संस्कार हमारे जीवन में अदृश्य रूप से निर्माण का कार्य करते हैं। संस्कार ही व्यक्ति एवं समाज में चेतना लाते हैं। संस्कारों से सम्पन्न मनुष्य हीरे की भांति अपने मूल्य को निर्धारित करता है।
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संस्कार हमारे जीवन में अदृश्य रूप से निर्माण का कार्य करते हैं। संस्कार ही व्यक्ति एवं समाज में चेतना लाते हैं। संस्कारों से सम्पन्न मनुष्य हीरे की भांति अपने मूल्य को निर्धारित करता है। संस्कारित व्यक्ति ही चरमोत्कर्ष तक पहुंचने की क्षमता रखता है। ऐसा व्यक्ति ही कुसंस्कारों से समाज का संहारक बन सकता
है।
इस परिपेक्ष्य में जो 16 संस्कार हमारी संस्कृति में निर्धारित किए गए हैं वे ये हैं : 1. गर्भाधान, 2. पुंसवन, 3. सीमन्तोनयन, 4. जातकर्म, 5. नामकरण, 6. निष्क्रमण, 7. अन्नप्राशन, 8. चूड़ाकर्म, 9. कर्णवेध, 10. विद्यारम्भ, 11. उपनयन, 12. वेदारम्भ, 13. केशांत अथवा गोदान, 14. समावर्तन, 15. विवाह, 16. अंत्येष्टि संस्कार।
‘विष्णु सहस्रनाम’ का तात्पर्य
कइयों के मन में यह प्रश्न उठता है कि विष्णु सहस्रनाम में कई नाम ऐसे हैं जिनके अर्थ समझ नहीं आते। वे किस प्रकार से
भगवान विष्णु के नाम हैं : जैसे मरीचि, दमन, हंस, सुपर्ण, भजगोत्तम, हिरण्यनाभ, सुतपा, पद्मनाभ, प्रजापति, संधाता आदि।
इसका उत्तर है कि मरीचि का अर्थ होता है तेजस्वियों से भी परम तेज स्वरूप। दमन का अर्थ है प्रमाद करने वाली प्रजा को यम आदि के रूप में दमन करने वाले। हंस का अर्थ है पितामह ब्रह्मा को वेद का ज्ञान कराने के लिए हंस रूप धारण करने वाले। सुपर्ण अर्थात सुंदर पंखवाले गरुड़ स्वरूप। भजगोत्तम का अर्थ होता है सर्पों में श्रेष्ठ शेषनाग के रूप। हिरण्यनाभ का अर्थ है हितकारी और रमणीय नाभि
वाले। सुपता का अर्थ है बदरिकाश्रम में नर नारायण रूप से सुंदर तप करने वाले। पद्मनाभ अर्थात कमल के समान सुंदर नाभि वाले, प्रजापति जैसा कि सर्वविदित है सम्पूर्ण प्रजाओं के पालनकत्र्ता। इसी प्रकार संधाता का अर्थ हुआ पुरुषों को उनके कर्मों के फलों से संयुक्त करने वाले।
इस प्रकार विष्णु सहस्रनाम में विष्णु भगवान के एक हजार नाम उनके अर्थ के अनुरूप हैं।
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संस्कारों के अध्ययन से पता चलता है कि उनका सम्बन्ध संपूर्ण मानव जीवन से रहा है। मानव जीवन एक महान रहस्य है। संस्कार इसके उद्भव, विकास और ह्रास होने की समस्याओं का समाधान करते थे। जीवन भी संसार की अन्य कलाओं के समान कला माना जाता है। उस कला की जानकारी तथा परिष्करण संस्कारों द्वारा होता था। संस्कार पशुता को भी मनुष्यता में परिणत कर देते थे।
जीवन एक चक्र माना गया है। यह वहीं आरम्भ होता है, जहाँ उसका अंत होता है। जन्म से मृत्यु पर्यंत जीवित रहने,
विषय भोग तथा सुख प्राप्त करने, चिंतन करने तथा अंत में इस संसार से प्रस्थान करने की अनेक घटनाओं की श्रृंखला ही जीवन है। संस्कारों का सम्बन्ध जीवन की इन सभी घटनाओं से था।
हिंदू धर्म में संस्कारों का स्थान
संस्कारों का हिंदू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान था। प्राचीन समय में जीवन विभिन्न खंडों में विभाजन नहीं, बल्कि सादा था। सामाजिक विश्वास कला और विज्ञान एक- दूसरे से सम्बंधित थे। संस्कारों का महत्व हिंदू धर्म में इस कारण था कि उनके द्वारा ऐसा वातावरण पैदा किया जाता था, जिससे
व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास हो सके।
हिंदुओं ने जीवन के तीन निश्चित मार्गों को मान्यता प्रदान की - 1. कर्म- मार्ग, 2. उपासना- मार्ग तथा 3. ज्ञान- मार्ग। यद्यपि मूलतः संस्कार अपने क्षेत्र की दृष्टि से अत्यंत व्यापक थे, किंतु आगे चलकर उनका समावेश कर्म- मार्ग में किया
जाने लगा। वे एक प्रकार से उपासना- मार्ग तथा ज्ञान- मार्ग के लिए भी तैयारी के साधन थे।
कुछ मनीषियों ने संस्कारों का उपहास किया है, क्योंकि उनका सम्बन्ध सांसारिक कार्यों से था। उनके अनुसार संस्कारों द्वारा इस संसार सागर को पार नहीं किया जा सकता। साथ में हिंदू विचारकों ने यह भी अनुभव किया कि बिना संस्कारों के लोग नहीं रह सकते। आधार- शिला के रुप में स्वतंत्र विधि- विधान एवं परम्परा के न होने से चार्वाक् मत का अंत हो गया। यही कारण था, जिससे जैनों और बौद्धों को भी अपने स्वतंत्र कर्मकाण्ड
विकसित करने पड़े।
पौराणिक हिंदू धर्म के साथ वैदिक धर्म का ह्रास हुआ। इसके परिणाम- स्वरुप, जो संस्कार घर पर होते थे, वे अब मंदिरों और तीर्थस्थानों पर किये जाने लगे। यद्यपि दीर्घ तथा विस्तृत यज्ञ प्रचलित नहीं रहे, किंतु संस्कार जैसे यज्ञोपवीत तथा चूड़ाकरण, कुछ परिवर्तण के साथ वर्तमान समय में भी जारी हैं।
संस्कारों की उपयोगिता
प्राचीन समय में संस्कार बड़े उपयोगी सिद्ध हुए। उनसे व्यक्तित्व के विकास में बड़ी सहायता मिली। मानव जीवन को संस्कारों ने परिष्कृत और शुद्ध किया
तथा उसकी भौतिक तथा आध्यात्मिक आकांक्षाओं को पूर्ण किया। अनेक सामाजिक समस्याओं का समाधान भी इन संस्कारों द्वारा हुआ। गर्भाधान तथा अन्य प्राक्- जन्म संस्कार, यौनविज्ञान और प्रजनन- शास्र का कार्य करते थे। इसी प्रकार विद्यारम्भ तथा उपनयन से समावर्तन पर्यंत सभी संस्कार शिक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्व के थे। विवाह संस्कार अनेक यौन तथा सामाजिक समस्याओं का ठीक हल थे। अंतिम संस्कार, अंत्येष्टि, मृतक तथा जीवित के प्रति गृहस्थ के कर्तव्यों में सामंजस्य स्थापित करता था। वह तथा पारिवारिक और सामाजिक
स्वास्थ्य विज्ञान का एक विस्मयजनक समन्वय था तथा जीवित सम्बन्धियों को सांत्वना प्रदान करता था।
संस्कारों का ह्रास
आंतरिक दुर्बलताओं तथा बाह्य विषय परिस्थितियों के कारण कालक्रम से संस्कारों का भी ह्रास हुआ। उनसे लचीलापन तथा परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन की क्षमता नहीं रही, इनमें स्थायित्व आ गया। नवीन सामाजिक व धार्मिक शक्तियाँ समाज में क्रियाशील थी। बौद्ध धर्म, जैन धर्म तथा भक्ति मार्ग ने जनसाधारण का ध्यान कर्मकाण्ड से हटा कर भक्ति की ओर आकर्षित किया। भाषागत कठिनता भी
संस्कारों के ह्रास के लिए उत्तरदायी थी। समाज का आदिम स्थिति से विकास और मानवीय क्रियाओं की विविध शाखाओं का विशेषीकरण भी संस्कारों के ह्रास का कारण सिद्ध हुआ। इस्लाम के उदय के पश्चात् संस्कारों की विभिन्न क्रियाओं को स्वतंत्रता पूर्वक करना सम्भव नहीं था। पाश्चात्य शिक्षा- पद्धति और भौतिक विचारधारा से भी इनको बड़ा धक्का लगा। (शर्मा, डी० डी० हिन्दू संस्कारों का - ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक समीक्षण)