लेखक तिब्बत के मार्ग में कहा ठहरा - lekhak tibbat ke maarg mein kaha thahara

Jharkhand Board JAC Class 9 Hindi Solutions Kshitij Chapter 2 ल्हासा की ओर Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 9 Hindi Solutions Kshitij Chapter 2 ल्हासा की ओर

JAC Class 9 Hindi ल्हासा की ओर Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
थोड्ला के पहले के आखिरी गाँव पहुँचने पर भिखमंगे के वेश में होने के बावजूद लेखक को ठहरने के लिए उचित स्थान मिला जबकि दूसरी यात्रा के समय भद्र वेश भी उन्हें उचित स्थान नहीं दिला सका। क्यों ?
उत्तर :
उन्हें रहने के लिए उचित स्थान इसलिए नहीं मिला था क्योंकि वे वहाँ शाम के समय पहुँचे थे। इस समय वहाँ के लोग छड् पीकर अपने होश-हवास गँवा बैठते हैं। उन्हें अच्छे-बुरे की पहचान नहीं रहती है। उनकी मनोवृत्ति भी बदल जाती है। इसलिए उनके भद्रवेश में होने पर भी उन्हें उचित स्थान नहीं मिल सका था।

प्रश्न 2.
उस समय के तिब्बत में हथियार का कानून न रहने के कारण यात्रियों को किस प्रकार का भय बना रहता था ?
उत्तर :
उस समय के तिब्बत में हथियार का कानून न होने के कारण वहाँ लोग पिस्तौल, बंदूक लिए फिरते थे। डकैत यात्रियों को मारकर उनका सामान लूट लेंते थे। इस प्रकार यात्रियों में सदा अपनी जान-माल का भय बना रहता था कि न मालूम कब उन्हें लूट लिया जाए अथवा जान से मार दिया जाएगा।

प्रश्न 3.
लेखक लड्कोर के मार्ग में अपने साथियों से किस कारण पिछड़ गया ?
उत्तर :
लेखक लड्कोर के मार्ग में अपने साथियों से इस कारण पिछड़ गया था क्योंकि उसका घोड़ा धीरे-धीरे चल रहा था। जब वह घोड़े को जोर देने लगता तो उसका घोड़ा और अधिक सुस्त हो जाता था। जहाँ दो रास्ते फूट रहे थे वहाँ से वह बाएँ रास्ते पर मील-डेढ़ मील चला गया तो उसे पता चला कि वह गलत रास्ते पर जा रहा है। लड्कोर रास्ता तो दाहिनेवाला था। वहाँ से लौटकर उसने सही रास्ता पकड़ा। इस प्रकार वह साथियों से पिछडता गया।

प्रश्न 4.
लेखक ने शेकर विहार में सुमति को उनके यजमानों के पास जाने से रोका परंतु दूसरी बार रोकने का प्रयास क्यों नहीं किया ?
उत्तर :
दूसरी बार लेखक ने सुमति को यजमानों के पास जाने से इसलिए नहीं रोका क्योंकि वहाँ एक मंदिर में उसे बुद्धवचन की एक सौ तीन पोथियाँ मिल गई थीं। इनमें से एक-एक पोथी पंद्रह-पंद्रह सेर से कम नहीं थी। वह इन पोथियों के पठन-पाठन में लीन हो गया था।

प्रश्न 5.
अपनी यात्रा के दौरान लेखक को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
उत्तर :
अपनी यात्रा के दौरान लेखक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसे दुर्गम मार्ग की कठिन चढ़ाई चढ़नी पड़ी। मार्ग में मामूली स्थानों पर रुकना पड़ा। डाकुओं-लुटेरों से बचने के लिए भिखमंगों के समान टोपी उतारकर और जीभ निकालकर उनसे दया की भीख माँगते हुए पैसा माँगा। लेखक का घोड़ा बहुत सुस्त था जिस कारण वह अपने साथियों से पिछड़ गया था और लड्कोर जाते हुए गलत रास्ते पर चला गया था। लेखक को सुमति के क्रोध का शिकार भी बनना पड़ा था। भारवाहक न मिलने पर लेखक को अपना सामान अपने कंधे पर लादकर ही यात्रा करनी पड़ी। खाने-पीने को जो मिला उसी में गुजारा करना पड़ा।

प्रश्न 6.
प्रस्तुत यात्रा- वृत्तांत के आधार पर बताइए कि उस समय का तिब्बती समाज कैसा था ?
उत्तर :
उस समय का तिब्बती समाज अंधविश्वासों से जकड़ा हुआ था। लोग बौद्ध संन्यासियों के द्वारा दिए गए गंडे-तावीज़ों को अपनी रक्षा का आधार मानते थे। समाज में कानून-व्यवस्था अत्यंत दयनीय स्थिति में थी। लोग बंदूक, पिस्तौल आदि लेकर खुलेआम घूमते थे। मार्ग में चोर – लुटेरों का डर रहता था। डकैत यात्रियों को मारकर लूटते थे। पुलिस गवाहों के अभाव में कुछ नहीं कर पाती थी। जान जाने के डर से कोई किसी के विरुद्ध गवाही नहीं देता था। वहाँ जाति-पाति, छुआछूत का भेदभाव नहीं था। स्त्रियाँ परदा नहीं करती थीं। अपरिचितों को भी घर के भीतर आने की मनाही नहीं थी। यात्रियों को आवास तथा खाने-पीने की सुविधा दी जाती थी। ये लोग छङ् नामक मादक पेय का पान करते थे।

प्रश्न 7.
“मैं अब पुस्तकों के भीतर था।” नीचे दिए गए वाक्यों में से कौन-सा इस वाक्य का अर्थ बतलाता है –
(क) लेखक पुस्तकें पढ़ने में रम गया।
(ख) लेखक पुस्तकों की शैल्फ़ के भीतर चला गया।
(ग) लेखक के चारों ओर पुस्तकें ही थीं।
(घ) पुस्तक में लेखक का परिचय और चित्र छपा था।
उत्तर :
(क) लेखक पुस्तकें पढ़ने में रम गया।

रचना और अभिव्यक्ति –

प्रश्न 8.
सुमति के यजमान और अन्य परिचित लोग लगभग हर गाँव में मिले। इस आधार पर आप सुमति के व्यक्तित्व की किन विशेषताओं का चित्रण कर सकते हैं?
उत्तर :
सुमति इस क्षेत्र के लोगों से अच्छी प्रकार से परिचित हैं। वहाँ के लोग भी सुमति का आदर करते हैं। सुमति अपने यजमानों के लिए बोधगया के वस्त्रों के गंडे लेकर आते हैं। वे व्यवहार कुशल, मृदुभाषी, अच्छे सहयात्री एवं ‘क्षणे रूष्ठा क्षणे तुष्ठा’ स्वभाव के व्यक्ति हैं। लेखक लड्कोर का मार्ग भूल जाता है तो देर से पहुँचने पर सुमति लेखक पर क्रोधित हो जाते हैं, परंतु समझाने पर शांत हो जाते हैं।

प्रश्न 9.
” हालाँकि उस वक्त मेरा भेष ऐसा नहीं था कि उन्हें कुछ भी खयाल करना चाहिए था।” उक्त कथन के अनुसार हमारे आचार – व्यवहार के तरीके वेशभूषा के आधार पर तय होते हैं। आपकी समझ से यह उचित है अथवा अनुचित, विचार व्यक्त करें।
उत्तर :
हमारी समझ से यह उचित नहीं है कि किसी की वेशभूषा के आधार पर ही उस व्यक्ति के संबंध में कोई धारणा बना ली जाए। सीधी- साधी और स्वच्छ वेशभूषावाला व्यक्ति भी अच्छा एवं संस्कारी हो सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि बहुत अधिक कीमती तथा आडंबरपूर्ण वेशभूषा धारणा करके ही व्यक्ति श्रेष्ठ बन जाता है। महात्मा गांधी सामान्य – सी वेशभूषा धारण करते हुए भी देश को अहिंसात्मक आंदोलनों द्वारा स्वतंत्र करा गए। लाल बहादुर शास्त्री जैसा छोटा-सा व्यक्ति अपनी सादगी तथा सामान्य सी वेशभूषा से भारत का प्रधानमंत्री बन गया। इसलिए किसी भी वेशभूषा के आधार पर हमें आचार-व्यवहार के तरीके तय नहीं करने चाहिए।

प्रश्न 10.
यात्रा-वृत्तांत के आधार पर तिब्बत की भौगोलिक दशा का शब्द-चित्र प्रस्तुत करें। वहाँ की दशा आपके राज्य/शहर से किस प्रकार भिन्न है ?
उत्तर :
तिब्बत की ओर जानेवाला मार्ग अत्यंत दुर्गम है। वहाँ के डाँड़े सबसे अधिक खतरे के स्थान हैं। सोलह-सत्रह हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित डाँड़ा थोड्ला पार करना बहुत ही कठिन है। इनके दोनों ओर दूर-दूर तक कोई गाँव नहीं होता है। यहाँ एक ओर हिमालय पर्वत की बरफ़ से ढकी हजारों चोटियाँ तो दूसरी ओर बरफ और हरियाली से रहित नंगे पर्वत हैं। कहीं-कहीं कम बरफ़ से ढकी पर्वत की चोटियाँ भी हैं। यात्रा पैदल अथवा घोड़ों पर की जाती है। मैं दिल्ली में रहता हूँ। यहाँ की भौगोलिक दशा तिब्बत से बिलकुल भिन्न है।

यहाँ अनेक बहुमंजिला भवन, साफ़-सुथरी बड़ी-बड़ी सड़कें, छोटी-छोटी पहाड़ियाँ, मेट्रो रेल, हवाई अड्डा, अंतर्राज्यीय बस अड्डा, रेलवे स्टेशन आदि हैं। यात्रा के लिए कारें, बसें, स्कूटर, मोटर साइकिल, ताँगे, रिक्शा आदि पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हैं। यहाँ सरदियों में ठंड और गरमियों में गरमी रहती है। यमुना यहाँ की मुख्य नदी है। देश की राजधानी होने के कारण यहाँ सदा कोई-न-कोई कार्यक्रम होता रहता है। दिल्ली की सीमाएँ उत्तर दा कोई-न-कोई व प्रदेश और हरियाणा से लगती हैं।

प्रश्न 11.
आपने भी किसी स्थान की यात्रा अवश्य की होगी। यात्रा के दौरान हुए अनुभवों को लिखकर प्रस्तुत करें।
उत्तर :
गत वर्ष गरमियों की छुट्टियों में हमारे विद्यालय की ओर से विद्यार्थियों का एक दल शिमला भ्रमण के लिए भेजने की योजना बनी थी। मैंने भी अपना नाम उसके लिए लिखवा दिया। मैंने पहले कभी कोई पर्वतीय स्थान नहीं देखा था इसलिए स्वाभाविक था कि मैं इस यात्रा के लिए बहुत उत्सुक था। 20 मई को विद्यार्थियों का हमारा यह दल शिमला के लिए रवाना हुआ। श्री रामसिंह जी हमारे पी० टी० आई० थे और वे हमारे साथ संरक्षक के रूप में गए थे।

रात्रि के साढ़े दस बजे हम दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए। गाड़ी ग्यारह बजे चलनी थी। हमने द्वितीय श्रेणी के शयनयान में अपने पूर्व निर्धारित स्थान ले लिए। भयंकर गरमी पड़ रही थी। शरीर पसीने से तर-बतर था। साधारण कमीज़ – पैंट भी पहनना मुश्किल हो रहा था। मेरे एक दो साथियों ने तो कमीज़े उतार कर कंधे पर डाल ली थीं। ग्यारह बजे गाड़ी चल दी। हम अपने- अपने स्थान पर सो गए।

प्रातः साढ़े छह बजे गाड़ी कालका स्टेशन पर रुकी। यहाँ से हमें गाड़ी बदलनी थी। शिमला के लिए गाड़ी प्लेटफार्म पर लगी हुई थी। छह डब्बों की नन्ही-सी गाड़ी खिलौने जैसी लग रही थी। खिलौना – गाड़ी के डब्बे छोटे-छोटे थे और रेलवे लाइन ‘नैरो गॉज’ थी। हमें गाड़ी में मुश्किल से स्थान मिला। हज़ारों भ्रमणार्थी शिमला जा रहे थे। गाड़ी ठीक साढ़े सात बजे चल पड़ी। गाड़ी की गति पर्याप्त धीमी थी और वह पर्वत की पीठ पर मानो रेंगते हुए चढ़ रही थी। खिड़की से बाहर का दृश्य आनंदमयी था।

दूर तक घाटियों में फैली हरियाली दिखाई पड़ती थी। देवदार, चीड़ और कैल के वृक्ष प्रहरियों की तरह सिर ऊँचा किए पहाड़ियों पर स्थान-स्थान पर खड़े थे। गाड़ी कभी विशेष प्रकार से बने मेहराबदार पुलों पर से गुज़रती तो कभी छोटी-बड़ी सुरंगों में से गुज़रती। बड़ौग स्टेशन पर गाड़ी साढ़े दस बजे पहुँची। स्टेशन छोटा-सा था परंतु बहुत सुंदर फूलों से सजा था। यहाँ पर हमने जलपान किया। बड़ौग की सुरंग सबसे लंबी थी।

जब गाड़ी सुरंग से गुज़रती तो गाड़ी में हलका अँधेरा-सा छा जाता। विभिन्न डब्बों से सीटियाँ बजाने और नारे लगाने की आवाज़ें आने लगतीं। हमने भी मिलकर गाने गाने शुरू कर दिए। हवा में हलकी ठंडक अनुभव होने लगी। हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मई के अंत में भी लोग स्वेटर पहने हुए थे।

हमारी गाड़ी एक बजे दोपहर को शिमला पहुँच गई। प्लेटफार्म पर लाल रंग की पोशाक पहने कुली लंबी लाइन में बैठे थे। गाड़ी के पहुँचते ही उनमें हलचल प्रारंभ हो गई। देखते-ही-देखते वे गाड़ी पर टूट पड़े। यात्रियों के नीचे उतरने से पहले ही कुली गाड़ी में घुस गए और उन्होंने यात्रियों के सामान पर कब्ज़ा कर लिया। भाव-ताव के पश्चात बहुत से कुली पीठ पर सामान लेकर चल पड़े। हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कुली सिर की अपेक्षा पीठ पर सामान ढो रहे थे।

हमारे ठहरने की व्यवस्था कॉली – बॉरी की धर्मशाला में थी। माँ दुर्गा के प्राचीन मंदिर के साथ यात्रियों के रुकने के लिए कमरे बने हैं। बड़ी संख्या में बंगाली यात्री वहाँ ठहरे थे। कुछ देर विश्राम करने के पश्चात हमने भोजन किया। सायंकाल को हम लोग तैयार होकर मॉल रोड की सैर के लिए चले। मॉल रोड पर बहुत भीड़ थी। एक सिरे पर लाला लाजपत राय का बुत उँगली उठाकर मानो भ्रमणार्थियों को सचेत कर रहा था जो रिज के दूसरी ओर गांधी जी छड़ी थापे, मुसकराते हुए खड़े थे।

दौलत सिंह पार्क में हिमाचल के निर्माता यशवंत सिंह परमार की मूर्ति थी तो उसके सामने इंदिरा गांधी जी का बुत था। रिज पर हज़ारों लोग इकट्ठे थे। कुछ बच्चे घुड़सवारी कर रहे थे। छाया चित्र लेनेवाले कैमरे के साथ व्यस्त थे। रिज पर मेले का सा दृश्य था। मॉल रोड पर हमें आयु, हर वेश-भूषा एवं हर प्रांत का व्यक्ति दिखाई पड़ा। ऐसा लगता था कि लघु भारत यहाँ आ बसा है।

दूसरे दिन हम हिमाचल पर्यटन विभाग की बसों में बैठकर कुफ़री, वाइल्ड फ़्लावर हॉल, क्रिंग नैनी और नालदेरा की यात्रा के लिए गए। नालदेरा का गोल्फ़ का मैदान बहुत सुंदर है। कुफ़री में हमने यॉक पर बैठकर फोटो खिंचवाए और रेस्तराँ में जलपान किया। वाइल्ड फ़्लावर हॉल में फूलों का मेला-सा लगा था। चारों ओर रंग-बिरंगे फूलों पर तितलियों के झुंड मँडरा रहे थे। तीसरे दिन हम जाखू पर्वत पर पिकनिक के लिए गए। शिमला शहर के मध्य में स्थित यह चोटी सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र है। रिज से लगभग पंद्रह सौ फुट की ऊँचाई पर स्थित इस चोटी पर हनुमान जी का भव्य मंदिर है। पूरे रास्ते में बंदरों के झुंड मिले। हमने उन्हें चने खिलाए। चौथे दिन प्रातः नौ बजे हम वापस चल पड़े।

प्रश्न 12.
यात्रा-वृत्तांत गद्य साहित्य की एक विधा है। आपकी इस पाठ्य-पुस्तक में कौन-सी विधाएँ हैं? प्रस्तुत विधा उनसे किन मायनों में अलग है ?
उत्तर :
हमारी पाठ्य-पुस्तक में गद्य साहित्य की कहानी, निबंध, डायरी, रिपोर्ताज, व्यंग्य-लेख, संस्मरण और यात्रा-वृत्तांत विधाओं की रचनाएँ प्राप्त होती हैं। यात्रा-वृत्तांत इन सब विधाओं से इस प्रकार अलग है कि इसमें यात्रा करनेवाले व्यक्ति के अपने अनुभवों के अतिरिक्त उस यात्रा-स्थल की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक स्थिति का भी ज्ञान हो जाता है। इसमें कहानी जैसी रोचकता के साथ-साथ संस्मरण जैसा आँखों देखा हाल भी प्राप्त हो जाता है।

भाषा-अध्ययन –

प्रश्न 13.
किसी भी बात को अनेक प्रकार से कहा जा सकता है, जैसे –
सुबह होने से पहले हम गाँव में थे।
पौ फटने वाली थी कि हम गाँव में थे।
तारों की छाँव रहते-रहते हम गाँव पहुँच गए।
नीचे दिए गए वाक्य को अलग-अलग तरीके से लिखिए-
‘जान नहीं पड़ता था, कि घोड़ा आगे जा रहा है या पीछे।”
उत्तर :
(क) पता नहीं लगता था कि घोड़ा आगे जा रहा है या पीछे।
(ख) घोड़े के आगे या पीछे जाने का पता नहीं लगता है।
(ग) घोड़े के अपने स्थान से आगे जाने या पीछे हटने का पता नहीं लगता था।

प्रश्न 14.
ऐसे शब्द जो किसी ‘अंचल’ यानी प्रदेश विशेष में प्रयुक्त होते हैं उन्हें आंचलिक शब्द कहा जाता है। प्रस्तुत पाठ में से आंचलिक शब्द ढूँढकर लिखिए।
उत्तर :
चोडी, खोटी, छङ्, डाँड़ा, कुची-कुची, कंडे, थुकपा, भरिया, कन्जुर।

प्रश्न 15.
पाठ में कागज, अक्षर, मैदान के आगे क्रमशः मोटे, अच्छे और विशाल शब्दों का प्रयोग हुआ है। इन शब्दों से विशेषता उभरकर आती है। पाठ में से कुछ ऐसे ही और शब्द छाँटिए जो किसी की विशेषता बता रहे हों।
उत्तर :
भद्र (यात्री), गरीब (झोंपड़े), परित्यक्त (चीनी किले), विकट (डाँड़ा थोड्ला), अच्छी (जगह), टोटीदार ( बरतन)।

पाठेतर सक्रियता –

यह यात्रा राहुल जी ने 1930 में की थी। आज के समय यदि तिब्बत की यात्रा की जाए तो राहुल जी की यात्रा से कैसे भिन्न होगी ?
उत्तर :
आधुनिक युग में यात्रा के अनेक साधन उपलब्ध हैं, जैसे- कार, बस, जीप, हेलीकॉप्टर, हवाई जहाज आदि। इसलिए आज के समय यदि तिब्बत की यात्रा की जाए तो यह यात्रा बहुत सुखद होगी तथा यात्री को तिब्बत के प्राकृतिक सौंदर्य का संपूर्ण आनंद प्राप्त होगा।

क्या आपके किसी परिचित को घुमक्कड़ी/यायावरी का शौक है? उसके इस शौक का उसकी पढ़ाई/काम आदि पर क्या प्रभाव पड़ता होगा, लिखें।
अपठित गद्यांश को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
उत्तर :
आम दिनों में समुद्र किनारे के इलाके बेहद खूबसूरत लगते हैं। समुद्र लाखों लोगों को भोजन देता है और लाखों उससे जुड़े दूसरे कारोबारों में लगे हैं। दिसंबर 2004 को सूनामी या समुद्री भूकंप से उठनेवाली तूफानी लहरों के प्रकोप ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि कुदरत की यह देन सबसे बड़े विनाश का कारण बन सकती है।

प्रकृति कब अपने ही ताने-बाने को उलटकर रख देगी, कहना मुश्किल है। हम उसके बदलते मिजाज को उसका कोप कह लें या कुछ और मगर यह अबूझ पहेली अकसर हमारे विश्वासों के चीथड़े कर देती है और हमें यह अहसास करा जाती है कि हम एक कदम आगे नहीं, चार कदम पीछे हैं। एशिया के एक बड़े हिस्से में आनेवाले उस भूकंप ने कई द्वीपों को इधर-उधर खिसकाकर एशिया का नक्शा ही बदल डाला।

प्रकृति ने पहले भी अपनी ही दी हुई कई अद्भुत चीजें इन्सान से वापस ले ली हैं जिसकी कसक अभी तक है। दुःख जीवन को माँजता है, उसे आगे बढ़ने का हुनर सिखाता है। वह हमारे जीवन में ग्रहण लाता है, ताकि हम पूरे प्रकाश की अहमियत जान सकें और रोशनी को बचाए रखने के लिए जतन करें। इस जतन से सभ्यता और संस्कृति का निर्माण होता है। सुनामी के कारण

दक्षिण भारत और विश्व के अन्य देशों में जो पीड़ा हम देख रहे हैं, हमारे जीवन में जोश, उत्साह और शक्ति भर देते हैं। 13 वर्षीय मेघना और अरुण दो दिन अकेले खारे समुद्र में तैरते हुए जीव-जंतुओं से मुकाबला करते हुए किनारे आ लगे। इंडोनेशिया की रिजा पडोसी के दो बच्चों को पीठ पर लादकर पानी के बीच तैर रही थी कि एक विशालकाय साँप ने उसे किनारे का रास्ता दिखाया।

मछुआरे की बेटी मैगी ने रविवार को समुद्र का भयंकर शोर सुना उसकी शरारत को समझा, तुरंत अपना बेड़ा उठाया और अपने परिजनों को उसपर बिठा उतर आई समुद्र में, 41 लोगों को लेकर। महज 18 साल की यह जलपरी चल पड़ी पगलाए सागर से दो-दो हाथ करने। दस मीटर से ज्यादा ऊँची सूनामी लहरें जो कोई बाधा, रुकावट मानने को तैयार नहीं थीं, इस लड़की के बुलंद इरादों के सामने बौनी ही साबित हुई।

जिस प्रकृति ने हमारे सामने भारी तबाही मचाई है, उसी ने हमें ऐसी ताकत और सूझ दे रखी है कि हम फिर से खड़े होते हैं और चुनौतियों से लड़ने का एक रास्ता ढूँढ़ निकालते हैं। इस त्रासदी से पीड़ित लोगों की सहायता के लिए जिस तरह पूरी दुनिया एकजुट हुई है, वह इस बात का सबूत है कि मानवता हार नहीं मानती।
(क) कौन-सी आपदा को सूनामी कहते हैं ?
(ख) ‘दुःख जीवन को माँजता है, उसे आगे बढ़ने का हुनर सिखाता है’-आशय स्पष्ट कीजिए।
(ग) मैगी, मेघना और अरुण ने सूनामी जैसी आपदा का सामना किस प्रकार किया?
(घ) प्रस्तुत गद्यांश में दृढ़ निश्चय’ और ‘महत्व’ के लिए किन शब्दों का प्रयोग हुआ है ?
(ङ) इस गद्यांश के लिए एक शीर्षक ‘नाराज समुद्र’ हो सकता है। आप कोई अन्य शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
(क) समुद्री भूकंप से उठनेवाली तूफ़ानी लहरों के प्रकोप को सूनामी कहते हैं।
(ख) इस कथन का आशय यह है कि दुख सहन करने के बाद मनुष्य में हिम्मत आ जाती है और वह विपत्तियों का सामना करते हुए जीवन में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ता रहता है।
(ग) मैगी ने अपने 41 परिजनों को बेड़े में बैठाकर दस मीटर से ज्यादा ऊँची सूनामी लहरों का मुकाबला करते हुए बचाया। मेघना और अरुण दो दिनों तक अकेले खारे समुद्र में तैरते हुए जीव-जंतुओं से मुकाबला करते हुए किनारे पर आ लगे थे।
(घ) ‘दृढ़ निश्चय’ के लिए ‘बुलंद इरादों’ तथा ‘महत्व’ के लिए ‘अहमियत’ शब्दों का प्रयोग किया गया है।
(ङ) इस गद्यांश के लिए अन्य शीर्षक ‘साहस की विजय’ हो सकता है।

JAC Class 9 Hindi ल्हासा की ओर Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
नेपाल से तिब्बत जाने वाले मुख्य मार्ग की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
नेपाल से तिब्बत जानेवाला रास्ता व्यापारिक ही नहीं सैनिक रास्ता भी था। इस रास्ते से नेपाल और हिंदुस्तान की चीजें तिब्बत जाया करती थीं। इस रास्ते पर जगह-जगह फ़ौजी चौकियाँ और किले बने हुए थे। इनमें चीनी सेना रहती थी। अब बहुत-से फ़ौजी मकान गिर चुके हैं और किले में कुछ किसानों ने अपने बसेरे बना लिए हैं।

प्रश्न 2.
शेकर की खेती के मुखिया कौन थे ? वहाँ लेखक को क्या मिला ?
उत्तर :
शेकर की खेती के मुखिया भिक्षु नम्से थे। वे बहुत भद्रपुरुष थे। वे लेखक से अत्यंत प्रेमपूर्वक मिले थे। यहाँ एक अच्छा मंदिर था। जहाँ लेखक को कन्जुर की एक सौ तीन हस्तलिखित पोथियाँ रखी हुई थीं। एक-एक पोथी पंद्रह-पंद्रह सेर की थी तथा बड़े मोटे कागज़ पर अच्छे अक्षरों में लिखी हुई थीं। वह इन पोथियों को पढ़ने में लीन हो गया।

प्रश्न 3.
‘ल्हासा की ओर’ यात्रा-वृत्तांत का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘ल्हासा की ओर’ यात्रा-वृत्तांत के माध्यम से लेखक ने तिब्बत-यात्रा की कठिनाइयों का वर्णन करते हुए वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य, सामाजिक जीवन तथा प्रशासनिक व्यवस्था से पाठकों को परिचित कराया है। तिब्बत के स्थानीय लोगों के यात्रियों के प्रति सहज व्यवहार से पाठकों को यात्रा करने की प्रेरणा मिलती है।

प्रश्न 4.
ल्हासा की सामाजिक स्थिति कैसी है ?
उत्तर :
ल्हासा की सामाजिक स्थिति अन्य समाजों से अच्छी है। यहाँ जाति-पाति और छुआछूत का भेदभाव नहीं है। यहाँ की औरतें परदा नहीं करती हैं। घर में निम्न श्रेणी के भिखमंगों के अतिरिक्त किसी को भी किसी भी घर में आने की मनाही नहीं है। अपरिचित लोग भी घर के अंदर तक जा सकते हैं। वे लोग जल्दी से दूसरों पर विश्वास कर लेते हैं।

प्रश्न 5.
ल्हासा की चाय की क्या विशेषता है ?
उत्तर :
वहाँ चाय मक्खन और सोडा नमक डालकर बनाई जाती है। आप वहाँ किसी से भी कहकर चाय बनवा सकते हैं। उसके लिए चाय, मक्खन और सोडा – नमक देना पड़ता है। वे लोग चाय चोड़ी में कूटकर उसे दूधवाली चाय के रंग की बनाकर मिट्टी के टोंटीदार बरतन में रखकर आपको दे देंगे। यदि आप चूल्हे से दूर बैठे हैं और आपको डर है कि वे सारा मक्खन आपकी चाय में नहीं डालेंगी तो आप स्वयं जाकर चोड़ी में चाय मथकर ला सकते हैं। चाय का रंग तैयार हो जाने पर, उसमें नमक- मक्खन, डालने की जरूरत होती है।

प्रश्न 6.
डाँड़ा थोङ्ला क्या है ? यह डाकुओं के लिए सबसे अच्छी जगह क्यों है ?
उत्तर :
तिब्बत में डाँड़ा पहाड़ की ऊँची जमीन को कहते हैं। थोङ्ला तिब्बत की सीमा पर स्थित एक स्थान का नाम है। डाँड़े तिब्बत में सबसे खतरनाक जगह है, सोलह-सत्रह फीट की ऊँचाई होने के कारण उनके दोनों तरफ मीलों तक कोई गाँव दिखाई नहीं देता है। इसे बहुत सँभलकर पार करना पड़ता है।

इस स्थान पर मीलों तक आदमी दिखाई नहीं पड़ता है इसलिए वह जगह डाकुओं के लिए अच्छी है। ऐसे निर्जन स्थानों पर डाकुओं का यात्रियों को लूटना आसान है। यहाँ पर पुलिस भी नहीं आती है। यहाँ डकैत पहले आदमी को मारता है फिर देखता है कि उसके पास कुछ है या नहीं। इसलिए यह स्थान डाकुओं के लिए उपयुक्त है। वहाँ किसी के आने का डर नहीं है।

प्रश्न 7.
तिब्बत की पुलिस के संबंध में लेखक के क्या विचार थे ?
उत्तर :
तिब्बत की पुलिस निर्जन पहाड़ों में जाने को तैयार नहीं है। उनकी खुफिया पुलिस इन जगहों के लिए पैसा खर्च करने के लिए तैयार नहीं है। यहाँ पर हथियार रखने संबंधी कोई कानून नहीं है, इसलिए सभी के बंदूक, पिस्तौल आदि हैं। पुलिस किसी भी अपराधी को पकड़ना भी चाहे तो उसे गवाही के लिए कोई आदमी नहीं मिलता है। यदि गाँव में खून हो जाए तो वहाँ खूनी को सज़ा मिल सकती है।

प्रश्न 8.
लेखक ने सुमति को यजमानों के पास जाने से कैसे रोका ?
उत्तर :
सुमति तिरी – समाधि-गिरि के आस-पास गाँवों में जाना चाहता था। वहाँ उसके यजमान थे। वह यजमानों को गंडे देकर दक्षिणा प्राप्त करना चाहता था। परंतु लेखक ने उसे अपने यजमानों के पास जाने के लिए मना कर दिया क्योंकि सुमति एक बार यजमानों के पास चला गया तो वह सप्ताह – भर भी वापिस नहीं आएगा। इससे लेखक की यात्रा बाधित होगी। इसलिए लेखक ने सुमति को यजमानों के पास न जाने से होनेवाली हानि के बदले में ल्हासा पहुँचकर रुपए देने की बात कहकर, सुमति को जाने से रोका।

प्रश्न 9.
तिब्बत में जमीन की स्थिति कैसी है? वहाँ खेती कैसे होती है?
उत्तर :
तिब्बत की ज़मीन बहुत अधिक छोटे-बड़े जागीरदारों में बँटी है। इन जागीरों का बहुत बड़ा हिस्सा बौद्ध मठों के हाथ में है। अपनी-अपनी जागीर पर जागीरदार, कुछ पर स्वयं खेती करते हैं तथा कुछ पर मजदूरों से करवाते हैं। वहाँ मजदूर बेगार पर मिल जाते हैं। खेती का प्रबंध देखने के लिए वहाँ कोई भिक्षु भेजा जाता है, जो सभी प्रबंध देखता है, वह जागीर के आदमियों के लिए राजा से कम नहीं होता है। इस प्रकार तिब्बत में खेती का प्रबंध बौद्ध भिक्षुओं के हाथ में है।.

प्रश्न 10.
‘ल्हासा की ओर’ किस प्रकार की विधा है ? लेखक इस पाठ के माध्यम से क्या बताना चाहता है?
उत्तर :
‘ल्हासा की ओर’ राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित एक श्रेष्ठ यात्रा-वृत्तांत है। इसमें लेखक ने अपनी तिब्बत-यात्रा का वर्णन किया है। अपनी इस यात्रा के माध्यम से लेखक ने बताना चाहा है कि तिब्बत में यात्रियों की सुविधाओं के साथ-साथ बहुत-सी कठिनाइयों का भी सामना करना पडता है।

महत्वपूर्ण गद्यांशों के अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर –

1. यह व्यापारिक ही नहीं सैनिक रास्ता भी था, इसीलिए जगह-जगह फ़ौजी चौकियाँ और किले बने हुए हैं, जिनमें कभी चीनी पलटन रहा करती थी। आजकल बहुत-से फ़ौजी मकान गिर चुके हैं। दुर्ग के किसी भाग में, जहाँ किसानों ने अपना बसेरा बना लिया है, वहाँ घर कुछ आबाद दिखाई पड़ते हैं। ऐसे ही परित्यक्त एक चीनी किला था। हम वहाँ चाय पीने के लिए ठहरे। तिब्बत में यात्रियों के लिए बहुत-सी तकलीफ़ें भी हैं और कुछ आराम की बातें भी। वहाँ जाति-पाति, छुआछूत का सवाल ही नहीं है और न औरतें परदा ही करती हैं। बहुत निम्न श्रेणी के भिखमंगों को लोग चोरी के डर से घर के भीतर नहीं आने देते, नहीं तो बिलकुल घर के भीतर चले जा सकते हैं।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर –

प्रश्न :
(क) चीनी पलटन कहाँ रहती थी ?
(ख) किले के कुछ भागों में किसने अपना बसेरा बना लिया है ?
(ग) लेखक चाय पीने हेतु कहाँ रुका ?
(घ) जाति-पाति – छुआछूत का भेदभाव कहाँ नहीं है ?
(ङ) तिब्बत में लोग अपने घरों में किन्हें नहीं आने देते थे और क्यों ?
उत्तर :
(क) चीनी पलटन जगह-जगह बनी फ़ौजी चौकियों और किलों में रहती थी।
(ख) किले के कुछ भागों में किसानों ने अपना बसेरा बना लिया है।
(ग) लेखक चाय पीने के लिए एक चीनी किले में रुका।
(घ) तिब्बत में जाति-पाति – छुआछूत का भेदभाव नहीं है।
(ङ) तिब्बत में लोग बहुत निम्न श्रेणी के भिखमंगों को चोरी के भय से घरों के भीतर नहीं आने देते, नहीं तो बिलकुल घर के भीतर चले जा सकते हैं।

2. अब हमें सबसे विकट डाँड़ा थोङ्ला पार करना था। डाँड़े तिब्बत में सबसे खतरे की जगहें हैं। सोलह-सत्रह हजार फीट की ऊँचाई होने के कारण उसकी दोनों तरफ़ मीलों तक कोई गाँव-गिराँव नहीं होते। नदियों के मोड़ और पहाड़ों के कोनों के कारण बहुत दूर तक आदमी को देखा नहीं जा सकता। डाकुओं के लिए यही सबसे अच्छी जगह है। तिब्बत में गाँव में आकर खून हो जाए, तब तो खूनी को सजा भी मिल सकती हैं, लेकिन इन निर्जन स्थानों में मरे हुए आदमियों के लिए कोई परवाह नहीं करता।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर –

प्रश्न :
(क) डाँड़ा थोङ्ला कैसी जगह है ?
(ख) डाँड़ा थोङ्ला में बहुत दूर-दूर तक आदमी क्यों नहीं दिखाई देते ?
(ग) डाँड़ा थोङ्ला किसके लिए सबसे अच्छी जगह है और क्यों ?
(घ) तिब्बत को निर्जन स्थानों पर किनकी परवाह नहीं होती ?
उत्तर :
(क) तिब्बत में डाँड़ा थोङ्ला सबसे खतरे की जगह है। उसकी ऊँचाई सोलह-सत्रह हज़ार फुट है।
(ख) डाँड़ा थोङ्ला की ऊँचाई अधिक होने के कारण तथा नदियों के मोड़ और पहाड़ों के कोनों के कारण बहुत दूर तक आदमी दिखाई नहीं देते।
(ग) डाँड़ा थोङ्ला डाकुओं के लिए सबसे अच्छी जगह है क्योंकि यहाँ दूर-दूर तक आदमी को देखा नहीं जा सकता।
(घ) तिब्बत को निर्जन स्थानों पर मरे हुए आदमियों की परवाह नहीं होती।

3. सर्वोच्च स्थान पर डाँड़े के देवता का स्थान था, जो पत्थरों के ढेर, जानवरों की सींगों और रंग-बिरंगे कपड़े की झंडियों से सजाया गया .. था। अब हमें बराबर उतराई पर चलना था। चढ़ाई तो कुछ दूर थोड़ी मुश्किल थी, लेकिन उतराई बिलकुल नहीं। शायद दो-एक और सवार साथी हमारे साथ चल रहे थे। मेरा घोड़ा कुछ धीमे चलने लगा। मैंने समझा कि चढ़ाई की थकावट के कारण ऐसा कर रहा है, और उसे मारना नहीं चाहता था। धीरे-धीरे वह बहुत पिछड़ गया, और मैं दोन्क्विकस्तो की तरह अपने घोड़े पर झूमता हुआ चला जा रहा था।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर –

प्रश्न :
(क) डाँड़े के देवता का स्थान किनसे सजाया गया था ?
(ख) प्रस्तुत गद्यांश का लेखक कौन हैं? यह किस शैली में रचित है ?
(ग) घोड़े को धीरे चलता देखकर लेखक ने क्या समझा ?
(घ) लेखक किसके समान घोड़े पर झूम रहा था ?
उत्तर :
(क) डाँड़े के देवता का स्थान पत्थरों के ढेर, जानवरों की सींगों और रंग-बिरंगे कपड़े की झंडियों से सजाया गया था।
(ख) प्रस्तुत गद्यांश के लेखक राहुल सांकृत्यायन हैं। यह आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है।
(ग) घोड़े को धीरे चलता देखकर लेखक ने समझा कि घोड़ा चढ़ाई की थकावट के कारण ऐसा कर रहा है।
(घ) लेखक दोन्निक्वक्स्तो के समान घोड़े पर झूमता हुआ चला जा रहा था।

4. आसपास के गाँव में भी सुमति के कितने ही यजमान थे, कपड़े की पतली-पतली चिरी बत्तियों के गंडे खतम नहीं हो सकते थे, क्योंकि बोधगया से लाए कपड़े के खतम हो जाने पर किसी कपड़े से बोधगया का गंडा बना लेते थे। वह अपने यजमानों के पास जाना चाहते थे। मैंने सोचा, यह तो हफ़्ता-भर उधर ही लगा देंगे। मैंने उनसे कहा कि जिस गाँव में ठहरना हो, उसमें भले ही गंडे बाँट दो, मगर आसपास के गाँवों में मत जाओ, इसके लिए मैं तुम्हें ल्हासा पहुँचकर रुपए दे दूँगा। सुमति ने स्वीकार किया।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर –

प्रश्न :
(क) लेखक किस स्थान के आस-पास के गाँवों की बात कर रहा है ? वहाँ की क्या विशेषता है ?
(ख) यजमान किसे कहते हैं ? सुमति उन्हें गंडे क्यों देते हैं ?
(ग) सुमति यजमानों के पास क्यों जाना चाहते हैं ? लेखक उन्हें क्यों नहीं जाने देना चाहते ?
(घ) लेखक ने सुमति को गाँवों में न जाने के लिए कैसे मनाया ?
(ङ) सुमति ने पैसा कहाँ लेना स्वीकार कर लिया था ?
उत्तर :
(क) लेखक तिड्री के आस-पास के गाँवों की बात कर रहा है। पहाड़ों से घिरे हुए तिड्री के मैदान टापू जैसे दिखाई देते थे। मैदान में एक छोटी-सी पहाड़ी थी। इस पहाड़ी को तिड्री – समाधि – गिरि कहा जाता है।
(ख) यजमान वह व्यक्ति होता है जो किसी ब्राह्मण अथवा धर्मगुरु से कोई धार्मिक कार्य करवाता है। सुमति अपने यजमानों को गंडे इसलिए देते हैं क्योंकि उनके यजमानों को यह विश्वास है कि इन गंडों को बोधगया से लाए गए कपड़े से बनाया गया है। यह गंडे उनकी रक्षा करेंगे। यजमान गंडों के बदले सुमति को दक्षिणा देते हैं।
(ग) सुमति यजमानों के पास इसलिए जाना चाहते हैं कि वे अपने यजमानों को गंडे दे सकें तथा उनसे दक्षिणा प्राप्त कर सकें। लेखक उन्हें वहाँ इसलिए नहीं जाने देना चाहता क्योंकि इस प्रकार उनकी यात्रा में बाधा आ जाएगी। सुमति वहाँ हफ़्ता – भर लगा सकते हैं।
(घ) लेखक ने सुमति को अन्य गाँवों में न जाने के लिए यह कहकर मना लिया कि जिस गाँव में ठहरना हो वहाँ के यजमानों को गंडे बाँट दो परंतु आसपास के अन्य गाँवों में मत जाओ। इससे होनेवाली हानि के बदले लेखक उसे ल्हासा पहुँचकर रुपए दे देगा।
(ङ) सुमति ने ल्हासा में पैसे लेना स्वीकार कर लिया था।

5. तिब्बत की ज़मीन बहुत अधिक छोटे-बड़े जागीरदारों में बँटी है। इन जागीरों का बहुत ज्यादा हिस्सा मठों (विहारों) के हाथ में है। अपनी- अपनी जागीर में हरेक जागीरदार कुछ खेती खुद भी करता है जिसके लिए मज़दूर बेग़ार में मिल जाते हैं। खेती का इंतज़ाम दिखाने के लिए वहाँ कोई भिक्षु भेजा जाता है जो जागीर के आदमियों के लिए राजा से कम नहीं होता।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर –

प्रश्न :
(क) तिब्बत में ज़मीन की स्थिति कैसी है ?
(ख) तिब्बत में जागीरदार खेती कैसे और किनसे कराते हैं ?
(ग) तिब्बत में खेती का प्रबंध देखनेवाले भिक्षुओं की क्या स्थिति है ?
(घ) ‘बेगार’ से क्या आशय है ?
(ङ) दो विदेशी शब्द चुनकर लिखिए।
उत्तर :
(क) तिब्बत की ज़मीन अनेक छोटी-बड़ी जागीरों में बँटी हुई है। इनमें से अधिकतर जागीरों पर मठों का अधिकार है। वे ही इसका प्रबंध करते हैं।
(ख) तिब्बत में जागीरदार कुछ खेती स्वयं भी करते हैं और कुछ बेगार में मिलनेवाले मज़दूरों से कराते हैं।
(ग) तिब्बत में खेती का प्रबंध देखनेवाले मठों के भिक्षुओं को वहाँ काम करनेवाले एक राजा के रूप में सम्मान देते थे। उनके लिए वे उनके अन्नदाता थे।
(घ) ‘बेगार’ उन व्यक्तियों को कहते हैं जो बिना कोई निश्चित पारिश्रमिक लिए काम करते हैं।
(ङ) जागीर, इंतज़ाम।

ल्हासा की ओर Summary in Hindi

लेखक परिचय :

जीवन – राहुल सांकृत्यायन आधुनिक हिंदी – साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। इनका जन्म उत्तर- प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गाँव में सन् 1893 ई० में हुआ था। इनका मूल नाम केदारनाथ पांडेय था। शुरू से इनके स्वभाव में घुमक्कड़ी प्रवृत्ति विद्यमान थी। इसी कारण बाद में वे साधु बन गए और नाम पड़ा दामोदर। इन्होंने आरंभिक शिक्षा रानी की सराय गाँव में ग्रहण की थी। इन्होंने मिडिल की परीक्षा निज़ामाबाद के मिडिल स्कूल से पास की और संस्कृत सीखने काशी आ गए।

ये स्वभाव से ही घुमक्कड़ थे। इन्होंने संपूर्ण भारत की और लगभग एक तिहाई विश्व के महत्त्वपूर्ण देशों की यात्रा की। श्रीलंका, तिब्बत, नेपाल, ईरान, चीन, जापान, मंचूरिया, इंग्लैंड, सोवियत संघ आदि देशों की यात्राओं ने इनके जीवन-दर्शन और दिशा को निर्मित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अत्यंत कठिन परिस्थितियों में एक से अधिक बार तिब्बत की यात्रा करके वे दुर्लभ प्राचीन भारतीय ग्रंथों की प्रतियाँ खोजकर लाए। अनेक वर्षों तक वे रूस में भारतीय दर्शन के अध्यापक रहे। सन् 1930 में इन्होंने श्रीलंका जाकर बौद्ध धर्म ग्रहण किया, तब इनका नाम राहुल सांकृत्यायन हुआ। सन् 1963 ई० में इनका निधन हो गया।

रचनाएँ – राहुल जी सही अर्थों में महापंडित थे। उन्होंने अपनी रचनाओं से हिंदी साहित्य की अधिकांश विधाओं को समृद्ध किया है। इनके द्वारा रचित पुस्तकों की संख्या लगभग 150 है। मेरी जीवन-यात्रा (छह भाग), दर्शन – दिग्दर्शन, बाइसवीं सदी, जय यौधेय, बोल्गा से गंगा, भागो नहीं दुनिया को बदलो, दिमागी गुलामी, घुमक्कड़ शास्त्र आदि इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। इन्होंने आदि हिंदी की कहानियाँ, दक्खिनी हिंदी काव्य – धारा और हिंदी काव्य – धारा प्रस्तुत कर हिंदी साहित्य की लुप्तप्राय सामग्री का उद्धार किया। वे बौद्ध धर्म के विख्यात विद्वान और व्याख्याता थे। इन्होंने बौद्ध-धर्म के अनेक ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद किया जिसमें मज्झिम निकाय, दीर्घनिकाय और विनय पिटक प्रमुख हैं।

भाषा-शैली – राहुल सांकृत्यायन आलोचक, भाषाशास्त्री, समाज – चिंतक, इतिहास – वेत्ता और गद्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनका पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, तिब्बती, चीनी, जापानी, रूसी एवं सिंहली भाषाओं पर अधिकार था। इनमें विषय एवं भाव के अनुरूप भाषा प्रयोग की अद्भुत क्षमता थी। ‘ल्हासा की ओर’ यात्रा – वृत्तांत में लेखक ने सहज, सरल भाषा तथा रोचक शैली में अपनी तिब्बत – यात्रा का वर्णन किया है। लेखक ने बोलचाल के पलटन, आबाद, बरतन, तकलीफ़, फ़ौजी आदि शब्दों के अतिरिक्त परित्यक्त, भद्र, मनोवृत्ति, श्वेत, शिखर आदि तत्सम प्रधान तथा खोटी, चोङी, डाँडा, थुक्पा, कन्जुर आदि देशज शब्दों का भी प्रयोग किया है। शैली में चित्रात्मकता का गुण विद्यमान है, जैसे- ” आप दो बजे सूरज की ओर मुँह करके चल रहे हैं, ललाट धूप से जल रहा है और पीछे का कंधा बरफ़ हो रहा है। ”

पाठ का सार :

‘ल्हासा की ओर’ राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित यात्रा – वृत्तांत है जिसमें उन्होंने ने अपनी तिब्बत यात्रा का वर्णन किया है। लेखक नेपाल से तिब्बत जाने वाले मुख्य मार्ग से ल्हासा जा रहे हैं। फरी – कलिड्याङ् मार्ग के प्रारंभ होने से पहले भारत का व्यापार नेपाल और तिब्बत से इसी मार्ग से होता था। चीनी पलटन उस मार्ग पर बनी हुई चौकियों और किलों में रहती थी। अब फ़ौजी मकान गिर गए हैं तथा किलों में किसानों ने अपने घर बना लिए हैं। ऐसे ही किसी किले में लेखक चाय पीने के लिए रुकता है।

तिब्बत में यात्रियों को सुविधाएँ भी हैं और कुछ कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है। वहाँ छुआछूत, परदा प्रथा, जातिगत भेद आदि कुछ भी नहीं है। यात्री घर के अंदर तक जाकर बहुओं अथवा सास को चाय पकाने के लिए कह सकते हैं। वह चाय बनाकर मिट्टी के टोटीदार बरतन में लाकर दे देगी। जब वे उस किले से चलने लगे तो एक व्यक्ति ने इनसे राहदारी माँगी। इन्होंने दो चिटें उसे दे दीं। उसी दिन वे थोड्ला के पहले के अंतिम गाँव में पहुँच गए थे। यहाँ भी लेखक के साथ चल रहे बौद्ध भिक्षु सुमति के जान-पहचान के लोग रहते थे। इसलिए उन्हें ठहरने के लिए अच्छी जगह मिल गई थी।

अब लेखक और उसके साथी को बहुत मुश्किल डाँड़ा थोड्ला पार करना था। तिब्बत में डाँड़े अत्यंत खतरनाक स्थान माने जाते हैं। सोलह- सत्रह हजार फीट की ऊँचाई होने के कारण उनके दोनों तरफ दूर-दूर तक कोई गाँव नहीं होता है। डाकुओं के लिए यह बहुत सुरक्षित जगह है। इन निर्जन स्थानों पर यदि किसी का खून भी कर दिया जाए तो कोई चिंता नहीं करता है। डाकू भी पहले आदमी को मार देते हैं और बाद में उसका माल लूटते हैं। लेखक और उसका साथी ऐसे किसी व्यक्ति को देखकर भिखमंगों की तरह उनसे ‘दया करके एक पैसा दे दो’ कहकर भीख माँगने लगते थे।

वहाँ पहाड़ की ऊँची चढ़ाई देखकर लेखक ने सुमति को लड्कोर तक दो घोड़ों का प्रबंध करने के लिए कहा। अगले दिन वे घोड़ों पर सवार होकर ऊपर की ओर चलने लगे। डाँडे से पहले उन्होंने एक स्थान पर चाय पी और दोपहर के समय डाँड़े के ऊपर जा पहुँचे। इनके दक्षिण की तरफ पूर्व से पश्चिम तक हिमालय की बरफ़ से ढकी हज़ारों चोटियाँ थीं तथा दूसरी ओर हरियाली और बरफ से रहित बिलकुल नंगे पहाड़ थे।

चढ़ाई कुछ कठिन थी परंतु उतराई सहज थी। लेखक अपने घोड़े पर झूमता हुआ गलत रास्ते पर चला गया। रास्ते में किसी से पूछकर लौटकर सही रास्ते पर आया। जब वह देर से पहुँचा तो सुमति लेखक पर गुस्सा होने लगा। लेखक ने सारा दोष अपने सुस्त घोड़े को दिया। सुमति शीघ्र ही शांत हो गया। लङ्कोर में इन्हें ठहरने के लिए अच्छा स्थान मिल गया। यहाँ के यजमानों ने उन्हें चाय-सत्तू और गरमा-गरम थुक्पा खाने को दिया।

इसके बाद वे तिड्री के पहाड़ों से घिरे हुए टापू जैसे विशाल मैदान में पहुँच गए। वहीं एक छोटी-सी पहाड़ी है, जिसे तिड्री-समाधि-गिरि कहते हैं। यहाँ के गाँवों में सुमति के अनेक यजमान थे। सुमति कपड़ों की पतली-पतली चिरी हुई बत्तियों के गंडे यजमानों को बाँटते थे। लेखक ने सुमति को आस-पास के गाँवों में जाने से मना कर दिया और ल्हासा पहुँचकर उसे रुपये देने की बात कही।

सुमति ने स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन वे वहाँ से चल पड़े। सुमति के परिचित यजमान तिड्री में भी थे परंतु वे शंकर विहार की ओर चलने लगे। वहाँ के भिक्षु नम्से बहुत भद्र पुरुष थे। वहाँ के मंदिर में कन्जुर मुद्धवचन की हस्तलिखित एक सौ तीन, पोथियाँ थीं। एक-एक पोथी पंद्रह- चंद्रह सेर से कम नहीं थी। सुमति आस-पास के यजमानों से मिलने चला गया और लेखक पोथियाँ पढ़ने लगा। अंत में भिक्षु नमसे से विदा लेकर वे अपना-अपना सामान पीठ पर लादकर चल पड़े।

लेखक और सुमति कहाँ ठहरे थे?

उत्तर: भिखमंगे के वेश में भी लेखक थोङ्ला के पहले के आखिरी गाँव में पहुँचने पर इसलिए ठहरने का अच्छा स्थान पा गया क्योंकि उसके साथ सुमति थे। उस गाँव में सुमति के जानने वाले थे

लेखक की तिब्बत यात्रा के दौरान उसके साथ कौन था?

तिब्बत में इस मार्ग पर यात्रियों के लिए एक-जैसी व्यवस्थाएँ नहीं थीं। इसलिए वहाँ जान-पहचान के आधार पर ठहरने का उचित स्थान मिल जाता था। पहली बार लेखक के साथ बौद्ध भिक्षु सुमति थे।

लेखक तिब्बत के लङ्कोर मार्ग में अपने साथियों से क्यों पिछड़ गए?

लेखक लङ्कोर के मार्ग में अपने साथियों से किस कारण पिछड़ गया? लेखक का घोड़ा धीरे-धीरे चल रहा था। घोड़े के सुस्त पड़ने से लेखक अपने साथियों से बिछड़ गया और अकेले में रास्ता भूल गया। वह दूसरे रास्ते पर डेढ़-दो मील चलता गया और फिर वापस आकर दूसरे रास्ते पर गया।

लेखक ने अपनी पहली तिब्बत यात्रा किस देश में की थी और क्यों की थी?

राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पहली तिब्बत यात्रा सन 1929-30 में नेपाल के रास्ते की थी। उस समय भारतीय लोगों को तिब्बत की यात्रा करने की अनुमति नहीं थी, इसीलिए उन्होंने एक भिखमंगे का छद्म वेश धारण किया और नेपाल के रास्ते तिब्बत की यात्रा की।

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