भारतीय उदारवाद की दो धरण कौन सी है? - bhaarateey udaaravaad kee do dharan kaun see hai?

भारतीय उदारवाद की दो धरण कौन सी है? - bhaarateey udaaravaad kee do dharan kaun see hai?

पूंजीवाद
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उदारवाद (Liberalism) वह विचारधारा है जिसके अंतर्गत मनुष्य को विवेकशील प्राणी मानते हुए सामाजिक संस्थाओं को मनुष्यों की सूझबूझ और सामूहिक प्रयास का परिणाम समझा जाता है। उदारवाद की उतपति को 17वी शताब्दी के प्रारंभ से देखा जा सकता हैं। जॉन लॉक को उदारवाद का जनक माना जाता है। आरंभिक उन्नायकों में एडम स्मिथ और जेरमी बेंथम के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।[1]

उदारतावाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थन का राजनैतिक दर्शन है। वर्तमान विश्व में यह अत्यन्त प्रतिष्ठित धारणा है। पूरे इतिहास में अनेकों दार्शनिकों ने इसे बहुत महत्व एवं मान दिया। इस सिद्धांत के अनुसार बुद्धिमान व्यक्ति समाजिक संगठनों का निर्माण करते हैं

इतिहास[संपादित करें]

लास्की के अनुसार उदारवाद की व्याख्या करना अथवा उसकी कोई साधारण सी परिभाषा दे देना सरल कार्य नही है,क्योंकि "उदारवाद कुछ सिधान्तो का समूह्मात्र नही है;वह 'मानव के सोचने की प्रवृति' का भी परिचायक है|उदारतावाद शब्द का प्रयोग, साधारणतया, व्यापक रूप से मान्य, कुछ राजनीतिक तथा आर्थिक सिद्धांतों, साथ ही, राजनीतिक कार्यों बौद्धिक आंदोलनों का भी परिणाम है जो 16वीं शताब्दी से ही सामाजिक जीवन के संगठन में व्यक्ति के अधिकारों के पक्ष में, उसके स्वतंत्र आचरण पर प्रतिबंधों के विरुद्ध, कार्यशील रहे हैं। 1689 में लाक ने लिखा, "किसी को भी अन्य के स्वास्थ्य, स्वतंत्रता या संपत्ति को हानि नहीं पहुँचानी चाहिए।" अमरीकी स्वतंत्रता के घोषणापत्र (1776) ने और भी प्रेरक शब्दों में "जीवन, स्वतंत्रता तथा सुखप्राप्ति के प्रयत्न" के प्रति मानव के अधिकारों का ऐलान किया है। इस सिद्धांत को फ्रांस के "मानव अधिकारों के घोषणापत्र" (1971) ने यह घोषित कर और भी संपुष्ट किया कि अपने अधिकारों के संबंध में मनुष्य स्वतंत्र तथा समान पैदा होता है, समान अधिकार रखता है। उदारतावाद ने इन विचारों को ग्रहण किया, परंतु व्यवहार में बहुधा यह अस्पष्ट तथा आत्मविरोधी हो गया, क्योंकि उदारतावाद स्वयं अस्पष्ट पद होने से अस्पष्ट विचारों का द्योतक है। 19वीं शताब्दी में उदारतावाद का अभूतपूर्व उत्कर्ष हुआ। जो भी हो, राष्ट्रीयवाद के सहयोग से इसने इतिहास का पुननिर्माण किया। यद्यपि यह अस्पष्ट था तथा इसका व्यावहारिक रूप स्थान-स्थान पर बदलता रह, इसका अर्थ, साधारणतया, प्रगतिशील ही रहा। नवें पोप पियस ने जब 1846 ई. में अपने को "उदार" घोषित किया तो उसका वैसा ही असर हुआ जैसा आज किसी पोप द्वारा अपने को कम्युनिस्ट घोषित करने का हो सकता है।

19वीं शताब्दी के तीन प्रमुख आंदोलन राष्ट्रीय स्वतंत्रता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा वर्ग-स्वतंत्रता के लिए हुए। राष्ट्रीयवादी, जो मंच पर पहले आए, विदेशी शासन से मुक्ति चाहते थे। उदारतावादी अपनी ही राष्ट्रीय सरकारों के हस्तक्षेप से मुक्ति चाहते थे। समाजवादी कुछ देर बाद सक्रिय हुए। वे इस बात का आश्वासन चाहते थे कि शासन का संचालन संपत्तिशाली वर्ग के हितसाधान के लिए न हो। उदारतावादी आंदोलन के यही तीन प्रमुख सूत्र थे जिन्हें बहुधा भावनाओं एवं नीतियों की आकर्षक उलझनों में तोड़ मरोड़कर बट लिया जाता था। ये सभी सूत्र, प्रमुखत: महान फ्रांसीसी राज्यक्रांति (1789-94) की भावनाओं और रूसों जैसे महापुरुषों के विचारों की गलत सही व्याख्याओं से अनुप्राणित थे।

इस प्रकार, उदारतावाद, भिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अर्थ रखता था। किंतु सर्वत्र एक धारणा समान थी, कि सामंतवादी व्यवस्था के अनिवार्य रूप समाज के अभिजात नेतृत्व संबंधी विचार उखाड़ फेंके जाएँ। नव अभिजात वर्ग-मध्य वर्ग-विकासशील औद्योगिक केंद्रों के मजदूर वर्ग के सहयोग से इस क्रांति को संपन्न करे। (मध्य वर्ग धनोपार्जन के निमित्त राजनीतिक तथा आर्थिक स्वतंत्रता चाहता था। इसी बीच औद्योगिक क्रांति की प्रगति ने ऐसे धनोपार्जन के लिए अभूतपूर्व अवसर प्रस्तुत कर दिए।) बाद में इसके सहयोगी मजदूर वर्ग, जो सामाजिक स्वतंत्रता तथा उत्पादित धन पर समाज का सामूहिक स्वत्व चाहते थे, अलग हो जाएँ। किंतु अभी उन्हें एक साथ रहना था। नि:संदेह उनके मूल विचार, कुछ अंश तक, एक दूसरे से प्रभावित थे, परस्पर निबद्ध।

19वीं शताब्दी के समूचे पूर्वार्ध में यूरोप के उन्नत देशों के व्यापारी आर्थिक उदातरतावाद में विश्वास रखते थे जिसके अनुसार व्यापार में अनियंत्रित प्रतिस्पर्धा ही सर्वोत्तम एवं सबसे अधिक न्याययुक्त पद्धति मानी जाती थी। इसके सिद्धांतों का प्रतिपादन पहले ऐडम स्मिथ (1723-90) ने अपनी "राष्ट्रों का धन" (द वेल्थ ऑव नेशंस) नामक पुस्तक में, फिर फ्रांस में फिज़ियोक्रैटों एवं उनके अनुयायियों ने किया। व्यक्तिगत व्यापारियों तथा व्यक्तिगत राज्यों की इस अनियंत्रित प्रतिस्पर्धा का परिणाम, कुछ समय के लिए, अत्यधिक लाभकर ही हुआ, यद्यपि यह लाभ अविकसित विदेशों के स्वार्थ तथा स्वदेश कृषि को हानि पहुँचाकर हुआ।

19वीं शताब्दी के मध्य में इग्लैंड के उदारतावादी, पुराने "ह्विग" दल के उत्तराधिकारी होते हुए भी, नागरिक तथा धर्मिक स्वतंत्रता के परंपरागत उपासक आभिजात्यों से पूर्णतया भिन्न थे। इंग्लैंड में तो पहले "उदार" शब्द से कुछ विदेशी आभास भी पाया जाता था, क्योंकि इसका स्पष्ट संबंध फ्रांस तथा स्पेन के क्रांतिकारी आंदोलनों से था। किंतु 1830 के पश्चात् लार्ड जान रसेल के समय से, इस शताब्दी के उत्तरार्ध में ग्लैड्स्टन के समय तक, यह शब्द इंग्लैंड में भी चालू हो गया तथा सम्मानित माना जाने लगा। जान स्टुअर्ट मिल की प्रसिद्ध पुस्तिका "स्वतंत्रता" द्वारा इसे सैद्धांतिक मर्यादा भी मिली। इससे इस विचार ने प्रश्रय पाया कि मानव व्यक्तित्व मूल्यवान् है और कि, अच्छी अथवा बुरी, सभी प्रकार के राज्य नियंत्रण से मुक्त व्यक्तिगत शक्ति का स्वतंत्र आचरण ही प्रगति का मूल कारण है।

राजनीतिक क्षेत्र में इसकी उपलब्धि वैधानिकता तथा संसदीय लोकसत्ता की दिशा में हुई और आर्थिक क्षेत्र में स्वतंत्र व्यापार (लेसे फ़ेयर) ने नकारात्मक कार्यक्रम में, जिसकी मान्यता यह थी कि कार्य प्रारंभ करने का अधिकार राज्यनियंत्रण से निर्बंध व्यक्ति को ही प्राप्त है। किंतु सामाजिक आवश्यकताओं ने परिवर्तन अनिवार्य कर दिया। जे. एस. मिल ने उदारतावादी विचारधारा को और भी व्यापाक बनाया, जिसके अंतर्गत अब राज्य लोकहित में नियंत्रण लगाने के अधिकार से वंचित नहीं रहा। प्राचीन कट्टर व्यक्तिवादी विचारधारा को अधिकांश तिरस्कृत कर दिया गया। एल. टी. हाबहाउस तथा जे. ए. हाबसन की रचनाओं में समाजवादी प्रभाव, विशेषकर फेबियनों का, स्पष्ट लक्षित होने लगा, जो स्वयं उदार विचारधारा के ऊपर टी.एच. ग्रीन जैसे पूर्ववर्ती लेखकों के प्रभाव का परिचायक था। और अब व्यक्तिवाद एवं समाजवाद के बीच एक असंतुलन स्थापित हो गया है।

उदारतावाद की दो विचारधाराओं के बीच फँस जाने के कारण इधर भविष्य का उसका मार्ग कुछ स्पष्ट नहीं है। समय-समय पर इसने अपनी सजीवता का परिचय दिया है। जैसे, ब्रिटेन, में 1906-11 के बीच, जब रूढ़ उदारतावाद के विरोध के बावजूद सामाजिक बीमा से संबंधित कानून बना डाला गया, अथवा, द्वितीय महायुद्ध के बाद भी, जब विलियम बेवरिज ने एक लोकहितकारी राज्य की रूपरेखा तैयार कर डाली। किंतु जनशक्ति को प्रभावित करने में उदारतावाद नि:शक्त है, इस दिशा में इसी असफलता अनेक बाद प्रमाणित हो चुकी है। जर्मनी में नात्सीवाद के सामने इसकी भयंकर असफलता सिद्ध हो चुकी है। वस्तुत: पुन: संगठन के लिए जनता में उत्साह उत्पन्न कर उसे संगठित कर सकने में इसकी भयंकर अयोग्यता प्रमाणित हुई है। सामाजिक प्रगति के साथ उदारतावाद डग नहीं भर सका। फिर भी इसके मूल सिद्धांत अनुसंधान तथा विचार की स्वतंत्रता, भाषण एवं विचारविनिमय की स्वतंत्रता अभी भी अपेक्षित हैं, क्योंकि इनके बिना तर्कसम्मत विचार तथा कार्य संभव नहीं हो सकते।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. राजनीति सिद्धांत की रूपरेखा, ओम प्रकाश गाबा, मयूर पेपरबैक्स, २0१0, पृष्ठ-२६, ISBN:८१-७१९८-0९२-९

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • उदारवादी साहित्य
  • Australian Liberalism: The Continuing Vision
  • French Liberalism in the 18th and 19th century
  • Liberal International
  • Liberal Review an online magazine relating to liberalism in the UK
  • साँचा:Sep entry
  • Peter Berkowitz on "Modern Liberalism"
  • The divergence between American and English definitions of "liberal", a personal view by Jeffry Fischer
  • The Liberal Magazine committed to reinvigorating Liberalism
  • The program of liberalism, Ludwig von Mises
  • The Oxford Manifesto of 1947
  • What's the Matter With Liberalism, political theorist Ronald Beiner's classic critique

उदारवाद की दो धाराएं कौन सी है?

पहली धारा की शुरुआत राममोहन राय से होती है। उन्होंने व्यक्ति के अधिकारों पर जोर दिया, खासकर महिलाओं के अधिकार पर। दूसरी धारा में स्वामी विवेकान्द, के सी सेन और जस्टिस रानाडे जैसे चिंतक शामिल हैं|इन चिंतकों ने पुरातनी हिन्दू धर्म के दायरे में सामाजिक न्याय का जज्बा जगाया।

6 उदारवाद क्या है?

उदारवाद (Liberalism) वह विचारधारा है जिसके अंतर्गत मनुष्य को विवेकशील प्राणी मानते हुए सामाजिक संस्थाओं को मनुष्यों की सूझबूझ और सामूहिक प्रयास का परिणाम समझा जाता है। उदारवाद की उतपति को 17वी शताब्दी के प्रारंभ से देखा जा सकता हैं। जॉन लॉक को उदारवाद का जनक माना जाता है।

उदारवाद के जनक कौन है?

जॉन लॉक: उदारवाद के जनक जॉन लोके को उदारवाद के जनक के रूप में जाना जाता है।

5 उदारवाद क्या है ?`?

उदारवाद की विचारधारा अपने जन्म से ही उस विचार का प्रतिपादन करती आई है कि स्वतन्त्रता व उसके अधिकारों की रक्षा का सर्वोत्तम उपाय यही है कि शासन की शक्ति जनता के हाथों में हो तथा कोई व्यक्ति या वर्ग जनता पर मनमाने ढंग से शासन न करें। लोक प्रभुसत्ता के सिद्धान्त के मूल में भी व्यक्ति की स्वतन्त्रता का ही विचार निहित है।