गुहराज निषाद ने अपनी नाव में प्रभु श्रीराम को गंगा के उस पार उतारा था। आज गुहराज निषाद के वंशज और उनके समाज के लोग उनकी पूजा अर्चन करते हैं। चैत्र शुक्ल पंचमी को उनकी जयंती है। गुहराज निषाद ने पहले प्रभु श्रीराम के चरण धोए और फिर उन्होंने अपनी नाम में उन्हें सीता, लक्ष्मण सहित बैठाया।
पुरणों के अनुसार भगवान राम को गंगा पार कराने वाले केवट पूर्वजन्म में कछुआ थे और श्रीहरि के अनन्य भक्त थे। मोक्ष पाने की इच्छा से उन्होंने क्षीरसागर में भगवान विष्णु के चरण स्पर्श करने की कई बार कोशिशें की लेकिन असफल रहे।
अगले कई जन्मों तक भी यही सिलसिला चलता रहा लेकिन इस दौरान उन्होंने भगवान को पहचानने की दिव्य दृष्टि प्राप्त कर ली। त्रेतायुग में इसी कछुए ने केवट के रूप में जन्म लिया और फिर प्रभु श्रीराम जब वनवास गमन के समय गंगा पार करने के लिए गंगा किनारे खड़े हुए तो केवट ने उन्हें पहचान लिया।
निषादराज केवट का वर्णन रामायण के अयोध्याकांड में किया गया है। राम केवट को आवाज देते हैं- नाव किनारे ले आओ, पार जाना है।
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुं सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥
- श्री राम ने केवट से नाव मांगी, पर वह लाता नहीं है। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म जान लिया। तुम्हारे चरण कमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी है। वह कहता है कि पहले पांव धुलवाओ, फिर नाव पर चढ़ाऊंगा।
* छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥3॥
भावार्थ:-जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई (मेरी नाव तो काठ की है)। काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊँगा (अथवा रास्ता रुक जाएगा, जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जाएगी) (मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी)॥3॥
केवट ने भगवान से कहा कि मैंने सुना है आपके चरणों में ऐसा जादू है कि पत्थर भी मनुष्य बन जाता है। मेरी नाव तो लकड़ी की है और उसी से मेरा घर चलता है। अगर वह भी मनुष्य में बदल कर गायब हो गई तो मेरी रोजी-रोटी छिन जाएगी। अतः मैं पहले आपके पांव पखारकर यह देखूंगा कि कुछ होगा तो नहीं, फिर ही आपको गंगा पार कराऊंगा।
* एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥4॥
भावार्थ:-मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने (धो लेने) के लिए कह दो॥4॥
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कथा में की केवट प्रसंग की व्याख्या
श्रीसनातनधर्म सभा (पंजी.) अम्बाला छावनी के तत्वाधान में श्रीराम कथा ज्ञानयज्ञ के छठे दिन साध्वी करुणागिरी महाराज ने केवट प्रसंग की मार्मिक व्याख्या की।
उन्होंने कहा कि यह केवट का प्रभु राम के प्रति विशुद्ध प्रेम ही था कि वनवास के चौदह वर्ष की समाप्ति तक गंगा के किनारे बैठकर उनकी वापसी की प्रतीक्षा की। केवट पूर्व जन्म में क्षीरसागर में एक कछुआ था जो नारायण की चरण सेवा करना चाहता था परंतु लक्ष्मी जी और शेषनाग ने उसे चरण सेवा करने नहीं दी थी। आज लक्ष्मी सीता जी शेषनाग लक्ष्मण के रूप में उपस्थित हैं और उन्हें चिढ़ाते हुए केवट गंगा के किनारे प्रभु श्रीराम की चरण सेवा कर रहे हैं। केवट ने उतराई लिए बिना प्रभु श्रीराम को गंगा पार पहुंचाया परन्तु बदले में स्वयं को अपने परिजनों को और अपने पितरों के साथ-साथ आने वाली अपनी पीढ़ियों को भी भवसागर पार करवा दिया। केवट के यह कहने पर की प्रभु तुम्हारी और हमारी जाति एक ही है बस अंतर इतना है कि मैं लोगों को गंगा पार करवाता हूं और आप जीवात्माओं को भावसागर पार कराते हो। मैं गंगा सागर का केवट हूं और आप संसार सागर के केवट हो। नि:संदेह बनवासी केवट ने प्रभु राम की स्वर्ण मुद्रांक लौटकर यह संदेश दिया कि जब भक्त परमपद को पा लेता है तो वह संसार के माया बंधनों से मुक्त हो जाता है।
साध्वी करुणागिरी महाराज ने प्रभु राम के वन गमन का वर्णन करते हुए कहा कि तपस्वियों के वेश में प्रभु श्रीराम, माता सीता लक्ष्मण ऐसे प्रतीत होते हैं कि मानो बसंत ऋतु और कामदेव के बीच रति शोभित हो। प्रभु श्रीराम के लिए वनवास के दु:ख कष्टों का कोई महत्व नहीं। साधारण मनुष्य के लिए सुख दु:ख को कर्मों का फल बताया गया। कर्म के आधार पर सृष्टि है परंतु श्रीराम कर्मों से परे हैं। शेष जगत कर्म के बंधन में हैं। साध्वी ने प्रसंगवश अमृतवर्षा करते हुए कहा कि जगत में सत्य ही ईश्वर है और सत्य धर्म की मूल है। सत्य से बढ़कर दूसरी कोई गति नहीं। दान, यज्ञ, होम, तपस्या और वेद सभी का आश्रय भी सत्य ही है। सत्य पर आधारित धर्म कामधेनु के समान सभी अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला है। सत्य पर आधारित संतोष स्वर्ग का नन्दन कानन विद्या मोक्ष की जननी है जबकि तृष्णा वैतरणी नदी के समान नरक का द्वार है।
कैंट के सनातन धर्म मंदिर में कथा सुनते श्रद्धालु