कश्मीरी हिंदुओं का वहिर्गमन वर्ष १९८९ के अन्तिम चरण से लेकर १९९० के आरम्भिक दिनों तक जेकेएलएफ एवं अन्य इस्लामी उपद्रवियों द्वारा निशाना बनाए जाने की शुरुआत के तुरन्त बाद हुए हिंदू विरोधी नरसंहारों और हमलों की श्रृंखला को संदर्भित करता है, जिसमे अंततः कश्मीरी हिंदू घाटी छोड़कर भागने को मजबूर हुए थे। इसे कश्मीरी पंडितों के पलायन भी कहा जाता है। Show २०१६ में कश्मीर घाटी में केवल २ हजार से ३ हजार हिन्दू ही शेष हैं, जबकि सन १९९० में कश्मीर घाटी में रहने वाले हिन्दुओं की संख्या लगभग ३ लाख से ६ लाख तक थी। कश्मीरी हिन्दू १९ जनवरी १९९० के दिन को "दुःखद बहिर्गमन दिवस" के रूप में याद करते हैं। जनवरी का महीना पूरी दुनिया में नए साल के लिए एक उम्मीद ले कर आता है, लेकिन कश्मीरी पंडितों के लिए यह महीना दुख, दर्द और निराशा से भरा है। 19 जनवरी प्रतीक बन चुका है उस त्रासदी का, जो कश्मीर में 1990 में घटित हुई। जिहादी इस्लामिक ताकतों ने कश्मीरी पंडितों पर ऐसा कहर ढाया कि उनके लिए सिर्फ तीन ही विकल्प थे - या तो धर्म बदलो, मरो या पलायन करो। आतंकवादियों ने सैकड़ों अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार दिया था। कई महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म कर उनकी हत्या कर दी गई। उन दिनों कितने ही लोगों की आए दिन अपहरण कर मार-पीट की जाती थी। पंडितों के घरों पर पत्थरबाजी, मंदिरों पर हमले लगातार हो रहे थे। घाटी में उस समय कश्मीरी पंडितों की मदद के लिए कोई नहीं था, ना तो पुलिस, ना प्रशासन, ना कोई नेता और ना ही कोई मानवाधिकार के लोग। उस समय हालात इतने खराब थे कि अस्पतालों में भी समुदाय के लोगों के साथ भेदभाव हो रहा था। सड़कों पर चलना तक मुश्किल हो गया था। कश्मीरी पंडितों के साथ सड़क से लेकर स्कूल-कॉलेज, दफ्तरों में प्रताड़ना हो रही थी- मानसिक, शारीरिक और सांस्कृतिक। 19 जनवरी, 1990 की रात को अगर उस समय के नवनियुक्त राज्यपाल जगमोहन ने घाटी में सेना नहीं बुलाई होती, तो कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम व महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म किस सीमा तक होता, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उस रात पूरी घाटी में मस्जिदों से लाउडस्पीकरों से ऐलान हो रहा था कि 'काफिरों को मारो, हमें कश्मीर चाहिए पंडित महिलाओं के साथ ना कि पंडित पुरुषों के साथ, यहां सिर्फ निजामे मुस्तफा चलेगा...।' लाखों की तादाद में कश्मीरी मुस्लमान सड़कों पर मौत के तांडव की तैयारी कर रहे थे। अंत में सेना कश्मीरी पंडितों के बचाव में आई। ना कोई पुलिसवाला, ना नेता और ना ही सिविल सोसाइटी के लोग। लाखों की तादाद में पीड़ित कश्मीरी हिंदू समुदाय के लोग जम्मू, दिल्ली और देश के अन्य शहरों में काफी दयनीय स्थिति में जीने लगे, लेकिन किसी सिविल सोसाइटी ने उनकी पीड़ा पर कुछ नहीं किया। उस समय की केंद्र सरकार ने भी कश्मीरी पंडितों के पलायन या उनके साथ हुई बर्बरता पर कुछ नहीं किया। कश्मीरी पंडितों के मुताबिक, 1989-1990 में 300 से ज्यादा लोगों को मारा गया। इसके बाद भी पंडितों का नरसंहार जारी रहा। 26 जनवरी 1998 में वंदहामा में 24, 2003 में नदिमर्ग गांव में 23 कश्मीरी पंडितों का कत्ल किया गया। तीस साल बीत जाने के बाद भी कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हुए किसी भी केस में आज तक कोई कार्रवाई नहीं की गई। हैरानी की बात यह कि सैकड़ों मामलों में तो पुलिस ने एफआईआर तक दर्ज नहीं की। पलायन के बाद, कश्मीरी पंडितों के घरों की लूटापट की। कई मकान जलाए गए। कितने ही पंडितों के मकानों, बाग-बगीचों पर कब्जे किए गए। कई मंदिरों को तोड़ा गया और जमीन भी हड़पी गई। इन सब घटनाओं का आज तक पुलिस में केस दर्ज नहीं हुआ। भय, उत्पीड़न, प्रताड़ना से ग्रस्त कश्मीरी पंडितों के समुदाय के लिए किसी ने आज तक कोई आवाज नहीं उठाई है। किसी भी सिविल सोसाइटी के लोग या नेता ने पंडितों को न्याय देने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। न्यायाधीश नीलकंठ गंजू, टेलिकॉम इंजीनियर बालकृष्ण गंजू, दूरदर्शन निदेशक लसाकोल, नेता टिकालाल टपलू जैसे इस समुदाय के कई प्रतिष्ठित नाम थे जिनको मौत के घाट उतार दिया गया था और आज तक इन सब के केस में कुछ नहीं हुआ। इनके अलावा कई ऐसे नाम हैं, जिनके खिलाफ बर्बरता की गई, लेकिन आज तक कार्रवाई क्या केस तक दर्ज नहीं हुआ। गिरजा गंजू या फिर सरला भट्ट जिनका अपहरण कर सामूहिक दुष्कर्म किया गया और फिर लकड़ी चीरने की मशीन से जिंदा चीर दिया गया। ऐसे सैकड़ों हत्याएं की गईं, जिनमें न्याय आज तक नहीं हुआ। कश्मीर के बड़े नेता फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, यहां तक कि दिवंगत मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कभी भी कश्मीरी पंडितों को न्याय दिलाने की बात नहीं की। जब पंडितों पर हमले हो रहे थे, तब फारूक अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे, जब घाटी से पंडितों का पलायन हुआ, तब मुफ्ती मोहम्मद सईद देश के गृहमंत्री थे। लेकिन किसी ने पंडितों को बचाने या न्याय दिलाने की न तो बात की और ना ही कोई कदम उठाया। यह इस समुदाय का दुभार्ग्य ही है कि उनके पलायन को लेकर न तो कोई न्यायिक आयोग, या फिर एसआईटी या साधारण सी जांच ही की गई हो। कश्मीरी पंडितों को आज भी न्याय का इंतजार है। साल 2020 से एक नए युग की शुरुआत है। तीन दशक बीत जाने के बाद आज भी इस समुदाय के लिए घरवापसी की राह आसान नहीं है। मगर उम्मीद जरूर जगी है कश्मीरी पंडित नहीं वे केवल हिन्दू थे मुस्लिम धर्म के अत्याचार से परेशान होकर वहां से भागे थे सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
कश्मीर से कश्मीरी पंडित क्यों भागे?1990 में कश्मीर में आतंकवाद के दौरान करीब दो लाख कश्मीरी पंडित घाटी छोड़कर चले गए थे. 21 अगस्त 1989 को भारत-समर्थक मुस्लिम राजनेता मुहम्मद यूसुफ हलवाई की सशस्त्र आतंकवादियों ने हत्या कर दी थी. आतंकवादियों द्वारा की गई यह पहली हत्या थी.
कश्मीरी पंडितों की कहानी क्या है?फिर बड़े लोगों को बनाया जाने लगा निशाना
प्रभावती की हत्या के बाद कुछ दिन माहौल शांत रहा, लेकिन 14 सितंबर 1989 को एक बार फिर से घाटी दहल गई। आतंकवादियों ने मशहूर कश्मीरी पंडित और वकील पं. टीका लाल टपलू को उनके घर में घुसकर गोलियों से भून दिया। इस हत्या ने कश्मीरी पंडितों के बीच खौफ भर दिया।
कश्मीर में कितने हिन्दू मारे गए?उस दौरान केंद्रीय मंत्री ने बताया था कि साल 2017 में जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यक समुदायों के कुल 11 लोग मारे गए, जबकि साल 2018 में इस समुदाय के 3 लोगों की हत्याएं हुईं. वहीं, 2019 में- 6, 2020 में- 3 और 2021 में- 11 लोगों की हत्याएं की गईं.
कश्मीर नरसंहार कब हुआ था?19 जनवरी प्रतीक बन चुका है उस त्रासदी का, जो कश्मीर में 1990 में घटित हुई।
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