भीम और जरासंध में कौन सा युद्ध हुआ? - bheem aur jaraasandh mein kaun sa yuddh hua?

महाभारत सभा पर्व के ‘जरासंध वध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 22 के अनुसार भीम और जरासंध के भीषण युद्ध का वर्णन इस प्रकार है[1]-

विषय सूची

  • 1 भीमसेन और जरासंध का युद्ध
  • 2 श्रीकृष्ण द्वारा भीम को जरासंध वध के लिये उत्साहित करना
  • 3 टीका टिप्पणी और संदर्भ
  • 4 संबंधित लेख
    • 4.1 महाभारत सभा पर्व में उल्लेखित कथाएँ

भीमसेन और जरासंध का युद्ध

वैशम्पायनजी कहते हैं। जनमेजय! राजा जरासंध ने अपने मन में युद्ध का निश्चय कर लिया है, यह देख बोलने में कुशल यदुनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने उससे कहा। श्रीकृष्ण ने पूछा- राजन्! हम तीनों में से किस एक व्यक्ति के साथ युद्ध करने के लिये तुम्हारे मन में उत्साह हो रहा है? हममें से कौन तुम्हारे साथ युद्ध के लिये तैयार है?। उनके इस प्रकार पूछने पर महातेजस्वी मगधनरेश राजा जरासंध ने भीमसेन के साथ युद्ध करना स्वीकार किया। जरासंध को युद्ध करने के लिये उत्सुक देख उसके परोहित गोरोचन, माला, अन्यान्य मांगलिक वस्तुएँ तथा उत्तम-उत्तम ओषधियाँ, जो पीड़ा के समय भी सुख देने वाली और मूर्च्छाकाल में भी होश बनाये रखने वाली थी, लेकर उसके पास आये। यशस्वी ब्राह्मण के द्वारा स्वस्तिवाचन सम्पन्न हो जाने पर जरासंध क्षत्रिय धर्म का स्मरण करके युद्ध के लिये कमर कसकर तैयार हो गया। जरासंध ने किरीट उतारकर केशों को कसकर बाँध लिया। तत्पश्चात वह युद्ध के लिये उठकर खड़ा हो गया, मानो महासागर अपनी मर्यादा तटवर्तिनी भूमि को लाँघ जाने को उद्यत हो गया हो। उस समय भयानक पराक्रम करने वाले बुद्धिमान राजा जरासंध ने भीमसेन से कहा- भीम! आओ, मैं तुमसे युद्ध करूँगा, क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष से लड़कर हारना भी अच्छा है। ऐसा कहरक महातेजस्वी शत्रुदमन जरासंध भीमसेन की ओर बढ़ा, मानो बल नामक असुल इन्द्र से भिड़ने के लिये बढ़ा जा रहा हो। तदनन्तर बलवान् भीमसेन भी श्रीकृष्ण से सलाह लेकर स्वस्तिवाचन के अनन्तर युद्ध की इच्छा से जरासंध के पास आ धमके। फिर तो मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी वे दोनों वीर अत्यन्त हर्ष और उत्साह में भरकर एक दूसरे को जीतने की अच्दा से अपनी भुजाओं से ही आयुध का काम लेते हुए परस्पर भिड़ गये। पहल उन दोनों ने हाथ मिलाये। फिर एक दूसरे के चरणों का अभिवन्दन किया। तत्पश्चात् भुजाओं के मूलभाग के संचालन से वहाँ बंधे हुए वाजूबंद की डोर को हिलाते हुए वे दोनों वीर वहीं ताल ठोंकने लगे। राजन्! फिर वे दोनों हाथों से एक दूसरे के कंधे पर बार-बार चोट करते हुए अंग-अंग से भिड़कर आपस में गुँथ गये तथा एक दूसरे को बार-बार रगड़ने लगे। वे कभी हाथों को बड़े वेग से सिकोड़ लेते, कभी फैला देते, कभी ऊपर नीचे चलाते और कभी मुठ्ठी बाँध लेते। इस प्रकार चित्रहस्त आदि दाँव दिखाकर उन दोनों ने कक्षा बन्ध का प्रयोग किया अर्थात कए दूसरे की काख या कमर में दोनों हाथ डालकर प्रतिद्वन्द्वी को बाँध लेने की चेष्टा की। फिर गले में और गाल में ऐसे-ऐसे हाथ मारने लगे कि आग की चिनगारी सी निकलने लगी और वज्रपात का सा शब्द होने लगा। तत्पश्चात वे ‘बाहुपाश’ और ‘चरणपाश’ आदि दाँव पेंचों से काम लेते हुए एक दूसरे पर पैरों से ऐसा भीषण प्रहार करने लगे कि शरीर की नस नाड़ियाँ तक पीड़ित हो उठीं। तदनन्दर दोनों ने दोनों पर ‘पूर्णकुम्भ’ नाम दाँव लगाया (दोनों हाथों की अंगलियों को परस्पर गूँथकर उन हाथों की हथेलियों से शत्रु के सिर को दबाया) इसके बाद ‘उरोहस्त’ का प्रयोग किया (छाती पर थप्पड़ मारना शुरु कर दिया)।[1]
फिर एक दूसरे के हाथ दबाकर वे दोनों दो गजराजों की भाँति गर्जने लगे। दोनों ही भुजाओं से प्रहार करते हुए मेघ के समान गम्भीर स्वर में सिंहनाद करने लगे। थप्पड़ों की मार खाकर वे परस्पर घूर-घूरकर देखते और अत्यन्त क्रोध में भरे हुए दो सिंहों के समान एक दूसरे को खींच-खाँचकर लड़ने लगे। उस समय दोनों अपने अंगों और भुजाओं से प्रतिद्वन्द्वी के शरीर को दबाकर शत्रु की पीठ में अपने गले की हँसली भिड़ाकर उसके पेट को दोनों बाँहों से कर लेते और उठाकर दूसर फैंकते थे। इसी प्रकार कमर में और बगल में भी हाथ लगाकर दोनों प्रतिद्वन्द्वदी को पछाड़ने की चेष्टा करते थे। अपने शरीर को सिकोड़कर शत्रु की पकड़ से छूट जाने की कला दोनों जानते थे। दोनों ही मल्लयुद्ध की शिक्षा में प्रवीध थे। वे उदर के नीचे हाथ लगाकर दोनों हाथों से पेट को लपेट लेते और विपक्षी को कण्ठ एवं छाती तक ऊँचे उठाकर धरती पर मारते थे। फिर वे सारी मर्यादाओं से ऊँचे उठे हुए ‘पूष्ठ भंग’ नामक दाँव पेंच से कमा लेने लगे (अर्थात् एक दूसरे की पीठ को धरती से लगा देने की चेष्टा में लग गये)। दोनों भुजाओं से सम्पूर्ण मूर्च्छा (उदर आदि में आघात करके मूर्च्छित करने का प्रयत्न) तथा पूर्वोक्त पूर्ण कुम्भ का प्रयोग करने लगे। तदनन्तर वे अपनी इच्छा के अनुसार ‘तृणपीड’ (रस्सी बनाने के लिये बटे जाने वाले तिनकों की भाँति हाथ पैर आदि को ऐंठना) तथा मुष्टि का घात सहित पूर्णयोग (मुक्के को एक अंग में मारने की चेष्टा दिखाकर दूसरे अंग में आघात करना) आदि युद्ध के दाँव पेंचों का प्रयोग एक दूसरे पर करने लगे। जनमेजय! उस समय उनका मल्लयुद्ध देखने के लिये हजारों पुरवासी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्रियाँ एवं वृद्ध इकठ्ठे हो गये। मनुष्यों की अपार भीड़ से वह स्थान ठसाठस भर गया। उन दोनों की भुजाओं के आघात से तथा एक दूसरे के निग्रह-प्रग्रह[2] से ऐसा भयंकर चटचट शब्द होता था, मानों वज्र और पर्वत परस्पर टकरा रहे हों। बलवानों में रेष्ठ वे दोनों वीर अत्यन्त हर्ष एवं उत्साह में भरे हुए थे ओर एक दूसरे की दुर्बलता या असावधानी पर दृष्टि रखते हुए परस्पर बलपूर्वक जिय पाने की इच्दा रखते थे। राजन्! उस समर भूमि में, जहाँ वृत्रासुर ओर इन्द्र की की भाँति उन दोनों बलवान् वीरों में संघर्ष छिड़ा था, ऐसा भयंकर युद्ध हुआ कि दर्शक लोग दूर भाग खड़े हुए। वे एक दूसरे को पीछे टकेलते और आगे खींचते थे। बार बार खींचतान और छीना-झपटी कतरे थे। दोनों ने अपने प्रहार से एक दूरे के शरीर में खरौंच एवं घाव पैदा कर दिये और दोनों दोनों को पटकर कर घुटनों से मारने तथा रगड़ने लगे। फिर बड़े भारी गर्जन-तर्जन के द्वारा आपस में डाँट बताते हुए एक दूसरे पर ऐसे प्रहार करने लगे मानों पत्थरों की वर्षा कर रहे हों। दोनों की छाती चौड़ीा और भुजाएं बड़ी-बड़ी थीं। दोनों ही मल्लयुद्ध में कुशल थे और लोहे की परिघ जैसी मोटी भुजाओं को भिड़ाकर आपस में गुँथ जाते थे। कार्तिक मास के पहले दिन उन दोनों का युद्ध प्रारम्भ हुआ और दिन रात बिना खाये पिये अविराम गति से चलता रहा।[3]

श्रीकृष्ण द्वारा भीम को जरासंध वध के लिये उत्साहित करना

उन महात्माओं का वह युद्ध इसी रूप में त्रयोदशी तक होता रहा। चतुर्दशी की रात में मबधनरेश जरासंध क्लेश से थककर युद्ध से निवृत्त सा होने लगा। राजन्! उसे इस प्रकार थका देख भगवान श्रीकृष्ण भयानक कर्म करने वाले भीमसेन को समझाते हुए से बोले- ‘कुन्तीनन्दन! शत्रु थक गा हो तो युद्ध में उसे अधिक पीड़ा देना उचित नहीं है। यदि उसे पूर्णत: पीड़ा दी जाये तो वह अपने प्राण त्याग देगा। ‘अत: पार्थ! तम्हें राजा जरासंध को अधिक पीड़ा नहीं देनी चाहिये। भरतश्रेष्ठ! तुम अपनी भुजाओं द्वारा इनके साथ समभाव से ही युद्ध करो’। भगवान् श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर शत्रुवीरों का नाश करने वाले पाण्डुकुमार भीमसेन ने जरासंध को थका हुआ जानकर उसके वध का विचार किया। तदनन्तर कुरुकुल को आनन्दित करने वाले बलवानों में श्रेष्ठ वृको दरने उस अपराजित शत्रु जरासंध को जीतने के लिये भारी क्रोध धारण किया।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ↑ 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 23 श्लोक 1-14
  2. दोनों हाथों से शत्रु का कंधा पकड़कर खींचने और उसे नीचे मुख गिराने की चेष्टा का नाम 'निग्रह' है तथा शत्रु को उत्तान गिरा देने के लिये उसके पैरों को पकड़कर खींचना 'प्रग्रह' कहलाता है।
  3. महाभारत सभा पर्व अध्याय 23 श्लोक 15-29
  4. महाभारत सभा पर्व अध्याय 23 श्लोक 30-35

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वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

जरासंध और भीम के बीच कितने दिन युद्ध चला?

जरासंध मगध का क्रूर शासक था। उसकी राजधानी राजगृह(राजगीर, अब बिहार में)थी। बताया जाता है कि भीम और और जरासंध में 18 दिनों तक युद्ध हुआ था। जिस अखाड़े में दोनों के बीच युद्ध हुआ वह आज भी राजगीर में मौजूद है।

जरासंध कृष्ण का कौन था?

कंस का ससुर था जरासंध : भगवान कृष्ण का मामा था कंस। कंस का ससुर था जरासंध। कंस के वध के बाद भगवान श्रीकृष्ण को सबसे ज्यादा यदि किसी ने परेशान किया तो वह था जरासंध। कंस ने उसकी दो पुत्रियों 'अस्ति' और 'प्राप्ति' से विवाह किया था

कृष्ण ने जरासंध को कितनी बार हराया?

श्रीकृष्ण ने जरासंध को 17 बार युद्ध में पराजित किया, लेकिन उसे जीवित छोड़ दिया, जानिए क्यों? जरासंध भी महाभारत का एक पात्र है। जरासंध कंस का ससुर था।

महाभारत में जरासंध कौन था?

जरासंध मगध (वर्तमान बिहार) का राजा था। वह अन्य राजाओं को हराकर अपने पहाड़ी किले में बंदी बना लेता थाजरासंध बहुत ही क्रूर था, वह बंदी राजाओं का वध कर चक्रवर्ती राजा बनना चाहता था। भीम ने 13 दिन तक कुश्ती लड़ने के बाद जरासंध को पराजित कर उसका वध किया था