केशव रीतिसिद्ध कवि थे या रीतिबद्ध - keshav reetisiddh kavi the ya reetibaddh

इनकी चर्चा साहित्य के इतिहासकारों ने भक्तिकाल के फुटकल कवियों में की है। किन्तु बिना केशवदास का श्रद्धापूर्वक स्मरण किए हिंदी रीति साहित्य की भूमिका का प्रारंभ कोई न कर सका। पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र लिखते हैं - “केशव की रचना में इनके तीन कूप दिखाई देते हैं - आचार्य का, महाकवि का और इतिहासकार का। ये परमार्थत: हिन्दी के प्रथम आचार्य हैं। .......... इन्होंने ही हिन्दी में संस्कृत की परंपरा की व्यवस्थापूर्वक स्थापना की थी।”' डॉ. भगीरथ मिश्र ने भी विश्वताथ जी के इस कथन का समर्थन किया है। आचार्य शुक्ल ने केशव की सहृदयता पर आक्षेप करते हुए इनकी कविता में दुरूहता और अस्पष्टता का सविस्तार उल्लेख किया है। डॉ. जगदीश गुप्त ने भी कहा है कि 'सुबरन” की खोज में तथा कवि छढ़ियों के निर्वाह में तललीन उनकी काव्य चेतना कवि-सुलभ रागात्मक तारतम्य और सहज सौंदर्य बोध से प्राय: वंचित रह गई है। इन्होंने मुक्तक और प्रबंध दोनों काव्य रूपों में अनेक काव्यों की रचना की - उदाहरण के रूप में रस (रसिकप्रिया), अलंकार (कविप्रिया) छंद और भक्ति (रामचंद्रिका, छंदमाला), वीर-प्रशस्तिकाव्य (वीर सिंह देवचरित, जहाँगीर जस चन्द्रिका, रतन बावनी), वैराग्य (विज्ञानगीता) आदि को लिया जा सकता है।

रीतिकालीन कविता के लिए एक विशेष मानसिक वातावरण के निर्माण में इनका योगदान मूल्यवान है यद्यपि इनमें सहृदयता और निर्मल शास्त्र ज्ञान का अभाव माना जाता है फिर भी, रीतिकालीन कविता की सभी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व केशव का साहित्य करता है। केशव की कविता में शास्त्रीय विवेचन की सामग्री मिलती है। 'कविप्रिया' और “रसिकंप्रिया' शास्त्रीय ग्रंध हैं। ये दोनों ग्रंथ रीतिकाल के आधारभूत लक्षण ग्रंध हैं। इन ग्रंथों की विषयवस्तु का विवेचन करना अनिवार्य होगा। 'रसिकप्रिया' में नायिका भेद का वर्णन है। कामजास्त्र के अनुसार, विभिन्‍न उम्र के अनुसार आदि कई प्रकारों से नायिका भेद का विवेचन किया गया है। अमीर और सामंत सुविधाभोगी दर्ग थे। सामंत अपनी हैसियत के अनुसार हरम में रानियों को रखते थे। रानी का मुख्य कार्य स्लामंत पति को रि्ाना होता था। शास्त्र ने नायिका भेद को रचकर उपयुक्त नारी पात्र को सामंत के सामने प्रस्तुत होने का विधान बनाया। नायिका भेद की रचना की उपयोगिता विशुद्ध भोग-विलास के लिए थी। उसका जन सामान्य से कोई सीधा तात्पर्य नहीं था। नायिका भेद का सूत्र श्रृंगारिक मनोभाव से जुड़ा हुआ था।

मोहिबो मोहन की गति को, गति ही पढ़े बैन कहाँ घौ पढ़ैगी।

ओप उरोजन की उपजै दिन काई मढ़ै अँगिया न मढ़ैगी।

नैनन की गति गूढ़ चलाचल केशवदास अकाश चढ़ैगी।

माई| कहाँ यह माइगी दीपति जो दिन है इहि भाँति बढ़ैगी।

2) मत्तिराम |

मतिराम रीतिकाल के विशिष्टांग (रस, अलंकार, छंद) - निरूपक आचार्यों में प्रमुख थे। इन्होंने भानुमिश्र के रस और नायिका भेद के लक्षणों का आधार लेकर 'रसराज” नामक प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ की रचना की। इन्होंने दोहों में लक्षण और सरस सवैयों - कवित्तों में उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इनका ग्रंथ 'ललितललाम'  प्रसिद्ध अलंकार - निरूपक ग्रंथ 'कुवलयानंद' के आधार पर निर्मित है। इसके उदाहरण - भाग में राजा ' भावसिंह हाड़ा की प्रशस्ति पाई जाती है। छंदो-निरूपक ग्रंथ छंदसार' शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। इनकी 'सतसई' में 703 दोहे हैं जिनमें पूर्व निर्मित ग्रंथों के भी दोहे संग्रहीत हैं। सतसई के अंत में आश्रयदाता भोगनाधथ की प्रश्नांसा की गई है। आचार्य शुक्ल ने लिखा है, “मतिराम की-सी स्निग्ध और प्रसादपूर्ण भाषा रीति का अनुसरण करने वालों में बहुत ही कम मिलती है। भाषा के ही समान मतिराम के न तो भाव कृत्रिम हैं और न उनके व्यंजक व्यापार और चेष्टाएँ ।'' वाघ्तव में इनकी प्रसिद्धि का मूल ! कारण इनके द्वारा दिए गए उदाहरणों की स्वाभाविक सरसता ही है। मतिराम के काव्य में स्वाभाविकता है। रीतिकाल के अन्य कवियों की तरह उन्होंने वैचित्य को अपने काव्य में स्थान नहीं दिया है। रीति काल की | परिपाटी का पालन करते हुए भी वे झूढ़ियों से मुक्त हैं। उनकी कविता में नामिका के रूप वर्णन अथवा | कार्य व्यापार के जो चित्र मिलते हैं, उसमें गृहस्थ जीवन की झलक मिलती है। नवविवाहिता नायिका के लज्जापूर्ण सौन्दर्य की मोहक छवि को इस पद में देखा जा सकता है-

गौने के चौस सिंगारन को मतिराम सहेलिन को गन आयो।

कंचन के बिछुआ पहिरावत प्यारी सखी परिहास जनायो।

पीतम सौन समीप सदा बज यो कहिके पहिले पहिरायो।

कामनि कौंल चलावन कौं कर ऊँचो कियो पै चल्यौ न चलायौ।।

3) भूषण

भूषण शिवाजी के समकालीन थे और उन्होंने शिवाजी तथा छत्रसाल दोनों का आश्नय ग्रहण किया। शिवराज भूषण, शिवा बामनी और छत्रसाल दशक इनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। रीतिकाल की सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य - प्रवृत्ति - श्रृंगारिकता की उपेक्षा करते हुए इन्होंने अपने प्रसिद्ध अलंकार-निरूपक ग्रंथ 'शिवराजभूषण” में वीर प्रशस्तिपरक उदाहरणों की रचना की है। इसमें 'मतिराम के ललितललाम' के 100 अलंकारों के अतिरिक्त 5 शब्दालंकारों का भी समावेश किया गया है। पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने सही संकेत किया है कि परंपरा के फेर में हिन्दी के कितने ही कवियों का सच्चा और उत्कृष्ट रूप निखरने नहीं पाया। अलंकारों के बोझ से वीर रस दब गया। .... भूषण के लक्षण कई स्थानों पर अस्पष्ट और भ्रामक हैं। .......... भूषण को काव्यरीति का अच्छा अभ्यास न था। (भूषण-आ.विश्वनाथ प्रसाद मिश्र) डॉ. महेन्द्र कुमार का मानता है कि भूषण के काव्य में वीर रस की व्यंजना के स्थान पर राजविषयक रति का ही परिपाक हुआ है क्योंकि “वाणी के ओज पर पूर्ण दृष्टि रहने के कारण सामान्य रूप से ये उन तत्त्वों का निर्वाह नहीं कर पाए जिनसे वीर-रस का परिपाक होता है - कर्म के प्रति आश्रय की ललक तथा अभीष्ट सिद्धि के लिए व्यापार शुंखला में उत्तरोत्तर आन॑दप्राप्ति की व्यंजना का अभाव इनकी अनुभाव योजना को शिधिल कर गया है।''

इनके दो मुक्तक ग्रंथ शिवाबावनी' और झत्रसाल दशक' में इनका कविरूप अधिक उभर सका है। वीर रस के साथ-साथ अद्भुत, भयानक, वीभत्स और रौद्र भी इसमें व्यंजित हुए हैं। इनके 'भूषण उल्लास', दूषण उल्लास” और “भूषण हजारा” भी यदि उपलब्ध हो जाते तो इन्हें संभवत: आचार्य के रूप में प्रतिष्ठा मिल सकती थी। भूषण की सभी रचनाएँ मुक्तक हैं। इनकी साहित्यिक भाषा ब्रज है। रीतिकार के रूप में चाहे इन्हें सफलता न मिली हो परन्तु कवित्व की दृष्टि से इनका प्रमुख स्थान है।

'भूषण' वास्तव में इनका नाम नहीं बल्कि उपाधि है जो इन्हें चित्रकूट के नरेश सोलंकी हृदयराम के पुत्र रुद्र ने प्रदान की थी। भूषण की कविता में ओज है। वे वीर रस के कवि थे। ओज वीर रस की कविता का स्थायी भाव है। ओज ने उनकी कविता में आवेग को भरा। यह आवेग उन्हें स्तामाजिक जीवन से मिला था। सामाजिक जीवन की परिस्थिति की माँग युद्ध और आक्रमण था। युद्ध और आक्रमण की कविता के लिए जिस प्रकार से भाव का संगठन काव्य में होना चाहिए उसी प्रकार का भाव भूषण की कविता में मिलता है। भूषण के छंद में आवेग और अनुभूति की एकता है।

इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर

     रावन सदंभ पर रघुकुल राज हैं।

पौन बारिवाह पर संभु रतिनाह पर,

     ज्यों सहसाबाहु पर राम द्विजराज हैं।।

दावा द्वुम॒दंड पर चीता मृगझुंड पर,

     भूषण बितंड पर जैसे मृगराज हैं। '

तेज तम अंस पर कान्ह जिमि कंस पर,

     ज्यों मलेच्छ बंस पर सेर, सिवराज हैं।।

4) देव

रीतिकालीन सर्वांगनिरूपक आचार्यों में देव का स्थान महत्वपूर्ण है। बिहारी या भूषण की तरह इन्हें कोई ऐसा आश्रयदाता न मिल सका जो इन्हें पूर्णतः संतुष्ट कर सकता। अत: जीवनभर इन्हें अनेक छोटे बड़े दरवारों के चक्कर लगाने पड़े। संभवत: यही कारण है कि उन्हें अपने पुराने छंदों में कुछ नए जोड़ कर अनेक ग्रंथों का निर्माण करना पड़ा। इनके ग्रंथों की संख्या 72 बताई गई है पर अभी तक 25 ग्रंथ ही उपलब्ध हुए हैं। इनमें से हिंदी साहित्य के वृहत इतिहास” में केवल 18 ग्रंथों का उल्लेख है। प्रेमचंद्रिका, रागरत्नाकर, देवशतक, देवचरित्र और देवमायाप्रपंच को छोड़कर शेष काव्य शास्त्रीय हैं। इनके विवरणों में न जाकर सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद्रिका' में वासना रहित प्रेम का महत्त्व प्रतिपादित है। इस कृति में प्रेमस्वरूप, प्रेममहात्म्य आदि विषयों को ललित शैली में वर्णित किया गया है। 'रागरत्नाकर' में संगीत विषयक चर्चा है। देव शतक अंतिम दिनों की रचना होने के कारण वैराग्य परक है। इसमें कवि ने दार्शनिक भावनाओं को पूर्ण अनुभूति के साथ अंकित किया है। दिवचरित्र” श्रीकृष्ण के चरित्र पर आधारित प्रबंध काव्य है। दिवमाया प्रपंच' संस्कृत के 'प्रबोधचंद्रोदय” का पद्यममय अनुवाद है। काव्य शास्त्रीय ग्रंथों में भावविलास रस, नायिका भेद और अलंकार निरूपक ग्रंथ है। शब्दरसायन' में काव्यांगों की चर्चा है। 'सुखसागर तंरग' भी काव्यांगों पर लिखित उदाहरणों का संग्रह है। 'अष्टयाम' अपने नाम से ही वर्ण्यवस्तु का संकेत देता है। इन्होंने श्रृंगार को मूल रस के रूप में प्रतिष्ठित किया है आचार्य शुक्ल ने ज्ुटिपूर्ण भाषा होने पर भी भाव - निर्वाह में इन्हें सफल माना है। यद्यपि इन्होंने ज्ञान-वैराग्य और भक्ति विषयक काव्य रचना भी की है पर सफलता इन्हें श्ृंगारिक रचनाओं में ही मिली। डॉजगदीश गुप्त का मत है कि देव भी कवित्वप्रधान आचार्यत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्होंने भाषा के सौष्ठव, समृद्धि और अलंकरण पर विशेष ध्यान दिया है। देव आचार्य और कवि थे। देव के काव्य में मानव भनोभाव का अत्यंत सूक्ष्मतापूर्वक विश्लेषण किया गया है। मनोभाव का सजीव चित्र उनके काव्य में मिलता है। प्रेम भाव में मन:स्थिति की चंचलता का बड़ा ही रमणीय चित्र इस पद में प्रस्तुत हुआ है।

मूरति जो मनमोहन की मनमोहिनी के थिर हवै थिरकी सी।

देव मोपाल को बोल सुने रूतियाँ सियराति सुधा छिरकी सी |

नीके झरोखे हवै झाँकि सके नहिं नैनहिं लाज घटा, घिरकी सी |

पूरन प्रीति हियै हिरकी खिरकी खिरकीन फिरे फिरकी सी।।

5) भिखारीदास

इन्हें सर्वाग-निरूपक आचार्यों में प्रमुख माना जाता है। इनके द्वारा रचित 'रस सारांश' में रस और रसांगों का तथा 'मुंगार मिर्णय' में श्रृंगार के आलंबन नायक-नायिका के भेदों का वर्णन भानुदत्त की 'रसमंजरी' और 'रसतरंगिणी” के आधार पर किया मया है। काब्य निर्णय' में मम्मट, विश्वनाथ, जयदेव और अप्पय दीक्षित आदि के ग्रंथों को आधार बनाया गया है। इसमें रस, अलंकार, गुण, दोष और ध्वनि का विवेचन किया गया है। इनका काव्य उत्कृष्ट और ललित है। भाव पक्ष और कलापक्ष का सुन्दर सामंजस्य इनके कवि कर्म की उत्कृष्टता को प्रमाणित करते हैं, पर आचार्य कर्म में इन्हें पर्याप्त सफलता नहीं मिली। अलंकारों के वर्गीकरण और तुकों के विवेचन में इनकी मौलिकता झलकती है। 'छंदार्णव पिंगल' में संस्कृत-प्राकृत हिन्दी ग्रंथों से सहायता ली गई है। इन्होंने नीतिपरक सुन्दर सूक्तियों की भी रचना की है।

रीतिकाव्य में भिखारीदास का महत्त्व कवि और आचार्य दोनों रूपों में है। अलंकार विवेचन के क्रम मे उन्होंने अलंकारों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया। नायिका भेद पर उन्होंने नई दृष्टि से विचार किया। छंद विवेचन में भी कवि ने मौलिक सूझबूझ का परिचय दिया है। छंद के संदर्भ में इन्होंने प्राकृत और संस्कृत काव्यों का अध्ययन किया। इन्होंने अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष दिया कि तुक का प्रारंभ अपभ्रंश काव्य से होता है। काव्यांग के निरूपण में भी भिखारीदास का महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने छंद, रस, अलंकार, रीति, गुण, दोष, शब्द-शक्ति आदि सब विषयों पर गहराई से विश्लेषण किया है। काव्यांग विवेचन के क्रम में इन्होंने बड़े मनोहर उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। भावों की स्वाभाविकता के साथ कलात्मकता का संयोग निम्नलिखित पद में देखा जा सकता है।

नैननि को तरसैये कहाँ लौं कहाँ हियो बिरहागि में तैये।

एक घरी न कहूँ कल पैयै कहाँ लगि प्रानन को कल पैये।

आवै यही अब जी मै विचार सख्रि चलि सौतिन के गृह जैये।

मान घटे ते कहा घटिहै जु पै प्रान पियारे को देखन पैये।

6) पदमाकर

कवि पद्माकर रीतिकाल के विशिष्टांग निरूपक आचार्य के रूप में जाने जाते हैं। जयपुर नरेश जगतसिंह के आश्रय में इन्होंने 'जगद्गिनोद”' नामक नवरस-निरूपक ग्रंथ की रचना की। मतिराम जी के 'रसराज' के समान पद्माकर जी का जगद्विनोद' भी काव्यरसिकों और अभ्यासियों दोनों का कंठहार रहा है। इन्होंने 'हिम्मतबहादुर विरदावली” नाम की वीर रस की एक बहुत ही फड़कती हुई पुस्तक लिखी। डॉ. बच्चन सिंह ने इनके रीतिकाव्य-ग्रंथों की सराहना की है पर प्रशस्तिपरक और भक्तिपरक काव्य को 'काव्याभास” माना है, क्योंकि इनमें काव्य-ढूढ़ियों का निर्वाह अधिक है। किंतु शुक्लजी ने समग्रत: पद्माकर की नूतन कल्पना, दृश्य-चित्रण और भाषा की अनेक रूपता की प्रशंसा की है। 'गंगालहरी' और 'प्रवोधपचासा' काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से सामान्य हैं। गंगालहरी में कवि ने गंगा का अलंकारों से अद्वितीय अलंकरण किया है। इन ग्रंथों की रचना कवि ने अपने अंतिम दिनों में कानपुर में गंगा के तट पर की थी, अत: इनमें चमत्कार की अपेक्षा भक्ति और ज्ञान-वैराग्य की भावना प्रमुख है। इनका अलंकार ग्रंथ 'धद्माभरण' लक्षणों की स्पष्टता और उदाहरणों की सरसता के कारण अधिक प्रसिद्ध हुआ । इन्होंने मुक्तक तथा प्रबंध दोनों शैलियों में रचना की। इनकी भाषा में प्रवाहमयता है तथा वह सरस एवं व्याकरण सम्मत है।

पद्माकर की कविता में मुख्य रूप से उल्लास और आनंद का वर्णन है। श्रृंगारिक भाव की व्यजंना में उन्मुक्तता और खुलापन है। ब्रजमंडल में फाग के दृश्य का अद्भुत वर्णन उन्होंने किया है। फाग पर उनकी एक प्रसिद्ध कविता है :

रीतिबद्ध के कवि कौन थे?

रीतिबद्ध काव्यधारा में केशवदास, चिंतामणि त्रिपाठी, कुलपति मिश्र, देव, भिखारीदास, पद्माकर और मतिराम आदि महत्वपूर्ण कवियों को रखा जा सकता है।

रीतिसिद्ध काव्य धारा के कवि कौन हैं?

बिहारी, बेनी वाजपेयी, कृष्णकवि, रसनिधि, नृप शंभुनाथ सिंह सोलंकी, नेवाज, हठी जी, रामसहाय दास 'भगत', पजनेस, द्विजदेव, सेनापति, वृंद तथा विक्रमादित्य आदि रीतिसिद्ध कवि हैं

रीतिमुक्त कवि का नाम क्या है?

रीतिमुक्त कवि : इसके अंतर्गत शेख आलम, घनानंद, बोधा, ठाकुर एवं द्विजदेव आते हैं।

बिहारी को रीतिसिद्ध कवि क्यों कहा जाता है?

हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में बिहारी जी रीतिसिद्ध कवि के रूप में जाने जाते है। ये रीतिकाल के प्रतिनिधी कवि है । वे अपनी कविता में प्रेम चिन्नण के क्रम में दरबारी जरूरतों से रूबरू होते है । दरबारी संस्कृति ने उनके प्रेम को सुखवादी स्वरूप प्रदान किया है।

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