Author: Shilpa SrivastavaPublish Date: Sun, 02 Aug 2020 09:00 AM (IST)Updated Date: Sun, 02 Aug 2020 09:00 AM (IST) Jatakarma Sanskar बालक के जन्म पर जातकर्म संस्कार किया जाता है। जन्म पर जो भी कर्म संपन्न किए जाते हैं उसे जातकर्म कहते हैं। Jatakarma Sanskar: हिंदू धर्म के 16 संस्कारों में से अब तक हम आपको तीन संस्कारों के बारे में बता चुके हैं।
गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्तोन्नयन... ये हिंदू धर्म के पहले तीन संस्कार थे जिनकी जानकारी हमने आपको विस्तृत तौर पर दी है। बता दें कि गर्भधारण के समय गर्भाधान संस्कार किया जाता है। फिर तीसरे माह में पुंसवन संस्कार संपन्न किया जाता है। इसके बाद जब महिला का गर्भ 6 महीने का हो जाता है तो उस समय आने वाले शिशु के लिए सीमन्तोन्नयन संस्कार किया जाता है। फिर जैसे ही शिशु का जन्म होता है तब जातकर्म संस्कार किया जाता है। तो चलिए पंडित गणेश मिश्रा से जानते हैं कि जातकर्म संस्कार का महत्व क्या
है और इसे कैसे किया जाता है। जातकर्म संस्कार का महत्व: बालक के जन्म पर जातकर्म संस्कार किया जाता है। जन्म पर जो भी कर्म संपन्न किए जाते हैं उसे जातकर्म कहते हैं। इसमें बच्चे को स्नान कराना, मधु या घी चटाना, स्तनपान कराना, आयुप्यकरण आदि कर्म शामिल हैं। मान्यता है कि इस संस्कार से बालक मेधावी और बलशाली बनता है। इससे माता के गर्भ में रस पान संबंधी दोष, सुवर्ण वातदोष, मूत्र दोष, रक्त दोष आदि दूर हो जाते हैं। इस तरह करें जातकर्म संस्कार: जातकर्म संस्कार में सबसे पहले सोने की श्लाका ली जाती है और उससे विषम मात्रा में घी और शहद को विषम मात्रा में मिलाकर बालक चटाया जाता है। यह बालक के लिए औषधि का काम करती है। इसके बाद माता अपने शिशु को स्तनपान कराती है। वहीं, बालक के पिता को अपने बड़े-बुजुर्गों और कुल देवता का आशीर्वाद भी लेना चाहिए। इसके बाद ही वो अपने पुत्र का मुख देखे तो बेहतर होता है। इसके बाद शिशु का पिता किसी नदी या तालाब में या फिर किसी पवित्र धार्मिक स्थल पर स्नान करें। इस समय मुख की दिशा उत्तर होनी चाहिए। मान्यता
तो यह भी है कि जब शिशु का जन्म होता है तब उसके शरीर पर मसूर या मूंग के बारीक आटे से बनी उबटन लगाई जाती है। इसके बाद ही शिशु को स्नाना कराया जाता है। शिशु का जातकर्म संस्कार करने से उसकी बुद्धि, स्मृति, आयु, वीर्य, नेत्रों की रोशनी यूं भी कहा जा सकता है कि उसे पूरा पोषण मिल जाता है। Edited By: Shilpa Srivastava
सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है। प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है।ये निम्नानुसार हैं... 1.गर्भाधान संस्कार 2. पुंसवन संस्कार 3.सीमन्तोन्नयन संस्कार 4.जातकर्म संस्कार 5.नामकरण संस्कार 6.निष्क्रमण संस्कार 7.अन्नप्राशन संस्कार 8.मुंडन/चूडाकर्म संस्कार 9.विद्यारंभ संस्कार 10.कर्णवेध संस्कार 11. यज्ञोपवीत संस्कार 12. वेदारम्भ संस्कार 13. केशान्त संस्कार 14. समावर्तन संस्कार 15. विवाह संस्कार 16.अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार 1.गर्भाधान संस्कार हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गार्हस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है।विवाह उपरांत की जाने वाली विभिन्न पूजा और क्रियायें इसी का हिस्सा हैं. गर्भाधान मुहूर्त जिस स्त्री को जिस दिन मासिक धर्म हो,उससे चार रात्रि पश्चात सम रात्रि में जबकि शुभ ग्रह केन्द्र (१,४,७,१०) तथा त्रिकोण (१,५,९) में हों,तथा पाप ग्रह (३,६,११) में हों ऐसी लग्न में पुरुष को पुत्र प्राप्ति के लिये अपनी स्त्री के साथ संगम करना चाहिये। मृगशिरा अनुराधा श्रवण रोहिणी हस्त तीनों उत्तरा स्वाति धनिष्ठा और शतभिषा इन नक्षत्रों में षष्ठी को छोड कर अन्य तिथियों में तथा दिनों में गर्भाधान करना चाहिये,भूल कर भी शनिवार मंगलवार गुरुवार को पुत्र प्राप्ति के लिये संगम नही करना चाहिये। 2.पुंसवन संस्कार गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाय ।हिन्दू धर्म में, संस्कार परम्परा के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह तथ्य समझाए जाते हैं कि शारीरिक, मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान पैदा करने की पहल करें । उसके लिए अनुकूल वातवरण भी निर्मित किया जाता है। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है, क्योंकि इस समय तक गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारंभ हो जाता है । वेद मंत्रों, यज्ञीय वातावरण एवं संस्कार सूत्रों की प्रेरणाओं से शिशु के मानस पर तो श्रेष्ठ प्रभाव पड़ता ही है, अभिभावकों और परिजनों को भी यह प्रेरणा मिलती है कि भावी माँ के लिए श्रेष्ठ मनःस्थिति और परिस्थितियाँ कैसे विकसित की जाए । क्रिया और भावना गर्भ पूजन के लिए गर्भिणी के घर परिवार के सभी वयस्क परिजनों के हाथ में अक्षत, पुष्प आदि दिये जाएँ । मन्त्र बोला जाए । मंत्र समाप्ति पर एक तश्तरी में एकत्रित करके गर्भिणी को दिया जाए । वह उसे पेट से स्पर्श करके रख दे । भावना की जाए, गर्भस्थ शिशु को सद्भाव और देव अनुग्रह का लाभ देने के लिए पूजन किया जा रहा है । गर्भिणी उसे स्वीकार करके गर्भ को वह लाभ पहुँचाने में सहयोग कर रही है । ॐ सुपर्णोऽसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो, गायत्रं चक्षुबरृहद्रथन्तरे पक्षौ । स्तोमऽआत्मा छन्दा स्यङ्गानि यजूषि नाम । साम ते तनूर्वामदेव्यं, यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः । सुपर्णोऽसि गरुत्मान् दिवं गच्छ स्वःपत॥ 3.सीमन्तोन्नयन सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है। 4.जातकर्म नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है। बच्चे के जन्म के बाद कौन सा संस्कार किया जाता है?अन्नप्राशन: जन्म के छह महीने बाद इस संस्कार को निभाया जाता है। जन्म के बाद शिशु मां के दूध पर ही निर्भर रहता है। छह माह बाद उसके शरीर के विकास के लिए अन्य प्रकार के भोज्य पदार्थ दिए जाते हैं। चूड़ाकर्म: चूड़ाकर्म को मुंडन भी कहा जाता है।
संतान के जन्म के समय कौन सा संस्कार किया जाता है?हिंदू धार्मिक ग्रंथों में सुश्रुतसंहिता, यजुर्वेद आदि में तो पुंसवन संस्कार को पुत्र प्राप्ति से भी जोड़ा गया है। स्मृतिसंग्रह में यह लिखा है - गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वस्य प्रतिपादनम् अर्थात गर्भस्थ शिशु पुत्र रूप में जन्म ले इसलिए पुंसवन संस्कार किया जाता है।
समावर्तन संस्कार कब किया जाता है?प्राचीन काल में गुरुकुल में शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात जब जातक की गुरुकुल से विदाई की जाती है तो आगामी जीवन के लिये उसे गुरु द्वारा उपदेश देकर विदाई दी जाती है। इसी को समावर्तन संस्कार कहते हैं। इससे पहले जातक का ग्यारहवां संस्कार केशान्त किया जाता है। वर्तमान समय में दीक्षान्त समारोह, समावर्तन संस्कार जैसा ही है।
संस्कार कितने प्रकार के होते हैं?(1)गर्भाधान संस्कार, (2)पुंसवन संस्कार, (3)सीमन्तोन्नयन संस्कार, (4)जातकर्म संस्कार, (5)नामकरण संस्कार, (6)निष्क्रमण संस्कार, (7)अन्नप्राशन संस्कार, (8)मुंडन संस्कार, (9)कर्णवेधन संस्कार, (10)विद्यारंभ संस्कार, (11)उपनयन संस्कार, (12)वेदारंभ संस्कार, (13)केशांत संस्कार, (14)सम्वर्तन संस्कार, (15)विवाह संस्कार और (16) ...
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