जिन इतिहासविदें ने भारत की स्वाधीनता की ‘कहानी’ सबसे पहले लिखी, उन्होंने स्वहित की खातिर, इसका श्रेय गांधी और उनकी पार्टी को दिया। वामपंथी इतिहासकारों को यह नहीं भाया परंतु वे पूंजीवादी अमेरिका को श्रेय देने के लिए भी तैयार नहीं थे। हिंदुत्ववादी इतिहासविद्, कांग्रेस के ‘मिथक’ का खंडन करना चाहते थे परंतु उनका स्वदेशी प्रेम, उन्हें ऐतिहासिक तथ्यों के प्रति ईमानदार नहीं रहने दे रहा था। Show इतिहास का हर विद्यार्थी जानता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के साथ ही, यूरोपीय देशों के उपनिवेशवाद का भी अंत हो गया। न केवल भारत, वरन् लगभग सभी उपनिवेशों को सन् 1945 के बाद स्वतंत्रता हासिल हो गई-उन्हें भी, जिन्हें यह नहीं पता था कि वे स्वयं अपना शासन कैसे चलाएंगे। इतिहासकार यह भी जानते हैं कि 14 अगस्त, 1941 के अटलांटिक चार्टर के कारण, इंग्लैण्ड के साम्राज्यवादी प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल, नैतिक दबाव के चलते अपने देश के उपनिवेशों को आजाद करने पर मजबूर हो गए। अपनी पुस्तक ‘एज ही सॉ इट’ (1946) में वे उनके पिता व चर्चिल के बीच साम्राज्यवाद से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के अंतिम दौर के बारे में लिखते हुए कहते हैं : ‘चर्चिल कमरे में चहलकदमी कर रहे थे। काफी लंबे समय तक, खूब जोशो-खरोश से अपनी बात कहने के बाद, वे क्षण भर के लिए रुके, मेरे पिता की ओर देखा और फिर अपनी मोटी उंगली उनके चेहरे की ओर करके बोले : ‘राष्ट्रपति महोदय, मेरा यह विश्वास है कि आप ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त कर देना चाहते हैं। युद्ध के बाद की दुनिया के ढांचे के बारे में आपकी हर सोच इसी ओर इशारा कर रही है। परंतु इसके बाद भी’-और उनकी उंगली थोड़ी हिली-‘इसके बाद भी, हम जानते हैं कि आप ही हमारी एकमात्र आशा हैं।’ और फि र, उन्होंने अपनी आवाज नाटकीय रूप से नीची कर कहा, ‘आप जानते हैं कि हम यह जानते हैं कि अमेरिका के बिना ब्रिटिश साम्राज्य खड़ा नहीं रह सके गा।’ आठ-सूत्रीय अटलांटिक चार्टर ने यह सुनिश्चित किया कि युद्ध के बाद, विजेता देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन किया न कि ‘संयुक्त साम्राज्य संघ’ का। चार्टर के आठ बिंदुओं में से तीसरा यह था कि अमेरिका और इंग्लैण्ड, हर उपनिवेश के अपने भविष्य का स्वयं निर्धारण करने के अधिकार का सम्मान करते हैं। चार्टर को अपनी स्वीकृति प्रदान करने के बाद भी, चर्चिल चाहते थे कि यह अधिकार केवल जर्मन उपनिवेशों के नागरिकों को मिले, ब्रिटिश उपनिवेशों को नहींं। परंतु रूजवेल्ट के दृढ़ रुख के कारण, चार्टर ने एक ऐसी लहर पैदा की जो जल्दी ही सुनामी में बदल गई और उसने चर्चिल जैसे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया। रूजवेल्ट ने उपनिवेशवाद का विरोध क्यों किया? • रूजवेल्ट उपनिवेशवाद के विरोधी क्यों थे? इन मुद्दों पर अमेरिका की राय का आधार थे वे उग्र धर्मशास्त्रीय तर्क-वितर्क जिनकी परिणति सन् 1555 की शांति संधि (ल्यूथेरन व रोमन कैथोलिकों के बीच) व 1638 की वेस्टफेलिया शांति संधि (कालविनिस्टों, लूथेरनो व कैथालिकों के बीच) में हुई। राष्ट्रीय स्वतंत्रता की अमेरिका की धर्मशास्त्रीय समझ ने रूजवेल्ट को ब्रिटिश साम्राज्य का अंत करने में सक्षम बनाया। इस छोटे से लेख में हम विस्तार से यह नहीं बता सकते कि किस तरह बाइबिल के धर्मशास्त्र ने भारत को स्वाधीन करने में मदद की। इस ऐतिहासिक तथ्य को आसान तरीके से समझाने के लिए मैं साहित्यिक अनुज्ञा का सहारा लेते हुए, रूजवेल्ट व चर्चिल के बीच निम्नांकित काल्पनिक वार्तालाप का वर्णन कर रहा हूं : ‘अगस्त 1941 में चर्चिल जब एचएमएस प्रिंस ऑफ वेल्स से उतरकर, रूजवेल्ट की ‘मछली मारनेे की नौका’ यूएसएस अॅगस्टा में पहुंचे, तब वे दुनिया के इतिहास के सबसे बड़े साम्राज्य के मुखिया थे और स्वतंत्र दुनिया के सबसे बड़े नेता भी। दूसरी ओर, रूजवेल्ट मात्र एक ऐसे देश के राष्ट्रपति थे जो वैश्विक भू-राजनीति के हाशिए पर था और युद्ध में शामिल होने में हिचकिचा रहा था। यद्यपि दोनों नेताओं के बीच सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत के समय से ही अमेरिका को इस युद्ध में शामिल करने के बारे में बातचीत चल रही थी, परंतु उनकी आमने-सामने मुलाकात तब तक नहीं हुई थी। चर्चिल बहुत बेचैन थे क्योंकि उन्हें डर था कि जर्मनी, ब्रिटेन पर कब्जा कर लेगा। चर्चिल : जी हां, राष्ट्रपति महोदय। चर्चिल : आपको युद्ध में इसलिए शामिल होना चाहिए क्योंकि अगर नाजियों ने यूरोप पर कब्जा कर लिया और जापान का एशिया पर शासन स्थापित हो गया तो असहाय अमेरिका दो महाशक्तियों के बीच फंस जाएगा। रूजवेल्ट : मेरे देश के लोग अलग-थलग रहना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि उन्हें एक ऐसे युद्ध में घसीटा जाए जो हमारा नहीं है। रूजवेल्ट : मान लीजिए हम आपकी इस युद्ध को जीतने में मदद कर भी दें तो उसके बाद क्या होगा? क्या आप जर्मनी या जापान को अपना उपनिवेश बनाएंगे? क्या दुनिया की एकमात्र महाशक्ति के रूप में ब्रिटेन, अमेरिकी उपनिवेशों को एक बार फि र अपने साम्राज्य में शामिल करना चाहेगा? चर्चिल : ईमानदारी की बात तो यह है राष्ट्रपति महोदय कि मैंने इस प्रश्न पर अधिक विचार नहीं किया है कि अगर हम जीत गए तो क्या होगा। मेरी सोच तो इस आशंका के इर्द-गिर्द घूमती रही है कि अगर हम हार गए तो हमारा और हमारे साम्राज्य का क्या होगा। मैं कतई यह नहीं चाहूंगा कि भारत और नाजी, आर्यश्रेष्ठता के सिद्धांत में अपने विश्वास के चलते, एक हो जाएं। चर्चिल : क्या आप सचमुच मेरी तुलना हिटलर से कर रहे हैं? चर्चिल : यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। सन् 1931 के वेस्टमिंस्टर विधान के अंतर्गत, हमने कनाडा, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका जैसे अपने उपनिवेशों को पहले ही स्वतंत्रता दे दी है। आस्ट्रेलिया को यह अधिकार दे दिया गया है कि वह जब चाहे स्वतंत्र हो सकता है। ‘कोई कृत्रिम रोक-टोक नहीं होनी चाहिए। किसी देश को विशेष व्यापारिक दर्जा देने वाले जितने कम समझौते हों उतना अच्छा। सभी देशों को उनका व्यवसाय बढ़ाने के पूरे अवसर उपलब्ध हों और बाजार, स्वस्थ्य प्रतियोगिता के लिये खुला हो।’ उनकी आंखें पूरे कमरे का मानो सर्वेक्षण कर रही थीं। चर्चिल अपनी कुर्सी पर थोड़ा खिसके और फि र बोले, ‘ब्रिटिश साम्राज्य के व्यापारिक समझौते…।’ मेरे पिता ने कहा ‘यही वह मुद्दा है जिस पर मेरे और आपके बीच मतभेद हो सकते हैं। ‘आपका वह मंत्री, जो ऐसी नीति की सिफारिस करता है जिसके अंतर्गत औपनिवेशिक देशों से कच्चा माल बाहर ले जाया जाता है और उन्हें उसके बदले कुछ नहीं दिया जाता। 20वीं सदी के तरीकों का मतलब है इन उपनिवेशों में उद्योगों की स्थापना। 20वीं सदी के तरीकों का मतलब है लोगों के जीवनयापन के स्तर को बढ़ाकर, उनकी संपत्ति में वृद्धि करना, उन्हें शिक्षित करना, उन्हें साफ-सफाई से रहना सिखाना-कुल मिलाकर, यह सुनिश्चित करना कि उन्हें उनके समुदाय के कच्चे माल की पूरी कीमत मिले।’ ‘आपने भारत की बात की,’ उन्होंने गुर्राते हुए कहा। किसी भी सुधि पाठक के लिए यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि कांग्रेस, वामपंथी, समाजवादी और हिंदुत्ववादी इतिहासविदें ने हमें कभी भारत की स्वाधीनता में अमेरिका की भूमिका के बारे में क्यों नहीं बताया। हममें से कई के लिए यह स्वीकार करना बेहद मुश्किल है कि अमेरिका-जो कि तब एक ईसाई पूंजीवादी देश था-की रुचि अंग्रेजी भाषा-भाषी पंूजीवादी साम्राज्य के साथ हाथ मिलाकर, दुनिया को अपना गुलाम बनाने और उसे लूटने में नहीं थी। यद्यपि हर पक्ष के अपने स्वार्थ और अपने समीकरण थे तथापि अंतत:, नैतिक कारणों से, ब्रिटिश साम्राज्य का अंत हुआ और उसकी शुरुआत हुई इंग्लैण्ड के मुकुट के सबसे बड़े हीरे-भारत-को स्वतंत्र करने के साथ।
(फारवर्ड प्रेस के अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित)
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