ईसा पूर्व छठी शताब्दी का भारत के इतिहास में क्या महत्व है? - eesa poorv chhathee shataabdee ka bhaarat ke itihaas mein kya mahatv hai?

छठी शताब्दी ईसा पूर्व: नए धार्मिक विचारों का उदय

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छठी शताब्दी ईसा पूर्व को विश्व इतिहास का एक महत्वपूर्ण युग माना जाता है। उस शताब्दी से पहले के समय को पूर्व-ऐतिहासिक युग के रूप में वर्णित किया गया है।

छठी शताब्दी ईसा पूर्व से, हालांकि ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद थे।

इस प्रकार कि छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ऐतिहासिक काल शुरू हुआ यह उस समय के लिए महत्व जोड़ता है।

यह ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भारत में मानव जाति के दो महान धर्मों के संस्थापक थे। वे जैन धर्म और बौद्ध धर्म के संस्थापक महावीर जीना और गौतम बुद्ध थे। जीना और बुद्ध के बारे में और उनके धर्मों के बारे में पर्याप्त साहित्य लिखा गया। यद्यपि जैन और बौद्ध साहित्य चरित्र में धार्मिक थे, फिर भी उनमें उस समय की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों के बारे में बहुत जानकारी थी। इतिहास उन साहित्यिक स्रोतों से लिखा जा सकता है। का उदय था जैन धर्म और बौद्ध धर्म जिसने छठी शताब्दी ईसा पूर्व को महान और शानदार बना दिया था।

ईसा पूर्व छठी शताब्दी का भारत के इतिहास में क्या महत्व है? - eesa poorv chhathee shataabdee ka bhaarat ke itihaas mein kya mahatv hai?

छवि स्रोत: upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/b/b6/WLA_lacma_Jina_Rishabhanatha.jpg

यह उस शताब्दी से था कि प्राचीन भारत की राजनीतिक स्थिति स्पष्ट रूप लेने लगी थी। उस समय कई राज्य अस्तित्व में आए। देश के बड़े क्षेत्रों को एकजुट करके बड़े राज्यों के निर्माण का प्रयास भी किया गया। इससे ईसा पूर्व छठी शताब्दी को महत्व मिला

नए धार्मिक विचारों का उदय:

6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व ने भारत में पुरुषों के मन में एक बड़ी अशांति देखी। यह भारतीय समाज में नएपन और सुधार के लिए एक आध्यात्मिक और धार्मिक जागृति की तरह था। उपदेशक और भटकने वाले भिक्षुओं द्वारा महावीर और बुद्ध की उम्र से पहले एक बदले हुए दृष्टिकोण के लिए मैदान तैयार किए जा रहे थे जिन्होंने मौजूदा धार्मिक परिस्थितियों और सामाजिक व्यवस्था के मूल्य के बारे में संदेह व्यक्त किया था।

ऋग-वैदिक काल की पहले की धार्मिक सादगी और सामाजिक समानता अब नहीं थी। बाद के वैदिक समय से, धर्म ने अपने आंतरिक पदार्थ को कभी भी बढ़ती बाहरी प्रथाओं में खो दिया। डोगमा और अनुष्ठान अधिक कठोर हो गए। कई देवी-देवताओं को धार्मिक विश्वास में प्रकट किया गया था। अंधविश्वास ने आध्यात्मिकता को छिन्न-भिन्न कर दिया।

पुरोहितों का वर्चस्व पूरी तरह से खत्म हो गया। उन्होंने धार्मिक सोच और पवित्र प्रदर्शन दोनों का एकाधिकार बना लिया। ब्राह्मणवादी वर्चस्व ने धार्मिक खोज के दरवाजे अन्य सामाजिक वर्गों के लिए बंद कर दिए। पहले के युगों की एकता और नैतिकता पशु बलि, कई समारोहों और अर्थहीन प्रथाओं के रूप में अंधे संस्कारों में नष्ट हो गई।

जैसे-जैसे धर्म अपनी पूर्व जीवन शक्ति खोता गया, समाज भी अपनी पहले जैसी शक्ति खोता गया। जाति व्यवस्था ने मानव समानता की अवधारणा को नष्ट कर दिया और पुरुषों को वर्गों में विभाजित किया। उप-जातियां संख्या में गुणा करने लगीं।

बहुसंख्य पुरुषों के लिए, प्रचलित सामाजिक व्यवस्थाएँ दमनकारी और दर्दनाक थीं। निम्न वर्ग जैसे कि सुदास ने नीचा दिखाया। क्षत्रिय और वैश्य भी, ब्राह्मणों के वर्चस्व से पीड़ित थे, और बाद के लोगों की पसंद को नापसंद करने लगे।

जब बुद्धिमान पुरुषों को वेदों और उपनिषदों जैसे पवित्र ग्रंथों को पढ़ने की स्वतंत्रता नहीं थी, और आम लोगों को पुजारियों के अलावा देवताओं की पूजा करने का कोई अधिकार नहीं था, उच्च आध्यात्मिकता के लिए पुरुषों की इच्छा अधूरी रह गई। जीवन, आत्मा और मोक्ष के निर्माता और सृजन का आंतरिक अर्थ, पुजारियों के अनजाने मंत्रों में डूबा हुआ था, और जानवरों और अंध विश्वासों का वध। अज्ञान, ज्ञान नहीं, वातावरण पर हावी था।

ऐसी धार्मिक और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ एक प्रतिक्रिया अपरिहार्य हो गई। ऐसे संत और प्रचारक थे, जिन्होंने पुनर्विचार के लिए खुलकर आवाज उठाई। यह इस मानसिक माहौल में था कि प्रबुद्ध प्रगति के युग में जैन और बौद्ध धर्म दो शक्तिशाली धार्मिक आंदोलनों के रूप में उभरे। लंबे समय में, जैन और बौद्ध आंदोलन, विशेष रूप से बौद्ध, ने मानव इतिहास में दूरगामी परिणाम प्राप्त किए।

इकाई 5

(India in the Sixth CenturyB.C.)

छठी शताब्दी ईसा पूर्व की सामाजिक-धार्मिक क्रान्ति के आधारभूत कारण उत्तर वैदिक काल में निर्मित होने लगे थे। उत्तर वैदिक काल में धर्म के कर्मकाण्डीय स्वरूप तथा ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त के वर्ण विभाजन ने सामाजिक श्रेष्ठता और आर्थिक शोषण को बढ़ावा दिया। कर्मकाण्ड व जटिल वर्ण व्यवस्था के कारण समाज के वर्गों में उद्वेलन होने लगा जिसके कारण समाज में असन्तोष व्याप्त था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के उत्तरोत्तर काल में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का उत्थान हुआ तथा परम्परागत वैदिक धर्म एवं समाज में व्याप्त बुराइयों, पाखण्डों, कुप्रथाओं, छुआछूत, ऊंच-नीच आदि का विरोध किया गया। इन कर्मकाण्डों के विरोध में सशक्त आवाज उपनिषद काल में व्यक्त हुई तथा आगे चलकर इसी के आधार पर छठी शताब्दी ईसा पूर्व के सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन की पृष्ठभूमि निर्मित हुई।

सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन के कारण (Causes Behind Socio-Religious Movement)

उत्तर वैदिक काल में वर्गों का स्पष्ट विभाजन हो चुका था। समाज में वर्ण व्यवस्था पर आधारित कर्म प्रचलित होने लगे थे। वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय को उच्च वर्ण का माना जाता था और इन्हें नीचे के दोनों वर्गों पर शासन का अधिकार प्राप्त था। ब्राह्मण जिन्हें वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त था, इन्हें पुरोहित तथा धर्म विषयक शिक्षा का कार्य दिया गया था तथा इनके भरण पोषण का दायित्व नीचे के वर्गों पर था। वर्ण व्यवस्था में दूसरे क्रम पर क्षात्र वर्ण अर्थात् क्षत्रिय आते थे। इनका कार्य शासन करना और जनता तथा क्षेत्र की रक्षा के लिए युद्ध करना था। क्षत्रियों के बाद वर्ण व्यवस्था के क्रम में वैश्य आते थे, जिन्हें ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के साथ संयुक्त रूप से द्विज कहा जाता था और इन्हें उपनयन कराने और वेद-पाठ का अधिकार था। मुख्य करदाता वैश्य ही थे। वैश्य वर्ण को कृषि, पशुपालन तथा व्यापार द्वारा धन और अनाज उपजाकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों को देना पड़ता था जिससे कि उनमें असंतोष व्याप्त था। वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले सोपान पर शूद्र वर्ण आता था। इनके लिए जनेऊ धारण करना तथा वेदों का अध्ययन करना वर्जित था। शूद्रों का मुख्य कार्य ऊपर के तीनों वर्गों की सेवा करना था। उत्तर वैदिक काल में शूद्र गृह-दास, कृषि-दास, मजदूर और शिल्पकी के रूप में दिखाई देते हैं। इन्हें अश्पृश्य समझा जाता था तथा लोभी और चोर कहा जाता था। इनके लिए कठोर दण्ड का प्रावधान था। इन सभी सामाजिक विषमताओं से शूद्रों में अत्यधिक रोष था। उत्तर वैदिक काल के उत्तरवर्तीय चरण में महिलाओं की स्थिति भी शूद्रों की तरह हो गई। इन्हें वेद पढ़ने तथा जनेऊ धारण करने से वंचित कर दिया गया। महिलाओं को पुरुषों की तुलना में हेय समझा जाता था। सम्पत्ति का अधिकार भी उन्हें प्राप्त नहीं था। इस प्रकार की शोषणकारी व्यवस्था के कारण स्त्रियों में असंतोष व्याप्त था। ।

साथ ही साथ बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में ढलवा लोहा तथा धान रोपण की तकनीक ने कृषि उत्पादन में अधिशेष को बढ़ाया। लोहे के प्रयोग के परिणामस्वरूप मध्य गंगा के क्षेत्रों में अत्यधिक संख्या में लोग बसने लगे जिससे नगरों का निर्माण प्रारम्भ हो गया तथा इन नगरों में निवास करने वाले जो धन की दृष्टि से सम्पन्न वैश्य तथा शूद्र वर्ण के लोग थे, ने वर्ण व्यवस्था के सोपान में अपने निचले क्रम तथा जटिल कर्मकाण्डों को मानने से इन्कार कर दिया। मध्य गंगा के मैदानों में जब कृषि का। प्रचलन बढ़ने लगा तो पशुओं का महत्व भी बढ़ने लगा जबकि धार्मिक क्रियाकलापों तथा यज्ञों में पशुओं की बलि बड़े पैमाने पर दी जाती थी। इससे पशुओं की संख्या लगातार कम होती जा रही थी जबकि कृषि में पशुओं की आवश्यकता थी जिस कारण इस नई कृषि व्यवस्था के विकास के लिए पशुबलि पर रोक के लिए भी विद्रोह के स्वर प्रस्फुटित हुए। समकालीन आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के कारण छठी शताब्दी ईसा पूर्व में सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन हुए। संक्षेप में तत्कालीन समाज में ब्राह्मणीय व्यवस्थाओं के विरोध में लोगों के स्वर तीव्र हुए तथा उस समय उदय हुए अनेक नये धर्मों तथा सम्प्रदायों ने उसमें सुधार के लिए प्रयास किये। विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के अलावा जिन दो प्रसिद्ध धर्मों का विकास इस काल में हुआ उन्हें जैन धर्म और बौद्ध धर्म के नाम से जानते हैं। इन दोनों धर्मों ने तत्कालीन समाज को मुक्ति का सर्वथा उचित मार्ग बताया, जिस कारण इन दोनों धर्मों के अनुयायियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई और कालान्तर में ये अनेक देशों में विख्यात हुए।

जैन धर्म (Jainism)

जैन अनुश्रूतियों और परम्पराओं के अनुसार जैन धर्म की उत्पत्ति और विकास में 24 तीर्थंकर सम्मिलित हैं, परन्तु इनमें से 22 तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। अन्तिम दो तीर्थंकर पार्श्वनाथ (23वें) एवं महावीर स्वामी (24वें) की ऐतिहासिकता को जैन धर्म के ग्रन्थों में प्रमाणित किया गया है।

महावीर (Mahaveer)-

महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे तथा यथार्थ में जैन धर्म की स्थापना का श्रेय इन्हें ही दिया जाता है. क्योंकि इस धर्म में सुधार तथा व्यापक प्रचार-प्रसार इनके समय में ही हुआ।

जैन परम्परा के अनुसार महावीर स्वामी का जन्म वज्जिसंघ की राजधानी वैशाली (वर्तमान में उत्तरी बिहार का बसाढ़) के निकट कुण्डग्राम में ज्ञातृक क्षत्रिय कुल में हुआ था। इनके पिता सिद्धार्थ कुण्डग्राम के क्षत्रिय कुल के प्रधान तथा माता त्रिशला लिच्छवि नरेश चेटक की बहन थी। इनका प्रारम्भिक नाम वर्द्धमान था।

– वर्द्धमान का आरम्भिक जीवन सुख-सुविधा सम्पन्न था। बड़ा होने पर वर्द्धमान का विवाह यशोदा नामक राजकन्या से हुआ। उससे उन्हें एक पुत्री हुई, कालान्तर में जिसका विवाह जामालि से हुआ, जो इनका प्रारंभिक शिष्य था। 30 वर्ष की अवस्था में अपने बड़े भाई नदिबर्धन की आज्ञा से सांसारिक जीवन छोड़कर महावीर ने निर्ग्रन्थ भिक्षु का जीवन जीना प्रारम्भ किया और तपस्या करने लगे। 12 वर्षों की कठोर तपस्या के बाद जृम्भिकग्राम के निकट ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल वृक्ष के नीचे उन्हें ‘कैवल्य’ (ज्ञान) प्राप्त हुआ। इसी कारण इन्हें ‘केवलिन’ कहा जाता है। अपनी सभी इन्द्रियों पर विजय पाने के कारण वे “जिन” अर्थात् विजेता कहलाए और इसी कारण इनके अनुयायी जैन कहलाये। अपनी साधना में अडिग रहने तथा पराक्रम दिखाने के कारण उन्हें ‘महावीर’ नाम से संबोधित किया गया। कोसल, मिथिला, चंपा, मगध आदि महाजनपदों में महावीर ने जैन धर्म का प्रचार 30 वर्षों तक किया। 72 वर्ष की अवस्था में 468 ई. पू. में वर्तमान राजगीर के निकट पावा में उनकी मृत्यु हो गई।

जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ (Key Teachings of Jainism)

जैन धर्म के पाँच व्रत निम्न हैं –

(1) अहिंसा (हिंसा नहीं करना चाहिए)

(2) सत्य (झूठ नहीं बोलना चाहिए)

(3) अस्तेय (चोरी नहीं करना चाहिए)।

(4) अपरिग्रह (सम्पत्ति अर्जित नहीं करना चाहिए) .

(5) ब्रह्मचर्य (इन्द्रियों को वश में करना)

इन पाँच व्रतों में ऊपर के चार पार्श्वनाथ ने दिये थे जबकि पाँचवाँ व्रत ‘ब्रह्मचर्य” महावीर स्वामी ने जोडा। जैन धर्म में अहिंसा तथा प्राणियों पर दया को सबसे अधिक महत्व दिया गया। महावीर ने अपने अनुयायियों को वस्त्र त्याग देने का आदेश दिया जिससे जीवन में अत्यधिक संयम आये। जैन, धर्म में वर्ण व्यवस्था को मान्यता दी गई है तथा पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ही उच्च या निम्न कुल में जन्म का आधार बताया गया है। महावीर स्वामी के अनुसार यदि शुद्ध और अच्छे व्यवहार वाला व्यक्ति निम्न कुल में भी पैदा हुआ है तो भी वह मोक्ष पा सकता है। इस धर्म में सांसारिकता से मुक्ति के लिए उपाय बताये गये हैं। जैन धर्म में त्रि-रत्नों की चर्चा की गई है, जो निम्न हैं –

सांसारिक बंधनों से छुटकारा तथा मोक्ष पाने के लिए किसी कर्मकाण्ड या अनुष्ठान की जगह जैन धर्म में त्रिरत्नों का पालन करने को कहा गया है। जैन धर्म में अहिंसा के कारण युद्ध और कृषि कार्य दोनों वर्जित है क्योंकि इन दोनों कार्यों में जीव हिंसा होती है। महावीर ने आत्मवादियों तथा नास्तिकों के एकान्तिक मतों को छोड़कर बीच का मार्ग अपनाया जिसे ‘अनेकान्तवाद’ अथवा ‘स्यादवाद’ कहा गया है। इसे ज्ञान की सापेक्षिकता का सिद्धान्त कहते हैं। कालांतर में जैन धर्म श्वेताम्बर तथा दिगम्बर नामक दो संप्रदायों में बँट गया। श्वेताम्बर श्वेत वस्त्र धारण करते थे जबकि दिगम्बर भद्रबाहु के समर्थक थे तथा नग्न रहने में विश्वास करते थे।

जैन धर्म का समाज पर प्रभाव (Impact of Jainism on Society)

जैन धर्म द्वारा ही सर्वप्रथम वर्ण व्यवस्था की जटिलता और कर्मकाण्डों की जैन संगीतियाँ बुराइयों को रोकने के लिए सकारात्मक प्रयास प्रारम्भ किये गये। जैनों ने ब्राह्मणीय भाषा संस्कत के स्थान पर आम जन की भाषा प्राकत में उपदेश दिये। जैन धार्मिक प्रथम सगाति द्वितीय सगीति ग्रन्थ अर्द्धमागधी भाषा में लिखे गये। जैन धर्म द्वारा प्राकृत भाषा के प्रयोग के | समय-300 ई. पू. | समय-छठी शताब्दी कारण इस भाषा का विकास हुआ तथा साहित्य समृद्ध हुआ।

स्थान-पाटलिपुत्र स्थान-बल्लभी (गुजरात) जैन परम्परा के अनुसार हर्यक वंशी उदायिन जैन धर्म का अनुयायी था। | अध्यक्ष-स्थूलभद्र | अध्यक्ष-क्षमा श्रमण चन्द्रगुप्त मौर्य भी जैन धर्म को मानता था। उसने भद्रबाहु के साथ दक्षिण में श्रवणबेलगोला (वर्तमान कर्नाटक में) में प्रवास किया तथा जैन निर्वाण विधि ‘संलेखना’ द्वारा प्राण त्याग दिये। पहली सदी में उज्जैन और मथुरा जैन धर्म के मुख्य केन्द्र थे। __जैन धर्म में अहिंसा पर अत्यधिक बल देने के कारण उसके अनुयायी कृषि तथा युद्ध में संलग्न न होकर व्यापार तथा वाणिज्य को महत्व देते थे, जिससे व्यापार वाणिज्य की उन्नति हुई तथा नगरों की सम्पन्नता बढ़ी। जनता को जैन धर्म के सीधे एवं सरल उपदेशों ने आकर्षित किया तथा उत्तर वैदिक कालीन कर्मकाण्डीय जटिल विचारधारा के सम्मुख जैन धर्म के रूप में जीवन-यापन का सीधा-सादा मार्ग प्रस्तुत किया।

• जैनधर्म में ईश्वर की मान्यता नही है जबकि यह आत्मा की सत्ता को स्वीकार करता है।

• जैनधर्म मानने वाले प्रमुख राजा थे- उदयिन चन्द्रगुप्त मौर्य, कलिंग का शासक खारवेल, राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष, चंदेल .. शासक इत्यादि।

• जैनधर्म में पाँच प्रकार के ज्ञान- मति ज्ञान, श्रुति ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनः पर्याय और कैवल्य की चर्चा की गई है।

• उत्तर भारत में जैनधर्म के प्रमुख केन्द्र उज्जैन एवं मथुरा था।

गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म (Gautam Buddha and Buddhism)

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध भी क्षत्रिय थे। इनका जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व में शाक्यों के कुल में कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी ग्राम के आन कुंज में हुआ था। इनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्य गणं के मुखिया तथा माता महामाया कोसल राजवंश की कन्या थी। इनके जन्म के सातवें दिन माता की मृत्यु होने के कारण इनका पालन-पोषण इनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया। बाल्यकाल में इनका नाम सिद्धार्थ रखा गया। प्रारम्भ से ही इनका ध्यान आध्यात्म की ओर अग्रसर था तथा प्रायः से चिन्तन में लीन रहते थे। 16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह यशोधरा (अन्य नाम गोपा, बिंबा तथा भद्र कच्छना) से हुआ। यशोधरा से सिद्धार्थ को एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जिसका नाम राहुल पड़ा। परन्तु सिद्धार्थ का मन सांसारिक भोगों और मोह बंधन में नहीं लगा। वे सांसारिक दुखों को देखकर दुखी हो जाते और उनके निवारण के लिए उपाय खोजते। 29 वर्ष की अवस्था में सिद्धार्थ महावीर की तरह घर छोड़कर निकल गये। सात वर्षों तक भटकने के दौरान इन्होंने आलार कलाम तथा रूद्रक रामपुत्र से दीक्षा ली परन्तु ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ। उन्होंने कठोर संयम अपनाया और ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने शरीर को विभिन्न यातनाएँ दी। अन्ततः 35 वर्ष की अवस्था में उरुवेला (बोधगया) में पीपल वृक्ष के नीचे इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। तभी से वे ‘बुद्ध’ कहे जाने लगे। ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् वे वाराणसी गए तथा अपना पहला उपदेश ऋषि वन (सारनाथ) में दिया, जिसे ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ कहते हैं। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में लम्बी-लम्बी यात्राएँ की। 80 वर्ष की अवस्था में 483 ई. पू. में मल्ल गणराज्य की राजधानी कुशीनगर (वर्तमान पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में कसिया) में इन्होंने शरीर त्याग किया जिसे बौद्ध ग्रंथों में ‘महापरिनिर्वाण’ कहा गया है।

बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ (Teachings of Buddhism)-

महात्मा बुद्ध ने कहा कि संसार दुखमय है और दुख का कारण तृष्णा है। बुद्ध ने कर्म के सिद्धान्त पर बल दिया। उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार किया तथा वर्ण व्यवस्था की घोर निन्दा की। बुद्ध ने ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ (अर्थ- संसार की सभी वस्तुएँ किसी न किसी कारण से उत्पन्न हुई है और इस प्रकार वे इस पर निर्भर हैं) को संपूर्ण जगत पर लागू किया। उन्होंने निर्वाण प्राप्त करने को कहा अर्थात् इच्छाओं और तृष्णाओं से छुटकारा जिससे जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति मिले। इसके लिए उन्होंने ‘आष्टांगिक मार्ग’ सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, जो निम्न हैं –

(6) सम्यक् व्यायाम/प्रयास

वैदिक धर्म के कर्मकाण्डों व अनुष्ठानों के विपरीत उन्होंने नैतिकता पर बल दिया। उनका कहना था कि इन आठ मार्गों को अपनाकर व्यक्ति बिना किसी पुरोहित की सहायता और यज्ञ सम्पादित किये निर्वाण प्राप्त कर सकता है। उन्होंने पशु बलि की घोर निन्दा की तथा अपने अनुयायियों को आचार नियम बताये –

(1) पराये धन का लोभ नहीं करना

(3) नशे का सेवन नहीं करना

(5) दुराचार से दूर रहना ..

महात्मा बुद्ध ने मध्यम मार्ग का प्रतिपादन किया अर्थात् न अत्यधिक कठोर संयम और न ही अत्यधिक विलासितापूर्ण जीवन। उनके बताये सामाजिक आचार नियम लगभग सभी धर्मों द्वारा बताये गये हैं। बौद्ध धर्म को मानने वालों में निम्न वर्गों के व्यक्ति अधिक थे क्योंकि इसने वर्ण व्यवस्था की निंदा की। इस धर्म में ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को नकारा गया। बौद्ध संघ का दरवाजा हर वर्ण, स्त्री-पुरुष सभी के लिए खुला था जिससे समानता की भावना का विकास हुआ। ब्राह्मण धर्म की अपेक्षा बौद्ध धर्म अत्यधिक उदार और इसमें जनतंत्र के विचार प्रभावी थे, इसीलिए बौद्ध धर्म तत्कालीन उदित धर्मों में सबसे लोकप्रिय हुआ तथा भारत के बाहर भी इसके अनुयायियों की संख्या बढ़ी। आज भी बौद्ध धर्म अनेक देशों का प्रमुख धर्म है।

बौद्ध धर्म की उपादेयता और प्रभाव (Utility and Impact of Buddhism)

1. आर्थिक क्षेत्र में (In Economic Realmy)

• लोहे के फाल वालें हल से खेती व्यापार और सिक्कों के प्रचलन से व्यापारियों और अमीरों को धन संचित करने का मौका मिला। किन्तु बौद्ध धर्म ने घोषणा की कि धन संचित नहीं करना चाहिए क्योंकि धन दरिद्रता, घृणा, क्रूरता और हिंसा की जननी है।

• इन बुराइयों को दूर करने के लिए बुद्ध ने उपदेश दिया कि किसानों को बीज और अन्य सुविधाएँ और श्रमिकों को मजदूरी मिलनी चाहिए तथा इन उपायों की अनुशंसा सांसारिक दरिद्रता को दूर करने के लिए की गई।

• संघ में कर्जदारों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया। इससे स्पष्टतः महाजनों और धनवानों को लाभ हुआ क्योंकि कर्जदार अब बिना कर्ज चुकाये संघ में शामिल नहीं हो सकते थे।

• संघ में दासों का प्रवेश निषेध था। यदि उन्हें प्रवेश मिलता तो कृषि में गिरावट होती क्योंकि ज्यादातर दास कृषि क्षेत्रों से ही जुड़े हुए थे।

2. सामाजिक क्षेत्र में (In Sociological Realm)

• बौद्ध धर्म ने स्त्रियों और शूद्रों के लिए अपने द्वार खोलकर समाज पर गहरा प्रभाव जमाया क्योंकि जिसने बौद्ध धर्म स्वीकार किया उन्हें अधिकार हीनता से मुक्ति मिली।

• बौद्ध धर्म ने अहिंसा और जीवमात्र के प्रति दया की भावना जगाकर देश में पशुधन में वृद्धि की।

• बौद्ध धर्म ने समाज में अंधविश्वास की जगह तर्क को वरीयता प्रदान की जिससे लोगों में बुद्धिवाद की परिकल्पना पनपी।

3. राजनीतिक क्षेत्र में (In Political Realm)

• जिस शासक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया, चाहे वह समकालीन हो या परवर्ती, अपने नीति में अहिंसा को एक नीति के रूप में लागू किया। जैसे-अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर धम्म नीति का अनुसरण किया तथा लंबे समय तक शांति के साथ अपने साम्राज्य पर शासन किया।

• विभिन्न राष्ट्रों में बौद्ध धर्म का प्रसार होने से भारत का ऐतिहासिक काल में इन राष्ट्रों से मधुर संबंध तो थे ही, साथ ही साथ वर्तमान समय में भी द्विपक्षीय संबंधों को सुधारने में ऐतिहासिक संबंधों का जिक्र किया जाता है।

4 साहित्य के क्षेत्र में (In Literary Realm)

• बौद्धों ने अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन करने के लिए एक नए प्रकार से साहित्य सर्जना की।

• उन्होंने अपने लेखन से पालि भाषा को समृद्ध किया।

• ईसा की प्रथम तीन सदियों में पालि और संस्कृत को मिलाकर बौद्धों ने एक नयी भाषा चलायी, जिसे मिश्रित (Hybrid) संस्कृत कहते हैं।

• बौद्ध विहार महान विद्या केन्द्र हो गये, जिन्हें आवासीय विश्वविद्यालय की संज्ञा दी जा सकती है। जैसे–बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा गुजरात में वल्लभी विश्वविद्यालय उल्लेखनीय हैं।

5. सांस्कृतिक क्षेत्र में (In Cultural Realm)

  • प्राचीन भारत की कला पर बौद्ध धर्म का काफी प्रभाव परिलक्षित हुआ। श्रद्धालु उपासकों ने बुद्ध के जीवन की अनेक घटनाओं को पत्थरों पर उकेरा है, जैसे-साँची, भरहुत, सारनाथ, कौशांबी आदि स्थानों पर। भारत के पश्चिमोत्तर सीमांत में यूनान और भारत के मूर्तिकारों ने नए ढंग की कला की सृष्टि करने के लिए सम्मिलित रूप से प्रयास किया जो गांधार कला शैली के रूप में विख्यात हुई। इस प्रदेश में बनी प्रतिमाओं में देशी और विदेशी दोनों प्रभाव स्पष्ट दिखाए पड़ते हैं।

  • भिक्षुओं के निवास के लिए चट्टानों को तराश कर कमरे बनाए गए तथा इस प्रकार बराबर पहाड़ियों और पश्चिम भारत में नासिक के आस-पास की पहाड़ियों में गुफा वास्तु-कला का आरंभ हुआ।
  • बौद्ध कला दक्षिण भारत के कृष्णा डेल्टा और उत्तर भारत के मथुरा में फली-फली।।

  • बुद्ध की सर्वाधिक मूर्तियों का निर्माण गांधार शैली में हुआ है। बुद्ध की पहली प्रतिमा मथुरा कला शैली के अन्तर्गत बनाई गई

  • बौद्धधर्म में शून्यवाद तथा विज्ञानवाद जैसी दार्शनिक पद्धतियों का उदय हुआ। इसका प्रभाव शंकराचार्य के दर्शन पर भी पड़ा।

“बुद्ध पूर्णिमा” बौद्धों का महत्त्वपूर्ण त्योहार है जो वैशाख की पूर्णिमा को होता है। इसी दिन बुद्ध का जन्म, ज्ञान की प्राप्ति एवं महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई थी।

• संघ में प्रविष्ट होने को ‘उपसंपदा’ कहते थे।

• बौद्ध संघ की सभा में प्रस्ताव का पाठ होता था जिसे ‘अनुसावन कहते थे।

बौद्ध भिक्षु नागार्जुन ने प्रथम सदी ई. में चीन जाकर बौद्ध कृतियों का चीनी भाषा में अनुवाद किया।

बुद्ध के जीवन से संबंधित बौद्ध धर्म के प्रतीक

जन्म – कमल एवं सांड

गृहत्याग – घोडा

ज्ञान – पीपल (बोधि वृक्ष)

निर्वाण – पद चिन्ह

मृत्यु – स्तूप

अन्य संप्रदाय और उसके संस्थापक

आजीवक – मक्खलिपुत्र गोशाल

घोर अक्रियावादी – पुरण कश्यप

यदृच्छावाद – आचार्य अजित केशकंबलिन

भौतिकवादी – पकुध कच्चायन (भाटिक दर्शन)

अनिश्चयवादी – संजय वेठलिपुत्र

छठी शताब्दी ई. पू. में बौद्ध, जैन एवं अनेक धार्मिक सम्प्रदायों के उदय के साथ ही ब्राह्मण धर्म की जटिलताओं के विरुद्ध भागवत धर्म, शैव धर्म एवं शाक्त धर्म का भी उदय हुआ जो हिन्दू धर्म की ही शाखा थे।

भागवत धर्म (Bhagavatism)- इस धर्म का उदय ब्राह्मण धर्म के जटिल कर्मकाण्ड एवं यज्ञीय स्वरूप के विरुद्ध हुआ। भागवत धर्म का उल्लेख सबसे पहले छठी शताब्दी ई. पू. के लगभग उपनिषदों में मिलता है। वासुदेव कृष्ण के द्वारा इस धर्म का प्रतिपादन किया गया जिनका उल्लेख सर्वप्रथम छांदोग्य उपनिषद में देवकी के पुत्र एवं घोरा अंगिरस के शिष्य के रूप में हुआ है। इस धर्म में व्यक्तिगत उपासना तथा भक्ति पर बल दिया गया है। महाभारत काल में कृष्ण का तादात्म्य विष्णु से किये जाने के कारण यह धर्म वैष्णव भी कहलाया।

मेगास्थनीज ने कृष्ण को ‘हेराक्लीज’ नाम से उल्लिखित किया है। जैन ग्रन्थ उत्तराध्ययन सूत्र में वासुदेव का संबंध जैन तीर्थंकर अरिष्टनेमि से बताया गया है। मथुरा इस धर्म का प्रमुख केन्द्र था। अवतारवाद का सर्वप्रथम उल्लेख श्रीमद्भागवत गीता में मिलता हैं। दक्षिण भारत में वैष्णव मत का विस्तार अलवार सन्तों ने किया, जिनकी संख्या 12 थी। इन सन्तों में आंडाल नामक . महिला सन्त का भी उल्लेख है, जिसे ‘दक्षिण की मीरा’ कहते हैं। सबसे प्रसिद्ध वैष्णव संव तिरुमंगई थे।

शैव धर्म (Shaivism)- शैव धर्म का उद्भव उपनिषदोत्तर काल में हुआ जब रुद्र का तादात्म्य शिव के साथ हुआ। शिव का अर्थ है-शुभ। इसमें लिंग पूजा तथा मूर्ति पूजा दोनों होती है। लिंगपूजा का सर्वप्रथम साक्ष्य सैन्धव सभ्यता से और मूर्ति पूजा का उल्लेख द्वितीय सदी ई.पू. में पतंजलि के महाभाष्य से मिलता है।

मेगास्थनीज ने शिव को ‘डायोनिसस’ कहा था। दक्षिण भारत में शैव आन्दोलन 63 नयनार सन्तों ने चलाया जिनमें प्रमुख सन्त थे-सुन्दर मूर्ति, सम्बंदर आदि।

वस्तुतः एक संप्रदाय के रूप में शैव धर्म का प्रारंभ शुंग-सातवाहन काल मे हुआ जो गुप्त काल में अपने चरम पर पहुँच गया। अर्द्धनारीश्वर तथा त्रिमूर्ति की पूजा गुप्तकाल में शुरु हुई। लिंग पूजा का प्रथम स्पष्ट उल्लेख ‘मत्स्य पुराण’ में मिलता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी लिंग पूजा की चर्चा हुई है।

प्रमुख शैव सम्प्रदाय (Main Shaiva Sect)

(a) पाशुपत- इस प्राचीनतम संप्रदाय के संस्थापक गुजरात के लकुलीश थे, जिन्हें शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है। इस मत के अनुयायी पचरार्थिक कहलाये।

(b) कापालिक या कालामुख इस संप्रदाय में तंत्र-मंत्र, नरबलि, मदिरा, मांस, मैथुन, मद्य आदि का प्रचलन था।

(c) लिंगायत या वीर शैव-12वीं सदी में इस सम्प्रदाय का प्रवर्तन दक्षिण भारत में अल्लभप्रभु और उनके शिष्य वत्सराज ने किया।

नाथ सम्प्रदाय – इसके संस्थापक मत्येंद्रनाथ और प्रचारक गोरखनाथ थे नाथ संप्रदाय का प्रमुख केंद्र गोरखपुर है

(e) कश्मीरी शैव- इसकी स्थापना वसुगुप्त ने की थी।

शाक्त धर्म (Shakta Sect): इस सम्प्रदाय में मुख्यत: माता दुर्गा एवं काली की उपासना की जाती है। स्त्री शक्ति को सबसे शक्तिशाली और विश्व माता माना गया है। माता दुर्गा का सर्वप्रथम उल्लेख मारकण्डेय पुराण में मिलता है। जबलपुर का चौसढ़ भोगिनी मंदिर शाक्त धर्म का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है।’

महाजनपद तथा मगध का उत्थान (Rise of Mahajanpada and Magadha)

पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में लोहे का व्यापक प्रयोग होने से बड़े-बड़े प्रदेश या जनपद का निर्माण के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ बन गई। लोहे के हथियारों के कारण योद्धा वर्ग अर्थात क्षत्रिय वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी। खेती के नए औजारों और उपकरणों (लोहे का) की मदद से किसान आवश्यकता से अधिक अनाज पैदा करने लगे। अब राजा अपने सैनिक और प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए अधिशेष का उपयोग कर सकता था। शहरों को अपने कार्यकलाप का आधार बनाकर राज्यों को खड़े होते देख लोगों में प्रादेशिक भावना प्रबल हुई। लोगों की जो निष्ठा कबीलों या जन के प्रति थी लेकिन वह अब अपने जनपद या संबंधित भू-भाग के प्रति हो गयी। छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक आते-आते जनपद, महाजनपदों के रूप में विकसित हो गये।

इस काल की राजनैतिक स्थिति का प्रमाणिक विवरण यद्यपि हमें किसी भी साहित्यिक साक्ष्य से उपलब्ध नहीं होता, तथापि बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय में ‘सोलह महाजनपदों’ का वर्णन किया गया है जो कि निम्न हैं

महाजनपद और राजधानी

काशी – वाराणसी

कुरु –इन्द्रप्रस्थ (मेरठ तथा द०पू० हरियाणा)

अंग – चंपा (भागपुर व मुंगेर)

कौशल –श्रावस्ती (फैजाबाद मण्डल)

मगध – राजगृह/गिरिब्रज (दक्षिणी बिहार)

वज्जि – वैशाली (उत्तरी बिहार)

मल्ल – कुशीनारा (देवरिया, गोरखपुर का क्षेत्र)

चेदि/चेती – शुक्तिमती (आधुनिक बुंदेल खण्ड)

वत्स – कौशांबी [इलाहाबाद एवं बाँदा (उ०प्र०]

पांचाल उत्तरी-पांचाल दक्षिणी-पांचाल – अहिच्छत्र (बरेली, रामनगर) काम्पिल्य (फर्रुखाबाद)

 मत्स्य – विराटनगर [अलवर, भरतपुर (राजस्थान)

सूरसेन – मथुरा (आधुनिक ब्रजमण्डल)

अश्मक – पोतन या पोटिल (आंध्र प्रदेश)

अवंती – उत्तरी-उज्जयिनी, दक्षिणी-माहिष्मती

 गांधार – तक्षशिला [पेशावर तथा रावलपिण्डी (पाकिस्तान)

कम्बोज – राजपुर/हाटक (कश्मीर)

इन सोलह महाजनपदों में वज्जि तथा मल्ल में गणतांत्रिक व्यवस्था थी।

चार शक्तिशाली राजतंत्र

छठी शताब्दी ई.पू. के उत्तरार्द्ध में उत्तर भारत में चार शक्तिशाली राज्यों का प्रभुत्व दिखाई पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सोलह महाजनपदों का आपसी संघर्ष एवं प्रतिद्वन्द्विता के कारण अनेक छोटे जनपदों का बड़े राज्यों में विलय हो गया और इस तरह केवल चार बड़े राजतंत्र ही प्रमुख रहे

• कोशल

• वत्स

• अवन्ति

• मगध

बुद्धकालीन भारत के गणराज्य

बद्ध में गंगाघाटी में अनेक गणराज्यो के होने के प्रमाण मिलते है जो निम्नलिखित है –

मगध साम्राज्य की स्थापना

ईसा पूर्व छठीं सदी के भारत का राजनीतिक इतिहास इन राज्यों (16 महाजनपद) के बीच प्रभुत्व के लिए संघर्षों का इतिहास है। अंतत: मगध राज्य सबसे शक्तिशाली बन गया और साम्राज्य स्थापित करने में सफल हुआ।

हर्यक वंश (544 ई. पू. से 412 ई. पू. तक)

पुराणों तथा बौद्ध ग्रंथों में वर्णित मगध के राजाओं के क्रम की अलोचनात्मक अध्ययन के अनुसार मगध का प्रथम शासक बिम्बिसार था।

मगध साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक बिम्बिसार (लगभग 544-492 ई. पू.) था। बिम्बिसार के शासन काल में मगध ने विशिष्ट स्थान प्राप्त किया। यह बुद्ध के समकालीन था। उसके द्वारा प्रारंभ की गई विजय और विस्तार की नई नीति अशोक के कलिंग विजय के साथ समाप्त हुई। बिम्बसार ने अंग देश पर अधिकार कर इसका शासन अपने पुत्र अजातशत्रु को सौंप दिया।

बिम्बसार ने वैवाहिक संबंधों से भी अपनी स्थिति को मजबूत किया। उसने तीन विवाह किए

1. प्रथम पत्नी महाकोशला देवी, कोसलराज की पुत्री और प्रसेनजित की बहन थी। उसके साथ दहेज में काशी ग्राम से उसे एक लाख की आय होती थी। इससे पता चलता है कि राजस्व सिक्कों में वसूल किया जाता था।

2. दूसरी पत्नी वैशाली की लिच्छवि राजकुमारी चेल्लणा थी जिसने अजातशत्रु को जन्म दिया।

3. तीसरी रानी क्षेमा पंजाब के मद्र कुल के प्रधान की पुत्री थी।

विभिन्न राजकुलों से वैवाहिक संबंधों के कारण बिम्बिसार को बड़ी राजनीतिक प्रतिष्ठा मिली और इस प्रकार मगध राज्य को पश्चिम और उत्तर की ओर विस्तार करने का मार्ग प्रशस्त हुआ।

मगध की वास्तविक शत्रुता अवन्ति से थी जिसकी राजधानी उज्जैन में थी। इसके राजा चंडप्रद्योत महासेन का बिम्बिसार से युद्ध हुआ कितु अंत में दोनों में मित्रता स्थापित हो गयी। बाद में जब चंडप्रद्योत को पीलिया रोग हो गया तो. बिम्बिसार ने अवन्तिराज के अनुरोध पर अपने चिकित्सक-जीवक को उज्जैन भेजा था। गांधार को राजा ने बिम्बिसार के पास एक पत्र और दतमंडल भेजा था। इस प्रकार, विजय और कूटनीति से बिम्बसार ने मगध को ईसा पूर्व छठी सदी में सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य बना दिया था।

बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बिम्बिसार ने लगभग 52 वर्ष तक शासन किया। उसके बाद उसका पुत्र अजातशत्रु मगध का शासक बना। अजातशत्रु ने अपने पिता की हत्या करके सिंहासन पर कब्जा किया था। अजातशत्रु ने मगधा राज्य का विस्तार किया और अपने समूचे शासन काल में उसने विस्तार की आक्रामक नीति से काम लिया। मगध और कौशल के मध्य लंबे समय तक संघर्ष जारी रहा। अंततः अजातशत्रु की विजय हुई। कौशल नरेश प्रसेनजित को अजातशत्रु के साथ अपनी पुत्री का विवाह और काशी को दहेज में देना पड़ा। वह एक लंबे प्रयास के बाद वज्जि-संघ पर भी नियंत्रण स्थापित करने में सफल रहा। इस सफलता में रथमूसल और महाशिलाकंटक जैसे हथियारों का प्रयोग तथा फूट डालों व राज करो’ की नीति की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। इसके बाद अजातशत्रु ने मल्ल गणराज्य पर भी नियंत्रण स्थापित किया व मगध साम्राज्य की सीमा को हिमालय की तराई तक पहुँचाया। अजातशत्रु ने आक्रमक कूटनीति एवं वैवाहिक संबंधों के द्वारा मगध के विस्तार को एक नया आयाम प्रदान किया।

अजातशत्रु के बाद उदायिन मगध की गद्दी पर बैठा। उसने गंगा एवं सोन नदी के संगम पर पाटलिपुत्र नामक नगर बसाकर किला बनवाया तथा राजगृह के स्थान पर पाटलीपुत्र को मगध साम्राज्य की राजधानी बनाया। मगध का साम्राज्य अब उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में छोटानागपुर की पहाड़ियों तक फैला हुआ था। उदायिन के उत्तराधिकारियों ने लगभग 412 ई.पू. तक शासन किया। इसके बाद शिशुनाग वंश की स्थापना हुई।

शिशुनाग वंश (412-344 ईसा पूर्व)

शिशुनाग ने अंवति तथा वत्स को जीत कर मगध साम्राज्य का अंग बनाया। इसने वैशाली को राजधानी बनाया। महावंश के अनुसार शिशुनाग की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र कालाशोक राजा बना। उसने अपनी राजधानी पुनः पाटलिपुत्र स्थानांतरित कर दिया। इस समय के बाद पाटलिपुत्र ही मगध की राजधानी रही। कालाशोक के शासनकाल में वैशाली में बौद्ध धर्म की द्वितीय संगीति (Second Buddhist Council) का आयोजन हुआ। इसी समय बौद्ध संघ दो भागों (स्थविर तथा महासंघिक) में बँट गया।

नंद वंश (344 से 324-23 ईसा पूर्व)

शिशुनागों के पश्चात नंदों का शासन शुरू हुआ। ये मगध के सबसे शक्तिशाली शासक सिद्ध हुए। इनका शासन इतना शक्तिशाली था कि सिकंदर ने, जो उस समय पंजाब पर हमला कर चुका था, पूर्व की ओर आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं की। नंदों ने कलिंग को जीतकर मगध की शक्ति को बढ़ाया। विजय स्मारक के रूप में वे कलिंग से जिन की मूर्ति उठा लाये थे। ये सभी घटनाएँ महापद्मनंद के शासनकाल में घटित हुई। उसने अपने को ‘एकराट’ कहा। बाद के नंद शासक दुर्बल और अलोकप्रिय सिद्ध हुए। उनके शासन के स्थान पर मगध में मौर्यवंश का शासन स्थापित हुआ। मौर्यों के शासन में मगध साम्राज्य चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया।

ईरानी और मकदूनियाई आक्रमण (Iranian and Macedonian Attacks) .

प्राग्मौर्य युग में मगध सम्राटों का अधिकार क्षेत्र भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश तक विस्तृत नहीं हो पाया था। जिस समय मध्यभारत के राज्य, मगध साम्राज्य की साम्राज्यवादी नीति का शिकार हो रहे थे, पश्चिमोत्तर प्रदेशों में अराजकता एवं अव्यवस्था का वातावरण व्याप्त था। यह क्षेत्र अनेक छोटे-बड़े राज्यों में विभक्त था जिसमें कम्बोज, गंधार एवं मद्र प्रमुख थे। इन क्षेत्रों में कोई ऐसी सार्वभौम शक्ति नहीं थी जो परस्पर संघर्षरत राज्यों को जीतकर एकछत्र शासन के अन्तर्गत संगठित कर सके। यह संपूर्ण प्रदेश उस समय विभाजित था। ऐसी स्थिति में विदेशी आक्रांताओं का ध्यान भारत के इस भूभाग की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक ही था। परिणामस्वरूप यह प्रदेश दो विदेशी आक्रमणों का शिकार हुआ। इनमें पहले आने वाले परसिया के हखामनी साम्राज्य के शासक थे जिनमें निम्नलिखित प्रमुख थे

(1) साइरस द्वितीय (558-529 ईसा पूर्व)-इसने सिंध के पश्चिम में स्थित भारत के सीमावर्ती क्षेत्र की विजय की।

(2) दारा प्रथम (522-486 ईसा पूर्व) भारत का पश्चिमोत्तर भाग दारा के साम्राज्य का 20वाँ प्रान्त था।

(3) क्षयार्ष अथवा जरक्सीज-(लगभग 486 से 465 ईसा पूर्व) यह दारा का पुत्र था तथा इसने अपने पिता के साम्राज्य को सुरक्षित रखा किन्तु यह यूनानियों द्वारा परास्त किया गया था। इसने अपनी फ़ौज में भारतीयों को शामिल किया।

संपर्क के परिणाम या प्रभाव (Empacts of Indo-Iranian Relations)

भारत और ईरान का यह संपर्क करीब दो सौ वर्षों तक बना रहा तथा इससे भारत और ईरान के बीच व्यापार को बढ़ावा मिला। इस संपर्क के सांस्कृतिक परिणाम और भी महत्वपूर्ण हुए जो निम्नलिखित हैं-

• ईरानी लिपिकार (कातिब) भारत में लेखन का एक खास रूप ले आए जो आगे चलकर खरोष्ठी लिपि नाम से मशहूर हुई उदाहरणस्वरूप अशोक के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में भी उत्कीर्ण है

• मौर्य वास्तुकला पर ईरानी प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखयी पड़ता है जैसे अशोक कालीन स्मारक विशेषकर घंटा के आकार के गुबंद कुछ हद तक ईरानी प्रतिरूपो पर आधारित थे

• अशोक के शासनकाल की प्रस्तावना और उनमें प्रयुक्त शब्दों में भी ईरानी प्रभाव देखा जा सकता है।

सिकंदर का अभियान (Alexander’s Compaign)

चौथी सदी ईसा पूर्व में विश्व पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए यूनानियों और ईरानियों के बीच संघर्ष हुए। अंततः मूकदूनियाई सिकंदर के नेतृत्व में यूनानियों ने ईरानी साम्राज्य को तहस-नहस कर दिया। सिकंदर ने न सिर्फ एशिया माइनर (तुर्की) और इराक बल्कि ईरान को भी जीत लिया। ईरान से वह भारत की ओर बढ़ा। भारत की अपार संपत्ति, भौगोलिक अन्वेषण और प्राकृतिक इतिहास के प्रति ललक तथा विगत विजेताओं की शानदार उपलब्धियों से प्रभावित सिकंदर का उनसे आगे निकलने की प्रबल इच्छा ने उसे भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। सिकंदर खैबर दर्रा पार करके 326 ईसा पूर्व में भारत आया। तक्षशिला के शासक आम्भि ने सिकंदर के सामने समर्पण कर दिया। झेलम नदी के किनारे पहुंचने पर सिकंदर का पहला और सबसे शक्तिशाली प्रतिरोध पोरस ने किया। सिकंदर ने पोरस को पराजित किया लेकिन उसकी बहादुरी और साहस से प्रभावित होकर उसका राज्य वापस कर दिया तथा पोरस को अपना सहयोगी बना लिया।

इसके बाद सिकंदर पूरब की तरफ बढ़ा लेकिन उसकी फौज ने उसका साथ देने से इनकार कर दिया क्योंकि पूरब में इस समय नंदवंश का शासन था तथा इसकी विशाल सेना देखकर यूनानी सैनिक घबरा गये और युद्ध करने से उन्होंने मना कर दिया। इस तरह सिकंदर को अपने विपक्षी से न हारकर अपने ही सैनिकों की वजह से वापस जाना पड़ा और पूर्वी साम्राज्य विजय का उसका सपना अधूरा ही रह गया। सिकंदर ने अधिकांश विजित राज्यों को उनके शासकों को लौटा दिया जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। परंतु उसने अपने भू-भाग को तीन हिस्सों में बाँट दिया और तीन यूनानी गर्वनरों (स्थानीयशासक) के हाथ सौंप दिया।

सिकंदर के आक्रमण के प्रभाव (Empacts of Alexander’s Attack)

  • सिकंदर के आक्रमण ने प्राचीन यूरोप को प्राचीन भारत के संपर्क में आने का अवसर दिया। इसके कई महत्वपूर्ण परिणाम निकले। उसने अपने साम्राज्य में एक नया भारतीय प्रांत जोड़ा जो ईरान द्वारा जीते गए भू-भाग से काफी बड़ा था। यह बात अलग है कि यूनानी कब्जे वाला भारतीय भू-भाग कुछ समय पश्चात ही तत्कालीन मौर्य शासकों के कब्जे में चला गया।

  • सिकंदर के इतिहासकार हमें सामाजिक और आर्थिक हालात के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं- जैसे सती प्रथा, गरीब माँ-बाप द्वारा अपनी लड़कियों को बेचने और पश्चिमोत्तर भारत के उत्तम नस्ल के गाय, बैल आदि। उनके अनुसार लकड़ी का काम भारत की सबसे उन्नत दस्तकारी थी तथा बढ़ई रथ, नाव और जहाज बनाते थे।

  • सिकंदर के अभियान से अनेक स्थल और जलमार्ग खुले जो आज भी भारतीय व्यापार में अहम योगदान दे रहे हैं।

भारत के इतिहास में छठी शताब्दी ईसा पूर्व का क्या महत्व है?

यह ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भारत में मानव जाति के दो महान धर्मों के संस्थापक थे। वे जैन धर्म और बौद्ध धर्म के संस्थापक महावीर जीना और गौतम बुद्ध थे। जीना और बुद्ध के बारे में और उनके धर्मों के बारे में पर्याप्त साहित्य लिखा गया।

आरंभिक भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ईसा पूर्व को एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल क्यों माना जाता है?

को एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल माना जाता है। इस काल को प्रायः आरंभिक राज्यों, नगरों, लोहे के बढ़ते प्रयोग और सिक्कों के विकास के साथ जोड़ा जाता है। इसी काल में बौद्ध तथा जैन सहित विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ।

छठी शताब्दी ईसा पूर्व के काल को क्या कहा जाता है?

छठी शताब्दी ई. पू., कौन-सा काल कहलाता था ? Solution : विश्व में ईसा पूर्व छठी शताब्दी को धार्मिक उत्थान युग माना जाता है। इसी शताब्दी में भारत में बौद्ध धर्म और जैन धर्म का उदय हुआ।

छठवीं शताब्दी के गणराज्य विषय में आप क्या जानते हैं?

छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत में 16 महाजनपदों के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार एवं या सिंधु घाटी में कई गणराज्यों का अस्तित्त्व था। इन गणराज्यों में, वास्तविक शक्ति जनजातीय कबीलों के हाथों में था।