्धा नहीं कर सकता। अश्रद्धा मन के लिए बहुत स्वाभाविक है, यह अंतःनिर्मित है। मन का अस्तित्व अश्रद्धा पर, ‘संदेह पर निर्भर है। जब तुम अत्यधिक संदेह में होते हो तो तुमको अपने भीतर अत्यंधिक मनन शीलता, हलचल दिखाई पड़ती है। मन अत्यधिक सक्रिय हो जाता है। लेकिन जब तुम श्रद्धा करते हो, तो मन के करने के लिए कुछ भी नहीं है। क्या तुमने कभी इसको देखा है? जब तुम कहते हो, नहीं, तो तुम अपनी चेतना के शांत सरोवर में एक पत्थर फेंक देते हो; लाखों तरंगें उठती हैं। जब तुम कहते हो, हां, तो तुम कोई पत्थर नहीं फेंक रहे हो, अधिक से अधिक तुम झील में एक फूल तैरा रहे हो। बिना किसी तरंग के फूल तैरता रहता है। यही कारण है कि लोगों को यह बहुत कठिन लगता है कि हां कहा जाए, और यह बहुत सरल लगता है कि न कह दिया जाए। न तो सदैव बिलकुल तैयार है। उससे पहले कि तुमने सुना हो न तैयार है।

मैं एक बार मुल्ला नसरुद्दीन के घर ठहरा हुआ था। मैंने सुना, पत्नी नसरुद्दीन से कह रही थी, नसरुद्दीन जरा बाहर जाकर देखो कि बच्चा क्या कर रहा है और उसको मना कर दो।

वह नहीं जानती कि बच्चा क्या कर रहा है. जरा बाहर जाकर देखो कि बच्चा क्या कर रहा है और उसको मना कर दो। चाहे वह जो कुछ भी क रहा हो, यह बात नहीं है, बल्कि रोक देना, नहीं कहना यही है असली बात। इनकार करना आसानी से आता है, यह अहंकार कों बढ़ा देता है। अहंकार का पोषण ‘न’ पर होता है, मन का पोषण संदेह, शक, अश्रद्धा से होता है। तुम मन के द्वारा मुझ पर श्रद्धा नहीं कर सकते। तुमको मन का द्वैतवाद—सतत दुविधा, मन के भीतर लगातार चलता रहने वाला विवाद देख लेना पड़ेगा। मन का एक भाग लगातार विपक्ष की भांति कार्य कर रहा है।

मन कभी किसी निर्णय पर नहीं पहुंचता। मन में सदैव कुछ ऐसे भाग हैं जो असहमत होते हैं। वे अपने अवसर की प्रतीक्षा करते हैं, और वे तुमको हताश कर देंगे।

तब श्रद्धा क्या है? तुम श्रद्धा कैसे कर सकते हो? तुम्हें मन को समझना पड़ेगा। मन को और इसके भीतर के सतत दोहरेपन को समझ कर, इसके साक्षी बन कर तुम मन से भिन्न हो जाते हो। और उस भिन्नता में श्रद्धा का उदय होता है। और वह श्रद्धा तुम्हारे और मेरे मध्य कोई विभाजन नहीं जानती। वह श्रद्धा तुम्हारे और जीवन के मध्य कोई विभाजन नहीं जानती। यह श्रद्धा बस श्रद्धा है। यह किसी के प्रति श्रद्धा नहीं है, किसी को संबोधित श्रद्धा नहीं है—क्योंकि यदि तुम मुझ पर श्रद्धा करते हो तो तुंरत ही तुम किसी पर अश्रद्धा करोगे। जब कभी भी तुम किसी पर श्रद्धा करते हो, तुरंत ही दूसरे छोर पर तुम किसी और पर अश्रद्धा कर रहे होओगे। यदि तुम्हारा भरोसा कुरान में है, तो तुम बुद्ध में विश्वास नहीं कर सकते। यदि तुमको जीसस में श्रद्धा है, तो तुम बुद्ध में श्रद्धा नहीं रख सकते। किस प्रकार की श्रद्धा है यह? इसका जरा भी मूल्य नहीं है।

श्रद्धा किसी के प्रति नहीं होती। यह न तो जीसस के प्रति है, न बुद्ध के प्रति। यह बस श्रद्धा है। तुम बस श्रद्धा करते हो क्योंकि तुमको श्रद्धा रखना अच्छा लगता है। तुम तो श्रद्धा रखते हो और श्रद्धा रखने का तम मजा लेते कि जब तम धोखा खाते तब भी तम मजा लेते हो। तुम मजा लेते हो कि तुम तब भी श्रद्धा कर सकते हो जब कि धोखा खाने की पूरी संभावना है, कि धोखा तुम्हारी श्रद्धा को नष्ट नहीं कर सकता, कि तुम्हारी श्रद्धा इतनी विराटतर है कि धोखा देने वाला तुमको विचलित नहीं कर सका। हो सकता है कि उसने तुम्हारा धन ले लिया हो, उसने तुम्हारी प्रतिष्ठा छीन ली हो, उसने तुमको पूरी तरह से लूट लिया हो, लेकिन तुम मजा लोगे। और तुम आत्यंतिक रूप से हर्षित और आनंदित अनुभव करोगे कि वह तुम्हारी श्रद्धा को खंडित न कर’ सका, अब भी तुम उस पर श्रद्धा रखते हो। और यदि वह पुन: लूटने आता है तो तुम तैयार हो, तुम अभी भी उस पर श्रद्धा करते हो। इसलिए उस व्यक्ति ने जिसने तुमको धोखा दिया है, तुमको भौतिक रूप से लूट लिया है, लेकिन आध्यात्मिक रूप से उसने तुमको समृद्ध कर दिया है।

लेकिन आमतौर पर क्या होता है? एक व्यक्ति तुम्हारे साथ धोखा करता है और सारी मानव—जाति की निंदा होती है। एक ईसाई तुमको धोखा देता है और सभी ईसाइयों की निंदा होती है। एक मुसलमान ने तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया था और मुसलमानों का पूरा समुदाय पापी हो जाता है। एक हिंदू तुम्हारे प्रति भला नहीं था, सभी हिंदू नाकारा हो जाते हैं। तुम बस प्रतीक्षा करो। बस एक आदमी ही पूरी मानवता के लिए अश्रद्धा उत्पन्न कर सकता है।

श्रद्धा का व्यक्ति श्रद्धा किए चला जाता है। चाहे उसकी श्रद्धा को कुछ भी हो जाए, एक बात कभी नहीं होती : वह कभी किसी को अपनी श्रद्धा खंडित करने की अनुमति नहीं देता। उसकी श्रद्धा बढ़ती—चली जाती है। श्रद्धा परमात्मा है। लोगों ने तुमसे परमात्मा पर श्रद्धा करने का कहा हुआ है; मैं तुमसे कहता हूं श्रद्धा परमात्मा है। परमात्मा के बारे में सभी कुछ भूल जाओ; बस श्रद्धा करो, और तुम जहां कहीं भी होओगे परमात्मा तुमको खोजता और तलाश करता हुआ आ जाएगा।

प्रश्न : बुद्ध को क्या प्रेरित करता है?

यह प्रश्न असंगत है, क्योंकि बुद्ध केवल तभी बुद्ध बनता है जब सारी प्रेरणाएं विदा हो चुकी हैं, सारी वासनाएं तिरोहित हो चुकी हैं। एक बुद्ध केवल तभी बुद्ध होता है क्योंकि उसके करने के लिए कुछ भी नहीं है, चाहने के लिए कुछ भी नहीं, न कहीं जाना है और न ही कुछ उपलब्ध करना है। उपलब्ध करने वाला मन खो जाता हैं—तभी कोई बुद्ध बनता है। इसलिए अगर तुम पूछते हो : बुद्ध को क्या प्रेरित करता है? तब तुम एक असंगत प्रश्न पूछ रहे हो। उसे कुछ भी प्रेरित नहीं करता, इसीलिए तो वह बुद्ध है।

सिद्धार्थ गौतम को संबोधि घटित हुई। कहानी इस प्रकार है कि एक ब्राह्मण वहां से गुजर रहा था।

उसने इतना सुंदर व्यक्ति कभी नहीं देखा था। अपने वृक्ष के नीचे बैठे बुद्ध को किसी अपार्थिव आभा ने घेर रखा था, वे प्रदीप्त थे, वहां एक गहन शांति थी। ब्राह्मण आगे न बढ़ सका। यद्यपि वह शीघ्रता में था, उसे कहीं पहुंचना था, लेकिन बुद्ध के मौन ने उसे आकर्षित कर लिया। वह भूल गया कि वह कहां जा रहा था, अपनी कार्य करने की प्रेरणा को वह भूल गया। इस व्यक्ति के पास आकर जिसने प्रेरणा के पार की अवस्था उपलब्ध कर ली थी, वह उसकी भंवर के खिंचाव से आकर्षित कर लिया गया। मंत्रमुग्ध होकर वह वहीं ठहरा रहा।

कहानी कहती है कई घंटे बीत गए। फिर अचानक उसको होश आया कि वह क्या कर रहा था? तब अचानक उसको याद पड़ा कि वह कहीं जा रहा था, लेकिन कहां? फिर उसने पूछा, मैं कौन हूं ?—जैसे कि पूरी पहचान, सारा अतीत कहीं खो गया था। वह कौन था इस बात को भी वह अपने संज्ञान में नहीं ला पाया। फिर उसने शांत बैठे हुए बुद्ध को पकड कर हिलाया और कहा : आपने मेरे साथ क्या कर दिया? मैं तो पूरी तरह से भूल गया हूं कि मैं कहां जा रहा था, और मैं कहां से आ रहा था, और मैं कौन हूं। अब मैं किससे पछूं। कौन देगा इसका उत्तर? और देश के इस भूभाग में तो मैं एक अजनबी हूं। आप बता दें कि आपने क्या कर दिया है?

बुद्ध ने अपनी आंखें खोलीं और उन्होंने कहा : मैंने कुछ भी नहीं किया है। मैंने करना छोड़ दिया है। हो सकता है कि इसके कारण से, हो सकता है कि बस मेरे निकट होने से हो गया हो.. .तुम चिंता मत करो। तुम तेजी से मुझको छोड़ कर यहां से भाग जाओ।

उस व्यक्ति ने कहा : इससे पहले कि मैं यहां से चला जाऊं, एक बात मुझे पूछनी है, क्या आप भगवान हैं’? वह एक विद्वान ब्राह्मण था, उसने सुन रखा था, उसने अपनी प्रतिदिन की पूजा—अर्चना में प्रतिदिन वेदों का पाठ किया था। उसने कृष्‍ण और राम के बारे में सुन रखा था, लेकिन ये सभी मात्र कहानियां थीं। पहली बार कोई व्यक्ति उसको दिखाई पड़ा था—यथार्थ, असली, पार्थिव और फिर भी दिव्य : क्या आप भगवान हैं?

बुद्ध ने कहा : नहीं।

उस व्यक्ति ने कहा : क्या आप कोई संत, कोई अर्हत हैं ?—क्योंकि वह व्यक्ति कुछ—कुछ समझ गया। भारत में जैन लोग भगवान में विश्वास नहीं रखते, इसलिए जब कोई पूर्ण, परम सत्य को उपलब्ध कर लेता है, उसे अर्हत कहा जाता है; वह जो पहुंच गया है; संत, ऋषि। इसलिए पहले उसने पूछा, क्या आप भगवान हैं? उसने हिंदुओं की भाषावली में प्रश्न पूछा था और बुद्ध ने कहा, नहीं। तब उसने सोचा, हो सकता कि वे भारत की दूसरी परंपरा, श्रमणों की परंपरा से जो भगवान में विश्वास नहीं रखते संबंध रखते हों। उसने पूछा, क्या आप अर्हत, एक ऋषि, एक संत हैं? और बुद्ध ने कह दिया, नहीं। तब वह दिग्भ्रमित हो गया, क्योंकि केवल दो ही भाषाएं संभव थीं।

फिर उसने पूछा, तब आप कौन हैं?

बुद्ध ने कहा : मैं सजग हूं।

यह बात व्याकरण के अनुसार सही नहीं है, लेकिन सत्य है। उन्होंने कहा : मैं सजग हूं। उन्होंने बस उस क्षण में अपने अस्तित्व के गुणधर्म के बारे में बताया— ‘सजगता’, न भगवान, न संत। क्योंकि जब तुम कहते हो ‘ भगवान’ तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि कुछ रुका हुआ है। जब तुम कहते हो ‘संत’ ऐसा लगता है कि कुछ पूर्ण, स्थायी है, वस्तु बन गया है। बुद्ध ने कहा : मैं सजग हूं। या और अधिक उत्तम अनुवाद. उन्होंने कहा, मैं सजगता हूं—कोई तादात्म्य नहीं है, बस सजग रहने की एक गतिमान ऊर्जा है। सजगता में, ऐसी सजगता में कोई प्रेरणा नहीं होती; और यदि वहां कोई प्रेरणा हो तो वहा कोई सजगता नहीं है।

मैं तुमसे एक कहानी कहता हूं एक बहुत सुंदर कहानी। इसे जितना संभव हो सके उतनी गहराई से सुनो।

एक महिला और उसका छोटा सा बच्चा समुंद्र की लहरों पर अठखेलियां करू रहे थे, और पानी का बहाव काफी तेज था। उसने अपने पुत्र की बांह मजबूती से पकड़ रखी थी और वे प्रसन्नतापूर्वक जलक्रीड़ा में संलग्न थे, कि अचानक पानी की एक विशाल भयानक तरंग उनके सामने प्रकट हुई। उन्होंने भयाक्रांत होकर उसको देखा, ज्वार की यह लहर उनके ठीक सामने ही ऊपर और ऊपर उठती चली गई, और उनके ऊपर छा गई। जब पानी वापस लौट गया तो वह छोटा बच्चा कहीं दिखाई नहीं पड़ा। शोकाकुल मां ने मेल्विन, मेल्विन तुम कहां हो? मेल्विन! चिल्लाते हुए पानी में हर तरफ उसको खोजा। जब यह स्पष्ट हो गया कि बच्चा खो गया है, उसे पानी सागर में बहा ले गया है, तब पुत्र के वियोग में व्याकुल मां ने अपनी आंखें आकाश की ओर उठाई और प्रार्थना की, ‘ओह, प्रिय और दयालु परम पिता, कृपया मुझ पर रहम कीजिए और मेरे प्यारे .से बच्चे को वापस कर दीजिए। आपसे मैं आपके प्रति शाश्वत आभार का वादा करती हूं। मैं वादा करती हूं कि मैं अपने पति को पुन: कभी धोखा नहीं दूंगी; मैं अब अपने आयकर को जमा करने में दुबारा कभी धोखा नहीं करूंगी; मैं अपनी सास के प्रति दयालु रहूंगी; मैं सिगरेट पीना, और सारे व्यसन छोड़ दूंगी! सभी गलत शौक, बस केवल कृपा करके मेरा पक्ष लीजिए और मेरे पुत्र को लौटा दीजिए।’

बस तभी पानी की एक और दीवार प्रकट हुई और उसके सिर पर गिर पड़ी। जब पानी वापस लौट गया तो उसने अपने छोटे से बेटे को वहां पर खड़ा हुआ देखा। उसने उसको अपनी छाती से लगाया, उसको चूमा और अपने से चिपटा लिया। फिर उसने उसे एक क्षण को देखा और एक बार फिर अपनी निगाहें स्वर्ग की ओर उठा दीं। ऊपर की ओर देखते हुए उसने कहा, लेकिन उसने हैट लगा रखा था।

मन यही है, बच्चा वापस आ गया है, लेकिन हैट खो गया है। अब वह इसलिए प्रसन्न नहीं है कि

बेटा लौट आया है, बल्कि अप्रसन्न है कि हैट खो गया था—फिर शिकायत।

क्या तुमने कभी देखा है कि तुम्हारे मन के भीतर यही हो रहा है या नहीं? सदा ऐसा ही हो रहा है। जीवन तुमको जो कुछ भी देता है उसके लिए तुम धन्यवाद नहीं देते। तुम बार—बार हैट के बारे में शिकायत कर रहे हो। तुम लगातार उसी को देखते जाते हो जो नहीं हुआ है, उसको नहीं देखते जो हो चुका है। तुम सदैव देखते हो और इच्छा करते हो और अपेक्षा करते हो, लेकिन तुम कभी आभारी नहीं होते। तुम्हारे लिए लाखों बातें घटित हो रही हैं, लेकिन तुम कभी आभारी नहीं होते। तुम सदैव चिड़चिड़ाहट और शिकायत से भरे रहते हो, और सदा ही तुम हताशा की अवस्था में रहते हो। यदि तुम स्वर्ग भी पहुंच जाओ तो यह मन तुमको वहां नहीं रहने देगा। जहां कहीं भी तुम हो तुम वहीं पर नरक निर्मित कर लोगे। कामना इतनी अधिक है कि एक कामना पूरी होती है इससे दस कामनाएं और उठ खड़ी होती हैं, और इनका अंत कभी नहीं होता।

कामना करते हुए किसी ने शांति की अवस्था को, निष्काम अवस्था को कभी उपलब्ध नहीं किया है। कामना को समझ कर, प्रेरणा को समझ कर व्यक्ति धीरे— धीरे सजग हो जाता है। व्यक्ति यह जान लेता है कि यदि तुम प्रेरणा को त्याग देते हो तो जीवन में कोई हताशा नहीं होती। फिर कुछ भी तुमको अप्रसन्न नहीं कर सकता। फिर प्रसन्नता स्वाभाविक होती है; यह बस तुम्हारे होने की शैली बन जाती है। फिर जो कुछ भी होता है, तुम प्रसन्न रहते हो। अभी तो चाहे जो कुछ भी होता हो, तुम अप्रसन्न बने रहते हो।

बुद्ध के पास कोई प्रेरणा नहीं होती, इसलिए वे प्रसन्न हैं। वे इतने प्रसन्न हैं कि यदि तुम उनसे पूछो, क्या आप प्रसन्न हैं? वे अपने कंधे झटक देंगे—क्योंकि जाना कैसे जाए? प्रसन्नता को केवल अप्रसन्नता की पृष्ठभूमि में जाना जा सकता है। वे अप्रसन्नता के अनुभव तक को भूल चुके हैं, इसलिए यदि तुम उनसे पूछो, क्या आप प्रसन्न हैं? तो वे चुप भी रह सकते हैं। हो सकता है कि वे कुछ भी न कहें। क्योंकि जब अप्रसन्नता विदा हो गई तो इसके साथ अनुभूतियों का दोहरापन भी समाप्त हो गया। इसी कारण से बुद्ध ने नहीं कहा कि परम अवस्था आनंद की है। नहीं, उन्होंने कहा, यह शांति की अवस्था है, लेकिन आनंद की नहीं।

हिंदू और बौद्धों के मध्य, पतंजलि और बुद्ध के मध्य यह एक अंतर है। यह आधारभूत अंतरों में से एक है। और निःसंदेह दोनों सही हैं; यदि तुम परम. के बारे में जानते हो और जब तुम उसके बारे में कुछ कहते हो, तो बातें इसी भांति हो ही जाती हैं। इसलिए तुम जो कुछ भी कहते हो, यह भले ही कितना विरोधाभासी प्रतीत हो, यह सदैव सही होता है। पतंजलि कहते हैं कि यह आनंद की अवस्था है, क्योंकि सारी पीड़ा, पीड़ा की सारी संभावना मिट चुकी है। निःसंदेह वे सही हैं। बुद्ध कहते हैं, यह आनंद भी नहीं है, क्योंकि कौन यह जानेगा और तुम कैसे जान लोगे कि यह आनंदपूर्ण है? जब सारी पीड़ा खो चुकी है, वहां कोई विरोधी अनुभूति नहीं है, इसको जानने का कोई उपाय नहीं है कि आनंद है, यदि रात्रि पूर्णत: मिट ही गई है तब तुम कैसे जान लोगे कि यह दिन है? यह दिन होगा, किंतु तुम कैसे जानोगे कि यह दिन है? बुद्ध भी सही हैं; यह आनंद होगा, लेकिन इसको आनंद नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा कह कर तुम अप्रसन्नता को भीतर ले आते हो।

व्यक्ति तभी बुद्ध बनता है जब उसने प्रेरणा की संपूर्ण क्रियाविधि को समझ लिया है। प्रेरणा क्या है? —यह वर्तमान में अतृप्ति, वर्तमान में असहजता, और भविष्य में एक आशा है। प्रेरणा अभी और यहीं में अतृप्ति है, और कहीं भविष्य में परितृप्ति का स्वप्न है।

तुम एक छोटे से घर में रहते हो; इस छोटे से घर के साथ तुम अप्रसन्न हो, अभी और यहीं में अतृप्त हो, और तुम भविष्य में एक बड़े घर की आशा लगाते हो। भविष्य की जरूरत है, ठीक अभी बडा घर संभव नहीं है। इसको बनाने के. लिए—धन कमाने में, हजारों काम करने में, घर को पूरा करने में समय की आवश्यकता पड़ेगी, तब बड़ा घर संभव हो सकेगा। इसलिए ठीक अभी तुम अतृप्ति .में हो, लेकिन भविष्य में तुम्हारे पास परितृप्ति का एक स्वप्न है। तुम कठोर परिश्रम करते हो। तब कहीं जाकर एक दिन बड़ा घर संभव हो पाता है, लेकिन अचानक तुम देखते हो कि तुमको परितृप्ति जैसा कुछ भी नहीं घट रहा है। जिस क्षण बड़ा घर उपलब्ध हो जाता है तुम और बड़े घर के लिए सोचने लगते हो। तुम प्रेरणा के आदी हो चुके हो। अब तुम बिना प्रेरणा के नहीं जी सकते हो। पुन: बड़े बर में भी तुम अप्रसन्न हो। पुन: तुम आशा कर रहे हो किसी दिन किसी महल में, कहीं और मुझको खुशी मिल जाएगी—और इसी प्रकार से व्यक्ति आने सारे जीवन को व्यर्थ किए चला जाता है।

प्रेरणा —की क्रिया—व्यवस्था को समझो। यह तुमको भविष्य में एक स्वप्न देती है—और स्वप्न एक स्वप्न है—और यह वर्तमान से सारा आनंद ले लेती है। किसी अवास्तविक के लिए यह उसे नष्ट कर देती है जो वास्तविक है। एक बार तुम समझ जाओ, तुम प्रेरणा के माध्यम से जीना बंद कर देते हो। तब तुम बस बिना प्रेरणा के जीते हो।

प्रेरणा के बिना जीना क्या है, क्या है बिना प्रेरणा के जीना? —यहां और अभी में गहन परितृप्ति में जीना, और आने वाले कल की चिंता न करना।

जीसस कहते हैं, कान के बारे में मत सोचो। खेत में लगी लिली को देखो। राजा सोलोमन भी अपनी सारी श्रेष्ठता के साथ इतना सुंदर नहीं था। खेत में लिलियों को देखो; वे कल की चिंता में नहीं हैं। वे बस अभी और यहीं हैं। वे अभी और यहीं परमेश्वर के साथ हैं। उनका कोई भविष्य नहीं है; उनका कोई भूत नहीं है। उनके लिए यही क्षण सभी कुछ है।

वह मन जिसने प्रेरणा को त्याग दिया है, अब मन नहीं है। एक बार तुम प्रेरणा को छोड़ दो तुम शाश्वत यथार्थ के भाग बन जाते हो जो सदैव अभी, सदा यहीं है। और तब तुम परितृप्त हो। तुम्हारी इस परितृप्ति से और अधिक परितृप्ति का उदय होता है, परितृप्ति की बड़ी और बड़ी लहरें उठती हैं। तुम्हारी अतृप्ति से और—और अतृप्ति उत्पन्न होती है।

इसलिए देखो.. .इसी क्षण में तुम प्रेरणा के संसार में जा सकते हो, जिसमें तुम पहले से ही चल रहे हो—प्रतिस्पर्द्धा, बाजार, या तुम प्रेरणा के पार के संसार में जा सकते हो। हर कदम पर रास्ता दो भागों मे बंट जाता है। यदि तुम प्रेरणा को छोड़ देते हो, तुम इसी क्षण में प्रसन्न होने का निर्णय लेते हो और तुम कहते हो, ‘ भविष्य को अपनी चिंता स्वयं कर लेने दो। अब मैं यहीं और अभी होऊंगा, और यही पर्याप्त है, और मैं अधिक कुछ नहीं मांगता। मैं उसी का आनंद लूंगा जो मुझे पहले से ही दे दिया गया है। और तुमको पर्याप्त से अधिक पहले से ही दिया गया है।’

मैंने कभी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जिसका जीवन समृद्ध न हो, लेकिन एक धनी व्यक्ति को पा लेना बहुत कठिन है—सभी लोग भिखारी हैं। और मैं तुमसे कहता हूं कि किसी को भिखारी होने की आवश्यकता नहीं है। जीवन ने तुमको पहले से ही इतनी समृद्धियां दी हुई हैं कि यदि तुम यह जान जाओ कि उनका आनंद कैसे लिया जाए तो तुम और अधिक की मांग नहीं करोगे। तुम कहोगे कि मैं तो इतनी समृद्धियों का आनंद नहीं ले पा रहा हूं। पहले से ही यह बहुत अधिक है। मैं इसको सम्हाल नहीं सकता। मेरे हाथ बहुत छोटे हैं, मेरा हृदय बहुत छोटा है। मैं इनको नहीं सम्हाल सकता! आपने मुझको इतना अधिक नृत्य, और इतना अधिक गीत और इतना अधिक आनंद दे दिया है। मैं और अधिक नहीं मांग सकता। इसी को उपयोग करके समाप्त कर पाना संभव नहीं है।

यहीं और अभी में जीना धार्मिक होना है। यहीं और अभी में जीना मन के बिना जीना है। यहीं और अभी जीना बुद्ध हो जाना है। यही है जो उन्होंने कहा था—मैं सजग हूं। क्योंकि देवता भी प्रेरित हो जाते हैं वे भी स्त्रियों का पीछा कर रहे हैं—शायद श्रेष्ठ स्त्रियों का कुछ उच्च तल पर पीछा कर रहे हैं, लेकिन स्त्रियों का पीछा कर रहे हैं। वे एक—दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं।

इस बारे में हिंदू पुराणों मे वर्णित कथाएं आत्यंतिक रूप से सुंदर हैं। उन्होंने किसी बात का वर्णन करने में संकोच नहीं किया है। यदि तुम हिंदू पुराणों में लिखी हुई देवताओं की कहानियां सुनो तो तुम बहुत चकित हो जाओगे, वे करीब—करीब मानवीय हैं। वे वही सारी चीजें कर रहे हैं जो तुम कर रहे हो शायद कुछ बेहतर ढंग से या शायद किसी उच्चतर तल पर, लेकिन उनके कृत्य तुम्हारी तरह हैं। उनके प्रमुख, प्रधान देवता का नाम इंद्र है। वह देवताओं का राजा है। और जैसे कि राजा लोग हमेशा होते है—वह सदा भयभीत रहता है—और उसका सिंहासन हमेशा डोलता रहता है, क्योंकि कोई न सदैव उसकी टांग खींच रहा होता है। तुम दिल्ली जा सकते हो और लोगों से पूछ सकते हो। जब भी तुम किसी सिंहासन पर बैठते .हो, कोई तुमको नीचे खींच रहा होता है, वास्तव में तो अनेक लोग तुम्हारी टांगें खींच रहे होते हैं, क्योंकि वे भी उस सिंहासन पर आसीन होना चाहते हैं। इंद्र लगातार कांपता रहता है। मैं सोचता हूं कि अब तक तो यह कापना उसकी आदत बन चुकी होगी। भले ही कोई उसकी टांगें खींच रहा हो या नहीं, उसको कांपते रहना चाहिए। शताब्दियों से वह कांपता रहा है। कहानियां कहती हैं कि पृथ्वी पर कोई तपस्वी, कोई संत जब कभी भी अस्तित्व के उच्चतर तलों को उपलब्ध करना आरंभ कर देता है, उसको भय लगने लगता है। उसका सिंहासन डोलने लगता है कोई उसके साथ प्रतिस्पर्धा करने का प्रयास कर रहा है। कोई देवताओं का राजा बनने का प्रयास कर रहा है। तुरंत ही वह, बेचारे उस तपस्वी की तपस्या को नष्ट करने के लिए सुंदर अप्सराएं भेज देता है। वे उसके चारों ओर सुंदर कामुक नृत्य करती हैं, वे उस बेचारे तपस्वी को उसके मार्ग से भटका देती हैं। और तब इंद्र चैन की नींद सोता है : अब एक प्रतिद्वंदी नष्ट कर दिया गया है।

हिंदुओं के स्वर्ग में रास्ते हीरों से जड़े हुए हैं, और वृक्ष सोने के हैं, और पुष्प चांदी, रत्नों और जवाहरातों से बने हुए हैं—लेकिन संसार वैसा ही है। वहां स्त्रियां बहुत संदुर हैं—लेकिन वही संसार, वही वासना, वही इच्छा। हिंदू कहते हैं, जब उनके सत्कर्म समाप्त हो जाते हैं तब देवताओं तक को पृथ्वी पर पुन: जन्म लेना पड़ता है, जब वे अपने सत्कर्मों का, अपने पुण्यों का उपभोग कर चुके होते हैं तो उनको पृथ्वी पर आना पड़ता है।

यह शब्द ‘पुण्य’ बहुत अच्छा है।’पूना’ नगर का नाम पुण्य से आता है। इसका अर्थ है : सत्कर्मों का नगर। वे देवता उतने ही संसारी हैं जितना यह संसार। एक बार उनका पुण्य, उनका सत्कर्म समाप्त हो जाए तब उनको वापस लौटना पड़ता है। एक बार उन्होंने मजा ले लिया फिर उनको पुन: घिसटने के लिए पृथ्वी पर वापस लौटना पड़ता है।

बुद्ध कहते हैं, ‘नहीं, मैं देवता नहीं हूं क्योंकि मुझमें प्रेरणा नहीं है।’ ‘क्या आप कोई संत, अर्हत हैं?’ बुद्ध कहते हैं, ‘नहीं, क्योंकि संत में भी मोक्ष उपलब्ध करने की एक विशेष प्रेरणा होती है’ —कि मोक्ष किस भांति पाया जाए, संसार से परे कैसे जाया जाए, इच्छा—शून्य किस भांति हुआ जाए। लेकिन फिर भी इच्छा तो है वहां पर। अब इच्छा—शून्य हो जाने की इच्छा है। प्रेरणारहित होने की प्रेरणा हो सकती है : प्रेरणारहित अवस्था किस प्रकार से उपलब्ध हो—यही प्रेरणा बन सकती है। लेकिन यह सभी कुछ वही है : तुम पुन: उसी जाल में फंस गए हो।

बुद्ध कहते हैं, ‘नहीं, मैं सजग हूं।’ सजगता में प्रेरणा नहीं उठती। इसलिए जब भी प्रेरणा उठती है इच्छा उठ खड़ी होती है। करो कुछ मत। सजग हो जाओ और तुम देखोगे कि इच्छा वापस लौट रही है, मिट रही है, यह तिरोहित हो जाती है। जब सजगता का सूर्य उदित होता है इच्छाएं सुबह की ओस की बूंदों की भांति वाष्पित हो जाती हैं।

तीसरा प्रश्न :

क्‍योंकि संबुद्ध व्‍यक्‍तियों के बच्‍चे नहीं होते है, और हम विक्षिप्‍त व्‍यक्‍तियों को आपके द्वारा संतान उत्‍पन्न करने के लिए अयोग्‍य घोषित कर दिया गया है। अत: बच्‍चे करने का उचित समय कौन सा है?

संबुद्ध व्यक्तियों के बच्चे नहीं होते; विक्षिप्त व्यक्तियों के बच्चे नहीं होने चाहिए। ठीक उन दोनों के मध्य में मानसिक स्वास्थ्य की, अविक्षिप्तता की एक अवस्था होती है, जिसमें तुम न तो विक्षिप्त हो और न ही संबुद्ध, बस स्वस्थ हो। ठीक मध्य में हों—संतान उत्पन्न करने का माता बनने का या पिता बनने का यही उचित समय है।

कठिनाई यही है, विक्षिप्त व्यक्तियों में अनेक बच्चे पैदा करने की प्रवृत्ति होती है। वस्तुत: पश्चिम में विक्षिप्तता अधिक है। लोगों के बहुत अधिक बच्चे नहीं होते हैं। विक्षिप्तता के इतना प्रभावी होने के कारणों में से यह एक कारण हो सकता है : बच्चों के साथ वह पुरानी संलग्नता अब न रही। पूर्व में लोग इतने विक्षिप्त नहीं हैं। वे विक्षिप्तता को सहन नहीं कर सकते, बच्चे पर्याप्त संख्या में हैं। एक संयुक्त परिवार में बहुत अधिक बच्चे होते हैं.। तुम्हारे पास पागल हो पाने के लिए समय ही नहीं रहता—असंभव है। वे तुमको पागल होने ही न देंगे। तुम इतनी पगलाई अवस्था में रहते हो और इससे इतने लयबद्ध हो जाते हो कि तुम जान ही नहीं सकते कि तुम पागल हो। पश्चिम में संयुक्त परिवार मिट चुका है। बच्चे भी जिस ढंग से वे पूर्व में होते हैं, उस भांति नहीं होते। वहां अधिक से अधिक एक या दो बच्चे होते हैं। बहुत अंतराल बच जाता है। पुराना सारा उलझाव अब वहां नहीं रहा। लोग और—और समृद्ध, धनी होते जा रहे हैं, वहां कम से कम कार्य रह गया है और अधिक से अधिक विश्राम उपलब्ध हो रहा है, और वे नहीं जानते कि इस विश्राम के साथ क्या किया जाए। वे विक्षिप्त हो जाते हैं। जरा अपने बारे में सोचो, यदि तुम्हारे पास करने को कुछ न हो, न ही बच्चे हों जिनके लिए तुमको कुछ करना हो, तो क्या होगा?

एक बार मैंने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा, क्या तुम अभी तक उसी कंपनी के लिए काम कर रहे हो? उसने कहा : हां, वही कंपनी है. पत्नी और तेरह बच्चे!

तुम्हारे पास पालने के लिए एक परिवार है, सुबह से सांझ तक सारा जीवन कठोर परिश्रम करना है, तुम सांझ थके—हारे घर आते हो और सो जाते हो, और सुबह फिर तुमको इसी धंधे में लग जाना है, तो तुमको विक्षिप्त होने का मौका कहां मिलेगा? तुमको मनोचिकित्सक के पास जाने का समय कब मिलेगा? पूरब में तो मनोचिकित्सक होते ही नहीं हैं। यहां पर बच्चे ही एकमात्र मनोचिकित्सक हैं।

विक्षिप्त लोगों में अपनी विक्षिप्तता के कारण अपने चारों ओर व्यवस्ता में उलझने का माहौल पैदा करने की मनोवृत्ति होती है। ऐसा होना तो नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा करके वे विक्षिप्तता का सामना करने से बच जाते हैं। उनको विक्षिप्तता के तथ्य का सामना करना चाहिए और उनको इसके पार जाना चाहिए। संबुद्ध व्यक्ति को बच्चों की कोई आवश्यकता नहीं होती है। उसने अपने आपको परम जन्म दे दिया है। अब: किसी और को जन्म देने की आवश्यकता नहीं रही। वह स्वयं अपने आप के लिए माता और पिता बन गया है। अपने स्वयं के लिए गर्भ बन चुका है वह, और उसका पुनर्जन्म हुआ है।

लेकिन इन दोनों के मध्य में, जब विक्षिप्तता वहां नहीं होती, तुम ध्यान करते हो, तुम थोड़े से सजग, बोधपूर्ण हो जाते हो। तुम्हारा जीवन बस अंधकार का नहीं रहता। यह प्रकाश उतना तीव्र नहीं है जैसा कि यह उस समय होता है जब कोई बुद्ध बन जाता है, लेकिन फिर भी मोमबत्ती की एक धीमी रोशनी उपलब्ध हो रही है। यही समय ठीक है—संक्रमण काल का समय, जब तुम बस सीमा—रेखा पर हो, संसार से बाहर निकल रहे हो, दूसरे संसार में जा रहे हो, बच्चे पैदा करने का यही उचित समय है, क्योंकि तब तुम अपनी सजगता का कुछ अंश अपने बच्चों को दे पाने में समर्थ हो जाओगे। अन्यथा उनको तुम भेंट के रूप में क्या दोगे? तुम उनको अपनी विक्षिप्तता दे दोगे।

मैंने सुना है, अठारह बच्चों को लेकर एक व्यक्ति पशु—प्रदर्शनी देखना गया। इस प्रदर्शनी में एक विशिष्ट बैल था, जिसकी कीमत आठ हजार रुपये थी। और उसको केवल देखने का Sउइाल्क पांच रुपये था। इस व्यक्ति ने सोचा कि इस प्रकार तो उसको बहुत खर्च करना पडेगा। लेकिन उसके बच्चे उस बैल को देखना ही चाहते थे। अंततः वे कठघरे के प्रवेश—द्वार पर पहुंचे। वहां के सहायक ने पूछा : महोदय, क्या ये सभी बच्चे आपके हैं?

हां, ये सभी मेरे बच्चे हैं, उस व्यक्ति ने उत्तर दिया क्यों?

सहायक ने उत्तर दिया ठीक है, एक मिनट आप यहीं रुके, मै बैल को बाहर ले आऊंगा ताकि वह आपको देख ले!

अठारह बच्चे। — बैल तक को ईर्ष्या हो जाएगी।

तुम अचेतन अवस्था में अपनी प्रतिकृतियों को जन्म दिए चले जाते हो। पहले विचार करो. क्या तुम इस अवस्था में हो कि यदि तुम किसी बच्चे को जन्म देते हो, तो क्या तुम संसार को कोई भेंट दे रहे होगे? क्या तुम संसार के लिए एक आशीष हो या एक अभिशाप हो? और अब विचार करो क्या तुम एक बच्चे की माता या उसके पिता बनने के लिए तैयार हो? क्या तुम बिना शर्त प्रेम देने के लिए तैयार हो! क्योंकि बच्चे तुम्हारे माध्यम से आते हैं लेकिन वे तुम्हारे नहीं हैं। उनको तुम अपना प्रेम दे सकते हो लेकिन तुमको उन पर अपने विचार नहीं थोपना चाहिए। तुमको अपने विक्षिप्त रंग—ढंग उन्हें नहीं देना चाहिए। क्या तुम अपने बच्चों को अपने विक्षिप्त रंग—ढंग नहीं देने के लिए तैयार हो? क्या तुम उनको उनके स्वयं के ढंग से खिलने दोगे? क्या उनको, उन जैसा हो पाने की, स्वतंत्रता दे दोगे? यदि तुम तैयार हो तो ठीक है यह, वरना प्रतीक्षा करो; तैयार हो जाओ।

मनुष्य के साथ संसार में सचेतन विकास प्रविष्ट हो चुका है। पशुओं की भांति मत बने रहो कि बस बेहोशी में प्रजनन चल रहा है। अब तैयार हो जाओ। इसके पूर्व कि तुम बच्चा पैदा करना चाहो, थोड़े और ध्यानपूर्ण हो जाओ, थोडे और मौन और शांत हो जाओ। वह सारी विक्षिप्तता जो तुम अपने भीतर लिए हुए हो उससे छुटकारा पा लो। उस क्षण के लिए प्रतीक्षा करो जब तुम पूरी तरह से स्वच्छ हो, तभी बच्चे को जन्म दो। तब अपना जीवन बच्चे को दो, अपना प्रेम बच्चे को दो। तुम एके बेहतर संसार निर्मित करने में सहायता कर रहे होगे। वरना तुम बस संसार में भीड़ बढ़ा रहे होगे। यह भीड़ पहले ‘से ही पगला देने वाली बन चुकी है। इस भीड़ को बढ़ाने की अब कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम संसार को मनुष्य दे सको, कीड़े—मकोड़े नहीं जो सारी पृथ्वी पर रेंग रहे हैं और भीड़ बढ़ा रहे हैं, तो पहले तैयार हो जाओ।

मेरे लिए मां बनना एक महत अनुशासन है; पिता बनना एक महान तपश्चर्या है। वरना तुम ठीक अपने जैसा कोई या उससे भी बुरा अपने स्थान पर छोड़ जाओगे। तुम्हारी ओर से वह कोई अच्छा कृत्य नहीं होगा। संबुद्ध व्यक्तियों को किसी को जन्म देने की आवश्यकता नहीं है; विक्षिप्त लोगों को बच्चे नहीं करना चाहिए। ठीक इन दोनों के मध्य में वे लोग हैं जो बच्चे पैदा करने के उचित पात्र हैं।

अंतिम प्रश्न:

आप कहते है, अपने सारे मुखौटे हटा दो और प्रमाणिक हो जाओ। मैं केवल सेक्‍स, प्रेम और रोमांस के बारे में सोचती हूं, इनके अतिरिक्‍त और जानती नहीं हूं, क्‍या में गलत रास्‍ते पर हूं?

मुझे सेक्स में, कुछ में, रोमांस में कुछ भी गलत नहीं दिखाई पड़ता। तुम ठीक रास्ते पर हो। प्रेम उचित पथ है, और केवल प्रेम के जीवन को जीने के माध्यम से ही प्रार्थना उठती है—और किसी भांति नहीं। प्रेम के गहरे, मीठे और कड़वे, प्रसन्नतादायी और पीड़ादायक, ऊंचे और नीचे, स्वर्ग और नरक, अनुभवों के माध्यम से ही, केवल प्रेम के माध्यम से मिली पीड़ा और प्रसन्नता के गहन अनुभवों द्वारा ही व्यक्ति सजग हो पाता है। तुमको सजग बनाने के लिए उनकी आवश्यकता होती है।

पीड़ा की उतनी ही आवश्यकता है जितनी प्रसन्नता की है, क्योंकि दोनों कार्य करती हैं। और धीरे— धीरे प्रसन्नता और पीड़ा के मध्य में तुम रस्सी पर चलने वाले नट बन जाते हो। तुम संतुलन उपलब्ध कर लेते हो।

लेकिन सदियों से प्रेम की निंदा की गई है, काम की निंदा की गई है। इसलिए, निःसंदेह तुम्हारे मन में यह खयाल उठता है कि तुमको गलत रास्ते पर होना चाहिए। तुम बस प्राकृतिक हो। प्राकृतिक होना गलत रास्ते पर होना नहीं है। यदि तुम इस ढंग से विचार करती हो तो तुम निंदात्मक वृत्ति वाली हो जाती हो, और तब तुम गलत रास्ते पर होगी। तब तुम दमन करोगी, और तुम जो कुछ भी दमन करोगी वह तुम्हारे अचेतन में, तुम्हारे तलघर में छिप कर बैठा रहेगा, और फिर उस दमन से बहुत सी कुरूपता उठ खड़ी होती है।

मैं तुम्हें कुछ कहानियां सुनाता हूं।

एक बहुत धनी और विख्यात व्यक्ति लार्ड डयूसबरी के बारे में ऐसा कहा गया है : उस समय वह नब्बे वर्ष का था, और वह पार्क लेन के अपने आवास के भूतल पर खाड़ी की ओर खुलने वाली खिड़की के सामने बैठा हुआ, रविवार की प्रातःकाल भ्रमण करने वालों को देख रहा था। अचानक उसने एक आकर्षक, युवा, गौरवर्ण लड़की को पार्क में बच्चा—गाड़ी धकेलते हुए देखा। जल्दी करो जेम्स, वह बोला, मेरे दांत ले लाओ; मैं सीटी मारना चाहता हूं।

नब्बे साल की आयु! लेकिन होता है यह।

यह प्रश्न कृष्णप्रिया ने पूछा है।

याद रखो, यदि तुमने सीटी अभी नहीं बजाई तो किसी दिन जब तुम्हारे दांत भी गिर चुके होंगे और तुम किसी युवक को टहलते हुए देखोगी और चिल्लाओगी : जल्दी करो मेरे दांत ले आओ! कुरूप होगा यह। अभी इसी समय दांत ठीक—ठाक हैं, तुम सीटी बजा सकती हो। प्रत्येक कार्य को उसके समय पर ही किया जाना चाहिए। अन्यथा चीजें कुरूप हो जाती हैं।

एक बच्चा तितलियों के पीछे दौड़ रहा है, यह ठीक है, लेकिन चालीस वर्ष का कोई व्यक्ति यदि तितलियों के पीछे दौड़ रहा हो तो वह पागल प्रतीत होगा, युवा व्यक्तियों को थोड़ा सा मूर्ख होना अनिवार्य है। उसकी व्यक्ति अपेक्षा रखता है और उसे स्वीकार भी करता है। कुछ भी गलत नहीं है इसमें। इसको जीवन का आधार तथ्य होना चाहिए : किन्हीं समयों पर मूर्ख हो जाना, क्योंकि बुद्धिमत्ता अनेक मूर्खताओं के अनुभव से आया करती है। तुम अचानक बुद्धिमान नहीं हो जाते हो। तुमको चलना पडेगा, और भटकना पड़ेगा, और अनेक मूर्खतापूर्ण कार्य करने पड़ेंगे। और इन सभी मूर्खतापूर्ण या दूसरे ढंग के कृत्यों के द्वारा बुद्धिमत्ता का उदय होता है।

बुद्धिमत्ता एक सुगंध की भांति है, और मूर्खताओं के अनुभव खाद की तरह कार्य करते हैं। उनसे दुर्गंध उठती है, लेकिन उनसे सुंदर पुष्प आते हैं। इसलिए जीवन की खाद की उपेक्षा मत करो, वरना तुम बुद्धिमत्ता के पुष्पों से चूक जाओगे। और तुम एक इच्छा का एक ओर से दमन कर सकती हो, लेकिन तब यह दूसरी ओर से उठने लगती है। तुम जीवन को धोखा नहीं दे सकते।

मम्मी, उस छोटे विचित्र बच्चे ने कहा : स्कूल में बच्चे कहते रहते हैं कि मेरा सिर बहुत बडा है। तुम्हारा सिर तो कोई खास बड़ा नहीं है, मां ने कहा। उन शैतान बच्चों के बारे में बस भूल जाओ और मेरे साथ बाजार चलो। मुझको दस पाउंड आलू पांच पाउंड शलजम और दो गोभियां खरीदना है।

ठीक है, मम्मी। सब्जी रखने वाला थैला कहां है?

ओह, उसकी चिंता मत करो। बस अपनी टोपी का उपयोग कर लेना।

इसलिए इस रास्ते से या उस रास्ते से.. .एक बार और सोचो दस पाउंड आलू पांच पाउंड शलजम और दो गोभियां—और बस अपनी टोपी प्रयोग कर लेना। तुम एक ओर से दमन कर सकती हो, यह दूसरी ओर से उभर कर आ जाता है। कभी किसी चीज का दमन मत करो। यदि काम वहा है तो इसके पहले कि बहुत देर हो जाए इसे स्वीकार करो। इसको ही कहो, इसमें उतर जाओ, इसे स्वीकार कर लो। यह परमात्मा की दी हुई चीज है। इसमें कोई गहरा कारण होना चाहिए। इसमें गहरा कारण है। कभी किसी ऐसे उत्तरदायित्व से बच कर मत भागो जो परमात्मा ने तुमको दिया हुआ है, वरना तुम विकसित न हो पाओगी। और अब इस शताब्दी में, इस बीसवीं शताब्दी में ऐसे प्रश्न पूछना बस निरी मूर्खता है।

यह छह वर्षीय बालक पहली बार चिड़िया घर देखने गया था, और जैसा कि होता है ढेर सारे हैरान करने वाले ‘सवाल पूछे जा रहा था। पिताजी, हाथी के बच्चे कहां से आते हैं, उसने पूछा। फिर उसने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, और यदि अब आपने अपनी पुरानी जल—पक्षी वाली कहानी सुनाई तो मैं वास्तव में मान जाऊंगा कि आप निरे पागल हैं।

वे मूर्खतापूर्ण दिन विदा हो चुके हैं जब लोग जीवन—निषेधक विचारधाराओं, जीवन की निंदाओं के रूप में सोचा करते थे। फ्रायड के बाद मनुष्य ने काम— भावना को अधिक स्वाभाविक ढंग से स्वीकार कर लिया है। इस संसार में एक बड़ी क्रांति घटित हो चुकी है।

अब निंदात्मक रूप में विचार करना समकालीन होना नहीं है। अब कृष्‍णप्रिया का प्रश्न ठीक था, यदि उसने इसे पांच सौ वर्ष पहले पूछा होता, लेकिन अब? असंगत है यह। और वह भी मेरे आश्रम में?

आज इतना ही।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–19)

February 27, 2015, 6:37 am

फलाकांक्षामुक्त कर्म के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

दिनांक 4 अक्‍टूबर, 1970;

सांध्‍या, मनाली (कुलू)

“साधना-जगत में यज्ञों और “रिचुअल्स’ का बहुत उल्लेख है। यज्ञ की बहुत विधियां भी हैं। होमात्मक यज्ञ की बात आती है। लेकिन गीता में जपयज्ञ और ज्ञानयज्ञ को विशेष स्थान दिया गया है। साथ ही आपने जप पर बात करते हुए अजपा जप के बारे में कहा था। तो गीता के जपयज्ञ, ज्ञानयज्ञ और अजपा जप पर भी प्रकाश डालने की कृपा करें।’

 जीवन में “रिचुअल’ की, क्रियाकांड की अपनी जगह है। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह नब्बे प्रतिशत “रिचुअल’ और क्रियाकांड से ज्यादा नहीं है। जीवन को जीने के लिए, जीवन से गुजरने के लिए बहुत कुछ जो अनावश्यक है आवश्यक मालूम होता है। आदमी का मन ऐसा है।

मनुष्यजाति के पूरे इतिहास में हजारों तरह के “रिचुअल’, हजारों तरह के क्रियात्मक खेल विकसित हुए हैं। ये सारे-के-सारे खेल अगर गंभीरता से ले लिए जाएं, तो बीमारी बन जाते हैं। अगर ये सारे खेल की तरह लिए जाएं, तो उत्सव बन जाते हैं। जैसे, जब पहली बार अग्नि का आविष्कार हुआ–और सबसे बड़े आविष्कारों में अग्नि का आविष्कार है। आज हमें पता नहीं किस आदमी ने सबसे पहले अग्नि पैदा की है, लेकिन जिसने भी पैदा की होगी, उससे बड़ी क्रांति अभी तक नहीं हो सकती है। बहुत कुछ आदमी ने फिर खोजा है। और फिर न्यूटन है, और गेलेलियो है और कोपरनिकस है और केपलर है और आइंस्टीन है और मेक्सब्लांट और हजारों खोजी हैं, लेकिन अब तक भी, हमारी अणु की खोज भी, हमारा चांद पर पहुंच जाना भी उतना बड़ा आविष्कार नहीं है जितना बड़ा आविष्कार उस दिन हुआ था जिस दिन पहले आदमी ने अग्नि पैदा कर ली थी।

आज हमें बहुत कठिनाई होगी यह सोचकर, क्योंकि अग्नि आज बिलकुल सहज बात है। माचिस में बंद है। लेकिन सदा ऐसा नहीं था। फिर हमारा जो भी विकास हुआ है मनुष्य का, जैसा मनुष्य आज है, उसमें नब्बे प्रतिशत अग्नि का हाथ है। फिर हमारे जो भी आविष्कार हुए हैं, वे सब बिना अग्नि के हो नहीं सकते। उन सब की बुनियाद में वह अग्नि का आविष्कर्ता खड़ा है।

स्वभावतः जब पहली बार अग्नि किसी ने खोजी होगी, तो हमने अग्नि का भी स्वागत किया था उसके चारों ओर नाचकर। यह जिंदगी की बिलकुल सहज घटना थी। अग्नि को और किसी तरह धन्यवाद दिया भी नहीं जा सकता था। और अग्नि ने एक केंद्रीय अर्थ मनुष्य की जिंदगी में उस दिन बना लिया था। मनुष्य के सारे पुराने धर्म, किसी-न-किसी रूप में अग्नि या सूरज के आसपास विकसित हुए हैं। रात थी अंधकारपूर्ण, खतरनाक, पशुओं का डर था। दिन था उजाले से भरा, निर्भय; हमला कोई कर सके, इसके पहले पता चल जाता था। तो सूर्य बड़ा मित्र मालूम हुआ। अंधकार बड़ा शत्रु बन गया। अंधकार में खतरे थे, भय था, उपद्रव था। सूर्य के साथ सब खतरे तिरोहित हो जाते थे, सब भय मिट जाते थे। तो सूर्य परमात्मा की तरह खयाल में आया था। और जब अग्नि का आविष्कार कर लिया, तो स्वभावतः, रात के अंधकार पर भी हमारी विजय हो गई थी। सूर्य से भी ज्यादा अग्नि प्रीतिकर हो गई थी। इस अग्नि के आसपास नाच का, गान का, नृत्य का, प्रेम का, उत्सव का विकसित हो जाना बिलकुल स्वाभाविक था। वह विकसित हुआ।

कभी आपने खयाल किया कि जब यूरी गागरिन पहली बार अंतरिक्ष की यात्रा करके लौटा तो सारी पृथ्वी उत्सव से भर गई थी। और यूरी गागरिन एक दिन में विश्वविख्यात व्यक्ति हो गया था। ठेठ दूर-देहात के गांवों में भी उसका नाम पहुंच गया था। लाखों लोगों ने अपने बच्चों का नाम यूरी गागरिन के ऊपर रखा–सारी दुनिया में, बिना जाति-पांति-धर्म की फिक्र किए। यूरी गागरिन की हैसियत पाने के लिए किसी आदमी को सत्तर-अस्सी साल मेहनत करनी पड़ती है, तब सारी दुनिया उसे जान पाती है। इस आदमी ने कुछ और नहीं किया, यह सिर्फ पृथ्वी की जो “आर्बिट’ है, उसको पार कर गया। लेकिन बड़ी घटना थी। यूरी गागरिन जहां गया, वहीं लोग दीवाने हो गए उसके दर्शन करने को। बड़े नगरों में लोग मरे, “एक्सीडेंट’ से, जहां यूरी गागरिन गया।

मनुष्य का मन उस सबके प्रति उत्सव से भर जाता है जो नया है, जिससे नए का आगमन होता है। नए बच्चे के जन्म पर ही हम बैंडबाजा नहीं बजाते और उत्सव से भर जाते, जब भी इस जगत में नया कुछ पैदा होता है, तो हमारा चित्त उत्सव से उसका स्वागत करता है और उचित है कि ऐसा हो। क्योंकि जिस दिन आदमी नए के स्वागत में भी उत्सवपूर्ण नहीं रहेगा, उस दिन समझना चाहिए कि आदमी के भीतर कुछ महत्वपूर्ण मर गया है।

यह मैंने इसलिए कहा कि हम यज्ञ को समझ सकें। यह उन लोगों का आविष्कार था, जिनकी जिंदगी में अग्नि पहली बार आयी थी और इस अग्नि के लिए वे उत्सव मना रहे थे। वे इसके चारों ओर नाच रहे थे। और जो कुछ श्रेष्ठ उनके पास था, उन्होंने अग्नि को दिया। क्या दे सकते थे? उनके पास गेहूं था, उन्होंने गेहूं दिया। उनके पास सोमरस था–उस दिन की सुरा थी–वह उन्होंने दी; उनके पास जो श्रेष्ठतम गाय होती, वह उन्होंने अग्नि को दी; उनके पास जो भी था, वह उन्होंने अग्नि को भेंट किया। एक देवता अवतरित हुआ था, जिसने जिंदगी को सब बदल दिया था। उसके उत्सव में उन्होंने सब यह किया। यह बहुत सहज था। लेकिन, यह बहुत “सोफिस्टिकेटेड’ नहीं था। यह बिलकुल ग्रामीण-चित्त से उठी हुई बात थी, और ग्राम ही थे जगत में, ग्रामीण-चित्त ही था।

गीता के समय तक ऐसा यज्ञ बेमानी हो गया था। क्योंकि गीता के समय तक अग्नि घर-घर की चीज हो गई थी। उसके आसपास नाचना व्यर्थ मालूम होने लगा था। उसमें गेहूं फेंकना, मंत्र पढ़ना सार्थक नहीं रह गया था। और हजारों लोग इसका विरोध कर चुके थे इस बीच की प्रक्रिया में। क्योंकि उनको कुछ भी पता नहीं था कि अग्नि का पहला आगमन जिनकी जिंदगी में हुआ था, वे उसे भगवान की तरह ही स्वीकार कर सकते थे। उनके लिए उतना बड़ा वरदान था। इसलिए गीता ने फिर शब्दों पर नई कलमें लगाईं और कृष्ण ने नए शब्द ईजाद किए, ज्ञानयज्ञ। यज्ञ था शब्द पुराना, ज्ञान से उसे जोड़ा। जैसे अभी विनोबा ने नई कलम लगाई, भूदान-यज्ञ। यज्ञ था शब्द पुराना, भूदान से उसे जोड़ा।

कृष्ण के समय तक जीवन काफी “सोफिस्टिकेटेड’, काफी विकसित हुआ था। और जब अग्नि के आसपास नाचना अपने-आप में अर्थपूर्ण न था। अब तो ज्ञान की अग्नि जलाने की बात कृष्ण ने उठाई। लेकिन स्वभावतः पुराने शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। अब अगर नाचना ही था तो ज्ञान की ज्योति के आसपास नाचना था। और अब कुछ भेंट भी करना था तो गेहूं के दानों से क्या भेंट होगी, अब अपने को ही दान कर देना था। ज्ञानयज्ञ का अर्थ है, ज्ञान की अग्नि में स्वयं को जो समर्पित कर देता है। ज्ञानयज्ञ का अर्थ है, कि अब साधारण अग्नि से नहीं, ज्ञान की अग्नि से, जिसमें व्यक्ति जलता है और समाप्त हो जाता है। यह अग्नि का प्रतीक लेकिन जारी रहा।

इसके जारी रहने के पीछे बहुत गहरे कारण थे।

सबसे बड़ा गहरा कारण जो था वह यह था कि अतीत के मनुष्य की जिंदगी में सदा ऊपर की तरफ जाने वाली चीज सिवाय अग्नि के और कोई भी न थी। पानी नीचे की तरफ जाता है। उसे कहीं से भी डालो, वह नीचे की जगह खोज लेता है। अग्नि के साथ कुछ भी उपाय करो, उसकी लपटें सदा ऊपर की तरफ भागती हैं। पुराने मनुष्य के समक्ष अग्नि भर एक ऐसी चीज थी जो सदा ऊपर की तरफ भागती है; ऊपर की तरफ भागना, ऊर्ध्वगमन ही जिसका स्वभाव है; जिसे हम नीचे की तरफ बहा ही नहीं सकते। अगर हम उलटी भी कर दें जलती हुई लकड़ी को, तो लकड़ी ही उलटी होती है, अग्नि ऊपर की तरफ ही भागती रहती है। ऊर्ध्वगमन का प्रतीक बन गई अग्नि। उसकी लपटें आकाश की यात्रा की, अज्ञात की यात्रा की सूचक हो गईं। जमीन के “ग्रेविटेशन’, को तोड़ने वाली वह पहली चीज मालूम पड़ी। पृथ्वी की जो कोशिश है, उसको तोड़ देती है, उसको उससे कोई फिक्र नहीं है। अग्नि पर उसका कोई प्रभाव नहीं है। एक कारण तो यह था कि ऊर्ध्वगमन का प्रतीक अग्नि बन गई, इसलिए जिन्होंने अग्नि की लपटों के आसपास नृत्य किया था, नाचे थे, गीत गाए थे, खुशी प्रगट की थी, उन्होंने एक प्रतीक के अर्थ में भी वह खुशी प्रगट की थी कि किस दिन वह दिन होगा जिस दिन हम भी अग्नि की लपटों की तरह ऊपर की यात्रा करेंगे।

अभी आदमी का मन जैसा है वह सदा नीचे की तरफ यात्रा करता है, पानी की तरह है। आदमी का मन जैसा है, वह सदा नीचे की तरफ यात्रा करता है, उसके नियम पानी के नियम हैं, वह नीचे गङ्ढे खोजता है। उसे पर्वत-शिखर पर भी ले जाकर छोड़ दो तो बहुत जल्दी खाई में नीचे आकर झील में विश्राम करने लगता है। उसे कितनी ही ऊंचाई पर ले जाओ, वह तत्काल नीचे की तरफ जाने को आतुर है। जैसा मनुष्य का मन अभी है, वह नीचे जाने की आतुरता है। अग्नि के आसपास नाचने वाले ऋषियों ने घोषणा की कि हम ऊपर की तरफ की यात्रा के सूत्र को नमस्कार करते हैं। और हम अपने भीतर के प्राणों को अग्नि जैसा बनाना चाहते हैं कि वे ऊपर की तरफ भागें। हम उन्हें नीचे खाई में भी छोड़ दें, खंदक में भी छोड़ दें, घाटी में भी छोड़ दें, तो भी वे शिखर पर चले जाएं। यह बड़ा “सिंबालिक’, बड़ा प्रतीकात्मक था।

दूसरी बात अग्नि में और बड़ी खूबी की थी और वह और भी गहरी थी, और वह थी कि अग्नि पहले तो ईंधन को जलाती और फिर खुद ही जल जाती। पहले ईंधन राख होता है, फिर अग्नि खुद राख हो जाती है। ज्ञान के लिए यह प्रतीक बड़ा गहरा बन गया। ज्ञान पहले तो अज्ञान को जलाता है। पहले तो ज्ञान अज्ञान को मिटाता है और फिर ज्ञान ज्ञान को भी मिटा देता है। इसलिए उपनिषद कहते हैं, अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। निश्चित ही यह व्यंग्य में कही गई बात है उन ज्ञानियों के लिए जिनके पास उधार ज्ञान है। क्योंकि जिनके पास अपना ज्ञान है वे तो बचते ही नहीं, उनके भटकने का तो उपाय नहीं है। ज्ञान पहले तो अज्ञान को जलाता है; फिर ज्ञान को भी जला देता है, ज्ञानी को भी जला देता है, पीछे कुछ भी बचता नहीं। अग्नि पहले ईंधन को जलाती है, फिर ईंधन जल जाता है, फिर अग्नि भी बुझ जाती है, फिर अंगारे भी बुझ जाते हैं, फिर राख ही रह जाती है, फिर सब समाप्त हो जाता है।

तो ज्ञान की घटना जिनके जीवन में घटी, उनको दिखाई पड़ा कि ज्ञान की घटना अग्नि जैसी है। पहले अज्ञान जलेगा, फिर ज्ञान भी जलेगा, फिर ज्ञानी भी जलेगा और पीछे तो सिवाय राख के कुछ बचेगा नहीं। सब तिरोहित हो जाएगा। इतना शून्य होने को जो तैयार है, वह ज्ञान की यात्रा पर निकल सकता है।

तीसरी बात। अग्नि की लपटें हमने उठते देखी हैं, थोड़ी दूर तक ही दिखाई पड़ती हैं, फिर खो जाती हैं। अग्नि बहुत थोड़े दूर तक दृश्य है, इसके बाद अदृश्य हो जाती है। ज्ञान भी बहुत थोड़े दूर तक दिखाई पड़ता है, या ऐसा कहें कि थोड़े दूर तक ज्ञान का संबंध दिखाई पड़ने वाले से रहता है, दृश्य से रहता है, और इसके बाद उसका संबंध अदृश्य से हो जाता है। फिर दृश्य खो जाता है और अदृश्य ही रह जाता है। इन सारे कारणों से अग्नि बड़ा ही समर्थ प्रतीक ज्ञान का बन गया और कृष्ण ज्ञानयज्ञ शब्द का उपयोग कर सके।

ये प्रतीक अगर हमारे खयाल में हों, तो ज्ञानयज्ञ सदा जारी रहेगा। अग्नि के आसपास निर्मित हुए दूसरे “रिचुअल’ और यज्ञ तो खो जाएंगे, क्योंकि वे परिस्थिति से पैदा होते हैं, लेकिन ज्ञानयज्ञ सदा जारी रहेगा। इसलिए कृष्ण ने यज्ञ को पहली दफा परिस्थिति से मुक्त करके शाश्वत अर्थ दे दिया। वेद जिस यज्ञ की बात करते थे वह परिस्थिति से बंधा था, एक घटना से जुड़ा था। कृष्ण ने उसे उस घटना से मुक्त कर दिया और एक शाश्वत अर्थ दे दिया। अब कृष्ण के अर्थ में ही यज्ञ का प्रयोजन होगा आगे। उसका अर्थ कृष्ण के द्वारा ही निकल सकता है। और कृष्ण के पहले के अध्याय बंद हो गए हैं। अब भी जो कृष्ण के पहले के यज्ञ की बात करता है, वह असामयिक, “आउट आफ डेट’, व्यर्थ की बात करता है; अब उसमें कोई अर्थ नहीं रह गया है, वह बात समाप्त हो चुकी है। अब अग्नि के आसपास आनंद से नहीं कूदा जा सकता, क्योंकि अग्नि अब हमारे जीवन में कोई ऐसी घटना नहीं है।

वह जपयज्ञ की भी बात करते हैं। कृष्ण जपयज्ञ की भी बात करते हैं। जप के साथ भी वही राज है, जो ज्ञान के साथ है। जप पहले तो दूसरे विचारों को जलाएगा, फिर जब दूसरे विचार जल जाएंगे, तो जप का विचार भी जल जाएगा। जो शेष रह जाएगा, वह अजपा स्थिति होती है। इसलिए उसको भी अग्नि से प्रतीक बनाया जा सकता है। वह भी यज्ञ बनाया जा सकता है।

आपके मन में बहुत विचार हैं। आप एक शब्द का जप की भांति प्रयोग करते हैं। सारे विचारों को हटा देते हैं, एक ही विचार पर आप अपने मन को डोलाते हैं। एक घड़ी ऐसी आती है कि यह विचार भी बेमानी हो जाता है कि इसको क्यों दोहराए चले जाना। जब सब विचार ही छूट गए, तो इस एक को भी क्यों पकड़े चले जाना! फिर यह भी छूट जाता है। फिर आप जिस स्थिति में होते हैं, वह अजपा स्थिति है, वहां जप भी नहीं है। अग्नि ने पहले ईंधन जलाया, फिर खुद भी जल गई।

लेकिन, खतरा है जप के साथ, जैसा कि ज्ञान के साथ खतरा है। खतरे सब चीजों के साथ हैं। ऐसा कोई भी रास्ता नहीं है जिस पर न भटका जा सके। ऐसा रास्ता हो भी कैसे सकता है! जो भी रास्ता पहुंचा सकता है, उस पर यात्री चाहे तो भटक भी सकता है। सब रास्ते इस अर्थों में भटकाने वाले की तरह प्रयोग किए जा सकते हैं, और आदमी ऐसा है कि वह सब रास्तों को पहुंचने के लिए काम में कम लाता है, भटकने के लिए ज्यादा काम में लाता है। मैंने कहा कि ज्ञान यज्ञ है, जैसे कृष्ण कहते हैं। लेकिन आदमी ज्ञान का अर्थ ले सकता है पांडित्य, “इनफॅर्मेशन’, सूचनाएं, शास्त्र, सिद्धांत, शब्द और इनको इकट्ठा कर ले सकता है। तब वह भटक गया। वैसा आदमी ज्ञान को उपलब्ध ही नहीं हुआ। ज्ञान के नाम से उसने कुछ और ही अपने ऊपर थोप लिया है। और ध्यान रहे, अज्ञान से इतना नुकसान नहीं है जितना मिथ्या ज्ञान से है। अज्ञान से इतना नुकसान नहीं है, जितना झूठे, उधार, बासे ज्ञान से है। क्योंकि बासे ज्ञान में कोई अग्नि नहीं होती। बासा ज्ञान समझना चाहिए कि बुझ गए अंगारों के बुझे कोयलों की तरह है। उसे कितना ही इकट्ठा कर लो, उससे कोई जीवन रूपांतरण नहीं होता है। लेकिन अगर कोई ज्ञान का यह अर्थ ले ले, तो भटकेगा।

ऐसे ही जप के साथ भी कठिनाई है। जप का अगर कोई यह अर्थ ले ले कि जप करते-करते ही पहुंच जाऊंगा, तो गलती में है। जप करते-करते कोई कभी नहीं पहुंचा है। जप का उपयोग ऐसा ही किया जाता है जैसे पैर में एक कांटा लग गया हो और उस कांटे को हम दूसरे कांटे से निकाल देते हैं। लेकिन फिर दूसरे कांटे को पहले वाले कांटे के घाव में रख नहीं लेते सुरक्षित। पहला कांटा निकला कि दूसरा बिलकुल वैसे ही बेकार है, जैसा पहला है, और दोनों को एक-साथ फेंक देते हैं। लेकिन हो सकता है कोई नासमझ! वह कहे कि जिस कांटे ने मेरा कांटा निकाला, उसको मैं कैसे फेंक सकता हूं। वह कहे कि शिष्टता भी तो कम-से-कम इतना कहती है कि जिस कांटे ने मेरा कांटा निकाला उसको मैं सम्हाल कर रखूं। तब यह आदमी पागल है।

बुद्ध निरंतर कहते हैं, बार-बार एक कहानी वह कहते हैं कि एक गांव में कुछ लोग एक नाव से उतरे, फिर जब वे नाव से नदी के किनारे उतर गए तो उन आठों लोगों ने तय किया–वे बड़े बुद्धिमान थे–उन्होंने तय किया कि जिस नाव ने हमें नदी पार कराई, उस नाव को हम छोड़ कैसे सकते हैं! और उन्होंने सोचा कि जिस नाव से हम नदी पार किए और जिस पर हम बैठकर सवार हुए, अब उचित है कि हम उसको अपने ऊपर सवार करें। तो उन्होंने नाव को आठों आदमियों ने अपने सिरों पर उठा लिया और बाजार की तरफ चले। गांव में लोग उनसे पूछने लगे कि पागलो, हमने नाव पर तो बहुत बार लोगों को देखा, लेकिन नाव लोगों पर नहीं देखी, यह बात क्या है? वे सब कहने लगे कि तुम हो अकृतज्ञ। तुम्हें “ग्रेटीच्यूड’ का कुछ पता नहीं है। हम जानते हैं अनुग्रह का भाव। इस नाव ने हमें नदी पार करवाई है, अब इस नाव को संसार पार करवा के रहेंगे। अब तो सदा यह हमारे सिर पर रहेगी।

तो बुद्ध यह मजाक में कहते हैं कि बहुत लोग हैं, जो फिर साधना को इस बुरी तरह पकड़ लेते हैं कि वही साध्य हो जाता है। नदी पार करने को नाव है, सिर पर ढोने को नाव नहीं है।

जप का उपयोग किया जा सकता है, इस होश के साथ कि वह भी एक कांटा है। और अगर आपने उसको कांटा नहीं समझा और प्रेम में पड़ गए उसके, तो जो दूसरे विचार आपको भरे थे वे तो हट जाएंगे, जप आपको भर देगा। अब एक आदमी चौबीस घंटे राम-राम, राम-राम कर रहा है, उसकी बजाय हो सकता है जो व्यर्थ विचारों से भरा है उसके जीवन में भी कुछ सार्थकता फलित हो जाए, क्योंकि उसके व्यर्थ विचारों में भी कुछ आ सकता है। इसके पास सिवाय राम-राम के कुछ आने को नहीं है। और जब यह राम-राम को छोड़ने को राजी नहीं होगा, यह कहेगा सब विचारों से छुटकारा दिलाया राम-राम ने, तो अब मैं कैसे छोड़ सकता हूं, अब तो मैं नाव को सिर पर रखूंगा।

जप को यज्ञ कहना बड़ी “सीक्रेट’ बात है। कृष्ण जब जप को यज्ञ कहते हैं तो वह कहते हैं, ध्यान रखना, जप भी अग्नि की भांति है। पहले दूसरे को जलाएगा, फिर खुद को जलाएगा, और जब खुद को जला ले तभी समझना कि सार्थक हुआ है।

तो हम शब्द का उपयोग कर सकते हैं दूसरे शब्दों को बाहर करने में, लेकिन फिर उस शब्द को भी बाहर करना पड़ेगा। और अगर मोहग्रस्त हुए और उस शब्द को सम्हालकर रखा तो जप यज्ञ न रहेगा, जप सम्मोहन हो जाएगा। फिर हम जप शब्द से ही “आब्सेस्ड’ हो गए, फिर हम उसी से पीड़ित होकर रहने लगेंगे, और वही हमारा पागलपन बन जाएगा। इसलिए जो लोग जप करते वक्त जप में लीन हो जाते हैं, वे लोग जप को फिर कभी न छोड़ सकेंगे, क्योंकि लीनता में एक गहरा संबंध स्थिर हो जाता है। जो लोग जप करते समय साक्षी बने रहते हैं, जो ऐसा अनुभव नहीं करते कि मैं जप कर रहा हूं, बल्कि ऐसा अनुभव करते हैं कि जप मन से हो रहा है और मैं देख रहा हूं, वे एक दिन जप के बाहर जा सकते हैं। तब जप यज्ञ हो जाता है, क्योंकि तब जप अग्नि की भांति हो जाता है। पहले वह दूसरे विचारों को जला देता है, फिर खुद जलकर राख हो जाता है। आप जब खाली रह जाते हैं, शून्य, तब आप ध्यान को, समाधि को उपलब्ध होते हैं।

इसलिए कृष्ण ने ज्ञान और जप, दोनों के साथ यज्ञ का प्रयोग किया। यज्ञ का प्रयोग अग्नि के केंद्र पर है। और अग्नि के प्रतीक को हम समझ लें तो ये दोनों बातें भी साफ समझ में आ सकती हैं। असल में जो जलने को तैयार है, वह यज्ञ के लिए तैयार है, जो मिटने को तैयार है, वह यज्ञ के लिए तैयार है। जो होम होने को तैयार है, वह यज्ञ के लिए तैयार है। और तब सब यज्ञ छोटे पड़ जाते हैं और जीवनयज्ञ ही शेष रह जाता है।

“भगवान श्री, श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञानीजन कर्मफल त्याग कर जन्मरूप बंधन से छूट जाते हैं और परमपद को प्राप्त करते हैं। तो क्या कृष्ण जन्म को बंधन मानते हैं? आप तो जन्म को, संसार को निर्वाण ही है, ऐसा कहते हैं।’

कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजन कर्मफल की आसक्ति को छोड़कर, फलासक्ति को छोड़कर जन्मरूपी बंधन से मुक्त हो जाते हैं। ये सब बातें समझने जैसी हैं।

पहली बात, फलासक्ति से मुक्त होकर। कर्म से मुक्त होकर नहीं, फलासक्ति से मुक्त होकर। कर्म से मुक्त होने को नहीं कहा जा रहा है कि काम से मुक्त हो जाने का जोर ही इसलिए है कि कर्म पीछे बचाया गया है। कर्म तो रहेगा, फलासक्ति नहीं रहेगी।

फलासक्ति से मुक्त होकर कोई कैसे कर्म को उपलब्ध होगा, यह थोड़ा सोचने जैसा है। हम तो अगर फल से मुक्त हो जाएं तो कर्म से ही मुक्त हो जाएंगे। अगर कोई आपसे कहे कि फल की कामना न करें, और कर्म करें, तो आप कहेंगे, मैं पागल हूं! अगर फल की कामना नहीं है तो कर्म क्यों होगा? फल की कामना से ही तो कर्म होता है। एक कदम भी उठाते हैं तो किसी फल की कामना से उठाते हैं। अगर फल की कामना ही नहीं होगी, तो कदम ही क्यों उठेगा? हम उठाएंगे ही क्यों?

इस “फलासक्ति से मुक्त होकर’, इस शब्द ने, जिन लोगों ने कृष्ण को सोचा है उन्हें बड़ी कठिनाई में डाला है। और सबसे बड़ी कठिनाई उन्होंने यह पैदा की है कि तब उन्होंने एक बहुत ही रहस्यपूर्ण ढंग से फल की पुनर्प्रतिष्ठा कर दी है। फिर उन्होंने यह कहा कि जो फलासक्ति से मुक्त होते हैं, वे मोक्ष को या मुक्ति को उपलब्ध हो जाते हैं। और मुक्ति और मोक्ष को फल की तरह उपयोग में लाना शुरू किया है, कि तुम ऐसा करोगे, तो ऐसा मिलेगा। तुम ऐसा करोगे तो ऐसा नहीं मिलेगा। यही तो फल की आकांक्षा है। मोक्ष को भी फल बना लिया। तभी वे लोगों को समझा पाए कि तुम सब और फलों को छोड़ दो। तो मोक्ष को अगर पाना चाहते हो, तो सब फलों को छोड़कर ही तुम मोक्ष को पा सकते हो। लेकिन यह तो कृष्ण के साथ बड़ी ज्यादती हो गई। अगर कृष्ण ऐसा भी कहते हैं कि जो सब फलासक्ति से मुक्त हो जाते हैं, वे ज्ञानीजन जन्मरूपी बंधन से मुक्त होते हैं, तो उनकी मुक्त होने की जो बात है वह सिर्फ परिणाम की सूचक है। “कांसीक्वेंस’ की खबर है। वह फल नहीं है। ऐसा नहीं है कि जिन्हें जन्मरूपी बंधन से मुक्त होना है, वे फल की आकांक्षा छोड़ दें, तब तो यह फिर फल की ही आकांक्षा हो गई। यह सिर्फ खबर है कि ऐसा होता है। फल की आकांक्षा छोड़ने से मुक्ति फलित होती है, ऐसा होता है। लेकिन मुक्ति की आकांक्षा जो करता है उसे तो मुक्ति कभी फलित नहीं हो सकती, क्योंकि वह फल की आकांक्षा करता है। लेकिन हम बिना फल-आकांक्षा के कर्म कैसे करेंगे?

इसे समझने के लिए यह देखना जरूरी होगा कि हमारी जिंदगी में दो तरह के कर्म हैं। एक कर्म तो वह है जो हम अभी करते हैं, कल कुछ कुछ पाने की आशा में। ऐसा कर्म भविष्य की तरफ से “पुल’ है, खींचना है। भविष्य खींच रहा है लगाम की तरह। जैसे एक गाय को कोई गले में रस्सी बांध खींचे लिए जा रहा है, ऐसा भविष्य हमारे गले में रस्सियां डालकर हमें खींचे लिए जा रहा है। यह मिलेगा, इसलिए हम यह कर रहे हैं। वह मिलेगा, इसलिए हम वह कर रहे हैं। मिलेगा भविष्य में, कर अभी रहे हैं। रस्सी अभी गले में पड़ी है; हाथ में जो फंदा है रस्सी का, वह भविष्य के लिए है। मिलेगा, नहीं मिलेगा, यह पक्का नहीं है। क्योंकि भविष्य का अर्थ ही यह है कि जो पक्का नहीं है। भविष्य का अर्थ ही यह है, जो अभी नहीं हुआ है, होगा। लेकिन उस आशा में हम रस्सी में बंधे हुए पशु की तरह भागे चले जा रहे हैं।

यह बड़े मजे की बात है, यह शब्द पशु बड़ा बढ़िया है। कभी आपने शायद खयाल न किया होगा कि पशु का मतलब होता है, जो पाश में बंधा हुआ खिंचा जा रहा है। पशु शब्द का ही मतलब होता है, जो पाश में बंधा हुआ खिंचा जा रहा है। तब तो हम सब पशु हैं, अगर हम भविष्य के पाश में बंधे हुए खिंचे जा रहे हैं। पशु का मतलब ही इतना है कि जो भविष्य से बंधा है और जिसकी लगाम भविष्य के हाथों में है और जो खिंचा जा रहा है। जो रोज आज इसलिए जीता है कि कल कुछ होगा, कल भी इसीलिए जियेगा कि परसों कुछ होगा। जो हर दिन आज कल के लिए जियेगा और कभी नहीं जी पाएगा–क्योंकि जब आएगा तब आज आएगा, और जीना उसका सदा कल होगा। कल भी यही होगा, परसों भी यही होगा, क्योंकि जब भी समय आएगा वह आज की तरह आएगा और यह आदमी पाश में बंधा हुआ पशु की तरह भविष्य से खिंचा हुआ कल में जियेगा। यह कभी नहीं जी पाएगा। इसकी पूरी जिंदगी अनजियी, “अनलिव्ड’ बीत जाएगी। मरते वक्त यह कह सकेगा कि मैंने सिर्फ जीने की कामना की, मैं जी नहीं पाया हूं। और मरते वक्त उसकी सबसे बड़ी पीड़ा यही होगी कि अब आगे कोई फल नहीं दिखाई पड़ता। और कोई पीड़ा नहीं है। अगर आगे कोई फल दिखाई पड़ जाए इसे, तो यह मौत को भी झेलने को राजी हो जाएगा। इसलिए मरता हुआ आदमी पूछता है, पुनर्जन्म है? मैं मरूंगा तो नहीं? वह असल में यह पूछ रहा है, कल है अभी बाकी? अगर कल हो तो चल सकता है, क्योंकि मेरे जीने का ढंग कल पर निर्भर है। अगर कल नहीं है अब, तो बड़ा मुश्किल हो गया। मैं तो रोज-रोज कल के लिए जिया और आज अचानक पाता हूं कि आज के साथ ही सब समाप्त होता है और कल नहीं है। “फ्यूचर ओरियेंटेड लिविंग’ जो है, वह फलासक्ति का अर्थ है। भविष्य-केंद्रित जीवन।

एक ऐसा कर्म भी है, जो भविष्य से खिंचाव की तरह नहीं निकलता, बल्कि “स्पांटेनियस’ है और झरने की तरह हमारे भीतर से फूटता है। जो हम हैं, उससे निकलता है। जो हम होंगे, उससे नहीं। रास्ते पर आप जा रहे हैं, किसी आदमी का–आपके सामने चल रहा है, उसका छाता गिर गया है, आपने उठाया और छाता दे दिया। न तो छाता देते वक्त यह खयाल आया कि कोई “प्रेसरिपोर्टर’ आसपास है या नहीं; न छाता देते वक्त यह खयाल आया कि कोई “फोटोग्राफर’ आसपास है या नहीं; न छाता देते वक्त यह खयाल आया कि कोई देख रहा है कि नहीं देख रहा है; न छाता देते वक्त यह खयाल आया कि यह आदमी धन्यवाद देगा कि नहीं; तो यह कर्म फलासक्तिरहित हुआ। यह आपसे निकला सहज। लेकिन समझें कि उस आदमी ने आपको धन्यवाद नहीं दिया, दबाया छाता और चल दिया। और अगर मन में विषाद की जरा-सी भी रेखा आई, तो आपको फलाकांक्षा का पता नहीं था लेकिन अचेतन में फलाकांक्षा प्रतीक्षा कर रही थी। आप सचेतन नहीं थे कि इसके धन्यवाद देने के लिए मैं छाता उठाकर दे रहा हूं, लेकिन अचेतन मन मांग ही रहा था कि धन्यवाद दो। उसने धन्यवाद नहीं दिया, उसने छाता दबाया और चल दिया, तो आपके मन में विषाद की एक रेखा छूट गई और आपने कहा कि यह कैसा कृतघ्न, कैसा अकृतज्ञ आदमी है! मैंने छाता उठाकर दिया और धन्यवाद भी नहीं! तो भी फलाकांक्षा हो गई। अगर कृत्य अपने में पूरा है, “टोटल’, अपने से बाहर उसकी कोई मांग ही नहीं है, तो फलाकांक्षारहित हो जाता है।

कोई भी कृत्य जो अपने में पूरा है, “सर्किल’ की तरह है; वृत्त की तरह अपने को घेरता है और पूर्ण हो जाता है और अपने से बाहर की कोई अपेक्षा ही उसमें नहीं है। बल्कि छाता देकर आपने उसे धन्यवाद दिया कि तूने मुझे एक पूर्ण कृत्य करने का मौका दिया, जिसमें कि कोई आकांक्षा न थी वह अवसर मेरे लिए दे दिया! फलाकांक्षा से भरा हुआ व्यक्ति किसी-न-किसी तरह की आकांक्षा, अपेक्षा से भरा होगा। लेकिन जब पूर्ण कृत्य होता है तो वह इतना आनंद दे जाता है कि उसके पार कोई मांग नहीं है। फलाकांक्षारहित कृत्य का मेरी दृष्टि में जो अर्थ है वह यह है कि कृत्य पूर्ण हो, उसके बाहर कोई सवाल ही नहीं है। वह खुद ही इतना आनंद दे जाता है, वह खुद ही अपना फल है, कृत्य ही अपना फल है, आज ही अपना फल है, यही क्षण अपना फल है।

जीसस एक गांव से गुजर रहे हैं और उस गांव के आसपास लिली के फूलों के बड़े खेत हैं और वह अपने शिष्यों से कहते हैं कि देखते हो इन लिली के फूलों को? शिष्य बड़ी देर से देख रहे थे, लेकिन नहीं देख रहे थे, क्योंकि सिर्फ आंखों से तो नहीं देखा जाता, प्राणों से देखा जाता है। जीसस ने कहा, देखते हो इन लिली के फूलों को? उन्होंने कहा, देखते हैं, इसमें देखने जैसा क्या है? जैसे लिली के फूल होते हैं, वैसे हैं। जीसस ने कहा, नहीं, मैं तुमसे कहता हूं कि सोलोमन भी–सम्राट सोलोमन भी अपनी पूरी प्रतिष्ठा और गौरव में इतना सुंदर न था जितना ये गरीब लिली के फूल इस गांव के किनारे हैं। जीसस से पूछा कि सोलोमन से इनकी आप क्या तुलना करते हैं? कहां सोलोमन! यहूदी विचार में कुबेर का तुलनात्मक प्रतीक है सोलोमन। कहां सोलोमन, कहां ये गरीब लिली के फूल, इस अनजाने गांव के रास्तों पर खिले! जीसस ने कहा कि नहीं, लेकिन देखो गौर से। सोलोमन भी अपनी पूरी “ग्लोरी’ में, जब वह पूरा अपने वैभव पर था तब भी इस एक साधारण से लिली के फूल के बराबर सुंदर न था।

कोई पूछता है कि क्या कारण है? तो जीसस कहते हैं, फूल अभी और यहीं खिलते हैं, सोलोमन सदा भविष्य में रहता है। और भविष्य का तनाव कुरूप कर जाता है। फूल अभी और यहीं खिलते हैं। फूलों को कल कोई पता नहीं। यही हवा का झोंका सब कुछ है, यही सूरज की किरण सब कुछ है, यही पृथ्वी का टुकड़ा सब कुछ है; यही राह, यही होना, बस यही सब कुछ है, इसके बाहर कुछ होना नहीं। ऐसा नहीं कि सांझ नहीं आएगी। सांझ अपने से आएगी। आपकी अपेक्षाओं से आती है? आपकी आकांक्षाओं से आती है? ऐसा नहीं है कि इन फूलों में बीज नहीं लगेंगे और फल नहीं बनेंगे, वे अपने से लगते हैं। आपकी अपेक्षाओं से लगते हैं? लेकिन हम उस पागल औरत की तरह हैं, जिसके बाबत हम सबको पता होगा ही, क्योंकि हम सब उसकी तरह हैं।

एक पागल औरत एक दिन सुबह अपने गांव से नाराज होकर चली गई। गांव भर के लोगों ने कहा कि यह क्या कर रही हो? कहां जा रही हो? उसने कहा कि अब मैं जा रही हूं, तुमने मुझे बहुत सताया, अब कल से तुम्हें पता चलेगा! पर उन लोगों ने कहा कि बात क्या है? उसने कहा, मैं वह मुर्गा अपने साथ लिए जा रही हूं जिसकी बांग देने पर इस गांव में सूरज ऊगा करता था। अब यह सूरज दूसरे गांव में ऊगेगा। वह दूसरे गांव पहुंच गई। सुबह सूरज ऊगा–मुर्गे ने बांग दी, सूरज ऊगा, उसने कहा, अब रोते होंगे नासमझ, क्योंकि अब सूरज इस गांव में ऊग रहा है।

उस बूढ़ी औरत के तर्क में कोई खामी है? जरा भी नहीं। उसके मुर्गे की बांग देने से सूरज ऊगता था। और फिर जब दूसरे गांव में भी बांग देने से सूरज ऊगा, तब तो बिलकुल पक्का ही हो गया न, कि अब उस गांव का क्या होगा! मुर्गे ऐसी भ्रांति में नहीं पड़ते, लेकिन मुर्गों के मालिक पड़ जाते हैं। मुर्गे तो सूरज ऊगता है, इसलिए बांग देते हैं, मुर्गों के मालिक समझते हैं कि अपना मुर्गा बांग दे रहा है, इसलिए सूरज ऊग रहा है।

हम सबका चित्त ऐसा है। भविष्य तो आता है अपने से। वह आ ही रहा है, वह हमारे रोके न रुकेगा। कल आते हैं अपने से, वे हमारे रोके न रुकेंगे। हम अपने कृत्य को पूरा कर लें, इतना काफी है, उसके बाहर हमें होने की जरूरत नहीं है। कृष्ण इतना ही कहते हैं कि तुम्हारा कृत्य पूरा हो–“द एक्ट मस्ट बी टोटल’। “टोटल’ का मतलब है कि उसके बाहर करने को कुछ तुम्हें कुछ भी न बचे, तुम पूरा उसे कर लिए और बात खत्म हो गई। इसलिए वे कहते हैं कि तुम परमात्मा पर छोड़ दो फल। परमात्मा पर छोड़ने का मतलब यह नहीं है कि कोई नियंता, कहीं “कंट्रोलर’ कोई बैठा है, उस पर तुम छोड़ दो, वह तुम्हारा हिसाब-किताब रखेगा। परमात्मा पर छोड़ने का कुल इतना ही मतलब है कि तुम कृपा करो, तुम सिर्फ करो और समष्टि से उस करने की प्रतिध्वनि आती ही है। वह आ ही जाएगी। जैसे कि मैं इन पहाड़ों में जोर से चिल्लाऊं और कोई मुझसे कहे कि तुम चिल्लाओ भर, प्रतिध्वनि की चिंता मत करो, पहाड़ प्रतिध्वनि करते ही हैं। तुम पहाड़ों पर छोड़ दो प्रतिध्वनि की बात। तुम नाहक चिंतित मत होओ, क्योंकि तुम्हारी चिंता तुम्हें ठीक से ध्वनि भी न करने देगी और फिर हो सकता है प्रतिध्वनि भी न हो पाए, क्योंकि प्रतिध्वनि होने के लिए ध्वनि तो होनी चाहिए। फलाकांक्षा कर्म को ही नहीं करने देती। फलाकांक्षा में उलझे हुए लोग कर्म करने से चूक ही जाते हैं, क्योंकि कर्म का क्षण है वर्तमान और फल का क्षण है भविष्य। जिनकी आंखें भविष्य पर गड़ी हैं भविष्य पर, कल पर, फल पर, तो काम तो बेमानी हो जाता है। किसी तरह हम करते हैं। नजर लगी होती है आगे, ध्यान लगा होता है आगे–और जहां ध्यान है, वहीं हम हैं। और अगर ध्यान वर्तमान क्षण पर नहीं है, तो गैर-ध्यान में, “इनअटेंटिविली’ जो होता है, उस होने में बहुत गहराई नहीं होती, उस होने में पूर्णता नहीं होती, उस होने में आनंद नहीं होता है।

कृष्ण की फलाकांक्षारहित कर्म की जो दृष्टि है, उसका कुल मतलब इतना है कि तुम इतना भी अपना हिस्सा भविष्य के लिए मत तोड़ो कि इस काम में बाधा पड़ जाए, तुम इस काम को पूरा ही कर लो। भविष्य जब आए तब भविष्य में पूरे हो लेना, कृपा करके अभी तुम पूरे हो लो। अभी तुम इसी में पूरे हो लो, भविष्य आएगा। और तुम्हारे पूरे होने से फल निकलेगा। उसकी तुम चिंता ही मत करो, उसे तुम निश्चिंत हो परमात्मा पर छोड़ सकते हो। इसका मतलब यह हुआ कि हम जो कर रहे हैं वह हमारा आनंद हो जाए, तभी हम भविष्य से और फल से बच सकते हैं। जो हम कर रहे हैं वह हमारे आनंद से सृजित हो, वह हमारे आनंद से निकले, उसका आविर्भाव हमारे आनंद से हो, वह हमारे भीतर से झरने की तरह फूटे–किसी भविष्य के लिए नहीं; पशु की तरह नहीं, झरने की तरह। झरना किसी भविष्य के लिए नहीं फूट रहा है।

भला आप सोचते होंगे कि नदियां सागर के लिए बह रही हैं, गलती में हैं आप। सागर तक पहुंच जाती हैं, यह दूसरी बात है। नदियां बहती हैं अपने वेग से, नदियां बहती हैं अपने “ओरिजनल सोर्स’ की क्षमता से। गंगोत्री की क्षमता से गंगा बहती है। सागर तक पहुंचती है, यह बिलकुल दूसरी बात है। इस पूरी लंबी यात्रा में गंगा को सागर से कुछ लेना-देना नहीं है। सागर मिलेगा कि नहीं मिलेगा, इससे कोई संबंध ही नहीं है। गंगा की भीतरी ऊर्जा इतनी है कि वह बहाए लिए जाती है, बहाए लिए जाती है, और हर तट पर गंगा नाच रही है। कोई सागर के तट पर ही नाचती है, ऐसा नहीं, हर तट पर नाच रही है। पत्थरों में, पहाड़ों में, गङ्ढों में, ऊंचाइयों पर, नीचाइयों में, सुख में, दुख में, निर्जन में, रेगिस्तान में, वृक्षों में, हरियाली में, मनुष्यों में, न-मनुष्यों में, वह हर जगह नाच रही है। जहां है जिस तट पर पहुंचने के लिए वह किसी तट से जल्दी में नहीं है। फिर एक दिन वह सागर तक पहुंच जाती है। सागर तक पहुंच जाना उसके जीवन की फलश्रुति है। वह फल है, लेकिन उस फल के लिए कहीं कोई आकांक्षा नहीं है। एक झरना फूट रहा है, अपनी भीतरी ऊर्जा से उसका कृत्य फूटता है। कृष्ण यह कह रहे हैं कि आदमी ऐसा जिये कि अपनी भीतरी ऊर्जा से फूटता रहे। मेरी दृष्टि में संन्यासी में और गृहस्थ में यही फर्क है। गृहस्थ रोज कल के लिए जीता है, संन्यासी आज की ऊर्जा से फूटता है और जीता है। आज पर्याप्त है। कल आएगा, वह भी आज की तरह आएगा, उसमें भी हम आज की तरह जी लेंगे।

मुहम्मद के जीवन में एक छोटी-सी घटना है। मुहम्मद उन थोड़े-से संन्यासियों में हैं जैसे संन्यासी मैं दुनिया में देखना चाहूंगा। मुहम्मद को रोज लोग भेंट कर जाते हैं। कोई मिठाइयां दे जाता है, कोई रुपये दे जाता है, कोई कुछ कर जाता है। सांझ तक जो लोग आते हैं, खाते हैं, पीते हैं, सांझ को मुहम्मद अपनी पत्नी को कहते हैं कि अब सब बांट दो, क्योंकि सांझ हो गई। तो जो भी होता है, सब बांट दिया जाता है। सांझ मुहम्मद फिर फकीर हो जाते हैं। उनकी पत्नी उनसे पूछती भी है कि यह ठीक नहीं है, कल के लिए कुछ बचाना उचित है, तो मुहम्मद कहते हैं कि जो आज आया था, कल उसकी फिर प्रतीक्षा करेंगे। और जब आज बीत गया, तो कल भी बीत जाएगा। और फिर वह अपनी पत्नी से कहते हैं कि क्या तू मुझे नास्तिक समझती है कि मैं कल का इंतजाम करूं? कल का इंतजाम नास्तिकता है। कल का इंतजाम इस बात की सूचना है कि जिस समष्टि ने मुझे आज दिया, कल पता नहीं देगी, नहीं देगी! कल का इंतजाम अश्रद्धा है। कल का इंतजाम अश्रद्धा है जागतिक ऊर्जा पर, विश्व-प्राण पर। जिसने मुझे आज दिया, वह कल मुझे देगा या नहीं देगा, इसलिए मैं इंतजाम कर लूं। लेकिन मैं कितना इंतजाम कर पाऊंगा, क्या इंतजाम कर पाऊंगा और मेरे इंतजाम कहां तक काम पड़ेंगे। मुहम्मद कहते हैं, बांट दे, कल सुबह फिर श्रद्धा से प्रतीक्षा करेंगे। मुहम्मद कहते हैं, मैं आस्तिक हूं। तो कल के लिए बचाकर नहीं रख सकता, नहीं तो परमात्मा क्या कहेगा कि ऐ मुहम्मद, तेरा इतना भी भरोसा नहीं! तो रोज सांझ सब बंट जाता है।

फिर मुहम्मद की मौत आती है। मरने की रात, चिकित्सकों ने कहा है कि आज वह बच न सकेंगे। तो उनकी पत्नी ने सोचा कि आज तो कुछ बचा लेना चाहिए, रात दवा-दारू की जरूरत हो सकती है! खैर, कल सुबह कोई लाएगा, वह तो ठीक है, लेकिन आधीरात कौन लाएगा? तो उसने पांच दीनार, पांच रुपये तकिये के नीचे छिपा दिए। सांझ को जब सब बांटा है, पांच रुपये छिपा दिए। रात को बारह बजे मुहम्मद बड़ी तड़फन में हैं, बड़ी पीड़ा में हैं। आखिर उन्होंने अपनी चादर उघाड़ी और अपनी पत्नी से पूछा कि मैं सोचता हूं, समझता हूं कि मालूम होता है आज गरीब मुहम्मद गरीब नहीं है। कुछ घर में बचा है। उसकी पत्नी तो बहुत घबड़ा गई। उसने कहा आपको कैसे पता चला? तो मुहम्मद ने कहा कि तेरे चेहरे को देखकर पता चलता है, क्योंकि आज तू वैसी निश्चिंत नहीं है जैसी सदा निश्चिंत है। घर में तूने जरूर कुछ बचाया है। जो चिंतित हैं वे भी बचा लेते हैं, जो बचा लेते हैं वे भी चिंतित हो जाते हज, वह “विसियस सर्किल’ है। तो मुहम्मद कहते हैं, उसे निकाल और बांट दे अभी। मुझे शांति से मरने दे। आखिरी रात, कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा कहे कि आखिरी रात मुहम्मद, तू चूक गया! और जब मैं उसके सामने जाऊं तो अपराधी की तरह खड़ा होना पड़े। निकाल कहां है? उसकी पत्नी ने घबड़ाहट में वे पांच रुपये जो छिपा रखे थे कि रात दवा-दारू की जरूरत पड़े, निकाले। मुहम्मद ने कहा, किसी को भी पुकार दे सड़क से। तब उसने कहा, आधी रात कौन होगा? उन्होंने कहा, तू पुकार दे। पुकार दी गई है, कोई बाहर सड़क पर भिखारी था वह भीतर आ गया। मुहम्मद ने कहा, देख, आधी रात को लेने वाला आ सकता है तो देने वाला भी आ सकता है। तू उसको दे दे। ये पांच रुपये दे दे। वे पांच रुपये उसे दे दिए गए, फिर मुहम्मद ने चादर ओढ़ ली और वह उनका आखिरी कृत्य था उनका चादर ओढ़ना। मुहम्मद डूब गए उसी वक्त। जैसे वे पांच रुपये अटकाव थे। जैसे वे पांच रुपये बाधा थे। जैसे वे पांच रुपये पीड़ा थे। जैसे वह पांच रुपये की गांठ उस संन्यासी को भारी पड़ रही थी, रोके हुए थी।

प्रत्येक कृत्य और प्रत्येक क्षण और प्रत्येक दिन अपने में पूरा होता जाए, तो भी कल आता है। कल सदा आता रहा है, लेकिन तब कल रोज नया होता है। बासा नहीं होता। और तब कल जैसा अभी आता है, वह “फ्रस्ट्रेट’ नहीं करता। कल हमें विषाद से भर देगा अगर आज की हमारी अपेक्षाओं के विपरीत पड़ा। और किन अपेक्षाओं के अनुकूल भविष्य पड़ता है! कभी नहीं पड़ता। क्योंकि भविष्य इतने विराट पर निर्भर है और हमारी अपेक्षाएं इतने क्षुद्र पर निर्भर हैं कि इस क्षुद्र की अपेक्षाएं इस विराट में कैसे पूरी होंगी! उनका कोई पता ही नहीं चलेगा। यह ऐसा ही है जैसे कि नदी की बहती धार में एक बूंद तय करती हो कि अगर पश्चिम को कल बहें तो बड़ा अच्छा। नदी की पूरी धार में एक बूंद कहां निर्णायक होगी कि पश्चिम को बहें। नदी को जहां बहना है, बहेगी। एक बूंद उसके साथ ही होगी, लेकिन कल दुखी होगी। क्योंकि उसने तय किया था पश्चिम बहने का और नदी पूरब बही जा रही है और तब विषाद और पीड़ा भर जाएगी। अपेक्षाएं, फलाकांक्षाएं, विषाद, दुख, “फ्रस्ट्रेशन’ और पीड़ा से भर जाती हैं, असफलताओं से भर जाती हैं। जो आदमी प्रतिपल पूरा जी रहा है, उसके जीवन में विषाद नहीं है।

इसलिए जो कर रहे हैं, उस करने में पूरे हो जाएं और फल परमात्मा पर छोड़ दें। ऐसा जो करेगा, तो कृष्ण कहते हैं, वह जन्म के, जन्मरूपी बंधन से छूट जाता है। और वह बड़े मजे की बात कह रहे हैं। वह यह कह रहे हैं, जन्मरूपी बंधन से। जन्म बंधन है, ऐसा वह नहीं कह रहे हैं। असल में जो आदमी फलाकांक्षा से भरा है, वह आदमी जन्म लेने की आतुरता से भरा होता है। क्योंकि फल को पूरा करने के लिए कल तो होना चाहिए न! जो आदमी फलों में जीता है, वह आदमी जन्म लेने की आतुरता में जीता है। उसे जन्म लेना ही पड़ेगा। और जो आदमी फलों में जीता है उसके लिए जन्म बंधन बन जाता है। वह उसकी मुक्ति नहीं रहती। रहेगी नहीं मुक्ति। क्योंकि जन्म का भी आनंद उसे नहीं है। आनंद तो उसे कुछ फल मिलने का है। जन्म भी उसके लिए आनंद नहीं है। जन्म भी एक अवसर है, जिसमें वह कुछ फलों को पाकर आनंदित होना चाहता है। मृत्यु उसके लिए दुख होगी, क्योंकि मृत्यु उसे उन सब मार्गों को तोड़ देगी जिन मार्गों से भविष्य में जिआ जा सकता था। और जन्म उसके लिए बंधन मालूम पड़ेगा। जन्म उसके लिए इसलिए बंधन मालूम पड़ेगा कि वह जीवन को जानता ही नहीं है, जो मुक्ति है। और एक बार कोई जीवन को जान ले, तो जन्म भी नहीं रह जाता और मृत्यु भी नहीं रह जाती है। कृष्ण ने उसमें जो बात कही है वह अधूरी है, उसे पूरा किया जाना चाहिए। वह कह रहे हैं, जन्मरूपी बंधन से मुक्त हो जाता है। मैं आपको कहता हूं, वह मृत्युरूपी बंधन से भी मुक्त हो जाता है।

इसका मतलब यह नहीं है कि जन्म और मृत्यु बंधन हैं। इसका मतलब यह है कि जन्म और मृत्यु बंधन प्रतीत होते हैं अज्ञान में। ज्ञानी के लिए तो जन्म और मृत्यु रह ही नहीं जाते। यह जो बंधन की प्रतीति है, वह अज्ञानी चित्त की प्रतीति है। और जो मुक्ति की प्रतीति है, वह ज्ञानी चित्त की प्रतीति है। जन्म बुरा है, ऐसा वह नहीं कह रहे। लेकिन जैसे हम हैं, उनको जन्म बंधन मालूम होगा। हम जैसे आदमी प्रेम तक को बंधन बना लेते हैं। मेरे पास न-मालूम कितने मित्रों की लड़कियों के, लड़कों के विवाह के निमंत्रण आते हैं, उसमें लिखा रहता है कि मेरी पुत्री प्रेम के बंधन में बंधने जा रही है; मेरा बेटा विवाह के बंधन में बंध रहा है। हम प्रेम को भी बंधन बना लेते हैं; जबकि प्रेम मुक्ति है। कहना तो यही उचित होगा कि मेरी बेटी प्रेम में मुक्त होने जा रही है। हम कहते हैं, बेटी प्रेम में बंधने जा रही है। हम प्रेम को भी बंधन बना लेते हैं। इसमें प्रेम बंधन है ऐसा नहीं, हम जैसे हैं, हम मृत्यु को भी बंधन बना लेते हैं। हम जैसे हैं, हम पूरे जीवन को ही बंधन बना लेते हैं। हम जैसे हैं हम प्रेम को भी बंधन बना लेते हैं। हम जैसे हैं, हम पूरे जीवन को ही बंधनों की एक शृंखला बना लेते हैं। जो व्यक्ति क्षण में जीता है, वर्तमान में जीता, फलाकांक्षा से मुक्त जीता, अनासक्त जीता, जो व्यक्ति जीवन को अभिनय की तरह जीता, जो करता हुआ न करता है, न करता हुआ करता है, ऐसा व्यक्ति जिंदगी में जो भी है उस सबको मुक्ति बना लेता है। उसके लिए बंधन भी मुक्ति हो जाते हैं, हमारे लिए मुक्ति भी बंधन है। यह हमारे होने के ढंग पर निर्भर करता है। इसलिए कृष्ण की बात में कोई जन्म बंधन है, ऐसा जन्म की निंदा नहीं है, हम जैसे हैं, हमने जन्म को बंधन बनाया है। और अगर हम फलाकांक्षारहित होकर जीना शुरू करें, तो जन्म हमारे लिए बंधन नहीं रह जाएगा। ऐसा व्यक्ति जीवनमुक्ति को उपलब्ध होता है। यही जीवन मुक्ति। यहीं है वह जीवन, अभी है वह जीवन। हमारे देखने पर निर्भर करता है।

मैंने सुना है कि एक विद्रोही को–एक विद्रोही फकीर को, एक सूफी को किसी खलीफा ने कारागृह में डाल दिया। उसके हाथों पर जंजीरें डाल दीं, उसके पैरों में बेड़ियां डाल दीं और वह सूफी, वह फकीर जो निरंतर स्वतंत्रता के गीत गाता था, जेल के सींखचों में डाल दिया गया। सम्राट–वह खलीफा उससे मिलने गया। और उसने पूछा कि कोई तकलीफ तो नहीं है? तो उस फकीर ने कहा, तकलीफ कैसी! शाही मेहमान को तकलीफ कैसे हो सकती है! आप मेजबान, आप “होस्ट’, तकलीफ कैसे हो सकती है! हम बड़े आनंद में हैं। झोपड़े से महल में ले आए। उस सम्राट ने कहा, मजाक तो नहीं करते हो? उस फकीर ने कहा, जिंदगी को मजाक समझा, इसीलिए ऐसा कह पाते हैं। तो उसने कहा कि जंजीरें बहुत बोझिल तो नहीं हैं? ये जंजीरें कोई पीड़ा तो नहीं देतीं? तो उस फकीर ने जंजीरों को गौर से देखा और उसने कहा कि मुझसे बहुत दूर हैं। मेरे और इन जंजीरों के बीच बड़ा फासला है। सो तुम इस भ्रम में होओगे कि तुमने मुझे कारागृह में डाला, लेकिन मेरी मुक्ति को तुम कारागृह नहीं बना सकते, क्योंकि मैं कारागृह को भी मुक्ति बना सकता हूं।

इस पर ही सब निर्भर करता है कि हम कैसे देखते हैं। उस फकीर ने कहा, बड़ा फासला है इन जंजीरों में और मुझमें। तुम कैसे मुझ पर जंजीरें डालोगे? मंसूर को सूली दी गई और मंसूर के हाथ-पैर काटे गए और लाखों लोग देखने इकट्ठे थे, लेकिन मंसूर हंसता ही रहा, और उसकी हंसी बढ़ती ही गई। जब उसके पैर काटे, तब वह जितना हंस रहा था, जब हाथ काटे तब और जोर से हंसने लगा। लोगों ने पूछा कि पागल मंसूर, यह कोई हंसने की घड़ी है? मंसूर ने कहा कि मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तुम समझ रहे हो कि मुझे मार रहे हो, और तुम किसी और को काटे जा रहे हो! याद रखना, मंसूर ने कहा, कि मंसूर को जब तुम काट रहे थे तब वह हंस रहा था। ध्यान रखना कि तुम मंसूर को छू भी नहीं सकते हो, काटना तो बहुत दूर की बात है। और तुम जिसे काट रहे हो, वह मंसूर नहीं है। मंसूर तो वही है जो हंस रहा है। तब तो जो जल्लाद उसको काट रहे थे, जो उसके दुश्मन उसे काट रहे थे उन्होंने कहा कि कैसे हंसता है हम देखें, उन्होंने जीभ काट दी मंसूर की, लेकिन तब मंसूर की आंखें हंस रही थीं। इन लाखों लोगों ने कहा, जीभ तो तुमने काट दी, लेकिन मंसूर हंस रहा है, उसकी आंखें हंस रही हैं। उन जल्लादों ने उसकी आंखें फोड़ दीं। लेकिन मंसूर का चेहरा हंसता रहा। उसका रोआं-रोआं हंस रहा था। लोगों ने का तुम इसको न रुला सकोगे। अब इस आदमी के पास काटने को भी कुछ नहीं बचा, लेकिन उसका पूरा अस्तित्व हंस रहा है।

जीवन वैसा ही हो जाता है, जैसे हम हैं। जन्म वैसा ही हो जाता है, जैसे हम हैं। मृत्यु वैसी ही हो जाती है, जैसे हम हैं। यदि हम मुक्ति हैं, तो जन्म मुक्ति है, जीवन मुक्ति है, मृत्यु मुक्ति है। यदि हम बंधे हैं, पाश में पशु हैं, तो जन्म बंधन है, जीवन बंधन है, प्रेम बंधन है, मृत्यु बंधन है, सब बंधन है। परमात्मा भी तब एक बंधन की तरह ही दिखाई पड़ता है।

“पहले एक चर्चा में आपने कहा था कि पुरुष में साठ प्रतिशत पुरुष और चालीस प्रतिशत स्त्री, तथा स्त्री में साठ प्रतिशत स्त्री और चालीस प्रतिशत पुरुष होता है। यदि दोनों शक्तियों का पचास-पचास प्रतिशत अनुपात हो जाए, तो क्या वह शक्ति नपुंसक होगी? और परमात्मा को अर्द्धनारीश्वर क्यों कहा है?’

मैंने ऐसा नहीं कहा था कि साठ और चालीस का अनुपात होता है, उदाहरण के लिए कहा। अनुपात बहुत हो सकते हैं। सत्तरत्तीस भी हो सकता है, अस्सी-बीस भी हो सकता है, नब्बे-दस भी हो सकता है, इक्यावन-उनचास भी हो सकता है। और पचास-पचास भी हो सकता है। और जब पचास-पचास होता है, तभी “एसेक्सुअलिटी’ पैदा हो जाती है। तभी वह व्यक्ति यौन की दृष्टि से द्वंद्व के बाहर हो जाता है, जिसको हम नपुंसक या “इम्पोटेंट’ कह रहे हैं।

यह बड़े मजे की बात है कि इस मुल्क ने ब्रह्म शब्द को नपुंसकलिंग में रखा है। ब्रह्म पुरुष है कि स्त्री? नहीं, ब्रह्म “इम्पोटेंट’ है। वह जो कि “ऑमनीपोटेंट’ है, वह जो कि सर्वशक्तिमान है, उसको हमने जो लिंग रखा है वह नपुंसकलिंग में रखा है। क्योंकि वह कैसे स्त्री हो सकता है, वह पक्ष हो जाएगा। वह कैसे पुरुष हो सकता है, वह पक्ष हो जाएगा। वह निष्पक्ष है। निष्पक्ष है, तो वह पचास-पचास दोनों पूरा है, तभी निष्पक्ष हो सकता है। अर्द्धनारीश्वर की कल्पना ब्रह्म की कल्पना है। उसमें नारीत्व और पुरुषत्व आधा-आधा है। वह दोनों है एकसाथ। क्योंकि वह दोनों नहीं है। अगर पुरुष है तो स्त्रीत्तत्व का इस जगत में कहां से आविर्भाव होगा? अगर वह स्त्री है, तो पुरुषत्तत्व कहां से आएगा, कहां से शुरू होगा, कहां से पैदा होगा? वह दोनों ही है। एकसाथ दोनों है। इसलिए दोनों को पैदा कर पाता है।

और हम जब तक स्त्री-पुरुष हैं, तब तक हम परमात्मा के टूटे हुए दो हिस्से हैं। इसलिए स्त्री-पुरुष का आपसी आकर्षण एक होने का आकर्षण है। स्त्री-पुरुष का आकर्षण पूरा होने का आकर्षण है। वह आधे-आधे हैं। अर्द्धनारीश्वर की हमारी कल्पना और हमारी प्रतिमा बड़ी अनूठी है। दुनिया ने बहुत प्रतिमायें बनाई हैं, लेकिन अर्द्धनारीश्वर में जो बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य है, उसका कोई मुकाबला नहीं है। अर्द्धनारीश्वर में हम इतना ही कह रहे हैं कि परमात्मा दोनों हैं, एक-साथ, और पूरा है। एक पहलू उसका स्त्रैण है, एक पहलू उसका पुरुष है। या ऐसा कहें कि वह दोनों का सम्मिलन है, दोनों का मध्य है; दोनों का “बियांड’ है, दोनों का पार है।

यह जो मैंने कहा कि परमात्मा को, ब्रह्म को, यह जो मध्य की स्थिति है, जीसस ने एक बहुत अच्छा शब्द उपयोग किया है, “यूनचेज़ ऑफ गॉड’। जीसस ने कहा है कि जिसे प्रभु को पाना है, उसे प्रभु के लिए नपुंसक हो जाना पड़ेगा। बड़ी अजीब बात कही है। पर कही बिलकुल ठीक है। जिसे प्रभु को पाना है, उसे प्रभु जैसा होना ही पड़ेगा। इसलिए बुद्ध अपनी पूरी गरिमा में, या कृष्ण अपनी पूरी गरिमा में न स्त्री हैं, न पुरुष हैं। अपनी पूरी गरिमा में वे दोनों हैं। अपनी पूरी गरिमा में वे मिश्रित हैं। अपनी पूरी गरिमा में एक अर्थ में वे “ट्रांसेंडेंटल सेक्स’ हैं, वे पार हो गए दोनों द्वंद्वों के और दोनों के बाहर हो गए। लेकिन हमारे बीच द्वंद्व है। मात्राओं का द्वंद्व है।

और जो उन्होंने पूछा कि जो हमारे बीच “थर्ड सेक्स’ पैदा होता है कभी, उसका क्या कारण है? उसका वही कारण है। अगर उसके भीतर “फिजियोलाज़िकली’, शारीरिक तल पर दोनों तत्व समान रह गए, तो उसका लिंग विकसित नहीं हो पाता किसी भी दिशा में। उसकी जाति ठीक से विकसित नहीं हो पाती। दोनों बराबर समतुल शक्तियां एक-दूसरे को काट जाती हैं। यह भी संभव हो गया है, पहले तो कभी-कभी आकस्मिक होता था कि कोई स्त्री बाद के जीवन में पुरुष हो गई, या कोई पुरुष बाद में स्त्री हो गया।

लंदन में पीछे एक बड़ा मुकदमा चला। और सनसनीखेज मुकदमा था। और मुकदमा यह था कि एक लड़की और एक लड़के का विवाह हुआ, लेकिन विवाह के बाद वह लड़की जो थी वह लड़का हो गई। और अदालत में जो मुकदमा था वह यह था कि उस लड़की ने धोखा दिया, वह लड़का थी ही। बड़ी कठिनाई हुई इस मुकदमे में। उस लड़की का तो कहना था, वह लड़की थी, और वह विकास उसमें बाद में हुआ है। लेकिन तब तक विज्ञान इस संबंध में बहुत साफ नहीं था। लेकिन अभी इधर बीस-पच्चीस वर्षों में विज्ञान बहुत साफ हुआ। और घटनाएं बहुत तरह की घटी हैं, जिनमें “सेक्स’-रूपांतरण हुआ, जिनमें कोई पुरुष स्त्री हो गया, कोई स्त्री पुरुष हो गई। अगर यह “मार्जिनल केसेज’ हैं, अगर उन्चास और इक्यावन का “मार्जिन’ है, तो बदलाहट कभी भी हो सकती है। थोड़े-से “केमिकल’ फर्कों से बदलाहट हो सकती है। और अब, अब तो बहुत सुविधापूर्ण हो गई है बात और भविष्य में बहुत ज्यादा दिन नहीं हैं कि कोई आदमी जिंदगी भर पुरुष रहने का ही कष्ट भोगे, या कोई स्त्री जिंदगी भर स्त्री रहने के ही चक्कर में रहे। इसमें बदलाहट कभी भी की जा सकती है। यह “सेक्स’ जो है, यह रूपांतरित हो सकेगा, क्योंकि उसके “केमिकल’ सूत्र सारे खयाल में आ गए हैं कि अगर एक “केमिकल’ की मात्रा बढ़ा दी जाए व्यक्तित्व के शरीर में, “हारमोन्स’ बदल दिए जाएं, तो उस व्यक्तित्व में स्त्री प्रगट हो सकती है–फिर पुरुष स्त्री हो सकता है, स्त्री पुरुष हो सकती है।

स्त्री और पुरुष एक ही तरह के व्यक्ति हैं, सिर्फ मात्राओं के फर्क हैं उनमें कुछ। उन मात्राओं के कारण सारी-की-सारी बात है।

अर्द्धनारीश्वर इस बात की सूचना है कि विश्व का मूलस्रोत न तो स्त्री है न तो पुरुष है। वह दोनों एकसाथ हैं। लेकिन क्या मैं आपसे यह कहूं कि वह जो “इम्पोटेंट’ हैं, नपुंसक है, वह परमात्मा के ज्यादा निकट पहुंच जाएगा? यह मैं नहीं कह रहा हूं। परमात्मा दोनों हैं और नपुंसक दोनों नहीं हैं।

इस फर्क को आप खयाल में ले लेना।

परमात्मा दोनों हैं एकसाथ, और जिसे हम नपुंसक कहें, वह दोनों नहीं है। नपुंसक हमारा सिर्फ अभाव है, “एब्सेंस’ है। और परमात्मा भाव है, “प्रेजेंस’ है। परमात्मा में स्त्री और पुरुष दोनों हैं। इसलिए अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा है, उसमें आधी स्त्री है, आधा पुरुष है। हम परमात्मा को नपुंसक जैसा भी बना सकते थे, जिसमें न स्त्री होती, न पुरुष होता; लेकिन वह अभाव होता। परमात्मा दोनों का भाव है, दोनों की “पाज़िटिविटी’ है। और जिसे हम नपुंसक कहते हैं, वह बेचारा दोनों का अभाव है। उसके पास कोई व्यक्तित्व नहीं है, इसलिए उसकी पीड़ा का कोई अंत नहीं है। इसलिए जब जीसस कहते हैं, “यूनचेज़ ऑफ गॉड, तब वह बिलकुल कह रहे हैं कि परमात्मा में, परमात्मा के लिए वे न स्त्री रह जाएं, न पुरुष हो जाएं; और तब वे दोनों रह जाएंगे, दोनों हो जाएंगे।

“जैन-शास्त्रों में क्यों कहा है कि स्त्रियों के लिए मोक्ष नहीं है?’

बात जरा बदल जाएगी। एक सवाल छोटा-सा पूछा है। बात बदल जाएगी, इसलिए थोड़े में करें, फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे। पूछा है कि जैन-शास्त्रों में क्यों कहा है कि स्त्रियों के लिए मोक्ष नहीं है। उसका कारण है कि जैन-शास्त्र पुरुष-चित्त के द्वारा निर्मित शास्त्र हैं। जैन-साधना पुरुष-साधना है। जैन-साधना की पूरी प्रक्रिया “एग्रेसिव’ है, आक्रामक है। और इसलिए जैन-शास्त्र सोच नहीं सकता कि स्त्री को कैसे मोक्ष हो सकता है? अगर कृष्ण के भक्त से हम पूछें तो वह बहुत मुश्किल में पड़ेगा! वह कहेगा, स्त्री के सिवाय और किसी का मोक्ष हो ही कैसे सकता है! पुरुष का मोक्ष होगा कैसे! क्योंकि कृष्णभक्त अगर पुरुष भी हैं, तो अपने को स्त्री बनाकर कृष्ण के प्रेम में पड़ता है। मीरा जब गई वृंदावन और वहां के मंदिर में प्रवेश पर उस पर रोक लगाई गई, क्योंकि प्रवेश में, उस मंदिर में जो पुजारी था वह स्त्रियों को नहीं देखता था। और जब मीरा को रोका तो मीरा ने कहा, एक सवाल उन पुजारी से पूछ लो कि क्या कृष्ण के अलावा और कोई पुरुष भी है? और कृष्ण के पुजारी होकर अभी तक पुरुष बने हुए हो? तो उस पुजारी ने कहा, उसको आने दो। मेरी भूल मुझे पता चल गई, मैं गलती में था। तो कृष्ण के आसपास तो “पैसिव’, समर्पण, “सरेंडर’, वह जो स्त्री का चित्त है वह।

महावीर के आसपास पुरुष-चित्त की गति है। महावीर स्वयं पुरुष-चित्त के साधक हैं। उनकी सारी साधना पुरुष-चित्त की साधना है, इसलिए महावीर सोच भी नहीं सकते, मान भी नहीं सकते कि स्त्री मोक्ष जा सकती है। तो महावीर की परंपरा में स्त्री को थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़े, उसे एक पर्याय और लेनी पड़े, एक बार पुरुष होना पड़े, फिर ही वह जा सकती है। और मैं मानता हूं कि इसमें गलती नहीं है। अगर महावीर की ही साधना करनी हो तो दुनिया में कोई स्त्री नहीं कर सकती। स्त्रैण-चित्त ही महावीर की साधना नहीं कर सकता। सिर्फ पुरुष-चित्त ही कर सकता है। और अगर पुरुष चित्त की साधना करनी हो, तो कृष्ण के साथ बहुत कठिनाई है। हो नहीं सकती। पुरुष-चित्त का कृष्ण से तालमेल नहीं बैठेगा।

ये हमारे जो दो चित्त हैं, इन दो चित्तों पर सब कुछ निर्भर करता है।

फिर कल सुबह बात करेंगे।

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कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–99

March 1, 2015, 3:04 am

कैवल्‍य–(प्रवचन—उन्‍नीसपवां)

योग—सूत्र—

(कैवल्‍यपाद)

विशेषदर्शिन आत्मभावभाबनाविनिवृत्तिः।।25।।

जब व्यक्ति विशेष को देख लेता है, तो उसकी आत्मभाव की भावना मिट जाती है।

 तदा विवेकनिम्नं कैबल्यप्राग्भारं चित्तम्।।28।।

तब विवेक उन्‍मुख चित्त कैबल्य की ओर आकर्षित हो जाता है।

तच्छिद्रेषु प्रत्‍ययान्‍तरणि संस्कारेंभ्‍य:।। 27।।

पूर्व के संस्कारों के बल के माध्यम से विवेक ज्ञान के अंतराल में अन्य प्रत्ययों, अवधारणाओं का उदय होता है। इनका निराकरण भी अन्य मनस्तापों की भांति किया जाना चाहिए।

हानमेषां क्लेशवदुक्तम्।।28।।

उन प्रत्ययों, अवधारणाओं से निवृत्त हो जाना क्लेशों से निवृत्ति के समान कहा गया है।

प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघ: समाधि:।। 129।।

वह जिसमें समाधि की सर्वोच्च अवस्थाओं के प्रति भी इच्छारहितता का सातत्य बना हुआ है और जो विवेक के चरम का प्रवर्तन करने में समर्थ है, उस अवस्था में प्रविष्ट हो जाता है जिसे धर्ममेध समाधि कहा जाता है।

तत: क्‍लेशकर्मनिवृत्ति:।। 130।।

तब क्लेशों एवं कर्मों से मुक्ति हो जाती हैं।

तदा सर्वावरणमलापेतस्‍य ज्ञानस्‍यानन्‍त्‍याज्‍वेयमल्‍पम्‍ ।। 131।।

जब सभी मल रूप आवरण, विकृतियां और अशुद्धियां हट जाती हैं, तब वह सभी कुछ जो मन से जाना जा सकता है, समाधि से प्राप्त असीम ज्ञान की तुलना मे अत्यल्प हो आता है।

तत: कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्‍तिर्गुणानाम्‍ ।। 132।।

अपने उद्देश्‍य को परिपूर्ण कर लिए जाने के कारण तीनों गुणों में परिवर्तन की प्रक्रिया समाप्‍त हो जाती है।

क्षणप्रतियोगीपरिणामापरान्‍तनिर्ग्राह्म: क्रम:।। 133।।

कैवल्‍य समाधि की अवस्था है, जो पुरुषार्थ से शून्य हुए गुणों के अपने कारण में लीन होने पर उपलब्ध होती है। इस अवस्था में पुरुष अपने यथार्थ स्वरूप में, जो शुद्ध चेतना है, प्रतिष्ठित हो जाता है। समाप्त।

पहला सूत्र:

विशेषदर्शिन आत्मभावभावनाविनिवृत्ति:।

‘जब व्यक्ति विशेष को देख लेता है, तो उसकी आत्मभाव की भावना मिट जाती है।’

बुद्ध ने चेतना की परम अवस्था को अनत्ता—स्व का न होना, अन—अस्तित्व कहा है। इसको समझाना बहुत कठिन है। बुद्ध ने कहा : छोड़ देने के लिए अंतिम इच्छा है—होने की इच्छा’। लाखों इच्छाएं होती हैं। यह सारा संसार और कुछ नहीं बल्कि चाही गई चीजें हैं, लेकिन बुनियादी इच्छा है—होने की इच्छा। आधारभूत इच्छा है अपने अस्तित्व का सातत्य बने रहना, कायम रहना, बना रहना। मृत्यु सबसे बड़ा भय है; अंत में छोड़ने वाली इच्छा है—होने की इच्छा।

इस सूत्र में पतंजलि कहते हैं : जब तुम्हारी सजगता पूर्ण हो गई है, जब विवेक, भेद करने की क्षमता उपलब्ध कर ली गई है, जब तुम साक्षी हो चुके हो, चाहे कुछ भी घटित होता हो तुम्हारे भीतर या तुम्हारे बाहर तुम इसके शुद्ध साक्षी हो गए हो।… अब तुम कर्ता न रहे, तुम बस देख रहे हो; बाहर पक्षी गीत गा रहे हैं.. .तुम देखते हो, भीतर रक्त परिसंचरित हो रहा है.. .तुम देखते हो; भीतर विचार चल रहे हैं.. .तुम देखते हो—तुम कहीं भी तादात्म्य नहीं करते। तुम नहीं कहते, मैं शरीर हूं तुम नहीं कहते, मैं मन हूं तुम कुछ भी नहीं कहते। तुम किसी वस्तु से तादात्म्य किए बिना बस देखते चले जाते हो। तुम—एक शुद्ध कर्ता बने रहते हो; तुमको बस एक ही बात स्मरण रहती है कि तुम द्रष्टा हो, साक्षी हो—जब यह साक्षित्व स्थापित हो जाता है, तब होने की इच्छा मिट जाती है।

और जिस पल होने की इच्छा मिट जाती है, मृत्यु भी मिट जाती है। मृत्यु का अस्तित्व है, क्योंकि तुम बने रहना चाहते हो। मृत्यु का अस्तित्व है, क्योंकि तुम मरने को तैयार नहीं हो। मृत्यु का अस्तित्व है, क्योंकि तुम समग्र के विरोध में संघर्ष कर रहे हो। जिस क्षण तुम मरने को तैयार हो, मृत्यु अर्थहीन हो जाती है, अब यह संभव नहीं हो सकती है। जब तुम मरने को राजी हो, तो तुम मर कैसे सकते हो? मर जाने की, मिट जाने की उस तैयारी में ही मृत्यु की सारी संभावना का अतिक्रमण हो जाता है। धर्म का विरोधाभास यही है।

जीसस कहते हैं. ‘यदि तुम अपने आप से आसक्त होने जा रहे हो, तो तुम अपने आप को खो दोगे। यदि तुम अपने आप को पाना चाहते हो, तो आसक्त मत होओ।’ वे लोग जो होने का प्रयास करते हैं, विनष्ट हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि कोई तुमको नष्ट करने के लिए वहां है; होने का तुम्हारा प्रयास ही विनाशक है, क्योंकि जिस क्षण यह विचार उठता है, मुझको बने रहना चाहिए, तुम समग्र के विरोध में जा रहे हो। यह ऐसा है जैसे कि एक लहर सागर के विरोध में होने का प्रयास कर रही हो। अब यह प्रयास ही चिंता और पीडा निर्मित करने जा रहा है, और एक क्षण आएगा जब लहर को खो जाना पड़ेगा। लेकिन अभी, क्योंकि लहर सागर के विरुद्ध संघर्षरत थी, तो यह खो जाना मृत्यु जैसा प्रतीत होगा। यदि लहर तैयार थी, और लहर सजग थी, मैं सागर हूं और कुछ नहीं, तो बने रहने में क्या सार है? मैं सदा से थी और मैं सदा रहूंगी, क्योंकि सागर तो सदा वहां था और सदैव रहेगा। मैं लहर की भांति न रहूं—लहर वह रूप है जो मैंने इस समय लिया हुआ है; रूप मिट जाएगा, लेकिन मेरा तत्व नहीं मिटेगा। मैं इस लहर की भांति अस्तित्व में न रहूं; मेरा अस्तित्व किसी दूसरी लहर के रूप में बना रह सकता है, या हो सकता है कि मेरा अस्तित्व लहर के रूप में रहे ही न। मैं सागर की उन अतल गहराइयों में समा सकती हूं जहां कोई लहर ही नहीं उठती है.. .लेकिन अंतर्तम वास्तविकता बनी रहेगी, क्योंकि समग्र तुममें उतर आया है। तुम और कुछ नहीं बल्कि समग्र हो, समग्र की एक अभिव्यक्ति हो।

एक बार सजगता स्थायी हो जाए, पतंजलि कहते हैं, जब व्यक्ति ने इस विभेद को देख लिया है कि मैं न यह हूं न वह, जब व्यक्ति सजग हो गया है, और चाहे जो कुछ भी हो उसके साथ उसने तादात्म्य नहीं किया है, तब उसकी आत्मभाव की, स्व की भावना मिट जाती है। तब अंतिम इच्छा भी खो जाती है, और यह अंतिम इच्छा तुम्हारी आधारभूत है। इसलिए बुद्ध कहते हैं, ‘तुम धन, संपदा, शक्ति, प्रतिष्ठा, सभी कुछ की चाहत छोड़ सकते हो—यह कुछ भी नहीं है। तुम संसार की चाहत छोड़ सकते हो—यह कुछ भी नहीं है—क्योंकि ये सभी द्वितीयक इच्छाएं हैं। मूलभूत इच्छा है, होना। इसलिए वे लोग जो संसार छोड़ देते हैं मुक्ति की अभिलाषा करना आरंभ कर देते हैं, लेकिन यह मुक्ति भी उनकी मुक्ति है। मोक्ष में वे मुक्त अवस्था में रहेंगे। उनकी इच्छा है कि वहां पीड़ा को नहीं होना चाहिए। वे परम आनंद में होंगे लेकिन वे होंगे। जोर इस बात पर है कि उनको वहां होना चाहिए।

इसी कारण से बुद्ध इस देश में जड़ें नहीं जमा सके, जो अपने आप को बहुत धार्मिक समझता है। इस पृथ्वी पर जन्मा सबसे धार्मिक व्यक्ति इस धार्मिक देश में जड़ें नहीं जमा सका। क्या हो गया? उन्होंने कहा, उन्होंने होने की मूलभूत इच्छा को छोडने पर जोर दिया। उन्होंने कहा : अन—अस्तित्व हो जाओ। उन्होंने कहा। होओ मत। उन्होंने कहा. मुक्ति की मांग मत करो, क्योंकि यह स्वतंत्रता तुम्हारे लिए नहीं है। यह स्वतंत्रता तुमसे मुक्ति होने जा रही है, तुम्हारे लिए नहीं वरन तुमसे स्वतंत्रता।

मुक्ति है तुमसे मुक्ति। विभेद को देख लो. यह तुम्हारे लिए नहीं है; मुक्ति तुम्हारे लिए नहीं है। ऐसा नहीं है कि मुक्त होकर तुम रहोगे। मुक्त होकर तुम मिट जाओगे। बुद्ध ने कहा केवल बंधन का आस्तित्व है। यह बात मैं तुमको समझाता हूं।

क्या तुम —कभी स्वास्थ्य के संपर्क में आए हो? अनेक बार तुम स्वस्थ रहे होओगे, किंतु क्या तुम कह सकते हो कि स्वास्थ्य क्या है? केवल बीमारी का अस्तित्व होता है। स्वास्थ्य का अस्तित्व नहीं है; तुम नहीं बता सकते कि स्वास्थ्य कहां है। यदि तुमको सिरदर्द है तब तुम जान लेते हो कि यह वहां है, लेकिन क्या तुमने सिरदर्द की अनुपस्थिति को कभी जाना है? वस्तुत: यदि सिरदर्द न हो तो सिर खो जाता है। तुमको इसकी अनुभुति नहीं होती। यदि तुमको अपने सिर की अनुभूति सतत होती रहती है, इसका सीधा अर्थ है कि भीतर किसी विशेष प्रकार का तनाव, एक विशेष तनावग्रस्तता, एक दवाब होना चाहिए। वहां लगातार एक विशेष प्रकार का सिरदर्द बना रहना चाहिए। यदि तुम्हारा सारा शरीर स्वस्थ है, तो शरीर का अनुभव खो जाता है। तुम भूल जाते हो कि शरीर है। झेन में, जब ध्यान करने वाले कई वर्षों तक बैठा करते हैं, बस बैठे रहते हैं और कुछ नहीं करते, फिर एक ऐसा क्षण आता है जब वे भूल जाते हैं कि उनके पास शरीर भी है। यह उनकी पहली सतोरी है। ऐसा नहीं कि शरीर नहीं है; शरीर वहां है, लेकिन उसमें कोई तनाव नहीं है, तो उसका अनुभव कैसे हो? यदि मैं कुछ कहूं तो तुम मुझको सुन सकते हो, लेकिन यदि मैं चुप हूं तब तुम मुझे कैसे सुन सकते हो? मौन है—तुमसे कहने के लिए बहुत कुछ है—लेकिन मौन को सुना नहीं जा सकता। कभी—कभी जब तुम कहते हो, हां, मैं मौन को सुन सकता हूं तब तुम किसी शोर को सुन रहे हो। हो सकता है कि यह अंधेरी रात का शोर हो, लेकिन फिर भी यह शोर है। यदि यह परिपूर्ण मौन हो तो तुम इसको सुन न पाओगे। जब तुम्हारा शरीर पूर्णत: स्वस्थ होता है, तुम्हें इसका अनुभव नहीं होता। यदि शरीर में कोई तनाव, कोई बीमारी, कोई रोग उठ खड़ा होता है, तब तुम शरीर को सुनना आरंभ कर देते हो। यदि सभी कुछ लयबद्धता में है और कोई दर्द, कोई पीड़ा नहीं है, तब अचानक तुम रिक्त हो। एक ना—कुछपन तुमको आच्छादित कर लेता है।

कैवल्य परम स्वास्थ्य है, समग्रता है, सारे घाव ठीक हो जाना है। जब सभी घाव ठीक हो गए हैं तो तुम कैसे बने रहोगे? तुम्हारा स्व और कुछ नहीं बल्कि तनावों का संचय है। यह स्व और कुछ नहीं बल्कि बीमारियों, रोगों को सारी विविधता है। यह स्व और कुछ नहीं है, अतृप्त इच्छाएं, हताश आशाएं, अपेक्षाएं, सपने—सभी टूट हुए, छिन्न—भिन्न। यह जिसको तुम स्व कहते हो और कुछ नहीं बल्कि संचित रुग्णता है। या इसको दूसरे ढंग सै समझ लो : जब समस्वरता के क्षण होते हैं तब तुम भूल जाते हो कि तुम हो। शायद बाद में तुम याद कर पाओ कि यह कितना सुंदर क्षण था। कितना आह्लादकारी था यह कितना आनंददायक था यह क्षण। लेकिन वास्तविक आह्लाद के क्षणों में, तुम वहां नहीं होते हो। तुमसे बड़ी किसी सत्ता ने तुम पर आधिपत्य कर लिया होता है, तुमसे श्रेष्ठ किसी शक्ति ने तुम पर स्वामित्व कर लिया होता है, तुमसे गहरी कोई चीज उभर आई है। तुम खो चुके हो। प्रेम के गहरे क्षणों में, प्रेम करने वाले विलीन हो जाते हैं। मौन के गहरे क्षणों में ध्यान करने वाले मिट जाते हैं। गायन, नृत्य, उत्सव के गहन क्षणों में उत्सव मनाने वाले खो जाते हैं। और यह तो अंतिम उत्सव है, परम उच्चतम शिखर—कैवल्य है।

पतंजलि कहते हैं. ‘बने रहने की इच्छा वी खो जाती है। आत्मभाव की भावना भी मिट जाती है।’ व्यक्ति इतना परितृप्त होता है, इतना आत्यंतिक रूप से परितृप्त हो जाता है कि वह होने के बारे में कभी सोचता तक नहीं है। किसलिए सोचेगा वह?—तुम कल भी बने रहना चाहते हो क्योंकि आज अतृप्त हो। आने वाले कल की आवश्यकता है; अन्यथा तुम अतृप्त मर जाओगे। बीता हुआ कल एक गहन हताशा था; आज भी पुन: एक हताशा है; आने वाले कल की आवश्यकता है। एक हताश हो चुका मन भविष्य निर्मित करता है। हताश मन भविष्य से चिपक जाता है। हताश मन बना रहना चाहता है, क्योंकि यदि मृत्यु आ जाए तो कोई फूल नहीं खिला है। अभी तक कुछ भी नहीं हो पाया है, वहां केवल एक व्यर्थ की प्रतीक्षा रही है : ‘मैं अभी कैसे मर सकता हूं? मैं तो अभी जीया तक नहीं हूं। यह अनजिया जीवन बने रहने की चाह उत्पन्न करता है।

लोग मृत्यु से इतना अधिक भयभीत हैं, ये वे ही लोग हैं जो जीए नहीं हैं। ये वे लोग हैं जो एक अर्थ में मरे ही हुए हैं। एक व्यक्ति जो जीया है और पूरी तरह से जीया है, मृत्यु के बारे में सोच—विचार नहीं करता। यदि यह आती है, अच्छा है, वह स्वागत करेगा। उसको भी जीएगा वह, वह उसका भी उत्सव मना लेगा। जीवन ऐसा आशीष, ऐसा वरदान रहा है कि वह मृत्यु को स्वीकार करने के लिए तैयार है। जीवन एक ऐसा अतिशय अनुभव रहा है कि व्यक्ति मृत्यु के अनुभव के लिए भी तैयार है। वह भयभीत नहीं है, क्योंकि आने वाले कल की आवश्यकता न रही, आज ही इतना अधिक तृप्तिदायी रहा है। वह खिल गया है, पुष्पित हो गया है, उसमें फल आ चुके हैं। अब आने वाले कल की इच्छा खो जाती है। कल की अभिलाषा सदैव भय के कारण होती है, भय है क्योंकि प्रेम अभी तक घटित ही नहीं हो पाया है। सदैव बने रहने की अभिलाषा बस यही प्रदर्शित करती है कि कहीं गहरे में तुम अपने आप को पूरी तरह से अर्थहीन अनुभव कर रहे हो। तुम किसी अर्थ की प्रतीक्षा में हो। एक बार वह अर्थ घटित हो जाए तुम मरने के लिए तैयार हो—शांतिपूर्ण ढंग से, सुंदरता के साथ, आशीषमय होकर।

‘कैवल्य’ पतंजलि कहते हैं : ‘घटता है, जब बने रहने की अंतिम इच्छा भी खो जाती है।’ सारी समस्या यही है कि बना रहूं या नहीं। सारे जीवन भर हम यह और वह करने का प्रयास करते रहते हैं, और वह परम केवल तभी घट सकता है जब तुम नहीं होते हो।

‘जब व्यक्ति विशेष को देख लेता है, तो उसकी आत्मभाव की भावना मिट जाती है।’

यह आत्म— भाव और कुछ नहीं बल्कि अहंकार का सर्वाधिक परिशुद्ध रूप है। यह तनाव, दवाब, खिंचाव का अंतिम शेषांश है। अभी भी तुम पूर्णत: खुले हुए नहीं हो, अभी भी कुछ बंद है। जब तुम पूरी तरह से खुले हुए हो, बस शिखर पर खड़े द्रष्टा, साक्षी हो, तब अंतिम इच्छा भी खो जाती है। इस इच्छा के खोने से जीवन में कुछ नितांत नया घटित हो जाता है। एक नया नियम कार्य करना आरंभ कर देता है।

गुरुत्वाकर्षण के नियम के बारे में तुमने सुना होगा; तुमने प्रसाद के नियम के बारे मे नहीं सुना होगा। गुरुत्वाकर्षण का नियम यह है कि प्रत्येक वस्तु नीचे की ओर गिरती है। प्रसाद का नियम यह है कि वस्तुएं ऊपर की ओर गिरना आरंभ कर देती हैं। और यह नियम होना ही चाहिए क्योंकि जीवन में प्रत्येक बात को. उसके विपरीत द्वारा संतुलित कर दिया जाता है। विज्ञान ने गुरुत्वाकर्षण का नियम खोज लिया : बाग में बेंच पर बैठे न्यूटन ने एक सेब गिरते हुए देखा—यह हुआ हो या नहीं; यह बात नहीं हैं—लेकिन यह देख कर कि सेब नीचे गिर रहा था, उसके भीतर एक विचार उठा : वस्तुएं सदा नीचे की ओर ही क्यों गिरा करती हैं? और कुछ क्यों नहीं होता? पका हुआ फल ऊपर की ओर क्यों नहीं उछल जाता और आकाश में क्यों नहीं खो जाता है? इधर—उधर क्यों नहीं चला जाता? सदैव नीचे की ओर ही क्यों? उसने मनन और चिंतन आरंभ कर दिया, और तब उसने एक नियम की खोज की। वह एक बहुत आधारभूत नियम पर पहुंच गया : यह कि पृथ्वी वस्तुओं को अपनी ओर खींच रही है। इसका एक गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र है। चुंबक की भांति यह प्रत्येक वस्तु को नीचे की ओर खींचती है।

पतंजलि, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट—वे भी एक भिन्न आधारभूत नियम, गुरुत्वाकर्षण से उच्चतर नियम के प्रति सजग हो गए। उनको ज्ञात हुआ कि चेतना के भीतरी जीवन में एक ऐसा क्षण आता है जब चेतना ऊपर की ओर उठना आरंभ कर देती है—ठीक गुरुत्वाकर्षण की भांति। यदि सेब वृक्ष पर लटक रहा हो तो यह गिरता नहीं है। इसके नीचे न गिरने में वृक्ष इसकी सहायता करता है। जब फल वृक्ष को छोड़ देता है, तो यह नीचे गिर पड़ता है।

बिलकुल यही बात है : यदि तुम अपने शरीर से आसक्त हो रहे हो तब तुम ऊपर की ओर नहीं गिरोगे; यदि तुम अपने मन से आसक्त हो रहे हो तब तुम ऊपर की ओर नहीं गिरोगे। यदि तुम आत्मभाव की भावना से आसक्त हो तो गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में रहोगे—क्योंकि शरीर गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव क्षेत्र में है, और मन भी। मन सूक्ष्म शरीर है; शरीर स्थूल मन है। ये दोनों गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में हैं। और क्योंकि तुम उनसे आसक्त हो तो तुम गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में नहीं हो, बल्कि तुम किसी ऐसी वस्तु से आसक्त हो जो गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव क्षेत्र में है। यह इस प्रकार से है जैसे कि तुम एक बड़ी चट्टान उठाए हुए हो और नदी में तैरने का प्रयास कर रहे हो, वह चट्टान तुमको नीचे खींच लेगी, यह तुमको तैरने नहीं देगी। यदि तुम चट्टान को छोड़ दो तब तुम सरलता से तैर पाओगे।

हम किसी ऐसी चीज से आसक्त हो रहे हैं : शरीर, मन, जो गुरुत्वाकर्षण के नियम के आधीन कार्य कर रहा है। पतंजलि कहते हैं एक बार तुम जान गए कि तुम न देह हो और न ही मन, अचानक तुम ऊपर की ओर उठने लगते हो। आकाश में कहीं ऊंचाई पर स्थित कोई तुमको ऊपर खींच लेता है, इस नियम को ‘प्रसाद’ कहते हैं। तब परमात्मा तुमको ऊपर की ओर खींच लेता है। और इस प्रकार का नियम होना ही चाहिए, अन्यथा ‘गुरुत्वाकर्षण’ का अस्तित्व नहीं हो सकता। प्रकृति में यदि धनात्मक विद्युत का अस्तित्व है, तब ऋणात्मक विद्युत का भी अस्तित्व होना चाहिए। पुरुष का अस्तित्व है, तब स्त्री का अस्तित्व भी होना चाहिए। तर्क का अस्तित्व है, तब भाव का भी अस्तित्व होना चाहिए। रात्रि का अस्तित्व है, तब दिन का अस्तित्व भी होना चाहिए। जीवन का अस्तित्व है, तब मृत्यु का भी अस्तित्व होना चाहिए। प्रत्येक वस्तु को इसे संतुलित करने के लिए विपरीत की आवश्यकता होती है। अब विज्ञान एक नियम को जान चुका है : गुरुत्वाकर्षण। वितान को अभी भी गुरुत्वाकर्षण बल का एक और आयाम—ऊपर की ओर गिरने का आयाम—देने के लिए एक पतंजलि की आवश्यता है। तभी जीवन पूर्ण हो जाता है।

तुम ‘गुरुत्वाकर्षण’ और ‘प्रसाद’ का मिलन स्थल हो। तुम्हारे भीतर प्रसाद और गुरुत्वाकर्षण एक— दूसरे को काट रहे हैं। तुम अपने भीतर पृथ्वी का कुछ लिए हो और कुछ आकाश का। तुम वह क्षितिज हो जहां पृथ्वी और आकाश मिल रहे हैं। यदि तुम पृथ्वी को बहुत अधिक पकड़ लेते हो, तो तुम पूरी तरह से भूल जाओगे कि तुम आकाश से, अनंत ‘ अंतरिक्ष से, उस पार से संबंधित हो। एक बार तुम अपने पार्थिव भाग की पकड़ छोड़ दो, अचानक तुम ऊपर उठने लगते हो।

‘जब व्यक्ति विशेष को देख लेता है, तो उसकी आत्मभाव की भावना मिट जाती है।’

तदा विवेकनिम्न कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्।

‘तब विवेक उन्मुख चित्त कैवल्य की ओर आकर्षित हो जाता है।’

एक नया गुरुत्वाकर्षण कार्य करना आरंभ कर देता है। मुक्ति और कुछ नहीं बल्कि प्रसाद के प्रवाह में प्रविष्ट हो जाना है। तुम अपने आप को मुक्त नहीं कर सकते, तुम केवल अवरोधों का त्याग कर सकते हो; मुक्ति तुमको घटित होती है। क्या तुमने चुंबक को देखा है? लोहे के छोटे—छोटे टुकडे इसकी ओर खिंच जाते हैं। तुमको दिखाई पड़ सकता है कि वे छोटे— छोटे .लोहे के टुकड़े चुंबक की ओर दौड़ रहे हैं, लेकिन अपनी आंखों से धोखा मत खाओ। वास्तव में वे दौड़ नहीं रहे हैं, चुंबक उनको खींच रहा है। सतह पर ऐसा प्रतीत होता है कि लोहे के छोट—छोटे टुकडे चल रहे है, चुंबक की ओर जा रहे हैं। लेकिन ऐसा केवल सतह पर है। गहराई में कुछ ठीक विपरीत घटित हो रहा है, वे चुंबक की ओर नहीं जा रहे हैं, चुंबक उनको अपनी ओर खींच रहा है। वास्तव में यह चुंबक है जो उन तक पहुंचा है। चुंबकीय क्षेत्र के साथ इसने उनसे संपर्क किया है, उनको स्पर्श किया है, उनको खींच लिया है। यदि लोहे के ये छोटे—छोटे कण मुक्त हैं, किसी से बंधे हुए नही हैं—चट्टान में फंसे हुए नहीं हैं—तभी चुंबक उनको खींच सकता है। यदि वे किसी चट्टान में फंसे हुए हों, तो चुंबक उनको खींचता चला जाएगा, लेकिन वे खिंच न पाएंगे, क्योंकि वे फंसे हुए हैं।

ठीक—ठीक यही घटित होता है, एक बार तुमको विवेक द्वारा बोध हो जाए कि तुम शरीर नहीं हो, तो तुम चट्टान से अब नहीं बंधे रह सकते, अब तुम पृथ्वी के साथ बंधन में नहीं हो। तुरंत ही परमात्मा का चुंबक कार्य करना आरंभ कर देता है। ऐसा नहीं है कि तुम परमात्मा तक पहुंचते हो। वास्तव में परमात्मा तुम तक पहले ही पहुंच चुका है। तुम उसके चुंबकीय क्षेत्र में हो, किंतु किसी से आसक्त हो। इस आसक्ति को त्याग दो और तुम धारा में हो। बुद्ध एक शब्द प्रयोग किया करते थे. स्रोतापन्न, धारा में प्रविष्ट हो जाना। वे कहा करते थे, एक बार तुम धारा में प्रविष्ट हो जाओ, फिर वह धारा तुमको महासागर में ले जाती है। तब तुमको कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। एक मात्र बात है, धारा में कूद पड़ना। तुम किनारे पर बैठे ‘हुए हो। धारा में प्रविष्ट हो जाओ और तब धारा शेष कार्य कर लेगी। यह इस प्रकार से है कि तुम एक ऊंचे भवन पर खड़े हो, एक ऊंचे भवन की छत पर खड़े हो, पृथ्वी से तीन सौ फीट या पांच सौ फीट ‘ऊपर। तुम खड़े रहते हो, गुरुत्वाकर्षण तुम तक पहुँच गया है, लेकिन यह उस समय काम नहीं करेगा जब तक तुग्र छलाग न लगाओ। एक बार तुम कूद जाओ, फिर तुमको कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। बस छत से एक कदम आगे बढ़ाओ.. .बस पर्याप्त है; तुम्हारा कार्य समाप्त हो गया। अब गुरुत्वाकर्षण सारा कार्य कर लेगा। तुमको पूछने की आवश्यकता नहीं है, अब मुझको क्या करना चाहिए? तुमने पहला कदम उठा लिया है। पहला कदम ही अंतिम कदम है। कृष्णमूर्ति ने एक पुस्तक लिखी है. प्रथम और अंतिम मुक्ति। इसका अभिप्राय है : पहला कदम ही आखिरी कदम है—क्योंकि एक बार तुम धारा में आ जाओ, फिर शेष सभी कुछ धारा के द्वारा कर लिया जाएगा। तुम्हारी आवश्यकता नहीं है। केवल पहले कदम के लिए तुम्हारे साहस की आवश्यकता पड़ती है।

‘तब विवेक उन्मुख चित्त कैवल्य की ओर आकर्षित हो जाता है।’

तुम धीरे— धीरे ऊपर की ओर उठने लगते हो। तुम्हारी जीवन—ऊर्जा ऊपर ही ओर, उर्ध्व दिशा में गतिमान होना आरंभ हो जाती है। और जब ऐसा घटित होता है तो यह अविश्वसनीय है, क्योंकि तुमने अभी तक जितने भी नियम जाने हैं यह उन सभी के विरोध में है। यह गुरुत्वाकर्षण नहीं, ऊर्ध्वाकर्षण है। तुम्हारे भीतर कुछ, बस ऊपर की ओर जाना आरंभ कर देता है, और इसमें कोई अवरोध नहीं है। इसके रास्ते में कोई बाधा नहीं देता। बस थोड़ी सी विश्रांति, थोड़ी सी अनासक्ति—पहला कदम और फिर स्वत: सहजतापूर्वक तुम्हारी चेतना और—और विवेकपूर्ण और— और सजग हो जाती है।

मैं तुमसे एक और बात कहना चाहता हूं तुमने यह शब्द, यह कथन : ‘दुष्‍चक्र’ सुना होगा। हम एक नया शब्द गढ़ते हैं : पवित्र चक्र। दुष्‍चक्र में, एक बुरी बात किसी और बुरी बात पर ले जाती है। उदाहरण के लिए, यदि तुम क्रोधित हो जाते हो, तो एक क्रोध तुमको और अधिक क्रोध में ले जाता है, और निःसंदेह अधिक क्रोध तुमको और अधिक क्रोध में ले जाएगा। अब तुम एक दुष्‍चक्र में हो। प्रत्येक क्रोध तुम्हारी क्रोध की प्रवृत्ति को और सशक्त बनाएगा तथा और क्रोध निर्मित करेगा, तथा यह और क्रोध इस आदत को और भी सबल बना देगा और यह जारी रहेगा। तुम एक दुष्‍च्रक में घूमते हो, यह सबल और सशक्त और बलवान होता चला जाता है।

चलो हम एक नया शब्द प्रयोग करते हैं : पवित्र चक्र। यदि तुम सजग हो जाते हो, जिसको पतंजलि विवेक, बोध कहते हैं; यदि तुम सजग हो जाते हो, तो वैराग्य। विवेक से वैराग्य निर्मित होता है। यदि तुम सजग हो जाते हो, तो अचानक तुम देखते हो कि अब तुम शरीर न रहे। ऐसा नहीं है कि तुमने देह को त्याग दिया है, तुम्हारी सजगता से ही शरीर से आसक्ति का त्याग हो जाता है। यदि तुम सजग हो जाते हो तो तुमको बोध हो जाता है कि ये विचार तुम नहीं हो। उस सजगता में ही उन विचारों का त्याग हो जाता है। तुमने उनको छोड़ना आरंभ कर दिया है। तुम उनको और अधिक ऊर्जा नहीं देते हो; तुम उनके साथ सहयोग नहीं करते। तुम्हारा सहयोग समाप्त हो चुका है, और वे तुम्हारी ऊर्जा के बिना जी नहीं सकते। वे तुम्हारी ऊर्जा पर जीते हैं, वे तुम्हारा शोषण करते हैं। उनके पास अपनी स्वयं की ऊर्जा नहीं है। प्रत्येक विचार जो तुम्हारे भीतर प्रविष्ट होता है तुम्हारी ऊर्जा में भागीदारी करता है। और क्योंकि तुम अपनी ऊर्जा देने को तैयार हो, यह वहां रहता है, यह अपना घर वहीं बना लेता है।

निःसंदेह, फिर उसके बच्चे आते हैं, और मित्र, और संबंधी, और यह चलता चला जाता है। एक बार तुम थोडा सा सजग हो जाओ, विवेक वैराग्य ले आता है, सजगता त्याग लेकर आती है। और त्याग तुमको और सजग होने में समर्थ बना देता है। और निःसंदेह, और सजगता और वैराग्य और त्याग लेकर आती है, और इसी प्रकार यह श्रृंखला चलती चली जाती है।

यही है जिसको मैं पवित्र चक्र कहता हूं : एक पवित्रता दूसरी की ओर ले जाती है, और प्रत्येक पवित्रता पुन: और अधिक पवित्रता के उदय के लिए आधार प्रदान करती है।

पतंजलि कहते हैं : यह अंतिम क्षण तक जारी रहता है, जिसे वे धर्ममेघ समाधि कहते हैं। इस पर हम लोग बाद में चर्चा करेंगे। वे इसे ‘तुम पर बरसता हुआ पवित्रता का बादल’ कहते हैं। यह पवित्र चक्र वैराग्य की ओर ले जाता हुआ विवेक, और अधिक विवेक की ओर ले जाता वैसल, पुन: वैराग्य की और संभावनाएं उत्पन्न कुरता हुआ विवेक, और इसी भांति यह और— और आगे बढ़ता चला जाता है—पहुंच जाता है उस परम शिखर पर जब पवित्रता का बादल तुम पर बरसता है : धर्ममेघ समाधि।

‘पूर्व के संस्कारों के बल के माध्यम से विवेक ज्ञान के अंतराल में अन्य प्रत्ययों, अवधारणाओं का उदय होता है।’

फिर भी, यद्यपि वहां अनेक अंतराल होंगे। इसलिए हतोत्साहित मत हो जाओ। भले ही तुम बहुत सजग हो चुके हो और किन्ही क्षणों मे तुम अचानक एक खिंचाव, प्रसाद का ऊर्ध्वमुखी खिंचाव अनुभव करते हो, और किन्ही क्षणों में तुम धारा में होते हो; पूरे सौंदर्य के साथ, बिना प्रयास के, प्रयास शून्यता में बहते हुए होते हो, और सभी कुछ सहजता से चल रहा है, गतिमान है, फिर भी वहां कुछ अंतराल होते हैं। अचानक तुम स्वयं को, बस पुरानी आदतों के कारण, किनारे पर खड़ा हुआ पाते हो। अनेक जन्मों से तुम किनारे पर जीते रहे हो। पुरानी आदत के कारण बार—बार अतीत तुम पर हावी ही जाएगा। इससे हतोत्साहित मत हो जाना। जिस क्षण तुम देखते हो कि तुम फिर से किनारे पर आ गए हो, पुन: धारा में उतर जाओ। इसके बारे में उदास मत होओ, क्योंकि यदि तुम उदास हो जाते हो तो तुम पुन: दुष्‍चक्र में फंस जाओगे। इसके बारे में उदास मत हो जाओ। अनेक बार खोजी बहुत निकट पहुंच जाता है, आर अनेक बार वह पथ से च्युत हो जाता है। चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है, पुन: सजगता को ले आओ। अनेक बार यही होने जा रहा है; स्वाभाविक है यह। लाखों जन्मों से हम बेहोशी में जीते रहे हैं—यह स्वाभाविक ही है कि अनेक बार पुरानी आदत कार्य करना आरंभ कर देगी। मैं तुमको कुछ कहानियां सुनाता हूं।

एक बड़े होटल के स्वागत—कक्ष में अपनी सचिव के साथ पहुंचे हुए बॉस ने बडे आत्म—विश्वास से श्रीमती एवं श्रीमान का भांति हस्ताक्षर कर दिए।

डबल बेड या दो अलग बेड वाला कमरा? क्लर्क ने जानना चाहा। वह अपनी सचिव की ओर मुड़ा और यूं ही पूछा, क्या डबल बेड उचित रहेगा प्रिये?

यस सर, उसने उत्तर दिया।

यस सर, पत्नी पति से कह रही है।—लेकिन बस सचिव होने की पुरानी, लगातार यस सर, यस सर, यस सर कहने की आदत। आदतें बहुत गहराई तक पहुंच जाती हैं, और वे तुम पर इस भांति कब्जा कर लेती हैं कि जब तक तुम बहुत, बहुत ही होशपूर्ण न हो तुम इस बात को पकड़ भी न पाओगे।

ऐसा हुआ, एक अध्यापिका ने क्रोधित होकर स्थानीय पुलिस चौकी में यह शिकायत करने के लिए फोन किया कि कुछ शरारती युवाओं ने उसके दरवाजे पर चाक से अंग्रेजी में गालिया लिख दी हैं। और मेरे लिए दुख की बात तो यह है कि उसने बात समाप्त करते हुए कहा, उन्होंने उनकी स्पेलिंग भी गलत लिखी है।

अध्यापिका बस एक अध्यापिका है। वह गालियों की शिकायत कर रही है, लेकिन मूलभूत शिकायत यह है कि उन लोगों ने उनकी स्पेलिंग तक गलत लिख रखी है। लगातार बच्चों की कापियों में स्पेलिंग ठीक करते रहना उसकी आदत है…

‘पूर्व संस्कारों के बल के माध्यम से विवेक ज्ञान के अंतराल में, अन्य प्रत्ययों अवधारणाओं का उदय होता है।’

अनेक बार तुम वापस खींच लिए जाओगे, बार—बार, बार—बार ऐसा होगा। संघर्ष कठिन है, लेकिन असंभव नहीं है। यह कठिन है, यह बहुत मुश्किल है, लेकिन उदास मत हो जाओ, और हतोत्साहित मत हो जाओ। जब कभी भी तुम पुन: स्मरण करो, तो जो हो चुका है उसके बारे में चिंता मत करो। अपनी सजगता को पुन: स्थापित हो जाने दो, यही है सब कुछ। अपनी सजगता को बार—बार और बार—बार स्थापित करते रहना तुम्हारे अस्तित्व पर एक नया प्रभाव, पवित्रता की एक नई छाप निर्मित कर देगा। एक दिन यह उतनी ही स्वाभाविक हो जाएगी जितनी तुम्हारी दूसरी आदतें हैं।

‘वह जिसमें समाधि की सर्वोच्च अवस्थाओं के प्रति भी इच्छारहितता का सातत्य बना हुआ है और जो विवेक के चरम का प्रवर्तन करने में समर्थ है, उस अवस्था में प्रविष्ट हो जाता है जिसे धर्ममेघ समाधि कहा जाता है।’

‘वह जिसमें समाधि की सर्वोच्च अवस्थाओं के प्रति भी इच्छारहितता का सातत्य बना हुआ है…… पतंजलि इसको परावैराग्य. परम त्याग कहते हैं। तुमने संसार का त्याग कर दिया है, तुमने लोभ का त्यपा कर दिया है, तुमने धन का त्याग कर दिया है, तुमने शक्ति का त्याग कर दिया है, तुमने अपने मन का भी त्याग कर दिया है, लेकिन अंतिम त्याग स्वयं मोक्ष का है, स्वयं कैवल्य का है, स्वयं निर्वाण का है। अब ‘यम मुक्ति के खयाल तक को छोड़ देते हो, क्योंकि वह भी एक इच्छा है। और इच्छा, चाहे उसकी विषय— वस्तु कुछ भी हो, एक जैसी होती है। तुम धन की इच्छा करते हो, मैं मोक्ष की इच्छा करता हूं। निःसंदेह मेरा उद्देश्य तुम्हारे उद्देश्य से श्रेष्ठ है, लेकिन फिर भी मेरी इच्छा वैसी ही है जैसी कि तुम्हारी इच्छा है। इच्छा कहती है, जैसा मैं हूं वैसा ही मैं परितृप्त नहीं हूं। और धन की आवश्यकता है; फिर मैं परितृप्त हो जाऊंगा। इच्छा का गुण वही है, इच्छा की समस्या वही है। समस्या यह है कि भविष्य की आवश्यकता होती है: जैसा मैं हूं यह पर्याप्त नहीं है; किसी और की आवश्यकता है। जो कुछ भी हो चुका है मुझे पर्याप्त नहीं है। अभी मुझे कुछ और भी घटित होना चाहिए, केवल तभी मैं प्रसन्न हो सकता हूं। इच्छा की प्रकृति यही है तुमको और धन की आवश्यकता है, किसी को बडे मकान की आवश्यकता है, कोई और अधिक शक्ति, राजसत्ता के बारे में सोचता है, कोई उत्तम पत्नी या उत्तम पति के बारे में सोचता है, कोई अधिक शिक्षा, अधिक ज्ञान— के बारे में सोचता है, कोई और अधिक चमत्कारी शक्तियों के बारे में सोचता है, किंतु इससे कोई —अंतर नहीं पड़ता है। इच्छा तो इच्छा है, और आवश्यकता इच्छारहितता की है।

अब विरोधाभास को देखो, यदि तुम पूरी तरह से इच्छा—शून्य हो और परम इच्छारहितता में हो, इसमें मोक्ष की इच्छा सम्मिलित है—तब एक क्षण आता है जब तुम मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते, तुम परमात्मा की भी इच्छा नहीं करते। तुम बस इच्छा ही नहीं करते, तुम हो और कोई इच्छा नहीं है। यह इच्छारहितता की अवस्था है। मोक्ष इस अवस्था में घटित होता है। मोक्ष की, जैसी कि इसकी प्रकृति है, इच्छा नहीं की जा सकती, क्योंकि यह केवल इच्छा—शून्यता में आता है। मोक्ष को चाहा नहीं जा सकता। यह कोई लक्ष्य नहीं बन सकता, क्योंकि यह केवल तभी घटित होता है जब सारे लक्ष्य खो चुके होते हैं। तुम परमात्मा को अपनी इच्छा का विषय नहीं बना सकते हो, क्योंकि इच्छा करता हुआ मन परमात्मा—विहीन रहता है। इच्छा करता हुआ मन अपवित्र रहता है, इच्छा करता हुआ मन सांसारिक बना रहता है। जब कोई भी इच्छा नहीं होती, परमात्मा तक की इच्छा नहीं होती, अचानक तुम पाते हो क़ि वह सदा से वहां है। तुम्हारी आंखें खुलती हैं और तुम उसको पहचान लेते हो।

इच्छाएं अवरोधों की भांति कार्य करती हैं। और अंतिम इच्छा, सर्वाधिक सूक्ष्म इच्छा है मुक्त हो जाने की इच्छा, इच्छारहित हो जाने की इच्छा अंतिम सूक्ष्म इच्छा होती है।

‘वह जिसमें समाधि की सर्वोच्च अवस्थाओं के. प्रति भी इच्छारहितता का सातत्य बना हुआ है, और जो विवेक के चरम का प्रवर्तन करने में समर्थ है…….’

निःसंदेह विवेक के चरम की आवश्यकता पड़ेगी। तुमको जागरूक होना पडेगा—इतना अधिक जागरूक कि सारे संताप से मुक्त हो जाने की, सारे बंधन से मुक्त हो जाने की जो बहुत, बहुत गहरी इच्छा है—यह इच्छा तक नहीं उठती है। तुम्हारी सजगता इतनी पूर्ण है कि तुम्हारे अस्तित्व का कोई छोटा सा कोना तक अंधकार में नहीं रहता। तुम प्रकाश से भरे हुए हो, सजगता से प्रदीप्त हो। यही कारण है कि जब भी बुद्ध से बार—बार पूछा गया, जो व्यक्ति संबुद्ध हो जाता है उसे क्या हो जाता है? वे चुप रहते हैं। वे कभी उत्तर नहीं देते हैं। बार—बार उनसे पूछा जाता है, आप उत्तर क्यों नहीं देते गुम वे कहते हैं, यदि मैं उत्तर देता हूं तो तुम उसके लिए इच्छा निर्मित कर लोगे और वह इच्छा एक अवरोध बन जाएगी। मुझको चुप रहने दो। मुझको मौन ही रहने दो, जिससे मैं तुमको इच्छा करने के लिए नया विषय न दे दूं। यदि मैं कहूं यह सच्चिदानंद है, यह सत्य है, यह चैतन्य है, यह आनंद है, तो अचानक तुम्हारे भीतर एक इच्छा उठ खड़ी होगी। यदि मैं परमात्मा में लीन होने की आह्लादकारी अवस्था के बारे में बात करूं, अचानक तुम्हारा लोभ इसको पकड़ लेता है। अचानक तुम्हारे भीतर एक इच्छा उठने लगती है। तुम्हारा मन कहने लगता है, हां, तुमको इसकी खोज करना चाहिए, तुमको इसे पाना पड़ेगा, इसका अन्वेषण किया जाना चाहिए। चाहे कुछ भी मूल्य चुकाना पड़े तुमको आनंदित हो ही जाना है। बुद्ध कहते हैं, मैं इसके बारे में कुछ न कहूंगा, क्योंकि मैं जो कुछ भी कहता हूं तुम्हारा मन इस पर कूद पड़ेगा और इसमें से एक इच्छा बना लेगा, और यह कारण बन जाएगी, और तुम कभी इसे उपलब्ध नहीं कर पाओगे।

बुद्ध ने इस पर जोर दिया कि कोई मोक्ष नहीं है। उन्होंने बल देकर कहा कि जब व्यक्ति जाग जाता है तो वह बस मिट जाता है। वह इसी प्रकार से मिट जाता है जैसे कि तुम एक दीये पर फूंक मारते हो और प्रकाश मिट जाता है। इस शब्द ‘निर्वाण’ का बस यही अर्थ है : दीये को फूंक मार कर बुझा देना। फिर तुम नहीं पूछते कि ज्योति कहां चली गई, ज्योति को क्या हो गया है—यह बस खो जाती है, तिरोहित हो जाती है। बुद्ध ने जोर दिया कि कुछ भी शेष नहीं रहता; जब तुम संबुद्ध हो जाते हो तो सभी कुछ खो जाता है जैसे कि दीये की लौ बुझा दी गई हो। क्यों? —यह कथन बहुत नकारात्मक प्रतीत होता है, लेकिन वे तुम्हें इच्छा के लिए कोई विषय वस्तु देना नहीं चाहते। फिर लोगों ने पूछना आरंभ कर दिया, फिर हम ऐसी अवस्था के लिए प्रयास ही क्यों करें? तब तो संसार में रहना ही बेहतर है। कम से कम हम हैं तो; पीड़ा में हैं—लेकिन कम से कम हैं तो; संताप में हैं—लेकिन हम हैं। और आपकी ना—कुछपन की अवस्था हमारे लिए कोई आकर्षण नहीं रखती है।

भारत में बौद्ध धर्म मिट गया; चीन में, बर्मा में, श्री लंका में, जापान में यह पुन: प्रकट हुआ। लेकिन यह अपनी शुद्धता मे पुन: कभी प्रकट नहीं हुआ, क्योंकि बौद्धों ने एक पाठ सीख लिया कि व्यक्ति इच्छा के माध्यम से जीता है। यदि वे जोर दें कि संबोधि के परे कुछ भी नहीं है और सभी कुछ मिट जाता है, तो लोग उनका अनुगमन नहीं करने वाले हैं। फिर प्रत्येक चीज वैसी ही रहेगी जैसी थी, केवल उनका धर्म खो जाएगा। अत: उन्होंने एक चालाकी सीख ली। और जापान में, चीन में, श्री लंका में उन्होंने भी संबोधि के बाद की मोहक अवस्थायों के बारे में बात करना आरंभ कर दिया। उन्होंने बुद्ध के साथ छल किया। शुद्धता खो दी गई तभी धर्म प्रसारित हो गया। बौद्ध धर्म संसार के महान धर्मों में से एक बन गया। उन्होंने मानव मन की राजनीति को सीख लिया। उन्होंने तुम्हारी इच्छा को पूरा कर दिया। उन्होंने कहा, हां, वहां आत्यंतिक सौंदर्य के देश हैं, बुद्ध—देश हैं, स्वर्ग—तुल्य देश हैं जहां शाश्वत आनंद की वर्षा होती है। उन्होंने विधायक भाषा में बोलना आरंभ कर दिया। फिर लोगों का लोभ जाग गया, इच्छा उठ खड़ी हुई। लोगों ने बौद्ध धर्म का अनुगमन करना आरंभ कर दिया, लेकिन बौद्ध धर्म ने अपना सौंदर्य खो दिया। इसका सौंदर्य इसका इसी बात पर बल देने से था कि यह तुम्हें इच्छा करने के लिए कोई विषय—वस्तु नहीं देता था।

पतंजलि ने परम सत्य के बारे में जो भी श्रेष्ठतम कहा जाना संभव था वह लिख दिया है, लेकिन उनके चारों ओर कोई धर्म नहीं खड़ा हुआ, उनके चारों ओर कोई स्थापित चर्च नहीं बना है। इतना महान शिक्षक, इतना महान सदगुरु, वास्तव में अनुयायियों के बिना रहा है। एक मंदिर तक उनको समर्पित नहीं किया गया है। क्या हो गया? उनके योग—सूत्र पढ़े जाते हैं, उन पर टीकाएं लिखी जाती हैं, लेकिन ईसाइयत, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, हिंदू धर्म, इस्लाम जैसा कुछ भी पतंजलि के साथ अस्तित्व नहीं रखता है। क्यों? क्योंकि वे तुमको कोई आशा नहीं देते हैं। वे तुम्हारी इच्छा के लिए कोई सहायता नहीं देंगे।

‘वह जिसमें समाधि की सर्वोच्च अवस्थाओं के प्रति भी इच्छारहितता का सातत्य बना हुआ है, और जो विवेक के चरम का प्रवर्तन करने में समर्थ है, उस अवस्था में प्रविष्ट हो जाता है जिसे धर्ममेघ समाधि कहा जाता है।’

धर्ममेघ समाधि, इस शब्द का समझ लेना चाहिए। बहुत जटिल है यह। और पतंजलि पर बहुत अधिक टीकाएं लिखी जा चुकी हैं, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वे असली बात से चूकते रहे हैं। धर्ममेघ

समाधि का अर्थ है : एक ऐसा क्षण आता है जब प्रत्येक इच्छा मिट चुकी है। जब स्व तक की चाह नहीं बचती, जब मृत्यु का भय नहीं रहता, तब तुम्हारे ऊपर पवित्रता की बरसात होती है—जैसे कि एक बादल तुम्हारे सिर के चारों ओर उमड़ आया है, और पवित्रता की, आशीष की एक महान वरदान की मनोहारी वर्षा तुम्हारे ऊपर होती है…….लेकिन पतंजलि इसको ‘बादल’ क्यों कहते हैं? व्यक्ति को इसके भी पार जाना पड़ता है; अभी भी यह एक बादल है। पहले तुम्हारी आंखें पाप से भरी हुई थीं, अब तुम्हारी आखे पुण्य से भर जाती हैं, किंतु तुम अब भी अंधे हो। पहले और कुछ नहीं बल्कि तुम पर पीड़ा बरस रही थी, बस एक नरक की बरसात तुम पर हो रही थी; अब तुम स्वर्ग में प्रविष्ट हो चुके हो और सभी कुछ पूर्णत: सुंदर है, शिकायत करने लायक कुछ है ही नहीं, लेकिन फिर भी यह एक बादल है। हो सकता है कि यह सफेद बादल हो, काला बादल न हो, लेकिन फिर भी यह बादल ही है—और व्यक्ति को इसके भी पार जाना पड़ता है। इसीलिए वे इसको बादल कहते हैं।

अंतिम अवरोध यही है, और निःसंदेह यह बहुत मनोहारी है, क्योंकि यह पुण्य का है। यह हीरों से जड़ी हुई सोने की जंजीर जैसा है। वे सामान्य जंजीरों की भांति नहीं हैं, वे बिलकुल आभूषण जैसी दिखाई पड़ती हैं। वे जंजीरों के स्थान पर आभूषणों जैसी अधिक हैं। व्यक्ति उनसे बंधना चाहेगा। स्वयं पर बरसती हुई परम आनंद की वर्षा, कभी न समाप्त होने वाला आह्लाद, कौन इसको पाना नहीं चाहेगा? इस परमानंद की अवस्था में कौन सदा के लिए रहना नहीं चाहेगा? लेकिन यह भी एक बादल है—श्वेत, मनोहर, लेकिन फिर भी असली आकाश इसके पीछे छिपा हुआ है।

उत्कर्ष के इस बिंदु से अब भी वापस गिर पड़ने की संभावना है। यदि तुम धर्ममेघ समाधि से बहुत आसक्त हो जाते हो, यदि तुम बहुत अधिक बंध जाते हो?ऐ तुम इसका बहुत अधिक मजा लेना आरंभ कर देते हो और तुम यह विभेद नहीं कर पाते कि ‘मैं यह भी नहीं हूं तो इस बात की संभावना है कि तुम वापस गिर पडोगे।

ईसाइयत यहूदी धर्म, इस्लाम में केवल दो अवस्थाओं का अस्तित्व है : स्वर्ग और नरक। जिसको ईसाई लोग स्वर्ग कहते हैं उसी को पतंजलि धर्ममेघ समाधि कहते हैं। पश्चिम में कोई धर्म इससे परे नहीं गया है। भारत में हमारे पास तीन शब्द हैं : नरक, स्वर्ग और मोक्ष। नरक है परम पीड़ा, स्वर्ग है परम आनंद, मोक्ष दोनों के पार है : न नरक, न स्वर्ग। पश्चिम की भाषा में मोक्ष के समकक्ष एक भी शब्द नहीं है। ईसाइयत स्वर्ग, धर्ममेघ समाधि, पर रुक जाती है। इससे पार जाने की और चिंता अब कौन करता है? इतना मनोहर है यह। और तुम इतने लंबे समय से इतनी अधिक पीड़ा में रहे हो कि तुम वहां सदा और हमेशा के लिए रहना पसंद करोगे। किंतु पतंजलि कहते हैं : यदि तुम इससे आसक्त हो जाते हो, तो तुम सीढ़ी के आखिरी पायदान से फिसल जाते हो। तुम घर के बहुत निकट थे। बस एक कदम और, और तुमको वह अवस्था उपलब्ध हो गई होती जहां से लौटना संभव नहीं है, लेकिन तुम फिसल गए। तुम बस घर पहुंच ही रहे थे और रास्ते से चूक गए। तुम बस द्वार पर ही थे—एक दस्तक और द्वार खुल गए होते— लेकिन तुमने पोर्च को ही महल समझ लिया और तुमने वहीं रहना आरंभ कर दिया, आज नहीं तो कल उस पोर्च को भी खो दोगे, क्योंकि पोर्च उनके लिए है जो महल में रहने जा रहे हैं। इसको आवास नहीं बनाया जा सकता है। यदि तुम इसको आवास बना लेते हो तो आज नहीं तो कल तुमको निकाल कर बाहर फेंक दया जाएगा. तुम इसके पात्र नहीं हो। तुम उस भिखारी के समान हो जिसने किसी और के पोर्च में इन! आरंभ कर दिया है।

तुमको महल में प्रवेश करना ही पड़ेगा, तभी वह पोर्च तुम्हारे लिए उपलब्ध रहेगा। लेकिन यदि तुम पोर्च पर ही रुक जाते हो तब तुमसे पोर्च भी ले लिया जाएगा। और पोर्च बहुत सुंदर है और हमने उस जैसी कोई चीज कभी नहीं जानी है, इसलिए निश्चित रूप से हमें गलतफहमी हो जाती है—हम सोचते हैं कि महल आ गया है। हम सदैव पीड़ा, संताप, तनाव में जीते रहे हैं, और पोर्च भी, उस परम महल के निकट होना भी, परम सत्य के इतने निकट होना भी इतना मौन पूर्ण, इतना शांतिमय, इतना आनंददायी, इतना महान वरदान है कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि इससे श्रेष्ठ भी संभव है। तुम वहा रुक जाना पसंद करोगे।

पतंजलि कहते हैं. ‘बोधपूर्ण बने रहो।’ इसीलिए वे इसको बादल कहते हैं। यह तुमको अंधा कर आवकता है, इसमें खो सकते हो तुम। यदि तुम इस बादल का अतिक्रमण कर सको—ततः कलेशकर्मनिवृत्ति— तब कलेशों एवं कर्मों से मुक्ति हो जाती है।

यदि तुम धर्ममेघ समाधि का अतिक्रमण कर सको, यदि तुम इस स्वर्ग सी अवस्था का, जन्नत का अतिक्रमण कर सको, केवल तभी.. .क्लेशों एवं कर्मों से मुक्ति हो जाती है। अन्यथा तुम पुन: संसार में वापस गिर जाओगे। छोटे बच्चे सांप और सीढ़ी का खेल खेलते हैं, क्या तुमने इसे देखा है? सीढ़ियों से वे ऊपर उठते चले जाते हैं और सांपों के द्वारा वे वापस लौटते रहते हैं। यदि वे निन्यानबे के बाद सौ की गिनती पर पहुंच जाएं तो वे विजयी हो जाते हैं, उन्होंने खेल जीत लिया है। लेकिन निन्यानबे के खाने पर एक सांप है। यदि तुम निन्यानबे पर पहुंच जाते हो तभी अचानक तुम वापस संसार में वापस लौट आते हो।

धर्ममेघ समाधि निन्यानबेवां खाना है, लेकिन वहीं पर सांप है। इससे पहले कि सांप तुमको पकड़ ले तुमको सौवें खाने पर छलांग लगानी पड़ती है। केवल तभी वहां घर वापसी हो पाती है। तुम घर वापस आ गए हो, वर्तुल पूर्ण हो गया है।

‘तब क्लेशों एवं कर्मों से मुक्ति हो जाती है।’

‘जब सभी आवरण, विकृतियां और अशुद्धियां हट जाती हैं, तब वह सभी कुछ जो मन से जाना जा सकता है, समाधि से प्राप्त असीम ज्ञान की तुलना में अत्यल्प हो जाता है।’

अभी कुछ सूत्र पहले ही पतंजलि ने कहा था, कि मन अनंत ज्ञानवान है, मन अनंत ज्ञान अर्जित कर सकता है। अब वे कहते हैं कि वह जो मन से जाना जा सकता है, उस असीम शन की तुलना में अत्यल्प है जो समाधि से प्राप्त होता है।

जैसे—जैसे तुम उच्चतर की ओर बढ़ते हो प्रत्येक अवस्था उस पहली अवस्था से विराटतर होतीहै जिसका तुमने अतिक्रमण कर लिया है। जब व्यक्ति अपनी ज्ञानेंद्रियो में खोया हुआ होता है तो उसका मन पंगु ढंग से कार्य करता है। जब व्यक्ति अपनी ज्ञानेंद्रियों में नहीं उलझा होता है और शरीर से आसक्त नहीं रहता तो उसका मन पूर्णत: स्वस्थ ढंग से कार्य करना आरंभ कर देता है। मन के लिए एक असीम समझ घटित हो जाती है, यह अनंतताओं को जानने में समर्थ हो जाता है। लेकिन यह भी उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है जब मन को पूरी तरह छोड़ दिया जाता है और तुम मन के बिना कार्य करना आरंभ कर देते हो। अब किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं रहती। सारे अवरोध खो जाते हैं, और तुम वास्तविकता के समक्ष होते हो। वहां पर मन भी एक मध्यस्थ की भांति, एक प्रतिनिधि की भांति नहीं होता। मध्य में कुछ भी नहीं है। तुम और यथार्थ एक हो। वह जान जो मन के माध्यम से आता है इस जान की तुलना में कुछ भी नहीं है जो समाधि के माध्यम से घटता है

‘अपने उद्देश्य को परिपूर्ण कर लिए जाने के कारण तीनों गुणों में परिवर्तन की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है।’

समाधिस्थ व्यक्ति के लिए सारा संसार रुक जाता है, क्योंकि अब संसार के जारी रहने कीं कोई आवश्यकता न रही। परम को उपलब्ध कर लिया गया है। संसार का अस्तित्व एक परिस्थिति की भांति होता है। संसार का अस्तित्व तुम्हारे विकास के लिए है। विद्यालय का अस्तित्व सीखने के लिए है। जब तुमने पाठ सीख लिया है तो विद्यालय तुम्हारे लिए किसी उपयोग का नहीं है, तुमने परीक्षा पास कर ली है। जब व्यक्ति संबुद्ध हो जाता है तो उसने संसार की परीक्षा को उत्तीर्ण कर लिया है। अब विद्यालय का उसके लिए कोई कार्य नहीं रह गया। अब वह विद्यालय को विस्मृतकर सकता है और विद्यालय उसको भुला सकता है। वह विद्यालय के पार चला गया है, वह विकसित हो गया है। उस अवस्था की अब और आवश्यकता नहीं रही।

यह संसार एक परिस्थिति है : तुम्हारे लिए यह भटक जाने और वापस घर लौट आने की परिस्थिति है। यह खो जाने की और फिर वापस लौट आने की एक परिस्थिति है। यह परमात्मा को भूल जाने और उसको पुन: स्मरण कूर लेने की एक परिस्थिति है।

लेकिन ऐसी परिस्थिति क्यों? —क्योंकि एक सूक्ष्म नियम है: यदि तुम परमात्मा को भूल न सको, तो तुम उसको याद नहीं कर सकते। यदि उसको भुला देने की कोई संभावना न हो, तो तुम कैसे याद रखोगे, तुम याद क्यों करोगे? उसे जो सदैव उपलब्ध है सरलता से भुलाया जा सकता है। सागर में रहती हुई मछली कभी सागर को नहीं जान पाती, कभी सागर से उसका आमना—सामना नहीं होता। वह इसी में जीती है, उसका जन्म इसी में हुआ है, वह इसी में मर जाती है, लेकिन सागर को कभी जान नहीं पाती है। यदि वह सागर को जान पाती है तो यह केवल एक स्थिति में होता है : जब उसे सागर से बाहर निकाल लिया जाता है। तब अचानक वह सजग होती है कि यह सागर उसका जीवन था। जब मछली को तट पर रेत में फेंक दिया जाता है, तभी वह जान पाती है कि सागर क्या है।

हमें परमात्मा के सागर से बाहर फेंक दिए जाने की आवश्यकता थी; उसको जानने का कोई दूसरा उपाय था भी नहीं। सजग होने के लिए यह संसार एक महत परिस्थिति है। संताप है वहां, पीड़ा है वहां लेकिन यह सभी अर्थपूर्ण है। संसार में कुछ भी अर्थहीन नहीं है। दुख अर्थपूर्ण है; दुख इस प्रकार से है जैसे कि मछली तट पर, रेत में दुखी है, और सागर में जाने के सारे प्रयास कर रही है। अब यदि मछली सागर में वापस लौट जाती है तो यह जान लेगी। कुछ भी बदला नहीं है—सागर वही है, मछली भी वही है—लेकिन उनका संबंध आत्यंतिक रूप से बदल गया है। अब वह जान जाएगी, यह है सागर। अब वह जान लेगी कि सागर की वह कितनी आभारी है। उस दुख ने एक समझ निर्मित कर दी है। इसके पहले वह इसी सागर में थी, किंतु अब वही सागर वैसा ही न रहा, क्योंकि एक नई समझ, एक नई सजगता, एक नई प्रत्यभिज्ञा उत्पन्न हो गई है।

मनुष्य को परमात्मा से बाहर फेंके जाने की आवश्यकता है। संसार में फेंका जाना और कुछ नहीं वरन परमात्मा से बाहर फेंका जाना है। और यह करुणावश किया जाता है, समग्र की करुणा के कारण ही तुम्हें बाहर फेंका गया है, जिससे तुम वापस लौटने का रास्ता खोजने का प्रयास करों। प्रयास से, ‘कठिन प्रयास से तुम पहुंच पाने में समर्थ हो पाओगे और तभी तुम समझोगे। तुमको अपने प्रयासों से इसका मूल्य चुकाना पड़ता है, वरना परमात्मा बहुत सस्ता हो जाएगा। और जब कोई चीज बहुत सस्ती होती है तो तुम उसका ‘मजा नहीं ले सकते। वरना परमात्मा अत्यधिक सुस्पष्ट हो जाएगा। जब कोई वस्तु बहुत सरलता से उपलब्ध होती है तुम में उसको भूल जाने की प्रवृत्ति हो जाती है। अन्यथा परमात्मा तुमसे अत्यधिक निकट होता और उसको जान पाने के लिए कोई अंतराल भी नहीं होता। वह असली पीड़ा होगी, उसको न जान पाना। इस संसार की पीड़ा कोई पीड़ा नहीं हैं; यह एक छिपा हुआ वरदान है, क्योंकि इस पीड़ा के माध्यम से ही तुम…….दिव्य सत्य के आमने—सामने देखने के, उसे पहचानने के परम आह्लाद को जान पाआगे।

’अपने उद्देश्य को परिपूर्ण कर लिए जाने के कारण तीनों गुणों में परिवर्तन की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है।’

तीन गुणों सत्व, रजस, तमस का यह सारा संसार मिट जाता है। जब कोई संबुद्ध हो जाता है तो उसके लिए यह संसार समाप्त हो जाता है। अन्य सभी निःसंदेह स्वप्नलोक में विचरते रहते हैं। यदि तट पर गर्म रेत में तपती धूप में अनेक मछलियां पीड़ा में हैं, और एक मछली प्रयास करती है, और फिर प्रयास करती है और सागर में छलांग लगा देती है, पुन: घर वापस लौट आती है, उसके लिए तपती धूप और जलती हुई रेत और सारी पीड़ा मिट गई है। यह अतीत का एक बुरा स्‍वप्‍न बन गया है, लेकिन अन्य मछलियों के लिए इस पीड़ा का अस्तित्व है।

जब कोई बुद्ध, पतंजलि जैसी मछली सागर में छलांग लगा देती है तो उसके लिए संसार खो जाता है। वे पुन: सागर के शीतल गर्भ में होते हैं। वे पुन: वापस लौट आए हैं, अनंत जीवन से संबंधित हो गए हैं वे। वे अब असंबद्ध न रहे; अब वे अजनबी नहीं रहे हैं : सजग हो गए हैं वे। वे एक नई समझ के साथ वापस लौट आए हैं. सजग, संबुद्ध होकर—लेकिन दूसरों के लिए संसार जारी रहता है।

पतंजलि के ये सूत्र और कुछ नहीं बल्कि उस मछली के संदेश हैं जो घर पहुंच चुकी है, और उन लोगों से, जो अभी भी किनारे पर हैं और पीडित हैं, कुछ कहने का और उन सभी के कूद आने को प्रेरित करने का प्रयास है। हो सकता है कि वे लोग सागर से अति निकट हैं, बस सीमा रेखा पर हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि इस में किस भांति प्रविष्ट हुआ जाए। वे पर्याप्त प्रयास कर रहे हैं, या अपने प्रयास गलत दिशा में कर रहे हैं या बस पीड़ा में खो गए हैं और स्वीकार कर लिया है कि बस यही जीवन है, या इतने हताश हो चुके हैं, साहस खो चुके हैं कि कोई कोशिश ही नहीं कर रहे हैं। योग उस वास्तविकता तक पहुचने का प्रयास है जिससे हमारा संबंध टूट चुका है। पुन: जुड़ जाना ही योगी होना है। योग का अर्थ है : पुन: संबंध, पुन: एकीकरण, पुन: लीन हो जाना।

‘प्रतिक्षण घटने वाले परिवर्तनों के सातत्य की प्रक्रिया तीन गुणों के रूपांतरण के परम अंत पर घटित होती है—यही क्रम है।’

इस छोटे से सूत्र में पतंजलि ने वह सभी कुछ कह दिया है जिसे आधुनिक भौतिक विज्ञान ने अब खोज लिया है। अभी तीस या चालीस वर्ष पूर्व तक इस सूत्र को समझा जाना असंभव रहा होता, क्योंकि इस छोटे से सूत्र में सारी क्वांटम फिजिक्स बीज रूप में उपस्थित है। और यह शुभ है, क्योंकि यह अंत से ठीक पहला सूत्र है। इसलिए पतंजलि भौतिक विज्ञान का सारा संसार इस अंत से ठीक पहले के सूत्र में समेट देते हैं, फिर परा भौतिक विज्ञान। यह आधारभूत भौतिक विज्ञान है। इस बीसवीं शताब्दी में भौतिक विज्ञान में जो श्रेष्ठतम अंतर्दृष्टि आई है—वह है क्वांटम का सिद्धांत।

मैक्स प्लैंक ने एक बहुत अविश्वसनीय बात की खोज की। उन्होंने खोजा कि जीवन एक सातत्य नहीं है; हर चीज असातत्य में है। समय का एक क्षण समय के दूसरे क्षण से अलग है, और समय के दो क्षणों के मध्य में एक अंतराल है। वे दोनों क्षण संबंधित नहीं हैं; वे असंबद्ध हैं। एक परमाणु दूसरे परमाणु से अलग है, और दो परमाणुओं के मध्य एक बड़ा अंतराल है। वे परस्पर जुड़े हुए नहीं हैं। यही है जिसको वह क्वांटा कहता है, अलग, भिन्न परमाणु जो एक—दूसरे के साथ संयुक्त नहीं हैं, वे अनंत आकाश में तैर रहे हैं, लेकिन अलग—अलग—जैसे कि तुम एक पात्र से दूसरे पात्र में मटर के दाने पलटते हो और मटर के सभी दाने उसमें गिर जाते हैं अलग—अलग, भिन्न प्रकार से, या तुम एक पात्र से दूसरे पात्र में तेल उड़ेलते हो, तेल एक सतत धारा के रूप में गिरता है।

अस्तित्व मटर के दाने की भांति है अलग—अलग। इसका उल्लेख पतंजलि क्यों करते हैं—क्योंकि वे कहते हैं, एक परमाणु, एक और परमाणु : ये दो भिन्न वस्तुएं हैं जिनसे संसार बना है। ठीक उनके मध्य में अंतराल है। यही है जिससे सारा संसार निर्मित है, परमात्मा। इसको अंतरिक्ष कहो, इसको ब्रह्म कहो, इसे पुरुष कहो या जो कुछ तुमको पसंद हो वह कह लो, संसार विभिन्न परमाणुओं से निर्मित है और समग्र अस्तित्व उनके मध्य के अंतराल से बना है।

अब भौतिकविद कहते हैं कि यदि हम सारे संसार को दबा दें और कणों के बीच के रिक्त स्थान को हटा दें, तो सभी नक्षत्र मंडल और सभी सूर्य बस छोटी सी गेंद में दब कर समा सकते हैं। केवल इतना ही पदार्थ है। शेष विश्व वास्तव में रिक्त स्थान है। पदार्थ तो बस यहां और वहां है, अत्यल्प है। यदि हम पृथ्वी को बहुत अधिक दबा दें, तो हम इसको माचिस की एक डिब्बी में रख सकते हैं। यदि सारा खाली स्थान बाहर कर दिया जाए तो अविश्वसनीय है यह बात! और यह भी, यदि हम इसे और दबाते जाएं तो और भी छोटी हो जाएगी। पतंजलि कहते हैं. फिर वह छोटी सी मात्रा भी खो जाएगी। अब भौतिकविद कहते हैं कि जब पदार्थ मिटता है तो यह ब्लैक होल, कृष्‍ण—विवर छोड़ जाता है।

प्रत्येक वस्तु ना—कुछपन से आती है, चारों ओर खेलती है, और फिर ना—कुछपन में समा जाती है। जैसे कि पदार्थ के पिंड हैं : पृथ्वी, सूर्य, सितारे, ठीक उनके समान ही खाली छेद हैं, कृष्ण—विवर हैं। ये कृष्ण—विवर ना—कुछपन का संघनित रूप हैं। यह केवल ना—कुछपन नहीं है; यह बहुत गतिशील है—ना— कुछपन का भंवर है। यदि कोई सितारा किसी कृष्ण—विवर, ब्लैक होल के निकट आ जाता है तो कृष्य विवर इनको सोख लेगा। इसलिए यह बहुत गतिशील है, किंतु यह कुछ नहीं है—इसमें कोई पदार्थ नहीं है, बस पदार्थ की अनुपस्थिति है, मात्र शुद्ध रिक्तस्थान है, लेकिन अत्यधिक शक्तिशाली है। यह अपने भीतर किसी सितारे तक को सोख सकता है, और वह सितारा ना—कुछपन में खो जाएगा; यह ना—कुछपन में बदल दिया जाएगा। इसलिए यदि हम कोशिश करें तो अंततोगत्वा सारा पदार्थ खो जाएगा। यह परम शून्य से आता है, और पुन: यह परम शून्यता में लीन हो जाता है; शून्य से निकलता है और शून्यता में लौट जाता है।

‘प्रतिक्षण घटने वाले परिवर्तनों के सातत्य की प्रक्रिया.. .महा छलांग की प्रक्रिया. .तीन गुणों के रूपांतरण के परम अंत पर घटित होती है—यही क्रम है।’

अंतिम अवस्था पर योगी यही देखत है, जब सभी तीनों गुण कृष्ण—विवर में लीन हो रहे हैं, शून्यता में विलीन हो रहे हैं। इसी कारण से योगियों ने इस संसार को माया, एक जादू का खेल कहा है।

क्या तुमने कभी किसी जादूगर को सेकंडों में एक आम का वृक्ष उत्पन्न करते हुए देखा है, और फिर यह बढ़ता चला जाता है; और न केवल यही—कुछ ही क्षणों में इसमें आम भी निकल आते हैं…..कुछ नहीं में से? बस भ्रामक है यह, वह भ्रम उत्पन्न कर देता है। हो सकता है कि वह तुम्हारे अवचेतन को गहन संदेश भेजता हो। बस गहन सम्मोहन की भांति है यह। एक खयाल निर्मित करता है वह, लेकिन वह अपने खयाल को अति गहनता से अपने मन में देखता है और वह इसको तुम्हारे अवचेतन पर इतनी गहराई से अंकित कर देता है कि तुम वही सब देखना आरंभ कर देते हो जो वह चाहता है कि तुम देखो। हो कुछ भी नहीं रहा है। वृक्ष वहां पर नहीं है, आम भी वहां नहीं है। और यह संभव है, बस महत कल्पना के द्वारा आम का वृक्ष निर्मित कर देना और आम का आ जाना। न केवल यह बल्कि वह एक आम तोड़ सकता है और इसको तुम्हें दे सकता है और तुम कहोगे, ‘बहुत मीठा है।’

हिंदू संसार को माया, जादू का खेल कहते हैं। परमात्मा की कल्पना है यह। समग्र अस्तित्व स्वप्न देख रहा है, समग्र अस्तित्व प्रक्षेपण कर रहा है।

तुम एक चल—चित्र देखने जाते हो : एक बड़े पर्दे पर तुम एक महान कहानी को अभिनीत किया जाना देखते हो, और तुम देखते हो कि प्रत्येक घटना एक सातत्य में प्रतीत होती है। लेकिन ऐसा नहीं है, यदि फिल्म की रील को कुछ धीमा चला दिया जाए तो तुम देख लोगे कि प्रत्येक दृश्य असातत्य में हैं—कवांटा। एक चित्र चला जाता है दूसरा आता है, दूसरा चला जाता है एक और आ जाता है, लेकिन दो चित्रों के मध्य में एक अंतराल है। उस अंतराल में तुम असली पर्दे को देख सकते हो। जब चित्र—श्रृंखला बहुत तीव्र गति में हो तो उसमें गति का भ्रम उत्पन्न हो जाता है। निसंदेह चल—चित्र कोई चलता हुआ चित्र नहीं है, यह उतना ही स्थिर फोटोग्राफ है जितना कोई और फोटो होता है। गतिशीलता भ्रामक है, क्योंकि वे स्थिर फोटोग्राफ एक—दूसरे के पीछे बहुत तेजी से दौड़ रहे हैं, उनके मध्य का अंतराल बहुत छोटा है, जिससे कि तुम अंतराल नहीं देख सकते हो। इसलिए सभी कुछ ऐसा दिखाई पड़ता है जैसे कि यह सातत्य में है।

मैं अपना हाथ हिलाता हूं : इस हाथ को चल—चित्र में चलता हुआ दिखाने के लिए, हाथ की गति शीलता की प्रत्येक अवस्था के हजारों चित्र उतारने पड़ेंगे—इस बिंदु से इस बिंदु तक, इस बिंदु से इस बिंदु तक, इस बिंदु से इस बिंदु तक। हाथ की एक साधारण सी गति हजारों छोटे—छोटे स्थिर चित्रों में बंट जाएगी। फिर वे सभी चित्र तेजी से गति करेंगे— : हाथ हिलता हुआ प्रतीत होगा। यह एक भ्रम है। गहरे में दो चित्रों के मध्य में पर्दा सफेद, रिक्त है।

पतंजलि कहते हैं : यह विश्व और कुछ नहीं वरन एक चल—चित्र है, एक प्रक्षेपण है। लेकिन यह समझ केवल तब उठती है जब व्यक्ति समझ के अंतिम सोपान को उपलब्ध कर लेता है। जब वह देखता है कि सभी गुण ठहर गए हैं, कुछ भी चल नहीं रहा है, तभी अचानक वह इस बात के प्रति सजग हो जाता है कि यह सारी कहानी भ्रामक गति, तीव्र गति के द्वारा निर्मित की गई थी। यही है जो आधुनिक भौतिक वितान के साथ घटित हो रहा है।

जब वे परमाणु पर पहुंचे, तो पहले उन्होंने कहा, अब यह परम है; इसको और अधिक विभाजित नहीं किया जा सकता है। फिर उन्होंने परमाणु को भी विभाजित कर दिया। फिर वे इलेक्ट्रॉनों पर पहुंचे, अब इसे और अधिक विभाजित नहीं किया जा सकता। अब उन्होंने उसको भी विभाजित कर दिया है। अब वे ना— कुछपन, शून्यता पर पहुंच गए हैं; अब वे नहीं जानते कि क्या मिल गया है। विभाजन, विभाजन, विभाजन और आधुनिक भौतिक विज्ञान में एक ऐसा बिंदु आ गया है जहां पदार्थ पूरी तरह से मिट गया है। आधुनिक भौतिक विज्ञान पदार्थ के माध्यम से पहुंच गया है, और पतंजलि तथा योगी लोग उसी बिंदु पर चेतना के माध्यम से पहुंच गए हैं। भौतिक विज्ञान इस अंतिम से पहले सूत्र तक पहुंच चुकी है। अंतिम से पहले के इस सूत्र तक वैज्ञानिक की समझ, पहुंच और गति संभव हो सकती है। अंतिम सूत्र वैज्ञानिक के लिए संभव नहीं है, क्योंकि अंतिम सूत्र तभी उपलब्ध किया जा सकता है जब तुम चेतना के माध्यम से जाओ, पदार्थ के माध्यम से नहीं, विषयों के माध्यम से नहीं, विषयी के माध्यम से सीधे ही जाओ।

पुरुषार्थशून्याना गुणानां प्रतिप्रसव: कैवल्य स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।

‘कैवल्य समाधि की अवस्था है, जो पुरुषार्थ से शून्य हुए गुणों के अपने कारण में लीन— होने पर उपलब्ध होती है।’

‘इस अवस्था में पुरुष अपने यथार्थ स्वरूप में, जो शुद्ध चेतना है, प्रतिष्ठित हो जाता है। समाप्त।’

कैवल्य समाधि की अवस्था है, जो तीनों गुणों के अपने कारण में लीन होने पर उपलब्ध होती है…..जब संसार ठहर जाता है, जब प्रक्रिया, संसार का क्रम रुक जाता है, जब तुम समय के दो क्षणों के, पदार्थ के दो परमाणुओं के मध्य के आकाश को देख पाने में समर्थ हो जाते हो, और तुम आकाश में जा सकते हो और तुम देख सकते हो कि प्रत्येक वस्तु उसी आकाश से निकल कर आई है और आकाश में वापस लौट कर जा रही है; जब तुम इतने सजग हो गए हो कि अचानक भ्रामक संसार एक स्वप्न की भांति तिरोहित हो जाता है, तब कैवल्य। जब तुम एक शुद्ध चैतन्य—बिना किसी पहचान के, बिना किसी नाम के, रूप के छोड़ दिए जाते हो। तब शुद्ध का शुद्धतम हो तुम। तब तुम सर्वाधिक आधारभूत, परम अनिवार्य, परम अस्तित्व हो, और तुम इस शुद्धता, एकांत में स्थापित हो जाते हो।

पतंजलि कहते हैं : ‘कैवल्य समाधि की अवस्था है, जो पुरुषार्थ से शून्य हुए गुणों के अपने कारण में लीन होने पर उपलब्ध होती है। इस अवस्था में पुरुष यथार्थ स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।’ तुम घर वापस आ गए हो। यात्रा लंबी, थका देने वाली, जटिल रही थी, लेकिन तुम घर वापस आ गए हो।

मछली सागर में, जो शुद्ध चेतना है, कूद गई है। पतंजलि इसके बारे में और कुछ नहीं कहते, क्योंकि और अधिक कहा भी नहीं जा सकता। और जब वे कहते हैं, ‘इति, समाप्त।’ उनका केवल यही अभिप्राय नहीं है कि यहां पर योग—सूत्रों का ‘अंत हो गया है। वे कहते हैं, ‘अभिव्यक्ति की सारी संभावना यहां पर समाप्त हो जाती है। परम सत्य के बारे में कुछ भी कहने की संभावना यहां पर समाप्त हो जाती है। इससे परे केवल अनुभव है। अभिव्यक्ति यहां पर समाप्त हो जाती है।’ और इसके पार जा पाने में कोई भी सफल नहीं हो पाया है—कोई भी नहीं। मानवीय चेतना के सारे इतिहास में इसका एक भी अपवाद नहीं है। लोगों ने प्रयास किए हैं। बहुत थोड़े लोग ही वहां तक पहुंच पाए हैं जहां पतंजलि पहुंच गए हैं, लेकिन पतंजलि से परेकोई नहीं पहुंच सका है।

इसीलिए मैं कहता हूं कि वे आदि और अंत है। वे बहुत प्राथमिक से आरंभ करते हैं; किसी को भी उनसे बेहतर आरंभ नहीं मिल पाया है। वे बहुत प्राथमिक से आरंभ करते हैं और वे परम अंत पर पहुंच जाते हैं। जब वे कहते हैं, ‘समाप्त।’ वे बस यही कह रहे हैं कि अभिव्यक्ति समाप्त हो गई है, परिभाषा समाप्त हो गई; वर्णन समाप्त हो गया है। यदि तुम अभी तक वास्तव में उनके साथ चलते आए हो तो इसके बाद केवल अनुभव है। अब अस्तित्वगत का आरंभ होता है। व्यक्ति यह हो सकता है किंतु इसे कह नहीं सकता है। व्यक्ति इसमें जी सकता है, लेकिन व्यक्ति इसको परिभाषित नहीं कर सकता। शब्दों से सहायता न मिलेगी। इस बिंदु के पार सारी भाषा नपुंसक है। बस इतना ही कह कर कि व्यक्ति अपने सच्चे स्वभाव को उपलब्ध कर लेता है—पतंजलि रुक जाते हैं। लक्ष्य यही है. अपने स्वभाव को जानना और इसमें रहना—क्योंकि जब तक हम अपने स्वभावों तक नहीं पहुंचते, हम पीड़ा में रहेंगे। सारी पीड़ा संकेत देती है कि हम किसी न किसी प्रकार से अस्वाभाविकता पूर्वक जी रहे हैं। सारी पीडा बस इसी बात का लक्षण है कि किसी न किसी प्रकार से हमास स्वभाव परितृप्त नहीं हो रहा है, कि किसी न किसी भांति हम अपनी वास्तविकता के सन लय में नहीं हैं। यह पीड़ा तुम्हारी शत्रु नहीं है, यह बस एक लक्षण है। यह संकेत करती है। यह एक तापमापी, थर्मामीटर जैसी है; यह बस यह प्रदर्शित करती है कि तुम कहीं पर गलत हो। इसको ठीक कर लो, अपने आपको सही कर लो; स्वयं को लयबद्धता में ले आओ, वापस लौटो, स्वयं को लय में लाओ। जब प्रत्येक पीड़ा खो जाती है तो व्यक्ति अपने स्वभाव के साथ लय में होता है। इस स्वभाव को लाओत्सु ताओ कहता है, पतंजलि कैवल्य कहते हैं, महावीर मोक्ष कहते हैं, बुद्ध निर्वाण कहते हैं। लेकिन तुम इसको चाहे कुछ भी नाम दो—इसका न कोई नाम है और न कोई रूप— यह तुम्हारे भीतर है वर्तमान, ठीक इसी क्षण में। तुमने सागर को खो दिया था क्योंकि तुम अपने स्व से बाहर आ गए थे। तुम बाहर के संसार में बहुत अधिक दूर चले गए थे। भीतर की ओर चलो। इसको अपनी तीर्थयात्रा बन जाने दो—भीतर चलो।

ऐसा हुआ, एक सूफी रहस्यदर्शी बायजीद मक्का की तीर्थयात्रा पर जा रहा था। यह कठिन कार्य था। वह निर्धन था और वर्षों भीख मांग कर किसी तरह उसने यात्रा के खर्चों का इंतजाम किया था। अब वह बहुत खुश था। उसके पास मक्का जाने के लिए करीब—करीब पूरे रुपये हो गए थे, और तब उसने यात्रा की। जिस समय वह मक्का के बाहर पहुंचा, तो बस नगर के बाहर ही उसे एक फकीर, उसका सदगुरु मिल गया। वह वहां एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था और उसने कहा : अरे मूर्ख, तुम कहां जा रहे हो? बायजीद ने उसकी तरफ देखा, उसने ऐसा तेजस्वी व्यक्तित्व कभी नहीं देखा था। वह उस व्यक्ति के निकट आया और उस फकीर ने कहा? तुम्हारे पास जो कुछ भी हो मुझको दे दो! तुम कहां जा रहे हो? वह बोला, मैं तीर्थयात्रा के लिए मक्का जा रहा हूं। उसने कहा. समाप्त। कोई आवश्यकता नहीं है, तुम बस मेरी उपासना कर लो। मेरे चारों ओर तुम जितनी बार चाहो उतनी बार गोल—गोल घूम सकते हो। तुम अपनी परिक्रमा, अपना चक्कर मेरे चारों ओर पूरा कर सकते हो। मैं मक्का हूं? और बायजीद उस व्यक्ति के चुंबकत्व से इतना ओत—प्रोत हो गया कि उसने अपना सारा धन दे दिया, उसने उसकी उपासना की 1 फिर उस बूढ़े आदमी ने कहा अब घर लौट जाओ; और वह वापस घर लौट गया।

जब वह अपने नगर में गया, तो लोग एकत्रित हो गए और बोले, लगता है कि तुमको कुछ हो गया है। क्या वास्तव में इससे कुछ होता है, मक्का जाने से कुछ हो जाता है? तुम तेजस्वी, प्रकाश से इतने भरे हुए लग रहे हो। उसने कहा : यह मूर्खता भरी बातें मत करो! मुझको एक का आदमी मिल गया—उसने मेरी सारी तीर्थयात्रा की दिशा बदल दी। वह कहता है, घर जाओ, और तब से मैं घर जा रहा हूं भीतर की ओर। मैं पहुंच गया हूं। मैं पहुंच गया हूं मैं अपनी मक्का पहुंच चुका हूं।

बाहर की मक्का वास्तविक मक्का नहीं है। असली मक्का ‘तुम्हारे भीतर है। तुम परमात्मा का मंदिर हो। तुम परम का आश्रय हो। इसलिए प्रश्न यह नहीं है कि सत्य को कहां पाया जाए, प्रश्न है, तुमने इसे खो कैसे दिया? प्रश्न यह नहीं है कि कहां जाना है; तुम पहले से ही वहां हों—जाना बंद करो।

सारे रास्ते छोड़ दो। सभी रास्ते आकांक्षाओं के, वासनाओं के विस्तार के, अभिलाषाओं के प्रक्षेपण के हैं—कहीं और जाना है, कहीं और जाना है, सदैव कहीं और, यहां कभी नहीं।

खोजी, सारे रास्ते छोड़ दो, क्योंकि सभी रास्ते वहां ले जाते हैं और वह यहां है।

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसव: कैवल्य स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।

आज इतना ही।

Filed under: पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत ना छोड़ने की बात क्यों कहीं? - krshn ne sudaama se apanee pichhalee aadat na chhodane kee baat kyon kaheen?

कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत न छोड़ पाने की बात क्यों कही?

प्रश्न 5: कृष्ण ने सुदामा से अपनी पिछली आदत न छोड़ पाने की बात क्यों कही? उत्तर: श्री कृष्ण ने जब देखा कि सुदामा अपने साथ लाया उपहारस्वरूप तंदुल (चावल) भी छिपाते जा रहे हैं और वे देना नहीं चाहते हैं, तब उन्होंने ऐसा कहा, क्योंकि बचपन में एक बार सुदामा श्री कृष्ण के हिस्से के चने चोरी से खा गए थे।

श्रीकृष्ण ने सुदामा के पोटली छिपाने के पीछे क्या उलाहना दी?

श्रीकृष्ण ने सुदामा के पोटली छिपाने पर यह उलाहना दिया कि भाभी के अमृत भर चावल मुझ दंत क्या नहीं? क्या अभी भी तुम्हारी चोरी की आदत नहीं गई? उन्होंने बचपन में गुरुमाता द्वारा दिए चने, सुदामा द्वारा खा जाने की बात याद करवा दीसुदामा की दीनदशा देखकर श्रीकृष्ण की क्या मनोदशा हुई?

सुदामा को श्री कृष्ण की कौन बात याद आ रही थी class 8?

सुदामा की दीनदशा को देखकर श्रीकृष्ण को अत्यन्त दुख हुआ। दुख के कारण श्री कृष्ण की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। उन्होंने सुदामा के पैरों को धोने के लिए पानी मँगवाया। परन्तु उनकी आँखों से इतने आँसू निकले की उन्ही आँसुओं से सुदामा के पैर धुल गए।

सुदामा की कौन सी पुरानी आदत थी जो श्री कृष्ण ने हँस कर बताई थी?

श्रीकृष्ण ने सुदामा से हँसकर कहा, चोरी करने में तुम चतुर हो। (याद है न) एक बार गुरु-माता ने चने दिए थे और तुम हमें न दे कर सब चट कर गए थे। (और आज भी तुम वही कर रहे हो) भाभी के दिए हुए, सुधा रस से भीगे, चावलों की पोटली बगल में छिपाए बैठे हो। तुम्हारी चोरी की पुरानी आदत नहीं गई।