वैज्ञानिक मूल्य और संस्कृति के प्रकाश में सामाजिक पत्रों का विश्लेषण - vaigyaanik mooly aur sanskrti ke prakaash mein saamaajik patron ka vishleshan

लेखक -प्रदीप

विज्ञान का इतिहास कई हजार वर्ष पुराना है, परंतु विज्ञान के व्यापक विकास की शुरुवात तकरीबन साढ़े चार सौ वर्ष पहले उस समय हुई, जब आधुनिक विज्ञान की नींव तैयार हो रही थी। आधुनिक विज्ञान के आविर्भाव से भौतिक एवं जैविक दुनिया के बारे में मनुष्य के ज्ञान में  तीव्र वृद्धि हुई है। इसलिए मानव सभ्यता को विज्ञान ने व्यापक रूप से प्रभावित किया है। आधुनिक काल को हम वैज्ञानिक युग की संज्ञा देते हैं। विज्ञान ने मानव के सामर्थ्य एवं सीमाओं का विस्तार किया है। आज अनगिनत उपकरण व डिवाइस हमारे दैनिक जीवन के अंग बन चुके हैं। परंतु यह कैसी बिडम्बना है कि एक तरफ तो हम विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में होने वाली खोजों का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। मगर दूसरी तरफ कुरीतियों, मिथकों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं पाखंडों ने भी हमारे जीवन और समाज में जगह बनाए हुए हैं। हमारे समाज की शिक्षित व अशिक्षित दोनों ही वर्गों की बहुसंख्य आबादी निर्मूल एवं रूढ़िगत मान्यताओं की कट्टर समर्थक है। आज का प्रत्येक शिक्षित मनुष्य वैज्ञानिक खोजों को जानना, समझना चाहता है। वह प्रतिदिन टीवी, समाचार पत्रों एवं जनसंचार के अन्य माध्यमों से नई खबरों को जानने का प्रयास करता है। तो दूसरी तरफ यही शिक्षित लोग कुरीतियों, मिथकों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं पाखंडों के भी शिकार बन जाते हैं। यहाँ तक कई वैज्ञानिक भी अंधविश्वास एवं कुरीतियों के शिकार बन जाते हैं ; जो चकित करता है।

आखिर क्यों, विज्ञान के इतने विकास के बाद भी हम काल्पनिक भूत-प्रेतों, जादू-टोना, पुनर्जन्म, फलित ज्योतिष एवं अन्य मिथकों व अंधविश्वासों में विश्वास करते हैं? क्यों लड़की  के जन्म पर लोग महिलाओं की ह्त्या करते हैं? जबकि वर्षों से हमारी पुस्तकों में यह पढ़ाया जा रहा है कि लड़की या लड़के के जन्म के लिए माँ जिम्मेदार नहीं होती है, राहू-केतु कोई ग्रह नहीं हैं, ग्रहण सामान्य खगोलीय घटना है, भूत-प्रेत मन की बीमारियां हैं, फलित ज्योतिष व वास्तु शास्त्र विज्ञान नहीं हैं, आध्यात्मिक व दिव्य शक्ति जैसी कोई भी चीज नहीं होती है बल्कि वह कुछ ज्योतिषियों, तांत्रिकों, साधुओं और पाखंडी बाबाओं की काली कारस्तानी है आदि-इत्यादि। इसके बावजूद कुछ  लोग अंधविश्वासों, रूढ़िवादी मान्यताओं एवं कुरीतियों का समर्थन करते नज़र आते हैं। इसका प्रमुख कारण है बिना किसी प्रमाण के किसी भी बात पर यकीन करने की प्रवृत्ति अर्थात् वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पूर्णतया अभाव।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण

यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण या सोच क्या है? वैज्ञानिक दृष्टिकोण मूलतः एक ऐसी मनोवृत्ति या सोच है जिसका मूल आधार किसी भी घटना की पृष्ठभूमि में उपस्थित कार्य-करण को जानने की प्रवृत्ति है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे अंदर अन्वेषण की प्रवृत्ति विकसित करती है तथा विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सहायता करती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शर्त है बिना किसी प्रमाण के किसी भी बात पर विश्वास न करना या उपस्थित प्रमाण के अनुसार ही किसी बात पर विश्वास करना। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्त्व को पंडित जवाहरलाल नेहरु ने 1946 में अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में विचारार्थ प्रस्तुत किया था। उन्होनें इसे लोकहितकारी और सत्य को खोजने का मार्ग बताया था। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बारे में समझने के लिए हमें सर्वप्रथम यह समझना होगा कि विज्ञान कैसे कार्य करता है अर्थात् वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए वैज्ञानिक विधि किस प्रकार से उपयोगी है।

प्राकृतिक घटनाओं, क्रियाओं और उनके पीछे के कारण ढूढ़ने की मानवीय जिज्ञासा ने एक सुव्यवस्थित विधि  को जन्म दिया जिसे हम ‘वैज्ञानिक विधि’ या ‘वैज्ञानिक पद्धति’ के नाम से जानते हैं। सरल शब्दों में कहें तो वैज्ञानिक जिस विधि का उपयोग विज्ञान से संबंधित कार्यों में करते हैं, उसे वैज्ञानिक विधि कहते हैं। वैज्ञानिक विधि के प्रमुख पद या इकाईयां हैं : जिज्ञासा, अवलोकन, प्रयोग, गुणात्मक व मात्रात्मक विवेचन, गणितीय प्रतिरूपण और पूर्वानुमान। विज्ञान के किसी भी सिद्धांत में इन पदों या इकाईयों की उपस्थिति अनिवार्य है। विज्ञान का कोई भी सिद्धांत, चाहे वह आज कितना भी सही लगता हो, जब इन कसौटियों पर खरा नहीं उतरता है तो उस सिद्धांत का परित्याग कर दिया जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वैज्ञानिक विधि का सहारा लेते हैं। आप सोच रहे होगें कि इस वैज्ञानिक विधि का उपयोग केवल विज्ञान से संबंधित कार्यों  में ही होता होगा, जैसाकि मैंने ऊपर परिभाषित किया है। परंतु ऐसा नहीं है यह हमारे जीवन के सभी कार्यों पर लागू हो सकती है क्योंकि इसकी उत्पत्ति हम सबकी जिज्ञासा से होती है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह वैज्ञानिक हो अथवा न हो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला हो सकता है। दरअसल, वैज्ञानिक दृष्टिकोण दैनिक जीवन की प्रत्येक घटना के बारे में हमारी सामान्य समझ विकसित करती है। इस प्रवृत्ति को जीवन में अपनाकर अंधविश्वासों एवं पूर्वाग्रहों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

हमारे देश में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करना सरल नहीं है, क्योंकि हमारे समाज में जिज्ञासा को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता है। न सिर्फ प्रश्न करने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया जाता है वरन् इस गुस्ताखी के लिए दंडित तक किया जाता है। सामाजिक जागृति के द्वारा ही भारतीय समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास संभव है।

जनसामान्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना हमारे संविधान के अनुच्छेद 51, ए के अंतर्गत मौलिक कर्तव्यों में से एक है। इसलिए प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए प्रयास करे। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए अनेक प्रयत्न किये। इन्हीं प्रयत्नों में से एक है उनके द्वारा वर्ष 1953 में देश की संसद (लोकसभा) में विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति को प्रस्तुत करते समय वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विशेष महत्त्व देना। उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सोचने का तरीका, कार्य करने का तरीका तथा सत्य को खोजने का तरीका बताया था।

हमारे संविधान निर्माताओं ने यही सोचकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मौलिक कर्तव्यों की सूची में शामिल किया होगा कि भविष्य में वैज्ञानिक सूचना एवं ज्ञान में वृद्धि से वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त चेतनासम्पन्न समाज का निर्माण होगा, परंतु वर्तमान सत्य इससे परे है।

विज्ञान की कोई एक सटीक परिभाषा न होने के कारण कई संदर्भों में इसका दुरूपयोग किया जाता है। अपनी गलत बात को भी तर्कसंगत बनाने  के लिए विज्ञान शब्द का उपयोग होता है। भाग्यवाद पर आधारित फलित ज्योतिष की विश्वसनीयता को बढ़ाने के लिए अक्सर इसका वर्णन ‘एक वैज्ञानिक धारणा’ के रूप में किया जाता है। आइए, अब हम इस संदर्भ में थोड़ी चर्चा करते हैं।

फलित ज्योतिष : एक अवैज्ञानिक धारणा

प्राचीन काल से ही मनुष्य आकाश के तारों, ग्रहों एवं अन्य खगोलीय पिंडों का गहराई से अवलोकन करता आया है। परंतु आकाश में चन्द्रमा की बदलती कलाओं, उल्कापिंडों का टूटना, धूमकेतुओं का अचानक प्रकट होना, सूर्य का उदय व अस्त होना, ग्रहों का अपने स्थान से अनियमित ढंग से बदलते रहना, ग्रहण इत्यादि घटनाओं को देखकर मानव अत्यंत भयभीत हो जाता था। इसलिए प्राचीन काल के लोगों ने यह सोचा होगा कि जरुर इन आकाशीय पिंडों में कोई न कोई विशेष शक्ति होगी, जिससे ये धरती पर रहने वाले मनुष्यों को नियंत्रित व प्रभावित करते हैं। उस समय के समाज में धीरे-धीरे कुछ चतुर लोगों का एक वर्ग बनने लगा, जो मेहनती लोगों की कमाई लूटने लगा। उस वर्ग के लोग पुरोहित-ज्योतिषी कहलाते थे। इस प्रकार अंततः फलित ज्योतिष की उत्पत्ति हुई। हालांकि शुरुवाती सदियों में खगोलशास्त्र भी फलित ज्योतिष का वहन करता रहा। परन्तु जब यूरोप में खगोलभौतिकी ने जन्म लिया और खगोलविदों ने विभिन्न आकाशीय घटनाओं की सटीक एवं प्रामाणिक व्याख्या की, तब भाग्य तथा अंधविश्वास पर आधारित फलित ज्योतिष को खगोलशास्त्र की शाखा से दरकिनार कर दिया गया। परन्तु फिर भी फलित-ज्योतिष मिटा नहीं और वर्तमान में भी पुरोहित-ज्योतिषी कालज्ञान तथा शुभ-अशुभ मुहूर्तों के भविष्यवक्ता हैं।

कुछ ज्योतिषी अपनी भविष्यवाणियों की विश्वसनीयता को बढ़ाने के लिए फलित ज्योतिष को एक वैज्ञानिक धारणा मानते हैं। दरअसल, फलित ज्योतिष को विज्ञान मानना पूर्णतया गलत है। परंतु क्यों? इसके लिए सबसे पहले यह बताना आवश्यक हो जाता है कि किसी भी विद्या को विज्ञान मानने के लिए क्या आवश्यक होता है। किसी भी विद्या को विज्ञान की एक शाखा मानने के लिए उसे कुछ शर्तों को पूरा करना पड़ता है। पहली शर्त- वह विद्या स्पष्ट अवधारणाओं पर आधारित हो, दूसरी शर्त- उसके निष्कर्षों को प्रयोगों तथा प्रेक्षणों द्वारा जांचा-परखा जा सके, तीसरी शर्त- आखिर में ऐसे परीक्षण भी उपलब्ध होने चाहिए जिससे यह जांचा जा सके की प्रयोग द्वारा निकाला गया निष्कर्ष सही है अथवा गलत। जब-जब फलित ज्योतिष को उपरोक्त कसौटियों पर जांचा गया तब-तब वह खरा नहीं उतरा।

आमतौर पर सामान्य जनमानस में यह धारणा होती है कि फलित ज्योतिष और खगोलशास्त्र एक ही है क्योंकि दोनों में ही सूर्य, चन्द्रमा, ग्रहों एवं अन्य आकाशीय पिंडों का अध्ययन किया जाता है, इसलिए दोनों ही विज्ञान की एक शाखा हैं जिसका संबंध ब्रह्मांड से है। परंतु वास्तविकता यह है कि खगोलशास्त्र विज्ञान की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण शाखा है, जबकि फलित ज्योतिष एक अवैज्ञानिक अवधारणा। यदि हम खगोलशास्त्र को देखें तो इसकी आधारभूत मान्यताओं में कोई भी मतभेद नहीं है, जबकि फलित ज्योतिष के आधारभूत मान्यताओं में काफी विभिन्नता पाई जाती है। जिसके कुछ उदाहरण निम्न हैं :

  1. भारतीय ज्योतिषियों के अनुसार बुध ग्रह बुद्धि का देवता है, इसलिए बुध ग्रह से संबंधित विशेष आकाशीय स्थिति में जन्म लेने वाला बालक बड़ा होकर अत्यंत बुद्धिमान तथा प्रतिभाशाली होगा, परन्तु पश्चिमी देशों के ज्योतिषियों के अनुसार वह बालक एक सफल व्यापारी होगा क्योंकि उनके अनुसार बुध व्यापार का देवता है।
  2. भारतीय ज्योतिषी शुक्र ग्रह को दैत्यों के गुरु का दर्जा देते हैं तो पश्चिमी ज्योतिषी सौन्दर्य की देवी का दर्जा देते हैं।
  3. दो ज्योतिषी अक्सर एक ही जन्म-कुंडली की अलग-अलग भविष्यवाणी करते हैं।

आदि अनेक उदाहरण हैं जिससे यह पता चलता है कि फलित ज्योतिष के आधारभूत मान्यताओं में आपसी मतभेद है।

फलित ज्योतिष में नवग्रहों का विशेष महत्त्व है। परंतु इन ग्रहों में सूर्य, चंद्र तथा छायाग्रह राहु और केतु भी सम्मिलित हैं। आज हम जानते हैं कि सूर्य एक तारा है, चंद्र एक उपग्रह है तथा राहु-केतु का अस्तित्व ही नहीं है। फिर क्यों नहीं सूर्य, चंद्र और राहु-केतु को इन ग्रहों की सूची से नहीं निकाला गया? विज्ञान की परम्परा के विपरीत फलित ज्योतिष ने कभी भी पुराने ज्ञान को हटाकर नए तर्कसंगत ज्ञान के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की जहमत नहीं उठाई। कुंडली में नवग्रहों का महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है, परिणामस्वरूप फलित ज्योतिष की आधारभूत मान्यता ही एक अवैज्ञानिक मान्यता सिद्ध हो जाती है। अतः फलित ज्योतिष की 44 प्रतिशत नींव ही गलत है। इससे आपको इस प्रश्न का उत्तर भी प्राप्त हो जायेगा कि फलित ज्योतिष विज्ञान है अथवा नहीं।

कुछ भारतीय ज्योतिषी तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसी संस्थाएं फलित ज्योतिष के लिये ‘वैदिक ज्योतिष’ शब्द का इस्तेमाल इस प्रकार कर रहे हैं, मानो इसकी उत्पत्ति वेदों से हुई है। परंतु इतिहास गवाह है कि मकर, मेष, कुम्भ, मीन इत्यादि राशियाँ यूनान तथा बेबीलोन से आई हैं, जिनका भारतीय ज्योतिषियों ने संस्कृत में अनुवाद किया था। यहाँ तक प्राचीन भारतीय ग्रंथों वेदांग ज्योतिष, वैदिक साहित्य तथा महाभारत में भी बारह राशियों के बारे में कहीं कोई विवरण नही मिलता है। आजकल शादियाँ भी जन्म-कुंडली मिलान के बाद ही हो रही हैं, जो कुछ ज्यादा ही प्रचलन में है! परंतु जन्म-कुंडली से संबंधित ग्रहीय ज्योतिष-विद्या भी हमारी (भारतीय) नही है।

भारत में अंधविश्वास तथा फलित-ज्योतिष  की बढ़ती आवर्ती हमारे लिये अत्यंत चिंताजनक विषय है। अफ़सोस इस बात का है कि आज मीडिया भाग्यवाद पर आधारित फलित ज्योतिष को बढ़ावा दे रहा है, जबकि मीडिया को वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। अभी यही समय है फलित ज्योतिषियों के प्रति आविश्वास प्रकट करने और समाज में इनका पर्दाफाश करने का। यह सब ज्योतिषियों को खुली चुनौती देकर तथा तर्क द्वारा किया जा सकता है।

ग्रहण : मिथक और यथार्थ

हमारे देश में वैदिक काल से ही ग्रहण से संबंधित कथाएं और किवदंतियाँ प्रचलन में रही हैं। वर्तमान में भी लोग इन पौराणिक कथाओं को सत्य मानते हैं। ग्रहण के एक-दो दिन पहले से ही टीवी और समाचार पत्रों के माध्यम से फलित ज्योतिषी अपना कूपमंडूक सुनाते रहते हैं।असल में ग्रहण के समय पुरोहित, ज्योतिषी, पंडे आदि दान-दक्षिणा इत्यादि  के बहाने लोगों के मन में भय उत्पन्न करने की मंशा रखते हैं और उनका अपने तरीके से उपयोग तो  करते ही हैं।

ग्रहणों के बारे में जो आज अंधविश्वास व मिथक हैं, उसका वर्णन महाभारत, मनुस्मृति, अथर्ववेद के साथ-साथ अन्य पोथियों में भी हैं, जिनमें से कुछ निम्न हैं :

  1. ग्रहण के समय भोजन को पकाना तथा खाना नहीं चाहिए।
  2. घर के अंदर उपलब्ध समस्त सामग्री पर तुलसी के पत्तों से गंगाजल का छिड़काव करना चाहिए।
  3. ग्रहण के समाप्त होने के बाद स्नान करना चाहिए।
  4. ग्रहण के समय रूपयें, कपड़े, मवेशियों इत्यादि को पुरोहितों, पंडितों, पंडो को दान करना चाहिए।

इत्यादि अंधविश्वास और भ्रांतियों का समावेश है, जिसका यहाँ पर वर्णन करना लेखक और पाठक के समय को अन्यथा लेने के तुलनीय होगा। निस्संदेह ये कठोर नियम हमारे किसी काम के नही हैं तथा इनको अब और बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए।

ऐसा भी नही हैं कि प्राचीन काल में किसी भी ज्योतिषी को सूर्य ग्रहण के संबंध में वैज्ञानिक जानकारी नही थी। आज से लगभग पन्द्रह सौ साल पहले प्राचीन भारत के महान गणितज्ञ-ज्योतिषी आर्यभट ने अपनी पुस्तक आर्यभटीय में सूर्य ग्रहण का वैज्ञानिक कारण बताया हैं। आर्यभट आर्यभटीय के गोलपाद में लिखते हैं :

छादयति शशी सूर्य शशिनं महती च भूच्छाया।। 37 ।।

अर्थात्, जब चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ती है, तब चंद्रग्रहण होता और जब पृथ्वी पर चन्द्रमा की छाया पड़ती है, तब सूर्य ग्रहण होता है। आर्यभट ने ग्रहणों की तिथि तथा अवधि के आकलन का सूत्र भी प्रदान किया। उनके कई विचार क्रन्तिकारी थे। आर्यभट परम्पराओं को तोड़ने वाले खगोलिकी आन्दोलन के अग्रनेता थे। अतः उन्हें अपने समकालीन ज्योतिषियों के आलोचनाओं को भी झेलना पड़ा।

अब हम सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण के बारे में बहुत-कुछ जानते हैं। अब हम जानते हैं कि राहु और केतु कोई ग्रह नही हैं। तारामंडल में सूर्य और चन्द्रमा के पथ बिलकुल एक नही हैं, बल्कि थोड़े अलग हैं। जैसे गोल खरबूजे पर वृत्ताकार धारियां होती हैं, वैसे ही तारामंडल में एक धारी सूर्य का पथ हैं तथा दूसरी वाली धारी चन्द्रमा का पथ हैं। ये दोनों वृत्त जहाँ एक-दूसरें को काटते हैं, उन दो बिंदुओं को राहु और केतु कहते हैं। अत: यह स्पष्ट है कि राहु-केतु कोई ग्रह नहीं, बल्कि खगोलशास्त्र में वर्णित दो काल्पनिक बिंदु हैं।

विज्ञान शब्द का दुरूपयोग : छद्म विज्ञान

‘छद्म विज्ञान’ या ‘स्यूडोसाइंस’ एक ऐसे दावे को कहते हैं जिसे एक वैज्ञानिक सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, परंतु वह वैज्ञानिक विधि का पालन नहीं करता है। स्यूडो शब्द मूलतः ग्रीक भाषा का है, जिसका अर्थ मिथ्यापूर्ण, झूठ, छलपूर्ण या कपटपूर्ण है। अतः स्यूडोसाइंस का अर्थ है मिथ्या विज्ञान या भ्रामक विज्ञान। विज्ञान में निरंतर प्रयोग, अनुसंधान वैज्ञानिक विधि के अनुसार होते रहते हैं। जबकि छद्म विज्ञान में ऐसे प्रयोगों एवं अनुसंधानों का अभाव होता है।

आधुनिक युग में जिस प्रकार से जैसे कोई खुद को अंधविश्वासी, नस्लवादी या स्त्री शिक्षा विरोधी कहलाना पसंद नहीं करता, उसी प्रकार से खुद को ‘अवैज्ञानिक’ कहलाना भी पसंद नहीं करता है। वह अपनी बात को वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए मूलभूत सच्चाई की नकल उतारनेवाले छल-कपट युक्त छद्म विज्ञान का सहारा लेता है।

चूँकि छद्म वैज्ञानिक तथ्य वैज्ञानिक शब्दावाली में होते हैं, इसलिए ये अत्यंत भ्रामक होते हैं। छद्म विज्ञान को पहचानने के कुछ लक्षण या संकेत निम्न हैं :

  1. छद्म विज्ञान के आधार पर अपना शोधकार्य करने वाले व्यक्ति अपने निष्कर्षों को  किसी मानक पत्रिका में छपवाने की बजाय अन्य जनसंचार माध्यमों से संपर्क करते हैं। पाठकों को ललचाने के लिए उनके शोधपत्रों के शीर्षक सनसनीखेज होते हैं।
  2. इसमें मसालेदार और आकर्षक कहानी बनाने के लिए पूर्ववर्ती शोध परिणामों के गलत अर्थ निरुपित किये जाते हैं। अनुसंधान के साक्ष्य, फोटो, नमूने प्रयोगों के निष्कर्ष आदि अस्पष्ट भाषा में दिए जाते हैं।
  3. कुछ कम्पनियां और उनके तथाकथित वैज्ञानिक निजी अथवा आर्थिक लाभ हेतु तथ्यों को गलत रूप से प्रस्तुत करते हैं। इसलिए उनके निष्कर्षों पर विश्वास करने की बजाय मूल शोध प्रबंध को पढ़ना चाहिए।
  4. वैसे तो छद्म वैज्ञानिक अपने असाधारण दावों को लाखों लोगों के समक्ष अत्यंत निर्भीकता से प्रस्तुत करते हैं, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि उनका दावा सही है। असाधारण दावों को प्रामाणित करने के लिए असाधारण प्रमाणों की आवश्यकता होती है।
  5. छद्म वैज्ञानिक विद्रोही या क्रांतिकारी होते हैं क्योंकि उनका मानना होता है कि वर्तमान व्यवस्था उनके अनुसंधान को दबा रही है। परंतु विद्रोही या क्रांतिकारी विचारों का होना किसी को सही सिद्ध नहीं करता है।
  6. छद्म वैज्ञानिक सिद्धांत अनुमान, पौराणिक एवं धार्मिक संदर्भों पर आधारित होते हैं।
  7. इसमें उन्हीं परिणामों को चुना जाता है जो अनुसंधान के परिणामों के पक्ष में होते हैं और अन्य परिणामों की उपेक्षा की जाती है।
  8. छद्म वैज्ञानिक शोधपत्र के अंत में संदर्भ सूची नहीं होती है आदि।

कई छद्म वैज्ञानिक सिद्धांत आजकल बहुत प्रचलन में हैं, जिनमें एक्यूपंक्चर, एक्यूप्रेशर, आयुर्वेद, अतिरिक्त संवेदी बोध अंक विद्या, चुंबक चिकित्सा, फलित ज्योतिष, फेंग-शुई टिप्स, रेकी चिकित्सा, वास्तु शास्त्र, हस्तरेखा शास्त्र, होम्योपैथी, टेलीपैथी, क्वांटम चिकित्सा, सम्मोहन, वैमानिक शास्त्र आदि नाम प्रमुख हैं। विज्ञान इनमें से किसी भी छद्म वैज्ञानिक सिद्धांत को नहीं मानता। छद्म वैज्ञानिक सिद्धांतो के अनुसरण के कारण हमारा बहुमूल्य समय नष्ट होता है, आर्थिक हानि होती है, उपयोगी वस्तुएं नष्ट होती हैं और आडम्बरों-ढकोसलों को प्रोत्साहन मिलता है। इसलिए इसको अब और बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए।

वर्तमान स्थिति अत्यंत चिंताजनक है क्योंकि आज अंधविश्वासों, मिथकों और छद्म वैज्ञानिक तथ्यों में अत्यधिक बढ़ोत्तरी हो रही है। आज जो मिथ्या परम्परागत रीति-रिवाजें हमारी आवश्यकता के अनुकूल नहीं है, उनको भी मात्र परम्परा के नाम पर बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे रीति-रिवाजों पर पुनः विचार की आवश्यकता है। हमारे देश में अंधविश्वास अन्य देशों की तुलना में कुछ अधिक है, जोकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अनुपस्थिति को दर्शाता है। इसलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण भारत की तात्कालिक आवश्यकता है। यदि हम अपने दैनिक जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखेंगे तो हम व्यक्तिगत एवं सामाजिक घटनाओं के तर्कसंगत कारणों को जान सकेंगे जिससे असुरक्षा की भावना और निरर्थक भय से छुटकारा प्राप्त हो सकेगा।

लेखक के बारे मे

श्री प्रदीप कुमार यूं तो अभी  विद्यार्थी हैं, किन्तु विज्ञान संचार को लेकर उनके भीतर अपार उत्साह है। आपकी ब्रह्मांड विज्ञान में गहरी रूचि है और भविष्य में विज्ञान की इसी शाखा में कार्य करना चाहते हैं। वे इस छोटी सी उम्र में न सिर्फ ‘विज्ञान के अद्भुत चमत्कार‘ नामक ब्लॉग का संचालन कर रहे हैं, वरन फेसबुक पर भी इसी नाम का सक्रिय समूह संचालित कर रहे हैं।

वैज्ञानिक मूल्यों और संस्कृति के आलोक में सामाजिक मिथकों का विश्लेषण कैसे किया जा सकता है?

वैज्ञानिक मूल्यों और संस्कृति के आलोक में सामाजिक मिथकों का विश्लेषणकैसे किया जा सकता है? वैज्ञानिक मूल्यों और संस्कृति के आलोक में सामाजिक मिथकों का विश्लेषण करने का सर्वोत्तम तरीका शिक्षा प्राप्त करना है शिक्षा से ही मनुष्य के अन्दर सही तथा गलत समझ विकसित होती है और वह विभिन्न पहलुओं पर विश्लेषण कर सकता है।

वैज्ञानिक मूल्य क्या है?

विज्ञान ने हमारे जीवन को सरल बना दिया है। विज्ञान के बिना जीवन की कल्पना बेमानी है। दैनिक जीवन में हम विज्ञान के अनेक उपकरणों का उपयोग करते हैं। विज्ञान की महत्ता समझते हुए ही प्राथमिक स्तर से ही विज्ञान की शिक्षा दी जा रही है, किंतु दैनिक जीवन से हम विज्ञान को जोड़ पाने में असमर्थ रहे हैं।

समाज से आप क्या समझते हैं संस्कृति और आधुनिकता समाज को कैसे प्रभावित करती है?

यह उसके सामाजिक तथा सांस्कृतिक विकास के रूप में पहचानी जाती है । वास्तव में मानव का सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास शिक्षा द्वारा संभव हो पाता है। शिक्षा के द्वारा ज्ञान, अनुभव एवं कौशल का विकास होता है फलस्वरूप व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन का पुनर्निर्माण होता है । इस तरह शिक्षा जीवन की मुख्य क्रिया है।

संस्कृति क्यों महत्वपूर्ण है?

जीवों के जीवन जीने की कला और कौशल ही, उनकी संस्कृति और परंपरा के नाम पर प्रचलित होती चली गयी जो जीवन के प्रति उनके समझ और संचित ज्ञान का कोष है. हमारे देश भारत ने संस्कृति और परंपरा के संचित ज्ञान कोष से विश्व को अनेकों सांस्कृतिक, साहित्यिक और वैज्ञानिक रचनाएँ प्रदान की हैं.

Toplist

नवीनतम लेख

टैग