एक प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास मैं अरसे से करता आ रहा हूं कि किसी भाषा में अन्य भाषाओं, विशेषतः विदेशी भाषाओं, के शब्द किस सीमा तक ठूंसे जाने चाहिए और किन परिस्थितियों में । क्या इतर भाषाओं के शब्दों का प्रयोग इस सीमा तक किया जाना चाहिए कि उनसे अपनी भाषा के प्रचलित शब्द विस्थापित होने लगें ? क्या इस तथ्य को भूला देना चाहिए कि जब कोई शब्द लोगों की जुबान पर छा जाए तो उसके तुल्य अन्य शब्द अपरिचित-से लगने लगेंगे ? क्या समय के साथ वे आम भाषा से गायब नहीं हो जाएंगे ? जो लोग अपनी मातृभाषा तथा अन्य सीखी गई भाषाओं की शब्द-संपदा में रुचि रखते हैं उनकी बात छोड़ दें । वे तो उन शब्दों का भी प्रयोग बखूबी कर सकते हैं जिन्हें अन्य जन समझ ही न पाएं । मैं हिन्दी के संदर्भ में बात कर रहा हूं । ऐसे अवसरों पर लोग अक्सर कहते हैं “जनाब, कठिन संस्कृत शब्द मत इस्तेमाल कीजिए ।” (भले ही वह संस्कृत मूल का शब्द ही न हो ।)
अंगेरजी को लेकर हम भारतीय हीनभावना से ग्रस्त हैं । अगर कोई संभ्रांत व्यक्ति लोगों के बीच अंगरेजी का उपयुक्त शब्द बोल पाने में असमर्थ हो तो वह स्वयं को हीन समझने लगता है और सोचता है “काश कि मेरी अंगरेजी भी इनके जैसी प्रभावी होती ।” इसके विपरीत स्वयं को हिन्दीभाषी कहने वाला कोई व्यक्ति साफसुथरी हिन्दी (मेरा मतलब है जिसमें हिन्दी प्रचलित शब्द हों और अंगरेजी शब्दों का अनावश्यक प्रयोग न हो) न बोल सके तो वह अपनी कमजोर हिन्दी के लिए शर्मिदा नहीं होगा, बल्कि तर्क-कुतर्कों का सहारा लेकर अपनी कमजोर हिन्दी को उचित ठहराएगा । इतना ही नहीं वह बातचीत में ऐसे अंगरेजी शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करेगा जिनका अर्थ अधिसंख्य लोग न समझ पाते हों । वह इसकी परवाह नहीं करेगा कि दूसरों की अंगरेजी अच्छी हो यह आवश्यक नहीं । वह सोचेगा, भले ही मुख से न कहे, कि लोगों को इतनी भी अंगरेजी नही आती । हिन्दी न आए तो चलेगा, अंगरेजी तो आनी ही चाहिए । वाह !
अधिकांश पढ़ेलिखे, प्रमुखतया शहरी, हिन्दीभाषियों के मुख से अब ऐसी भाषा सुनने को मिलती है जिसे मैं हिन्दी मानने को तैयार नहीं । यह एक ऐसी वर्णसंकर भाषा या मिश्रभाषा है जिसे अंगरेजी जानने लेकिन हिन्दी न जानने वाला स्वाभाविक तौर पर नहीं समझ पाएगा । किंतु उसे वह व्यक्ति भी नहीं समझ सकता जो हिन्दी का तो प्रकांड विद्वान हो पर जिसने अंगरेजी न सीखी हो । इस भाषा को मैंने अन्यत्र मैट्रोहिन्दी नाम दिया है । बोलचाल की हिन्दी तो विकृत हो ही चुकी है, किंतु अब लगता है कि अंगरेजी शब्द साहित्यिक लेखन में भी स्थान पाने लगे हैं । अवश्य ही लेखकों का एक वर्ग कालांतर में तैयार हो जाएगा जो इस ‘नवशैली’ का पक्षधर होगा । आगे कुछ कहने से पहले मैं एक दृष्टांत पेश करता हूं जिसने मुझे अपने ब्लाग (चिट्ठे) में यह सब लिखने को प्रेरित किया है ।
‘साहित्यशिल्पी’ नाम की एक ‘ई-पत्रिका’ से मुझे उसमें शामिल रचनाएं बीच-बीच में ई-मेल से प्राप्त होती रहती हंै । उसकी हालिया एक रचना का ई-पता यानी ‘यूआरएल’ ये हैः
//www.sahityashilpi.com/2015/07/igo-story-sumantyagi.html
उक्त रचना एक कहानी है जिसका शीर्षक है ‘ईगो’ । यह अंगरेजी शब्द है जिसका अर्थ है ‘अहम्’ जिसे ठीक-ठीक कितने लोग समझते होंगे यह मैं कह नहीं सकता । इस रचना में हिन्दी के सुप्रचलित शब्दों के बदले अंगरेजी के शब्दों का प्रयोग मुझे ‘जमा’ नहीं, इसीलिए टिप्पणी कर रहा हूं । प्रथमतः यह स्पष्ट कर दूं कि मैं कोई साहित्यिक समीक्षक या समालोचक नहीं हूं बल्कि एक वैज्ञानिक हूं । मैं किसी भी भाषा के सुप्रतिष्ठित शब्दों के बदले अंगरेजी शब्दों का प्रयोग का विरोधी हूं । इसीलिए तद्विषयक अपनी बात कह रहा हूं ।
उक्त कहानी के शुरुआती परिच्छेद में अंगरेजी शब्द नहीं दिखे मुझे, किंतु “मिस्टर शर्मा” और “मिसेज शर्मा” का उल्लेख हुआ है । आजकल औपचारिक संबोधन के समय कई लोग मिस्टर, मिसेज, मिज आदि का प्रयोग करने लगे हैं । क्या हिन्दी के तुल्य शब्दों का प्रयोग कठिन है ? अथवा हम इस भावना से ग्रस्त रहते हैं कि अंगरेज जो हमें दे गए हैं उसे वरीयता दी जानी चाहिए ? अस्तु । मैं कहानी के पाठ से चुने गए उन वाक्यों/वाक्यांशों/पदबंधों को उद्धृत कर रहा हूं जिनमें विद्यमान अंगरेजी शब्द मुझे अनावश्यक या अटपटे लगते हैं:
“तेरे हेल्प करने से” … “और बैकग्राउंड में” … “मम्मी का म्यूजिक जारी” … “अपनी फैमिली को” … “शर्मा फैमिली को” … “दोनों काफी टाइम चैटरबॉक्स बनी रहती” …”पर्सनल बातें शेयर करती” … “वो स्टडी से रिलेटेड हों या फैमिली से” … “कुछ भी स्पेशल हो” … “दोनों का चैट ऑप्सन हमेशा ऑन रहता” … “ननद-भाभी न हों बेस्ट फ्रेंड्स हों” … “अपनी जॉब के लिए” … “अपनी स्टडी कंपलीट करने” … “जिंदगी में कोई टिवस्ट न हो” … “ऋचा और टीना की लाइफ रील लाइफ न होकर रियल लाइफ थी” … “फोन डिसकनेक्ट कर दिया” … “पूरी फैमिली को दहेज के लिए ब्लेम कर दिया” … “जिसका परपज” … “एक नॉर्मल बात” … “फ्रेंडशिप का कोई महत्व नहीं” … “एक लविंग और केयरिंग फ्रेंड की तरह” … “हमारा रिलेशन स्पेशल हो” … “उनको इग्नोर करने” … “जरा भी अंडरस्टैंडिंग नहीं थी” … “इतनी ही थी उनकी फ्रेंडशिप” … “सॉरी कह चुकी थी” … “फ्रेंडशिप की खुशबू” … “ऋचा स्टडी कंप्लीट करके” … “काम में बिजी रखती” …”जितनी भी ड्यूटीज होती” … “मैसेज किये थे” … “आई मिस यू” … “उसके ईगो ने” … “मेरा ईगो था” … “ऐसा ईगो जाये भाड़ में जो एक फ्रेंड को फ्रेंड से दूर कर दे” … “दिल से सॉरी ,प्लीज मुझे माफ कर दो” … “बोली,´कम´।” … “कोई ईगो प्रॉब्लम नहीं” …
उपरिलिखित अनुच्छेद में जो अंगरेजी शब्द मौजूद हैं उनमें से एक या दो को छोड़कर शायद ही कोई हो जिसके लिए सुपरिचित एवं आम तौर पर प्रचलित हिन्दी का तुल्य शब्द न हो । उदाहरणार्थ परिवार, दोस्त/मित्र, दोस्ती/मित्रता, सामान्य/आम, विशेष/खास, एवं समस्या आदि हिन्दी शब्दों के बदले क्रमशः फैमिली, फ्रैंड, फैंडशिप, नॉर्मल, स्पेशल एवं प्रॉब्लम आदि का प्रयोग क्यों किया गया है ? क्या हिन्दीभाषी लोगों की अभिव्यक्ति की विधा से हिन्दी के सदा से प्रचलित शब्द गायब होते जा रहे हैं ? क्या हम “फोन डिसकनेक्ट कर दिया” के बदले “फोन काट दिया”, “फोन रख दिया”, या “फोन बंद कर दिया”जैसे वाक्य प्रयोग में नहीं ले सकते ? थोड़ा प्रयास करने पर उक्त अनुच्छेद के अन्य अंगरेजी शब्दों/पदबंधों/वाक्यांशों के लिए भी तुल्य हिन्दी मिल सकती है ।
आज के अंगरेजी-शिक्षित शहरी हिन्दीभाषियों के बोलचाल एवं लेखन (अभी लेखन कम प्रभावित है) में हिन्दी के बदले अंगरेजी शब्दों की भरमार पर विचार करता हूं तो मुझे अधोलिखित संभावनाएं नजर आती हैं:
(1) पहली संभावना तो यह है कि व्यक्ति हिन्दीमय परिवेश में न रहता आया हो और उसके कारण उसकी हिन्दी-शब्दसंपदा अपर्याप्त हो । हिन्दी-भाषी क्षेत्रों के लेखकों (और उनमें प्रसंगगत कहानी की लेखिका शामिल हैं) पर यह बात लागू नहीं होती होगी ऐसा मेरा अनुमान है ।
(2) दूसरी संभावना है असावधानी अथवा एक प्रकार का उपेक्षाभाव जिसके तहत व्यक्ति इस बात की चिंता न करे कि उसकी अंगरेजी-मिश्रित भाषा दूसरों के समझ में आएगी या नहीं और दूसरे उसे पसंद करेंगे या नहीं । भारतीय समाज में ऐसी लापरवाही मौके-बेमौके देखने को मिलती है, जैसे सड़क पर थूक देना, जहां-तहां वाहन खड़ा कर देना, शादी-ब्याह के मौकों पर सड़कों पर जाम लगा देना, धार्मिक कार्यक्रमों पर लाउडस्पीकरों का बेजा प्रयोग करना, इत्यादि । भाषा को विकृत करने में भी यही उपेक्षाभाव दिखता है।
(3) हमारे देश में व्यावसायिक, वाणिज्यिक एवं शासकीय क्षेत्रों में अंगरेजी छाई हुई है । इसी अंगरेजीमय वातावरण में सभी रह रहे हैं । लोगों को चाहे-अनचाहे अंगरेजी शब्दों का सामना पग-पग पर करना पड़ता है । ऐसे माहौल में कई जनों की स्थिति वैसी हो जाती है जैसी वाराणसी के हिन्दीभाषी मल्लाहों और रिक्शा वालों की, जिनकी जबान पर विदेशी एवं अहिन्दी क्षेत्रों के पर्यटकों के संपर्क के कारण अंगरेजी तथा अन्य भाषाओं के शब्द तैरने लगते हैं । ऐसे माहौल में जिसे अंगरेजी ज्ञान न हो उसे भी अंगरेजी के शब्द स्वाभाविक-परिचित लगने लगते हैं । मुझे यह देखकर खेद होता है कि बोलचाल में लोगों के मुख से अब अंगरेजी शब्द सहज रूप से निकलते हैं न कि हिन्दी के । फिर भी लेखन के समय सोच-समझकर उपयुक्त या वैकल्पिक शब्द चुने जा सकते हैं बशर्ते कि लेखक दिलचस्पी ले ।
(4) कुछ लोगों के मुख से मुझे यह तर्क भी सुनने को मिलता है कि भाषाओं को लेकर संकीर्णता नहीं बरती जानी चाहिए, बल्कि पूरी उदारता के साथ अन्य भाषाओं के शब्द ग्रहणकर अपनी भाषा को अधिक समर्थ एवं व्यवहार्य बनाना चाहिए । ठीक है, परंतु सवाल उठता है कौन-से शब्द एवं किस भाषा से ? क्या अंगरेजी ही अकेली वह भाषा है जिससे शब्द उधार लेने चाहिए ? और क्या शब्दों का आयात उन शब्दों को विस्थापित करने के लिए किया जाए जिन्हें आज तक सभी जन रोजमर्रा की जिन्दगी में इस्तेमाल करते आए हैं ? क्या यह जरूरी है कि हम एक-दो-तीन के बदले वन-ट्वू-थ्री बोलें ? क्या लाल-पीला-हरा के स्थान पर रेड-येलो-ग्रीन कहना जरूरी है ? क्या मां-बाप, पति-पत्नी न कहकर पेरेंट्स, हजबैंड-वाइफ कहना उचित है ? क्या हम बच्चों को आंख-नाक-कान भुलाकर आई-नोज-इअर ही सिखाएं ? ऐसे अनेकों शब्द हैं जिन्हें हम भुलाने पर तुले हैं । आज कई बच्चे अड़सठ-उनहत्तर, कत्थई, यकृत जैसे शब्दों के अर्थ नहीं बता सकते हैं । जाहिर है कि आज के प्रचलित शब्द कल अनजाने लगने लगेंगे ।
हिन्दी को अधिक समर्थ बनाने के नाम पर अंगरेजी के शब्दों को अनेक हिन्दीभाषी बोलचाल में अंधाधुंध तरीके से इस्तेमाल करते आ रहे हैं । वे क्या देशज भाषाओ के शब्दों को भी उतनी ही उदारता से स्वीकार कर रहे हैं ? क्या भारत में प्रचलित अंगरेजी में हिन्दी एवं अन्य भाषाओं के शब्दों को प्रयोग में लेने का प्रयास कभी किसी ने किया है ? हिन्दीभाषी आदमी “प्लीज मुझे अपनी हिन्दी ग्रामर बुक देना ।” के सदृश वाक्य धड़ल्ले से बोल देता है, परंतु क्या “कृपया गिव मी योअर हिन्दी व्याकरण पुस्तक ।” जैसा वाक्य बोलने की हिम्मत कर सकता है ? हरगिज नहीं । हम भारतीय अंगरेजी की शुद्धता बरकरार रखने के प्रति बेहद सचेत रहते हैं, किंतु अपनी भाषाओं को वर्णसंकरित या विकृत करने में तनिक भी नहीं हिचकते ।
अंगरेजों ने अपनी भाषा में अन्य भाषाओं के शब्द स्वीकार किए हैं, किंतु अमर्यादित तरीके से नहीं कि वे अपने चिरपरिचित शब्दों को भुला बैठें । इस देश पर करीब 200 वर्ष शासक रूप से रहे किंतु उन्होंने अंगरेजी को हिन्दीमय नहीं कर दिया । कुछ चुने हुए शब्दों की बानगी देखिए:
Avatar (अवतार), Bungalow (बंगला) Cheetah (चीता), Chutney (चटनी), Dacoit (डाकू), Guru (गुरु), Jungle (जंगल), Khaki (खाकी), Loot (लूट), Mantra (मंत्र), Moksha (मोक्ष), Nirvana (निर्वाण), Pundit (पंडित), Pyjamas (पैजामा), Raita (रायता), Roti (रोटी), Thug (ठग), Typhoon (तूफ़ान), Yoga (योग)
इनमें अधिकांश शब्द वे हैं जिनके सटीक तुल्य शब्द अंगरेजी में रहे ही नहीं । मोक्ष, रोटी ऐसे ही शब्द हैं । सोचिए हम जैसे बट, एंड, आलरेडी प्रयोग में लेते हैं वैसे ही क्या वे किंतु, परंतु, और का प्रयोग करते हैं । नहीं न ? क्योंकि ऐसा करने की जरूरत उन्हें न्हीं रही । हमें भी जरूरत नहीं, पर आदत जब बिगड़ चुकी हो तो इलाज कहां है ?
शायद ही कोई देश होगा जिसके लोग रोजमर्रा के सामान्य शब्दों को अंगरेजी शब्दों से विस्थापित करने पर तुले हों ।
हिन्दी को समृद्ध बनाने की वकालत करने वालों से मेरा सवाल है कि क्या अंगरेजी में पारिवारिक रिश्तों को स्पष्टतः संबोधित करने के लिए शब्द हैं ? नहीं न । क्या चाचा, मामा आदि की अभिव्यक्ति के मामले में अंगरेजी कंगाल नहीं है ? क्या हमने हिन्दी के इन शब्दों को अंगरेजी में इस्तेमाल करके उसे समृद्ध किया है ? हिम्मत ही कहां हम भारतीयों में ! मैं नहीं जानता कि मामा-मौसा के संबोधनों को अंगरेजी में कैसे स्पष्ट किया जाता है । “मेरे मामाजी कल मौसाजी के घर जाएंगे ।”को अंगरेजी में कैसे कहा जाएगा ? सीधे के बजाय घुमाफिरा के कहना पडेगा ।
मेरा सवाल यह है कि हम भारतीय हीनग्रंथि से इतना ग्रस्त क्यों हैं कि हिन्दी में अंगरेजी ठूंसकर गर्वान्वित होते हैं और अंगरेजी बोलते वक्त भूले-से भी कोई हिन्दी शब्द मुंह से निकल पड़े तो शर्मिंदगी महसूस करते हैं ? – योगेन्द्र जोशी
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Posted by योगेन्द्र जोशी
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Abundance of English words in spoken Hindi और हिंदी की ‘समृद्धि’ का भ्रमः भाग 1
नवम्बर 20, 2009
मैं लोगों के मुख ये उद्गार सुनता हूं कि हिंदी को समृद्ध करने के लिए अन्य भाषाओं के शब्द अपनाने में हमें हिचकना नहीं चाहिए । वे यह तर्क दे जाते हैं कि अंग्रेजी ने अन्य भाषाओं के शब्द अपनाकर अपना शब्दभंडार बढ़ाया है । मुझे यह शंका सदैव बनी रही है कि यह सब कहने से पहले उन्होंने अंग्रेजी शब्दों के बारे में पर्याप्त जानकारी हासिल की होगी । बात जब उठती है तो वे बिना गहन अध्ययन के और बिना गंभीर विचारणा के बहुत कुछ कह जाते हैं ऐसा मेरा मानना है । क्या उन्होंने यह जानने का कभी प्रयास किया कि अंग्रेजी ने किन परिस्थितियों में, किन शब्दों ेको आंग्लेतर भाषाओं से ग्रहण किया है ? और उन्होंने कितनी उदारता इस संबंध में बरती है ? सुधी जनों को किसी मत पर पहुंचने से पहले एतद्सदृश प्रश्नों पर विचार करना चाहिए । मैं दावा नहीं करता कि इस विषय पर मेरा मत त्रुटिहीन ही हैं, किंतु मैं भी तो समझूं कि कहा गलती कर रहा हूं ।
इसमें दो राय नहीं कि नई-नई आवश्यकताओं के अनुरूप हर भाषा को नये शब्दों की आवश्यकता पड़ती है । ऐसे शब्दों की या तो रचना की जाती है या उन्हें अन्य भाषाओं से उधार ले लिया जाता है । उधार लेने में कोई बुराई नहीं है, बशर्ते कि ऐसा करने के कारण उचित तथा स्वीकार्य हों । ‘मेरी मरजी’ का सिद्धांत अपनाकर अगर आप ऐसे शब्द अपनी भाषा में शामिल कर रहे हों तो आपत्ति की ही जाएगी । अंग्रेजी नये शब्दों की रचना में सुसमृद्ध नहीं है । उसे ग्रीक या लैटिन पर निर्भर रहना पड़ता है । मेरा अनुमान है कि ऐसी विवशता प्रायः सभी आधुनिक प्राकृतिक भाषाओं के साथ है । वस्तुतः स्वयं हिंदी मुख्यतः संस्कृत पर और उर्दू अरबी/फारसी पर निर्भर रही हैं । शायद चीनी भाषा इस मामले में बेहतर है, क्यों उसका संपर्क अन्य भाषाओं से अपेक्षया कम रहा है । लैटिन-ग्रीक आधारित शब्दों के अतिरिक्त भी कई शब्द किसी न किसी आधार पर रचे गये हैं, यथा भौतिकी (फिजिक्स) का ‘लेसर’ (‘लाइट एम्लिफिकेशन बाइ स्टिम्युलेटिड एमिशन अव् रेडिएशन’ का संक्षिप्त) । ‘एक्स-रे’ तथा ’क्वार्क’ शब्दों का भी अपना इतिहास है । ‘पार्टिकल फिजिक्स’ में ‘कलर’, ‘अप’, ‘डाउन’ जैसे रोजमर्रा के शब्द नितांत नये (पहले कभी न सोचे गये तथा आम आदमी की समझ से परे) अर्थों में प्रयुक्त होते हैं ।
अंग्रेजीभाषियों ने संस्कृत मूल के ‘अहिंसा’, ‘गुरु’, ‘पंडित’ जैसे शब्दों को ग्रहण किया है । मेरा अनुमान है कि जो अर्थ इन शब्दों में निहित हैं, ठीक वही उन्हें अपने पारंपरिक शब्दों में नहीं लगा होगा । ध्यान दें कि वे ‘गुरु’ को ‘टीचर’ के सामान्य अर्थ में प्रयोग में नहीं लेते हैं । हिंदी के ‘पराठा’, ‘जलेबी’ आदि शब्द उनके शब्दकोश में आ चुके हैं तो कारण स्पष्ट है; ये उनके यहां के व्यंजन नहीं हैं । हम भी ‘केक’, ‘बिस्कुट’ की बात करते हैं; मुझे कोई आपत्ति नहीं । और ऐसा ही अन्य भाषाओं के साथ रहा होगा । किंतु यह नहीं कि अंग्रेजी में इतर भाषाओं के शब्द अंधाधुंध ठूंस लिए गये हों । जो शब्द उसमें पहुंचे भी हैं वे किसी एक भाषा के नहीं; वे अधिकतर यूरोपीय भाषाओं के हैं तो कुछ हिंदी-उर्दू जैसे भौगोलिक दृष्टि से दूरस्थ भाषाओं के जिनके संपर्क में अंग्रेजी आई । अपनी भाषा में उन्होंने इतर भाषाओं के शब्द नहीं ठूंसे ऐसा मैं इस आधार पर कहता हूं कि आज भी अंग्रेजी में सूर्य, चंद्र, आकाश, वायु, जल आदि शब्दों के पर्याय देखने को नहीं मिलते हैं । उनके यहां पारिवारिक रिश्तों को स्पष्ट करने वाले शब्द नहीं हैं, यथा मौसा-मौसी, मामा-मामी, चाचा-चाची तथा फूफा-बुआ, सब अंकल-आंट, फिर भी वे संतुष्ट, कहीं से इनके लिए उपयुक्त शब्द उधार नहीं लिए गये ।
परंतु हिंदी की स्थिति एकदम अलग है । इसमें अंग्रेजी के शब्दों को ठूंसने में किसी को न हिचक है और न हया । जो इसकी शब्द-संपदा बढ़ाने के पक्ष में तर्क या कुतर्क पेश करते हैं उन्हें इन प्रश्नों पर विचार करना चाहिए । उन्होंने अन्य भारतीय भाषाओं से कितने शब्द उधार लिए हैं ? और कितने शब्द दूसरी यूरोपीय अथवा पूर्व एशिया की भाषाओं से लिए हैं ? केवल अंग्रेजी शब्दों को शामिल करने को ही वे ‘हिंदी को समर्थ बनाना’ क्यों मानते हैं ?
अंग्रेजी किस कदर हिंदी के भीतर घुस रही है देखिए:
1. हिंदी की गिनतियां नई पीढ़ी भूलती जा रही है; सबकी जुबान से अब वन्-टू…हंडेªड निकलता है ।
2. अब साप्ताहिक दिनों के अंग्रेजी नामों का प्रयोग खुलकर हो रहा है, जैसे संडे-मंडे ।
3. लोग रंगों के अंग्रेजी नाम बेझिझक इस्तेमाल करने लगे हैं, जैसे येलो-ग्रीन-रेड ।
4. हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि शरीर के अंग भी अब अंग्रेजी नामों से संबोधित किए जाने लगे हैं, यथा हार्ट-लंग-थ्रोट ।
5. सामाजिक/पारिवारिक रिश्तों की स्थिति असमंजस की बन गयी है । मॉम-डैड, फादर-मदर, फादर-इन-लॉ, सन-इन-लॉ तो आम हो चुके हैं किंतु अन्य रिश्ते समस्या खड़ी कर रहे हैं, क्योंकि रिश्तों के लिए सटीक शब्द अंग्रेजी में हैं ही नहीं और सभी को एक ही नाम देने में अभी लोग हिचक रहे हैं । कल नहीं तो परसों बची-खुची हिचक भी चली जाएगी ।
6. अंग्रेजी के ‘ऑलरेडी’ (पहले ही), ‘डेफिनिट्ली’ (बेशक, निश्चित तौर पर), ‘एंड’ (और), ‘ऑर’ (या), जैसे शब्द हिंदी में जगह पाने में सफल हो रहे हैं । जो थोड़ी भी अंग्रेजी जानता है वह अपनी बात यूं कहने से नहीं हिचकता हैः “अब सिचुएशन अंडर कंट्रोल है । डिस्ट्रिक्ट एड्मिनिस्ट्रेशन को अप्रोप्रिएट स्टेप उठाने के लिए इंस्ट्रक्शन्स ऑल्रेडी दिए जा चुके हैं ।” जाहिर है कि अंग्रेजी न जानने वाले के लिए ऐसे कथनों के अर्थ समझ पाना कठिन है । पर परवाह किसको है ? आधुनिक ‘देवभाषा’ इंग्लिश के लिए तो भारतीय भाषाओं को त्यागा ही जा सकता है न !
अंग्रेजी शब्दों से हिंदी को ‘समर्थ’ बनाने वाले अपने ‘हिंदीभक्तों’ से पूछा जाना चाहिए कि अंग्रेजी में भारतीय भाषाओं के शब्दों को शामिल करके उसे भी अधिक समर्थ बनाने से वे क्यों बचते आ रहे हैं ? उनके मुखारविंद से यह ‘सेंटेंस’ क्यों नहीं निकलता: “My chaachaa has brought a kaangree from Srinagar.” I am sure that English does not have appropriate words for the two non-English words in this sentence; using them would benefit English.” (मुझे विश्वास है कि इस वाक्य के दोनों गैर-अंग्रेजी शब्दों के लिए उपयुक्त शब्द अंग्रेजी में नहीं हैं; इन्हें प्रयोग में लेने से अंग्रेजी को लाभ मिलेगा ।)