भारत में प्रकाशित होने वाला पहला समाचार पत्र कौन सा है? - bhaarat mein prakaashit hone vaala pahala samaachaar patr kaun sa hai?

बंगाल गजत भारत मे प्रकाशित होने वाला एक अंग्रेजी भाषा का पहला समाचार पत्र था। इसके प्रकाशक जेम्स आगस्टस हिक्की (James Augustus Hicky) थे। यह एक साप्ताहिक पत्र था जो कोलकाता से सन् 1779 में आरम्भ हुआ।

हिकी गजट के प्रकाशन का एक कारण बाजार के लिए सूचनाएं उपलब्ध कराना था। यह मानना कि वह अंग्रेजी प्रशासन के विरोध के लिए निकाला गया गलत और भ्रामक है। हां यह जरूर है कि उसमें अंग्रेजी प्रशासन में व्याप्त भ्रप्टाचार और रिश्वतखोरी के समाचार प्रमुखता से होते थे।

दूसरा अखबार 'इंडिया गजट' 1780 ई० में निकला, यह कंपनी के व्यावसायिक क्रियाकलापों के समाचार मुख्यतः छापता था। आधी शताब्दी तक यह अखबार चलता रहा। 1784 ई० में कैलकता गजट तथा 1785 ई० में बंगाल जर्नल निकले। मद्रास से पहला साप्ताहिक अखबार मद्रास कोरियर 1785 ई० में निकला। बम्बई से 'बम्बई हेराल्ड' 1789 ई० में निकला।

यहाँ भारत में प्रकाशित होने वाले विभिन्न भाषाओं के समाचार पत्रों की सूची दी गयी है।

समाचार पत्रिकाएं

जालपर समाचारपत्र

नामस्थलआगरा न्यूजआगराभारत क्रोनिकलराष्ट्रीयभारत समाचारराष्ट्रीयसेंट्रल क्रोनिकलमध्यप्रदेशतहलकाराष्ट्रीय

नियमित समाचारपत्र

को भारत के सबसे पहले समाचार पत्र के रूप में जाना जाता है यह समाचार प्त्रकोलकाता से प्रकाशित होता था इस की शुरूआत वर्ष 1780 में हुई थी बंगाल गज़ट अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित किया जाता था तथा यह एक सप्ताहिक समाचार पत्र था जो कि राजनीतिक तथा सार्वजनिक समाचार प्रकाशित करता था बंगाल गज़ट को “हिक्कीज़ बंगाल गज़ट” के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इसको प्रकाशित करने वाले व्यक्ति का नाम जेम्स हिक्की था


बंगाल गज़ट से सबंधित अन्य प्रशन:


बंगाल गज़ट कितने वर्ष तक प्रकाशित किया गया था

दो वर्ष (1780 में शुरू हुआ यह समाचार पत्र वर्ष 1782 तक ही प्रकाशित हुआ)

जेम्स हिक्की कौन हैं

जेम्स हिक्की को भारतीय पत्रकारिता का पितामह माना जाता है ब्रिटिश राज में अपना स्वंय का समाचार पत्र प्रकाशित करने का साहस रखने वाले ये उस समय के एकमात्र पत्रकार थे

बंगाल गज़ट का सबसे पहला संसकरण प्रकाशित होने की तारीख क्या थी

29 जनवरी 1780

बंगाल गज़ट को प्रकाशित करने के पीछे जेम्स हिक्की के क्या उद्देश्य थे

उस समय लोगों के पास जानकारी प्राप्त करने का कोई भी साधन नही था इस कारण लोगों को ब्रिटिश इंडिया कम्पनी की चल रही गतिविधियों से अवगत करवाना तथा लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जानकारी देना ही बंगाल गज़ट प्रकाशित करने का मुख्य उद्देश्य था

भारत में यूरोपियनों के प्रवेश के साथ ही समाचार पत्रों की शुरुआत होती है। भारत में प्रिंटिंग प्रेस लाने का श्रेय पुर्तगालियों को है। गोवा में वर्ष 1557 में कुछ ईसाई पादरियों ने एक पुस्तक छापी थी, जो भारत में मुद्रित होने वाली पहली किताब थी। 1684 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। लेकिन भारत का पहला समाचार पत्र निकालने का श्रेय भी जेम्स ऑगस्टस हिकी नामक एक अंग्रेज को प्राप्त है, जिसने वर्ष 1780 में ‘बंगाल गजट’ का प्रकाशन किया था। यानी भारत में समाचार पत्रों का इतिहास 232 वर्ष पुराना है। कंपनी सरकार की आलोचना के कारण ‘बंगाल गजट’ को जब्त कर लिया गया था। किसी भारतीय भाषा में प्रकाशित होने वाला पहला समाचार पत्र मासिक ‘दिग्दर्शक’ था, जो 1818 ईस्वी में प्रकाशित हुआ। लेकिन निर्विवाद रूप से भारत का सबसे पहला प्रमुख समाचार पत्र ‘संवाद कौमुदी’ था। इस साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन 1821 में शुरू हुआ था और इसके प्रबंधक-संपादक थे प्रख्यात समाज सुधारक राजा राममोहन राय। ‘संवाद कौमुदी’ के प्रकाशन के साथ ही सबसे पहले भारतीय नवजागरण में समाचार पत्रों के महत्व को रेखांकित किया गया था।

एनडीटीवी के बारे में कल मैंने जो टिप्पणी की, उस पर अनेक मित्रों ने कहा कि इसमें रवीश कुमार का जिक्र होना चाहिए था। वे सच हो सकते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि किसी व्यक्ति का निर्माण करने वाली संस्था बड़ी होती है। इसलिए चिंता इन संस्थाओं के क्षीण और दुर्बल होते जाने पर करनी चाहिए। कुछ संस्थान ऐसे भी हैं, जो सत्ता समर्थक मीडिया की फसल उगा रहे हैं। अर्थ यह कि यदि कोई संस्था चाह ले तो वह लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति का प्रतीक बन सकती है और ढेर सारे गिरि लाल जैन, राजेंद्र माथुर, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, एसपी सिंह, विनोद दुआ, प्रभाष जोशी, अरुण शौरी से लेकर रवीश कुमार तक को रच सकती हैं। मैंने स्वयं भी कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।

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मेरे पत्रकारिता संस्कारों की जब नींव पड़ रही थी तो उसमें राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, एसपी सिंह, प्रभाष जोशी, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती का बड़ा योगदान रहा। दूसरी ओर हम कुछ संस्थानों के प्रतीक पुरुषों को सत्ता प्रतिष्ठानों की जी हुजूरी करते पाते हैं। वे अपने मातहत ऐसे ही पत्रकारों की पौध विकसित करते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसे तथाकथित पत्रकार पीआर या लाइजनिंग तो कर सकते हैं, लेकिन पत्रकारिता का कर्तव्य अलग है।  

आपातकाल के बाद राजेंद्र माथुर के लिखे सात गंभीर मुद्दे याद आ रहे हैं। भारतीय हिंदी पत्रकारिता का यह अदभुत दस्तावेज है और भारत में अधिनायकवाद पर अंकुश लगाता है। माथुर जी तब ‘नईदुनिया’ में संपादक थे और उनके प्रधान संपादक राहुल बारपुते थे।  करोड़ों नागरिकों के दिलो दिमाग को मथने वाले सवाल राजेंद्र माथुर को भी झिंझोड़ते थे।  उन दिनों बड़े नामी गिरामी पत्रकार व्यवस्था के आगे घुटने टेक चुके थे। लेकिन ‘नईदुनिया’ ने ऐसा नहीं किया। उसके विज्ञापन बंद करने की नौबत आ गई, लेकिन उस समय के प्रबंधन और प्रधान संपादक ने पत्रकारिता के मूल्यों को बचाने का फैसला किया। इस तरह राजेंद्र माथुर का वह अनमोल दस्तावेज सामने आया। मैं अपनी पत्रकारिता के सफर में उस पड़ाव का साक्षी हूं।

आगे बढ़ते हैं। उन्नीस सौ तिरासी में बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र प्रेस बिल लाए। एक बार फिर अभिव्यक्ति के प्रतीकों पर हमला हमने देखा। देशभर में हम लोग सड़कों पर आए। तब टीवी से अधिक अखबार प्रभावी थे। इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर नेत्री प्रधानमंत्री थीं। आपातकाल में सेंसरशिप के लिए खेद प्रकट कर चुकी थीं। उन्होंने सबक सीखा था।  फिर इस देश के लोकतंत्र ने बिहार सरकार को निर्देश दिया कि प्रेस बिल वापस लिया जाए। ऐसा ही हुआ। संस्था ने पत्रकारिता को संरक्षण दिया था।

इसके बाद उन्नीस सौ सतासी आया। तब तक  देश में ‘दूरदर्शन’ जोरदार दस्तक दे चुका था। राजीव गांधी सरकार मानहानि विधेयक लाई। एक बार फिर हम लोगों ने मोर्चा संभाला। राजीव गांधी की सरकार को झुकना पड़ा। विधेयक रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। आज तो संपादक प्रधानमंत्री के कदमों में बिछ जाते हैं। उस समय पूरा पीएमओ राजेंद्र माथुर से विराट बहुमत वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी का साक्षात्कार लेने का आग्रह करता रहा। लेकिन राजेंद्र माथुर नहीं गए। उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय को बता दिया कि पेशेवर कर्तव्य कहता है कि साक्षात्कार कोई संवाददाता लेगा अथवा संवाददाताओं की टीम का प्रमुख। यह संपादक का काम नहीं है। ऐसा ही हुआ।  

इन्हीं दिनों दूरदर्शन अपनी निष्पक्षता की छटा बिखेर रहा था। एक उदाहरण उसका भी। विनोद दुआ तब एक कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे। उसमें महत्वपूर्ण लोगों के साक्षात्कार दिखाए जाते थे। अशोक गहलोत नए नए केंद्रीय मंत्री बने थे। विनोद जी ने उन्हें बुलाया। अशोक जी को अपने मंत्रालय के बारे में कोई अधिक जानकारी नहीं थी, न ही उन्होंने तैयारी की थी। परिणाम यह कि वे अधिकतर सवालों का उत्तर ही न दे सके। रुआंसे हो गए।  दूरदर्शन पर वैसा ही प्रसारण हुआ। अशोक जी की छबि पर प्रतिकूल असर पड़ा। कुछ राजनेता, मंत्री और सरकार के शुभचिंतक प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पास गए। उनसे कहा कि एक बाहरी प्रस्तोता पत्रकार विनोद दुआ हमारे मंच, संसाधन और पैसे का उपयोग करता है और हमारे ही मंत्री का उपहास होता है। राजीव गांधी ने कहा, सवाल उपहास का नहीं है।  मंत्री की काबिलियत का है। अगर किसी मंत्री को अपने मंत्रालय की जानकारी नहीं है तो वह कैसे देश भर का प्रशासन करेगा। अगले दिन अशोक गहलोत का इस्तीफा हो गया। तो यहां संस्था दूरदर्शन और सरकार, दोनों ही पत्रकारिता के अधिकार को संरक्षण दे रही थीं।

क्या आज आप कल्पना कर सकते हैं ? इसी दौर में चुनाव परिणाम तीन चार दिन तक आते थे और दूरदर्शन उनका सजीव प्रसारण करता था। प्रणॉय रॉय और विनोद दुआ की जोड़ी सरकार के कामकाज और मंत्रियों पर ऐसी तीखी टिप्पणियां करती थी कि सत्ताधीश बिलबिला कर रह जाते थे। लेकिन कुछ नही करते थे। स्वतंत्र पत्रकारिता का अर्थ यही था।

कितने उदाहरण गिनाऊं। भारत की पहली साप्ताहिक समाचार पत्रिका ‘परख’ हम लोगों ने 1992 में शुरू की। विनोद दुआ ही उसके प्रस्तोता थे। मैं इस पत्रिका में विशेष संवाददाता था।  दूरदर्शन पर हर सप्ताह प्रसारित होने वाली यह पत्रिका करीब साढ़े तीन साल चली।  मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से मेरी कम से कम पचास रिपोर्टें ऐसी थीं, जिनसे केंद्र और राज्य सरकारें हिल जाती थीं। परंतु कोई रिपोर्ट न रोकी गई और न सेंसर हुई। हां पत्रकारिता की निष्पक्षता और संतुलन के धर्म का हमने हरदम पालन किया। तो संस्था और सरकार की ओर से कभी दिक्कत नहीं आई।

इसके बाद सुरेंद्र प्रताप सिंह के नेतृत्व में ‘आजतक’ शुरू हुआ।  दूरदर्शन के मेट्रो चैनल पर।  दूरदर्शन का नियम था कि प्रसारण से पूर्व एक बार ‘आजतक’ का टेप देखा जाना चाहिए था।  मगर एसपी की इतनी धमाकेदार प्रतिष्ठा थी कि कभी कोई अंक रोका नहीं गया और सरकार के साथ-साथ समूचे तंत्र की विसंगतियों और खामियों पर हम लोग करारे हमले करते थे।  हमारी नीयत में खोट नहीं था, इसलिए सरकार और ब्यूरोक्रेसी ने कभी अड़ंगा नही लगाया।  आज तो चुनाव आयोग ही कटघरे में है। हमने टीएन शेषन का दौर देखा है, जब प्रधानमंत्री से लेकर सारे मंत्री, मुख्यमंत्री और नौकरशाह थर-थर कांपते थे। ऐसा तब होता है, जब हुकूमतें भी लोकतांत्रिक परंपराओं और सिद्धांतों का आदर करती हैं। पर जब बागड़ ही खेत को खाने लग जाए तो कोई क्या करे ?

एक अंतिम उदाहरण। भारत का पहला स्वदेशी चैनल ‘आजतक’ हम लोगों ने शुरू किया।  तब एनडीए सरकार थी। चूंकि उपग्रह प्रसारण की अनुमति उस समय की सूचना-प्रसारण मंत्री सुषमा स्वराज ने दी थी, इसलिए कभी-कभी सरकार की अपेक्षा होती थी कि संवेदनशील मामलों में हम सरकार का समर्थन करें। पर ऐसा कभी नहीं हुआ। हमारी स्वतंत्र और निर्भीक पत्रकारिता पर एसपी सिंह का प्रभाव बना रहा। जब भारत के पहले टीवी ट्रेवलॉग के तहत मैने अरुणाचल से लेकर कन्याकुमारी तक यात्रा की तो एनडीए के पक्ष में कोई फील गुड नहीं पाया। मैंने प्रसारण में साफ ऐलान कर दिया था कि सरकार जा रही है।  उस समय सारे अखबार और चैनल एनडीए की वापसी करा रहे थे। आशय यह कि सच कहने, बोलने और लिखने की आजादी का स्वर्णकाल हमने देख लिया है। आज का दौर भी देख रहे हैं और यह भी गुजर जाएगा।

भारत का पहला समाचार पत्र कौन सा हैं?

उदन्त मार्तण्ड (शाब्दिक अर्थ : 'समाचार सूर्य' या '(बिना दाँत का) बाल सूर्य' ) हिंदी का प्रथम समाचार पत्र था। इसका प्रकाशन ३०मई, १८२६ ई. में कलकत्ता से एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू हुआ था।

दुनिया का सबसे पहला समाचार पत्र कौन सा है?

दरअसल, 16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, व्या पारी योहन कारोलूस ने रईस ग्राहकों को सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था. बाद में उसने छापे की मशीन खरीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापा. उस समाचार-पत्र का नाम था 'रिलेशन. यही विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है.