भारतीय न्यायपालिका का ढाँचा किस प्रकार पिरामिड के आकार की भाँति है?

भारतीय न्यायपालिका

Service Overviewपूर्व नामFoundedदेशप्रशिक्षण संस्थानControlling authorityLegal personalityकर्तव्यHierarchy of Courts in IndiaPost DesignationCadre strengthSelection / AppointmentAssociationsHead of JudiciaryChief Justice of India

Motto: यतो धर्मस्ततो जयः॥
जहाँ धर्म है वहाँ विजय है।

Federal Judiciary
Mayor's Court, Madras (1726)
 
India
1. राष्ट्रीय न्याय अकादमी (भोपाल)[1]
2. State Judicial Academy
सर्वोच्च न्यायालय
भारत के उच्च न्यायालय
न्यायपालिका
Justice Administration
Public Interest Litigation
Guardian of the Constitution
1.Supreme Court
2.High Court
3.Subordinate Courts - Civil & Criminal
4.Executive /Revenue Court
Justice
Judge
Magistrate - Judicial & Executive
23,790 Judges strength (34 in Supreme Court, 1079 for High Court, 22677 for Subordinate Court)
1. President of India for SC & HC Judges (as per the recommendations of Collegium)
2. Governor for Subordinate Judiciary (after passing the Judicial Service Exam)
All India Judges Association[2]
Justice Nuthalapati Venkata Ramana (48th CJI)

भारतीय न्यायपालिका (Indian Judiciary) आम कानून (कॉमन लॉ) पर आधारित प्रणाली है। यह प्रणाली अंग्रेजों ने औपनिवेशिक शासन के समय बनाई थी। इस प्रणाली को 'आम कानून व्यवस्था' के नाम से जाना जाता है जिसमें न्यायाधीश अपने फैसलों, आदेशों और निर्णयों से कानून का विकास करते हैं।

15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र होने के बाद २६ जनवरी १९५० से भारतीय संविधान लागू हुआ। इस संविधान के माध्यम से ब्रिटिश न्यायिक समिति के स्थान पर नयी न्यायिक संरचना का गठन हुआ था। इसके अनुसार, भारत में कई स्तर के तथा विभिन्न प्रकार के न्यायालय हैं। भारत का शीर्ष न्यायालय नई दिल्ली स्थित सर्वोच्च न्यायालय है जिसके मुख्य न्यायधीश की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। नीचे विभिन्न राज्यों में उच्च न्यायालय हैं। उच्च न्यायालय के नीचे जिला न्यायालय और उसके अधीनस्थ न्यायालय हैं जिन्हें 'निचली अदालत' कहा जाता है।

भारत मे चार महानगरों में अलग अलग उच्चतम न्यायालय बनाने पर विचार किया जा रहा है क्योंकि दिल्ली देश के अनेक भौगोलिक भागों से बहुत दूर है तथा उच्चतम न्यायालय में कार्य का भार ज्यादा है।

सर्वोच्च न्यायालय[संपादित करें]

भारत की स्वतंत्र न्यायपालिका का शीर्ष सर्वोच्च न्यायालय है, जिसका प्रधान प्रधान न्यायाधीश होता है। सर्वोच्च न्यायालय को अपने नये मामलों तथा उच्च न्यायालयों के विवादों, दोनो को देखने का अधिकार है। भारत में 25 उच्च न्यायालय हैं, जिनके अधिकार और उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा सीमित हैं। न्यायपालिका और व्यवस्थापिका के परस्पर मतभेद या विवाद का सुलह राष्ट्रपति करता है।

राज्य न्यायपालिका[संपादित करें]

उच्च न्यायालय[संपादित करें]

उच्च न्यायालय राज्य के न्यायिक प्रशासन का एक प्रमुख होता है। भारत में 25 उच्च न्यायालय हैं जिनमें से तीन के कार्यक्षेत्र एक राज्य से ज्यादा हैं। दिल्ली एकमात्र ऐसा केंद्रशासित प्रदेश है जिसके पास उच्च न्यायालय है। अन्य सात केंद्र शासित प्रदेश विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों के तहत आते हैं। हर उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और कई न्यायाधीश होते हैं। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश और संबंधित राज्य के राज्यपाल की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। उच्च न्यायालयों के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्त प्रक्रिया वही है सिवा इस बात के कि न्यायाधीशों के नियुक्ति की सिफारिश संबद्ध उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश करते हैं। उच्च न्यायालयों के न्यायधीश 62 वर्ष की उम्र तक अपने पद पर रहते हैं। न्यायाधीश बनने की अर्हता यह है कि उसे भारत का नागरिक होना चाहिए, देश में किसी न्यायिक पद पर दस वर्ष का अनुभव होना चाहिए या वह किसी उच्च न्यायालय या इस श्रेणी की दो अदालतों में इतने समय तक वकील के रूप में प्रैक्टिस कर चुका हो।

प्रत्येक उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के लिए या किसी अन्य उद्देश्य से अपने कार्यक्षेत्र के अंतर्गत किसी व्यक्ति या किसी प्राधिकार या सरकार के लिए निर्देश, आदेश या रिट जारी करने का अधिकार है। यह रिट बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण के रूप में भी हो सकता है। कोई भी उच्च न्यायालय अपने इस अधिकार का उपयोग उस मामले या घटना में भी कर सकता है जो उसके कार्यक्षेत्र में घटित हुई हो, लेकिन उसमें संलिप्त व्यक्ति या सरकारी प्राधिकरण उस क्षेत्र के बाहर के हों। प्रत्येक उच्च न्यायालय को अपने कार्यक्षेत्र की सभी अधीनस्थ अदालतों के अधीक्षण का अधिकार है। यह अधीनस्थ अदालतों से जवाब तलब कर सकता है और सामान्य कानून बनाने तथा अदालती कार्यवाही के लिए प्रारूप तय करने और मुकदमों और लेखा प्रविष्टियों के तौर-तरीके के बारे में निर्देश जारी कर सकता है।

विभिन्न उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों और अतिरिक्त न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 678 है लेकिन 26 जून 2006 की स्थिति के अनुसार इनमें से 587 न्यायाधीश अपने-अपने पद पर कार्यरत थे।

उच्च न्यायालयों के कार्यक्षेत्र और स्थान नामस्थापना वर्षप्रदेशीय-कार्यक्षेत्रस्थान
इलाहाबाद 1866 उत्तर प्रदेश इलाहाबाद (लखनऊ में न्यायपीठ)
आंध्र प्रदेश 1954 आंध्र प्रदेश अमरावती
मुंबई 1862 महाराष्ट्र, गोवा, दादरा और नगर हवेली, दमन और दीव मुंबई (पीठ-नागपुर, पणजी और औरंगाबाद)
कोलकाता 1862 पश्चिम बंगाल कोलकाता (सर्किट बेंच पोर्ट ब्लेयर)
छत्तीसगढ़ 2000 छत्तीसगढ़ बिलासपुर
दिल्ली 1966 दिल्ली दिल्ली
गुवाहाटी* 1948 असम, मणिपुर, और अरुणाचल प्रदेश मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, मिजोरम गुवाहाटी (पीठ- कोहिमा, इंफाल, आइजॉल, अगरतला, शिलांग और इटानगर)
गुजरात 1960 गुजरात अहमदाबाद
हिमाचल प्रदेश 1971 हिमाचल प्रदेश शिमला
जम्मू और कश्मीर 1928 जम्मू और कश्मीर श्रीनगर और जम्मू
झारखंड 2000 झारखंड रांची
कर्नाटक** 1884 कर्नाटक बंगलौर
केरल 1958 केरल एर्नाकुलम
मध्य प्रदेश 1956 मध्य प्रदेश जबलपुर (पीठ- ग्वालियर और इंदौर)
मद्रास 1862 तमिलनाडु और पांडिचेरी चेन्नई (पीठ- मदुरै)
उड़ीसा 1948 उड़ीसा कटक
पटना 1916 बिहार पटना
पंजाब और हरियाणा 1966 पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ चंडीगढ़
राजस्थान 1949 राजस्थान जोधपुर (पीठ- जयपुर)
सिक्किम 1975 सिक्किम गंगटोक
उत्तराखंड 2000 उत्तराखंड नैनीताल
* पहले के असम उच्च न्यायालय का नाम वर्ष 1971 में बदलकर गुवाहाटी उच्च न्यायालय किया गया।** मूल नाम मैसूर उच्च न्यायालय, वर्ष 1972 में नाम बदलकर कर्नाटक उच्च न्यायालय किया गया।*** पंजाब उच्च न्यायालय का नाम वर्ष 1966 में बदलकर पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय किया गया।


राज्य न्यायपालिका में तीन प्रकार की पीठें होती हैं-

एकल जिसके निर्णय को उच्च न्यायालय की डिवीजनल/खंडपीठ/सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है

खंड पीठ 2 या 3 जजों के मेल से बनी होती है जिसके निर्णय केवल उच्चतम न्यायालय में चुनौती पा सकते हैं

संवैधानिक/फुल बेंच सभी संवैधानिक व्याख्या से संबधित वाद इस प्रकार की पीठ सुनती है इसमे कम से कम पाँच जज होते हैं

अधीनस्थ न्यायालय या निचली अदालतें[संपादित करें]

देश भर में निचली अदालतों का कामकाज और उसका ढांचा लगभग एक जैसा है। इन अदालतों का दर्जा इनके कामकाज को निर्धारत करता है। ये अदालतें अपने अधिकारों के आधार पर सभी प्रकार के दीवानी और आपराधिक मामलों का निपटारा करती हैं। ये अदालतें नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 और अपराध प्रक्रिया संहिता, 1973 के आधार पर कार्य करती है। अदालतों को इन संहिताओं में उल्लिखित प्रक्रियाओं के आधार पर निर्णय लेना होता है। इन्हें स्थानीय कानूनों का भी ध्यान रखना होता है।

ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन के मामले डब्ल्यू.पी (सिविल) 1022/1989 में उच्चतम न्यायालय द्वारा किए गए निर्देश के अनुसार देश भर में निचली अदालतों में न्यायिक अधिकारियों के पदों में एकरूपता रखी गई है। सीआर.पीसी के तहत, दीवानी मामलों के लिए जिला एवं अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, सिविल जज (सीनियर डिविजन) और सिविल जज (जूनियर डिविजन) होते हैं जबकि आपराधिक मामलों के लिए सत्र न्यायाधीश, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, न्यायिक मजिस्ट्रेट आदि होते हैं। अगर आवश्यक हो तो सभी राज्य सरकारों/केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन इन श्रेणियों के समान श्रेणियों के माध्यम से वर्तमान पदों में कोई उपयुक्त नियोजन कर सकते हैं।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 235 के अनुसार, अधीनस्थ न्यायिक सेवाओं के सदस्यों पर प्रशासनिक नियंत्रण उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आता है। अनुच्छेद 233 और 234 के साथ अनुच्छदे 309 के प्रावधानों के तहत, प्रदत अधिकारों के संदर्भ में, राज्य सरकारें उच्च न्यायालय के साथ परामर्श के बाद इन राज्यों के लिए नियम और विनियम बनाएगी। राज्य न्यायिक सेवाओं के सदस्य इन नियमों और विनियमों द्वारा शासित होंगे।

इस स्तर पर सिविल आपराधिक मामलों की सुनवाई अलग अलग होती है इस स्तर पर सिविल तथा सेशन कोर्ट अलग अलग होते है इस स्तर के जज सामान्य भर्ती परीक्षा के आधार पर भर्ती होते है उनकी नियुक्ति राज्यपाल राज्य मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर करता है।

फास्ट ट्रेक कोर्ट – ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनका गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया है
ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनका गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया है
इसके पीछे कारण यह था कि वाद लम्बा चलने से न्याय की क्षति होती है तथा न्याय की निरोधक शक्ति कम पड जाती है जेल में भीड बढ जाती है 10 वे वित्त आयोग की सलाह पर केद्र सरकार ने राज्य सरकारों को 1 अप्रैल 2001 से 1734 फास्ट ट्रेक कोर्ट गठित करने का आदेश दिया अतिरिक्त सेशन जज याँ उंचे पद से सेवानिवृत जज इस प्रकार के कोर्टो में जज होता है इस प्रकार के कोर्टो में वाद लंबित करना संभव नहीं होता हैहर वाद को निर्धारित स्मय में निपटाना होता है

आलोचना

1. निर्धारित संख्या में गठन नहीं हुआ।

2. वादों का निर्णय संक्षिप्त ढँग से होता है जिसमें अभियुक्त को रक्षा करने का पूरा मौका नहीं मिलता है।

3. न्यायधीशों हेतु कोई सेवा नियम नहीं है।

ट्रिब्यूनल[संपादित करें]

सामान्य तौर पर ट्रिब्यूनल एक व्यक्ति या संस्था को कहा जाता है, जिसके पास न्यायिक काम करने का अधिकार हो चाहे फिर उसे शीर्षक में ट्रिब्यूनल ना भी कहा जाए। उदाहरण के लिए, एक न्यायाधीश वाली अदालत में भी हाजिर होने पर वकील उस जज को ट्रिब्यूनल ही कहेगा।

8 अक्टूबर 2012 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर अपलोड की गई अधिसूचना के मुताबिक 19 ट्रिब्यूनल हैंः

  • बिजली के लिए अपीलीय ट्रिब्यूनल
  • सशस्त्र सेना ट्रिब्यूनल
  • केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग
  • केंद्रीय प्रशासनिक आयोग
  • कंपनी लाॅ बोर्ड
  • भारत का प्रतिस्पर्धा आयोग
  • प्रतियोगिता अपीलीय ट्रिब्यूनल
  • काॅपीराइट बोर्ड
  • सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क और सेवा अपीलीय ट्रिब्यूनल
  • साइबर अपीलीय ट्रिब्यूनल
  • कर्मचारी भविष्य निधि अपीलीय ट्रिब्यूनल
  • आयकर अपीलीय ट्रिब्यूनल
  • बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण
  • बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड
  • नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल
  • भारत का प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड
  • टेलीकाॅम निपटान और अपीलीय ट्रिब्यूनल
  • दूरसंचार नियामक प्राधिकरण

न्यायाधीशों की नियुक्ति[संपादित करें]

भारत के संविधान में सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय में न्यायधीशों की नियुक्ति को लेकर नियम बनाए गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश की सलाह से होती है। उनकी नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठ जजों के समूह के तहत होती है। उसी तरह हाई कोर्ट के लिए राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश, उस राज्य के राज्यपाल और उस हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर नियुक्ति करता है। जज बनने के लिए किसी व्यक्ति की पात्रता यह है कि उसे भारत का नागरिक होना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट का जज बनने के लिए उसका पांच साल अधिवक्ता के तौर पर या किसी हाई कोर्ट में जज के तौर पर दस साल कार्य किया होना आवश्यक है। हाई कोर्ट जज के लिए जरुरी है कि उस व्यक्ति ने किसी हाई कोर्ट में कम से कम दस साल अधिवक्ता के तौर पर कार्य किया हो।

किसी जज को उसके पद से कदाचार के आधार पर राष्ट्रपति के आदेश पर हटाया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायधीश को केवल तब ही हटाया जा सकता है जब नोटिस पर 50 राज्यसभा या 100 लोकसभा सदस्यों के हस्ताक्षर हों।

लोक अदालत[संपादित करें]

लोक अदालतें नियमित कोर्ट से अलग होती हैं। पदेन या सेवानिवृत जज तथा दो सदस्य एक सामाजिक कार्यकता, एक वकील इसके सदस्य होते है सुनवाई केवल तभी करती है जब दोनों पक्ष इसकी स्वीकृति देते हों। ये बीमा दावों क्षतिपूर्ति के रूप वाले वादों को निपता देती है
इनके पास वैधानिक दर्जा होता है वकील पक्ष नहीं प्रस्तुत करते हैं

इनके लाभ

1. न्यायालय शुल्क नहीं लगते
2. यहाँ प्रक्रिया संहिता/साक्ष्य एक्ट नहीं लागू होते
3. दोनों पक्ष न्यायधीश से सीधे बात कर समझौते पर पहुचँ जाते है
4. इनके निर्णय के खिलाफ अपील नहीं ला सकते है

आलोचना

1. ये नियमित अंतराल से काम नहीं करती है
2. जब कभी काम पे आती है तो बिना सुनवाई के बडी मात्रा में मामले निपटा देती है
3. जनता लोक अदालतों की उपस्थिति तथा लाभों के प्रति जागरूक नहीं है।

ई-न्यायालय[संपादित करें]

न्यायपालिका का भारतीयकरण[संपादित करें]

बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध तक गुलाम रहे देशों में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जो अपनी आजादी के लगभग साढ़े छह दशक बीत जाने के बाद भी भाषायी लिहाज से किसी भी मौजूदा गुलाम देश से ज्यादा गुलाम बना हुआ है। देश में राजकाज की व्यवस्था ही नहीं, बल्कि न्याय व्यवस्था भी भाषायी गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी हुई है। सितम्बर २०२१ में भारत के मुख्य न्यायधीश ने स्वयं कहा कि भारतीय न्यायव्यवस्था के भारतीयकरण की महती आवश्यकता है।[3]

प्रशन केवल भारतीय अदालतों को भाषायी गुलामी से मुक्त कराने का ही नहीं है, बल्कि समूची न्याय व्यवस्था के भारतीयकरण करने का भी है। हमारे यहां की छोटी-बड़ी सभी अदालतों में करीब साढ़े तीन करोड़ मुकदमे लटके हुए हैं। एक-एक मुकदमे को निपटाने में दस-दस, पंद्रह-पंद्रह साल लग जाते हैं। इसका मुख्य कारण है वही अंगरेजी का एकाधिकार। हमारे सारे कानून अंगरेजी में और अंगरेजी राज की जरूरतों के मुताबिक बने हुए हैं। अपने नागरिकों को वास्तविक अर्थों में न्याय दिलाने के लिए इस समूची न्याय व्यवस्था का भारतीयकरण किया जाना बहुत जरूरी है। ऐसा करने से न्याय व्यवस्था न सिर्फ सस्ती होगी, बल्कि मुकदमे भी जल्दी निपटेंगे और लोगों की न्याय व्यवस्था के प्रति आस्था भी मजबूत होगी।

यदि हमारी न्यायपालिका से अंगरेजी की बिदाई हो जाती है तो फिर राजकाज और संसद से भी उसकी रुखसती में ज्यादा समय नहीं लगेगा।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • न्यायपालिका
  • सर्वोच्च न्यायालय
  • महान्यायवादी (भारत)
  • महाधिवक्ता
  • उच्च न्यायालय
  • भारतीय न्यायपालिका में भ्रष्टाचार

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • संघ की न्यायपालिका
  • भारत की न्यायपालिका
  • न्यायपालिका
  • जजों की नियुक्ति एक भ्रमजाल …!!
  • भारतीय न्यायिक प्रणाली की पांच बड़ी समस्याएं
  • दण्ड न्यायालय के दंड देने की शक्तियां और पद
  • हमारी कानूनी प्रणाली का भारतीयकरण समय की आवश्यकता है: मुख्य न्यायधीश एनवी रामन

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "National Judicial Academy". 24 मार्च 2020. मूल से 5 दिसंबर 2003 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 मार्च 2020.
  2. "AIJA website".
  3. हमारी कानूनी प्रणाली का भारतीयकरण किया जाना समय की जरूरत : मुख्य न्यायधीश वेंकटरमण

न्यायपालिका का गठन कैसे होता है?

जहाँ धर्म है वहाँ विजय है। 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र होने के बाद २६ जनवरी १९५० से भारतीय संविधान लागू हुआ। इस संविधान के माध्यम से ब्रिटिश न्यायिक समिति के स्थान पर नयी न्यायिक संरचना का गठन हुआ था। इसके अनुसार, भारत में कई स्तर के तथा विभिन्न प्रकार के न्यायालय हैं।

न्यायपालिका का गठन कौन करता है?

मंत्रिमंडल, राज्यपाल, मुख्यमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश - ये सभी न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में वर्षों से परंपरा बन गई है कि सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को इस पद पर नियुक्त किया जाएगा। लेकिन इस परंपरा को दो बार तोड़ा भी गया है।

न्यायपालिका से आप क्या समझते हैं भारत में न्यायपालिका की भूमिका को समझाइए?

इसी विवाद को निष्पक्ष रूप से सुलझाने के लिए न्यायपालिका की स्थापना की गई है। जो इस प्रकार के विवादों की जांच कर दोषी को सजा देने का कार्य करती है और साथ ही साथ विधायिका द्वारा या संसद द्वारा बनाये गये नियमों की जांच एवं कार्यपालिका द्वारा किये गये कार्यों की जांच भी निष्पक्ष रूप से करती है।

न्यायपालिका के कितने प्रकार है?

न्यायपालिका कितने प्रकार के होते हैं? Solution : भारत में न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है जिसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला और अधीनस्थ न्यायालय है। (नीचे चित्र में देखें) नीचे के न्यायालय अपने ऊपर के न्यायालयों की देखरेख में काम करते हैं।

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